रविवार, 16 मई 2021

सांख्य

 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।

बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।

हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।

अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एक मार्ग को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।

सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।

पर कृष्ण ने क्यों सांख्य की ही पहले बात कर ली! सांख्य की इसलिए पहले बात कर ली कि अगर सांख्य काम में आ जाए, तो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सके, तो ही फिर कोई और आवश्यकता है।

जापान में झेन साधना की एक पद्धति है। आज पश्चिम में झेन का बहुत प्रभाव है। आज का जो भी विचारशील वर्ग है जगत का, पूरे जगत की इंटेलिजेंसिया, वह झेन में उत्सुक है। और झेन सांख्य का ही एक रूप है।

सांख्य का कहना यही है कि जानना ही काफी है, करना कुछ भी नहीं है; नालेज इज़ इनफ, जानना पर्याप्त है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन है, वह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं है, जिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह है, जिसे मिटाना है। न ही कोई जगह है, जिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूं? जानना है कि जो चारों तरफ फैला है, वह क्या है? सिर्फ अंडरस्टैंडिंग, सिर्फ जानना।

जैसे एक आदमी दुख में पड़ा है, हम उससे कहें कि केवल जान लेना है कि दुख क्या है और तू बाहर हो जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं भलीभांति हूं कि दुख है। जानने से कुछ नहीं होता; मुझे इलाज चाहिए, औषधि चाहिए। कुछ करो कि मेरा दुख चला जाए।

एक आदमी, जो वस्तुतः चिंतित और परेशान है, विक्षिप्त है, पागल है, उससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं काफी हूं; जानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है।

कृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले सांख्य की दृष्टि कही, क्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई जरूरत नहीं है। न काम में आए, तो फिर किसी और बात के कहने की जरूरत पड़ सकती है।

सुकरात का बहुत ही कीमती वचन है, जिसमें उसने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही सदगुण है। वह कहता था, जान लेना ही ठीक हो जाना है। उससे लोग पूछते थे कि हम भलीभांति जानते हैं कि चोरी बुरी है, लेकिन चोरी छूटती नहीं! तो सुकरात कहता, तुम जानते ही नहीं कि चोरी क्या है। अगर तुम जान लो कि चोरी क्या है, तो छोड़ने के लिए कुछ भी न करना होगा।

हम जानते हैं, क्रोध बुरा है; हम जानते हैं, भय बुरा है; हम जानते हैं, काम बुरा है, वासना बुरी है, लोभ बुरा है, मद-मत्सर सब बुरा है; सब जानते हैं। सांख्य या सुकरात या कृष्णमूर्ति, वे सब कहेंगे: नहीं, जानते नहीं हो। सुना है कि क्रोध बुरा है, जाना नहीं है। किसी और ने कहा है कि क्रोध बुरा है, स्वयं जाना नहीं है। और जानना कभी भी उधार और बारोड नहीं होता। जानना सदा स्वयं का होता है। फर्क है दोनों बातों में।

एक बच्चे ने सुना है कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, और एक बच्चे ने आग में हाथ डालकर देखा है कि हाथ जल जाता है। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों के वाक्य एक से हैं। जिसने सिर्फ सुना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है। और जिसने आग में हाथ डालकर जाना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है।

इन दोनों के वचन एक-से हैं, लेकिन इन दोनों की मनःस्थिति एक-सी नहीं है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डाल सकता है। और जिसने जाना है, वह कभी हाथ नहीं डाल सकता है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डालकर कहेगा कि जानता तो मैं था कि हाथ डालने से हाथ जल जाता है, फिर मैंने हाथ क्यों डाला? वह जानने में भूल कर रहा है। दूसरे से मिला हुआ जानना, जानना नहीं हो सकता।


तो कृष्ण ने कहा कि अभी जो मैंने तुझसे कहा अर्जुन, वह सांख्य की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त कृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की कोशिश की, कि आत्मा अमर है; न उसका जन्म है, न उसकी मृत्यु है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त था, अव्यक्त होगा, बीच में व्यक्त का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैं, वे पहले भी थे, आगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने के भय से भयभीत हो रहा है, उन्हें मारा नहीं जा सकता है।

इस पूरे समय कृष्ण क्या कर रहे हैं? कृष्ण अर्जुन को, जैसे उस सिपाही को घुमाया जा रहा है इंग्लैंड में, ऐसे उसे किसी विचार के लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कण, कोई स्मृति चोट कर जाए और वह कहे कि ठीक, यही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा वह नहीं कह पाता।

वह शिथिल गात, अपने गांडीव को रखे, उदास मन, वैसा ही हताश, विषाद से घिरा बैठा है। वह कृष्ण की बातें सुनता है। वह बैठा है। वह रीढ़ भी नहीं उठाता; वह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण नहीं आ रहा है।

इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है। अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं। वे जो जानने से ही नहीं जान सकते, जिन्हें कुछ करना ही पड़ेगा, जो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकते-- अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं।

ओशो रजनीश



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...