शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

 ग्लूटाजेमा फेसवॉश में मुख्य रूप से ग्लूटाथियोन और कोजिक एसिड सामग्री का उपयोग किया जाता है।

ग्लूटाथियोन: बार-बार आए दिन ऐसे-ऐसे नए स्किन केयर प्रोडक्ट्स के बारे में बातें होती हैं, जो त्वचा मार्क्स, त्वचा को ठीक करने के बड़े-बड़े दावे करते हैं। हाल ही में हमें ग्लूटाथियोन के बारे में भी पता चला, ग्लूटाथियोन का नाम जितना मुश्किल है ये त्वचा के लिए आकर्षक और प्रभावशाली है। 

ग्लूटाथियोन का निर्माण लिवर करता है। वृद्धावस्था, तनाव, विषैले पदार्थों के संपर्क में आने से और फ्री रेडिकल्स जैसे कई कारण होते हैं जो शरीर में ग्लूटाथियोन के स्तर को कम कर सकते हैं। इसलिए समय-समय पर आपको इसे बूस्ट करने की ज़रूरत है। स्किन केयर प्रोडक्ट में  ग्लूकोज़ाथियोन आपको कील-मुंहासे, दाग-धब्बे, झाइयां , डार्क स्पॉट और इनके होने के कारणों से मुक्ति दिलाकर निखरी, साफ और चमकदार  त्वचा देता है।

कोजिक एसिड: कोजिक एसिड एक प्राकृतिक पदार्थ है जो कि  कवक  के कुछ जीवाणुओं में से एक है, विशेष रूप से एस्परगिलस ओरिजा द्वारा निर्मित होता है। इस एस्परगिलस ओरिजा को जापान में कोजी कहा जाता है और इसलिए इसका नाम कोजिक एसिड रखा गया है

 इसका उपयोग त्वचा रोगों का इलाज, जैसे सन डैमेज, निशान और एजिंग के स्थान पर किया जा सकता है। यह एक लाइटनिंग एजेंट के रूप में कैसे काम करता है, इसके पीछे विज्ञान के अनुसार मेलेनिन का उत्पाद मुख्य कारण है।

मेलेनिन शरीर में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला रंगद्रव्य है जो बालों, और त्वचा को अपना रंग देता है। टायरोसिन नामक एमिनो एसिड के उत्पादन के लिए एक एमिनो एसिड की आवश्यकता होती है। कोजिक एसिड टायरोसिन को बनने से रोकने का काम करता है जिससे मेलानिन के उत्पादन में कमी आ जाती है। इसके उत्पाद में कमी आने से लाइटनिंग का प्रभाव पड़ता है।

कोजिक एसिड युक्त उत्पाद त्वचा के रंग को सुधारते हैं, जिससे एजिंग प्लेस और सन डेमेज में सुधार हो सकता है। ब्लैक स्पॉट कम होने से एंटी एजिंग प्रभाव पड़ सकता है।

इस मे निम्न सामग्रियों का भी प्रयोग किया जाता है 

विटामिन सी और ई: ये विटामिन घटक हैं और त्वचा को यूवेनेट करने में मदद करते हैं।

एलो वेरा जुस: यह त्वचा को शांति देता है, ताजगी बढ़ाता है और त्वचा को मोइस्चराइज़ करने के लिए लाभकारी होता है।

ग्लाइकोलिक एसिड: यह त्वचा के आवरण को पुनर्स्थापित करता है और त्वचा को प्राकृतिक बनाने में मदद करता है।

जैलिटिल ग्लूकोसाइड  : यह त्वचा को मॉइस्चराइज़ करने में मदद करता है।

ग्लिसरीन: यह त्वचा को मॉइस्चराइज करने और प्राकृतिक बनाने में मदद करता है।

कोकामिडोप्रोपाइल बीटाइन  : कोकामिडोप्रोपाइल बीटाइन एक असेंबली एसिड होता है जो नारियल तेल से प्राप्त होता है। यह आसानी से से झाग देता है और त्वचा को नमी प्रदान करता है। 

कोकोयल ऐप अमीनो एसिड : यह त्वचा को साफ करने और मोइस्चराइज करने में मदद करता है।

विटामिन ई:  यह विटामिन ई त्वचा को नरम और सुंदर बनाने में मदद करता है।

 प्रोपेनडिओल, डेसिल ग्लूकोसाइड  :  यह त्वचा को साफ करने में मदद करता है।

हेक्सिलीन ग्लाइकोल  ,  एथॉक्सीडायग्लाइकोल : ये त्वचा को मॉइस्चराइज करने में मदद कर सकते हैं।

खुशबू: इस उत्पाद को आरामदायक और सुंदर बनाने का प्रस्ताव दिया गया है, लेकिन कुछ लोगों के संवाद प्रभावित हो सकते हैं।

कृपया ध्यान दें कि यह सामग्री आपकी त्वचा के लिए उपयोग करने से पहले किसी डॉक्टर से सलाह लेना महत्वपूर्ण है, क्योंकि व्यक्तिगत प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है।




मंगलवार, 8 अगस्त 2023

मौन

एक गांव में एक अपरिचित फकीर का आगमन हुआ था। उस गांव के लोगों ने शुक्रवार के दिन, जो उनके धर्म का दिन था, उस फकीर को मस्जिद में बोलने के लिए आमंत्रित किया। वह फकीर बड़ी खुशी से राजी हो गया। लेकिन मस्जिद में जाने के बाद, जहां कि गांव के बहुत से लोग इकट्ठा हुए थे, उस फकीर ने मंच पर बैठ कर कहा: मेरे मित्रो, मैं जो बोलने को हूं, जिस संबंध में मैं बोलने वाला हूं, क्या तुम्हें पता है वह क्या है? बहुत से लोगों ने एक साथ कहा: नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं है। वह फकीर मंच से नीचे उतर आया और उसने कहा: ऐसे अज्ञानियों के बीच बोलना मैं पसंद न करूंगा, जो कुछ भी नहीं जानते। जो कुछ भी नहीं जानते हैं उस विषय के संबंध में जिस पर मुझे बोलना है, उनके साथ कहां से बात शुरू की जाए? इसलिए मैं बात शुरू ही नहीं करूंगा। वह उतरा और वापस चला गया।

वह सभा, वे लोग बड़े हैरान रह गए। ऐसा बोलने वाला उन्होंने कभी देखा न था। लेकिन फिर दूसरा शुक्रवार आया और उन्होंने जाकर उस फकीर से फिर से प्रार्थना की कि आप चलिए बोलने। वह फकीर फिर से राजी हो गया और मंच पर बैठ कर उसने फिर पूछा, मेरे मित्रो, मैं जिस संबंध में बोलने को हूं, क्या तुम्हें पता है वह क्या है? उन सारे लोगों ने कहा: हां, हमें पता है। क्योंकि नहीं कह कर वे पिछली दफा भूल कर चुके थे। उस फकीर ने कहा: तब फिर मैं नहीं बोलूंगा, क्योंकि जब तुम्हें पता है तो मेरे बोलने का कोई प्रयोजन नहीं। जब तुम्हें ज्ञात ही है तो ज्ञानियों के बीच बोलना फिजूल है। वह उतरा और वापस चला गया।

उन गांव के लोगों ने बहुत सोच-विचार कर यह तय किया था कि अब कि बार "नहीं' कोई भी नहीं कहेगा, लेकिन हां भी फिजूल चली गई।

तीसरा शुक्रवार आया। वे सारे लोग फिर उस फकीर के पास गए और उन्होंने कहा कि चलें और हमें उपदेश दें, वह फकीर फिर राजी हो गया। वह मंच पर आकर बैठा और उसने पूछा, मेरे मित्रो, क्या तुम्हें पता है मैं क्या बोलने वाला हूं? उन लोगों ने कहा: कुछ को पता है और कुछ को पता नहीं है। उस फकीर ने कहा: तब जिनको पता है वे उनको बता दें जिनको पता नहीं है। मेरा क्या काम है। वह उतरा और वापस चला गया।

चौथे शुक्रवार को उस गांव के लोगों ने हिम्मत नहीं की कि उस फकीर को फिर से आमंत्रण दें। क्योंकि उनके पास चौथा कोई उत्तर ही न था। तीन उत्तर थे और तीनों समाप्त हो गए थे और तीनों व्यर्थ हो गए थे।

 चौथा उत्तर क्या हो सकता है?  यह चौथा उत्तर जीवन को, सत्य को जानने के लिए भी वही चौथा उत्तर जरूरी है। परमात्मा की खोज में भी वही चौथा उत्तर जरूरी है। आनंद की तलाश में भी वही चौथा उत्तर जरूरी है।

काश, उस मस्जिद के लोगों ने वह चौथा उत्तर दिया होता। लेकिन जमीन पर कोई ऐसी मस्जिद और मंदिर नहीं है जहां वह चौथा उत्तर मिल सके। इसलिए वहां भी नहीं मिला।

वह चौथा उत्तर क्या है? जो कि यदि दिया गया होता, तो वह फकीर उस दिन वहां बोलता और लोगों से अपने हृदय की बातें कहता। क्या ये तीन ही उत्तर हो सकते थे? क्या यह नहीं हो सकता था कि वे सारे लोग कोई भी उत्तर न देते और चुप रह जाते? वह चौथा उत्तर होता। वे कोई भी उत्तर न देते और चुप रह जाते। वह चुप रह जाना चौथा उत्तर होता। और जो चुप रह जाने में समर्थ है, वह उस बात को भी समझ सकेगा, जो कही जा रही है। और उस जीवन को भी समझ सकेगा, जो हमारे चारों ओर मौजूद है। लेकिन हममें से चुप रहने में कोई भी समर्थ नहीं है। हम बोलने में समर्थ हैं लेकिन चुप रहने में समर्थ नहीं। हम शब्दों के साथ खेलने में समर्थ हैं लेकिन मौन रह जाने में नहीं। और इसीलिए शायद हम जीवन को गंवा देते हैं।

जो जीवन हमारे चारों तरफ मौजूद है, चाहे उसे कोई परमात्मा कहे और जो जीवन हमारे भीतर मौजूद है, चाहे कोई उसे आत्मा कहे। हम उस जीवन को जानने से वंचित रह जाते हैं क्योंकि हम चुप होने में समर्थ नहीं।  जानने के लिए चाहिए मौन, जानने के लिए चाहिए एक ऐसा मन जो बिलकुल चुप हो सके। लेकिन हम बोलते हैं, बोलते हैं। जागते हैं तब भी और सोते हैं तब भी। किसी से बात करते हैं तब भी और नहीं बात करते हैं तब भी हमारे भीतर बोलना चल रहा है। यह जो चैटरिंग है, यह जो निरंतर बोलना है, ये जो निरंतर शब्द ही शब्द हैं, इन शब्दों और शब्दों में हमारा मन उस सामर्थ्य को खो देता है, उस शक्ति को खो देता है, उस शांति को खो देता है, उस दर्पण को खो देता है, जिसमें कि जीवन को जाना और जीया जा सकता है। लेकिन शायद हमें इसका कोई स्मरण भी नहीं है।

क्या कभी हमें यह खयाल आया कि जैसे समुद्र लहरों से भरा हो, तूफान में हो; झील लहरों से भरी हो, आंधी आ गई हो, तो उस झील में फिर चांद दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। क्या हमारे मन भी निरंतर आंधियों से भरे हुए नहीं हैं? क्या निरंतर उनमें भी शब्दों की हवाएं और शब्दों के तूफान नहीं उठ आते? क्या कभी एक क्षण को भी वहां शांति होती है? सब मौन होता है? नहीं होता है। और इसके कारण कुछ, कुछ बात घटित हो जाती है, जो हमारे और जीवन के बीच एक दीवाल बन जाती है और हम जीवन को नहीं जान पाते। और फिर इसी मन को लेकर हम खोजने निकलते हैं। शास्त्रों में खोजते हैं। इसी मन को लेकर हम पहाड़ों पर जाते हैं। इसी मन को लेकर हम मंदिरों में जाते हैं। लेकिन मन हमारा यही है जो शब्दों से भरा हुआ है। और कभी हमें यह खयाल भी पैदा नहीं होता कि यह मन जो इतना ज्यादा भरा हुआ है, इतना ज्यादा व्यस्त, इतना आक्युपाइड है, इतना-इतना शब्दों से दबा है, इतने शोरगुल से भरा है, यह क्या जानने में समर्थ हो सकता है? जानने के लिए इसके भीतर अवकाश कहां? स्पेस कहां? जगह कहां? स्थान कहां? जहां कोई नया सत्य प्रवेश कर सके, कोई नई बात सुनी जा सके, कोई नया तथ्य देखा जा सके। जगह कहां है? मन खाली कहां है? मन है भरा हुआ।

उस फकीर ने यही उन लोगों से पूछा था और उनमें से एक भी व्यक्ति इस बात की गवाही न दे सका कि वह चुप होने में समर्थ है, मौन रह जाने में समर्थ है। और तब उस फकीर ने ठीक ही किया कि उनसे वह कुछ कहने को राजी न हुआ। उसका कहा हुआ व्यर्थ होता। वहां सुनने वाला कोई मौजूद ही नहीं था। आप यहां मौजूद हैं, लेकिन केवल वही सुन पाएगा, जो चुप होगा, मौन होगा। और जो अपने भीतर बोल रहा है, वह कैसे सुन सकेगा? और जो अपने भीतर बातें कर रहा है, उसके भीतर कोई दूसरे शब्द कैसे पहुंच पाएंगे?

साइलेंस, एक शांति, चौथा उत्तर है। वह कैसे हमारे भीतर पैदा हो सकता है, उसकी मैं आज आपसे बात करूंगा।

 हमारे भीतर मौन कैसे पैदा हो सकता है, जो कि सत्य को जानने का द्वार है और मार्ग है, यह जान लेना जरूरी होगा कि हमारे भीतर इतने शब्द कैसे इकट्ठे हो गए? शायद इस बात को जानने से ही, कितने शब्द हमारे भीतर कैसे इकट्ठे हो गए हों, हम उन्हें निकालने में भी समर्थ हो जाएं।

पहली बात, शब्द इकट्ठे हुए नहीं हैं, हमने उन्हें इकट्ठा किया है। क्योंकि अगर वे इकट्ठे हुए होते, तो हम उन्हें दूर भी नहीं कर सकते थे। हमने उन्हें इकट्ठा किया है। हम चौबीस घंटे उन्हें इकट्ठा कर रहे हैं। हम चौबीस घंटे सब तरफ से उनको ढूंढ कर ला रहे हैं। शायद हमें यह खयाल है कि जितने ज्यादा शब्द होंगे हमारे पास, उतना ही बड़ा हमारा ज्ञान हो जाएगा। शायद हमें खयाल है कि बहुत शब्दों का जो मालिक है, वह ज्ञान का भी मालिक हो जाता है। शायद हमें खयाल है कि शब्द जिसके पास हैं, उसके पास कोई आंतरिक संपदा हो गई है। इन्हीं शब्दों, इन्हीं शब्दों के संग्रह को हमें बताया गया है कि ज्ञान है और हमने इन्हीं शब्दों को इकट्ठा करके अपने को भी विश्वास दिला लिया है कि हम कुछ जानते हैं।

लेकिन अगर हम कुछ भी शब्दों को उठा कर देखें और खोज करें, तो हमें भ्रम दिखाई पड़ जाएगा। ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, प्रेम, सत्य, अहिंसा, इन शब्दों से हम सभी परिचित हैं। लेकिन इनमें से एक भी शब्द को उठा कर उसे थोड़ा खोजें, तो हमें पता चलेगा कि उस शब्द के भीतर के अर्थ का हमें कोई अनुभव नहीं है।

ईश्वर, इस शब्द को थोड़ा सोचें। इस शब्द के साथ आपकी कौनसी अनुभूति जुड़ी है? यह कोरा शब्द है या कोई अनुभव भी पीछे है? आत्मा, इसके साथ कौन सा अनुभव है हमारा? कौन सी हमारी अपनी प्रतीति है?  या कि एक कोरा शब्द है? जब मैं कहता हूं, मकान; जब मैं कहता हूं, वृक्ष, तब शब्द नहीं होता हमारे पास, पीछे एक अनुभूति भी होती है। जब मैं कहता हूं, घोड़ा, तो शब्द ही नहीं होता, घोड़े का एक अनुभव भी होता है। लेकिन जब मैं कहता हूं, आत्मा; जब मैं कहता हूं, ईश्वर, तब हमारे पास क्या है? हमारे पास केवल एक शब्द है थोथा और खाली, जिसमें कोई हमारा अनुभव नहीं है, जिसमें हमारा कोई जानना नहीं है।

मनुष्य के पास दो तरह के शब्द हैं। एक तो वे शब्द हैं, जो उसके अनुभव से निर्मित हुए हैं और एक वे शब्द हैं, जिनके साथ उसका कोई अनुभव नहीं है। धर्म और दर्शन और फिलासफी के संबंध में हम जो कुछ जानते हैं, वे दूसरे तरह के शब्द हैं, जिनके साथ हमारा कोई अनुभव नहीं है। और उन शब्दों के आधार पर, जो बिलकुल निष्प्राण, जो बिलकुल डेड और मुर्दा हैं--जो वैसे ही हैं, जैसे एक कवि एक समुद्र के किनारे था। वहां बड़ी सुखद हवाएं थीं, बड़ी शीतल हवाएं थीं, और वहां उसने सोचा कि उन हवाओं को वह अपनी प्रेयसी के पास भी पहुंचा दे। लेकिन उसकी प्रेयसी तो हजारों मील दूर एक अस्पताल में बीमार थी। तो उसने एक बहुत सुंदर संदूक में उस समुद्र की हवाओं को बंद किया और उस संदूक को अपनी प्रेयसी के पास पहुंचा दिया। और एक पत्र लिखा कि समुद्र के किनारे इतनी सुंदर हवाएं हैं, इतनी शीतल, इतनी आनंददायी कि मेरा मन होता है कि उन्हें तुम्हें मैं भेंट भेजूं। तो इस छोटी सी पेटी में थोड़ी सी हवाएं बंद करके भेज रहा हूं। तुम उन हवाओं को पाकर प्रसन्न हो जाओगी। लिखना मुझे, हवाएं तुम्हें कैसी लगीं? वह पेटी पहुंची। उसकी प्रेयसी ने वह पत्र पढ़ा और उस पेटी को खोला, लेकिन उसके भीतर तो कुछ भी नहीं था।

समुद्र की हवाओं को पेटियों में नहीं भरा जा सकता है। समुद्र की हवाओं को जानना हो, तो उन्हें अपने घर तक लाने का कोई उपाय नहीं है। खुद हमें ही समुद्र के किनारे जाना पड़ेगा। यह नहीं हो सकता है कि मेरा कोई मित्र पेटियों में भर कर उन्हें मेरे पास भेज दे। हां, यह हो सकता है कि मैं खुद समुद्र के किनारे जाऊं और जानूं। ताजी हवाओं को पेटियों में भरते से ही वे मुर्दा हो जाएंगी। उनकी सारी ताजगी चली जाएगी। उसके पास पेटी तो पहुंची लेकिन हवाएं नहीं पहुंचीं। उसने बहुत खोजा उस पेटी में, लेकिन वहां कोई हवाएं नहीं थीं।

हमारे पास  शब्द पहुंच जाते हैं, अनुभूतियां नहीं पहुंचतीं। सत्य के किनारे पर जो अनुभव किया जाता है, उसे सत्य के किनारे पर ही जाकर अनुभव किया जा सकता है। कोई अनुभव करे और शब्द हमारे पास पहुंचा दे, वे शब्द हमारे पास खाली पेटियों की भांति पहुंचते हैं, उनमें कोई हवाएं नहीं होतीं। और उन्हीं शब्दों को हम इकट्ठा कर लेते हैं; और उन्हीं शब्दों के हम मालिक बन जाते हैं; और उन्हीं शब्दों के आधार पर हम जीना शुरू कर देते हैं। वे शब्द ही झूठे हो चुके हैं। हमारा जीवन भी उनके साथ झूठा हो जाता है। और उन्हीं शब्दों के आधार पर हम जीवन के प्रश्नों के उत्तर देने लगते हैं।

अगर कोई पूछे, ईश्वर है? तो हम कोई उत्तर जरूर देंगे। जैसा उस मस्जिद के लोगों ने उत्तर दिया। अगर कोई पूछे, आत्मा है? तो हम उत्तर जरूर देंगे। अगर कोई पूछे, सत्य क्या है? तो हम उत्तर जरूर देंगे। और हममें से इतना समर्थ कोई भी नहीं होगा, जो चुप रह जाए और इस बात को अनुभव करे कि मेरे पास थोथे शब्दों के सिवाय और क्या है? तो मैं कैसे उत्तर दूं? लेकिन जो आदमी चुप रह जाएगा, उसने सत्य की तरफ, जानने की तरफ, पहला कदम उठा लिया। उसने सत्य की तरफ यात्रा का पहला कदम उठा लिया, क्योंकि वह शब्दों की व्यर्थता को जान गया है। और जो शब्दों की व्यर्थता को जान जाता है, वही सत्य तक जाने की खोज कर सकता है। लेकिन जो शब्दों से तृप्त हो जाता है, उसकी तो खोज बंद हो जाती है। और हम सारे लोगों की खोज बंद है।

कोई एक तरह के शब्दों से तृप्त हो गया है; कोई दूसरे तरह के शब्दों से तृप्त हो गया है। कोई हिंदू होने से; कोई मुसलमान होने से; कोई जैन होने से। यह सब होना क्या है? यह शब्दों से तृप्त हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। हमने कुछ उत्तर स्वीकार कर लिए हैं। और जो आदमी कुछ उत्तर स्वीकार कर लेता है, उसका मन मुर्दा हो जाता है, उसकी खोज बंद हो जाती है। मुर्दा मन शब्दों से भरा हुआ होता है। ताजा मन शब्दों से नहीं; जिज्ञासा से, इंक्वायरी से। मुर्दा मन का लक्षण है: उसके पास सब उत्तर बंधे हुए तैयार होते हैं। जीवित मन का लक्षण है: उसके पास प्रश्न तो होते हैं लेकिन उत्तर नहीं होते। उसके पास जिज्ञासा तो होती है, खोज की आकांक्षा और प्यास तो होती है लेकिन उत्तर नहीं होते। और जिसके पास उत्तर नहीं हैं और प्रश्न हैं, उसका मन अचानक चुप हो जाता है, मौन हो जाता है।

मौन हो जाने का पहला सूत्र है: उत्तरों से मुक्त हो जाइए। लेकिन हमारी हालत बिलकुल उलटी है। हमारे पास प्रश्न कम हैं, उत्तर ज्यादा हैं। जिसके पास प्रश्न नहीं हैं और उत्तर हैं, उस आदमी ने खोज बंद कर दी। वह तृप्त हो गया, वह रुक गया। और जीवन सतत मांग करता है आगे बढ़ो; और जीवन पुकारता है आगे आओ; और जीवन कहता है कहीं रुक मत जाना क्योंकि रुकने के सिवाय मृत्यु और कुछ भी नहीं। लेकिन जो सतत बढ़ता है और कहीं रुकता नहीं--उस सातत्य में, उस निरंतर बढ़ते जाने में ही, जीवन और उसके कदम एक साथ बढ़ने लगते हैं। और एक दिन आता है कि जीवन की जो सतत प्रवाहमान धारा है, वह जो जीवन की गंगा है, वह उसके साथ एक हो जाता है। जीवन ठहरा हुआ नहीं है, लेकिन हमारे मन ठहरे हुए हैं। जीवन तो निरंतर, सतत आगे जा रहा है, प्रतिक्षण बहा जा रहा है

हेराक्लतु ने कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में कहा था: नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। उसने जीवन की नदी के बाबत कहा था। नदी तो बही जाती है। आज उतरे हैं उसमें, कल उसी नदी में नहीं उतर सकेंगे। वह नदी आगे चली गई, दूसरे पानी ने जगह ले ली होगी। मैं तो कहता हूं, एक ही नदी में एक बार भी उतरना बहुत कठिन है। क्योंकि जब तक पैर नदी के पानी को छुएगा, नीचे का पानी बह गया। जब पानी में पैर नीचे जाएगा, तब तक ऊपर का पानी बह गया। जीवन तो बहाव है, लेकिन मनुष्य का मन ठहराव बन जाता है। और जो मन ठहर जाता है, वह जीवन से उसका संपर्क टूट जाता है, संबंध टूट जाता है। फिर वह कितना ही राम-नाम जपे और शास्त्र पढ़े, उसे कहीं परमात्मा की कोई झलक उपलब्ध न हो सकेगी, क्योंकि परमात्मा तो जीवन में व्याप्त है, जीवन का ही दूसरा नाम परमात्मा है।

जीवन से संबंध जोड़ना है, तो मुर्दा मन से संबंध तोड़ना पड़ेगा। और शब्दों से भरा हुआ मन डेड हो जाता है, मुर्दा हो जाता है। हम सबके मन मरे हुए मन हैं, जीवित मन नहीं हैं। जीवित मन के लिए चाहिए, जहां-जहां मन ठहर गया हो, वहां-वहां से हम मन को मुक्त कर लें। जहां-जहां मन रुक गया हो, वहां-वहां से हम उसे छोड़ दें। जिन-जिन किनारों को उसने जोर से पकड़ लिया हो, उन-उन किनारों को हम छोड़ दें, ताकि बहाव पैदा हो सके, ताकि मन भी एक गति पा सके, डाइनैमिक हो सके, डेड न रह जाए, परिवर्तन पा सके, प्रवाह पा सके। जितना प्रवाह मन में आएगा, उतना ही मन शांत होता जाएगा। मन की यह जो अशांति है, यह इसीलिए है कि मन को हम रोक कर बंद किए हुए हैं और सारा जीवन बहा जा रहा है। मन तड़प रहा है मुक्त होने को, लेकिन हम उसे बांधे हुए हैं। मन स्वतंत्र होने को पीड़ित है और हम उसे बांधे हुए हैं। और बांधे हुए हम किस चीज से? कोई लोहे की जंजीरें नहीं हैं, शब्दों की जंजीरें हैं। और शब्द इतनी अदभुत जंजीर बन जाते हैं कि आंखें बंद हो जाती हैं, कान बंद हो जाते हैं, हृदय बंद हो जाता है। एक शब्द सब कुछ बंद कर सकता है।

हिंदुस्तान में चार हजार, पांच हजार वर्षों से हम करोड़ों शूद्रों को सता रहे हैं, परेशान कर रहे हैं। क्यों? एक शब्द हमने ईजाद कर लिया, शूद्र। बस एक शब्द ईजाद कर लिया "शूद्र' और कुछ लोगों पर हमने चिपका दिया कि ये शूद्र हैं। फिर हमारी आंखें बंद हो गईं; फिर हम उनके कष्ट नहीं देख सके। क्योंकि शूद्र, दरवाजा बंद हो गया। फिर हम उनकी पीड़ाएं अनुभव नहीं कर सके, फिर हमारा हृदय उनके प्रति प्रेम से प्रवाहित नहीं हो सका। एक शब्द हमने चिपका दिया, शूद्र। एक ईजाद कर लिया शब्द। और उस शब्द के आधार पर हम पांच हजार साल से करोड़-करोड़ लोगों को परेशान कर रहे हैं। और हमें यह खयाल भी पैदा नहीं हुआ कि हम यह क्या कर रहे हैं? इसलिए खयाल पैदा नहीं हुआ क्योंकि जिसे हमने शूद्र कह दिया, वह हमारे लिए मनुष्य ही नहीं रह गया। उसका मनुष्यों से कोई संबंध नहीं रह गया। एक शब्द खड़ा हो गया शूद्र और मनुष्य और मनुष्य अलग हो गए। वह ठीक हमारे जैसा व्यक्ति दूसरी तरफ मनुष्यों के बाहर हो गया।

अगर उसने वेद की ऋचाएं सुन लीं, तो हमने उसके कान में शीशा पिघलवा कर भरवा दिया; क्योंकि वह सुनने का हकदार न था, वह शूद्र था। हमें यह खयाल भी न आया, उसके भीतर भी हमारे जैसी एक आत्मा है, जो सत्य की खोज करना चाहती है। और अगर उसने वेद को सुनने की हिम्मत की है, आकांक्षा की है, तो यह स्वागत के योग्य बात है। नहीं, यह हमें खयाल नहीं आया। एक शब्द काफी था कि वह शूद्र है और बात खत्म हो गई। हमारे कान बंद हो गए, हमारे प्राण बंद हो गए, हमारे हृदय बंद हो गए। हमने हजारों शब्द ईजाद कर लिए हैं और वे दीवाल की तरह खड़े हुए हैं।

मैं एक घर में मेहमान था। उस घर के लोगों ने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। वे मुझे बड़े प्रेम से दो दिन अपने घर में रखे। चलने के कोई दो घंटे पहले उस घर के मालिक ने मुझसे पूछा, आपकी जाति क्या है? उन्हें मेरी जाति का कोई पता नहीं था। और मेरी कोई जाति है भी नहीं, पता हो तो कैसे हो? तो मैंने उनसे मजाक में ही कहा कि आप खुद ही सोचें कि मेरी जाति क्या हो सकती है? उनके घर में एक छोटा सा बच्चा था, उसने मेरी दाढ़ी वगैरह देख कर कहा कि कहीं आप मुसलमान तो नहीं? मैंने कहा कि अगर तुम कहते हो तो यही सही, मुसलमान ही सही। उस घर में बड़ी चिंता फैल गई। उन सबका मेरे प्रति रुख बदल गया। वह दो घंटे मैं दूसरा आदमी हो गया। उसके पहले मैं दूसरा आदमी था। एक शब्द बीच में आ गया "मुसलमान' और मैं दूसरा आदमी हो गया। मैं वही था, जो दो दिन से था, लेकिन वे बीते दो घंटे भिन्न हो गए। आते वक्त उन्होंने मेरे पैर पड़े थे, जाते वक्त उस घर में किसी ने मेरे पैर नहीं पड़े। एक शब्द बीच में आ गया। आते वक्त वे खुशी से भरे थे, जाने के बाद शायद उन्होंने अपना घर साफ किया हो। किया जरूर होगा, सफाई की होगी--एक मुसलमान घर में आ गया। मैं वही था, लेकिन एक शब्द बीच में आ गया और सारी बात बदल गई।

हमने न मालूम कितने शब्द खड़े किए हुए हैं जो दीवाल की तरह एक-दूसरे मनुष्य को अलग कर रहे हैं। और मनुष्य को ही अलग नहीं कर रहे हैं, हमारी आंखों को भी अंधा कर रहे हैं, हमारे प्राणों को भी बहरा कर रहे हैं, हमारी संवेदनशीलता को तोड़ रहे हैं।

जर्मनी में हिटलर ने कोई बीस लाख यहूदियों की हत्या करवाई। कौन लोगों ने हत्या की? वे लोग कोई बहुत बुरे लोग हैं? वे हम जैसे ही लोग हैं। पांच सौ यहूदी रोज नियमित हत्या किए जाते रहे। कौन लोग हत्या कर रहे थे उनकी? वे कोई पागल हैं? उनके दिमाग खराब हैं? या कि वे कोई दैत्य हैं, राक्षस हैं? नहीं, हमारे जैसे लोग हैं। सब बातें हमारे जैसी हैं। लेकिन एक शब्द यहूदी, और उस शब्द के साथ उनके प्राण पागल हो गए और उन्होंने वह किया जो आदमी को करने में जरा भी शोभा नहीं देता।

हमने अपने मुल्क में क्या किया? हिंदुओं ने मुसलमानों के साथ क्या किया? मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ क्या किया? छोड़ दें हिंदू-मुसलमान की बात, महाराष्ट्रियन गुजराती के साथ क्या कर सकता है? गुजराती महाराष्ट्रियन के साथ क्या कर सकता है? हिंदी बोलने वाला गैर-हिंदी बोलने वाले के साथ क्या कर सकता है? गैर-हिंदी बोलने वाला हिंदी बोलने वाले के साथ क्या कर सकता है? कुछ शब्द और उन शब्दों में जहर भरा जा सकता है और हमारे प्राण बिलकुल ही पागल हो सकते हैं। ऐसे बहुत से शब्दों की दीवाल हमने खड़ी कर ली है। इन शब्दों की दीवालों में जो घिरा है, वह आदमी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता।

शब्दों से मुक्त होना चाहिए। तो एक तो शब्द हैं, दीवाल की तरह मनुष्य-मनुष्य को तोड़ रहे हैं और साथ ही ये शब्द जीवन के प्रति भी हमारी आंखों को नहीं खुलने देते, वहां भी आंखों को बंद रखते हैं। हम शायद सब तरफ शब्दों को खड़ा कर लेते हैं। अपने चारों तरफ एक किला बना लेते हैं शब्दों का और उसके भीतर छिप जाते हैं। और जब भी जीवन में कोई अनहोनी और नई घटना घटती है, तो हम पुराने शब्दों से उसकी व्याख्या कर लेते हैं, और उसका नयापन समाप्त हो जाता है और खत्म हो जाता है।

यह जो हमारी स्थिति है यह हमें चुप नहीं होने देती, मौन नहीं होने देती, ताजा नहीं होने देती। वह जो मस्तिष्क है, उसको फ्रेश और नया नहीं होने देती। और नया मस्तिष्क न हो, तो कैसे जीवन से हम जुड़ सकें? कैसे जीवन को जान सकें? और शांत मन न हो, तो कैसे हम सत्य को जान सकें? और दीवालें न टूटें, तो हम कैसे मनुष्य से जुड़ सकें? दूर हैं पशु और पक्षी तो, दूर हैं पौधे, दूर है आकाश, दूर हैं आकाश के तारे, आदमी से ही हम नहीं जुड़ पा रहे हैं, तो हम परमात्मा से जुड़ने की बात कैसे करें?

यहां इतने लोग बैठे हैं। हम सबके बीच में दीवालें खड़ी होंगी, न मालूम किस-किस किस्म की। और उन सब दीवालों की ईंटें शब्दों से बनी हुई हैं, कोई लोहे से नहीं बनी हुईं। उन्हें तोड़ देने में जरा भी कठिनाई नहीं है। एक हाथ का धक्का, एक हवा का झोंका काफी होगा और वे गिर जाएंगी और आप एक नये मनुष्य होकर खड़े हो जाएंगे। अपने चारों तरफ से शब्दों की दीवाल हटा देनी जरूरी है। तो शायद हमारे भीतर जानने की क्षमता पैदा हो सके, सुनने की क्षमता पैदा हो सके, और शायद हमारे द्वार खुल सकें, और हमारे जो भीतर चारों तरफ जीवन है, वह प्रवेश कर सके। अभी तो वह कहीं से भी प्रवेश नहीं कर पाता है।

ऐसे ही शब्द--सत्य और आत्मा और ईश्वर और मोक्ष हमने सीख रखे हैं और उन्हें हम तोतों की भांति रटते रहते हैं और सोचते हैं कि शायद उन्हीं के द्वारा हमारे जीवन में आनंद आ जाएगा, शायद मुक्ति आ जाएगी, शायद अमृत की उपलब्धि हो जाएगी। नहीं होगी। रटते रहें तोतों की भांति हम जीवन भर। जीवन रटने से उपलब्ध नहीं होता। बल्कि रटने वाला, रिपीट करने वाला जो मन है, वह धीरे-धीरे जड़ हो जाता है, धीरे-धीरे और ज्यादा डलनेस पैदा हो जाती है, और ज्यादा मुर्दा हो जाता है और मर जाता है।

क्या करें? कैसे यह दीवाल टूट जाए? पहली बात, इस बात का हमें स्पष्ट बोध हो जाना चाहिए कि ये शब्द दीवाल बना रहे हैं। क्योंकि अगर कोई आदमी कारागृह में बंद हो, जेल में बंद हो और उसे यह भी पता न हो कि वह जेल में बंद है, तो वह छूटने का उपाय ही नहीं करेगा। अगर उसे यह भी पता न हो कि मैं जेल के भीतर बंद हूं, तो छूटने का सवाल ही नहीं है, मुक्ति के प्रयास का प्रयत्न भी नहीं होगा, प्रश्न भी नहीं होगा। कारागृह से छूटने के लिए पहली बात तो जरूरी है कि वह जान ले कि मैं कारागृह में बंद हूं। अगर यह अनुभव में आ जाए कि मैं कारागृह में बंद हूं, तो जिन दीवालों को उसने कल तक सजाया था और चित्र लगाए थे और फूल लगाए थे, वे दीवालें उसे शत्रु की भांति मालूम होने लगेंगी। वह उनकी सजावट बंद कर देगा और उनको तोड़ने का उपाय करेगा।

हम शब्दों की दीवालों को कारागृह अगर न मानते हों, तो हम शब्दों की दीवालों को और सजावट करते हैं और उस पर फूल लगाते हैं, इत्र छिड?कते हैं। उन शब्दों की हम पूजा करते हैं और उन शब्दों का हम और स्वागत करते हैं, तो दीवाल और बड़ी होती चली जाती है। हम सब अपने-अपने कारागृह को सजाने में लगे हुए हैं, तो उससे मुक्त होने का तो सवाल ही नहीं। हिंदू या मुसलमान शब्द कारागृह हैं। लेकिन हम तो हिंदू, जैन, मुसलमान, इन शब्दों को ऊंचा उठाने में लगे हैं। हम तो इस बात में लगे हुए हैं कि दुनिया में हिंदू धर्म का झंडा गड़ जाए, या ईसाई धर्म का झंडा गड़ जाए, या जैन धर्म का झंडा गड़ जाए। और हम तो जयजयकार करने की कोशिश में लगे हैं कि हिंदू धर्म की जय हो, मुसलमान धर्म की जय हो। हमारा झंडा गड़ जाए। और हम तो इसकी घोषणा करने में लगे हैं कि हिंदू धर्म महान धर्म है और बाकी सब छोटे धर्म हैं। और इस्लाम ही असली धर्म है, बाकी सब झूठे हैं। और क्राइस्ट के सिवाय और कोई मुक्तिदाता नहीं है। इस तरह की बातें जो लोग कह रहे हैं, इस तरह की घोषणाएं जो लोग कर रहे हैं, वे तो अपने कारागृह को सजा रहे हैं, वे उसे तोड़ेंगे कैसे?

हम तो सारे लोग अपने-अपने शब्दों की पूजा करने में लगे हैं और हमने तो शब्दों के लिए मंदिर बना रखे हैं और हम लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं उन शब्दों की रक्षा के लिए, संगठन बना रहे हैं। उन शब्दों की रक्षा के लिए हत्या करने के लिए हम तैयार हैं, उन शब्दों की रक्षा के लिए चाहे आदमी को मारना पड़े, हम मारने को राजी हैं। हमारी किताबें यह कर रही हैं। हमारे ग्रंथ यह कर रहे हैं। हमारा प्रचार यह कर रहा है। सारी दुनिया में धर्म के नाम पर शब्दों के झंडे गड़ाने की कोशिश की जा रही है, चाहे उनके आस-पास कितने ही आदमियों की हत्या हो जाए। और आज तक हत्या होती रही है, और आज भी हत्या हो रही है, और कल के लिए भी कुछ नहीं कहा जा सकता। अगर आदमी ऐसा ही रहा, तो कुछ भी हो सकता है।

पुराने शब्द फीके पड़ जाते हैं तो हम नये शब्द पकड़ लेते हैं। महावीर पर आज लड़ाई होनी बंद हो गई, शायद मोहम्मद पर भी लड़ाई होनी करीब-करीब बंद हो गई, तो नये नाम आ गए हैं। माक्र्स नया नाम है। इस पर लड़ाई शुरू हो गई। कम्युनिज्म नया शब्द है, इस्लाम-हिंदू पुराने पड़ गए, अब इस पर लड़ाई शुरू हो गई। अब सारी दुनिया में कम्युनिज्म एक शब्द है, जिस पर लड़ाई खड़ी हुई है। नई आइडियालॉजी खड़ी हो गईं, जिन पर हम लड़ेंगे और हत्या करेंगे। अमरीका नये शब्दों को पकड़े हुए बैठा है, रूस नये शब्दों को पकड़े हुए बैठा है। नये शब्दों पर लड़ाई हो रही है। और लड़ाई यहां तक पहुंच सकती है कि शायद सारी मनुष्य-जाति को समाप्त हो जाना पड़े। किस बात पर? इस बात पर कि कुछ शब्द हमको प्रिय थे, और कुछ शब्द आपको प्रिय थे और हम अपने शब्दों को छोड़ने को राजी नहीं थे और आप अपने शब्दों को छोड़ने को राजी नहीं थे।

क्या आदमी अपने इस बचकानेपन से मुक्त नहीं होगा? क्या ये बच्चों जैसी बातें और शब्दों की लड़ाइयां बंद नहीं होंगी? ये तब तक बंद नहीं होंगी, जब तक हम शब्दों को आदर और पूजा देते रहेंगे। क्योंकि जिसको हम पूजा देते हैं, उससे हम छुटकारा कैसे पा सकते हैं? छुटकारा पाने के लिए पहली बात जरूरी है, शब्द कारागृह हैं और उनका ज्ञान हमें मुक्त नहीं करता बल्कि बांधता है, यह जान लेना जरूरी है। इसको जानते ही आपके भीतर से दीवाल गिरनी शुरू हो जाएगी। वह जो शब्दों का भवन है, वह खिसकना शुरू हो जाएगा। उसकी आधारशिला खींच ली गई। वह आधारशिला हमने अपने प्रेम से रखी है, पूजा से रखी है। अगर हम अपने पूजा और प्रेम को अलग कर लेते हैं, वह गिर जाएगी। एक ऐसी दुनिया चाहिए जिसमें आदमी तो हों लेकिन हिंदू और मुसलमान न हों। ये बहुत कलंक के दाग हैं। एक ऐसी दुनिया तो चाहिए, जिसमें सोच-विचारशील लोग हों लेकिन शब्दों को पकड़ने वाले पागल नहीं। एक ऐसी दुनिया चाहिए, जहां आदमी-आदमी के बीच शब्दों की कोई दीवाल न रह जाए, तो शायद धर्म का राज्य शुरू हो सकता है। तो शायद व्यक्ति के जीवन में और समूह के जीवन में भी धर्म का अवतरण हो सकता है। उसके पहले नहीं हो सकता। उसके पहले कोई रास्ता नहीं है। इधर पांच हजार वर्षों में हमने शब्दों के जाल खड़े किए हैं और खुद उसमें फंस गए हैं। अब कौन इसको तोड़े? कुछ लोग अगर हिम्मत नहीं करेंगे, तो शायद यह शब्दों का जाल हमारी फांसी बन जाएगा और हमारा बचना मुश्किल हो जाएगा।

और कितने आश्चर्य की बात है कि पांच हजार साल का इतिहास देखने के बाद भी हम शब्दों के प्रति जागरूक नहीं हो रहे हैं कि हमने क्या किया? हमें खयाल में भी नहीं आ रहा है कि इन शब्दों ने हमारे साथ क्या किया? और हमें किस स्थिति में पहुंचा दिया? एक-एक व्यक्ति के भीतर भी यह जाल है और सबके बाहर भी यह जाल है। हरेक को अपने भीतर इस जाल को तोड़ने में लगना होगा। तो ही उसके भीतर वह साइलेंस पैदा हो सकती है, जिसकी मैं आपसे बात कर रहा हूं।

क्या करें? कैसे तोड़ें? लोग मुझसे निरंतर पूछते हैं, कैसे तोड़ें?

मैं उनसे कहता हूं, पहली बात, शब्दों के प्रति सारा आदर, सारी पूजा, शब्दों के प्रति सारा भक्ति-भाव छोड़ दें। शब्दों में कुछ भी नहीं है। शब्दों में कोई सत्य नहीं है। सत्य तो वहीं अनुभव होता है, जहां सारे शब्द छूट जाते हैं। इसलिए शब्दों के प्रति सारी भक्ति, सारी पूजा जानी चाहिए। यह सारा शब्दों के प्रति जितना आदर है, सम्मान है, यह जाना चाहिए। सम्मान पैदा होना चाहिए सत्य के प्रति, शब्द के प्रति नहीं। और जिसको सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, वह न तो हिंदू रह जाएगा, न मुसलमान, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न पारसी। और जिसे सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, वह न तो भारतीय रह जाएगा, न पाकिस्तानी, न चीनी। जिसे सत्य के प्रति सम्मान पैदा होगा, उसके जीवन से सारी सीमाएं गिर जाएंगी। क्योंकि सब सीमाएं शब्दों ने पैदा की हैं। सत्य की कोई सीमा नहीं है। सत्य असीम है। सत्य की कोई सीमा नहीं है। सत्य का कोई देश, कोई जाति, कोई धर्म नहीं। सत्य का कोई मंदिर, कोई मस्जिद नहीं। सत्य तो है पूरा जीवन, विराट जीवन। सभी कुछ जो चारों तरफ मौजूद है, वह सभी सत्य है। उस विराट और असीम से मिलने के लिए भीतर भी असीम मन चाहिए। सीमित और क्षुद्र मन, यह जो नैरो-माइंड है, यह जो छोटा सा मन है, यह काम नहीं कर सकेगा। विराट को पाने के लिए इसे भी विराट होना पड़ेगा। लेकिन हम ईश्वर को खोजने निकल पड़ते हैं। इसकी बिलकुल भी खोज नहीं करते कि हमारा यह मन कितना क्षुद्र है।

एक फकीर के पास एक युवक गया और उस युवक ने कहा: मैं ईश्वर को, मैं सत्य को खोजने आया हूं, क्या आप मुझे कोई मार्ग बता सकेंगे? वह फकीर बोला, इसके पहले कि मैं तुम्हें कुछ कहूं, मेरे साथ कुएं पर आओ--वह कुएं पर पानी भरने जा रहा था। उसने हाथ में एक बाल्टी ली और एक बड़ा ढोल लिया और वह कुएं पर गया। उसने बाल्टी कुएं में डाली, खींची। और वह युवक खड़ा हुआ देखता रहा। बाल्टी खींच कर उसने उस बड़े ड्रम में जिसे वह अपने साथ लाया था, उसमें पानी डाला। लेकिन ड्रम के नीचे कोई बाट्म नहीं था, उसके नीचे कोई पेंदी नहीं थी। पानी जमीन पर बह गया। उसने दूसरी बाल्टी खींची, वह भी डाली। वह लड़के का संयम टूट गया। उसने एक, दो, तीन बाल्टियां बहते देखीं, चौथी बाल्टी पर उसने कहा: महानुभाव! आप भी आश्चर्यजनक मालूम पड़ते हैं। जिस ढोल में आप पानी भर रहे हैं, उसमें नीचे कोई पेंदी नहीं है, और पानी बहा जा रहा है। जिंदगी भर भी पानी भरते रहिए, तो भी पानी भरेगा नहीं।

उस फकीर ने कहा: मेरे मित्र! मुझे ढोल की पेंदी से क्या मतलब? मुझे पानी भरना है, तो मैं ढोल के गले पर आंखें गड़ाए हुए हूं। जब गले तक पानी आ जाएगा, तो मैं समझ लूंगा, पानी भर गया। पेंदी से मुझे क्या लेना-देना?

युवक बहुत हैरान हुआ इस उत्तर से। उस दिन चला गया। लेकिन रात उसने सोचा कि जो बात मुझे दिखाई पड़ रही थी, सीधी और साफ बात थी। अंधे आदमी को भी पता चल जाती कि उस ढोल में पेंदी नहीं थी। वह उस फकीर को नहीं दिखाई पड़ी, यह बड़े आश्चर्य की बात है। इसमें जरूर कुछ न कुछ रहस्य होना चाहिए। जो मुझे दिखाई पड़ रहा था, उसे क्यों दिखाई नहीं पड़ेगा?

वह वापस गया दूसरे दिन और उसने कहा कि मुझे माफ करें, मैंने अशिष्टता की कि मैंने आपसे कहा कि जिस ढोल में पेंदी नहीं है उसमें पानी मत भरिए। लेकिन रात मैंने सोचा तो मुझे दिखाई पड़ा कि जो बात मुझे दिखाई पड़ रही थी, मैं जो कि बिलकुल अज्ञानी हूं, तो क्या आपको दिखाई नहीं पड़ रही होगी? आपको भी दिखाई पड़ रही होगी। तब जरूर बात कुछ और है। तो मुझे कृपा करके समझाएं कि उस पेंदी से रहित ढोल में पानी भरने का क्या आशय था?

उस फकीर ने कहा: ठीक हुआ कि तुम लौट आए, क्योंकि अक्सर जो लोग सत्य खोजने आते हैं, उनके साथ पहला काम मैं यही करता हूं, पेंदी रहित ढोल में पानी भरता हूं। वे मुझे पागल समझ कर वापस लौट जाते हैं और फिर कभी नहीं आते। लेकिन तुम लौट आए। तुम पहले आदमी हो लौटने वाले। तुमसे मैं कुछ कहूंगा।

तुम्हें यह तो दिखाई पड़ गया कि जिस ढोल में पेंदी नहीं है, उसमें पानी नहीं भरा जा सकता। लेकिन तुम्हें यह दिखाई क्यों नहीं पड़ता कि तुम्हारा मन, जो इतना क्षुद्र है, उसमें आकाश जैसे विराट सत्य को नहीं भरा जा सकता? तुम्हें यह तो दिखाई पड़ गया कि जो बर्तन पानी भरने में समर्थ नहीं है, उसमें पानी नहीं भरा जा सकता? लेकिन तुम्हें यह दिखाई क्यों नहीं पड़ता कि जो मन अभी सत्य को भरने में समर्थ नहीं है, उसमें सत्य नहीं भरा जा सकता। लेकिन तुम वापस लौट आए हो, तुमसे कुछ बात हो सकती है। सत्य की खोज तो छोड़ दो। जैसा कि तुमने मुझसे कहा था कि पानी भरना बंद करो, पहले इसके भीतर पेंदी होनी चाहिए। वही मैं तुमसे कहता हूं, ईश्वर और सत्य की खोज तो छोड़ दो, पहले उस मन की फिक्र करो, जो तुम्हारे भीतर है और जो सत्य की खोज करने जा रहा है।

हम सारे लोग खोज करने निकल पड़ते हैं बिना इस बात को देखे हुए कि जो मन खोज करने जा रहा है वह कैसा है। पहली बात तो यह है कि वह मन बहुत सीमित, बहुत क्षुद्र है, शब्दों की दीवाल में बंद है, और इसलिए सत्य को नहीं पा सकेगा। दीवाल तोड़नी जरूरी है। और कोई दूसरी दीवाल नहीं है। स्मरण रखिए! मन के ऊपर शब्दों के अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है। अगर शब्द अलग हो जाएं, तो मन एकदम निराकार हो जाएगा। कभी आपने सोचा, कभी अपने मन के भीतर खोजी यह बात कि अगर शब्द न हों तो वहां क्या होगा? अगर कोई भी शब्द न हो, तो भीतर क्या होगा? कोई दीवाल न होगी, कोई सीमा न होगी, मन निराकार हो जाएगा। कहीं किसी किनारे पर भी फिर मन को बांधने वाली कोई चीज न होगी। शब्द बांध रहे हैं। जितना ज्यादा शब्द बांध लेते हैं, उतना ही मन छोटा हो जाता है। जितने शब्द छूट जाते हैं, उतना ही मन बड़ा हो जाता है।

शब्दों को विदा करना है। पहली बात जो मैंने कही वह यह कि शब्द दीवाल हैं, कारागृह हैं, यह बोध होना चाहिए। दूसरी बात, इन शब्दों को विदा करना है, तो संग्रह करना बंद कर देना चाहिए। लेकिन हम तो सुबह से सांझ तक शब्दों का संग्रह करते हैं। सुबह उठते से ही हम अखबार की खोज करते हैं। फिर रेडियो को सुनते हैं। फिर मित्रों से बात करते हैं। फिर दिन भर है, फिर सांझ है और शब्द इकट्ठे हो रहे हैं। और कभी हम इस बात का खयाल नहीं रखते कि ये शब्द इकट्ठे करके आखिर में हम क्या करेंगे? ये सारे शब्द इकट्ठे हो जाएंगे। काम के, बेकाम; अर्थ के, अनर्थ, सब इकट्ठे हो जाएंगे। फिर मन उनसे क्या करेगा? लेकिन शब्दों को जितना हम इकट्ठा कर लेते हैं, एक तरह का पावर, एक तरह की ताकत हमको मिलती हुई मालूम पड़ती है। क्योंकि जो आदमी शब्दों के साथ खेलने में जितना कुशल हो जाता है, वह आदमी उतना ही लोगों पर प्रभावी हो जाता है। लोगों के ऊपर प्रभाव हो जाता है उसका। जितना शब्दों के साथ खेलने में उसकी कुशलता बढ़ जाती है, वह लोगों के साथ उतना ही कुशल हो जाता है। जितना शब्दों में कमजोर होता है, उतनी उसकी लोगों के साथ जीवन-कुशलता कम हो जाती है। शब्द कुशलता बढ़ाते हुए मालूम पड़ते हैं।

यह बात सच है। शब्द निश्चित ही कुशलता बढ़ाते हैं। जीवन के व्यवहार में एक इफिशिएंसी, एक कुशलता पैदा करते हैं। लेकिन शब्द भीतर इकट्ठे होते जाते हैं, और विचार इकट्ठे होते जाते हैं, और भीतर धूल इकट्ठी होती जाती है, कचरा इकट्ठा होता जाता है। और वे सब इतने ज्यादा भीतर इकट्ठे हो जाते हैं कि उनमें बंद मन फिर किसी तरह की उड़ान लेने में समर्थ नहीं रह जाता।

शब्दों का व्यवहार करें। शब्दों की कुशलता उपयोगी है, लेकिन शब्दों के गुलाम न बन जाएं। कोई शब्द आपको पकड़ने वाला न हो जाए। शब्द आपके हाथ के साधन हों, शब्द जीवन के साध्य न बन जाएं। इसका स्मरण रहे निरंतर, शब्द जीवन के लिए, बोलने के लिए, संबंधित होने के लिए जरूरी हैं लेकिन शब्द भीतर जंजीरें नहीं बन जाने चाहिए।

यह अगर निरंतर स्मरण हो, तो हम व्यर्थ के शब्द भी इकट्ठे नहीं करेंगे और जिन शब्दों को इकट्ठा करेंगे, उनको भी हम अपनी जंजीरें न बनने देंगे। वे हमारे प्राणों के ऊपर पत्थर बन कर नहीं बैठ जाएंगे। हम उन्हें किन्हीं भी क्षण हटा दे सकते हैं। उनके साथ हमारा कोई मोह, कोई लगाव पैदा नहीं हो जाएगा। लेकिन अभी तो अगर हम एक शब्द भी आपको हटाने को कहें, तो इतना मोह और इतना लगाव मालूम होगा कि उसे कैसे हटा सकते हैं? अगर मैं आपसे कहूं कि आप इतनी हिम्मत करें कि मैं हिंदू शब्द को हटा दूं अपने मन से, तो आप कहेंगे, यह कैसे हो सकता है? क्योंकि इस शब्द को हटाऊंगा, तो फिर मैं, मैं क्या रह जाऊंगा? वह हिंदू होना जैसे हमारी संपत्ति और हमारी आत्मा है, जैसे उसे हम हटा नहीं सकते। यहूदी होने को नहीं हटा सकते हैं। मुसलमान होने को नहीं हटा सकते हैं। वह शब्द हमारे प्राणों पर बैठा है।

अभी एक गांव में मैं था। उस गांव के मुसलमान नवाब की पत्नी मुझसे मिलने आई और उसने मुझसे कहा: आपकी बातें तो मुझे ठीक मालूम पड़ीं, लेकिन तीन रात मैं सो नहीं सकी। मैंने बहुत कोशिश की कि इस मुसलमान होने की बात को हटा दूं, लेकिन इसे हटाना ऐसा लगता है जैसे कोई अपने प्राणों को अलग कर रहा हो।

शब्द अगर इस भांति मन को पकड़ते हों, तो गुलामी पैदा होती है, तो एक स्लेवरी पैदा होती है। तो शब्दों के साथ मोह नहीं होना चाहिए। उनका उपयोग होना चाहिए, जैसे आदमी वस्त्रों का उपयोग करता है। शब्द वस्त्र से ज्यादा नहीं होने चाहिए। उनके साथ कोई मोह, कोई लगाव, कोई आसक्ति, उनके साथ प्राणों का कोई गहरा संबंध बनाना एक गुलामी को निर्मित करना है। और जब यह गुलामी निर्मित हो जाए, तो फिर हम अपने ही हाथ से पैदा किए हुए जाल में फंस जाते हैं, जिसके बाहर निकलना कठिन हो जाता है। मैंने उस महिला को कहा कि अगर तुम्हारी इतनी भी सामर्थ्य नहीं है कि तुम एक शब्द को अपने से मुक्त कर सको, तो फिर क्या तुम सोचती हो कि यह मन जो इतना कमजोर और गुलाम है, क्या यह मन ईश्वर को जान सकेगा? जिसकी इतनी साहस और इतनी हिम्मत और इतना सा साहस नहीं है कि एक शब्द से छुटकारा पा सके। यह और किस चीज से छुटकारा पा सकेगा?

यह स्मरण रखना जरूरी है कि ये शब्द आते हैं, जाते हैं। इनके साथ कोई प्राणों का संबंध बांध लेना ठीक नहीं। तब चित्त एक निरंतर सतत मुक्ति की अवस्था में, सतत प्रवाह की अवस्था में हो सकता है। उत्तर पकड़ लिए जाते हैं। फिर उन उत्तरों के लिए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं कि यही सत्य होना चाहिए। सत्य को बिना जाने मोहाविष्ट हो जाना कि यही सत्य होना चाहिए, बहुत खतरनाक है, गुलामी है। स्वतंत्रता चाहिए चित्त की। तभी तो चित्त शांत भी हो सकेगा, नहीं तो नहीं हो सकेगा। गुलाम चित्त कैसे शांत हो सकता है? गुलाम चित्त कमजोर चित्त है। यह स्मरण, यह प्रतीति, यह बोध कि शब्द जो मैं इकट्ठे कर रहा हूं वे मेरी गुलामी तो नहीं बन रहे हैं? यह निरंतर अगर खयाल हो, तो कोई कारण नहीं है कि कोई शब्द हमारी गुलामी बन जाए और कोई शब्द बाधा बन जाए।

निरंतर आपने देखा होगा। अगर हम किसी से कुछ बात करते हैं और विवाद करते हैं, तो विवाद सत्य के लिए नहीं होता, निरंतर शब्दों के लिए होता है। हम एक शब्द पकड़ लेते हैं, दूसरा आदमी दूसरा शब्द पकड़ लेता है और हम विवाद में पड़ जाते हैं। इसीलिए तो किसी विवाद, किसी आर्ग्युमेंट से कभी कोई निष्पत्ति नहीं निकलती, कोई कनक्लूजन नहीं निकलता। अगर शब्दों की पकड़ न हो, तो दो आदमी जो विवाद करेंगे और विचार करेंगे, वह विचार उन्हें कहीं ले जाएगा। किसी निष्पत्ति पर, किसी निष्कर्ष पर, किसी समाधान पर। लेकिन हम सब शब्दों को पकड़ लेते हैं। मेरा शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है आपके शब्द से, क्योंकि वह मेरा है। और जो आपका है, वह आपका है। और जब हम विवाद करते हैं, तो यह सवाल नहीं होता कि सत्य क्या है, सवाल यह होता है कि मेरा क्या है? जो शब्द मेरा है वह जीतना चाहिए, क्योंकि उसकी जीत में मेरे अहंकार की जीत है।

शब्दों की जो गुलामी है, वह मेरे शब्दों के कारण पैदा होती है। जो शब्द मेरे हैं, उनका मैं गुलाम हो जाता हूं। कोई शब्द किसी का नहीं है। अगर गुलामी से मुक्त होना है, तो यह जानना चाहिए, शब्द कोई भी मेरा नहीं है। और तब चित्त अनप्रिज्युडिस्ड, निष्पक्ष हो जाएगा। तब किसी शब्द के लिए कोई लड़ाई नहीं है। तब हम किसी भी शब्द के लिए निष्पक्ष विचार करने को तत्पर हैं, उत्सुक हैं, खोज के लिए तैयार हैं। तो शायद इस दुनिया में फिर कोई विवाद न हो, अगर लोग शब्दों के साथ मेरे होने का मोह छोड़ें।

कौनसा शब्द आपका है? सिवाय इसके कि एक शब्द बचपन से आपके कान में बार-बार दोहराया गया है, और आपका उसमें क्या है? कौनसा शब्द आपका है? कौनसा सिद्धांत आपका है? कौनसा विचार आपका है? कोई भी तो आपका नहीं है। कोई भी विचार बार-बार दोहरा दिया जाए आपके मन में, वह आपको लगने लगेगा मेरा है। जो लोग बहुत कुशल होते हैं दूसरे लोगों को समझाने में, जीतने में, वे हमेशा एक तरकीब का उपयोग करते रहे हैं।

अब्राहिम लिंकन से एक बार उसके किसी मित्र ने पूछा कि आप हमेशा विवाद करने में विजयी क्यों हो जाते हैं? उसने कहा: मैं दूसरे आदमी को इस भांति का विश्वास दिलाने की कोशिश करता हूं कि जो मेरी मर्जी है, वह उसकी ही मर्जी है। जो बात मुझे उसे मनवानी होती है, जिस बात के लिए मुझे उसे कनविंस करवाना होता है, मैं इस भांति की कोशिश करता हूं जैसे कि वह उसकी ही मर्जी है। और जैसे ही उसे यह खयाल पकड़ जाता है कि यह उसकी मर्जी है, मैं जीत जाता हूं, वह हार जाता है। हालांकि उसे लगता है कि वह जीता।

अब्राहिम लिंकन ने कहा कि मेरा एक मित्र एक मामले में बिलकुल जिद्द पकड़े हुए था। मैंने आठ-दस दिन के लिए बात उस संबंध में करनी बंद कर ली। एक दिन रास्ते में चलते हुए मैंने उससे कहा कि मुझे ऐसा खयाल आता है, एक दिन तुमने ऐसी कोई बात कही थी--वह बात वही थी जो मुझे मनवानी थी, और यह बात बिलकुल झूठ थी कि उसने कभी मुझसे उस बात को कहा हो--लेकिन मैंने उससे कहा कि मुझे खयाल आता है कि कभी तुमने ऐसी कोई बात मुझसे कही थी। उसने कहा: मुझे तो खयाल नहीं आता। लेकिन मैंने उसे खयाल दिलाने की कोशिश की कि एक दिन बातचीत के दौर में तुमने ऐसा कुछ कहा था। और वह धीरे-धीरे सहमत हुआ और राजी हो गया। उस बात पर राजी हो गया जिस पर आठ दिन पहले वह विवाद करने को तैयार था। कौनसी कमजोरी इस लिंकन ने उस आदमी की पकड़ ली? एक कमजोरी पकड़ ली, उसे यह खयाल आ जाए कि यह बात मेरी है, तो बात पूरी हो गई।

दुनिया में जो बड़े नेता हैं, वे जनता को यह विश्वास दिलाया करते हैं कि आप जो कहते हो वही हम कह रहे हैं। जो आपकी मर्जी, वही हमारा विचार है। और लोग ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों के लिए भी राजी हो जाते हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। एक दफा उन्हें विश्वास आ जाए कि वह विचार उनका है, मेरा है। बस फिर, फिर कुछ भी करवाया जा सकता है। हिंदू धर्म मेरा है, तो फिर मेरी हत्या करवाई जा सकती है। मुसलमान धर्म मेरा है, तो फिर मैं अपनी गर्दन कटवा सकता हूं। वह जो मेरा है, वह बहुत बलवान है और वह मेरे मन को पकड़ लेता है।

यह जो शब्द और विचारों की सारी गुलामी है, यह मेरे की वजह से पैदा हुई है। इसको अगर तोड़ना है, तो एक बात जान लेनी है, कोई शब्द मेरा नहीं है, कोई विचार मेरा नहीं है। सब विचार उधार हैं और सब विचार किसी खास तरह के प्रोपेगेंडा का परिणाम हैं। मैं हिंदू घर में पैदा हुआ हूं, तो हिंदू प्रोपेगेंडा के भीतर पला हूं। बचपन से मुझे कहा गया है कि कृष्ण जो हैं भगवान हैं, और गीता जो है भगवान की किताब है। मुझे बचपन से यह बात कही गई है। मैंने बार-बार इसे सुना है। धीरे-धीरे मुझे यह अहसास आ गया है कि यह मेरा खयाल है कि कृष्ण जो हैं भगवान हैं, गीता जो है भगवान की किताब है। यह मेरा खयाल है। यह बीस-पच्चीस वर्ष, पचास वर्ष तक निरंतर दोहराने का परिणाम है कि मुझे लगता है यह मेरा खयाल है। इसमें मेरा क्या है? अगर मुझे मुसलमान घर में रखा गया होता, तो मेरा खयाल यह होता कि कुरान जो है वह भगवान की किताब है। और अगर मुझे ईसाई घर में रखा गया होता, तो मेरा खयाल यह होता कि बाइबिल जो है वह ईश्वर की किताब है।

बचपन से जो प्रोपेगेंडा है, प्रचार है, उसका परिणाम है कि लगता है कि ये मेरे शब्द, यह मेरा धर्म है, यह मेरा देश, यह मेरी जाति, ये शब्द मेरे हैं और वे शब्द मेरे नहीं हैं। फिर गुलामी खड़ी हो जाती है। आज तक हम बच्चों के मन गुलाम बनाते रहे हैं। एक अच्छी दुनिया पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि मां-बाप ने निरंतर यह कोशिश की है कि जिस गुलामी में वे कैद हैं, उनका बच्चा उस गुलामी के बाहर न हो जाए, वह भी उसी कारागृह में बड़ा हो। हर बाप, हर मां की यह कोशिश रही है आज तक कि जिस गुलामी में वे हैं, बच्चा उस गुलामी के बाहर न हो जाए।

शायद एक डर था इसमें और वह केवल यह था कि अगर वह मेरी गुलामी से बाहर हुआ, तो वह किसी दूसरे की गुलामी में पड़ जाएगा। अगर वह हिंदू घेरे के बाहर हुआ तो पता नहीं मुसलमान हो जाए, ईसाई हो जाए। इसके पहले कि वह ईसाई या मुसलमान हो, उसे हिंदू बना देना जरूरी है। और दुनिया में जितने धर्म हैं, वे चूंकि सभी एक न एक तरह की गुलामियां हैं। इसलिए हर बाप परेशान है और डरा हुआ है कि मेरा बच्चा कहीं इस गुलामी को छोड़ कर उस गुलामी में न चला जाए। क्योंकि अपनी गुलामी फिर भी अपनी है, पराई तो नहीं है। अपनी अकेली नहीं है, बाप-दादाओं से, हजारों वर्षों से है, परंपरागत है। जो अपनी है, वह गुलामी हो, तो भी अच्छी मालूम पड़ती है। इस वजह से आज तक दुनिया में स्वतंत्र मन पैदा नहीं हो सका। इस वजह से अब तक हम स्वतंत्र मनुष्य को जन्म नहीं दे पाए। और गुलाम मनुष्य की जो तकलीफें हैं वे हम सबको झेलनी पड़ रही हैं और हम झेलते रहेंगे। लेकिन क्या यह हमेशा ही चलाए जाइएगा? क्या कोई रास्ता नहीं खोजना है कि बदलाहट हो सके? क्या कोई फिक्र नहीं करनी है कि क्रांति आ सके और हम स्वतंत्र मनुष्य को जन्म दे सकें?

लेकिन आप अपने बच्चों के लिए स्वतंत्रता के मार्गद्रष्टा तभी हो सकेंगे, जब आप स्वतंत्र हो जाएं। और स्वतंत्र होने के लिए जरूरी है पहली बात, अपने मन से यह खयाल अलग कर दें कि कोई विचार मेरा है। यह मेरे का खयाल टूट जाए और आप पाएंगे, आप एकदम निष्पक्ष हो गए, एकदम मुक्त हो गए, सारी जंजीरें जैसे टूट गईं, सारी प्रिज्युडिस, सारे पक्ष गिर गए। और अगर आप अपने बच्चों को भी इस निष्पक्ष चित्तता में विकसित कर सकें और उन्हें समझा सकें कि जो तुमने नहीं जाना है, वह तुम्हारा नहीं है। चाहे मैं कहूं, चाहे कोई भी कहे, चाहे हजारों साल की परंपरा कहे, लेकिन तुम किसी शब्द के और सिद्धांत के गुलाम मत हो जाना। तुम खोजना, तुम खुद खोज करना, तुम इंक्वायरी करना, अपने मन को ताजा रखना हमेशा खोजने के लिए। तो शायद बच्चे आने वाली दुनिया में एक स्वतंत्र मनुष्य की जाति को जन्म देने में समर्थ हो जाएं।

लेकिन उसके पहले उन सारे लोगों को स्वतंत्र होना होगा--हम सारे लोगों को, मुझे, आपको। दूसरी बात है, मेरे का खयाल छोड़ देना आवश्यक है। और तीसरी बात, पहली बात तो यह बोध कि शब्द कारागृह हैं, दूसरी बात कि शब्द मेरे नहीं हैं और तीसरी बात, शब्द के साक्षी होने की सामर्थ्य पैदा करनी चाहिए, विटनेस होने की सामर्थ्य पैदा करनी चाहिए।

मन में शब्द घूम रहे हैं, घूम रहे हैं। थोड़ी देर को कभी एकांत में बैठ कर केवल उनके साक्षी हो जाना चाहिए। जैसे रास्ता चल रहा हो और लोग निकल रहे हों और कोई बैठ जाए और सिर्फ साक्षी हो जाए और लोगों को निकलने दे। ऐसे ही विचार को भी निकलने देना चाहिए, शब्द को भी निकलने देना चाहिए और दूर खड़े होकर देखना चाहिए।

क्या होगा दूर खड़े होकर देखने से? जैसे ही दूर खड़े होकर कोई शब्दों के जुलूस को देखेगा, एक प्रोसेशन है जो चल रहा है पूरे वक्त मन में, दूर खड़े होकर जो भी शब्दों के इस प्रोसेशन को, इस जुलूस को देखेगा, उसे एक बात तो यह पता चलेगी कि मैं अलग हूं और शब्द अलग हैं। और दूसरी बात उसे यह पता चलेगी एक शब्द के जाने और दूसरे के आने के बीच में इंटरवल है, अंतराल है, खाली जगह है। हर दो शब्दों के बीच में थोड़ा गैप है। जो व्यक्ति अपने भीतर थोड़ा दूर खड़े होकर शब्दों की चलती हुई धारा को देखेगा, उसे दो बातें दिखाई पड़ेंगी। पहली, शब्द अलग हैं, मैं अलग हूं। दूसरी बात, हर शब्द के जाने और दूसरे के आने के बीच में गैप है, खाली जगह है। उसी खाली जगह में साइलेंस का अनुभव होगा। शब्दों के बीच खाली जगह है।

हम यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर कोई हवाई जहाज से देखे, तो उसे हमारे बीच में खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन वह धीरे-धीरे करीब आए। एक जंगल को आप हवाई जहाज से देखें तो दरख्तों के बीच खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी। नीचे आएं, तो धीरे-धीरे एक दरख्त और दूसरे दरख्त के बीच में खाली जगह का पता चलेगा।

अभी आप यहां बैठे हैं, मैं इतने दूर से देखता हूं, आपके बीच की खाली जगह मुझे पता नहीं चलती। लेकिन आपके करीब आऊं, तो आपके पास खाली जगह है। अगर खाली जगह न हो, तो आप बैठ ही नहीं सकते थे। दो आदमियों के बीच खाली जगह जरूरी है। दो शब्दों के बीच भी खाली जगह है। नहीं तो एक शब्द दूसरे शब्द के ऊपर चढ़ जाएगा। मैं अभी बोल रहा हूं, कितने हजारों शब्द बोले। हर शब्द और दूसरे शब्द के बीच में खाली जगह है, नहीं तो आप कुछ समझ नहीं सकेंगे।

हमारे मन के भीतर भी जो विचार चल रहे हैं, शब्द और शब्द के बीच में खाली जगह है। लेकिन हमने कभी ठहर कर इसे देखा नहीं। हम इसे ठहर कर देखेंगे निकट जाकर, तो ये इंटरवल्स हमें दिखाई पड़ेंगे। और ये जो इंटरवल्स हैं, ये जो शब्दों के बीच में खाली जगह हैं, वहीं से आपको पहली दफे साइलेंस का अनुभव होगा, शांति का अनुभव होगा, मौन का अनुभव होगा। और जैसे ही आपको शांति का अनुभव होगा, वैसे ही आपको पता चलेगा, शब्दों में कारागृह था, शांति में मुक्ति है। शब्दों में जेल थी, शांति में स्वतंत्रता है। यह आपको पता चलेगा। यह मेरे कहने से पता नहीं चल सकता। यह किसी और के कहने से पता नहीं चल सकता। यह तो उस शांति का जैसे ही अनुभव होगा, जैसे शब्दों के बीच में खाली जगह मिलेगी और आप उसमें डूब जाएंगे तो आप पाएंगे, शब्द बंधन हैं, शून्य स्वतंत्रता है; शब्द कारागृह हैं, शून्य मोक्ष है। और एक बार भी इस साइलेंस का अहसास शुरू हो जाए, तो कोई भी आदमी शब्दों से भरा न रहना चाहेगा।

एक बच्चा पत्थर बीन रहा हो नदी के किनारे और उसे कोई हीरे-जवाहरात देने वाला मिल जाए, तो वह पत्थर फेंक देगा और हीरे-जवाहरात पकड़ लेगा। आपको पता ही नहीं है कि साइलेंस क्या है, इसीलिए शब्दों से उलझे हुए हैं और परेशान हैं। एक बार पता चल जाए, एक बार यह पता चल जाए कि क्या है शांति? क्या है मौन? तो फिर आप शब्दों को पकड़ने वाले न रह जाएंगे। उसी दिन से आपकी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी। आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। लेकिन पता ही नहीं है। और कठिनाई यह है कि कोई दूसरा आपको बता नहीं सकता। खुद ही जानना होगा, खुद ही पहुंचना होगा।

तीन सूत्र मैंने आपसे कहे। पहली बात, शब्द कारागृह हैं, इसका अनुभव। दूसरी बात, शब्द मेरे नहीं हैं, इसका अनुभव। तीसरी बात, शब्दों के बीच में खाली जगह है, इसका अनुभव। यह तीसरी बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। पहली दो बातें उसकी भूमिका है, तीसरी बात महत्वपूर्ण है।

थोड़ी देर कभी रात बिस्तर पर पड़े हुए शब्दों के साक्षी मात्र रह जाएं। मन में चल रही हैं उनकी धाराएं, चुपचाप आंख बंद करके अंधेरे में उनको देखते रहें--क्या हो रहा है? कौन से विचार चल रहे हैं? उन्हें जाने दें, रोकना नहीं है, छेड़ना नहीं है, चलने दें, सिर्फ देखें। दूर जैसे खड़े हैं और देख रहे हैं। अपने आप बीच की खाली जगह दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। और रोज-रोज जितना यह साक्षी होने का क्रम गहरा होगा, खाली जगह बड़ी होती जाएगी। जैसे-जैसे आप देखने में समर्थ हो जाएंगे अपने भीतर, उतने-उतने बड़े गैप्स, उतनी-उतनी खाली जगह पैदा हो जाएगी। एक क्षण आएगा शब्द नहीं होगा, फिर शब्द आएगा, धीरे-धीरे कई क्षण बीत जाएंगे शब्द नहीं होंगे। धीरे-धीरे वक्त आएगा, घड़ियां बीत जाएंगी और शब्द नहीं होंगे। और जब शब्द नहीं होंगे तो कौन होगा? क्या होगा? जब शब्द नहीं होंगे तो मन की सारी क्षुद्रता टूट जाएगी, सारी दीवालें टूट जाएंगी। रह जाएगा मन, जिसकी कोई सीमा नहीं है। उसी मन का नाम आत्मा है जिसकी कोई सीमा नहीं है। रह जाएगा मन, जिस पर कोई दीवाल नहीं है। उसी मन का नाम परमात्मा है जिसकी कोई दीवाल नहीं है। रह जाएगा एक विराट चैतन्य, जो मुझमें सीमित नहीं है, जो सबमें व्याप्त है और सबमें फैला हुआ है। उसकी जो प्रतीति है वही आनंद है, वही सत्य है, वही अमृत है।

एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।

एक बहुत पुराने देश में और बहुत पुराने दिनों में एक राजा ने एक अदभुत दान उस देश के सौ ब्राह्मणों को दिया था। उसने कहा था कि मेरे पास एक बड़ी भूमि है, तुम इस भूमि में से जितनी घेर लोगे तुम्हारी हो जाएगी। बहुमूल्य भूमि थी, राजा ने अपने जन्म-दिन के उत्सव में देश के सौ बड़े ब्राह्मणों को बांट देनी चाही थी। वे ब्राह्मण तो खुशी से नाच उठे। एक ही शर्त थी, जो जितनी उस जमीन को घेर लेगा, जितनी बड़ी दीवाल बना लेगा जमीन पर, वह जमीन उसकी हो जाएगी। अब सवाल यही था कि कौन कितनी बड़ी बना ले? ब्राह्मणों ने अपने घर-द्वार बेच दिए, अपने कपड़े भी बेच दिए, एक-एक लंगोटियां भर बचा लीं, क्योंकि सस्ते में बहुत बहुमूल्य जमीन मिलती थी। और उन्होंने दीवालें बनाईं। और जितनी जो जमीन घेर सकता था उसने घेर ली। इस घेरने में एक और आकर्षण था, राजा ने यह भी कहा था कि जो सबसे ज्यादा जमीन घेरेगा उसे मैं राजगुरु बना दूंगा।

तो एक तो जमीन घेरने का फायदा था, बहुमूल्य जमीन मुफ्त, सिर्फ घेरने के मूल्य पर मिलती थी। और दूसरा, सबसे ज्यादा घिर जाए तो राजा के राजगुरु होने का भी सौभाग्य मिलता था।

छह महीने का वक्त दिया था। फिर छह महीने के बाद राजा गया और उन ब्राह्मणों से कहा: मैं खुश हूं कि तुमने काफी जमीनें घेरी हैं, अब मैं पूछने आया हूं कि सबसे ज्यादा जमीन का घेरा किसका है?

एक ब्राह्मण खड़ा हुआ और उसने कहा कि इसके पहले कि कोई कुछ कहे, मैं दावा करता हूं कि मेरा ही घेरा सबसे बड़ा है।

सारे ब्राह्मण हंसने लगे, राजा भी हंसा, क्योंकि वह गांव का दरिद्रतम ब्राह्मण था और किसी को भी यह आशा नहीं थी कि उसने बड़ा घेरा बनाया होगा। और ब्राह्मणों को तो भलीभांति पता था कि उसने छोटा सा घेरा बनाया है, कुछ थोड़ी सी लकड़ी-वगैरह लगा कर, थोड़ी सी जमीन घेरी है। लेकिन जब दावा किया गया था तो निरीक्षण के लिए राजा को जाना पड़ा। वे सौ ब्राह्मण भी गए। वहां जाकर, पहले ही सबको शक हुआ था कि मालूम होता है उसका दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि लोगों ने तो मीलों लंबे जमीन के टुकड़े घेर लिए थे। वहां जाकर तो निश्चय हो गया कि वह पागल हो गया है। उसने थोड़ा सा जमीन का टुकड़ा घेरा था, कुछ लकड़ियां बांधी थीं, लेकिन रात, मालूम होता था उसमें भी उसने आग लगा दी थी। अब वहां कोई घेरा नहीं था। सारी लकड़ियां जली हुई पड़ी थीं। राजा ने कहा: मैं समझ नहीं पा रहा, आपकी दीवाल कहां है?

उस ब्राह्मण ने कहा: मैंने दीवाल बनाई थी, मैंने लकड़ियां लगाई थीं, लेकिन फिर रात मुझे खयाल आया कि चाहे मैं कितनी ही बड़ी जमीन घेर लूं, जो जमीन घिरी हुई है वह छोटी ही होगी, बड़ी नहीं हो सकती। आखिर जो चीज घिरी है वह छोटी ही होगी, बड़ी नहीं हो सकती। तो रात मैंने अपने घेरे में आग लगा दी। अब मेरी जमीन पर कोई घेरा नहीं है। इसलिए मैं दावा करता हूं कि मैंने सर्वाधिक जमीन घेरी है। कोई घेरा नहीं मेरी जमीन पर।

राजा उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा: तुम अकेले ही ब्राह्मण हो, बाकी सभी वैश्य हैं। वे निन्यानबे लोगों ने जमीन घेरी है, गणित का हिसाब रखा है, नाप-जोख की है। तुम अकेले आदमी ब्राह्मण हो। तुम्हारा जो घेरा था वह भी तुमने तोड़ दिया। जिसका कोई घेरा नहीं है वही तो ब्रह्म को जान पाता है, वही तो ब्राह्मण हो जाता है।

वह ब्राह्मण राजगुरु बना दिया गया। उसने एक अदभुत साहस किया, घेरा तोड़ देने का साहस। और घेरा तोड़ते ही सब कुछ उसका हो गया।

यह कहानी अंत में इसलिए कह रहा हूं, मन पर घेरे हैं और मन के घेरे को जो तोड़ देगा वह ब्रह्म को जान लेता है। मन के नाप-जोख हैं, इंच-इंच, फीट-फीट बना कर हमने दीवाल खड़ी की है, उसी दीवाल में हम जिंदा रहने के आदी हो गए हैं, उसी से हम पीड़ित और परेशान हैं, और उसी के कारण हम क्षुद्र हो गए हैं। और विराट, जो कि निरंतर मौजूद है परमात्मा, उससे हमारा कोई संबंध नहीं रह गया है। उससे संबंध हो सकता है। लेकिन जो उस ब्राह्मण ने किया था उस रात, किसी रात आपको भी वही करना पड़ेगा। उसने जो घेरा बनाया था, आग लगा दी थी। जिस दिन, जिस रात आप भी अपने घेरे में आग लगाने को राजी हो जाएंगे, उस दिन परमात्मा और आपके बीच फिर कोई दीवाल नहीं और कोई रोकने वाला नहीं। और उस सत्य को जान कर ही--जो ऐसा घेरे से मुक्त मन जान पाता है--जान सकेंगे जीवन के आनंद को, जीवन के सौंदर्य को, जीवन के प्रेम को, उसके पहले सब दुख है और सब नरक है। उसके पहले सब अंधकार है। उसके पहले सब पीड़ा और मृत्यु है। उसके बाद न पीड़ा है, न मृत्यु; उसके बाद न दुख है, न दैन्य; उसके बाद जो भी है वह परम आनंद है और परम शांति है। उसे जान लेना ही, उसे पा लेना ही जीवन का लक्ष्य है। और जो उसे पाने से वंचित रह जाता है उसका जीवन व्यर्थ ही चला जाता है। वह कंकड़-पत्थर बीनने में गंवा देता है और हीरे-जवाहरातों के ढेर उसके निकट थे उनको नहीं देख पाता। वह मिट्टी को बांधने में गंवा देता है, सोने की खदानें उसके पास थीं, उनको नहीं देख पाता। वह क्षुद्र को कमाने में विराट की संपदा को पाने से वंचित रह जाता है।


गधे की कब्र

एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्‍न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्‍न था। गधे के साथ, अब उसे पैदल यात्रा न करनी पड़ती थी। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था। और गधा बड़ा स्‍वामीभक्‍त था।

लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा और मर गया। दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी, और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।

उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी है। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आई। लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालुम न पडा।  और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्‍यवसाय है।

 फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी। और गधे की कब्र किसी पहूंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।    

 फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था। वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, एक महान आत्‍मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना। वह गया देखा उसने इस बंजारे को बैठा देखा, तो उसने कहा, किसकी कब्र है यहां, और तू यहां बैठा क्‍यों रो रहा है। उस बंजारे ने कहां, अब आप से क्‍या छिपाना, जो गधा आप ने दिया था। उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया और मर कर और ज्‍यादा साथ दे रहा है। सुनते ही फकीर खिल खिलाकर हंसनें लगा। उस बंजारे ने पूछा आप हंसे क्‍यों? फकीर ने कहा तुम्‍हें पता है। जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहूंचे हुऐं महात्‍मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है। बंजारे ने पूछा वह किस महात्‍मा की कब्र है। तुम्‍हें मालूम है। उसने कहां मुझे कैसे नहीं मालूम हो सकता वह इसी गधे की मां की कब्र है।

 धर्म के नाम पर अंधविश्‍वासों का बड़ा विस्‍तार है। धर्म के नाम पर थोथे, व्‍यर्थ के क्रियाकांड़ो, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्‍तार है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्‍किल हो जाता है। जो बात लोगों के मन में बैठ गयी। उसे मिटाना मुश्‍किल हो जाता है। और इसे बिना मिटाये वास्‍तविक धर्म का जन्‍म नहीं हो सकता। अंधविश्‍वास उसे चलने ही न देगा।

सभी बुद्धिमान व्‍यक्‍तियों के सामने यही सवाल थे। और दो ही विकल्‍प है। एक विकल्‍प है नास्‍तिकता का, जो अंधविश्‍वास को इन्कार कर देता है। और अंधविश्‍वास के साथ-साथ धर्म को भी इंकार कर देता है। क्‍योंकि नास्‍तिकता देखती है इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्‍वास खड़े होते है। तो वह कूड़े-कर्कट को तो फेंक ही देती है। साथ में उस सोने को भी फेंक देती है। क्‍योंकि इसी सोने की वजह से तो कूड़ा कर्कट इकट्ठा होता है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

सांवले कृष्ण

 कृष्ण के बहुत रंगों की बात हुई है। बहुत रंगों के आदमी थे! रंगीन आदमी थे! एक रंग में उनको नहीं बताया जा सकता। इसी कारण। बहुत रंग के आदमी थे। कई रंग एक साथ थे उस आदमी में। शरीर तो एक ही रंग का रहा होगा, लेकिन आदमी कई रंग का था। फिर देखने वाली आंखों पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि कौन-सा रंग दिखाई पड़ता है। तो जिनने जिस आंख से देखा होगा, उन्हें वे रंग दिखाई पड़ गए होंगे। हां, एक आदमी भी तीन हालातों में तीन रंग देख सकता है। क्योंकि एक ही आदमी तीन हालातों में एक ही आदमी कहां रहता है? कभी जब मैं प्रेम में होता हूं तब आपको दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और जब मैं क्रोध में होता हूं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी आप मेरे प्रति प्रेम में होते हैं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी जब आप मेरे प्रति क्रोध में होते हैं तो दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और वे रंग रोज बदलते रहते हैं। रंग प्रतिपल बदलते रहते हैं। सब बदलता रहता है। यहां थिर कुछ भी नहीं है। इस जगत में थिरता जैसी बात ही झूठ है। यहां सब बदल रहा है। लेकिन, अधिक लोगों ने उनमें सांवला रंग ही देखा। उसके कुछ कारण हैं।

ऐसा लगता है कि सांवला रंग उनकी थिरता का स्थायित्व गुण रहा होगा। यानी वे सांवले रंग में ही अथिर होते रहे होंगे। वह चंचल रहे होंगे, सांवले रंग में ही। मेरे देश के मन में सांवले रंग के लिए कुछ आग्रह हैं। असल में गोरा रंग उतना सुंदर कभी भी नहीं होता, जितना सांवला रंग सुंदर होता है। उसके कई कारण हैं। लेकिन आमतौर से हमें गोरा रंग सुंदर दिखाई पड़ता है, क्योंकि गोरे रंग की चमक में बहुत-सी असुंदरताएं छिप जाती हैं। और काले रंग में कुछ भी नहीं छिपता, इसलिए काला आदमी मुश्किल से कभी सुंदर होता है। गोरे आदमी बहुत सुंदर होते हैं क्योंकि काला रंग कुछ छिपाता नहीं है, सीधा प्रगट कर देता है। सफेदी की चमक में बहुत-सी चीजें छिप जाती हैं। इसलिए गोरे रंग के बहुत-से आदमी सुंदर दिखाई पड़ेंगे, काले रंग का कभी-कभी कोई आदमी सुंदर होता है। लेकिन जब काले रंग का कोई सुंदर होता है, तो गोरे रंग का सुंदर आदमी एकदम फीका पड़ जाता है। इसलिए हमने राम को भी सांवला, कृष्ण को भी सांवला--हमने जिनको भी सुंदर देखा उनको हमने सांवले रंग में देखा। सांवले रंग का सौंदर्य "रेअरिटी' है। वह बहुत "रेअर' है। सफेद रंग के सुंदर बहुत लोग होते हैं। वह कोई "रेअरिटी' नहीं है। वह कोई बहुत विशेषता नहीं है। सफेद रंग का सुंदर होना बड़ी साधारण बात है, सांवले रंग का सुंदर होना बड़ी असाधारण बात है।

कुछ और भी कारण हैं। सफेद रंग में गहराई नहीं होती, "डेप्थ' नहीं होती, फैलाव होता है। इसलिए सफेद शक्ल "फ्लैट' होती है, "डीप' नहीं होती। नदी देखी है, जब गहरी हो जाती है तब सांवली हो जाती है। सांवले रंग में एक "डेप्थ' है। फैलाव नहीं है, एक "इनटेंसिटी' है। सांवला चेहरा चेहरे पर ही समाप्त नहीं होता, उसमें भीतर कुछ "ट्रांसपेरेंट' भी होता है। उसमें पर्तें होती हैं। सांवले आदमी के चेहरे के भीतर चेहरे, चेहरे के भीतर चेहरों की पर्तें होती हैं। हां, गोरा आदमी "फ्लैट' होता है, उसका चेहरा साफ, जो है सामने होता है। इसलिए गोरे रंग से बहुत जल्दी ऊब पैदा हो जाती है। सांवले रंग से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें नए रंग दिखाई ही पड़ते चले जाते हैं। और कृष्ण जैसा आदमी ऐसा आदमी है कि उससे ऊब पैदा हो नहीं सकती।

अभी आप जानकर हैरान होंगे कि पश्चिम की सारी सुंदरियां सांवला होने के लिए बड़ी दीवानी हैं। सागर के तट पर लेटी हैं। किसी तरह धूप थोड़ी सांवली कर दे। क्या पागलपन आ गया है? असल में जब भी कोई संस्कृति अपने शिखर पर पहुंचती है, तब फैलाव कम मूल्य का रह जाता है, गहराई ज्यादा मूल्य की हो जाती है। हमको पश्चिम का आदमी सुंदर दिखाई पड़ता है, पश्चिम का आदमी जानता है कि अब सौंदर्य गहराई में खोजना है, हो चुकी वह बात। अब पश्चिम की सुंदर स्त्री सांवला होने की कोशिश में लगी है। इसलिए पश्चिम का सुंदरतम आदमी भी "ट्रांसपेरेंट' नहीं होता। उसका चेहरा बोथला हो जाता है। वह सफेद रंग की खराबी है।

वह सफेद रंग की खूबियां हैं, कि बहुत लोग सुंदर हो सकते हैं सफेद रंग में। सफेद रंग की खराबी है, कि उसमें बहुत गहरा सौंदर्य नहीं हो सकता। इसलिए सांवले रंग पर हमने देखा। मैं नहीं मानता कि कृष्ण सांवले रहे ही होंगे यह कोई जरूरी नहीं है। हमने सांवला देखा। इतना प्यारा आदमी था कि हम उसको गोरा नहीं सोच सके। हमने उनको सांवला सोचा। वे सांवले हो भी सकते हैं, वह मेरे लिए गौण है।

मेरे लिए तथ्य बहुत गौण हैं। मेरे लिए काव्य बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम न सोच सके इस आदमी को गोरा, क्योंकि यह इतने रंग का आदमी था, इतना गहरा आदमी था, और इसके चेहरे में झांकते जाने, झांकते जाने का मन होता था, डूबते जाने का मन होता था। इसमें और गहराइयां थीं, जो उघड़ती चली जाती थीं। इसलिए बहुत रंग में एक व्यक्ति ने भी देखा और बहुत लोगों ने भी देखा, पर एक स्थायी रंग में हमने सोचा है, वह है सांवला रंग। श्याम नाम ही उनको इसलिए दे दिया। श्याम का मतलब है, काले। कृष्ण का मतलब भी है, काला। न केवल हमने सोचा, बल्कि हमने नाम भी जो उन्हें दिए उसमें सांवलापन था। श्याम कहा, कृष्ण कहा, वे सब काले रंग के ही प्रतीक हैं।

सोमवार, 7 अगस्त 2023

राधा कृष्ण

बहुत से लोग शास्त्रों में राधा का नाम खोजते हैं,उनके लिए बड़ी कठिनाई रही है इस बात से कि राधा का कोई उल्लेख ही नहीं है। और तब कुछ ने तो यह भी कहना शुरू कर दिया कि राधा जैसा कोई व्यक्तित्व कभी हुआ ही नहीं। राधा बाद के युगों के कवियों की कल्पना है। स्वभावतः जो इतिहास में जीते हैं, तथ्यों में जीते हैं, उनके लिए कठिनाई है। राधा का उल्लेख बहुत बाद के ग्रंथों में शुरू होता है। किसी प्राचीन ग्रंथ में राधा का कोई उल्लेख नहीं है।

राधा का उल्लेख न होने का कुल कारण इतना है कि राधा कृष्ण में लीन हो गई इसलिए अलग उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। जो अलग थे, उनका उल्लेख है। जो अलग न थी और छाया की तरह थी, उसके उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। उल्लेख करने के लिए भी तो किसी का अलग होना जरूरी है। रुक्मिणी अलग है। वह कृष्ण को प्रेम करती  है, कृष्णमय नहीं है। कृष्ण से उसके संबंध   हैं, कृष्ण में आत्मसात नहीं है। संबंध तो उनके ही होते हैं, जो अलग हैं। राधा का कोई संबंध नहीं है कृष्ण से। राधा कृष्ण ही है। इसलिए अगर उसका उल्लेख न किया गया हो, तो न्याययुक्त है, उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।

उसके उल्लेख न होने का पहला कारण है। वह छाया की तरह अदृश्य है। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि उसे कोई जाने और पहचाने। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि कोई उसे नाम भी दे, कोई जगह भी दे। 

लेकिन, यह भी सच है कि राधा के बिना कृष्ण का व्यक्तित्व एकदम अधूरा रह जाएगा। अधूरा इसलिए रह जाएगा , क्योंकि    कृष्ण पूरे पुरुष हैं। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जगत में, जो पूरे पुरुष हों। प्रत्येक पुरुष के भीतर कुछ  स्त्री-अंश भी होता है, और प्रत्येक स्त्री के भीतर कुछ  पुरुष-अंश भी होता है। मनोविज्ञान को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है, प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है। जो फर्क है वह सिर्फ अंश का है। जिसे हम पुरुष कहते हैं, वह साठ फीसदी पुरुष है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। इसलिए ऐसे भी पुरुष हैं जो स्त्रैण मालूम पड़ते हैं, और ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुष मालूम पड़ती हैं। अगर मात्रा बहुत ज्यादा है भीतर स्त्री की, तो पुरुष पर हावी हो जाएगी। अगर पुरुष की मात्रा बहुत ज्यादा है, तो स्त्री पर हावी हो जाएगी। लेकिन इस अर्थों में भी कृष्ण पूर्ण हैं। वे पूर्ण पुरुष हैं। उनके भीतर स्त्री का कोई तत्व ही नहीं है। या जैसे मीरा पूरी स्त्री है। उसके भीतर पुरुष का कोई तत्व ही नहीं है। और जब भी कोई पूर्ण पुरुष होगा, तब एक अर्थ में अधूरा पड़ जाएगा, उसको पूरी स्त्री जरूरी है। अन्यथा वह अधूरा पड़ जाएगा। हां, अधूरा पुरुष जी सकता है बिना स्त्री के। उसके भीतर अपनी स्त्री भी है, जिससे काम चलता है। लेकिन कृष्ण जैसे पुरुष को अनिवार्य रूप से राधा जैसी स्त्री चाहिए जो उसके साथ खड़ी हो सकें। 

पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष का अर्थ दूसरे रुप में भी हम समझें।  पुरुष की जो प्रवृत्ति है, वह आक्रामक है। स्त्री की प्रवृत्ति है, वह समर्पण की है । कोई भी स्त्री पूरी स्त्री न होने से कभी पूरा समर्पण नहीं कर पाती। कोई भी पुरुष पूरा पुरुष न होने से कभी पूरा आक्रामक नहीं हो पाता। इसलिए दो अधूरे स्त्री और पुरुष जब मिलते हैं, तो निरंतर कलह और संघर्ष चलता है। चलेगा। क्योंकि स्त्री के भीतर पुरुष है, जो आक्रामक भी है। वह आक्रमण भी करती है। स्त्री है जो समर्पण भी है, वह समर्पण भी करती है। किसी क्षण में वह पुरुष के हाथ भी दाबती है, पैर भी दाबती है, उसके चरणों में सिर भी झुकाती है। और किसी क्षण में वह बिलकुल ही विकराल हो जाती है और पुरुष की गर्दन दबाने को उत्सुक हो जाती है। ये दोनों रूप उससे निकलते हैं। पुरुष किसी क्षण बड़ा आक्रामक होता है, बिलकुल दबा डालना चाहता है। और किसी क्षण वह बिलकुल दब्बू हो जाता है और स्त्री के पीछे घूमने लगता है। वे दोनों उसके भीतर हैं।

रुक्मिणी का कृष्ण के साथ बहुत गहरा मेल नहीं हो सकता, उसके भीतर पुरुष है। राधा पूरी डूब सकी, वह अकेली निपट स्त्री है, वह समर्पण पूरा हो गया। वह समर्पण पूरा हो सका। कृष्ण का किसी ऐसी स्त्री से बहुत गहरा मेल नहीं बन सकता जिसके भीतर थोड़ा भी पुरुष है। अगर कृष्ण के भीतर थोड़ी-सी स्त्री हो तो उससे मेल बन सकता था। लेकिन कृष्ण के भीतर स्त्री है ही नहीं। वह पूरे ही पुरुष हैं। पूरा समर्पण ही उनसे मिलन बन सकता है। इससे कम वह न मांगेंगे, इससे कम में काम न चलेगा। वह पूरा ही मांग लेंगे। हालांकि पूरा मांगने का मतलब यह नहीं है कि वह कुछ न देंगे, पूरा मांगकर वह पूरा ही दे देंगे। इसलिए ऐसा हुआ कि रुक्मिणी पीछे छूट गई, जिसका उल्लेख था शास्त्रों में, जो दावेदार थी। और भी दावेदार थीं, वे छूटती चली गईं। और जो बिलकुल गैर-दावेदार थी, जिसका कोई दावा ही नहीं था, जिसे कृष्ण अपनी है ऐसा भी नहीं कह सकते थे,राधा तो पराई थी, रुक्मिणी अपनी थी। रुक्मिणी से संबंध संस्थागत था, विवाह का था। राधा से संबंध प्रेम का था, संस्थागत नहीं था। वक्त आया कि रुक्मिणी भूल गई, और कृष्ण के साथ राधा का नाम ही रह गया।

क्योंकि राधा ने सब छोड़ा कृष्ण के लिए, इसलिए नाम पीछे न जुड़कर आगे जुड़ गया। कृष्ण-राधा कोई नहीं कहता, राधा-कृष्ण सब कहते हैं, जो सब समर्पण करता है, वह सब पा लेता है। जो बिलकुल पीछे खड़ा हो जाता है, वह बिलकुल आगे हो जाता है। 

राधा के बिना कृष्ण को हम न सोच पाएंगे। राधा उनकी सारी कमनीयता है। राधा उनका सारा-का-सारा जो भी नाजुक है, वह सब है। राधा उनके गीत भी, उनके नृत्य का घुंघरू भी, राधा उनके भीतर जो भी स्त्रैण है वह सब है। क्योंकि कृष्ण निपट पुरुष हैं, और इसलिए अकेले कृष्ण का नाम लेना अर्थपूर्ण नहीं है। इसलिए वह इकट्ठे हो गए, राधाकृष्ण हो गए। राधाकृष्ण होकर इस जीवन के दोनों विरोध इकट्ठे मिल गए हैं। राधा कृष्ण की पूर्णताओं की एक पूर्णता है।

स्त्री और पुरुष का एक परम मिलन भी है। स्त्री और पुरुष का न कहें, स्त्रैणता और पौरुषता का; आक्रामकता का और समर्पण का; जीतने का और हारने का।

राधा और कृष्ण पूरा वर्तुल हैं। इस अर्थ में भी वे पूर्ण हैं। अधूरा नहीं सोचा जा सकता कृष्ण को। अलग नहीं सोचा जा सकता। अलग सोचकर वे एकदम खाली हो जाते हैं। सब रंग खो जाते हैं। 

कृष्ण का सारा व्यक्तित्व चमकता है राधा की चादर पर। चारों तरफ से राधा की चादर उन्हें घेरे है। वह उसमें ही पूरे-के-पूरे खिल उठते हैं। कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है। वह पूरा-का-पूरा इकट्ठा है। इसलिए उनको अलग नहीं कर सकते। वह युगल पूरा है। इसलिए राधाकृष्ण पूरा नाम है, कृष्ण अधूरा नाम है।


कृष्ण का जन्म


कृष्ण का जन्म हो, या किसी और का जन्म हो, जन्म की स्थिति में भेद नहीं है। इसे थोड़ा समझना जरूरी है। लेकिन सदा से हम भेद देखते आए हैं। वह कुछ प्रतीकों को न समझने के कारण।

कृष्ण का जन्म होता है अंधेरी रात में। सभी का जन्म अंधेरी रात में होता है  जन्म तो अंधेरे में ही होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अंधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अंधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अंधेरे में होता है।

कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था, इतना गहन अंधकार था। 

दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है--बंधन में जन्म होता है; कारागृह में। किस का जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएं, जरूरी नहीं है। हो सकता है हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में जन्म लेती है।

लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं; सभी मृत्युएं कारागृह में नहीं होतीं। कुछ मृत्युएं मुक्ति में होती हैं। कुछ; अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएं, टूट जाएं सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।

कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उनके मरने का डर है। उन्हें मारे जाने की धमकी है। किस को नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जिआ हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है जितना सत्तर साल जिआ हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए। कृष्ण के जन्म के साथ ही मौत की धमकी है, मरने का भय है। सबके जन्म के साथ वही है। जन्म के बाद हम मरने के अतिरिक्त और करते ही क्या हैं? जन्म के बाद हम रोज-रोज मरते ही तो हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मरने की लंबी यात्रा ही तो है। जन्म से शुरू होती है, मौत पर पूरी हो जाती है।

लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएं आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। उसका भी बड़ा मतलब है। हमारे साथ ऐसा नहीं होता। मौत पहले ही हमले में हमें ले जाएगी। हम पहले हमले से ही न बच पाएंगे। क्योंकि सच तो यह है कि करीब-करीब मरे हुए लोग हैं, जरा-सा धक्का और मर जाएंगे। जिंदगी का हमें कोई पता भी तो नहीं है। उस जीवन का हमें कोई पता ही नहीं है जिसके दरवाजे पर मौत सदा हार जाती है।

कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है। बहुत रूपों में। वे सब रूपों की कथाएं हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है। मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएं, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जिए ही चले जाते हैं। इसका मतलब है। इसका मतलब है, मौत पर जीवन की जीत। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूं, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है वह चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का? सपनों में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी कोई आदमी आधुनिक सपना नहीं देखता है। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस लाख साल पुराने थे। गुहा-मानव ने गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही एयरकंडीशंड मकान में भी देखे जाते हैं। बस, कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।

अगर एक आदमी बहुत महत्वाकांक्षी है तो सपने में महत्वाकांक्षा को वह क्या करेगा? चित्र बनाएगा। हो सकता है उसके पंख लग जाएं और वह आकाश में उड़ जाए। सभी महत्वाकांक्षी लोग उड़ने का सपना देखेंगे, "एम्बीशस माइंड' उड़ने का सपना देखेगा। उड़ने का मतलब है सब के ऊपर हो जाना। उड़ने का मतलब है कि कोई सीमा न रही ऊपर उठने की। जितना चाहो, उठ सकते हो। पहाड़ नीचे छूट जाते हैं, आदमी नीचे छूट जाते हैं, चांदत्तारे नीचे छूट जाते हैं और आदमी ऊपर उठता चला जाता है। महत्वाकांक्षा शब्द का उपयोग सपने में नहीं होगा। उड़ने के चित्र का उपयोग होगा। इसलिए तो हम अपने सपने समझने में असमर्थ हो गए हैं। क्योंकि दिन में हम जो भाषा बोलते हैं, वह शब्दों की है, रात जो सपना देखते हैं, वह चित्रों का है। दिन में जो भाषा बोलते हैं वह बीसवीं सदी की है, रात जो सपना देखते हैं, वह आदिम है। इन दोनों के बीच लाखों साल का फासला है। इसलिए सपना क्या कहता है, यह हम नहीं समझ पाते।

जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे--और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इस अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में, चित्रों में सारा-का-सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएं लिखी गई हैं। उन घटनाओं को डिकोड करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। इसलिए ध्यान रहे कि क्राइस्ट का जीवन भी करीब-करीब कृष्ण जैसा ही शुरू होता है। उसमें बहुत फर्क नहीं है। इसलिए बहुत लोगों को यहां तक भ्रम पैदा हो गया था--अभी भी कुछ लोगों को है--कि क्राइस्ट हुए ही नहीं, यह कृष्ण की ही कथा है जो यात्रा करके और जेरूसलम तक पहुंच गई है। क्योंकि जन्म की कथा में बड़ा साम्य है। अंधेरी रात में, मृत्यु के भय से घिरे हुए, जीसस का जन्म होता है। यहां कंस धमकी दे रहा है कृष्ण की मृत्यु की। वहां हिरोद सम्राट जीसस को हत्या की धमकी दे रहा है। यहां कंस ने बच्चे कटवा डाले हैं कि उसका मारने वाला पैदा न हो जाए, वहां हिरोद ने बच्चे कटवा डाले हैं कि उसका मारने वाला पैदा न हो जाए।

नहीं, लेकिन कृष्ण की कहानी क्राइस्ट की कहानी नहीं है। जीसस अलग ही व्यक्ति हैं, अलग ही उनकी यात्रा है। लेकिन प्रतीक दोनों समान हैं। और प्रतीक इसलिए दोनों समान हैं कि "प्रिमिटिव माइंड' एकदम समान होता है। यह आपसे कहने जैसी बात है कि चाहे अंग्रेज सपना देखे और चाहे चीनी सपना देखे और चाहे जापानी सपना देखे, सपने की भाषा एक है। हमारी बोलने की भाषाएं अलग हैं। "मिथ', पुराण की भाषा एक है। तो जो प्रतीक पुराने मन में उठे थे कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ गए, वे ही प्रतीक जीसस के जन्म के साथ जुड़ गए। लेकिन यह एक व्यक्ति होने का भ्रम और एक कारण से पैदा हुआ कि जीसस का नाम तो जीसस है, लेकिन बाद में उनके साथ जुड़ गया क्राइस्ट। "क्राइस्ट' शब्द को कृष्ण शब्द का रूपांतर माना जा सकता है। 

जीसस तो अलग व्यक्ति हैं। लेकिन इस बात की संभावना है कि कृष्ण शब्द यात्रा करते-करते "क्राइस्ट' हो गया हो। क्योंकि जीसस की "क्राइस्ट' एक पदवी है, जैसे कि वर्द्धमान की पदवी महावीर है। वर्द्धमान घर का नाम है। बाद में जब वे ज्ञान को उपलब्ध हो गए तो महावीर नाम हो गया। बुद्ध घर का नाम नहीं है, गौतम सिद्धार्थ घर का नाम है। जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए तो बुद्ध हो गए। जीसस घर का नाम है। जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए तो क्राइस्ट हो गए। अब यह क्राइस्ट शब्द हो सकता है कि कृष्ण से ही गया हो, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। यह कहा जा सकता है। लेकिन, जीसस का व्यक्तित्व अलग व्यक्तित्व है। जन्म की घटनाओं में जरूर तालमेल है। दो व्यक्ति हैं, वे एक नहीं हैं। जन्म की घटनाओं का तालमेल एक ही व्यक्ति के जन्म के कारण नहीं है। जन्म की घटनाओं का तालमेल एक ही तरह के अचेतन मन में पैदा हुए प्रतीकों का है।

और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, कशिश का केंद्र।  जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे । कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह "सेंटर आफ ग्रेविटेशन' है जिस पर सब चीजें खिंचती हैं और आकृष्ट होती हैं। शरीर खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है। वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण-बिंदु के आसपास "क्रिस्टलाइजेशन' शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होते हैं। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति-विशेष का जन्म नहीं है, बल्कि व्यक्ति का जन्म है।

अंधेरे का, कारागृह का, मृत्यु के भय का अर्थ है। लेकिन, इसे कृष्ण के साथ उसे क्यों जोड़ा होगा?  वे बंधन में पैदा हुए हों या न हुए हों, वे कारागृह में जन्मे हों या न जन्मे हों, लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो कि प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है।

ध्यान रहे, महापुरुषों की कथाएं जन्म की हमसे उल्टी चलती हैं। साधारण आदमी के जीवन की कथा जन्म से शुरू होती है और मृत्यु पर पूरी होती है। उसकी कथा में एक "सिक्वेंस' होता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक। महापुरुषों की कथाएं फिर से "रिट्रास्पेक्टिवली' लिखी जाती हैं। महापुरुष पहचान में आते हैं बाद में। और उनकी जन्म की कथाएं फिर बाद में लिखी जाती हैं। कृष्ण जैसा आदमी जब हमें दिखाई पड़ता है तब तो पैदा होने के बहुत बाद दिखाई पड़ता है। वर्षों बीत गए होते हैं उसे पैदा हुए। जब वह हमें दिखाई पड़ता है तब वह कोई चालीस-पचास साल की यात्रा कर चुका होता है। फिर इस महिमावान, इस अदभुत व्यक्ति के आसपास कथा निर्मित होती है। फिर हम चुनाव करते हैं इसकी जिंदगी का, फिर हम "रीइंटरप्रीट' करते हैं, फिर से व्याख्याएं शुरू होती हैं। फिर से हम इसके पिछले जीवन में से घटनाएं चुनते हैं, घटनाओं का अर्थ देते हैं। इसलिए मैं आप से कहूं कि महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।

पीछे लौटकर जब हम देखते हैं ।तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटित हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी में बार-बार लिखी जाती है। हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएं होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक "इंस्टीटयूशन' हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों के सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है।  कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे "कलेक्टिव माइंड' के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।

इसे ऐसा समझें--एक बहुत बड़े चित्रकार ने एक स्त्री का चित्र बनाया--एक बहुत सुंदर स्त्री का चित्र। लोगों ने उससे पूछा कि यह कौन स्त्री है, जिसके आधार पर इस चित्र को बनाया है? उस चित्रकार ने कहा, यह किसी स्त्री का चित्र नहीं है। यह लाखों स्त्रियां जो मैंने देखी हैं, सब का सारभूत है। इसमें आंख किसी की है, नाक किसी की है, इसमें ओंठ किसी के हैं, इसमें रंग किसी का है, इसमें बाल किसी के हैं, ऐसी स्त्री खोजने से नहीं मिलेगी, ऐसी स्त्री सिर्फ चित्रकार देख पाता है। और इसलिए चित्रकार की स्त्री पर बहुत भरोसा मत करना, उसको खोजने मत निकल जाना, क्योंकि जो मिलेगी वह नहीं मिलेगी, साधारण स्त्री मिलेगी। इसलिए दुनिया बहुत कठिनाई में पड़ जाती है क्योंकि हम जिन स्त्रियों को खोजने जाते हैं वे कहीं हैं नहीं, वे चित्रकारों की स्त्रियां हैं, कवियों की स्त्रियां हैं, वे हजारों स्त्रियों का सारभूत हैं। वे इत्र हैं हजारों स्त्रियों का। वे कहीं मिलने वाली नहीं हैं। वे हजारों स्त्रियां मिल-जुल कर एक हो गई हैं। वह हजारों स्त्रियों के बीच में से खोजी गई धुन है।

तो जब कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तो लाखों जन्मों में जो पाया गया है, उस सबका सारभूत उसमें समा जाता है। इसलिए उसे व्यक्तिवाची मत मानना। वह व्यक्तिवाची है भी नहीं। इसलिए अगर उसे कोई इतिहास में खोज करने जाएगा तो शायद कहीं भी न पाए। कृष्ण मनुष्य मात्र के जन्म के प्रतीक बन जाते हैं--एक विशेष मनुष्यता के, जो इस देश में पैदा हुई; इस देश की मनुष्यता ने जो अनुभव किया है वह उनमें समा जाता है। जीसस में समा जाता है किसी और देश का अनुभव, वह सब समाहित हो जाता है। हम अपने जन्म के साथ जन्मते हैं और अपनी मृत्यु के साथ मर जाते हैं। कृष्ण के प्रतीक में तो जुड़ता ही चला जाता है। अनंत काल तक जुड़ता चला जाता है। उस जोड़ में कभी कोई बाधा नहीं आती। हर युग उसमें जोड़ेगा, हर युग उसमें समृद्धि करेगा, क्योंकि और अनुभव इकट्ठे हो गए होंगे। और वह उस "कलेक्टिव आर्च टाइप' में जुड़ते चले जाएंगे।

लेकिन मेरे लिए जो मतलब दिखाई पड़ता है, वह मैंने आपसे कहा। ये घटनाएं घट भी सकती हैं, ये घटनाएं न भी घटी हों। मेरे लिए घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए मूल्य कृष्ण को समझने का है कि इस आदमी में ये घटनाएं कैसे हमने देखीं। और अगर इनको हम ठीक से देख सकें तो ये घटनाएं हमें अपने जन्म में भी दिखाई पड़ सकती हैं। और जिस व्यक्ति को अपने जन्म में कृष्ण के जन्म का तालमेल मिल जाए, हो सकता है वह अपनी मृत्यु तक पहुंचते-पहुंचते अपनी मृत्यु में भी कृष्ण की मृत्यु के तालमेल को उपलब्ध हो सके।

महाभारत में एटम बम का खुलासा

अगर महाभारत में युद्ध का विवरण पढ़ें और जब पहली दफा  हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा तो जो दृश्‍य बना, उस दृश्‍य का विवरण पूरा का पूरा महाभारत में है। उसके पहले तो लगता था महाभारत में जो बात लिखी है सब कल्पना है।  लेकिन जब हिरोशिमा में एटम गिरा और धुँऐ का बादल उठा और वृक्ष की तरह आकाश में फैला; नीचे जैसे वृक्ष की तना होता है, वैसे ही धुएँ की धारा बनी और ऊपर जैसे आकाश में उठता गया धुआं वैसा फैलता गया, अंत में वृक्ष का आकार बन गया। महाभारत में उसका ठीक ऐसा ही वर्णन है। इसलिए अब वैज्ञानिक कहते है कि यह वर्णन कवि  सिर्फ़ कल्‍पना से नहीं कर सकता। क्‍योंकि जो वर्णन है वह एटम बम  के विस्‍फोट का वर्णन है। एटम बम के विस्फोट  से अलग कोई  और विस्‍फोट  नहीं है जिसमे इस तरह की घटना घटे।

 जो महाभारत में वर्णन है। वह यह है वृक्ष के आकार में धुआं आकाश में फैल गया। सारा आकाश धुएँ से भर गया। और उस धुएँ के आकाश से रक्‍तवर्ण की किरणें जमीन पर गिरने लगी। और उन किरणों को जहां-जहां गिरना हुआ, वहां-वहां सब चीजें विषाक्‍त हो गई। भोजन रखा था वह तत्क्षण जहर हो गया। महाभारत में वर्णन में कहा गया है   कि जब रक्‍तवर्ण की किरणें नीचे गिरने लगीं तो जो बच्‍चे मां के गर्भ में थे, वह वहीं मृत हो गये। जो बच्‍चे पैदा हो गए थे। वह अपंग हो गये। और जमीन पर जहां पर भी किरण गिरी। जिस चीज को उन किरणों ने छुआ। वे विषाक्‍त हो गई। उनको खाते ही आदमी मर गया। कोई उपाय नहीं है कि कवि इसकी कल्‍पना कर सकें। लेकिन उन्‍नीस सौ पैंतालीस के पहले इसके सिवा हमारे पास भी कोई उपाय नहीं था। कि हम इसको कल्पना कहें। अब हम कह सकते है कि यह किसी अणु-विस्‍फोट का आँखों देखा हाल है।

महाभारत में कहा गया कि इस तरह के अस्‍त्र शस्‍त्रों का जो ज्ञान है वह सभी को नही बताया जा सकता ।अणु विज्ञ डाक्‍टर ओपन हाइमर पर अमरीका में एक मुकदमा चला। और मुकदमा यह था कि ओपन हाइमर को कुछ चीजें पता थी जो अमरीका की सरकार को भी बताने को राजी नही था। और ओपन हाइमर अमरीका सरकार का आदमी है। तो ओपन हाइमर पर एक विशेष कोर्ट में मुकदमा चला। उस कोर्ट ने यह कहा कि तुम जिस सरकार के नौकर हो और तुम जिस देश के नागरिक हो उस सरकार को तुमसे सब चीजें जानने का हक है। लेकिन ओपन हाइमर ने कहा कि उससे भी बड़ी  निर्णायक मेरी अंतरात्‍मा है। कुछ बातें मैं जानता हूं जो मैं किसी राजनैतिक सरकार को बताने को राज़ी नहीं हूं। क्‍योंकि हम देख चुके हिरोशिमा में क्‍या हुआ। हमारी ही जानकारी लाखों कि हत्‍या का कारण बनी।

महाभारत में कहा है कि महाभारत का ज्ञान सबको न दिया जाएं। और ज्ञान के कुछ शिखर है जो खतरनाक सिद्ध हो सकते है। वह किसी अनुभव के कारण होगी। ओपन हाइमर किसी अनुभव के कारण कह रहा हे कि कुछ बातें जो मैं जानता हूं नहीं बताऊंगा।

जो इतिहास हम स्‍कूल-कालेज, युनिवर्सिटी में पढ़ते है वह बहुत अधूरा है। आदमी इस इतिहास से बहुत पुराना है। और सभ्‍यताएं हमसे भी ऊंचे शिखर पर पहुंच कर समाप्‍त होती रही है। और हम से भी पहले बहुत सी बातें जान ली गई थी। मगर छुपा ली गई थी; क्‍योंकि अहितकर सिद्ध हो रही थी। ऐसा कोई भी सत्‍य विज्ञान आज नहीं कह रहा है जो किसी न किसी अर्थ में इससे पहले न जान लिया गया हो। परमाणु की बात पूरा विश्व बहुत पहले से कर रहि है। यूनान में हेराक्‍लतु, पारमेनडीज बहुत पुराने समय से परमाणु की बात कर रहे हे। और परमाणु के संबंध में वे जो कहते है वह हमारी नई से नई खोज कहती है। हमने बहुत बार उन चीजों को जान लिया, जिनसे जिंदगी बदली जा सकती है, और फिर छोड़ दिया; क्‍योंकि पाया कि जिंदगी बदलती नहीं सिर्फ विकृत हो जाती है।

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...