शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

एक लंबे समय तक उसे अपने इस एकाकीपन का कोई बोध नहीं था । कहाँ था यह एकाकीपन ? उसके अपने भीतर ही रहा होगा; किंतु कुंडली मारे दम साधे पडा होगा। यहाँ तक कि जिस शकुनि के भीतर यह छिपा बैठा था, उस शकुनि को ही उसके अस्तित्व का बोध नहीं था। आज ऐसा क्या हो गया था कि वह अपनी कुंडली त्याग, फन काढ कर खड़ा हो गया था, आकर उसे ही डराने लगा था...

वर्षो पहले, जब उसकी युवावस्था अपनी आँखें खोल ही रही थी, इसी  हस्तिनापुर के एक दूत के संदेश ने, गंधार के राजप्रासाद तथा राजवंश को हिला कर रख दिया था। कुरुकुल का भीष्म अपने नेत्रहीन भ्रात पुत्र धृतराष्ट्र के लिए गांधार की राजकुमारी का दान माँग रहा था। गांधार इतने शक्तिशाली नहीं थे कि हस्तिनापुर के दूत के शरीर के टुकड़े कर उसे बोरी में डाल, अश्व की पीठ से बाँध हस्तिनापुर लौटा देते; किंतु वे कुरुओं के इस आदेश को चुपचाप स्वीकार भी तो नहीं कर सकते थे।... तब गांधारों ने ऐसे अवसरों के लिए, अपना परंपरागत मार्ग अपनाया था - धीरता का और धूर्तता का शकुनि ने अपने जीवन के सारे स्वप्नों को छिन्न-भिन्न कर दिया था और कुरुओं द्वारा किए गए गांधारों के इस अपमान के प्रतिशोध को अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य मान, वह अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर चला आया था।... उसे यहीं रहना था। इन्हीं लोगों के मध्य । उनका अपना बन कर । उसे उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को जगाना था, उकसाना था। महत्त्वपूर्ण आकांक्षाओं को नहीं, अपने व्यक्तिगत महत्त्व की आकांक्षाओं को जगाना था। तो कितना सुविधापूर्ण था नेत्रहीन धृतराष्ट्र को समझाना राज्य वस्तुतः उसी का था किंतु उसे उससे वंचित कर दिया गया था।उसे किसी भी प्रकार उसे प्राप्त करके ही दम लेना चाहिए ।... शकुनि को सीधे धृतराष्ट्र को भी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। वह तो गांधारी को ही स्मरण कराता रहता था। गांधारी का एक स्पर्श धृतराष्ट्र को मंत्रमुग्ध करने के लिए पर्याप्त था । ... और फिर यह भी लगा धृतराष्ट्र को कुछ सिखाने पढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं थी। उसके भीतर इतना लोभ, मोह और स्वार्थ भरा हुआ था कि पूरे कुरुकुल को नष्ट करने के लिए, वह अकेला ही पर्याप्त था । ... वह तो कहो कि भीष्म और विदुर उसके मन में जलने वाली ज्वाला पर शीतल जल के छींटे डालते रहते थे, अन्यथा वह अग्नि कब की, भरत वंश को जला कर क्षार कर चुकी होती।... शकुनि और गांधारी को इतना ही करना था कि वे धृतराष्ट्र को भीष्म और विदुर के धर्म से प्रभावित न होने देते ।...

आज शकुनि स्मरण करने का प्रयत्न करता है, तो वह याद नहीं कर पाता कि उसका और गांधारी का मार्ग कब से पृथक् हो गया और उसे उसका आभास भी नहीं हुआ। यह आभास तो आज ही हुआ, जब गांधारी ने उसे अपने कक्ष में बुलाकर कहा, "दुर्योधन मेरा पुत्र है भैया ! और मैं उससे प्रेम करती हूँ।"...तो दुर्योधन अब उस भरतकुल का वंशज नहीं रहा, जिसे नष्ट करने के लिए, शकुनि अपना प्रत्येक सुख छोड़ कर यहाँ आया था। वह गांधारी का पुत्र हो गया था । अब धृतराष्ट्र वह अत्याचारी राजा नहीं था, जिसने नेत्रहीन होते हुए भी, मात्र अपनी सैनिक शक्ति के बल पर सुनयना गांधार राजकुमारी का अपहरण कर लिया था; और गांधारी ने उसका मुख देखना भी स्वीकार नहीं किया था। उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। आज धृतराष्ट्र गांधारी का मनभावन पति था । ... तो शकुनि ही मूर्ख था, जिसने अपना राज्य राजधानी, कुल परिवार त्याग कर अपना सारा जीवन अपने कुल और अपनी बहन के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए खपा डाला था। आज गांधारी उसी वंश की रक्षा के लिए, अपने भाई को चेतावनी दे रही थी, जिसे नष्ट करने के लिए वे दोनों यहाँ आए थे ।...

शकुनि यह क्यों नहीं समझ सका कि भाई बहन का एक परिवार तभी तक होता है, जब तक अपनी संतान नहीं हो जाती। वह तो आज तक यही मानता रहा कि उसका और गांधारी का एक ही परिवार है। उसने क्यों नहीं जाना कि इन सबंधों की प्रकृति बडी विचित्र है। मनुष्य की ममता अपने दाएँ-बाएँ खडे बहन-भाइयों से तब तक ही होती है, जब तक उसको अपने सम्मुख खड़ी अपनी संतान दिखाई नहीं पड़ती। एक बार संतान हो जाए, तो बहन भाई साधन और माध्यम हो सकते हैं, ममता के पात्र नहीं रहते।

यदि गांधारी ने धृतराष्ट्र को अपना पति, कुरुकुल को अपना श्वसुर कुल तथा धृतराष्ट के पुत्रों को अपने पुत्र स्वीकार कर लिया था, तो उसी दिन शकुनि से क्यो नहीं कह दिया, "भैया! तुम अब अपने  राज्य में लौट जाओ। जब मैंने इन परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है तुम भी उन्हें स्वीकार कर लो।" 

आज जैसे शकुनि की आँखें खुल गई क्यों कहती गांधारी यह सब उससे । अब वह कुरुकुल के विनाश की नहीं, धार्तराष्ट्रों के विकास की इच्छुक थी। वह अपने पति को भी राजा बनाना चाहती थी और अपने पुत्र को भी । शकुनि ही मूर्ख था कि वह समझ नहीं सका कि वह कैसे अपने शत्रुओं के लिए उपयोगी हो गया था आज गांधारी उसकी भर्त्सना कर रही है कि वह दुर्योधन को अधर्म के मार्ग पर ले जा रहा है। अधर्म का मार्ग विनाश का मार्ग है; तो उस दिन क्यो नहीं बोली, जब पांडवों को वारणावत भेजा गया था; उस दिन क्यों नहीं बोली, जब पांडवों को खांडव वन दिया गया था; उस दिन क्यों नहीं बोली, जब युधिष्ठिर को द्यूत के लिए हस्तिनापुर आने का आदेश दिया गया था ?

क्यों बोलती तब ? तब तो उसके पति और पुत्रों का अभ्युत्थान हो रहा था... अब, जब पांडवों का सर्वस्व हरण कर लिया गया था; दुर्योधन सारे वैभव का स्वामी हो चुका था और उसकी स्थिति एक शक्तिशाली सम्राट् की सी हो गई थी ... अब यदि शकुनि को बीच से, दूध की मक्खी के समान निकालकर फेंक दिया जाए, तो दुर्योधन का क्या बिगड़ेगा ?... अब गांधारी को अपने पुत्रों की सुरक्षा का ध्यान आ रहा था। अब उनके लिए शकुनि का सान्निध्य हानिकारक हो गया था। 

क्या गांधारी सचमुच इतनी चतुर राजनीतिज्ञ थी कि उसने शकुनि और अपने पुत्रों को तब तक तनिक भी नहीं टोका था, जब तक शकुनि उन्हें उन्नति के मार्ग पर ले चल रहा था; और अब वह समझ गई थी कि आरोह का समय समाप्त हो चुका था और अवरोह का क्षण आ गया था, इसलिए शकुनि को बीच में से हटा दिया जाना चाहिए ? क्या वह जान गई थी कि उसके पुत्रों को अब शकुनि के माध्यम से कोई उपलब्धि नहीं होनेवाली ! अब शकुनि उन्हें उस मार्ग पर ले चलेगा, जिस पर चलने की तैयारी में, उसने अपना सारा जीवन हस्तिनापुर में व्यतीत किया था ? 

तो शकुनि अब धार्तराष्ट्रों के लिए अनावश्यक हो गया था ?... सच भी तो है, दुर्योधन, पांडवों से कुछ और छीनना चाहे, तो पांडवों के पास अब और है ही क्या ?... तो गांधारी ने ठीक ही पहचाना था कि पांडव अब और वंचित नहीं हो सकते थे। ऐसे में अब हस्तिनापुर मे शकुनि की क्या आवश्यकता थी ।.... शकुनि ने अपने मस्तक को एक झटका दिया वह स्वयं को इस प्रकार प्रवंचित नहीं होने देगा। हस्तिनापुर में वह असहाय अवश्य है, किंतु इतना असहाय भी नहीं है कि अपना सारा यौवन नष्ट कर, मस्तक लटकाए चुपचाप गंधार लौट जाए। ... गांधारी समझती है कि अब शकुनि की आवश्यकता नहीं है; किंतु दुर्योधन तो अभी ऐसा नहीं सोचता । .... . इससे पहले कि दुर्योधन भी कुछ ऐसा ही सोचने लगे, शकुनि को कुछ करना होगा। क्या कर सकता है, शकुनि ? दुर्योधन के सम्मुख अब वह कौन-सा ऐसा प्रलोभन रख सकता है, जिससे शकुनि दुर्योधन के लिए परम आवश्यक बना रहे ?... और यदि शकुनि दुर्योधन के लिए आवश्यक बना रहेगा, तो उस पर गांधारी का आदेश नहीं चल सकता। शायद गान्धारी यह नहीं जानती है कि हस्तिनापुर में आज्ञा ही नहीं, इच्छा भी दुर्योधन की ही चलती है राजा चाहे कोई भी हो, और महारानी चाहे गांधारी ही क्यों न हो।

 शकुनि के मन में एक योजना आकार ग्रहण करने लगी ... विषधर का सा एक विचार उसके मन में निःशब्द रेंगा, और फिर क्रमशः उसके अंग-प्रत्यंग स्पष्ट होने लगे। उस जीव की आँखें खुल कर चारों ओर देखने लगीं। फन तन कर सीधा हो गया और उसकी जिह्वा लपलपाने लगी ।... लोभ का अस्तित्व बाहर किसी भौतिक पदार्थ में होता है, अथवा मनुष्य के अपने मन में ?... मनुष्य का अहंकार अपनी उपलब्धियों से अधिक तृप्त होता है, अथवा अपने शत्रुओं की वंचना से ?... दुर्योधन के लिए अपना वैभव अधिक सुखद है अथवा युधिष्ठिर की अकिंचनता ? शत्रु को अभावों के कष्ट में तड़पते देखने में जो सुख है, वह अपनी बड़ी से बड़ी उपलब्धि में भी नहीं है। ... ठीक है कि शकुनि अब दुर्योधन को और कुछ भी उपलब्ध नहीं करवा सकता; किंतु वह उसे पांडवों की पीड़ा का सुख तो प्राप्त करवा ही सकता है......।

शकुनि की दृष्टि में एक दृश्य जन्म ले रहा था ... एक बालक एक सर्प को ढेला मारता है। सर्प अपने घाव की पीड़ा से तड़पता है। बालक उसकी पीड़ा देख-देखकर प्रसन्न होता है। थोड़ी देर में सर्प अपनी पीडा से निढाल हो कर अपना सिर टेक देता है। बालक की क्रीडा समाप्त हो जाती है। उसका सुख जैसे तिरोहित हो जाता है। उसे अच्छा नहीं लगता। वह एक छड़ी ले कर सर्प को उकसाता है, उसे कोंचता है, उसके घावों को अपनी छड़ी से कुरेदता है, छीलता है... और सर्प अपनी असह्य पीडा में भी अपना सिर उठा लेता है। बालक को फिर से क्रीड़ा का सा सुख मिलने लगता है। वह सर्प को छड़ी से नहीं अपनी अंगुली से छेडना चाहता है। वह अपना हाथ उसके निकट ले जाता है। सर्प क्रोध में उसे दंश मारता है। अब तडपने की बारी बालक की है बालक सर्प विष से तड़प-तड़पकर मर जाता है; और सर्प, सिर में लगे अपने घाव से !...

शकुनि मन ही मन मुस्कराया. गांधारी कुरुओं की रक्षा करना चाहती है। उन कुरुओं की, जिन्होंने गांधारों का अपमान किया था। अपमान के प्रतिशोध का अवसर पाने के लिए शकुनि ने जीवन भर सेवा की है।जब वह अवसर इतना निकट है, उसके सामने खड़ा है गांधारी चाहती है। कि वह चुपचाप गंधार लौट जाए। ... वह भूल गई वह गांधारी है, गांधार राजकन्या । शायद अपने आपको कौरवी समझती है ।...

शकुनि की आँखों में एक कठोर भाव जन्म लेता है यदि उसकी अपनी बहन गांधारी से कौरवी हो गई है, तो उसे भी की क्रोधाग्नि में जलना होगा शकुनि के लिए तो बस एक ही काम शेष रह गया है .....  दुर्योधन के हाथ मे एक छडी पकडा देने भर का वह स्वयं ही पांडवों को कोंचने के लिए द्वैतवन जा पहुंचेगाऔर पांडवों को कोंचने का परिणाम ...

शकुनि की इच्छा हुई कि वह जोर का एक अट्टहास करे। इतने जोर का कि वह गांधारी के कानों में ही नहीं, उसके मन में भी देर तक गूंजता रहे.........।

नरेंद्र कोहली 



रविवार, 12 नवंबर 2023

 द्रौपदी, एक वृक्ष के नीचे, अकेली बैठी, बड़ी देर से अपने विचारों में लीन थी पिछले दिनों, उन लोगों ने परस्पर बहुत चर्चा की थी। चर्चा ही क्यों, उसे वाद-विवाद कहना चाहिए । “कितनी कटुता थी द्रौपदी के मन में युधिष्ठिर के लिए, और उसके पश्चात् भीम, अर्जुन तथा नकुल सहदेव के लिए । “कभी-कभी तो उसे लगने लगता था कि जिन धार्तराष्ट्रों ने उसका अपमान किया था, उनके प्रति भी उसके मन में उतनी कटुता नहीं थी, जितनी अपने पतियों के प्रति थी पर यह तो मन का छल मात्र था। ऊपरी काई हटाकर देखने पर उसकी समझ में आ गया था कि धार्तराष्ट्रों के प्रति उसके मन में घृणा थी, शत्रुता थी वह उनका नाश चाहती थी, सर्वनाश ! सबकी मृत्यु ! मृत्यु से कम कुछ नहीं । उनके साथ, उसके मन के माधुर्य का कोई एक सूत्र, कभी एक क्षण के लिए भी नहीं जुड़ा था। उनसे उसे कोई अपेक्षा नहीं थी । कटुता तो उनके प्रति थी, जिनसे उसे प्रेम था, जिनसे उसे अपेक्षाएँ थीं, जिन्हें वह अपने रक्षक मानती थी उन लोगों की ओर से उसके प्रेम की प्रतिध्वनि नहीं हुई। उन्होंने उसके प्रेम में बहकर अपने धर्म को तिलांजलि नहीं दी। उन्होंने अपने धर्म की रक्षा की और उसे असुरक्षित छोड़ दिया...।

द्रौपदी सोचती जाती थी और उसके अपने ही मन की परतें उघड़ती जाती थीं उसके मन में, यह बहुत बाद में स्पष्ट हुआ था पांडवों के व्यवहार से जो आहत हुई, वह द्रौपदी के भीतर की नारी थी। वह रूपगर्विता नारी, जो मानती थी कि पुरुष की दृष्टि उस पर पड़ी नहीं कि वह मदांध हुआ नहीं ! उसने चाहा तो यही चाहा कि जिस पुरुष  की ओर वह एक अपांग से देख ले, वह घुटनों के बल उसके सम्मुख आ गिरे। फिर उसका आचार-व्यवहार, धर्म- नीति, कुछ न हो, बस उसका रूप ही हो। पांडवों ने सदा उसे अपनी प्रिय पत्नी माना था। उसकी हल्की सी कसक से भी वे तड़प उठते थे; किंतु परीक्षा की इस घड़ी में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वह उन्हें कितनी भी प्रिय क्यों न हो, उनके लिए धर्म से बढ़कर नहीं थी । 

द्रौपदी अपने-आपको भी धीरे-धीरे पहचान रही थी वह केवल एक रूपगर्विता नारी ही नहीं थी । नारी तो वह थी ही, और उसका रूप भी ऐसा था, जिस पर कोई भी गर्व कर सकता था किंतु यह तो उसके व्यक्तित्त्व का एक अंश मात्र था । उसके संपूर्ण व्यक्तित्त्व में तो और भी बहुत कुछ था वह धर्म को जानती थी, धर्मशास्त्र की पंडिता थी, चरित्र और संकल्प से परिचय था उसका ।अब यह उसकी बारी थी कि वह पांडवों के चरित्र पर मुग्ध हो । युधिष्ठिर को ठीक ही कहा जाता था 'धर्मराज !' और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो पितृ आज्ञा को, अपना धर्म मानकर, अपना साम्राज्य इस प्रकार त्याग दे त्रेता में भगवान राम ने ऐसा किया था और द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने । ठीक है कि यह वैसा त्याग नहीं था,  जैसा भगवान राम ने किया था किंतु इसका मूल स्वरूप तो वही था । धृतराष्ट्र पांडवों का राज्य छीन लेना चाहता था, जैसे कैकेयी राम का राज्य छीनना चाहती थी । धृतराष्ट्र जानता था कि युधिष्ठिर उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे और वह यह भी जानता था कि द्यूत में शकुनि उनके हाथों में पासे आने ही नही देगा यह सब युधिष्ठिर भी जानते थे । वे द्यूत का विरोध करते रहे, किंतु धृतराष्ट्र की इच्छा का विरोध नहीं किया उन्होंने । खेलने बैठ ही गए थे, तो किसी भी दाव के पश्चात् वे उठ भी सकते थे । किंतु धृतराष्ट्र की आज्ञा की अपेक्षा में, वे बैठे, हारते रहे । पासों में हार चुकने के पश्चात् वे राज्य देना अस्वीकार कर सकते थे, इतना सैन्य बल था उनके पास । किंतु अपने वचन के विरुद्ध नहीं जा सकते थे । उनकी पत्नी को सभा में लाकर उनके सम्मुख निर्वस्त्र करने का प्रयत्न किया गया; किंतु धर्मराज तनिक भी नहीं डोले । वे जानते थे कि द्रौपदी दासी नहीं है, किंतु वे स्वयं तो दास हो चुके थे। वे स्वामी के विरुद्ध शस्त्र कैसे उठाते । पत्नी की रक्षा उन्होंने कुलवृद्धों, धर्म और ईश्वर पर छोड़ दी ।

कैसी परीक्षा ली थी धार्तराष्ट्रों ने पांडवों की ! पर क्या दुर्योधन पांडवों का राज्य ही छीनना चाहता था ?--यदि केवल इतनी ही बात होती, तो पांडवों से राज्य लेना क्या कठिन था ? युधिष्ठिर तो किसी भी बात पर राज्य त्याग देते ! और द्यूत के पश्चात् तो उनका राज्य ले ही लिया था। फिर उन्हें इस प्रकार अपमानित करने की क्या आवश्यकता थी ? वह मात्र पर-पीड़न का सुख लेना चाहता था ? पर नहीं । इस सुख कितना जोखिम था । वह पांडवों के बल को भी जानता था और क्रोध को भी । यदि पांडवों में से कोई एक भी अपनी मर्यादा तोड़ बैठता, तो कुछ  ही क्षणों में धार्तराष्ट्रों की इतनी अपरिहार्य क्षति हो जाती उसके पश्चात् पांडवों का जो भी होता। पांडव यदि मार भी डाले जाते, तो वे धृतराष्ट्र की इतनी हानि कर चुके होते, जो उसके जीवन का रोग बन गई होती। और बात पांडवों की मृत्यु के साथ ही तो समाप्त नहीं हो जाती। पांडवों के मित्र प्रतिशोध लेकर छोड़ते ।मित्र भी कैसे कृष्ण और धृष्टद्युम्न ! नहीं ! दुर्योधन पांडवों को मात्र अपमानित ही नहीं कर रहा था। वह उनकी परीक्षा भी नहीं ले रहा था। किसी की परीक्षा लेने के लिए, कोई अपने लिए इतना संकट आमंत्रित नहीं करता कदाचित् दुर्योधन एक ओर पांडवों का धर्म खंडित करना चाह रहा था और दूसरी ओर उनकी एकता ! वह युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ का राजा नहीं रहने देना चाहता, तो वह उन्हें धर्मराज भी नहीं रहने देना चाहता । वह चाहता है कि पांडव, धर्म के लिए न लड़ें, अपने राज्य के लिए लड़ें, अपने स्वार्थ के लिए लड़ें। वह चाहता है कि युधिष्ठिर भी उसी के समान मात्र एक भोगी, लोलुप और अत्याचारी क्षत्रिय बनें, ताकि धर्म का बल पांडवों की ओर न रहे । कोई राजा इसलिए पांडवों की ओर से न लड़े, क्योंकि वे धर्म के लिए लड़ रहे हैं; वह उनके पक्ष से इसलिए युद्ध करे, क्योंकि युद्ध जीतने से भोग-सामग्री उपलब्ध होती है । अहंकार स्फीत होता है। दूसरों का दमन करने का अधिकार मिलता है । और उस दिन धर्मराज तनिक भी दुर्वल पड़ते, तो ऐसा हो गया होता ।

नरेंद्र कोहली 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...