शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

अनुराग है तुम्‍हारा अस्‍तित्‍व

सूत्र :

रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।।21।।

 तदेव कर्म्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यशब्दात्।।22।।

  प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धे:।।23।।

  नैवश्रद्धा तु साधारण्यात्।।24।।

तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।।25।।

‘रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।

 'अनुराग का ही नाम भक्ति है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना उचित है। परंतु यह बात ऐसी नहीं है;क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है। '

यह सूत्र महत्वपूर्ण है। ध्यानपूर्वक समझना। इस सूत्र पर सब कुछ निर्भर है तुम्हारे जीवन का रूपातरण। सदा से तुमने सुना है, उसका खंडन कर रहे हैं शांडिल्य। सदा से तुमने जो माना है, उसका विरोध कर रहे हैं। इसलिए बहुत सजग होकर सुनोगे तो ही खयाल में पड़ सकेगी बात;क्योंकि तुम्हारे जाने माने के बहुत विपरीत है।

 कहा गया है तुमसे बार बार कि प्रेम के कारण ही संसार है, दुख है, बंधन है। साधुओं ने, संन्यासियों ने तुम्हें यही समझाया है कि तुम्हारे सारे दुख का मूल प्रेम है, अनुराग है, प्रीति है, राग है। सारी शिक्षाएं तुमसे यह कहती हैं, विराग को उपलब्ध हो जाओ, राग को छोड़ दो। और बात तुम्हें भी जंचती है। और जंचने के पीछे कारण है। जंहा राग है, वहीं से दुख उत्पन्न होता मालूम होता है। जिससे राग है, वही तुम्हें दुखी भी कर सकता है। तुमने किसी स्त्री को चाहा, जिस मात्रा में चाहा, उसी मात्रा में वह स्त्री तुम्हें दुख दे सकती है। तुमने किसी पुरुष से प्रेम किया, जिस मात्रा में प्रेम किया, उसी मात्रा में उस पुरुष से तुम्हें सुख मिलेगा, उसी मात्रा में दुख भी मिलेगा, मात्रा बराबर होगी। अगर कल पुरुष छोड़कर चला जाए, या स्त्री छोड़कर चली जाए, तो कितना दुख तुम उठाओगे? वह दुख उतना ही होगा जितना उसके पास होने से सुख होता था। सुख का स्रोत भी राग मालूम होता है, दुख का स्रोत भी राग मालूम होता है। जिसे हम चाहते हैं, मिल जाए तो सुख, जिसे हम चाहते हैं, छूट जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, मिल जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, छूट जाए तो सुख।

मनुष्य के सारे सुख और दुख अनुराग आश्रित हैं। नर्क भी वहीं से  है, स्वर्ग भी। इसलिए तुम्हारे भोगी और योगियों के तर्क मे भेद नहीं है। भोगी कहता है, माना कि दुख वहां से निकलता है, लेकिन सुख भी वहां से निकलता है। मैं दुख भोगने को तैयार हूं;लेकिन सुख छोड़ने को तैयार नहीं। यह तुम्हारे भोगी का तर्क है, यह उसकी सोच है, यह उसकी विचार दशा है। वह कहता है, माना कि गुलाब की झाड़ी में बहुत कांटे है, मगर फूल भी वहां हैं। कांटों के कारण फूल छोड़ दूं? यह नासमझी मुझ से न होगी। मैं जाऊंगा, चुभे काटे तो चुभे; बचने की कोशिश करूंगा, बचाऊंगा, लेकिन फूल छोड़ने योग्य नहीं हैं। फूल इतने प्यारे हैं कि कांटे सहे जा सकते हैं। यह भोगी की तर्कदशा।

योगी क्या कहता है, विरागी क्या कहता है? विरागी कहता है कि कांटे इतने ज्यादा हैं कि मैं फूल छोड़ने को तैयार हूं। विरागी भी मानता है कि फूल वहां हैं। अगर फूल न हों तो कांटों को छोड़ने की बात में कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। कुछ वहां छोड़ने योग्य है, कुछ वहां संपदा है। कुछ अपूर्व फूल खिले हैं जो मन को लुभाते है, बुलाते हैं, पुकारते हैं। वहा निमंत्रण है, आकर्षण है। लेकिन कांटे बहुत हैं। शर्त बड़ी है, महंगी है। इतना मूल्य चुकाने को योगी तैयार नहीं। वह कहता है, हम फूल छोड़ देंगे, मगर कांटों में न जाएंगे। दोनों मानते हैं कि वहां फूल भी हैं और कांटे भी है। एक फूल चुनता है, एक फूल छोड़ता है। एक फूलों के कारण कांटे चुनता है, एक कांटों के कारण फूल छोड़ता है। लेकिन दोनों की तर्कसरणी में भेद नहीं है।

 शांडिल्य कह रहे है, अनुराग से इसका कोई भी संबंध नहीं। अनुराग के पात्र से संबंध है। तुमने किससे प्रेम किया, इस पर निर्भर करता है कि कितना दुख पाओगे। तुमने क्षणभंगुर से प्रेम किया, तो बहुत दुख पाओगे। क्योंकि प्रेम चाहता है शाश्वत होना। तुमने पानी के बबूले से प्रेम किया, तो दुख पाओगे ही। क्योंकि बबूला अभी है और अभी नहीं हुआ। पानी में उठा बबूला है, कब फूट जाएगा पता नहीं फूटता है, फूटता है, अब फूटा, तब फूटा, फूटने को ही तत्पर है, फूटेगा ही, एक बात सुनिश्चित है,सदा रहने वाला नहीं है। और तुमने प्रेम इससे लगाया, तो जब बबूला टूट जाएगा तब तुम तड़फोगे, तब तुम जलोगे आग में। यह प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो, शांडिल्य के सूत्र को खयाल में लेना। शांडिल्य कहते हैं, प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो, प्रेम के कारण तो तुम्हें बबूले में से भी रस मिला था, बबूला, जिसमे कि रस है ही नहीं। बबूला, जिसमें कुछ भी न था। तुमने चूंकि बबूले से प्रेम किया, उससे भी रस पा लिया था। प्रेम के कारण तुमने रेत से भी तेल निचोड़ लिया था। तेल तो आया था प्रेम से। अब बबूला टूटेगा तो दुख आएगा;दुख आता है बबूले की क्षणभंगुरता से। सुख आता है प्रेम से, दुख आता है क्षणभंगुर विषय से।  

किसी ने धन चाहा, धन का क्या भरोसा, आज है कल न हो;किसी ने पद चाहा, पद का क्या भरोसा, आज है कल न हो; इस संसार में तुमने जो चाहा है, वह सदा रहने वाला नहीं है। फिर भी चाह के कारण, राग के कारण थोड़ा सा सुख मिलता है, इंद्रधनुषों से भी मिल जाता है, मृगमरीचिकाओ से भी मिल जाता है। जो आदमी भटक गया है मरुस्थल में और प्यासा है, उसे दूर दिखायी पड़ता है एक मरूद्यान, हो या न हो। मान लो कि नहीं है, सिर्फ दिखायी पड़ता है, भ्रान्ति है, प्यासे आदमी का सपना है, प्यासे आदमी का प्रक्षेपण है, प्यासे आदमी की प्यास ही इतनी प्रगाढ़ हो गयी है कि वह चारों तरफ मरूद्यान देखने लगा है। झूठा सही, लेकिन जब तक मरूद्यान तक नहीं पहुंचेगा, तब तक तो सच्चा है। जब तक सच्चा है, तब तक आशा और सुख।

राग लग गया झूठे मरूद्यान से, तो उससे भी थोड़ा सुख मिला है। पहुंचेगा पास, बोध होगा, दिखायी पड़ेगा कि झूठा था, तब दुख होगा। दुख राग के कारण नहीं हो रहा है, राग के कारण तो झूठे मरूद्यान से भी सुख पैदा हो गया था, दुख पैदा हो रहा है, क्योंकि मरूद्यान झूठा था। शांडिल्य यह कह रहे हैं कि राग से तो दुख पैदा होता ही नहीं।

भेद खयाल में आया?

एक तो प्रेम है और एक प्रेम का विषय है। विषय अगर क्षणभंगुर है, तो दुख पैदा होता है। शांडिल्य कहते है— क्षणभंगुर की जगह की जगह शाश्वत को विषय बनाओ, परमात्मा को विषय बनाओ, फिर दुख न होगा। यही भक्ति है।

विरागी भ्रांति मे है। उसने विश्लेषण ठीक से नहीं किया। शांडिल्य कहते हैं, वह जो फूल खिले हैं कांटों में, वे प्रेम के फूल हैं। और जो कांटे हैं, वे क्षणभंगुरता के हैं। दोनों चूंकि साथ साथ खिले हैं, इसलिए तुम्हें भ्रान्ति हो रही है, तुम्हें अड़चन हो रही है।


      जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को

      सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते है

      फूल क्या, शिगूफे क्या, चांद क्या, सितारे क्या

      सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते है

      रक्स करने लगती हैं मूरतें अजंता की

      मुद्दतों से लबबस्ता गार गाने लगते हैं

      फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में

      प्यासी प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते है

      लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है

      लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं 

लम्हे भर को ही लेकिन, क्षणभर को ही लेकिन। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, सपना ही है यह, मगर प्रेम की शक्ति इतनी विराट है कि क्षणभर को सपने को भी सच कर देती है, क्षणभर को झूठ को भी प्रामाणिक कर देती है। शांडिल्य कह रहे है—प्रेम की शक्ति तो देखो, अनुराग की ऊर्जा तो देखो, झूठ पर बरसती है तो झूठ भी सच मालूम होने लगता है। यद्यपि क्षणभर को ही यह बात हो सकती है, क्योंकि झूठ आखिर झूठ है। आज नहीं कल उघडेगा, आज नहीं कल सपना टूटेगा। आज नहीं कल इंद्रधनुष विदा होगा। तुम्हारी आखें फिर अंधेरे में रह जाएंगी। यह दीया बुझेगा।

 विरागी भाग खड़ा होता है। वह कहता है, अब कभी प्रेम न लगाएंगे, प्रेम से बड़ा दुख पाया। शांडिल्य कहते है, प्रेम से दुख नहीं पाया, क्षणभंगुर से लगाया था इसलिए पाया। धन से लगाया, इसलिए पाया; तन से लगाया, इसलिए पाया;मन से लगाया, इसलिए पाया। परमात्मा से लगाकर देखो! उससे, जो सदा है। उससे, जो कभी नहीं नहीं होता। और फिर आनंद ही आनंद है।

 ‘रागत्वादितचेत्रोत्तमास्पदत्वात् संगवत्’। उत्तम से लगाओ, पारलौकिक से लगाओ। किससे लगाया, इस पर निर्भर है। सांप—बिच्छू से दोस्ती की, आज नहीं कल डसे जाओगे। यह दोस्ती का कसूर नहीं है, सांप बिच्छू से दोस्ती की। इसलिए यह मत सोच लेना कि अब कसम खा लेता हूं कि कभी दोस्ती न करूंगा; सांप से दोस्ती की इसलिए पीड़ा पायी;दोस्ती से ही मत संबंध तोड़ लेना, अन्यथा तुम्हारे जीवन में सेतु ही खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से रंग खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से लय खो जाएगी, तुम्हारे जीवन से संगीत खो जाएगा। क्योंकि सब संगीत, सब लय, सब राग, सब रंग प्रेम का ही है। अनुराग के ही फूल हैं ये सब। यहा जितनी सुगंध है, प्रेम की है। जितनी दुर्गंध है, अप्रेम की है। 

तो यहां भोगी है, जो गलत से प्रेम लगा रहा है। वह गलत है, क्योंकि गलत से प्रेम लगा रहा है। और योगी है, जिसने प्रेम लगाना छोड़ दिया, वह गलत है, क्योंकि उसने प्रेम ही लगाना छोड़ दिया। अगर बात को तुम ठीक समझो तो योगी से भोगी बेहतर है। क्योंकि भोगी कम से कम प्रेम तो लगा रहा है। गलत से लग रहा है, कभी समझ आएगी तो सही से भी लगाएगा। अभी गलत दिशा में जा रहा है, जा तो रहा है। कभी समझ आयी, तो ठीक दिशा में जा सकेगा, यही पैर ठीक दिशा में भी ले जा सकेंगे। यही पंख जो अंधेरे और महा अंधकार की तरफ ले जा रहे हैं, किसी दिन प्रकाश की यात्रा पर भी निकल सकेंगे। लेकिन योगी ने तो पंख काट दिये। अब न अंधेरे की यात्रा हो सकती है, न उजाले की यात्रा हो सकती है, अब यात्रा ही नहीं हो सकती।

फिर योगी जब पंख काट देता है, तो एक अपूर्व उदासी से भर जाता है। उसी उदासी को बहुत से लोग साधुता समझते हैं। साधुओं का एक संप्रदाय तो उदासी कहलाता है। उदासी को लोग साधुता समझते हैं। साधुता तो आनंद होना चाहिए। साधुता तो नाचती हुई होनी चाहिए। साधुता में तो बहुत गीत जन्मने चाहिए। साधुता में तो चांद तारे उगने चाहिए साधुता नृत्य न हो तो साधुता नहीं है। साधुता में तो मस्ती होनी चाहिए, मादकता होनी चाहिए। साधु का जीवन तो मधुशाला होगी। वहा तो बड़ी मादकता होगी, बड़ा माधुर्य होगा। वहां तो सब तरफ आनंद ही आनंद होगा।

लेकिन जिसको तुम साधु कहते हो, वहा आनंद की कोई खबर नहीं; उदासी है, जड़ता है; एक तरह का मुर्दापन है, और सन्नाटा है मरघट का। साधु जड़ हो गया है; ठहर गया, डबरा हो गया है;अब यह धारा कहीं जाती नहीं, किसी सागर तक कभी नहीं पहुंचेगी, यह सडेगी। भक्त कहता है, नाचो;भक्त कहता है, उत्साह से भरो; भक्त कहता है, प्रेम की धारा को संसार से परमात्मा की तरफ मोड़ दो। धारा तुम्हारे पास है, पंख तुम्हारे पास हैं, दिशा तुम ठीक चुन लो, पंखों से नाराज मत हो जाओ।

 जब तुम्हारा कोई साधु पंखों से नाराज हो जाता है और अपने पंख काट देता है, तो दूसरों के पंख देखकर ईर्ष्या से भी भरता है। तुम्हारे साधु तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम भी पंख काट दो। वे नाराज हैं, खुद पर नाराज है, तुम पर नाराज हैं, उनकी जिंदगी नाराजगी की जिंदगी है। वहा क्रोध है, वहा रोष है, वहा दमित वासना है। दमित होगी ही। क्योंकि प्रेम कुछ ऐसी बात है जिससे तुम छुटकारा पा नहीं सकते। पंख भी काट दो तुम पक्षी के; तो भी पक्षी उड़ने की आकांक्षा से छुटकारा नहीं पा सकता। वह तो पक्षी की आत्मा है, उससे छुटकारा नहीं।

 उड़ने की आकांक्षा ही तो पक्षी के प्राण है। प्रेम की आकांक्षा ही तो तुम्हारी आत्मा है। तुम कितने ही जंगलों में चले जाओ, कितनी ही दूर, और कितनी ही गुफाओं में बैठ जाओ, तुम्हारे भीतर प्रेम सुगबुगाएगा, तुम्हारे भीतर प्रेम का झरना फूटने की चेष्टा करता रहेगा। गुफा में बैठोगे तो गुफा से प्रेम हो जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठोगे, तो उस वृक्ष से प्रेम हो जाएगा। कोई पक्षी तुम्हारे कंधे पर आकर बैठने लगेगा, वृक्ष के नीचे तुम्हें शांत बैठा देखकर, तो उस पक्षी से प्रेम हो जाएगा। अगर वह एक दिन न आएगा, तो तुम प्रतीक्षा करोगे। वैसी ही प्रतीक्षा जैसे प्रेमी प्रेयसी की करता है, या प्रेयसी प्रेमी की करती है। तुम चिंतातुर होओगे कि क्या हुआ उस पक्षी का? अंधड़ था, तूफान था, कहीं गिर तो नहीं गया, कहीं मर तो नहीं गया? वह वृक्ष सूखने लगेगा तो तुम बेचैन होओगे, तुम दूर नदी से जल भरकर लाओगे, उस वृक्ष को डालोगे। वह बेचैनी वैसी ही होगी जैसे बच्चा बीमार होता है तो, मां को होती है। प्रेम से भागोगे कहा? तुम प्रेम हो।

भक्तों का यह उदघोष है कि प्रेम तुम्हारी आत्मा है, अनुराग तुम्हारा अस्तित्व है, इससे छूटने का कोई उपाय नहीं। पंख काट सकते हो, फिर भी तुम्हारे भीतर उड़ने की आकांक्षा तड़फड़ाएगी, और भी ज्यादा तड़फड़ाएगी। और जब तुम दूसरों को उड़ते देखोगे, तो बहुत ईर्ष्या पैदा होगी। उसी ईर्ष्या के कारण तुम्हारे साधु तुम्हें उपदेश देते हैं कि छोड़ो, त्यागो, भागो। मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यो नहीं कहते हैं? परमात्मा ही संसार नहीं छोड़ रहा है, तो मेरा संन्यासी क्यो छोड़े? परमात्मा नहीं ऊबा है संसार से, तुम परमात्मा से भी श्रेष्ठ होने की आकांक्षा से भरे हो क्या? तुम्हें परमात्मा को भी पराजित करना है? तुम्हारा तथाकथित महात्मा अपने को परमात्मा से भी ज्यादा बुद्धिमान मान रहा है। परमात्मा अभी भी फूलों में हंसता है, अभी भी पक्षियों में उड़ता है, अभी भी झरनों में बहता है, अभी भी पहाड़ो में उठता है, अभी भी चांद तारों मे बसता है, अभी भी नए बच्चे पैदा होते हैं, परमात्मा अभी थक नहीं गया है।

रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी कोई नया बच्चा पैदा होता है, तो मेरे मन में धन्यवाद उठता है परमात्मा के प्रति, तो तू अभी थका नहीं? तो तूने फिर एक नया आदमी बनाया! तेरी आशा अपरंपार है। अनंत है तेरी आशा। आदमी कितना ही गलत करे, आदमी कितना ही गलत हो जाए, लेकिन तू है कि आदमी गढ़े चला जाता है। तू कहता है, आज चूके तो कल जीतेंगे, कल चूके तो परसों, मगर जीतेंगे। आज नहीं कल मनुष्य जैसा होना चाहिए वैसा होगा। तेरा यह भरोसा!

आदमी की श्रद्धा परमात्मा पर भला खो गयी हो, परमात्मा की श्रद्धा आदमी पर नहीं खो गयी है। परमात्मा की श्रद्धा अपूर्व है तुम्हारे प्रति, इसीलिए तो तुम जी रहे हो, तुम्हारी श्वास चल रही है। उस का राग तुम से है, और तुम विराग की बाते कर रहे हो? उसने तुम्हें चाहा है, उसकी चाहत तुम पर रोज बरसती है सुबह सांझ, चाहे तुम देखो, चाहे तुम न देखो। सूरज की रोशनी मे बरसती है, हवाओं के झोंकों में बरसती है, फूलों की गंध में बरसती है, मनुष्यों के प्रेम में बरसती है;उसकी अनुकंपा तुम्हारे पास रोज आती है, तुम चाहे धन्यवाद दो या न दो;उसका राग तुम से है, परमात्मा तुम्हारे प्रेम में है, परमात्मा अपनी सृष्टि के प्रेम में है, नहीं तो इन वृक्षों को कौन हरा रखे, इन चांद, तारों को कौन रोशन रखे, इन पक्षियों के पंखों में कौन उड़े, और इन पक्षियों के कंठों में कौन गाये!

परमात्मा का राग तुम से, और तुम विराग की बात कर रहे हो! तुम भी इतने ही राग से उसके प्रति भर जाओ। तुम दोनों का राग मिल जाए, वहीं मुक्ति है, वहीं मोक्ष है। परमात्मा ने तुम्हें खूब चाहा है, और तुमने नहीं चाहा है, यही तुम्हारी भ्रान्ति है।

 तुम्हारी चाहत ऊर्ध्वगामी हो जाए, अभी अधोगामी है, नीचे की तरफ जाती है, क्षुद्र की तरफ जाती है। इसलिए सावधान रहना, जब भी तुम्हें कोई उदास महात्मा दिखे बचना। क्योंकि वह रोग के कीटाणु लिए हुए है। उससे दूर दूर रहना, उससे सावधान रहना, क्योंकि वे रोग के कीटाणु खतरनाक हैं। एक बार तुम्हारे भीतर पड़ गये, तुम संक्रामक हो गये, तो उनका इलाज मुश्किल है। और वे रोग के कीटाणु तुम्हें जंचेंगे। जंचेगे इसलिए कि तुमने भी दुख पाया है, तुम्हारे भी हाथ जले हैं, तुमने भी इस जीवन में बहुत पीड़ा पायी है। जिस से प्रेम किया उसी से दुख पाया है, किस और से दुख पाओगे? दुख तो पाया जाता उसी से जिससे हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उसी से हम आशा करते हैं, उसी से आशा भी टूटती है;उसी से आकांक्षा करते हैं, उसी से आकांक्षा उखड़ती है;उसी से हमारी अपेक्षाएं होती हैं, उसी से विषाद आता है।

 अजनबी से तुम्हें कभी दुखी नहीं होता। क्यों होगा? दुख तो अपनों से होता है, क्योंकि अपनों से अपेक्षा लगी होती है। कुछ तुम चाहते थे और वैसा नहीं हुआ। राह चलता कोई तुम्हारा एक छोटा सा काम कर देता है तो तुम अनुग्रह से भर जाते हो, क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी जीवनभर से सेवा कर रही है, तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। धन्यवाद देना बेहूदा भी लगेगा, अपनों को कोई धन्यवाद देता है! परायों को ही हम धन्यवाद देते हैं। धन्यवाद का मतलब ही इतना है कि अपेक्षा न थी और तुमने किया। जिससे अपेक्षा है उस पर हम नाराज होते हैं, धन्यवाद नहीं देते। जितनी अपेक्षा थी उतना न किया तो नाराज होते है। कोई बेटा अपनी मां को धन्यवाद देता है? कोई मां अपने बेटे को धन्यवाद देती है? यह बात ही नहीं उठती। हां, शिकायतें चलती हैं;नाराजगियां होती हैं, क्रोध होता है। तो हर आदमी जला हुआ है, और हर आदमी के फफोले पड़े हुए हैं। और तुमने कहावत सुनी है न,  'दूध का जला छाछ भी फूंक फूंककर पीने लगता है। ' तो तुम्हारा भी अनुभव तुम से यही कहता है, तुम्हारा भी विश्लेषण बहुत गहरा नहीं है, तुमने भी जीवन को बहुत उसकी गहराइयों में न समझा है, न परखा है;तुम्हारी आखें भी बहुत पारदर्शी नहीं है, तो जब तुम्हारा महात्मा तुमसे कहता है कि यह सब राग का ही फल है, तुम को भी बात जंचती है, गणित बैठता है कि बात तो ठीक ही है, मैं भी राग में पड़ा हूं इसलिए दुख भोग रहा हूं। तो रोग के कीटाणु तुम लेने को तत्पर हो जाते हो।

      शांडिल्य तुम्हारे लिए बड़े क्रांति के सूत्र दे रहे हैं। शांडिल्य कह रहे है —राग से नहीं कोई दुख पाता। कह दो अपने महात्माओं को कि तुमने राग से दुख नहीं पाया, गलत से राग लगाया था उससे दुख पाया। अब तुम दूसरी गलती कर रहे हो कि तुमने राग ही छोड़ दिया। एक आदमी अपने पैरों से चलकर वेश्यालय गया, निश्चित ही पैर न होते तो कैसे जाता, पैरों से ही गया। फिर वेश्यालय में बहुत दुख पाया, बहुत अवमानना झेली, बहुत जीवन को दूषित बना डाला, क्रोध में अपने पैर काट डाले, क्योंकि ये पैर वेश्यालय ले गए थे। लेकिन ये पैर मंदिर भी ले जाते, इनसे ही तीर्थयात्रा भी होती। यह जो पैर काटकर बैठ गया है, इसको तुम महात्मा कहते हो। क्योंकि यह कहता है—पैर वेश्यालय ले गए थे, जुआघर ले गए थे, शराबघर ले गए थे, इन पैरों पर बहुत नाराज था, इसने पैर काट डाले। इसको तुम पागल कहोगे न! इसको तुम महात्मा तो नहीं कहोगे। इस आदमी ने पहले भी मूढ़ताएं कीं और अब महामूढ़ता कर रहा है, क्योंकि जो वेश्यालय तक जा सकता है, वह मंदिर तक जाने में समर्थ है। जो शराबघर तक जा सकता है, वह स्वर्ग तक जा सकता है। पैर हैं, जो नर्क की यात्रा कर सकता है, उसको स्वर्ग की यात्रा में कौन सी बाधा है? रुख बदलना है, दिशा बदलनी है; बाएं न चले, दाएं चले, बस इतना ही फर्क करना है। पैर तो वही हैं, सीढ़ी तो वही है, नीचे न गये, ऊपर गये। उसी सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, उसी से नीचे जाते हो, सीढ़ी थोड़े ही तोड़ देते हो इसलिए कि नीचे ले जाती है? जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही ऊपर नहीं ले जाती? सिर्फ दिशा बदलनी होती है।

      शांडिल्य कहते हैं—दिशा बदलों। क्षणभंगुर से छोड़ो नाता, राग छोड़ो और शाश्वत से राग जोड़ो। परम से जोड़ो राग। जरा सोचो तो कि क्षणभंगुर में जंहा कोई सुख नहीं है, राग के कारण वहां भी सुख के क्षण मिल जाते हैं, लम्हे भर को, लम्हे भर को ए दुनिया जुल्म छोड़ देती है, लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं, तुम्हें दिखायी पड़ने लगता है कि सब चारों तरफ हंसी है, चारों तरफ खुशी है। जरा सोचो, अगर यही प्रेम तुम शाश्वत से लगाओ, तो अनंत होगी तुम्हारी संपदा, उसका कोई पारावार न होगा। और उन लोगों से बचना जिन्होंने पैर काट लिये, पंख काट लिये। विरागियो से बचना, राग ही मार्ग है।

      जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने

      कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू

      यह फदें—जुर्म किसी और की जुबां पर नहीं

      खुद अपने अहदे —गुजिश्ता की तर्जुमान है तू

      वह चेहरे जिनमें फरोजा है अस्मते—मरियम

      तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है

      तेरा जमीर है तीरा, महो—नजूम नहीं

      महो—नजूम पे तू तीसी उछालती है

      मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे

      तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती

      हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं

      कि हंसी तेरे होंठों पे आ नहीं सकती

      बिठा दिए तो हैं पहरे कदम—कदम पे मगर

      झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है

      गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में

      जवानी अपना जहां एतबार खोती है

      ये तितलिया जिन्हें मुट्ठी में भींच रखा है

      जो उड़ने पायें तो उलझें कभी न खारों से

      तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं

      तपिश निचोड़ न इन नाचते शतसे से


      कवि कहता है—

      जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने

      कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू

      तुमने जरूर गलत ढंग से अपनी जवानी गुजारी होगी, तभी तुम जवानों पर नाराज होते हो, तभी तुम हर जवान के विरोध में होते हो; तुमने राग अपना गलत से लगाया होगा, इसलिए तुम हर रागी पर नाराज होते हो।

      ये फदें—जुर्म किसी और कभ जुबा: पे नहीं

      खुद अपने अहदे —गुजिश्ता की तर्जुमान है तू

      और जब भी तुम किसी बात की निंदा करते हो तो खयाल रखना, यह तुम्हारे अतीत की ही निंदा है, और किसी बात की निंदा नहीं। जब कोई आदमी कहता है— धन पाप है, तो समझ लेना इसने अपनी जिंदगी धन कमाने में गंवायी होगी। कुछ और नहीं कहता यह आदमी। जब कोई आदमी कहता है—स्त्रियों के पीछे मत भागो, यह सब व्यर्थ है, तो वह इतना ही कहता है कि इसने अपनी जिंदगी स्त्रियों के पीछे भागने में गंवा दी है। यह आदमी अपने संबंध में कुछ कह रहा है। यह तुम्हारे संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह स्त्रियों के संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह सिर्फ अपने संबंध में कुछ कह रहा है।

      वह चेहरे जिनमें फरोजा है अस्मते—मरियम

      तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है

      यहां ऐसी स्त्रियां भी हुइ जैसे मरियम—जीसस की मां मरियम, उससे ज्यादा पवित्र चेहरा और कहां खोज पाओगे? लेकिन तुम कहते हो कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं। जरूर तुम अपना ही अनुभव दोहरा रहे हो। तुमने ऐसी स्त्रियां खोजी होंगी जो नरक के द्वार हैं। यह तुम्हारी खोज के संबंध में खबर है, यह स्त्रियों के संबंध में कोई खबर नहीं है। यहां तो मरियम जैसी स्त्रिया भी हैं, जो स्वर्ग के द्वार हैं, जिनसे देवता भी पैदा होने को तडूफें।

      वह चेहरे जिनमें फरोजा है अस्मते—मरियम

      तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है

      तेरा जमीर है तीरा, महो—नजूम नहीं

      तेरा अंतःकरण अंधेरे से भरा है, आकाश नहीं,

      आकाश में तो बहुत चांद—तारे हैं—

      तेरा जमीर है तीरा, महो—नजूम नहीं

      महो—नजूम पे तू तीसी उछालती है

      और तुम अपने भीतर के अंधेरे को चांद—तारों पर फेंकते हो—

      मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे

      तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती

      हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं

      कि हंसी तेरे होंठों पे आ नहीं सकती

      क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी पाप है? क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी जुर्म है? क्योंकि तुम नहीं हंस सके तुम्हारे जीवन में, तुम्हें कला के सूत्र न मिले, तुम्हें हंसने का राज न मिला—क्योंकि तुमने रोते जिंदगी बिताई—तों तुम सभी को कहते फिरते हो कि जिंदगी में सिवाय आसुओ के और कुछ भी नहीं है, कांटे ही कांटे हैं, फूल यहौ हैं ही नहीं—क्योंकि तुम्हारी बगिया में फूल न खिला, इसलिए और बगियाओ में फूल नहीं हैं। तुम अपने को सब पर मत थोपो। तुम्हारी हार तुम सबकी हार में मत बदलों। मगर तुम्हारे महात्मा यही करते रहे हैं।

      बिठा दिए तो हैं पहरे कदम—कदम पे मगर

      झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है

      गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितर में

      जवानी अपना जहां एतबार खोती है

      जहां जवान आदमी, जहां जीवन अपने में आस्था खो देता है, वहीं से पाप शुरू होते हैं। और तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हारी आस्था डगमगा दी है। उन्होंने तुम्हें ऐसी बातें दी हैं कि तुम जो भी करो, गलत है। तुम जो भी करो, गुनाह है। खाओ—पीओ गुनाह है। उठो—बैठो, गुनाह है। सोओ—जागो, गुनाह है। प्रेम करो, संबंध बनाओ, दोस्ती बनाओ, गुनाह है; सब गुनाह है। तुम्हें गुनाहों से भर दिया। यह गुनाहों से भरा हुआ आदमी कैसे तो ईश्वर को पुकारे? किस मुंह से पुकारे? किस कारण पुकारे? ईश्वर ने सिवाय गुनाहों के और कुछ तो दिया नहीं। सिवाय पापों से भरी यह जिंदगी, और तो कुछ दिया नहीं, तुम धन्यवाद किस बात का दो? और जहां धन्यवाद नहीं है, वहा प्रार्थना नहीं पैदा होती है।

      गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में

      जवानी अपना जंहा एतबार खोती है

      ये तितलिया जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है

      जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से

      और तुम्हारे महात्माओं ने क्या किया है, तितलियां पकड़ रखी हैं;इस डर से कि कहीं अगर उड़े तो कीटों से न उलझ जाएं।

      ये तितलिया जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है

      जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से

      तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं

      तपिश निचोड़ न इन नाचते शउरों से

      इन नाचते हुए चिनगारियों से आग को मत निकाल लो। इनका जीवन निचोड़ मत लो। इन्हें उड़ने दो।

      भक्ति तुम्हें जीवन की परम स्वतंत्रता देती है। भक्ति कहती है —तुम्हारा आकाश है, उड़ो; प्रभु ने पंख दिये, उड़ो। इतना ही ध्यान रहे कि ये पंख ऊपर भी ले जा सकते हैं;ये पैर मंदिर तक भी पहुंचा सकते हैं। ये आखें देह का सौदर्य देखने पर चुक न जाएं —यद्यपि देह के सौदर्य में कुछ भी खराबी नहीं है, कोई भी पाप नहीं है, है तो सौदर्य उसी का, सारा सौदर्य उसी का है। जब तुम किसी स्त्री को या किसी पुरुष को सुंदर पाते हो, तो यह उसी की झलक है, यह उसी की खबर है। दूर की सही, बहुत दूर की गूंज सही, मगर उसी की गूंज है, अनुगूंज है। वही झलका है। लेकिन ये आखें दृश्य पर ही समाप्त न हो जाएं, एक अदृश्य सौदर्य भी है, इन आंखों को उसकी तलाश मे लगाना। और ये कान शब्दों को ही सुनते—सुनते शांत  न हो जाएं, शून्य को सुनने का भी और बड़ा आनंद है। और ये हाथ जो छुआ जा सकता है उसी को न छूते रहें, कुछ ऐसा भी है जो छुआ नहीं जा सकता, फिर भी हाथों में आ सकता है। और यह हृदय व्यर्थ की ही चितना में न डूबा रहे, सार से भी इसका संबंध जुड़े। राग के दुश्मन मत बन जाना। राग के अतिरिक्त कोई सेतु नहीं है।

      इसलिए कहते हैं शांडिल्य

      ‘रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्’।

      'अनुराग ही का नाम भक्ति है। कोई ऐसा कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। परंतु यह बात ऐसी नहीं है;क्योंकि संग की भांति इसका आश्रम उत्तम है।'

      आश्रय कैसा है? विषय कैसा है? उत्तम से जोड़ दो तो भक्ति हो जाती है। क्षुद्र से जोड़ा दो, तो श्रुद्रता। इसलिए मैंने तुमसे कहा कि प्रीति—तत्व के ये रूप है : एक, स्नेह। अपने से छोटे से—बच्चे से, बेटे से। दूसरा, प्रेम। अपने समान से—पति से, पत्नी से, मित्र से। तीसरा, श्रद्धा। अपने से बड़े से—पिता से, मां से, गुरु से। और चौथी परम दशा है, भक्ति। ये सब प्रीति के ही रूप है। तुम्हारा प्रेम भक्ति तक पहुंच जाए। इतना स्मरण रहे, न कुछ छोड़ना है, नहीं कहीं भाग जाना है। इसी संसार की मिट्टी में परमात्मा का सोना मिला है। छाटना है, मिट्टी—मिट्टी अलग कर देनी है, सोना—सोना छांट लेना है।

      ‘तत् एव कर्म्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यशब्दात्’।

      'कर्मी, ज्ञानी और योगी से भी भक्त को आधिक्य शब्द में वर्णन होते देखा जाता, इस कारण वह श्रेष्ठ ही है। ' शांडिल्य कहते है—सारे शास्त्रों का सार यह है कि जिस भांति शास्त्रो ने भक्त की प्रशंसा की है, वैसी किसी की भी नहीं की। वेद भी भक्त को परम कहते हैं, उपनिषद भी। कृष्ण भी गीता में भक्त को परम कहते हैं। आधिक्य से वर्णन किया गया है अगर किसी का, तो वह भक्त का किया गया है। कर्म की भी प्रशंसा की गयी है। और ज्ञान की भी प्रशंसा की गयी है। और योग की भी प्रशंसा की गयी है। और सारी विधियों की भी चर्चा की गयी है। लेकिन भक्त को आधिक्य से कहा गया है। उसकी अत्यधिक प्रशंसा की गयी है। क्यों? क्योंकि भक्त इस जगत में द्वंद्व पैदा नहीं करता;निद्व द्व है। भक्त इस जगत में चुनाव नहीं करता। यह संसार और यह परमात्मा, ऐसा खंड नहीं करता। कहता है—यह संसार भी उसी परमात्मा का। भक्त परमात्मा को संसार के विपरीत नहीं देखता, संसार में छिपा, अनुस्यूत देखता है। कण—कण में है। क्षण— क्षण में वही व्याप्त है।

      फिर भक्त अपने को सब भांति समर्पित करता है। उसका समर्पण पूर्ण है। भक्त ही कर सकता है पूर्ण समर्पण। प्रेम ही कर सकता है पूर्ण समर्पण, और तो कोई पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता है। योगी का स्वार्थ है, मोक्ष चाहिए। भक्त को वैसा स्वार्थ भी नहीं है। भक्तों ने कभी मोक्ष नहीं मांगा। ज्ञानी को ज्ञान चाहिए। सत्य क्या है, इसका साक्षात्कार चाहिए। भक्त को उसकी भी चिंता नहीं है। भक्त तो कहता है—मेरे हृदय में मैं न रहूं;बस इतना काफी है। जंहा मैं न रहा, वहां तू रहेगा ही। मैं शून्य हो जाऊं, मैं तेरे योग्य पात्र बन जाऊं, तेरे चरणों में कहीं धूल बनकर पड़ा रहूं बस पर्याप्त है। मेरी अलग से कोई आकांक्षा नहीं है। योगी मोक्ष मांगता, तानी ज्ञान मांगता, कोई कुछ मांगता, कोई कुछ मांगता; भक्त कहता है इतना ही कि मुझे मिटा दे;मुझे ऐसा नेस्तनाबूद कर दे कि मुझे मेरा कुछ पता न रहे; मैं बेखुद हो जाऊं। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि भक्त के हृदय में मैं जिस भांति विराजता हूं वैसा किसी और के हृदय में नहीं विराजता हूं। वैसा वैकुंठ में भी नहीं। भक्त के हृदय में जिस प्रीति से बैठता हूं वैसा कहीं और स्थान ही नहीं है।

      ‘प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धे:’।

      ' भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है। ' यह सूत्र बड़ा अनूठा है। अनूठा इसलिए कि बड़ा सांकेतिक है। और सांकेतिक होने के कारण इसके अब तब जो अर्थ लिए गए हैं, बड़े गलत लिए है। यह सूत्र सीधा—सीधा नहीं है, बड़ा परोक्ष है। क्या चाहते हैं शांडिल्य कहना कि गए भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा सिद्ध हो चुकी। ' जिन्होंने शांडिल्य पर व्याख्याएं की हैं, उन्होंने यह मान लिया कि प्रश्न—उत्तर से शांडिल्य का इशारा श्रीमद्भगवद्गीता की तरफ है; क्योंकि कृष्ण और अर्जुन के बीच प्रश्न—उत्तर हुए। और उन्हीं प्रश्न—उत्तर में भक्ति की सर्वोच्च ऊंचाई सिद्ध हो चुकी है।

      ऐसा अर्थ किया जाए तो किया जा सकता है। मगर यह अर्थ बड़ा दूरगामी नहीं। अगर शांडिल्य को यही कहना होता तो कृष्ण—अर्जुन संवाद कह देते;यही कहना होता तो श्रीमद्भगवद्गीता का नाम ही ले देते; इस तरह परोक्ष कहने की क्या जरूरत थी? इसलिए मैं इसका कुछ और अर्थ करना चाहता हूं।

      शिष्य और गुरु के बीच बहुत कुछ है, जो शब्दों के बिना भी होता है। विद्यार्थी और अध्यापक के बीच केवल शब्दों का लेन—देन होता है। यही फर्क है। शिष्य और गुरु के बीच निशब्द का भी लेन—देन होता है। शब्द का लेन—देन होता है, मगर वह गौण है, दोयम, नंबर दो। प्रथम तो है मौन का आदान—प्रदान।

      पच्चीस सौ साल हुए, एक जंगल में एक सुबह यह घटना घटी। एक व्यक्ति अपने हाथ में फूल लिए हुए आया। आकर बैठा। उसके चारों तरफ उसकी शिष्य—मंडली थी। और उस व्यक्ति ने वह फूल एक—एक शिष्य के सामने किया। जिसके सामने फूल गया, उसने कुछ कहा, फूल के संबंध में कुछ व्याख्या की। फूल घूमता रहा। और आखिर में एक शिष्य के सामने गया और उस शिष्य ने कुछ भी न कहा, वह सिर्फ मुस्कुराया, हंसा। और कहते हैं, इसी घटना में झेन संप्रदाय का जन्म हुआ, ध्यान संप्रदाय का जन्म हुआ।

      यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि वह व्यक्ति गौतम बुद्ध था। कोई और भी हो सकता था। कृष्ण हो सकते थे, क्राइस्ट हो सकते थे, कपिल हो सकते थे, कणाद हो सकते थे, कबीर हो सकते थे, कोई भी हो सकता था; शर्त एक ही है कि जो भी हो, वह जागा हुआ होना चाहिए।

      और ध्यान संप्रदाय का जन्म क्यों हुआ उस एक के हंसने पर? क्योंकि जब बुद्ध ने इस फूल को औरों के सामने किया, तो वे भाषा में बोले, उन्होंने कुछ कहा, अपना— अपना ज्ञान दिखलाया;फूल के संबंध मे कुछ कहा ले किन फूल से चूक गये। फूल तो तथ्य है, शब्दातीत है, कुछ कहने का उपाय नहीं है। आश्चर्यचकित हो सकते हो फूल को देखकर, विस्मय—विमुग्ध हो फूल को देखकर, आदमg हो सकते हो फूल को देखकर, फूल के सौदर्य को देखकर ख्वब्ध हो सकते हो, आंसू झर सकते हैं आनंद के, कि हंसी फूट सकती है, मगर शब्द, शब्द बहुत ओछा है, शब्द बहुत छोटा है।

      जिस शिष्य के पास फूल आया और ठहर गया, वह था महाकाश्यप। वह सिर्फ मुस्कुराया, फिर खिलखिलाकर हंसा। और बुद्ध ने वह फूल महाकाश्यप को दे दिया। और कहा कि जो मैं कह सकता था, वह मैंने औरों से कह दिया है, जो मैं नहीं कह सकता, वह मैं तुझे दिए दे रहा हूं।

      परम घटना मौन में घटती है। शिष्य और गुरु के बीच शब्दों का आदान—प्रदान नहीं होता, ऐसा नहीं, होता है, लेकिन वह असली आदान—प्रदान नहीं। एक और आदान—प्रदान है जो चुप—चुप होता है, जो बिन बोले होता है। शांडिल्य जिस शिष्य से ये सूत्र कह रहे हैं, या जिन शिष्यों से ये सूत्र कह रहे हैं, उनसे उनका मौन का नाता है। उन शिष्यों ने मौन में बहुत बार उनसे प्रश्न पूछे हैं, और बहुत बार उनके उत्तर पाए हैं। यहा मेरे पास वे लोग है, जो मौन में पूछते हैं, और मौन में पाते भी हैं। मौन में पूछने वाला ही पाता है।

      शांडिल्य जब कहते हैं :

      ‘प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धे:, प्रश्न और उत्तर द्वारा भी क्या यही बात सिद्ध नहीं हो चुकी है। वे किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं? वे अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि तुमने कितनी बार पूछा है और मैंने कितनी बार तुमसे कहा है। भीतर— भीतर अंतरंग मे तुम प्रश्न बने हो, मैं उत्तर बना हूं;क्या हर बार भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हुई? क्या मतलब इसका? इसका मतलब यह हुआ कि जब भी तुमने शांत  और मौन होकर प्रेम से भरकर पूछा है, तो तुमने उत्तर पाया है। जब भी तुम शांत  और मौन होकर प्रेम से मेरी तरफ देखे हो, तो तुम चाहे हजार मील दूर रहे, तुमने मुझे अपने भीतर पाया है। क्या उससे बात सिद्ध नहीं हो गयी है? क्या प्रेम के अनुभव से बात सिद्ध नहीं हो गयी है?

      यह इशारा कृष्ण की गीता की तरफ नहीं है। कृष्ण की गीता की तरफ होता तो सीधा कह देते, ऐसे प्रश्न—उत्तर की बात क्यों उठाते? क्योंकि फिर तो बड़ी झंझट है। उपनिषदों में भी प्रश्न—उत्तर हैं। फिर गीता ही क्यों? फिर उपनिषद क्यों नहीं? फिर प्रश्न—उत्तर तो हजारों साल से चलते रहे है, न मालूम कितने शास्त्रों में प्रश्न—उत्तर हैं। नहीं, शांडिल्य तो उस अपने अंतस बंध की तरफ इशारा कर रहे है। वह यह कह रहे हैं कि सुनो! तुम भी पूछते हो और कितनी बार नहीं तुम्हारे प्रेम के कारण समय और स्थान की दूरी मेरे और तुम्हारे बीच मिट गयी है। कितनी बार तुमने चुपचाप प्रेम से पूछा है और उत्तर पाया है। क्या उससे भक्ति का आधिक्य सिद्ध नहीं हो गया? उससे बात सिद्ध हो चुकी है।

      'न एवश्रद्धा तु साधारण्यात्।

      ' भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारणरूप से दिखायी पड़ती है। ' श्रद्धा साधन है भक्ति का, भक्ति साध्य है। साधन साध्य नहीं हो सकता। तुम जिस नाव से दूसरे किनारे पर जाते हो, वह नाव दूसरा किनारा नहीं है, न हो सकती है। साधन साधन है, साध्य साध्य है। श्रद्धा भक्ति तक लाती है, लेकिन भक्ति नहीं है। बहुत लोग श्रद्धा को ही भक्ति समझ लेते हैं, तो भ्रांति हो जाती है।

      फिर भक्ति क्या है? श्रद्धा में कुछ न कुछ पाने की आकांक्षा बनी रहती है, भक्ति निष्काक्षी है। भक्त ने तो पा लिया, श्रद्धालु पाने में लगा है। भक्ति उस भावदशा का नाम है, जब तुम्हें पता चलता है कि परमात्मा मिला ही हुआ है, पाने का कोई सवाल ही नहीं है। पाने की बात ही गलत है। ऐसा समझो, तुम्हारे खीसे में हीरा पड़ा है और तुम भूल गये। श्रद्धा का अर्थ है, किसी ने कहा कि तुम भूल गए क्या, तुम्हारे पास हीरा है? और तुमने उस आदमी की बात पर भरोसा किया और खोज शुरू की, कि हो सकता है यह आदमी ठीक कहता हो। तुम इस आदमी को जानते हो, यह प्रामाणिक है, यह कभी झूठ नहीं बोला, इसने तुम्हें कभी धोखा नहीं दिया, इसकी और सलाहें भी पीछे अतीत मे काम आयी है, इसने जब जो कहा काम पड़ा है, इसने जब जो कहा वैसा ही हुआ है, हजार—हजार अनुभवों से सिद्ध हो चुका है कि यह आदमी विश्वास योग्य है। और यह आदमी आज तुमसे कहता है कि हीरा तुम्हारे पास है, तुम तलाशते क्यों नहीं, तुम हाथ फैलाए भीख क्यों मांगते हो, हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है, तो तुम्हें श्रद्धा उमगती है। तुम सोचते हो कि यह आदमी कभी झूठ नहीं बोला, यह आदमी सदा मेरे काम आया, और इसने जो कहा सदा ठीक हुआ, मैंने माना तो, मैंने नहीं माना तो, अंतत: इसकी बात सदा सही सिद्ध हुई है। हो न हो यह भी बात सही हो—यह श्रद्धा।

      फिर तुम खोज करते हो और एक दिन हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है। जब हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है, तब भक्ति। अब तुम अहोभाव से भरते हो। अब तुम्हारे भीतर बड़ी कृतज्ञता उठती है। तुम नाचते हो, तुम मस्त हो, मस्ती समाती नहीं, बही जाती है —आधिक्य हो गया। और अब तुम हंसते भी हो कि मैं भी कैसा मूढ़ हूं;जिस हीरे को खोजता था वह मेरे पास था। हीरा मेरे पास था और मैं दाने—दाने को मुहताज था, मैं भी कैसा पागल!

      ऐसी ही परमात्मा की उपलब्धि है। परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं—जिसे तुम खो दो, वह परमात्मा नहीं। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है, खोओगे कैसे? तुम परमात्मा हो। परमात्मा तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है। वह हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है। तुम जब चाहो तब पा लो, क्योंकि तुम पाए ही हुए हो। भक्ति उस दशा का नाम है जब तुम अपने भीतर भगवान को पाते हो। भक्ति भगवान की उपस्थिति से उठी सुवास है। श्रद्धा तलाश है, श्रद्धा खोज है।

      शांडिल्य कहते है— भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारण रूप से दिखायी पड़ती है। और भी भेद हैं श्रद्धा और भक्ति में। श्रद्धा नास्तिक को भी होती है। आखिर कम्युनिस्ट कार्ल मार्क्स और एंजील्स और लेनिन पर वैसी ही श्रद्धा करता है, जैसे हिंदू कृष्ण पर करता है और ईसाई क्राइस्ट पर करता है। कम्युनिस्ट दास कैपिटल पर वैसी ही श्रद्धा करता है जैसी मुसलमान कुरान पर करता है और बौद्ध धम्मपद पर करता है। यद्यपि कम्युनिस्ट भक्त नहीं है, और कभी भक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा तो साधारणत: सब तरफ दिखायी पड़ती है। बच्चे मां—बाप पर श्रद्धा करते हैं, लेकिन भक्ति नहीं है वह। जिस गुरु से तुम कुछ सीख लेते हो, उस पर तुम्हे श्रद्धा आती है, सम्मान आता है, आदर भाव आता है, लेकिन भक्ति नहीं है वह।

      श्रद्धा अधार्मिक भी हो सकती है, अनैतिक भी हो सकती है। समझो कि किसी ने तुम्हें जेब काटना सिखाया, वह तुम्हारा गुरु हो गया। उस पर श्रद्धा होगी, उस पर आदर होगा। चोरों के भी गुरु होते हैं, बेईमानों के भी गुरु होते हैं। बेईमानी की भी तो कला होती है। कोई ऐसे ही तो नहीं आ जाती है बेईमानी, सीखनी पड़ती है। उसमें भी दादा गुरु होते हैं! तो वहा भी श्रद्धा होती है। श्रद्धा साधारण बात है। जिससे हमे कुछ मिलता है मूल्यवान, उसी पर श्रद्धा हो जाती है।

      परमात्मा से जो संबंध है, वह मात्र श्रद्धा का नहीं हो सकता है। श्रद्धा का हो, तो अभी संबंध हुआ नहीं। परमात्मा से संबंध भक्ति का हो सकता है। इसीलिए तो कृष्ण को मानने वाला कृष्ण को भगवान कहेगा। क्यों? महावीर को मानने वाला महावीर को भगवान कहेगा। क्यों? वह इतना ही कह रहा है कि हम साधारण गुरु नहीं मानते महावीर को, हमारा संबंध श्रद्धा का ही नहीं है, भक्ति का है। वह और कुछ भी नहीं कह रहा है। वह सिर्फ इस बात की घोषणा कर रहा है कि महावीर मेरे लिए गुरु ही नहीं हैं, भगवान हैं। मेरे भीतर उनके प्रति जो भाव है वह मात्र श्रद्धा का नहीं है, श्रद्धा तो साधारण बात है। मेरे और उनके बीच जो फूल खिला है वह भक्ति का है। मुझे अब उनसे कुछ लेना—देना नहीं है, उनकी मौजूदगी काफी है, उनका होना परम धन्यता है।

      इसलिए जो एक को भगवान है, दूसरे को नहीं भी होगा। जैनों का भगवान हिंदुओं के लिए भगवान नहीं है। कोई कारण नहीं है। क्योंकि भगवत्ता तो एक निजी घटना है। ईसाइयों का भगवान मुसलमानों का भगवान नहीं है। बुद्ध को मानने वाले बुद्ध को भगवान कहते हैं। कृष्ण को मानने वाले राजी नहीं होंगे, जैन राजी नहीं होंगे, बुद्ध और भगवान! लेकिन उनकी नाराजगी इतना ही कहती है कि उनके और बुद्ध के बीच भक्ति का संबंध नहीं है—और कुछ नहीं कहती। इसमें कुछ विवाद जैसी बात नहीं है। अगर जैन यह सिद्ध करने लगें कि महावीर सब के भगवान हैं, तो झंझट की बात है। जैन अगर इतना ही कहें कि हमारे भगवान हैं, बात समाप्त हो गयी। इससे आगे कोई विवाद का उपाय नहीं है। लेकिन महावीर की, कृष्ण की, या बुद्ध की उदघोषणा भगवान की तरह उनके प्रेम करने वालों ने की, उसका कारण इतना ही है कि वे यह जाहिर करना चाहते हैं कि हमारे और उनके बीच साधारण श्रद्धा का नाता नहीं है, वह नाता वही है जिसको भक्ति का नाता कहते हैं। भक्ति परम नाता है। वह अनुराग की परम शुद्ध दशा है। उसके ऊपर और कोई शुद्धि नहीं है।

      स्नेह क्षणभंगुर का होता, प्रेम भी क्षणभंगुर का होता, और श्रद्धा भी। भक्ति शाश्वत की है। श्रद्धा बनती है, मिट सकती है। आज है, कल खो जाए। आज तुमने जिसे श्रद्धा से देखा, शायद कल श्रद्धा से न देखो, अश्रद्धा से देखो श्रद्धा बदल सकती है। लेकिन भक्ति आयी तो आयी, फिर बदलना नहीं जानती। और जो भक्ति बदल जाए, तो जानना कि भक्ति नहीं थी; श्रद्धा ही रही होगी, तुमने भक्ति मान लिया था। झूठ तुमने अपने ऊपर आरोपित कर लिया था। भक्ति बदलती नहीं, बदल ही नहीं सकती। एक बार आयी तो आयी, फिर जाने का नाम नहीं लेती। जो चली जाए, वह ज्यादा से ज्यादा श्रद्धा हो सकती है।

      काम तखईल आ नहीं सकती

      दीद दूरी मिटा नहीं सकती

      कैफ क्या भागती बहारों में

      दिल की राहत कहां नजारों में

      लाख झूले नजर सितारों में

      तीसी घर की जा नहीं सकती

      कल्पना से कुछ काम नहीं बनता— 'काम तखईल आ नहीं सकती। ' तुम्हारे प्रेम, तुम्हारे स्नेह, तुम्हारी श्रद्धाएं कल्पना के फैलाव हैं; तुम्हारी मान्यताएं हैं; तुमने मान लिया। मान लिया तो ठीक, लेकिन जीवन के सत्य के अनुभव नहीं हैं। 'दीद दूरी मिटा नहीं सकती'—और दर्शन भर से दूरी नहीं मिटती, तब तक एकात्म अवस्था न हो जाए। श्रद्धा में दूरी है, भक्ति में दूरी समाप्त हो गयी। भक्त      और भगवान एक हो गये।

      काम तखईल आ नहीं सकती

      दीद दूरी मिटा नहीं सकती

      कैफ क्या भागती बहारों में

      और जहां प्रतिक्षण सब कुछ बदला जा रहा है, वहां आनंद कैसे होगा—

      कैफ क्या भागती बहारों में

      दिल की राहत कहां नजारों में

      लाख झूले नजर सितारों में

      तीसी घर की जा नहीं सकती

      और तुम कितने ही आकाश के तारों को देखते रहो, इससे तुम्हारे घर का अंधेरा नहीं मिटेगा। घर का अंधेरा तो तभी मिटेगा जब घर का दीया जलेगा। श्रद्धा दूसरे पर होती है, श्रद्धा 'पर' पर होती है। भक्ति, जब तुम्हारे भीतर भगवान का दीया जलता, जब तुम भगवान के मंदिर बनते हो, तब, जब तुम उसके पूजागृह बन जाते हों—पुजारी ही नहीं, उसके पूजागृह; उपासक ही नहीं, उसके मंदिर। जिक्रे अजदाद से हूं गो खुर्सद

      हालो—माजी का सका ता चंद

      मौत से साज करके जीना क्या

      खुम से जो गिर गयी वह पीना क्या

      वहम से चाके—अक्ल सीना क्या

      उधड़े जाते हैं खुद—ब—खुद पैबंद

      नग्मगी गम पे छायेगी क्यों कर

      मुफलिसी गुनगुनायेगी क्यों कर

      मैंकदा है निशांत  की बस्ती

      फिर भी मिटता नहीं गमे—हस्ती

      मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती

      रूह तस्कीन पायेगी क्यों कर

      यहां इस जगत में राहत नहीं मिल सकती, तस्कीन नहीं मिल सकती।

      मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती

      यहां सब क्षणिक है। अभी है, अभी नहीं है। सब पानी पर खींची गयी लकीरें हैं।

      मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती

      रूह तस्कीन पाएयी क्यों कर

      यख जमेगी शरार पर कितनी

      आगही होगी बेखबर कितनी

      जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए

      नश्शा—सा इक हवास पर छा जाए

      नर्म जानू पर नींद भी आ जाए

      नींद की उम्र ही मगर कितनी

      ‘यख जमेगी शरार पर कितनी’। चिनगारी पर बर्फ जमाना चाहो तो कितनी देर जमा पाओगे, कितनी जमा पाओगे?

      यख जमेगी शरार पर कितनी

      आगही होगी बेखबर कितनी

      जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए

      नश्शा—सा इक हवास पर छा जाए

      नर्म जानू पे नींद आ जाए

      नींद की उम्र ही मगर कितनी

      बार—बार सोओगे क्षणभंगुर में, बार—बार नींद टूटेगी, बार—बार जगोगे। यहां तो उथल—पुथल मची ही रहेगी। तो स्नेह से काम न चलेगा, प्रेम से काम न चलेगा, श्रद्धा से काम न चलेगा—वें सभी के सभी संसार के भीतर हैं— भक्ति चाहिए। संसार के पार आंख उठनी चाहिए। कुछ तो तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जो सांसारिक नहीं है। कोई एक किरण सही, जो तुम्हें संसार के पार ले चले। उसी किरण के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।

      और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा:

      न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु

      एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में

      आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है

      धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में

      जिस्म लेते हैं जन्म, जिस्म फना होते हैं








      और जो इक रोज फना होगा, वह पैदा होगा

      इक कड़ी टूटती है, दूसरी बन जाती है

      खत्म ये सिलसिल—ए—जिदगी फिर क्या होगा

      रिश्ते सौ, जज्वे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं

      फर्ज सौ चेहरे में शक्ल अपनी ही पहचानता है

      वही महबूब, वही दोस्त, वही एक अजीज

      दिल जिसे इश्क, और इदराक अमल मानता है

      जिंदगी सिर्फ अमल, सिर्फ अमल, सिर्फ अमल

      और ये बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है

      अम की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग

      उन्हीं रंगों में छिपा खून का इक रंग भी है खौफ के रूप कई होते हैं, अंदाज कई

      प्यार समझा है जिसे, खौफ है वो प्यारे नहीं

      उंगलियां और गड़ा, और अकड़ और जकड़

      आज महबूब का बाजू है ये तलवार नहीं

      जंग रहमत है कि लानत, पर सवाल अब न उठा

      जंग जब आ ही गयी सर पे तो यह रहमत होगी

      दूर से देख न भड्के हुए शोलो का जलाल

      इसी दोजख के किसी कोने में जन्नत होगी

      जख्म खा, जख्म लगा, जख्म हैं किस गिनती में

      फर्ज जख्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह

      न कोई रंज, न राहत, न सिले की परवा

      पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह

      यहां जितने संबंध हैं— भाई का, बेटे का, मा का, पिता का, गुरु का, सब संसार के हैं।

      न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु

      एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में

      आत्मा मरती नहीं जिस्म बदल लेती है

      धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में

      जिस दिन तुमने सब शक्लों में छिपे उस एक को देख लिया, उस दिन भक्ति। जब तक शक्ल में अटके, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जिस दिन शक्लों के पीछे छिपे उस एक को देख लिया—जब तक लहरों में उलझे, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जब सागर को देख लिया, तो भक्ति।

      ऐसा नहीं है कुछ कि भगवान कहीं और है। यहीं छिपा है—इन्हीं वृक्षों में, इन्हीं लोगों में, इन्हीं पक्षियों में, इन्हीं पहाड़ों में, यहीं छिपा है, लेकिन हम शक्ल से उझल जाते हैं। हम वृक्ष को देखते हैं, वृक्ष के भीतर बहते प्राण की धारा को नहीं। हम पक्षी को उड़ते देखते हैं, पक्षी के भीतर उड़ती हुई आत्मा को नहीं। हम आदमी को देखते हैं, औरत को देखते हैं—आदमी और औरत ऊपर की बातें हैं—भीतर छिपे हुए चैतन्य को नहीं देखते। वह चैतन्य दिखने लगे तो भक्ति।

      न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु

      एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में

      आत्मा मरती नहीं जिस्म बदल लेती है

      धड़कने इस सीने की जा छुपती है उस सीने में

      ऐसा देखो, ऐसा परखो, तो तुम धीरे— धीरे पाओगे शांडिल्य जिस अनुपम अनुराग की बात कह रहे हैं, वह तुम्हारे भीतर उठने लगा। अरूप का प्रेम, निराकार का प्रेम, निर्गुण का प्रेम।

     

      तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।

     

      'श्रद्धा और भक्ति को एक अर्थ में लगाने से दोष हो जाएगा। ' श्रद्धा को भक्ति मत समझ       लेना; श्रद्धा पर रुक मत जाना, शांडिल्य का यह इशारा है।

      तुम कुछ ऐसे हो कि जगह—जगह रुक जाते हो, इसलिए सदगुरुओं को कहना पड़ता है बार—बार। तुम ऐसे हो कि रुकने को तत्पर हो। बुद्ध ने कहा है—अगर मैं तुम्हारे ध्यान के रास्ते पर कहीं मिल जाऊं, तो मुझे दो टुकड़े कर देना। इफ यू मीट मी ऑन द वे, किल मी। मुझे मार डालना। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध न मारे जाएं, तो श्रद्धा पर अटकन हो जाएगी। जब बुद्ध भी विदा हो जाए, तो भगवत्ता का उदय हो।

      गुरु के भी पार जाना होगा। गुरु ले जाता अंतिम तक, लेकिन अंततः, अंततोगत्वा गुरु अपना हाथ छुड़ा लेता है। उस समय हिम्मत होनी चाहिए कि तुम भी हाथ छोड़ दो। क्योंकि गुरु आखिरी रूप है, अरूप और रूप के बीच गुरु आखिरी कड़ी है। मगर अरूप में जाना है, निर्गुण में जाना है, निराकार में जाना है।

      इसलिए शांडिल्य कहते हैं : 'श्रद्धा और भक्ति को एक समझोगे, तो दोष हो जाएगा। ' श्रद्धा और भक्ति को एक मत समझना। श्रद्धा जगे, शुभ है। अगर तुम स्नेह में पड़े हो, प्रेम में पड़े हो, तो श्रद्धा तक पहुंचना बड़ी क्रांति है। लेकिन फिर उस क्रांति के भी पार जाना है। बुद्ध ने कहा है, जैसे कोई नाव से नदी पर करता है, फिर दूसरे किनारे उतरकर नाव को छोड़कर आगे बढ़ जाता है। ऐसे श्रद्धा से नाव बना लेना, पार कर लेना नदी, लेकिन जब दूसरा किनारा आ जाए, तो श्रद्धा को सिर पर मत ढोते फिरना।

      इसलिए झेन फकीरों की अदभुत कहानियां हैं। रिंझाई ने बौद्ध शास्त्रों को आग लगा दी। शिष्यों ने पूछा, यह क्या करते हो? रिंझाई ने कहा, श्रद्धा बहुत हो चुकी, श्रद्धा तोड़नी जरूरी है। तुम इन शास्त्रों में मत अटक जाना, इसलिए आग लगाता हूं।

      दूसरे झेन फकीर इक्का ने बुद्ध की लकड़ी की मूर्तियां जला दीं और आच ताप ली।

श्रद्धा को एक दिन छोड़ देना है। श्रद्धा के जो पार उठता है, वही भक्ति को उपलब्ध होता है।


आज इतना ही।

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

भक्ति परम है। उसके पार कुछ और नहीं, भगवान भी नहीं।

प्रागुक्त च।।16।। 

एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्त :।।17।। 

देवभक्तिरितरस्मिन् साहचर्थ्यात्।।18।। 

 योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयोजवत्।।19।।

 गौण्यातु समाधिसिद्धि:।।20।।

भक्ति परम है। उसके पार कुछ और नहीं, भगवान भी नहीं। भक्ति है वह बिंदु जंहा भक्त और भगवान का द्वैत समाप्त हो जाता है; जंहा सब दुई मिट जाती है; जहां दोपन एकपन में लीन हो जाता है।

ऐसे एकपन में अगर उससे एक भी कहें तो ठीक नहीं। क्योंकि जंहा दो ही न रहे, वहा एक का भी क्या अर्थ? ऐसी शून्यदशा है भक्ति, या ऐसी पूर्णदशा है भक्ति। नकार से कहो तो शून्य, विधेय से कहो तो पूर्ण, बात एक ही है। लेकिन भक्ति के पार और कुछ भी नहीं।

जैसे बीज होता, फिर बीज से अंकुर होता, फिर अंकुर से वृक्ष होता, फिर वृक्ष में फूल लगते और फिर फूल से गंध उड़ती  है भक्ति जीवन का अंतिम चरण, जहां जीवन परिपूर्ण होता, सुगंध, आखिरी घड़ी आ गयी, इसके पार अब कुछ होने को नहीं, इसलिए सुगंध में संतोष है। न पार होने को कुछ है, न पार की आकांक्षा हो सकती। आकांक्षा करने वाला भी गया, आकांक्षा की जा सकती थी जिसकी वह भी समाप्त हुआ। ऐसी निष्काक्षा, ऐसी वासना शून्य, ऐसी रिक्त दशा है भक्ति। रिक्त, अगर संसार की तरफ से देखें तो सारा संसार समाप्त हुआ। भरी पूरी, लबालब, अगर उस तरफ से देखें, परमात्मा की तरफ से देखें, क्योंकि शून्य घट में ही परमात्मा का पूर्ण भर पाता है।

 शांडिल्य ने कहा : प्रागुक्त च।

 मैं जो कहता हूं, नया नहीं है, ऐसा पूर्व में भी कहा गया है। सदा सदा कहा गया है। ‘प्रागुक्त च’ का अर्थ होता है, पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया; जिन्होंने जाना उन्होंने भी ऐसा ही कहा है; जब भी जाना, तभी ऐसा कहा गया है;भविष्य में भी जो जानेगे, ऐसा ही कहेंगे। अभिव्यक्तियां भिन्न होंगी, शब्द अलग होंगे, भाषाएं पृथक होगी, पर जो कहा गया है सार में वह यही है।

अज्ञानी एक जैसी बातें कहें तो भी बातें भिन्न भिन्न होती हैं, क्योंकि अज्ञान निजी है, वैव्‍यक्‍तिक है, सबका अलग अलग है, जैसे सपने सबके अलग अलग होते हैं, झूठ सबके अलग अलग होते है। सपना यानी झूठ। जो सपना तुमने देखा है, वह दुनिया में कोई कभी नहीं देखेगा। तुम अपने सपने में किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते कि आओ, मेरा सपना देखो। बिलकुल निजी है। अपने प्रीतम को भी नहीं बुला सकते, अपने निकटतम मित्र को भी नहीं कह सकते कि मेरे सपने में आज आ जाना, वहां बस तुम अकेले हो पृथक, अस्तित्व से टूटे हुए, अपने में बंद। इसीलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई गवाह भी नहीं है। तुम एक गवाह नहीं खोज सकते अपने सपने के लिए। इसलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई साक्षी नहीं है।  

जिस जगत मे हम संगी साथी खोज लेते हैं, वह ज्यादा सच है। इसलिए जो वृक्ष तुमने आंख खोलकर देखा है, वह ज्यादा सच है क्योंकि तुमने भी देखा, तुम्हारे पड़ोसी ने भी देखा, तुम्हारे मित्रों ने भी देखा, तुम्हारे शत्रुओं ने भी देखा। लेकिन जो सपने का वृक्ष है, आंख बंद करके तुमने देखा, बस तुमने देखा शत्रुओं की तो बात दूर, मित्र भी उसे देख नहीं सकते। मित्रो की तो बात दूर, तुम भी उसे दुबारा देखना चाहो तो असमर्थ हो। तुम्हारे भी हाथ में नहीं है। एक तरंग थी झूठ की;तुम नींद में सोए थे, तुम इतने सोए थे कि झूठ को झूठ की तरह न देख पाए और सच मान लिया। नींद के कारण झूठ सच लगा।

अज्ञानियों की भाषा चाहे एक हो, चाहे उनके वक्तव्य एक हों, मगर वे अलग अलग बात कहते है। अलग अलग ही कहेंगे, क्योंकि वे अलग अलग हैं। उन्होंने अभी एकात्म नहीं जाना;सर्व के साथ संबंध नहीं जाना, अभी सेतु ही नहीं बना। अभी सब अपने अपने में बंद, द्वार, दरवाजे बंद किए बैठे है।

 अज्ञानी एक सा भी बोलें तो उनकी बात का अर्थ एक नहीं होता हो ही नहीं सकता। ज्ञानी अलग अलग बोलें अलग अलग ही बोलते है फिर भी उनकी बात का अर्थ एक ही होता है।

शांडिल्य कहते हैं : प्रागुक्त च।

'ऐसा ही पहले भी कहा गया है।' ऐसा ही आगे भी कहा जाएगा। ऐसा ही कहा जा सकता है। सत्य को अन्यथा कहने का उपाय नहीं है। 

 कृष्ण का वचन है :

      ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति काक्षति

      सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम्। 

'ब्रह्मभाव प्राप्त कर के जब मनुष्य प्रसन्नात्मा होता हुआ सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय सर्वभूत में समदर्शी होने पर वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है।' अर्थात समस्त साधनाओं का एकमात्र फल भक्ति है। जब सारी आकांक्षाएं   गिर जाती हैं, सारा सोच विचार शांत  हो जाता है, ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काक्षति। ध्यान रखना, वासना है इसलिए विचार है।

मेरे पास अनेक बार लोग आते हैं, वे कहते है, विचार कैसे बंद करें? विचार बंद नहीं होगा जब तक वासना है। वासना है तो विचार उठता ही रहेगा। ऐसे ही जब तक वायु का प्रचंड वेग है, झील पर लहरें उठती रहेंगी। लहरों को कैसे बंद करोगे? वायु का वेग रुके तो लहरें अपने आप शांत हो जाएंगी, बंद करनी भी नहीं पड़ेगी। विचार तो तरंगें हैं वासना के वेग में उठी।

तुमने देखा, चुपचाप बैठे हो शांत बैठे हो, एक सुंदर स्त्री निकल गयी और वासना उठी, और तत्क्षण विचारों से घिर गए तुम इधर आयी वासना, उधर विचारों का प्रवाह आया; हजार हजार तरंगें आ गयीं। वासना का जरा सा कंकड़ गिर जाए तुम्हारी चेतना की झील में, कि तरंग और तरंग और तरंग उठ आती है। चुपचाप बैठे थे, एक कार गुजर गयी, मन में वासना उठी कि पाऊं, बस, विचार का तांता शुरू हुआ कतार बंधी। तुम अपने भीतर निरीक्षण करोगे तो इस सत्य को पकड़ पाओगे कि अगर विचार से मुक्त होना हो तो वासना से मुक्त होना पड़ेगा। विचार वासना के पीछे आता है, अनुसंगी है, छाया है।

कृष्ण कहते है, जब कोई न सोचता, न वासना करता, तब प्रसन्नात्मा हो जाता है। सोचने वाला, वासना और विचार में ग्रस्त हमेशा अवसन्न रहेगा उदास, हारा थका, विषादग्रस्त, चिंतामग्न, संताप से भरा। क्यों? क्योंकि जितनी तुम्हारी वासना होगी, उतनी ही तुम्हें अपनी हीनता अनुभव होगी। वासना तुम्हें बताएगी क्या क्या तुम्हारे पास नहीं है। किस किस बात का अभाव है। जितनी ज्यादा वासनाएं होंगी, उतना अभाव मालूम होगा। तुम उतने ही दरिद्र होते हो जितनी तुम्हारी वासनाएं होती हैं, क्योंकि हर वासना खबर देती है कि यह मेरे पास नहीं। जिस दिन तक तुमने नहीं सोचा था कि एक बड़ा महल बनाऊं, उस दिन तक तुम महल में ही थे। तुम जहां भी थे महल था, झोपड़ा ही महल था। लेकिन जिस दिन यह वासना उठी कि एक बड़ा महल बनाऊं, उसी दिन से तुम झोपड़े में हो गए क्योंकि अब उस महल की तुलना में यह झोपड़ा अखरता है, खटता है, काटता है।

 रूखी सुखी रोटी मिल जाती थी, सुस्वादु थी;जिस दिन वासना उठी, उसी दिन स्वाद खो गया, उसी दिन से तुम भूखे हो। अब पेट नहीं भरता रूखी सूखी रोटी से।

अभाव पता ही चलता है वासना से। वासना की लकीर बड़ी होती जाती है, तुम्हारे जीवन की लकीर छोटी होती चली जाती है। वासना की लकीर को मिटा दो और तुम पाओगे कि तुम प्रसन्नात्मा हो। 

कृष्ण कहते है जिसकी वासना गयी, विचार गया, वह प्रसन्नात्मा हो जाता है। और जो प्रसन्नात्मा है, वह ब्रह्मभूत होने में समर्थ हो जाता है। वह परमात्मा में लीन होने के करीब आ अया। अब बाधा न रही। बाधा थी अभाव की;बाधा थी दीनता, दरिद्रता की।

मैं निरंतर तुमसे कहा हूं, भिखारी की तरह से उसके द्वार पर मत जाना। जो भिखारी की तरह उसके द्वार पर गया है, वह खाली हाथ लौटा है। खाली हाथ जाओगे, खाली हाथ लौटोगे। तुमने ही अगर तय कर रखा है कि खाली हाथ रखने हैं, तो परमात्मा भी तुम्हारे हाथ नहीं भर सकेगा। सम्राट की तरह जाना उसके द्वार पर। लेने और मांगने मत जाना, अपने को देने जाना। जिस दिन तुम्हारी प्रार्थना मांग नहीं होती, दान होती है, उसी दिन पूरी हो जाती है। जिस दिन तुम परमात्मा को देने को तत्पर होते हो, उस दिन फिर कोई अभाव नहीं रह जाएगा।

 ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काक्षति। सम: सर्वेषु... 

और जिसको ब्रह्मभाव उपलब्ध हुआ, वह सभी में भी अपने को पाएगा। फूल में भी अपने को पाएगा। अपने को विस्तीर्ण होता पाएगा। सारा अस्तित्व उस की देह बन जाएगा। 

तुमने छोटी सी देह में अपने को बांध रखा है, क्योंकि तुमने क्षुद्र वासनाओं में अपने को कस रखा है। जैसे जैसे वासना के बंधन गिरते हैं, तुम विराट होने लगते हो। ऐसा नहीं है कि परमात्मा कहीं से आता है, सिर्फ तुम्हारे बंधन गिर जाते हैं। तुम परमात्मा हों बंधे हुए बंधन गिर जाते हैं। अचानक अनुभव होता है कि जो मैं सदा से था, वही हूं सिर्फ भेद इतना पड़ा है बंधन गिर गए।

बुद्ध एक सुबह अपने भिक्षुओं के सामने आए और उन्होंने अपने हाथ में एक रूमाल ले रखा था, और उन्होंने सबके सामने खड़े होकर उस रूमाल में पांच गांठें बांधी, और फिर एक भिक्षु से पूछा कि क्या तुम कह सकते हो यह रूमाल वही है जैसा मैं लाया था, या भिन्न हो गया? उस भिक्षु ने कहा, भगवान, आप उलझन की बात पूछते हैं। सही उत्तर यही हो सकता है कि एक अर्थ में तो रूमाल वही है, और एक अर्थ में रूमाल बदल गया। इस अर्थ मे रूमाल वही है, क्योंकि रूमाल में कुछ नया नहीं हुआ है गांठ से कुछ नया नहीं हो गया है। गांठ से क्या नया होगा! रूमाल बिलकुल वही है। लेकिन फिर भी यह कहना ठीक नहीं कि बिलकुल वही है, क्योंकि गांठ ने थोड़ा फर्क तो कर दिया। गांठ पहले नहीं थी, अब है।

तुम गांठ लगे रूमाल हो। तुम गांठ लगे भगवान हो। गांठ खुल जाए, भगवान कहीं और से आता नहीं ग्रंथि खुल जाए। ग्रंथियां विचार की हैं, वासना की हैं। उनके कारण अभाव, विषाद, संताप। उनके कारण नर्क। जितना बड़ा तुम्हारा विषाद है, उतनी परमात्मा से दूरी है। दुख में कोई परमात्मा से नहीं जुड़ पाता। और आदमी ऐसा मूढ़ है कि दुख में याद करता है, सुख में भूल जाता। और दुख में कभी कोई नहीं जुड़ा सुना ही नहीं, ऐसी घटना ही नहीं घटी कि दुख में कोई छलांग लगा गया हो परमात्मा में। दुख में तो तुम सिकुड़ जाते हो, गांठ और मजबूत हो जाती है। गांठ ही गांठ रह जाती है, रूमाल बचता ही नहीं;पांच नहीं; पचास गांठ हो जाती हैं कि हजार गांठ हो जाती है, सारा रूमाल गांठो मे दब जाता है। गांठों पर गांठें लग जाती हैं। ग्रंथियों पर ग्रंथियां। पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि कभी यह रूमाल खुला भी था, कभी तुम मुक्त भी थे, कभी तुम निर्विकार भी थे, कभी तुम्हारी स्लेट पर कुछ भी न लिखा था;शांति थी, कोई धब्बा न पड़ा था।

दुख में आदमी भगवान को याद करता है। और दुख सर्वाधिक दूरी है मनुष्य और भगवान के बीच। प्रसन्नात्मा पहुंचता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं नाचो, गाओ; रोते हुए मत जाओ, हंसते हुए जाओ। हंसते हुए ही कोई पहुंचता है। नाचते हुए जाओ। पहाड़ मत ढोओ चिंताओं के अपने सिर पर। 

अक्सर ऐसा हो जाता है, ये पहाड़ ढोने वाले लोग ही तुम्हें संत महात्मा मालूम होते हैं। ये बहुत दूर हैं, इन्हें कुछ भी पता नहीं है। कहीं कोई मस्त होकर नाचता हो, चाहे परमात्मा की उसे याद भी न हो तो भी परमात्मा के करीब है। मस्ती में सार है। कहीं कोई रस निमग्न है, कहीं कोई डूबा है, सब भांति भूलकर, वहीं समझना कि परमात्मा का द्वार करीब है, चूकना मत, वहा सत्संग करना। जंहा मस्ती में डूबे हुए लोग मिल जाएं, ज़हां मस्तो की मधुशाला मिल जाए, वहीं मंदिर है। उस क्षण याद किया तो काम आ जाता है। क्योंकि उस वक्त हम बहुत करीब होते है। जरा सी आवाज दी कि वहा तक पहुंच जाती है। आनंद के पंखों पर चढ़कर ही प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचती है। दुख तो पंख हीन है। पंख कटे जटायु सा। उस पर चढ़कर कोई यात्रा नहीं होती।

जो ब्रह्मभूत हो गया, आनंदमग्न होकर सोच विचार, वासना से मुक्त हुआ, उसे सब में एक ही का वास दिखायी पड़ने लगता है। सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते परम्। और इस अवस्था का नाम परा भक्ति है। भगवान ही भगवान, शैतान में भी भगवान। राम ही राम, रावण में भी राम। जिस क्षण भगवान के अतिरिक्त कुछ और दिखायी ही न पड़े, चाहो तो भी दिखायी न पड़े, खोजो तो भी न पा सको;जहां उल्टो, जिस पत्थर को पल्टो, वही मिल जाए;जिस लकड़ी को तोड़ो वही मिल जाए;आंख खोलो तो वही, आंख बंद करो तो वही;जिस दिन जंहा जाओ वहीं काबा, वहीं काशी;जिस दिन जंहा झुको वहीं मंदिर;जंहा बैठ रहो वहीं तीर्थ... कबीर ने कहा है : खाऊं पीयू सो सेवा; उठू बैठू सो परिक्रमा। वही है, तो अब अलग से भोग लगाने की भगवान को जरूरत नहीं रही, तुमने जो खाया पीया वह भी उसी को भोग लगा गया 'खाऊ पीयू सो सेवा। ' 'उठूं बैठूं सो परिक्रमा है। आती जाती श्वास; यह आती जाती श्वास उसी का निनाद है, यह आती जाती श्वास उसी का ओंकार है, यह उसी का भजन है।

 इस परमदशा को कृष्ण ने भक्ति कहा है। ठीक कहते हैं शांडिल्य प्रागुक्त च। पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया और दूसरे भक्ति के तत्वज्ञ नारद ने कहा है फल रूपत्वत्। वह भक्ति सब साधनों का फलरूप है। अंतिम है। पराकाष्ठा है। उसके पार और कुछ भी नहीं है। शेष सब रूप साधनाओं के उसी तरफ ले जाते हैं। शेष सब मार्ग हैं, साधन है, भक्ति साध्य है। 

एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्त:। 

'इससे विकल्प का नाश भी हो गया। '

साधारणत: इस वचन का अर्थ किया जाता है कि चूंकि शास्त्रों में भी ऐसा कहा है, आप्त पुरुषों ने भी ऐसा कहा है, जानने वालों के ऐसे ही वचन है इसलिए अब कोई संदेह की बात न रही, अब सब विकल्प समाप्त हो गए, अब श्रद्धा की जा सकती है। यह अर्थ ठीक है, पर बहुत ऊपर ऊपर है। क्योंकि शांडिल्य जैसा ज्ञानी सिर्फ शास्त्रों का उल्लेख करके ऐसा नहीं कह सकता कि सब विकल्प समाप्त हो गए। सब विकल्प तो समाप्त होते हैं, तभी जब अनुभव हो जाए। शास्त्रों से कैसे विकल्प समाप्त हो जाएंगे? और शांडिल्य तो ऐसा कह ही नहीं सकते, क्योंकि अभी अभी तो हमने देखे उनके और सूत्र जिनमें उन्होंने ज्ञान की व्यर्थता कही है;जिनमें उन्होंने कहा कि ज्ञान कचरा है; ज्ञान से कोई भक्ति तक नहीं पहुंचता। कृष्ण ने क्या कहा गीता में और नारद ने क्या कहा भक्ति सूत्रों मे, इसको जानने से कोई शांति होगी, विकल्प समाप्त होंगे? इसके जानने से समाधान होगा? समाधि के बिना कोई समाधान न हुआ है कभी, न हो सकता है।

शास्त्र कहते रहें कितना ही, जब तक तुम्हारा अंतशास्त्र न जाग उठे, तब तक सब विश्वास है, श्रद्धा नहीं। और विश्वास झूठी श्रद्धा का नाम है। तुम मान सकते  हो कि कृष्ण ने कहा तो ठीक ही कहा होगा, लेकिन पहले तो तुम्हें यह मानना पड़ता है कि कृष्ण ठीक हैं, फिर तुम्हें यह मानना पड़ता है कि जब ठीक व्यक्ति ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। मगर सारी बात अंधी है। तुम्हें कैसे पक्का पता हो कि कृष्ण ठीक है। शांडिल्य कहते हैं इसलिए कृष्ण ठीक नहीं हो सकते क्योंकि फिर यह पक्का होना चाहिए कि शांडिल्य ठीक हैं। तुम रुकोगे कहा? तुम जिस जगह से शुरू करोगे? जंहा से भी शुरू करोगे वहीं से अंधापन होगा। तुम कहोगे। परंपरा कहती है। लेकिन परंपरा गलत हो सकती है। कहीं भ्रांति हो गयी हो, कहीं भूल हो गयी हो। जब तक तुम्हारा अंत अनुभव गवाही न दे, तब तक दुनिया की कोई चीज प्रमाण नहीं बन सकती। हां, मान सकते हो, सांत्वना होगी, थोड़ी राहत मिलेगी, मगर राहत और सत्य एक ही नहीं है। अक्सर तो ऐसा हो जाता है जो आदमी राहत पाने का बहुत आदी हो जाता है, वह सत्य से सदा के लिए वंचित रह जाता है। क्योंकि वह व्यर्थ की बातें मे ही राहत कर लेता है। सत्य विधा नहीं है, राहत नहीं है, अपने को समझा बुझा लेना नहीं है। सत्य अनुभव है। और अनुभव में जलना पड़ता है। सत्य अग्नि है। सत्य आग्नेय है। तुम्हें जलायेगा, निखारेगा, तभी तुम कुंदन बनोगे, तभी तुम्हारा सोना शुद्ध होगा।

मान लेने से यह नहीं हो सकता। मानने के कारण ही तो इतने लोग भटके हुए हैं। मानते तो सभी है कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई मुहम्मद को, कोई महावीर को, मानते तो सभी हैं। फिर जो मुहम्मद को मानता है वह महावीर को नहीं मान सकता। जो महावीर को मानता है वह मुहम्मद को नहीं मान सकता। फिर इनमें से कौन आप्त पुरुष है? महावीर को मानने वाला मुहम्मद के मानने वाले के मन में संदेह तो पैदा करायेगा ही।कौन आप्त पुरुष है? आखिर कुछ लोग हैं जो महावीर को मानते हैं, कुछ लोग जो मुहम्मद को मानते हैं; कुछ लोग जो क्राइस्ट को, कुछ लोग जो कृष्ण को, इनमें कौन सच है? इस तरह की श्रद्धा विकल्पों से मुक्ति नहीं ला सकती।

इसलिए जिन्होंने शांडिल्य के इस सूत्र 'एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युकत :, इससे विकल्प का नाश हो गया' —इसका ऐसा अर्थ किया है कि चूंकि सत्य पुरुषों ने कहा है, चूंकि सद्शास्त्र दोहराते हैं, इसलिए अब कोई शंका संदेह का कारण नहीं रहा, ऐसा अर्थ मैं नहीं करना चाहूंगा। इतनी आसानी से संदेह नहीं मिटते, संदेह बड़े गहरे हैं। सच तो यह है कि स्वयं परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा हो तो भी संदेह नहीं मिटते, जब तक कि परमात्मा तुम्हारे भीतर खड़ा न हो जाए। उतनी दूरी भी रहे कि वह सामने खड़ा है, उतना भी फासला रहे हाथ भर का फासला तो भी संदेह उठते ही चले जाते हैं। पता नहीं धोखा हो ; पता नहीं कोई चालबाज हो ; पता नहीं कोई माया हो; पता नहीं मैं कोई सपना देख रहा हूं ;कल्पना कर ली है ;भरोसा कैसे आए? भरोसा स्वानुभव से ही आता है। स्वानुभव ही श्रद्धा है।

तो मैं इसका क्या अर्थ करूं? मैं इसका अर्थ करना चाहूंगा कि जहां न भक्त बचता, न भगवान, ऐसी पराभक्ति में निकला समाप्त होते हैं। एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्त:। उस पराभक्ति मे जाकर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। जंहा तुम्हारे सब विकल्प समाप्त हो जाएं, समझना कि पराभक्ति आयी। जंहा कोई विकल्प न बचे।

जब तक दो हैं, तब तक विकल्प रहेंगे। जब तक मैं हूं और तू है, तब तक विकल्प रहेंगे। तक तब संघर्ष चलेगा। जब एक ही बचता है न मैं, न तू जब वह बचता है, तत् —तब विकल्प बचने की कोई जगह न रही। अब विकल्प किस मे उठेंगे न भक्त है, न भगवान है, भगवत्ता रही। उस भगवत्ता में, उस पराभक्ति में, उस परम अवस्था मे, जहां बीज गया, वृक्ष गया, फूल गया, सिर्फ सुगंध रही अदृश्य सुगंध वहीं जाकर विकल्प शांत  होते है।

 'देव भक्ति: इतर अस्मिन साहचर्प्यात्—ईश्वर मे भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की तरह और और साधनों में भी भक्ति दिखाई पड़ती है। ' और जो मैंने अर्थ किया, वह इस आने वाले सूत्र से और भी स्पष्ट हो जायेगा, और भी पुष्ट हो जायेगा। शांडिल्य कहते है, ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। क्या अर्थ होगा? हिंदू को मैं धार्मिक नहीं कहता;और मुसलमान को भी धार्मिक नहीं कहता, और जैन को भी नहीं, और बौद्ध को भी नहीं। जब तक जैन, हिंदू, मुसलमान, ईसाई मौजूद हैं तब तक कोई धार्मिक नहीं होता। क्योंकि ईसाई का अपना परमात्मा है, हिंदू का अपना परमात्मा है। अभी तो परमात्मा तक कोई हैं। अभी तो परमात्मा में भी भेद है। अभी तो भक्त और भगवान का भेद मिटने का तो सवाल ही दूर तो भगवानों में भेद है। अभी तो भगवान भी नहीं नहीं हैं, भक्त का उससे एक होना तो बहुत दूर की बात है, दूर का सपना है। जब हिंदू झुकता है तो वह भगवान के चरणों में नहीं झुकता, वह हिंदू भगवान के चरणों में झुकता है।

 कहानी है कि तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया जब वह वृंदावन गए, वह झुके नहीं। कृष्ण के सामने और तुलसीदास नहीं झुके। उन्होंने कहा कि जब तक धनुष बाण हाथ न लोगे तब तक मैं नहीं झुकूगा। यह मजा देखते हैं! यह अहंकार देखते हैं! भक्त भगवान पर भी शर्त लगा रहा है। भक्त यह कह रहा है कि मेरी शर्त के अनुकूल होओगे तो झुकूंगा। धनुष बाण हाथ लो, तो तुलसी का माथा झुके। मैं धनुष बाण वाले राम को मानता हूं, मैं यह बांसुरी वाले कृष्ण को नहीं मानता। तुलसीदास के पास भी आखें नहीं मालूम होती, नहीं तो जिसने धनुष बाण लिया है, उसी ने बांसुरी भी बजायी है। और ये तो दोनों ही हिंदू थे, यें कृष्ण और राम की दोनों धारणाएं हिंदू थीं। जरा मस्जिद में सोचो तुलसीदास की क्या गति होती! भीतर ही न घुसते। मंदिर में चले गए, यह उनकी बड़ी कृपा! कम से कम भीतर तो चले गए! इतना अनुग्रह तो किया परमात्मा पर, कि कृष्ण को एक मौका तो दिया कि अगर झुकवाना हो मुझे, धनुष बाण हाथ ले लो! लेकिन मस्जिद मे क्या करते, वहां तो हाथ ही नहीं है। बांसुरी लेने वाला तो धनुष बाण भी कभी ले सकता है, मगर मस्जिद में तो हाथ ही नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं, वहा क्या करते? वहा तो भीतर जा ही नहीं सकते थे।

अगर किसी जैन मंदिर में गए होते और महावीर खड़े थे, तो महावीर से यह कहना कि धनुष बाण हाथ लो, बड़ी बेहूदी बात हो जाती। क्योंकि वह आदमी धनुष बाण के बिलकुल विपरीत था। अहिंसा परमो धर्म:। वह धनुष बाण हाथ में लेने की ही वजह से तो राम जैनों को स्वीकार नहीं हो सकते। जैन नहीं झुक सकता राम के मंदिर में। कैसे झुके? यह धनुष बाण लिए खड़े हैं। और यह धनुष बाण तो पाप का प्रतीक है, हिंसा का प्रतीक है। और हिंसा से कहीं हिंसा मिटी है! हिंसा से तो और हिंसा जन्मती है। जैन शास्त्रों में राम की कथायें है, उनकें महापुरुष कहा है, लेकिन भगवान नहीं। बस उतने दूर तक जैन उनको मान सकते है एक महापुरुष हैं, जैसे और बहुत महापुरुष हैं, लेकिन भगवान नहीं। बुद्ध का भी नाम अगर जैन उल्लेख करते हैं तो उनको महात्मा कहते हैं, भगवान नहीं। महात्मा मान सकते हैं। लेकिन भगवान! धारणा उनकी है, अपनी। हर एक की अपनी धारणा है। और जब तक तुम्हारी धारणा है तब तक तुम भगवान से न जुड़ सकोगे धारणा ही बाधा है। तब तक हिंदू हिन्दू भगवान के सामने झुक रहा है और हिंदू भगवान कहीं है? भगवान तो बस भगवान है न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई।

 एक फकीर रात सोया। उस ने एक सपना देखा कि वह स्वर्ग पहुंच गया, और बड़ी भीड़ भड़क्का है; स्वर्ग बड़ा सजा है और बड़ा जुलूस निकल रहा है, शोभायात्रा! उस ने पूछा, वह भी खड़ा हो गया भीड़ में कि क्या बात है? किसीने कहा, आज भगवान का जन्मदिन है, किसी राहगीर ने कहा, उत्सव मनाया जा रहा है। उस ने कहा अच्छे भाग्य मेरे कि ठीक दिन आया स्वर्ग। जुलूस निकलते हैं। निकले रामचंद्र जी धनुष बाण लिए और लाखों करोड़ों लोग उनके पीछे। फिर निकले मुहम्मद अपनी तलवार लिए, और लाखों करोड़ों लोग उनके भी पीछे। और फिर निकले बुद्ध, और फिर निकले महावीर, और जरथुस्त्र, और निकलते गए, निकलते गए और आखीर मे जब सब निकल गए तो एक आदमी एक बूढ़े से मरियल से घोड़े पर सवार निकला। जनता भी जा चुकी थी, लोग भी जा चुके थे, उत्सव समाप्त होने के करीब था, आधी रात हो गयी, इस फकीर को इस आदमी को देख कर हंसी आने लगी कि यह भी सज्जन खूब हैं, यह काहे के लिए निकल रहे हैं अब! और इनके पीछे कोई भी नहीं। उस ने पूछा, आप कौन हैं और घोड़े पर किसलिए सवार हैं? और यह कैसी शोभायात्रा है, आपके पीछे कोई नहीं! उस ने कहा, मैं क्या करूं, मैं भगवान हूं। कुछ लोग हिंदुओं के साथ हो गए हैं, कुछ बौद्धों के साथ, कुछ ईसाइयों के साथ, कुछ मुसलमानों के साथ, कोई भी नहीं, मैं अकेला हूं। मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा है, तुम्हें मालूम नहीं? घबड़ाहट मे फकीर की नींद खुल गयी।

तुम भी सोचोगे तो घबड़ाहट में तुम्हारी भी नींद खुल जाएगी। शांडिल्य का सूत्र बड़ा अदभुत है, शांडिल्य कहते है,

देव भक्ति: इतर अस्मिन साहचर्थ्यात्।

ईश्वर में भक्ति के सिवाय और और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। और और देवता अर्थात् विशेषण वाले भगवान। और और देवता अर्थात् धारणाओं में, आबद्ध, सीमाओं में आबद्ध। भगवान का अर्थ होता है, जो एक है, जो समस्त में व्याप्त है। तुम हिंदू होना छोड़ो तो ही उससे संबंध जुड़े। तुम मुसलमान होना छोड़ो तो ही उससे संबंध बने। यही मेरी शिक्षा है। यही मैं सिखा रहा हूं सुबह शाम कि तुम मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उसका मंदिर मिले। और तुम धनुष वाले राम और बांसुरी वाले कृष्ण और नग्न खड़े महावीर से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उस की झलक मिले। नहीं तो झलक असंभव है।

खयाल रखना, अगर तुम्हारे भगवान की धारणा किसी दूसरे के भगवान की धारणा विपरीत पड़ती है, तो यह, यह भगवान सच्चा नहीं हो सकता। ऐसे भगवान को खोजो, जिसमें सभी धारणाएं लीन हो जाती है। जो धारणातीत हो। जो शब्दों के पार है। जो सिद्धातों की पकड़ में नहीं आता। शास्त्र जिसकी तरह इंगित करते है मगर जिसकी व्याख्या नहीं कर पाते है। महर्षि जिसकी चर्चा करते हैं, लेकिन जो चर्चा में बंध नहीं पाता। समझाते हैं और नहीं समझ पाते।

 लाओत्सु ने कहा है, उसका क्या नाम है मुझे मालूम नहीं, काम चलाने के लिए उस को मैं 'ताओ' कहूंगा। काम चलाने का! उसका क्या नाम है मुझे मालूम नहीं। वह अनाम है। काम चलाने को 'ताओ' कहूंगा। अब ताओ कहो, कि भगवान कहो;प्रभु कहो, निर्वाण कहो; धर्म कहो, कुछ भेद नहीं पड़ता, सब कामचलाऊ हैं, सब नाम कामचलाऊ हैं। जरा गौर से देखो, तुम पैदा हुए तब अनाम पैदा हुए। मगर काम तो चलाना पड़ेगा, तो तुम्हारा एक नाम रखा। नाम रखा हुआ है जरूरत थी, बिना नाम के अड़चन आती, चिट्ठी पत्री आती तो कैसे तुम तक पहुंचाते, और कोई पुकारता, और इतनी भीड़ भाड़ है, इतने लोग है!

लाओत्सु ठीक कहता है कि उसका कोई नाम नहीं है और मुझे पता नहीं है कि उसका कोई नाम हो सकता है, इसलिए काम चलाने के लिए 'ताओ' कहूंगा। काम चलाने को किसीने राम कहा है, और काम चलाने को किसीने कृष्ण कहा है; और काम चलाने को किसीने ईसा कहा है, यह सब काम चलाना है। उसका कोई नाम नहीं। तुम अनाम में उतरो तो ही भक्ति का जन्म होगा।

 ईश्वर में भक्ति के सिवाय, उस अनाम तत्व मे डूबने के सिवाय, और, और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है।कोई गणेश की भक्ति कर रहा है, कोई कालीमाता को पूज रहा है; कोई मस्जिद जाता है, कोई मंदिर जाता, कितने कितने देवी देवता हैं! जब इस देश की संख्या तैतीस करोड़ हुआ करती थी तब लोग कहते थे कि तैतीस करोड़ देवी देवता हैं; अब तो संख्या साठ करोड़ है, अब देवी देवता भी साठ करोड़ हो गए होंगे। क्योंकि हर आदमी का अपना देवी देवता है। हर आदमी की अपनी धारणा है। हर आदमी का अपना मन है। उसी से तो देवी देवता निर्मित होते हैं। इन देवी देवताओं में उलझे तो तुम अपने अहंकार के पार कभी न जा सकोगे, ये तुम्हारे अहंकार की ही छायाएं हैं। इनसे मुक्त हो जाना।

तुम क्यों जैन मंदिर जाते हो? क्योंकि बचपन से, संयोग से, संयोग की बात थी तुम ऐसे घर में पैदा हुए जंहा लोग जैन मंदिर जाते थे, बस इतनी सी बात है। इसमें कुछ और ज्यादा सार नहीं है। अगर तुम पैदा हुए थे तभी उठाकर तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता, तो तुम कभी भूलकर जैन मंदिर न गये होते। खून की बात हो गयी। और अगर तुम्हें रूस भेज दिया गया होता पैदा होते ही , तो तुम मस्जिद भी नहीं जाते और जैनमंदिर भी न जाते, तुम मानते कि ईश्वर है ही नहीं। तुम्हें जो सिखाया जाता है वही तुम मानते हो। जो तुम्हें सिखाया गया है उससे मुक्त होना पड़ेगा, तो तुम वह जान सकोगे जो है। जिसे कम्यूनिज्म सिखाया गया है जन्म से, दूध में घोंट कर पिलाया गया है, उसे कम्यूनिज्म से मुक्त होना पड़ेगा। और जिसे हिंदूइज्म सिखाया गया है, उसे हिंदूइज्म से मुक्त होना पड़ेगा। 'इज्म' से मुक्त होना ही पड़ेगा, वाद से मुक्त होना ही पड़ेगा। वादी कभी सत्य तक नहीं पहुंचता है। वहा तो निर्विवाद चित्त चाहिए। 

शांडिल्य कहते है, इस प्रकार की भक्ति पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की तरह और और स्थानों में भी भक्ति देख पड़ती है।

छोटे छोटे बच्चे लड़ पड़ते है कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर हैं कि मेरी मां तुम्हारी मां से ज्यादा सुंदर है, कि मेरी अध्यापिका तुम्हारी अध्यापिका से ज्यादा बुद्धिमान है। यही झगड़ा जारी रहता है जिंदगी भर, कि मेरा मंदिर तुम्हारे मंदिर से ज्यादा पवित्र, कि मेरा गुरु तुम्हारे गुरु से ज्यादा सच्चा, कि मेरा शास्त्र तुम्हारे शास्त्र से ज्यादा प्रामाणिक। ये बचकानी बाते है। ये चित्त के विकास के लक्षण नहीं हैं, अप्रौढ़ता के लक्षण हैं। और इन सबके पीछे अहंकार है, जब कोई बच्चा कहता है कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर, तो वह यह क्या कह रहा है, कि मैं ताकतवर पिता का बेटा हूं;मैं ताकतवर! वह पिता के बहाने अपनी घोषणा कर रहा है। जब तुम कहते हो मेरा धर्म सबसे प्राचीन धर्म दुनिया का, तो तुम यह कह रहे हो कि मेरा धर्म है, कोई साधारण बात है! मेरा है, प्राचीन होना ही चाहिए! मेरी किताब दुनिया की सबसे अच्छी किताब होनी ही चाहिए। फिर वह किताब कोई भी हो। तुम्हारी किताब है तो सबसे अच्छी होनी ही चाहिए। ये अहंकार की छिपी हुई घोषणाएं हैं। यह भक्ति नहीं है। यह कई रूपों में प्रकट होती है, माता की भक्ति, पिता की भक्ति, गुरु की भक्ति, देश भक्ति : मेरा देश!

सभी देशों में वही भ्रांति है। भारत में रहने वाले लोग सोचते हैं कि यह पुण्य भूमि है, और सारी भूमियां पाप भूमियां है, और भूमियां जैसे अलग अलग है! जैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान कहीं कटे हैं भूमि से! और मजा यह है कि पाकिस्तान भी उन्नीस सौ सैतालीस के पहले पुण्य भूमि हुआ करता था, अब नहीं है! उन्नीस सौ सैतालीस के पहले वह भी भारत था, तो पुण्य भूमि था। जब से नक्शों पर एक लकीर खिंच गयी, नक्शों पर खिंची है, जमीन पर नहीं; जमी पर कौन लकीर खींच सकेगा, जमीन तो अविभाज्य है नक्पशों पर एक लकीर खिंच गयी, तब से पाकिस्तान पुण्य भूमि नहीं है। तब से वहां पापी रहने लगे। और भी इसी भ्रांति में है इसीलिए तो पाकिस्तान कहते हैं उस को पाकिस्तान, मतलब पवित्र भूमि, पाक! वे भी यही कह रहे हैं कि तुम हिंदुस्तान में रहते हो! हम पाकिस्तान मे रहते हैं! हिंदुस्तान में रखा क्या है? ये पाक भूमि है, यह पवित्र भूमि है। एक सी मूढ्ताएं हैं। चीनियों से पूछो तो वह कहते हैं, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और हिंदुओं से पूछो तो वह कहते है, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और मिश्रियो से पूछो तो वह कहते हैं, तुम हो क्या हमारे सामने, हम बहुत प्राचीन हैं। सब अपनी किताबों को प्राचीन सिद्ध करते हैं, सब अपने झंडों को ऊंचा करते है, झंडा ऊंचा रहे हमारा। जो भी तुम्हें कभी आदमी मिल जाए झंडा लिए हुए, समझ लेना पागल है। और जो कहे झंडा ऊंचा रहे हमारा, समझना कि इस आदमी के पास बुद्धि नाम की चीज ही नहीं है। झंडा ऊंचा रहे हमारा! इससे ज्यादा मूढ़ता की और क्या बात होगी? मगर इस पर झगड़े हो जाते हैं, युद्ध हो जाते हैं। लोग मारे जाते हैं, कट जाते है, मातृभूमि पर हमला हो गया। मेरी मातृभूमि!

शांडिल्य कहते है, इस तरह की भ्रांतियां और और जगह भी देखी जाती हैं, यह कोई भक्ति नहीं है। देश भक्ति भक्ति नहीं है। और नहीं देवता की भक्ति भक्ति है। फिर भक्ति क्या है? शांडिल्य कहते है, भक्ति तो सिर्फ एक है विराट के साथ तुम लीन हो जाओ, जैसे बूंद सागर में गिर जाती है। अनाम में अनाम हो जाओ! उसके साथ सेतु जोड़ लो। दावेदार मत बनो तुम, दावेदार बन कैसे सकते हो? जब तक दावा है तब तक दूरी है, जब तक दूरी है तब तक भक्ति कहा! 

 'देव भक्ति: इतर अस्मिन साहचर्थ्यात्। 

'ईश्वर में भक्ति के सिवाय ईश्वर, अर्थात् न हिंदू का, न मुसलमान का; न जैन का, न बौद्ध का;न हिंदुस्तान का, न चीन का;ईश्वर यानी वह अनाम परम तत्व जिससे हम सब आए और जिसमें हम सब एक दिन लीन हो जाएंगे; जो हमारा स्रोत है और हमारा गंतव्य है; जो हमारा बीज है और जो हमारा फल है;जिसमें हम इस क्षण भी जी रहे हैं; जो हममें अभी भी सांस फूंक रहा है; जो हमारा प्राणो का प्राण है; उस परात्पर में लीन हो जाने का नाम भक्ति है।

पराभक्ति है परम की, परात्पर की घोषणा। मेरा तेरा वहा नहीं। मैं ही वहा नहीं है तो तेरा तो ही नहीं सकता। मेरा देवता, मेरा भगवान, ऐसी वृत्ति क्षुद्र  है। जो भगवान सबका नहीं, वह भगवान ही नहीं। जो भगवान किसी का है, उसी मात्रा में कम भगवान हो गया। शब्दो से ऊपर उठो। क्षुद्र  सीमाओं को तोड़ो। इन सीमाओं के कारण ही तुम कष्ट में हो विस्तार से, विराट से आनंद उपजेगा। तुम क्षुद्र से अपने को बांध रहे हो। छोटे छोटे बिलों में घुस गए हो वहा तड़प रहे हो, और निकलते भी नहीं, और बिल को छोटे से छोटे करते चले जाते हो; आखिर मे तुम्हीं बचते हो, सिर्फ तुम्हारा अहंकार ही बचता है अखिर मे। अगर छोटे होते चले जाओगे तो अहंकार ही बचेगा अखीर में, अगर बड़े होते चले जाओगे तो सब बचेगा। और ये दो ही संभावनाएं है, या तो मैं, या सर्व। सर्व के लिए मैं को समर्पित कर दो। और मैं है भी व्यर्थ। मैं है भी झूठा। लेकिन झूठ से हमारे मोह ज्यादा है। हम सत्य को समर्पित करने को तैयार हैं, झूठ को छोड़ने को नहीं। इस झूठ से हमारे बड़े लंबे संबंध हैं, बड़े पुराने संबंध है। इसी झूठ को हम नए नए ढंग से स्थापित करते चले जाते है। नयी नयी तरकीबें खोज लेते हैं, नए नए निमित्त खोज लेते हैं, मगर झूठ पुराना है, वहीं का वही है।

तुम देखो, अपने भीतर जांच करना, तुम जिन जिन बातों की घोषणा करते हो यह श्रेष्ठ, वहा अपने मैं को छिपा हुआ पाओगे। वेद श्रेष्ठ, जब कोई कहे, तो तुम जाने ले सकती हो कि यह आदमी हिंदू है। बाइबिल श्रेष्ठ, तो तुम जान सकते हो यह आदमी ईसाई है। क्योंकि आदमी अपनी ही श्रेष्ठता की घोषणाएं करते है, बहाने कुछ भी हों। अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो वेद की श्रेष्ठता की घोषणा कर रहा है, वेद शायद पढ़ा ही न हो।  

एक बार एक वृद्ध सज्जन मुझे मिलने आए, अमृतसर के निवासी थे। कहने लगे, वेद तो परम है। आर्यसमाजी थे। मैंने उनसे पूछा, वेद आपने कभी पढ़ा? थोड़ा तिलमिलाये। कहा कि नहीं, पढ़ा तो नहीं। तो मैंने कहा, घोषणा कैसे कर रहे हैं? सामने ही आलमारी में वेद की किताब रखी थी, मैं वह निकाल कर लाया, मैंने उनसे कहा कोई भी पन्ना खोलिये और एक पन्ना पढ़ डालिए जोर से। वह कहने लगे, क्यों? मैंने कहा, उससे सिद्ध हो जाएगा कि श्रेष्ठता क्या है। जो पन्ना खुल जाए यह भी नहीं कहता कि कोई खास पन्ना। उन्होंने किताब खोली और पन्ना पढ़ा बीच में ही रुक गए। क्योंकि वेद में निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा है। हीरे हैं, मगर मुश्किल से कहीं कहीं। क्योंकि वेद सिर्फ हीरो का संग्रह नहीं है, उस दिन की सारी बातें का संग्रह है। अखबार में भी कभी कभी हीरा मिल जाता है। वेद उस दिन का अखबार है। उस दिन का इतिहास भी उस में है, उस दिन की कविता भी उस में है, उस दिन का पुराण भी उस में है, उस दिन का धर्म, दर्शन भी उस मे है, उस दिन के, उस दिन जो भी था उस सबकी झलक उस में है। उस में हीरे ही हीरे नहीं हो सकते। उस दिन की राजनीति, कूटनीति, धोखाधड़ी, सब उस में है। वह उस दिन का दर्पण है। यही तो उस की खूबी है। एक पन्ना पढ़ा, बीच में ही रुक गए, कहने लगे कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था कि इस तरह की बातें...। तुमने भी नहीं सोची होंगी कि वेद मे कोई ब्राह्मण प्रार्थना कर रहा है परमात्मा से कि मेरी गाय के थन बड़े हो जाएं! तुम कहोगे, यह कोई बात हुई? और यहीं तक बात नहीं रुकती, मेरे दुश्मन की गाय के थन छोटे हो जाएं। मगर मैं कहता हूं, यह वेद सिर्फ प्रतिफल है मनुष्य का। ऐसा आदमी है। वेद ईमानदार हैं। मैं तो प्रशंसा करता हूं इस बता की कि वेद ईमानदार हैं। उस ने बताया कि आखिर ऋषि भी तुम्हारे तुम जैसे ही हैं। उनके भी पैर मिट्टी के हैं, और उनकी खोपड़ी मे भी कुछ तुमसे ऊंची बातें नहीं उठतीं। उनकी प्रार्थनाएं भी क्षुद्र आकांक्षाओं से भरी हैं, कि मेरे खेत में वर्षा ज्यादा हो जाए, और पड़ोसी के खेत में बिलकुल न हो। यही तो तुम भी चाहते हो कि तुम्हारे खेत में वर्षा हो जाए और पड़ोसी के खेत में वर्षा न हो। यही तो आदमी की सामान्य आकांक्षा  है।

एक आदमी ने बहुत भक्ति की, बहुत भक्ति की और परमात्मा प्रकट हुआ;उस ने कहा, मांग ले तू क्या मांगता है! उस ने कहा, जो मैं मांगूं? वह मुझे मिल जाए। परमात्मा ने कहा, हां, लेकिन एक शर्त मेरी भी, तुझसे दुगना तुम्हारे पड़ोसियों को मिल जाएगा। तू जो मांग वह तुझे मिलेगा, मगर तत्क्षण तुझसे दुगना तेरे पड़ोसियों को मिल जाएगा। उस आदमी ने छाती पीट ली, उस ने कहा मार डाला!

भगवान तो तिरोहित हो गया। अब वह आदमी बड़ी मुश्किल में। मांगना चाहे कि लाख रुपए चाहिए, मगर लाख मांगे तो पड़ोसियों को दो लाख मिल जायेंगे! आखिर उस ने किसी वकील की तलाश की, वकील तो मिल ही जाते हैं। उस ने खोजा किसी को कि कोई तरकीब निकालो, इस शर्त में से कोई रास्ता निकालो। वकील ने कहा, क्या रखा है! तू मांग कि तेरे घर के समाने एक कुआ खुद जो। उस ने कहा—इससे क्या होगा? उस ने कहा तू पहले कुआ तो खुदने दे! उस ने मांगा कि मेरे घर के सामने एक कुआ खुद जाए। कुआ खुद गया और पड़ोसियों के सामने दो दो कुएं। और वकील ने कहा, अब तू मांग कि मेरी एक आंख फूट जाए। पड़ोसियों की दो दो आखें फूट गयीं। और सामने दो दो कुएं!  वह आदमी बड़ा प्रसन्न था। घूमता था बस्ती में अकेले ही बचा, अंधों मे कनवा राजा और तो तडफ रहे है, कुओं में गिरे है, वह देख रहा है मजा, कि यह रहा मजा!!

भगवान ने भी न सोचा होगा कि वकील रास्ता निकाल लेंगे। लेकिन उस आदमी ने लाख रुपए नहीं मांगे सो नहीं मांगे। उस ने महल मागना चाहा था वह नहीं मांगा। मागने का मजा ही चला गया। मागने का मजा ही इसमे है कि पड़ोसी से ज्यादा तुम्हारे पास हो। तो वह जो वेद की ऋचा है वह मनुष्य की सहज, स्वाभाविक, पाशविक क्षुद्र आकांक्षा की प्रतीक है। मैं तो कहता हूं यह सुंदर है। मगर वह वेद के पोषक एकदम बेचैन हो गए। उन्होंने कहा, मैंने तो नहीं सोचा था इस तरह की छोटी बातें वेद में होंगी। इस तरह की छोटी बातें बाइबिल में भी हैं। इस तरह की छोटी बातें कुरान मे भी है। मगर जो जिस शास्त्र की घोषणा करता है, वह हर चीज को ठीक सिद्ध करना चाहता है। शायद इसी डर से वह पढ़ता भी नहीं कि कहीं कुछ ऐसा मिल जाए कि जिससे मेरी श्रेष्ठता की घोषणा में अड़चन पड़े।पढ़ने पढाने की झंझट में भी नहीं पड़ता। लोग लड़ने को तैयार होते है, पढ्ने को कौन तैयार है! तुम अपने भीतर जांचना, निरीक्षण करना, जब भी तुम किसी बात की घोषणा करते हो कि यह ठीक, यह श्रेष्ठ, तो क्या परोक्षरूपेण तुम अपने अहंकार की घोषणा नहीं कर रहे हो? और जंहा अहंकार की घोषणा है, वहीं पाप है। और जागकर धीरे धीरे अपने अहंकार की सारी घोषणाओं का विलीन कर दो। जिस दिन तुम्हारे अहंकार की सारी घोषणाएं जा चुकी होंगी, उस क्षण तुम पाओगे भगवान से संबंध होना शुरू हुआ। फिर न वेद बाधा है, न बाइबिल, न कुरान;फिर न कृष्ण, न राम, न अल्लाह। फिर दिखायी पड़ेगा वह, लाओत्सु कहता है उसका क्या नाम है मुझे मालूम नहीं, काम चलाने को 'ताओ' कहता हूं। फिर काम चलाने को तुम 'राम' कह लेना, कोई हर्जा नहीं। मगर काम चलाने को, याद रहे, भूल मत जाना। यह काम चलाने की बात है।

      'योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।

और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है। ' और शांडिल्य कहते हैं कि जैसे ज्ञान समझ हो तो सहयोगी हो सकता है भक्ति में, समझ हो तो, ज्ञान अपने आप में सहयोगी नहीं होता। समझ लेना ठीक से, समझ हो तो जहर भी अमृत हो सकता है। और ज्ञान जहर है! जरा भी नासमझी की औषधि नहीं रह जाएगी;उसी से व्याधि पैदा हो जाएगी। ज्ञान समझपूर्वक हो। समझ का मतलब ही यह है, यह बात याद रहे कि जो मैंने नहीं जाना है वह सिर्फ जानकारी है। यह बात याद रहे कि औरों ने जाना है, मुझे खोजना है अभी।

ज्ञान से प्यास जगे सत्य की, तो तो समझ है। और ज्ञान से तृप्ति होने लगे कि पा लिया, जान लिया, तो मृत्यु। तो तुम मारे गए। तो तुमने आत्महत्या कर ली। ज्ञान की फांसी लगा ली। ज्ञान में बोध होना चाहिए। यह याद सदा ही रहे कि यह मेरा जाना हुआ नहीं है। बुद्ध ने कहा है। बुद्ध ने कहा तो ठीक ही कहा होगा। शांडिल्य ने कहा है। शांडिल्य ने कहा तो ठीक ही कहा होगा। लेकिन मैं नहीं जानता हूं। और जब तक मैं नहीं जानता हूं मैं कैसे गवाह बनूं? मुझे खोजना है अभी। और शांडिल्य ने कहा है, बुद्ध ने कहा है, नारद ने कहा है, कृष्ण ने कहा है, इतने लोगों ने कहा है तो खोजना होगा। फिर बैठूं न, जीवन गवाऊं न, मैं भी इस खोज पर निकलूं। और इन सबने कहा परम आनंद है उस उपलब्धि से, तो मेरा जीवन ऐसे ही रेगिस्तान न रह जाए, मरुद्यान बनाऊं, एक बगिया लगाऊं, फूल खिलाऊं। मगर मेरे फूल खिलेंगे तभी गवाही दे सकूंगा, तभी कह सकूंगा बुद्धों से कि हां, ठीक कहा है। जब तक मेरे फूल न खिलेंगे तब तक तुम्हारी बात सुन कर अपनी प्यास को जगाऊंगा, अपनी खोज को त्वरा दूंगा, तीव्रता लाऊंगा, और भी बल लगाऊंगा, अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर दूंगा कि जब इतने महापुरुषों ने कहा है तो पाने योग्य कुछ होगा, खोजु लेकिन जब तक स्वयं न पा लूं तब तक यह न कहूंगा कि मैंने जान लिया है। क्योंकि वह तो झूठ होगा। वह तो ज्ञान के साथ अन्याय होगा। ज्ञान अगर बोधपूर्वक हो तो भक्ति में सहयोगी बन जाता है।

 शांडिल्य कहते है ऐसे ही योग भी सहयोगी बन जाता है, अगर समझपूर्वक हो। योग बड़ी महिमापूर्ण प्रक्रिया है, साधन है। योग साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान का उपयोग कर लेना प्यास जगाने के लिए। और योग का क्या उपयोग करोगे? योग का उपयोग करना अपने को शुद्ध करने के लिए। परमात्मा के आने के पूर्व तैयारी करनी होगी न! घर में मेहमान आता है तो स्वच्छता करते हो न! झाडू बुहारी लगाते हो न! कूड़ा करकट साफ करते हो न! योग वही है। उस परम प्रिय को पुकारा है तो घर की तैयारी कर लेनी जरूरी है। उसके योग्य आसन बिछाओगे न! उसके योग्य स्वच्छता चाहिए, पुनीतता चाहिए, पवित्रता चाहिए। धूपदीप जलाओगे न! वही योग है। योग का इतना ही अर्थ है, जो कल्मष है, उसे धो डालूं। जो दीवालें गंदी हो गयी हैं मेरे जीवन के अनाचरण से, मेरे जीवन के अज्ञान से, मेरे जीवन की मूर्च्छा से, सब धब्बे साफ कर डालूं। स्वच्छ कर लूं घर, ताकि उसे सुविधा न हो। जब तुम्हारे पात्र में अमृत भरने को हो, तो जो जहर के दाग लग गए हैं उन्हें छुडाओगे न;बस वही है योग।

समझ हो तो योग की प्राणायाम प्रक्रिया अनूठी है। शुद्धि का अपूर्व मार्ग है। तुम्हारे रोएं रोएं को शुद्ध कर जाएगी, पुनीत कर जाएगी, पावन कर जाएगी। तुम्हें तैयार कर जाएगी, तुम्हें मंदिर बना देगी, जिसमें कि विराजमान हो सके परमात्मा। तुम्हें सिंहासन बना देगी, जिस पर वह हृदयों का सम्राट आए और बैठे। मगर अक्सर ऐसा होता है कि समझ है कहा। ज्ञान इकट्ठा करे आदमी पंडित हो जाता है, प्रज्ञावान नहीं होता। और योग की प्रक्रियाओं में पड़कर आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है। बस वह फिर व्यर्थ की बातें ही करता रहता है। आसन लगाये रहता है, आसन जमाये जाता है, उल्टे सीधे व्यायाम करता रहता है, सिर के बल खड़ा होता रहता है;धीरे धीरे यही उस की जीवनचर्या हो जाती है, वह भूल ही जाता है कि मेहमान को भी बुलाना है; वह मंदिर ही बनाने में इतना मशगूल हो जाता है कि मेहमान द्वार पर भी आकर खड़ा हो जाए तो भी वह आंख उठा कर नहीं देखता, वह मंदिर ही बनाने में लगा रहता है। वह सफाई ही करता रहता है। सफाई का फिर कोई अंत नहीं है। फिर तुम करते ही चले जाओ। यह देह पूर्ण शुद्ध तो हो ही नहीं सकती।

यह देह अशुद्धि से बनी है। शुद्ध हो सकती हो, पूर्ण शुद्ध कभी नहीं हो सकती। स्वस्थ हो सकती है, पूर्ण स्वस्थ कभी नहीं हो सकती। पूर्णता का देह से संबंध नहीं जुड़ सकता। देह तो अपूर्ण रहेगी, सीमा में बंधी रहेगी। इसमें तो व्याधियां आंधियां रहेंगी। समाधि इसमें फलानी है। इसलिए जितनी व्याधियां कम हों, उतना अच्छा। लेकिन तुम इसी फिक्र में मत पड़ जाना कि जब व्याधियां समाप्त हो जाएंगी तब देखेंगे समाधि। तो फिर तुम कभी न देख पाओगे समाधि। एक व्याधि हटेगी, दूसरी पैदा होगी, दूसरी हटेगी, तीसरी पैदा होगी। इससे तो गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ, वह गोरखनाथ से पैदा हुआ। गोरखनाथ महायोगी हुए। उन्होंने योग की प्रक्रियाओं का जैसा प्रयोग किया, किसीने कभी नहीं किया था। पतंजलि भी देखते तो सिर ठोंक लेते! क्योंकि गोरखनाथ ने बड़ी प्रक्रियाएं, कृच्छ साधनाएं खोजीं। सुबह से लेकर सांझ तक लगे ही रहते थे और दूसरों को भी लगाये रखते थे। उसी से गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ। भूल ही गए असली बात, इसी में लग गए; गौण में उलझ गए।

अगर समझ हो, तो गौण में मत उलझना। और खयाल रखना, गोरखधंधा स्वयं उलझ गए ऐसा नहीं है, गोरखनाथ के मानने वाले उलझ गए। गोरखनाथ ने तो जो प्रक्रियाएं दी थीं—यद्यपि बहुत प्रक्रियाएं दी थी, वह अलग अलग साधकों के लिए दी थीं। किसी को एक, प्रक्रिया दी थी, किसी को दूसरी दी थी, किसी को तीसरी दी थी। धीरे धीरे यह हुआ कि साधकों को तो लोभ पैदा होता है, उन्होंने सोचा कि फलां फलां कर रहा है, फला फलां कर रहा है, वह भी सब कर डालें।

यहां शिविर में तुम पांच ध्यान करते हो, उनमें से एक चुन लेना है। वे सिर्फ चुनाव के लिए हैं। एक सज्जन मेरे पास आए कुछ महीने पहले, उनकी हालत बहुत खराब हुई जा रही है, कहने लगे कि ध्यान से बड़ी हालत खराब हुई जा रही है। मैंने पूछा कि कौन सा ध्यान करते हो? उन्होने कहा, कौन सा क्या, दस ध्यान करता हूं। जितना आपने बताए हैं, सब करता हूं। सुबह चार बजे से लेकर रात बारह बजे तो, लगा ही रहता हूं। हालत तो खराब हो ही जाएगी! अब मेरा कसूर नहीं है। मैंने तुमसे कहा कब कि तुम सब करना? और सब करोगे तो और कब बचेगा कुछ करने को? भगवान को आने की थोड़ी बहुत जगह भी दोगे, वह द्वार पर ही खड़ा रहेगा? कभी तुम कुंडलिनी कर रहे, कभी तुम सक्रिय कर रहे हो कभी तुम नादब्रह्म कर रहे हो और कभी तुम सूफी कर रहे हो और कभी तुम कुछ कर रहे, वह बाहर ही खड़ा रहेगा कि भई, तुम चुको, तुम्हारी झंझट से मुक्त होओ तो मैं भी आऊं! दो बात तुमसे कर लूं! मगर तुम्हें फुरसत कहा है? थक जाओगे, तब सो जाओगे। और सुबह फिर उठोगे, फिर अपने गोरखधंधे में लग जाओगे, वह गोरखधंधा हो गया!

  गोरखनाथ ने गोरखधंधा नहीं दिया था, गोरखनाथ ने तो अलग अलग साधकों को अलग अलग प्रक्रियाएं दी थीं। मगर लोभ पकड़ता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रक्रिया से न मिले तो उससे मिल जाए, उससे न मिले तो उससे मिल जाए, सभी कर डालो। आदमी बड़ा लोभी है। उस लोभ से गोरखधंधा पैदा हुआ। अज्ञानी जो भी करेगा उस में से कुछ न कुछ उपद्रव निकाल लेता है। तुम इससे सावधान रहना।

      शांडिल्य कहते है—

      'योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।

 और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयास की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है। ' जब कोई यज्ञ करता है तो पहले यज्ञ की तैयारी करनी होती है। उस तैयारी का नाम है, प्रयास—पूर्व तैयारी, भूमिका। हवनकुंड बनाना होगा, भूमि शुद्ध करनी होगी, बंदनवार बांधने होंगे—वह सब जो तैयारी है, उसका नाम प्रयास। बिना तैयारी के यज्ञ नहीं हो सकेगा। ऐसे ही शांडिल्य कहते है — भक्ति तो यज्ञ है, योग प्रयास है—पूर्व तैयारी, भूमिका। मगर भूमिका ही है। भूमिका में ज्यादा मत उलझ जाना। अगर तुमने जार्ज बर्नार्ड शॉ की कोई किताब देखी तो तुम चकित होओगे, किताब से बड़ी भूमिका है। किताब है सौ पन्ने की, भूमिका दो सौ पन्ने की। अब भूमिका का मतलब ही यह होता है कि उस में सार इशारा होना चाहिए, किताब के संबंध में कुछ संकेत होना चाहिए, ताकि जो आदमी किताब पढ़ने को उत्सुक है, वह दो पन्ने भूमिका की पढ़कर यह सोच ले कि यह मेरे काम की है या नहीं। अब दो सौ पन्ने भूमिका के पढ़ने हैं। इससे तो सौ पन्ने की किताब ही सीधी पढ़ लेना ज्यादा सस्ता है। लेकिन बनॉड शॉ को वैसी आदत थी—बहुत लोगों को वैसी आदत है। उनकी भूमिका लंबी होती है। अक्सर वे भूल ही जाते हैं कि भूमिका में ही जीवन व्यतीत हो जाता है।

ऐसे बहुत लोग हैं जो सुख से जीना चाहते है; सुख से जीने के लिए धन इकट्ठा करने में लगते हैं, फिर धन ही इकट्ठा करते करते मर जाते है, सुख से जीने का मौका ही नहीं आता; भूमिका ही पूरी नहीं होती।

सिकंदर सारी दुनिया को जीत कर सुख से जीना चाहता था। मगर सारी दुनिया को जीत कर। फकीर डायोजनीज ने उससे कहा था कि मेरी समझ में यह तर्क नहीं आता। सुख से ही जीना है न, तो अभी क्यों नहीं सुख से जीते? सिकंदर ने कहा, अभी कैसे जी सकता हूं, पहले दुनिया जीतनी है! डायोजनीज ने कहा, अभी क्यों नहीं जी सकते, मैं जी रहा हूं;और मैंने पूरी दुनिया नहीं जीती। पूरी दुनिया की तो बात और, जो मेरे पास था वह भी मैंने छोड़ दिया, क्योंकि उससे झंझट होती थी। देखो मैं मजे में लेटा हूं, वह लेटा ही था नग्न; नदी के तट पर धूप ले रहा था सुबह की, उस ने सिकंदर से कहा, तुम क्यो परेशान होते हो? इसे टीन के पोगरे में मैं रहता हूं;इसमें जगह काफी है, इसमें एक कुत्ता भी रहता है, मैं भी रहता हूं तुम भी रह सकते हो।

वह जो म्युनिसिपैलिटी का कचरा इकट्ठा करने के लिए टीन का बड़ा डब्बा रखा होता है, वही डब्बा उस को मिल गया था एक पुराना डब्बा;म्युनिसिपैलिटी ने फेंक दिया होगा, उस ने उसीको साफ कर लिया, वह उसीमें रहने लगा था;नदी के किनारे उस को रख लिया था, जब छाया की जरूरत होती अंदर चला गया, जब धूप की जरूरत होती बाहर आ गया। एक भिक्षापात्र उसके पास था केवल। वह भी उस ने एक दिन फेंक दिया। क्योंकि एक दिन पानी पीने जा रहा था नदी की तरफ अपना भिक्षापात्र लिए, उसी के साथ साथ एक कुत्ता भागता हुआ आया, इसके पहले कि वह पात्र में पानी भरे, कुत्ते ने झटके से जल्दी से अपनी जीभ से सीधा सीधा पानी पी लिया। उस ने बड़ी हार मालूम हुई, उस ने कहा, कुत्ता हमसे आगे निकल गया! हम नाहक यह भिक्षापात्र लिए फिरते हैं! इसके पास कोई पात्र वगैरह भी नहीं है, यह हमसे महात्यागी है, उस ने वहीं नदी में पात्र बहा दिया। उस ने कहा जब कुत्ता चला लेता है काम, तो हम भी चला लेंगे। वह उस की आखिरी संपदा थी। उस ने सिकंदर को कहा कि उस दिन से मेरे पास कुछ है ही नहीं, मगर मैं बड़े मजे में हूं। और निश्चित वह मजे में था! उतना मस्त आदमी लोगों ने देखा नहीं। वह यूनान का महावीर है। नग्न था और मस्त था।

 एक बार कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया एक जंगल मे। मस्ती देख कर और नग्न देख कर उन्होने सोचा कि अच्छा है, बजार में बेच देंगे, उन दिनों गुलाम बिकते थे। जब उन्होंने उसे पकड़ा तो उस ने जल्दी से अपने हाथ उनके सामने कर दिए, वे तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि उन्होंने सोचा था कि यह झंझट झगड़ा करेगा तो चार को पस्त कर देगा। मगर उस ने जल्दी से हाथ कर दिए और उस ने जल्दी से जंजीरे डलवा लीं, उस ने कहा तुम नाहक जंजीर डाल रहे हो, तुम कहा जाना चाहते हो, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं;जंजीर काहे को तुम झंझट करते हो! वह उनके साथ हो लिया। रास्ते मैं जो भी मिलता उस को लोग नमस्कार करते, वे चार तो उसके गुलाम जैसे मालूम पड़ते। किसीने पूछा कि ये लोग कौन हैं, उस ने कहा कि ये मेरे गुलाम है। उन्होंने कहा तुम बात क्या कर रहे हो? उस ने कहा तुम देख लो, तुम कोई से भी पूछ लो, मालिक कौन मालूम पड़ रहा है? तुम चोर जैसे मालूम पड़ते हो, मैं मालिक हूं। फिर उसे वे बजार ले गए। वहां बजार में जब उसे टिकटी पर खड़ा किया गया, जिस पर खड़े होकर गुलाम बिकते थे। उस ने जोर से आवाज लगायी कि एक मालिक आज बिकने आया है, किसी गुलाम को खरीदना हो तो खरीद ले। और था वह आदमी मालिक। उस की ज्ञान वैसी थी! जिसकी कोई इच्छा न रही हो वह मालिक हो ही जाता है। उस की गरिमा!

 लेकिन सिकंदर ने कहा कि ठीक तुम कहते हो कि मैं भी आराम कर सकता हूं;मगर मुश्किल है। पहले तो मैं दुनिया जीतूंगा। डायोजनीज ने कहा, तो तुम एक बात मेरी याद रखना, दुनिया तो शायद जीतोगे कि नहीं, मगर आराम कभी न कर पाओगे। दुनिया जीतने के पहले मर जाओगे। और यही हुआ। सिकंदर जब हिंदुस्तान से वापिस लौटता था तो यूनान वापिस नहीं पहुंच पाया, रास्ते में मर गया। जिस दिन मरा, उस दिन उसे डायोजनीज की याद आयी। उस दिन उस की आंख से आंसू गिरे। और किसीने पूछा कि तुम क्यों रोते हो? उस ने कहा, मैं उस फकीर के लिए रोता हूं;उस ने ठीक कहा था, वह आदमी सच कहता था। भूमिका में ही जिंदगी निकल जाती है।

तो योग को कहीं इतना मत पकड़ लेना कि नेति, धोती और आसन, व्यायाम और प्राणायाम और करते करते ही मर जाओ। योग भूमिका है, समाधि लक्ष्य है। न मालूम कितने लोग भूमिका में ही मर जाते हैं। समाधि पर ध्यान रखना है। शांडिल्य ठीक कहते हैं कि योग का उपयोग हो सकता है सहयोग की तरह।

'गौण्यातु समाधिसिद्ध।

गौणी भक्ति के द्वारा समाधि की सिद्धि होती है। ' दो तरह की भक्तिया शांडिल्य ने कही है —गौणी भक्ति और पराभक्ति। गौणी भक्ति का अर्थ होता है, अभी भक्त मौजूद है, भगवान मौजूद है, दोनों आमने सामने खड़े हैं;रस बह रहा है, अपूर्व आनंद है, मस्ती बंधी है, लौ से मिल गयी है, मगर अभी द्वैत कायम है;गौण भक्ति। पराभक्ति का अर्थ है, भगवान भक्त मे खो गया, भक्त भगवान में खो गया, अब दो नहीं।

पहली जो गौणी भक्ति है, उससे जो समाधि मिलती है, पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है, सबीज समाधि। और जो पराभक्ति है, उसके लिए पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है, निर्बीज समाधि। सबीज समाधि में बीज अभी कायम है;वृक्ष खो गया, लेकिन अभी कायम है। मौका बीज से फिर वृक्ष पैदा हो सकता है। गौणी भक्ति से जो समाधि मिलती है, वह खो सकती है। तुम भगवान के सामने खड़े हो, लेकिन अभी दूरी है, चाहे इंच भर की दूरी हो मगर दूरी है। और जो इंच भर की दूरी है, वह मील की दूरी हो सकती है, योजनों की दूरी हो सकती है, फिर दूरी बढ़ सकती है, फिर भेद हो सकता है, फिर भटकाव हो सकता है। अभी बीज कायम है, द्वैत कायम है। तो या तो उसे सबीज समाधि कहें, अभी गिरना हो सकता है, या सविकल्प समाधि कहें,  अभी विचार कायम है, अनुभव हो रहा है कि आनंद आ रहा है, मैं हूं और मुझे आनंद आ रहा है।

 जब तक तुम्हें ऐसा लगे कि आनंद आ रहा है, तब तक समझना, गौणी भक्ति, छोटी समाधि; अभी अनुभव करने वाला शेष है। फिर अंतिम चरण में होती है, पराभक्ति;बीज भी मिट गया, बीज दग्ध हो गया, अब कभी लौटना न हो सकेगा, अब कोई वापसी नहीं होगी, संसार समाप्त हुआ। अब अनुभव भी नहीं हो सकता कि मैं आनंद में हूं, मैं ही नहीं हूं;आनंद ही आनंद है। इसलिए गौणी भक्ति से तो अनुभव होता है, पराभक्ति में अनुभव नहीं होता।

कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं कि वह जो परमदशा है, उस को अनुभव नहीं कहा जा सकता। उसे ज्ञान भी नही कहा जा सकता। उसे दर्शन भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दर्शन, ज्ञान अनुभव, सभी मे दो की अपेक्षा है, जानने वाला अलग होता है जाना जाने वाले से; ज्ञेय अलग है ज्ञाता से; द्रष्टा अलग होता है दृश्य से। समाधी  में परमदशा में द्रष्टा और दृश्य एक है। वह पराभक्ति, वह निर्बीज समाधि, निर्विकल्प समाधि। वही लक्ष्य है।

गौणी भक्ति से समाधि की सिद्धि हो सकती है। लेकिन उससे तृप्त मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। ऐसी जगह जाना है जिसके पार और जाना न रहे। उस स्थिति को पाना है जिसके पार और कोई स्थिति नहीं है। फूल ही बन कर समाप्त मत हो जाना, फूल यानी गौणी भक्ति; अभी आकार है, अभी रूप है, अभी रंग है; सुवास होकर समाप्त होना। सुवास मुक्त हो गयी आकार से, रूप से, रंग से। सुवास आकाश में ली हो गयी। सुवास आकाश हो गयी। उसे शांडिल्य ने पराभक्ति कहा है। गौणी भक्ति में भक्त और भगवान होते हैं और भक्ति में भक्त और भगवान होते हैं और भक्ति होती है, पराभक्ति में न कोई भक्त होता, न कोई भगवान होता, बस भक्ति होती है, भगवत्ता होती है। 

ऐसे ये अपूर्व सूत्र हैं। शांडिल्य को सुनकर तुममे प्यास जगे, इसलिए इन सूत्रों की व्याख्या कर रहा हूं ज्ञान न जमा लेना। ज्ञान जमा लिया, चूक गए। प्यास जगाना। तुम्हारे भीतर गहन आकांक्षा उठे, अभीप्सा जगे, एक लपट बन जाए कि पाकर रहूं;कि इस अनुभव को जानकर रहूं;कि इस अनुभव को जाने बिना जीवन अकारथ है।

ऐसी ज्वलंत आग तुम्हारे भीतर पैदा हो जाए तो दूर नहीं है गंतव्य। उसी आग में अहंकार जल जाता है। उसी आग में बीज दग्ध हो जाता है और तुम्हारे भीतर जन्मों जन्मों से छिपी हुई सुवास मुक्त आकाश में विलीन हो जाती है। उसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, जो नाम देना चाहो दो उसका कोई नाम नहीं, है; लाओत्सु ठीक कहता है, उसका कोई नाम नहीं है, काम चलाने को 'ताओ' कहता हूं।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

हरिओम सिंगल 



परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किए खड़े हो।

  स्नेह हो, या प्रेम, या श्रद्धा, या भक्ति, प्रीति का कोई भी रूप, प्रीति की कोई भी तरंग, बाधा एक है, अहंकार। क्षुद्रतम प्रेम से विराटतम प्रेम तक बाधाएं अलग अलग नहीं हैं। एक ही बाधा है सदा, अस्मिता। मैं यदि बहुत मजबूत हो तो प्रेम नहीं फल सकेगा। मैं का अर्थ है, परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना; प्रेमी की तरफ पीठ करके खड़े होना। मैं का अर्थ है, अकड़।

परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किए खड़े हो। परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, हाथ बढ़ाओ तो मिल जाए। जरा गुनगुनाओ, तो आवाज उस तक पहुंच जाए। जरा मुड़कर देखो, तो दिखायी पड़ जाए। मगर अहंकार कहता है, मुड़कर देखना मत। अहंकार कहता है, पुकारना मत। अहंकार अटकाता है। और अहंकार के जाल बड़े सूक्ष्म हैं। मनुष्य और परमात्मा के बीच इसके अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं है।

 इसीलिए शांडिल्य ने बार बार कहा कि ज्ञानी नहीं पहुंच पाता। क्यों नहीं पहुंच पाता? क्योंकि ज्ञान से अहंकार और भी मजबूत हो जाता है, मैं जानता हूं। जानना तो कुछ नहीं होता, मैं बहुत मजबूत हो जाता है। और जितना मैं मजबूत हो जाता है, उतनी ही जानने की संभावना कम हो जाती है। मैं के साथ कैसा जानना? मैं तो अंधापन है। मैं के साथ कैसी आखें? मैं तो हृदय पर पड़ी चट्टान है। हृदय खिलेगा नहीं, कमल बनेगा नहीं। बीज फूटेगा नहीं, वृक्ष पनपेगा नहीं। इसी चट्टान के नीचे दबे दबे करोड़ों लोग मर जाते हैं। इस चट्टान को हटाते ही क्रांति हो जाती है। और मजा यह है कि इस चट्टान से कुछ भी नहीं मिलता। इससे ज्यादा व्यर्थ चीज संसार में दूसरी नहीं है। वायदे बहुत, हाथ कुछ भी नहीं आता। आश्वासन बहुत, अहंकार इतने आश्वासन देता है, इतने सब्जबाग दिखाता है, पर सब सपने। दौड़ाता बहुत है, पहुंचाता कभी नहीं। मगर बड़ा कुशल है फुसला लेने में। बड़ा कुशल है तुम्हें राजी कर लेने में। होगा ही, अन्यथा बार—बार धोखा खाकर भी भरोसा किए चले जाते हो!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते है, हम श्रद्धालु नहीं है। हमारे मन में बड़े संदेह की दशा है; बड़े शक हैं, बड़े प्रश्न उठते हैं। मैं उनसे कहता हूं, बड़े प्रश्न उठते है, बड़े संदेह, अहंकार पर प्रश्न उठाया है? अहंकार पर संदेह किया है? परमात्मा पर संदेह किया होगा। परमात्मा से तुम्हारा लेना—देना क्या? जिससे पहचान नहीं है, उस पर संदेह भी क्या खाक करोगे? जिससे मिलन नहीं हुआ, उस पर प्रश्न भी क्या उठाओगे? जो द्वार तुम्हारे लिए खुला ही नहीं कभी, उस द्वार के पीछे क्या है, इसकी जिज्ञासा! पहले द्वार तो खोलो। सच्चा संदेहशील व्यक्ति वही है जो अहंकार पर संदेह उठा ले। और जो अहंकार पर संदेह उठा ले, उसे श्रद्धा उपलब्ध हो जाएगी। श्रद्धा के लिए श्रद्धा नहीं करनी होती, सिर्फ अहंकार पर संदेह करना होता है। और संदेह से तो तुम भरे हो। दोनों चीजें मौजूद है, संदेह भी है, अहंकार भी है। संदेह और अहंकार को जोड़ दो और तुम्हारे भीतर श्रद्धा की क्रांति हो जाएगी। संदेह को अहंकार पर मोड़ दो, संदेह के तीर को अहंकार में चुभ जाने दो, पूछो तो जिस अहंकार के साथ इतने दिन तक चले हो, अब भी चल रहे हो, आगे भी चलने के इरादे हैं, इस अहंकार ने कभी कुछ दिया है? यह कहीं थोथा तो नहीं? इसके आश्वासन झूठे तो नहीं?

 एक आदमी ने ईश्वर की बहुत—बहुत प्रार्थना की;ईश्वर प्रसन्न हुआ और ईश्वर ने उसे एक शंख भेंट कर दिया, और कहा—इससे जो तू मांगेगा, मिल जाएगा; जो तू मांगेगा, मिल जाएगा। वह आदमी क्षणभर में धनी हो गया। जो मांगा, मिलने लगा। जब मांगा, तब मिलने लगा। लाख रुपए कहे तो तत्क्षण छप्पर खुला और बरस गए।

अचानक उसके भाग्य में परिवर्तन देखकर दूर दूर तक खबरें पहुंच गयीं कि कुछ चमत्कार हो रहा है। न वह घर से बाहर जाता है, न कोई श्रम करता है, न कोई व्यवसाय करता है और खजाने खुल गए हैं।

एक संन्यासी उसके घर में आकर मेहमान हुआ। संन्यासी सुबह पूजा कर रहा था। गृहस्थ ने उस संन्यासी को पूजा करते देखा। उस संन्यासी के पास एक बड़ा शंख था। और संन्यासी ने उस शंख से कहा कि मुझे लाख रुपए चाहिए। वह गृहस्थ पीछे खड़ा सुन रहा था। उसने सोचा, अरे, इसके पास भी वैसा ही शंख है! और मुझ से भी बड़ा है! शंख बोला, लाख से क्या होगा, दो लाख ले लो। गृहस्थ के मन में बड़ी लोभ की वृत्ति उठी कि शंख हो तो ऐसा हो! मेरे पास है, लाख मांगता हूं लाख दे देता है, जितना मागो उतना दे देता है, यह भी कोई बात हुए! यह है शंख! लाख कहो, दो लाख कह रहा है! मांगने वाला कहता है लाख, शंख कहता है दो लाख ले लो।

 पैरों पर गिर पड़ा संन्यासी के, कहा—आप संन्यासी हैं, आपके लिए ऐसे शंख की क्या जरूरत? मैं गृहस्थ हूं, फिर मेरे पास भी शंख है, वह आप ले लें; वह उतना ही देता है जितना मांगो। आपको वैसे ही जरूरत नहीं

संन्यासी राजी हो गया, शंख बदल लिए गए। संन्यासी उसी सुबह विदा भी हो गया। सांझ पूजा के बाद गृहस्थ ने शंख को कहा, लाख रुपया। शंख ने कहा, लाख में क्या होगा, दो लाख ले लो! गृहस्थ बड़ा प्रसन्न हुआ, कहा धन्यवाद, तो दो ही लाख सही। शंख ने कहा, दो में क्या होगा, चार ले लो! बस, शंख ऐसा ही कहता चला गया। चार कहा तो कहा, आठ ले लो, और आठ कहा तो कहा, सोलह ले लो। थोड़ी देर में गृहस्थ की तो छाती कंप गयी। देने लेने की तो कोई बात ही नहीं थी, सिर्फ संख्या दुगुनी हो जाती थी।

 अहंकार महाशंख है। तुम मांगो, उससे कई गुना देने को तैयार है, देता कभी नहीं। हाथ कभी कुछ नहीं आता। अहंकार से बड़ा झूठ इस संसार में दूसरा नहीं है। सारी भ्रांतियों का स्रोत है। उससे ही उठती है सारी माया। उससे ही उठता है सारा संसार। संसार को छोड़कर मत भागना, क्योंकि कहां भागोगे, अहंकार तुम्हारे साथ रहेगा। जंहा अहंकार रहेगा, वहा संसार रहेगा। छोड़ना हो कुछ तो अहंकार छोड़ दो। और मजा यह है कि छोड़ना कुछ भी नहीं पड़ता, अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है। सिर्फ मन में पड़ गयी एक गाठ है। धागे उलझ गए हैं और गांठ हो गयी है। धागे सुलझा लो और गांठ खो जाएगी। ऐसा नहीं है कि धागे सुलझाने पर गांठ भी बचेगी, कि जब धागे सुलझ जाएंगे तब गांठ भी हाथ आएगी, गांठ कुछ है ही नहीं।  

इसलिए महावीर ने अहंकार को ग्रंथि कहा है, गांठ। और जो गाठ के पार हो गया, उसको निग्रंथ कहा है। गांठ के पार हो गया। फिर गांठ नहीं बचती, सिर्फ सुलझाने हैं धागे। तुम्हारे विचार के धागे ही उलझ गए हैं। जितने ज्यादा उलझ गए हैं, उतनी बड़ी गांठ हो गयी है। उलझते ही चले जा रहे हैं, सुलझाव का कोई उपाय नहीं दिखता है। यही गांठ बाधा है। धागे चित्त के सुलझ जाएं, परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं था।

एक दिन चाहे संसार का प्रेम हो, चाहे असांसारिक प्रेम हो, तुम्हें अपने मैं को छोड़कर प्रेमी की तलाश करनी पड़ती है। एक दिन तुम्हें अपने अहंकार से बड़ा अपने प्रेमी का अस्तित्व अंगीकार करना होता है। ज्ञानी नहीं कर पाएगा, धनी नहीं कर पाएगा, प्रतिष्ठित नहीं कर पाएगा, यशस्वी नहीं कर पाएगा। इसलिए तो जीसस ने कहा, धन्यभागी हैं वे जो दरिद्र हैं। इन सब अर्थो मे जो दरिद्र है। आत्मा से जो दरिद्र है, ना जिनके पास ज्ञान है, न पद है, न प्रतिष्ठा है, न नाम है, न यश है। जिनके अहंकार को भरने के लिए कुछ भी नहीं है। धन्यभागी है वे जो निर्धन है आत्मा से, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है।

और तुम देखोगे तो तुम निर्धन हो। न देखो तो ही तुम मान सकते हो कि तुम धनी हो। धन के भला ढेर लगे हों तुम्हारे पास, लेकिन तुम धनी कहां हो? और नाम तुम्हारा बहुतों को पता हो, लेकिन तुम्हें अपना नाम अभी स्वयं ही पता नहीं है और यश चाहे दूसरों से तुम्हें मिला हो, तुमने अभी वैसी घड़ी नहीं पायी जंहा तुम अपना सम्मान कर सको। तुम अपने भीतर निंदित पड़े हो। तुम अपमानित हो स्वयं से। तुम तो भलीभांति जानते हो। दूसरों को धोखा दे दिया होगा, अपने को तो कैसे धोखा दोगे? इस जगत में स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है। तो तुम अपनी कुरूपता भलीभांति जानते हो, भुलाते हो, छिपाते हो, फिर भी उभर उभर आती है।

जो व्यक्ति देखेगा ठीक से, वह पाएगा, जानता मैं क्या हूं; ज्ञान मेरे पास क्या है? हा, कंठ ने उपनिषद याद कर लिए हैं, और स्मृति में कुरान है, और बाइबिल है, मगर मेरा जानना क्या है? कृष्ण ने जाना होगा सो कृष्ण ने जाना होगा; उनका जानना मेरा जानना कैसे बनेगा? कृष्ण ने भोजन किया होगा, तो उनकी मांस मज्जा निर्मित हुई होगी, उनके भोजन से मेरा पेट नहीं भरता। कृष्ण के भोजन से तुम्हारा पेट नहीं भरता, तो कृष्ण के अनुभव से तुम्हारी आत्मा कैसे भरेगी? क्राइस्ट ने श्वास ली होगी, तो प्राण का संचार हुआ होगा। क्राइस्ट की श्वास तुममें प्राण का संचार नहीं करती, तो क्राइस्ट का परमात्म अनुभव तुम्हारी आत्मा को कैसे पुनरुज्जीवित करेगा? नहीं, क्राइस्ट ने कहा है, प्रत्येक व्यक्ति को अपना क्रास अपने ही कंधे पर ढोना पड़ेगा, उधारी नहीं चलेगी। और ज्ञान सब उधार है। इसलिए ज्ञान थोथा हो जाता है, ज्ञान कहीं ले जाता नहीं।

आज के सूत्रों में प्रवेश के पहले एक नजर पीछे की तरफ डालकर देख लें। शांडिल्य ने अब तक जो सूत्र दिए, उनको याद कर लें।

अथातो भक्तिजिज्ञासा।

नाद के स्वागत के साथ, संगीत के सत्कार के साथ, उत्सव की घोषणा के साथ, भक्ति की जिज्ञासा पर निकलते हैं। बजती हुई जगत की ध्वनि में, लोक और परलोक के बीच उठ रहे नाद में भगवान को खोजने निकलते हैं। यह यात्रा संगीत से पटी है। यह यात्रा रूखी—सूखी नहीं है। यहा गीत के झरने बहते हैं, क्योंकि यह यात्रा हृदय की यात्रा है। मस्तिष्क तो रूखा—सूखा मरुस्थल है, हृदय हरी—भरी बगिया है। यहा पक्षियों का गुंजन है, यहा जलप्रपातों का मर्मर है। इसलिए ओम से यात्रा शुरू करते हैं। और ओम पर ही यात्रा पूरी होनी है। क्योंकि जहां से हम आए हैं, वही पहुंच जाना है। हमारा स्रोत ही हमारा अंतिम गंतव्य भी है। बीज की यात्रा बीज तक। वृक्ष होगा, फल लगेंगे, फिर बीज लगेंगे। स्रोत अंत में फिर आ जाता है। जब तक स्रोत फिर न आ जाए, तब तक भटकाव है। इसलिए चाहे कहो अंतिम लक्ष्य खोना है, चाहे कहो प्रथम स्रोत्र खोजना है, एक ही बात है। मूल को जिसने खोज लिया, उसने अंतिम को भी खोज लिया।

नाद से ही शुरू हुई है यात्रा। तुमने देखा, बच्चे का जन्म होता है, नाद से यात्रा शुरू होती है। बच्चे के जन्म के साथ ही चिकित्सक, नर्से, परिवार के लोग प्रतीक्षा करते हैं नाद की, बच्चा आवाज कर दे! चीख दे, रो दे, चिल्ला दे, जीवन का सबूत दे दे! अगर थोड़ी देर लग जाए और बच्चे के कंठ से आवाज न निकले, तो निराशा छा जाती है। नाद नहीं तो जीवन का प्रारंभ नहीं। रो भी दे तो भी चलेगा, क्योंकि रुदन भी नाद है। अभी गीत की तो आशा नहीं की जा सकती, रोने की ही संभावना है। अभी गीत तो सीखा नहीं, अभी जीवन के अनुभव से तो गुजरे नहीं, अभी साज तो सजाया नहीं, अभी साज तो बैठा नहीं। जैसे कि अभी पहले पहले कारीगर ने वीणा बनायी हो और उस पर हाथ तुम रखो, तो ठीक ठीक सुमधुर संगीत पैदा हो जाए यह संभव नहीं, इसकी आशा भी नहीं की जाती, लेकिन ध्वनि तो पैदा हो! विसंगीत सही, विसंगीत में संगीत छिपा है। अगर विसंगीत पैदा हो गया तो संगीत भी जम जाएगा। फिर बिठाने पड़ेंगे तार, सजाने पड़ेंगे, कसने ढीले करने पड़ेंगे, ठोकना पीटना पड़ेगा, लेकिन कम से कम आवाज, नाद तो पैदा हो जाए।

अगर तीन मिनिट लग जाएं और बच्चे मे नाद पैदा न हो, तो वह मुर्दा है। तीन मिनिट के भीतर नाद पैदा ही होना चाहिए। अगर तीन मिनिट तक उसने सांस नहीं ली तो फिर वह कभी सांस नहीं लेगा। रुदन से प्रारंभ है। और जो ठीक ठीक पहुंच जाएंगे, हंसी पर अंत होगा। वह भी नाद है। अब वीणा बैठ गयी, साज जम गया।

'ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है। ' संपूर्ण, थोड़े बहुत से नहीं चलेगा। कंजूसी से नहीं चलेगा। कृपणता काम नहीं आएगी। जरा जरा दिया और बचाए रखे तो नहीं चलेगा। परमात्मा के साथ दोस्ती उन्हीं की होती है जो बेशर्त दे सकते है। जो कहते है, यह रहा पूरा का पूरा। जो ऐसा नहीं कहते कि थोड़ा थोड़ा दूंगा, जो इन्स्टालमेंट में नहीं देते, खंड खंड नहीं देते। क्योंकि खंड खंड देने का अर्थ है कि भरोसा नहीं है। सोचते हो थोड़ा देकर देखें, जब उतने से लाभ मिलेगा तो फिर कुछ और देंगे, उतने से लाभ मिलेगा तो फिर कुछ और देंगे। जुआरियों का काम है भक्ति, व्यवसायियों का नहीं।

यह आकस्मिक नहीं है कि भारत में व्यवसायियों के वर्ग मे कोई भी भक्ति का सूत्र पैदा नहीं हुआ। आकस्मिक नहीं है, इसके पीछे गणित है। व्यवसायी भक्त नहीं हो सकता। जैन हैं, भक्त नहीं हो सकते। उनका मार्ग ज्ञान का मार्ग है; तप का मार्ग है; वह समझ में आता है, उसका गणित है। भक्ति तो बिलकुल जुआरी का काम है, व्यवसायी का नहीं है। दाव पर लगाना है, जोखम है। पता नहीं, कुछ मिलेगा कि नहीं मिलेगा। जुए का दाव है, इसमें कुछ पक्का नहीं हो सकता। तुम जुए का दाव लगाकर कोई सुरक्षित नहीं रह सकते, कौन जाने क्या होगा?

व्यवसायी हिसाब से चलता है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि जैनों के संप्रदाय में भक्ति की कोई अवभावना नहीं पैदा हो सकी। शुद्ध गणित का काम है। इतना दो, इतना लो। इतना बुरा कर्म छोड़ दो, इतना लाभ मिले। इतना अच्छा कर्म करो, इतना मोक्ष पाओ। जितना करोगे, उतना मिलेगा। तर्क है, सुसंगति है। 

भक्ति तर्क नहीं है, गणित नहीं है। इसलिए भक्ति के लिए तो जुआरी का हृदय चाहिए, जो सब दाव पर लगाकर खड़ा हो जाता है, इस पार या उस पार। इसलिए शांडिल्य कहते है, 'ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है। ' संपूर्ण पर ध्यान रखना। 'उसमे चित्त का लग जाना अमृत की उपलब्धि है। ' कुछ और नहीं करना है, उसमें चित्त का लग जाना। और चित्त तब तक नहीं लगेगा जब तक तुम कुछ भी बचाओगे। तब तक चित्त शंकित रहेगा। तब तक चित्त सोचता रहेगा, विचारता रहेगा, जांचता रहेगा, आंख के कोने से हिसाब रखता रहेगा, पुण्य—पाप की राशि लगाता रहेगा। संपूर्ण तुम रख दो दाव पर। और कृपणता का कारण क्या है? है क्या तुम्हारे पास रखने को? वही खाली अहंकार है। खाली पात्र अहंकार का है, जो कभी भरा नहीं, भर ही नहीं सकता, क्योंकि उसमें तलहटी नहीं है; तुम भरते जाते हो, सब गिरता जाता है। खाली का खाली रहता है। खाली होना उसका स्वभाव है। इस खाली घड़े को ही परमात्मा के चरणों मे रखना है, इसमें भी कंजूसी कर जाते हो। इसमे भी कहते हो, थोड़ा, थोड़ा।

 शांडिल्य कहते हैं, उसमें चित्त का संपूर्ण रूप से लग जाना ही अमृत की उपलब्धि है। क्यों? अमृत कुछ अलग नहीं है। जिस दिन तुमने जाना कि मैं नहीं हूं तुम अमृत हो गए। अमृत का अर्थ है —अब तुम कभी न मरोगे। मैं मरता है, मैं मरा ही हुआ है, तुम तो शाश्वत हो। यह मैं के साथ तुम्हारा जो गठबंधन हो गया है, इसकी वजह से तुम क्षणभंगुर से बंध गए हो। जैसे किसी आदमी ने मान लिया कि मैं मेरे कपड़े हूं। अब वह कपड़े नहीं उतारता। क्योंकि वह डरता है—कपड़े उतर गए तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी।

 मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक मेले में गया। बड़ी भीड़ थी। सब होटलें भरी थीं, सब धर्मशालाएं भरी थीं। बामुश्किल एक सराय में बहुत हाथ, पैर जोड़ने से जगह मिली। लेकिन सराय के मैंनेजर ने कहा कि जगह तो दे देता हूं लेकिन अकेला कमरा नहीं मिल सकेगा। उस कमरे मे एक आदमी पहले से सोया हुआ है, तुम भी चुपचाप जाओ और सो जाओ।

 मुल्ला कमरे में गया। उसने आदमी को सोए देखा, वह किसी बड़ी अनजानी चिंता से भर गया। दार्शनिक चित्त का आदमी, बैठकर सोचने लगा पलंग पर कि अब करना क्या? फिर सोचकर उसने यही निर्णय किया कि जैसा हूं; ऐसे ही सो जाना ठीक है। तो पगड़ी लगाए, जूता पहने, कोट पहने लेट रहा। वह सामने पड़ा हुआ आदमी आंख खोल—खोलकर देख रहा है कि यह सज्जन क्या कर रहे हैं? जब उसने देखा कि जूते पहने और पगड़ी पहने ही सोने की कोशिश कर रहे हैं; तो वह भी जरा चौका कि यह कोई आदमी पागल तो नहीं है! रात इस आदमी के साथ सोना इस कमरे में अकेले, पता नहीं यह क्या करे? फिर मुल्ला को भी नींद नहीं आती है, क्योंकि कहीं जूते पहने और पगड़ी लगाए हुए, कोट पहने नींद आ सकती है? करवटें बदलता है, उसकी वजह से वह आदमी भी करवटें बदलता है।

आखिर उस आदमी ने कहा कि भाई, न तुम सो सकोगे, न मैं सो सकूंगा। हालाकि पगड़ी तुमने पहनी है और जूते तुमने बांधे हैं, मगर मैं भी नहीं सो पा रहा हूं। तुम इनको उतार ही दो। मुल्ला ने कहा, एक अड़चन है। अपने घर पर मैं उतारकर ही सोता हूं लेकिन कमरे में मैं अकेला ही होता हूं; तो मैं जानता हूं कि मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूं। अब यहा दो आदमी हैं पगड़ी उतारकर रख दी, जूते उतारकर रख दिए, कोट उतारकर रख दिया और दिगंबर होकर सो रहा, सुबह झंझट खड़ी होगी कि नसरुद्दीन कौन है? यहां दो आदमी हैं। क्योंकि यह मेरी पहचान है, यह पगड़ी, यह जूते, यह कोट, इन्हीं को दर्पण में देखकर मैं जानता हूं कि यह मैं हूं। इस खतरे के कारण यह नहीं कर रहा हूं।

वह आदमी हंसा इस पागलपन पर, उसने कहा, तुम फिकर न करो, इसके लिए कोई रास्ता खोजा जा सकता है। यह देखते हो कोने में, पहले कोई ठहरे होंगे लोग, उनका बच्चा एक फुग्गा छोड़ गया है फूला हुआ, कोने में पड़ा है, इसको अपनी टल में बांध लो। तो तुम्हें पक्का पता रहेगा कि तुम्हीं नसरुद्दीन हो। नसरुद्दीन ने कहा—यह बात जंचती है। टांग मे फुग्गा बांधकर, कपड़े उतारकर वह सो रहा। उस आदमी को रात मजाक सूझा उसने फुग्गा निकालकर अपने पैर में बांध लिया। सुबह जब नसरुद्दीन उठा, उसने छाती पीट ली; उसने कहा, मैंने पहले ही कहा था। अब यह तो पक्का है कि तुम नसरुद्दीन हो, मगर मैं कौन हूं?

तुम्हारी पहचान क्या है? तुम हंसते हो इस बात पर, लेकिन तुम्हारी खुद की पहचान भी ऐसी ही है। रात तुम सो जाओ और कोई प्लास्टिक सर्जन तुम्हारा चेहरा बदल दे और सुबह तुम दर्पण के सामने खड़े हो जाओ, तो तुम्हारी यही हालत नहीं होगी जो नसरुद्दीन की हो गयी? तुम्हारी एक पहचान थी, नाक थी, नक्श  था, एक ढंग था, तुम्हारी पहचान थी; रात किसी ने जादू किया—प्लास्टिक सर्जन ने आकर तुम्हारा चेहरा बदल दिया—सुबह तुम दर्पण के सामने खड़े हुए, तुम मुश्किल में पड़ जाओगे, तुम कहोगे, एक बात तो पक्की है कि यह मैं नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं?

तुम्हारी अपनी पहचान क्या है? वस्त्र की पहचान या शरीर की पहचान में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि शरीर भी वस्त्र है। अगर तुम और थोड़े भीतर जाओगे तो मन की पहचान है कि मैं हिंदू हूं? मुसलमान हूं? ईसाई हूं? फला हूं; ढिका हूं वह भी मन की ही पहचान है, वह भी वस्त्र है।

तुम्हें पता है तुम कौन हो? हंसो मत नसरुद्दीन पर, वैसी ही हालत है। कपड़े हों, कि देह हो, कि मन हो, यही तो हमारी पहचान है। मगर यह सब छीनी जा सकती है।

 अब विधियां खोज ली गयी हैं उसके मन को फिर से संस्कारित करने की। जैसे कागज पर तुमने कुछ लिखा था, उसे पोंछ दिया गया। फिर से लिख दिया, तुमने पूरे आदमी को बदल दिया। यही तो तुम्हारी पहचान है, कहते हो मैं हिंदू हूं हिंदुस्तानी हूं मुसलमान हूं? पाकिस्तानी हूं; कि चीनी हूं; तिब्बती हूं; कि इस पंथ को मानता, कि उस पंथ को मानता; कि बाइबिल, कि कुरान कि गीता मेरी किताब है; कि यह मेरा गुरु है; कि यह मूर्ति मेरी श्रद्धा की पात्र है; कि यह मेरा मंदिर, यह मेरी मस्जिद; मगर यह सब छिन सकता है। तुम हो कौन? तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे सर्टिफिकेट, सब कागजी हैं। तुम हो कौन? यह चैतन्य कौन है जिस पर यह सारी चीजें टंगी हैं? यह देह टंगी, यह मन टंगा, यह विचार टंगे, यह सर्टिफिकेट टंगे, यह प्रतिष्ठा, नाम धाम टंगा, यह भीतर तुम्हारे चैतन्य की खूंटी क्या है? उस खूंटी को जानना ही स्वयं को जानना है। 

उसको जानते ही अमृत की उपलब्धि हो जाती है। क्योंकि वह अमृत है। उपलब्धि हो जाती है, ऐसा कहना ठीक नहीं। मर्त्य के साथ तुमने संबंध जोड़ लिया है, बस वह दोस्ती टूट जाती है। इस मर्त्य के साथ संबंध का, पूरा का पूरा संबंध का समग्रीभूत नाम अहंकार है। उसमें चित्त का लग जाना अर्थात अपने से चित्त का उठ जाना, मैं से चित्त का छूट जाना और परमात्मा में चित्त का लग जाना अमृत की उपलब्धि है

 'ज्ञान भक्ति नहीं है। ' अनुभव, स्वानुभव ही भक्ति है। 'भक्ति के उदय पर ज्ञान का नाश हो जाता है।' जरूरत ही नहीं रह जाती। भक्ति के उदय पर ज्ञान का नाश क्यों हो जाता है? क्योंकि ज्ञान तो उधार था। किसी ने तुमसे कहा था कि सूर्योदय कैसा होता है और तुम ने वे यादे सम्हालकर रखी थीं। क्योंकि तुम्हारी आखें तो अंधी थीं और तुमने सूर्योदय देखा नहीं था। फिर तुम्हारी आंख की चिकित्सा हुई, मिल गया वैद्य तुम्हें, मिल गयी औषधि, कटी व्याधि, पर्दा आंख का हटा। एक दिन तुमने आंख खोली, सुबह के सूरज को उगते देखा। अब क्या करोगे उन बातों का जो दूसरों ने तुमसे कहीं थीं? उनका अब कोई भी तो मूल्य नहीं रहा। साक्षात सूर्योदय सामने खड़ा है, यह उठता हुआ आग का प्रचंड गोला, यह बादलों पर रंग, यह सारे जगत में फैल गयी जीवन की ताजगी, यह पक्षियों के गीत, यह हवाएं, यह सब तरफ बजता हुआ ओंकार का नाद, अब क्या करोगे याद उन बासी बातों की जो दूसरों ने तुम से कहीं थीं कि सूर्योदय कैसा होता है?

जिस दिन व्यक्ति भक्ति को उपलब्ध होता है, सब ज्ञान से छुटकारा हो जाता है। ज्ञान की आवश्यकता नही रह जाती। अपना धन मिल गया, अपनी प्रतीति हो गयी, अपना साक्षात्कार हुआ। भक्ति यानी रस, लय, राग, रंग, उत्सव; भक्ति यानी भगवान का भोग। भक्ति परम योग है और परम भोग भी। 

'भक्ति ज्ञान की तरह अनुष्ठानकर्ता के आधीन नहीं है।' शांडिल्य कहते हैं कि तुम्हारे हाथ में नहीं है भक्ति। तुम्हारे कारण ही तो बाधा पड़ रही है भक्ति में। तुम जाओ तो भक्ति आए। इधर तुम गए, उधर भक्ति आयी। तुम रहे तो भक्ति कभी नहीं आ पाएगी। इसलिए तुम्हारे अनुपस्थित हो जाने में भगवान की उपस्थिति है।

तुम पूछते हो—भगवान कहा है? तुम्हारी उपस्थिति के कारण दिखायी नहीं पड़ रहा है। तुम अनुपस्थित होना सीखो, तुम विसर्जित होना सीखो। उसमें चित्त को लग जाने दो संपूर्ण। और तत्क्षण तुम पाओगे सब तरफ वही है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

 'इसलिए भक्ति का फल समयातीत है। वह अनंत है। ' क्योंकि तुम्हारे हाथ से पैदा नहीं होता, इसलिए छीना भी नहीं जा सकता। तुम जो भी पैदा करोगे, वह क्षणभंगुर होगा। तुम क्षणभंगुर हो। अहंकार के द्वारा जो भी निर्मित होगा, वह पानी पर खींची गयी लकीर है—खिंच भी नहीं पाएगी और मिट जाएगी। जो परमात्मा से आता है, वही शाश्वत है। तुम भी शाश्वत हो, क्योंकि तुम परमात्मा से आए। और जो भी परमात्मा से आता है, सब शाश्वत है। उसका अंत नहीं।

 'ज्ञानी और अज्ञानी, दोनों को उसकी प्राप्ति हो सकती है। ' इसलिए ज्ञान कोई शर्त नहीं है। ज्ञानी को भी हो सकती है, अगर ज्ञान को हटा दे। ' भक्ति मुख्य है, अनिवार्य है, क्योंकि और—और मार्गो में भी अंतत: उसकी शरण लेनी होती है। ' ऐसा कोई मार्ग ही नहीं है जिसमें भक्ति की शरण न लेनी पड़ती हो। देखो तुम, बुद्ध ने कहा, भगवान नहीं है, कोई परमात्मा नहीं है, न कोई आत्मा है। लेकिन भक्ति का तत्व आया। पीछे के दरवाजे से आया, बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। शरण जाने का बात आ गयी। कृष्ण ने कहा था, मामेकं शरणं व्रज; 'सर्व धर्मान् परित्यज्य। सब छोड़छाड़ अर्जुन, मेरी शरण आ। बुद्ध ने कहा, कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। लेकिन फिर भी बुद्ध का धर्म बिना शरणागति के खड़ा नहीं हो सका। बिना शरणागति के, बिना समर्पित हुए कोई धर्म खड़ा नहीं होता।

 जैनधर्म शुद्ध योग है, शुद्ध तपश्चर्या है, लेकिन शरणागति तो आ ही जाती है। और महावीर ने अशरण की बात कही। महावीर ने कहा, अशरण हुए बिना सब शरण छोड़ देनी है, तो ही तुम पहुंचोगे। लेकिन पीछे के द्वार से बात आ गयी, अरिहंत शरणं पवक्षामि। मैं अरिहंत के शरण जाता हूं। जो जाग गए, जिन्होंने जीत लिया, उनकी शरण जाता हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम किसकी शरण जाते हो, शरण जाने से फर्क पड़ता है। तुम महावीर की शरण गए, कि तुम बुद्ध की शरण गए, कि तुम कृष्ण की शरण गए, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण, बुद्ध, महावीर, सब निमित्त हैं। शरण गए, इससे फर्क पड़ता है। वह शरण जाने की भाव, दशा ही भक्ति है। इसलिए शांडिल्य बड़ी अपूर्व बात कह रहे हैं। शांडिल्य कहते है, सभी मार्गो में भक्ति अनिवार्य है। कुछ न कुछ भक्ति चाहिए ही, नहीं तो कोई धर्म निर्मित नहीं होता।

 मुसलमानो ने मूर्ति हटा दी, काबा का पत्थर विराजमान हो गया। अब काबा के पत्थर में और मूर्ति में क्या फर्क है? पत्थर पत्थर है। मस्जिद से मूर्ति हटा दी, लेकिन शरण की भावना तो नहीं हटा सकते। मुसलमान जाकर जिस तरह झुकता है, उस तरह हिंदू भी नहीं झुकता है। झुकता है, बार बार झुकता है नमाज में। वही झुकना भक्ति है। अपने सिर को झुकाना, अपने अहंकार को झुकाना भक्ति है।

प्रकरणाच्च। 'और प्रकरण से ऐसा ही है।' 

शांडिल्य कहते है—यह जो मैंने अब तक कहा, इसके तुम्हें जीवन में जगह—जगह प्रमाण मिलेगे। प्रकरण से ऐसा ही है। तुम जरा आंख खोलकर खोजना शुरू करो। महावीर के मार्ग पर कोई परमात्मा नहीं है, लेकिन शरण का भाव आया। बुद्ध के मार्ग पर तो परमात्मा भी नहीं है, आत्मा भी नहीं है, फिर भी शरण का भाव आया। इस्लाम ने मूर्तियां हटा दीं, तो भी शरण का भाव है। दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसमें शरण का भाव न हो। शरण तो जाना ही होगा। प्रकरणाच्च। प्रकरण से, सारे जगत के अलग  अलग अनुभवों से यही सिद्ध होता है कि भक्ति अनिवार्य है। भक्ति से छुटकारा नहीं। भक्ति के तत्व के बिना कोई धर्म निर्मित नहीं होता। तुम ऐसा ही समझो कि इतनी मिठाइयां निर्मित होती हैं, लेकिन मिठास अनिवार्य है। अब मिठाइयों के तो बहुत रूप है रसगुल्ला है और संदेश है और खीर मोहन है और हजार है, लेकिन मिठास, माधुर्य अनिवार्य है।

भक्ति माधुर्य है। भक्ति शक्कर है। उसके बिना कोई मिठाई न बनेगी। फिर तुम किस ढंग की मिठाई बनाओगे, यह तुम पर निर्भर है। दुनिया के सारे धर्म अलग अलग मिठाइयां हैं, भक्ति उनके भीतर सब में छिपी हुई मिठास है। उनमे एक तत्व समान है, मिठास का। नमक डालकर मिठाई नहीं बनती। उसको मिठाई नहीं कह सकोगे। तो और बातें गौण हैं, मिठास तो अनिवार्य होनी चाहिए। फिर चाहे मिठाई चीन में बने और चाहे भारत में और चाहे रूस में, कहीं भी बने मिठाई, उसमें मिठास अनिवार्य होनी चाहिए।

शांडिल्य कहते है, हम मौलिक तत्व की बात कर रहे हैं। ऊपरी रूप, ऊपरी ढंग गौण हैं। प्रेम प्राण है। जैसे देहें तो अलग अलग हैं, लेकिन प्राणतत्व एक है। कोई सुंदर है और कोई कुरूप है, और कोई ठिगना है और कोई लंबा है; कोई गोरा है, कोई काला है; कोई अंधा है, कोई आंखवाला है; कोई लंगड़ा है, कोई लूला है, कोई बहरा है, कोई स्वस्थ है; कोई दुबला, कोई मोटा, बहुत रूप हैं देह के, मगर प्राणतत्व एक है। शांडिल्य कहते हैं, भक्ति प्राणतत्व है समस्त धर्मो का। और जैसे प्राण के बिना देह मुर्दा है, वैसे ही भक्ति के बिना धर्म मुर्दा है। जिस धर्म से भक्ति खो जाती है, वह मुर्दा हो जाता है , उसी मात्रा मे मुर्दा हो जाता है, जिस मात्रा में भक्ति खो जाती है। जिस मात्रा में भक्ति होती है, बाढ़ होती है भक्ति की, उसी मात्रा में धर्म जीवित होता है। जितनी नाचती हुई भक्ति होती है, उतना ही धर्म जीवित होता है। जितनी उमंग होती है भक्ति की, जितना उत्साह होता है भक्ति का, उतना ही धर्म जीवित होता है।

जैसे आत्मा है सभी के भीतर एक, वैसे ही सभी धर्म विधियों मे प्राण है प्रीति, भक्ति। जहां जहां प्रेम है, वहा वहा प्राण है। और जहां जहां भक्ति है, वहा वहा भगवान है। लोग उलटी तरफ से सोचना शुरू करते हैं। लोग कहते है, भगवान कहां है? यह ऐसा ही है कि जैसे कोई युवक आए और तुमसे पूछे, मेरा प्रेमपात्र कहा है? क्या कहोगे तुम उससे, मेरी प्रेयसी कहा है? कोई आ जाए पूछने पुलिस दफ्तर में, कि मेरी प्रेयसी कहा है? तो वे कहेंगे, तुम्हारी प्रेयसी है कौन, तो हम पता लगाएं। वह कहे, मुझे अभी खुद ही पता नहीं है, मैं तो तलाश में निकलता हूं; मेरी प्रेयसी कहा है? तो तुम कहोगे, पहले प्रेम करो, तो प्रेयसी होती है। अभी तुमने प्रेम किया नहीं, तुम प्रेयसी को खोजने निकल पड़े! लोग भक्ति किए नहीं और भगवान को पूछते है , भगवान कहा है? ऐसी ही मूढतापूर्ण बात पूछते हैं। लगती बात? बड़ी तर्कयुक्त है जब कोई पूछता है कि भगवान कहां है? हो तो मैं मानूं? हो तो मैं पूजूं? हो तो मैं झुकने को तैयार हूं। मगर है कहां? अब तुम ऐसी ही मूढतापूर्ण बात पूछ रहे हो कि प्रेयसी मिल जाए तो सब निछावर कर दूं; लुटा दूं सब। पकड़ लूं उसके चरण सदा के लिए, उसे गले का हार बना लूं कि उसके गले का हार बन जाऊं, मगर है कहा, पहले पक्का हो जाए।

 होगी कैसे प्रेयसी! प्रेयसी कोई व्यक्ति थोड़े ही है। तुम्हारा प्रेम जिस व्यक्ति पर आरोपित हो जाता है, वही तुम्हारा प्रेमी या प्रेयसी हो जाता है। जिस व्यक्ति पर, जिस शक्ति पर तुम्हारी भक्ति आरोपित हो जाती है, वही शक्ति, वही व्यक्ति भगवान हो जाता है। तो एक के लिए जो भगवान है, दूसरे के लिए भगवान नहीं होगा। तुम्हारी प्रेयसी मेरी प्रेयसी तो नहीं है। तुम यह तो नहीं कह सकते कि मेरी प्रेयसी को आप अपनी प्रेयसी क्यों नहीं मानते? सच तो यह है कोई माने तो तुम झगड़ा खड़ा करोगे कि यह मेरी प्रेयसी है, आप इसको कैसे अपनी मानते हैं? लेकिन कोई कहे कि जब आप की है, तो हमारी!

 मैंने सुना है, एक गांव में एक आदमी के पिता मर गए। वह बहुत रोने लगा, बहुत चिल्लाने लगा। पास पड़ोस के लोग इकट्ठे हुए। लोगों ने कहा, क्यों रोते हो। गांव के बड़े बूढ़ों ने कहा कि चलो, पिता चले गए कोई बात नहीं, हम तो हैं, हम तुम्हारे पिता हैं। वह शांत  हो गया। फिर उसकी मां मर गयी कुछ दिन के बाद। फिर गांव की बूढ़ियों ने कहा कि मत घबड़ाओ, हम तो मौजूद है, रोते क्यों हो? हम तुम्हारी मां हैं।

 फिर उसकी पत्नी मर गयी, फिर वह बैठकर राह देखने लगा कोई आकर कहे। कोई न आए। फिर उसने बहुत शोरगुल मचाया, फिर वह छत पर चढ़ गया, उसने कहा, अब क्यों नहीं आते? अब कोई आकर क्यो नहीं कहता, पहले तो गांव भर के लोग आते थे कि हम तुम्हारे पिता, हम तुम्हारी माता, अब कोई नहीं आ रहा है! कोई नहीं कहता कि हम तुम्हारी पत्नी, क्यों रोते हो?

तुम्हारी प्रेयसी तुम्हारी प्रेयसी है। लेकिन इस पर झगड़े खड़े होते हैं, बड़े बेहूदे झगड़े। हिंदू कहते है, कृष्ण भगवान हैं। इसमें जैनों को एतराज है। एतराज तर्कयुक्त है कि इस आदमी ने महाभारत का युद्ध करवा दिया! अर्जुन तो संन्यासी होना चाहता था। भला आदमी था। जैन मुनि हो जाता अगर उसकी चलती। कृष्ण ने उसको  उपद्रव में डाल दिया। भागने की उसने बहुत कोशिश की, तभी तो गीता पैदा हुई, वह बार बार भागने की कोशिश कर रहा है और कृष्ण उसको फासं कर ला रहे है। आखिर उसको उलझवा दिया। उसको युद्ध करवा दिया। करोड़ों की हानि हुई, हजारो लोग मरे, इतनी हिंसा हुई, इस सबका जिम्मेवार कौन है? और हिंदू कहते हैं कृष्ण भगवान हैं! जैनियों ने नर्क मे डाल रखा है, उनके पुराणों में नर्क में पड़े हैं, सातवें नर्क में। और इस सृष्टि के समय में नहीं छूटेंगे, जब प्रलय होगी तभी छूटेंगे। 

हिंदू के लिए कृष्ण भगवान हैं। उनसे बड़ा भगवान कोई भी नहीं। पूर्ण अवतार कहा उनको। राम भी अधूरे हैं, बुद्ध भी अधूरे हैं, कृष्ण पूरे हैं। इस बात में भी जान है, प्राण है। बुद्ध एकागी तो लगते ही है, भाग गए संसार को छोड़ छाड़कर। जीवन में संतुलन तो नहीं है। असंतुलित जीवन है। कृष्ण का जीवन बड़ा संतुलित है। बाजार में हैं और बाजार में नहीं हैं, यह संतुलन है। युद्ध में खड़े हैं और भीतर विराट शांति है, यह संतुलन है। भगोड़ापन नहीं है। जीवन में से यह चुनना, इसे छोड़ना, इसे पकड़ना, ऐसा नहीं, समग्र जीवन का स्वीकार है। इसी स्वीकार के कारण वह पूर्ण अवतार हैं। बुरा भला, सब स्वीकार है। अस्वीकार करने वाला ही भीतर कोई नहीं है, तो अहंकार ही नहीं है जो चुनाव करे, इसलिए चुनाव रहित हैं। जो घटे घटे। यही आस्तिकता की परमदशा है कि प्रभु जो चाहे घटवा रहा है, वही घटेगा।

 तो हिंदुओं ने सारे अवतारों को पीछे कर दिया, कृष्ण को ऊपर कर लिया। अपनी अपनी प्रीति! इसमें झगड़े की कोई गुंजाइश नहीं है। ईसाई कहता है कि यह कृष्ण किस तरह के भगवान हैं? बासुरी लेकर नाच रहे हैं और दुनिया में इतना दुख है। और यह भगवान हैं? और इतनी बीमारियां हैं, किसी अस्पताल में चले जाओ, अस्पताल खोलो, मरीजों की सेवा करो। कि इतनी बाढ़ आती हैं, तूफान आते हैं, तुम क्या बैठे बांसुरी बजा रहे हो। यह शोभा देती है! ईसाई सोचता है—यह बात ही अशोभन है, यह बात ही बड़ी बेहूदी है, कि जहां इतना दुख है संसार में, इतने लोग पीड़ित है, गरीब हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं, वहां कोई आदमी बांसुरी बजाने की चेष्टा में लगा है। खुद बांसुरी बजा रहा है और स्त्रियों को नचा रहा है। यह खुद तो पागल है और दूसरों को पागल बना रहा है। क्राइस्ट ठीक मालूम पड़ते हैं। सूली पर लटके हैं, उदास। सारे लोग सूली पर है। उनके लिए सूली पर लटकना ही चाहिए जीसस को। इसलिए जीसस भगवान हैं।

 लेकिन हिंदू से पूछो तो हिंदू कहता है, भगवान और उदास! उदास तो अज्ञानी होता है। और ईसाई कहते है, जीसस कभी हंसे ही नहीं! यह तो महा तमस की अवस्था हो गयी। उदास तो अज्ञानी होता है और सूलियों पर तो पापी चढ़ते हैं। किए होगे पिछले जन्म मे कुछ पाप, उसका फल भोग रहे है। और तुम्हारे सूली पर चढ़ने में किसकी सूली कम हो जाएगी! यह तो ऐसे ही हुआ कि एक आदमी को पैर में कांटा लग गया और तुम ने उसके दुख में अपने पैर में भी कांटा चुभाकर बैठकर रोने लगे। इससे क्या सार है। भई! निकालना था उसका कांटा निकालते, अपने पैर मे कांटा चुभाने से क्या होगा; उसका कांटा नहीं निकलेगा, दुनिया में दुख दुगुना हो गया, और कांटा चुभा लिया।

हिंदू को जीसस में भगवान दिखायी नहीं पड़ सकते। और मैं तुमसे कह देना चाहता हूं; यह खयाल रखना, भगवान तो तुम्हारी प्रीति का संबंध है। किसी को महावीर में दिखायी पड़ते हैं, किसी को बुद्ध में, किसी को कृष्ण में, किसी को क्राइस्ट में। जहां तुम अपनी भक्ति को आरोपित कर देते हो, वहां भगवान प्रकट होता है। भगवान तो सब जगह छिपा है। इसलिए किसी को पीपल के वृक्ष में भी देवता प्रकट हो जाते हैं, और किसी को नदी की धार में भी, और किसी को अनगढ़ पत्थर में भी। जब पहली दफे मील के पत्थर लगे लाल रंग पुते, तो गांव में लोग उनकी पूजा करने लगे। उन्होंने समझा हनुमान जी हैं। और बड़े खुश हुए कि सरकार भी अच्छी है कि इतने हनुमान जी! उन्होंने और उस पर जाकर सिंदुर इत्यादि पोतकर, फूल चढ़ाकर और पूजा शुरू कर दी। अंग्रेज परेशान थे कि यह क्या पागलपन है! लेकिन उसकी भी बात समझो। वह जो आदमी सिंदुर लगा दिया और जाकर पूजा करने लगा, उसकी भक्ति अगर वहां है तो वहीं भगवान है। जहां भक्ति, वहा भगवान। पत्थर में पड़ जाए, तो पत्थर में भगवान का अवतरण होता है। और भगवान साक्षात तुम्हारे सामने खड़ा हो और तुम्हारी भक्ति न पड़े उसमें तो पत्थर है।

 तुम्हारी भक्ति की ही सारी बात है। तुम्हारी भक्ति से भगवान का अविर्भाव होता है। तुम्हारी भक्ति पर्दा हटाती है।तो मूल तत्व भगवान नहीं है, मूल तत्व भक्ति है।

कहते हैं शांडिल्य—प्रकरणात्च्च। अब तक सारे जगत में भक्तों के अनुभव से यही सिद्ध होता है कि भगवान दोयम, भक्ति प्रथम। भगवान पहले नहीं मिलता, भक्ति का अविर्भाव पहले होता है। उसी अविर्भाव में भगवान से मिलन होता है। भक्ति की आंख चाहिए भगवान को देखने को। प्रेम की आंख चाहिए प्रेयसी को, प्रेमी को खोज लेने को।

 दर्शनफलमितिचेन्न तेनव्यवधानात्।

 'दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमें व्यवधान रह जाता है। '

 यह सूत्र अपूर्व है। शांडिल्य कहते है, भक्त की आकांक्षा भगवान का दर्शन कर लेने की नहीं है, क्योंकि दर्शन में तो दूरी रह जाती है। तुम इधर खड़े, भगवान उधर खड़े, दर्शन हो रहा! फासला है, व्यवधान है, दूरी है। दर्शन में दूरी है। तो भक्त क्या चाहता है? भक्त भगवान से एक होना चाहता है; दर्शन नहीं, एकात्म होना चाहता है। भक्त की तब तक तृप्ति नहीं है, जब तक भक्त भगवान न हो जाए। जब तक निमज्जित न हो जाए। ज्ञानी सस्ते में राजी हो जाता है, वह कहता है, दर्शन हो गया, चलें। देख लिया, जान लिया, पहचान लिया, प्रसन्न हो गए। यह तो ऐसे ही हुआ कि मिठाई के दर्शन कर लिए और प्रसन्न होकर चले गए। स्वाद तो लिया नहीं, माधुर्य तुम्हारे रक्त में तो बहा नहीं, तुम्हारी मांस मज्जा में तो सम्मिलित नहीं हुआ, मिठाई के दर्शन से क्या होगा?

शांडिल्य ठीक कहते हैं कि भक्त उतने से राजी नहीं है। भक्त कहता है—यह भी कोई बात हुई! यह तो और बेचैनी बढ़ेगी। नहीं जाना था, वही अच्छा था। कम से कम इतना तो था कि तुम हो ही नहीं, हो ही नहीं तो कोई बेचैनी नहीं थी। जानकर तो अड़चन शुरू हो गई। अब तो बिना एक हुए कोई मार्ग नहीं है, एक हो जाएं तभी तृप्ति है। अन्यथा अतृप्ति की आग जलेगी और जलायेगी, तड़फाएगी। 

'दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमे व्यवधान रह जाता है' 'भक्त आत्यंतिक चाहता है, अंतिम चाहता है, जिसमें कोई दूरी न रह जाए। सभी प्रेमी यही चाहते है। और इसीलिए तो प्रेम में इतनी विफलता होती है। समझना।

तुम किसी स्त्री को प्रेम किए, किसी पुरुष को प्रेम किए। इतना विषाद क्यों होता है प्रेम में? प्रेमी बहुत शीघ्र ही विषाद से भर जाते हैं। विषाद कहा से आता है? प्रसन्न होना चाहिए था, तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिल गयी। जानने वाले कहते है, मजनू धन्यभागी है कि उसको लैला नहीं मिली। मिल जाती तो विषादग्रस्त हो जाता। जिनको मिल गयी, उनसे पूछो। मिल जाने के बाद विषाद हो जाता है। जिस स्त्री को तुमने चाहा, मिल गयी, अब क्या करो? अब बैठे हैं पति पत्नी होकर। अब कर रहे हैं एक दूसरे का दर्शन और घबड़ा रहे हैं एक दूसरे को, और घबरा रहे हैं एक दूसरे से, और ऊब रहे हैं, अब करो क्या?

 यह विषाद इसलिए पैदा होता है कि कोई उपाय नहीं इस स्त्री के साथ एक हो जाने का, इस पुरुष के साथ एक हो जाने का। कितने ही करीब आओ, दूरी रह जाती है, उस दूरी में विषाद है। मजनू को कम से कम एक तो आश्वासन रहा होगा कि कभी लैला मिलेगी, कभी मिलन होगा। उसे यह पता नहीं है कि मिलन होता ही नहीं। यह तो पता तभी चलेगा जब लैला मिल जाए और मिलन न हो, तब पता चलेगा, उसके पहले पता नहीं चलेगा। हाथ में हाथ लेकर खड़े रहो अपनी प्रेयसी का तो भी मिलन कहा है! तुम्हारा हाथ अलग, प्रेयसी का हाथ अलग। दोनों के बीच में बहुत कम दूरी है, मगर कम दूरी भी काफी दूरी है। गले से गला लगाकर खड़े हो जाओ, हृदय से हृदय लगाकर खड़े हो जाओ और दूरी है। संभोग के क्षण में भी एक क्षण को ऐसी भ्रांति होती है कि दूरी मिट गयी, मगर दूरी तो बनी ही रहती है।

इस जगत में प्रेम का विषाद यही है कि प्रेम चाहता है प्रेमी के साथ एक हो जाए और नहीं हो पाता। यह घटना भक्ति में ही घट सकती है। क्योंकि भक्ति में दो देहों का मिलन नहीं है, दो आत्माओं का मिलन है। आत्माएं एक दूसरे में मिल सकती हैं।

 ऐसा समझो कि तुमने एक कमरे में दो दीए जलाए। तो दो दीए तो अलग अलग होंगे, लेकिन दोनों दीयो का प्रकाश मिल जाएगा। दीए नहीं मिल सकते तुम दीयो को कितना ही खटखटाओ, एक दूसरे के साथ लड़ाओ, मिलाओ जुलाओ, दीए नहीं मिल सकते, दीए तो अलग ही रहेंगे। लेकिन दोनों की रोशनी मिल जाएगी  आत्मा रोशनी है कोई व्यवधान नहीं आता। एक कमरे में दो दीए जलाओ, पचास दीए जलाओ, कोई अड़चन नहीं आती। कमरा एकदम चिल्लाने नहीं लगेगा कि यहां रोशनी ज्यादा हो गयी, अब नहीं समाती। कितनी ही रोशनी लाओ, समा जाएगी। और ऐसा भी नहीं होगा कि दूसरे दीए यह कहने लगें कि और दीए मत लाओ, इससे हमारी रोशनी में बाधा पड़ती है, कि अतिक्रमण होता है हमारी रोशनी का, कि हमारी रोशनी का क्षेत्र कम होता है, दूसरे कब्जा कर लेते हैं। हां, ऐसा तो हो सकता है कि एक घड़ी आ जाए कमरे मे दीए न बन सकें, लेकिन रोशनी न बने ऐसी घड़ी कभी न आएगी। रोशन तत्व एक दूसरे से मिल जाते हैं। आत्मा तुम्हारी रोशनी है, शरीर तुम्हारा दीया है।

 प्रेम का अर्थ है, दो दीयो को मिलाने की कोशिश चल रही है, दो देहों को मिलाने की कोशिश चल रही है। विषाद सुनिश्चित है, विषाद अनिवार्य है। भक्ति का अर्थ है, यह भ्रान्ति छोड़ दी कि दीए मिलाने हैं, ज्योति मे ज्योति मिलानी है। और ज्योति से ज्योति जब मिल जाती है, तो दर्शन नहीं होता, साक्षात्कार नहीं होता, ज्ञान नहीं होता, भक्त भगवान हो जाता है। अहं ब्रह्मस्मि का उदघोष उठता है। अनलहक का उदघोष उठता है। मैं और तू दो नहीं रह जाते। सच तो यह है, उस स्थिति में हमें यह भी नहीं कहना चाहिए कि भक्त बचता है, हमें यह भी नहीं कहना चाहिए भगवान बचता है, मैं शब्द सुझाना चाहता हूं, भगवत्ता बचती है। उधर भक्त खो जाता है, इधर भगवान खो जाता है। क्योंकि भगवान को होने के लिए भी भक्त का होना जरूरी है। भक्त के बिना भगवान नहीं हो सकता, भगवान के बिना भक्त नहीं हो सकता। वह तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक गया कि दूसरा गया। तो जो बचती है वह है, भगवत्ता, दिव्यता, असीम आलोक। 

भक्ति का मार्ग आलोक का मार्ग है। आलोक पंथ:।

 'दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमे व्यवधान रह जाता है।'

   दृष्टत्वाच्च।

    'इस प्रकार देखने में भी आता है। '

 शांडिल्य कहते है—जो—जो गए हैं, उनसे पूछो; वे सभी यही कहेंगे—इस प्रकार देखने मे भी आता है कि जैसे—जैसे भक्त भगवान के करीब पहुंचता है वैसे ही वैसे दर्शन में रस नहीं रह जाता। योग मे रस होता है, दर्शन मे नहीं। मिलन हो जाए, सम्मिलिन हो जाए। इस तरह मिलन हो जाए कि कहीं कोई रेखा विभाजन न करे। मेरे हृदय में भगवान धडके, मैं भगवान के हृदय में धडकूं। न कोई मैं बचे, न कोई तू बचे।

सब मौजूद है, सिर्फ जो धारा पृथ्वी के ऊपर बहती थी, वह अंतर्धारा हो गयी, वह पृथ्वी के नीचे बहने लगी। मैं अंडरग्राउंड चला गया। और यह और खतरनाक हालत है। मैं ऊपर था तो पहचान में आता था, दुश्मन साफ साफ था। अब मैं जो है भूमिगत हो गया, अब उसने अपने को नीचे छिपा लिया। अब वह कहता है मैं नहीं हूं। अहंकार बड़ा सूक्ष्म है, वह यह भी कह सकता है कि मैं नहीं हूं और अपने को बचा ले सकता है। जिस दिन व्यक्ति का मैं मिट जाता है, उस दिन परमात्मा खोजने निकलता है। तुम कहीं मत जाओ, सिर्फ नहीं हो जाओ और परमात्मा भागा चला आएगा।

और तुम जाओगे भी तो कहा जाओगे? उसे खोजोगे भी तो कहां खोजोगे? वह सामने भी मिल जाएगा रास्ते पर कहीं बैठा हुआ, तो तुम पहचानोगे कैसे कि यही है? पहले कभी देखा नहीं, प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? जिन रूपों में तुम देख रहे हो, या सोचते हो कि होगा, उन रूपों में दुबारा नहीं होता। अगर तुम कृष्ण के भक्त हो, तुम सोचते हो कि मोर मुकुट बाधे और कहीं भीड़ भाड़ इकट्ठी किए बांसुरी बजा रहे होंगे, तो तुम्हारे पहुंचने के पहले पुलिस उनको ले जाएगी। कि यह आदमी यहा टैरफिक में गड़बड़ कर रहा है! और यह मोर मुकुट क्यों बांधा है? होश में हो कि पागल हो? और तुम्हें भी मिल जाएं यह मोर मुकुट बांधे, तो तुम भी कहोगे कि कोई कृष्णलीला होने वाली है बस्ती में? क्या बात है? या रामचंद्रजी मिल जाएं धनुषबाण इत्यादि लिए हुए जाते, तो तुम चौककर खड़े हो जाओगे कि भई! रामलीला होने वाली है; क्या बात है? तुम भी भरोसा नहीं करोगे, क्योंकि सत्य दुबारा नहीं दोहरता।

 कृष्ण एक बार हुए, दुबारा नहीं होंगे। बुद्ध एक बार हुए, दुबारा नहीं होंगे। परमात्मा हर बार नए रूपों में आता है, इसीलिए तो पहचान नहीं हो पाती। तुम पुराने के साथ नाता जोड़े बैठे रहते हो और परमात्मा नया होकर आता है। परमात्मा का अर्थ ही है, जो प्रतिपल नया है। अब हो सकता है इस बार वह फुल पैंट इत्यादि पहनकर आ गए हों, और मोर मुकुट न बाधा हो। फुल पैट में देखकर ही तुम कहोगे कि खतम बात!

 जमाना बदल गया, भगवान पुराना थोड़े ही रहता है, रोज नया हो जाता है। मगर हमारी आखें पुरानी हैं, हम कहते है ऐसा होना चाहिए। हमने एक ढांचा बांध रखा है। उस ढांचे में फिर कभी नहीं होगा। भगवान बासा नहीं है। तुमने कभी एक सुबह दूसरी सुबह जैसी देखी? और एक सांझ दूसरी सांझ जैसी देखी? जब सूरज सांझ को डूबता है तो जो रंग फैल जाते आकाश में, वैसे तुमने कभी पहले देखे थे? कभी दुबारा वैसा दोहरेगा फिर? कभी नहीं दोहरेगा, कुछ नहीं दोहरता। परमात्मा की सृष्टि अपूर्व है। वह पुनरुक्ति नहीं करता। उसकी सृजन क्षमता असीम है, पुनरुक्ति करे क्यों? जो आदमी रोज नयी कविता गा सकता हो, वह पुरानी क्यो गाए? और जो आदमी रोज नया गीत पैदा कर सकता हो, वह पुराना क्यों दोहराए? परमात्मा अपनी कापी नहीं करता, वह कार्बन कापियां नहीं भेजता। वह सिर्फ एक ही मूललिपि, ओरीजनल, उसके बाद बात खतम। उसके दफ्तर में डुप्लीकेटर है ही नहीं।

मगर हमारी पकड़ पुराने की होती है। तुम्हें मिल भी जाए तो तुम पहचान न सकोगे। फिर क्या उपाय है? तुम मिटो, तुम शून्य हो जाओ, भागा आता है परमात्मा चारों तरफ से और तुम्हें भर देता है। तुमने जल को देखा? कभी जल में तुमने घड़ा भरा? तुम घड़ा भरते हो, खाली जगह छूटी, चारों तरफ से जल दौड़कर उसे तत्क्षण भर देता है। शून्य बर्दाश्त नहीं किया जाता। हवा में शून्य पैदा हो जाए, चारों तरफ से हवा दौड़कर उस शून्य को भर देती है। जहां शून्य पैदा हो जाता है, वहीं भरने के लिए ऊर्जा पहुंच जाती है। तुम जरा शून्य होकर देखो और तुम पाओगे कि पूर्ण से भर दिए गए।

शांडिल्य कहते है—दृष्टत्वाच्च। इस प्रकार ही देखने में आया है। जानने वालों ने इसी तरह जाना है कि जो उसके पास गया, खुद तो मिटा ही, परमात्मा भी उसके साथ ही मिट गया। भगवत्ता शेष रही। 

अत एकव तदभावाद्वल्लवीनाम्।

 'ज्ञान विज्ञान आदि के अभाव रहने पर भी व्रज की गोपियां अनुराग के बल से ही मुक्ति के लाभ करने में समर्थ हो गयी थीं। '

अत एव तदभावाद्वल्लवीनाम्। उस प्यारे को पाने का एक ही उपाय है—उसके भाव से आपूर हो जाओ, आकंठ भर जाओ। अत एव तदभावाद्व...। उसका भाव तुम्हें पूरा डूबा दे। तुम उसके भाव में ही पूरे लीन हो जाओ। उस प्यारे का पाने को एक ही उपाय है ज्ञान नहीं, तप नहीं, भाव। शांडिल्य कहते है गोपियां न तो ज्ञानी थीं, न तपस्वी थीं, न उन्होंने योग साधा, न कुछ साधनाएं कीं; न हिमालय की गुफाओं में गयीं, न त्याग किया संसार का। सीधी—सीधी स्त्रियां थीं, मगर भाव से भर गयीं। उसके भाव में डूब गयीं।

तुमने चित्र देखा होगा, गोपियां नाच रही हैं, कृष्ण नाच रहे हैं, और हर गोपी के साथ एक कृष्ण नाच रहा, कृष्ण उतने ही हो गए जितनी गोपियां हैं। जितने शून्य होंगे इस जगत में, उतनी ही भगवत्ताएं हो जाती है। महावीर भी भगवान हैं, इससे कुछ बुद्ध के भगवान होने में कमी नहीं पड़ती। मगर हम बड़े कंजूस हैं। हम सोचते हैं इसमें झंझट है। इसलिए ईसाई कहता है, सिर्फ क्राइस्ट भगवान हैं, कृष्ण नहीं। और हिंदू कहता है, कृष्ण भगवान हैं, महावीर नहीं। और जैन कहता है, महावीर भगवान हैं और बुद्ध नहीं। क्योंकि सबको ऐसा लगता है कि बहुत भगवान हो गए तो अपने भगवान की भगवत्ता कुछ कम हो जाएगी। कंजूसों का हिसाब है। वह सोचते है, इतने भगवान हो गए तो स्वभावत: भगवत्ता डायल्यूट हो जाएगी। उसकी मात्रा कम कम हो जाएगी। बूंद बूंद रह गयी। अपने ही भगवान सिर्फ भगवान होते, तो पूरा सागर होते। अब इतने हो गए, तो बस बह रहे हैं छोटे मोटे झरने की भांति, फिर सागर कहा। इस डर के कारण सारे धर्म एक मूढतापूर्ण बात में उलझ गए हैं कि जो हमारा है, बस वही सच, बाकी सब झूठ।

 तुमने कृष्ण को देखा, सब गोपियों के साथ नाचते? वह बड़ा प्रतीक चित्र है। वह यह कह रहा है कि जितनी चेतनाएं हैं इस जगत में, उतनी भगवत्ताएं हो सकती हैं। भगवान अनंत है, भगवत्ताएं अनंत हो सकती है। तुमने उपनिषद का वचन सुना? उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। बुद्ध के भगवान होने से भगवान कुछ कम नहीं हो गया, कि अब जो भगवान होगा उसको कुछ कम मात्रा मे भगवत्ता मिलेगी। भगवान उतना का ही उतना है। सारी कला तुम्हारे शून्य होने की है। तुम शून्य हुए कि तुम पूर्ण से भरे। फिर जितने शून्य होंगे उतने पूर्ण से भर जाएंगे। यह सारा जगत भगवान से सराबोर है। इसमें कोई और जगह ही नहीं है। भगवान ही भगवान भरा हुआ है। और जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी भगवान तुम्हारे भीतर मौजूद है, सिर्फ पता नहीं है। सारी बात इतनी है कि तुम्हें लौटकर दिखायी पड़ जाए।

न तो तपश्चर्या की जरूरत है, न किसी गोरखधंधे में पड़ने की। तदभावाद्वल्लवीनाम्। उस प्यारे को पाना है, बस एक बात कर लो, अपने को मिटा दो, उसके भाव को निमंत्रण दे दो।

कया जानातीतिचेन्नभिज्ञप्तया साहाथ्यात्।

'यदि ऐसा कहो कि भक्ति से ही ज्ञान का उदय होता है, तो ऐसा नहीं है, क्योंकि ज्ञान भक्ति की सहायता किया करता है। '

कुछ लोग सोचते हैं, शांडिल्य कहते हैं, शंका उठाते हैं कि कुछ लोग सोचते हैं, कुछ लोगों ने कहा भी है, कि भक्त को ही असली ज्ञान होता है। शांडिल्य कहते है, ज्ञानी को तो भक्ति होती ही नहीं; अगर वह ज्ञान में ही उलझ गया तो भक्ति से वंचित रह जाता है। हा, ज्ञानी अगर समझदार हो, और ज्ञानी कम ही समझदार होते है, क्योंकि ज्ञानी अकड़ा होता है समझ कहा? जानने की अकड़ निर्मल नहीं होने देती, विनम्र नहीं होने देती। अगर ज्ञानी समझदार हो जो कि बहुत विरले ज्ञानियों में मिलेगा अगर ज्ञानी समझदार हो, प्रज्ञावान हो, तो ज्ञान का उपयोग भी भक्ति को पाने के लिए करता है। ज्ञान की सहायता भक्त होने के लिए करता है, लेता है। अपने ज्ञान को समर्पित कर देता है भाव के लिए। अपने मस्तिष्क को हृदय की सेवा में लगा देता है। अपने तर्क को अपनी श्रद्धा का चाकर बना देता। है। फिर तर्क भी बड़ा काम आता है। क्योंकि वह श्रद्धा का सहयोगी हो जाता है। फिर ज्ञान भी काम में आ जाता है, वह सीढ़ी बन जाता है। भक्त उस पर चढ़कर मंदिर तक पहुंच जाता है।

शांडिल्य कहते है, जों ऐसा कहता हो कि भक्त को ज्ञान उपलब्ध होता है अंत में, वह तो गलत कहता है, क्योंकि ज्ञान में तो भेद रह जाता है, ज्ञाता का, ज्ञेय का भेद रह जाता है, दूरी रह जाती है। जो दर्शन मे दूरी रह जाती है, वैसे ज्ञान में दूरी रह जाती है। भक्त तो एक ही हो जाता है—वहा कौन जानने वाला, कौन जाना जाने वाला। वहां तो दोनो मिल गए और एक हो गया। वहा जीवन की शुरुआत है, जानने की नहीं। वहा अनुभूति का जन्म है, जानने का नहीं। फिर इसलिए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान का जन्म भक्ति के अंत मे होता है, क्योंकि ज्ञान का तो सहारा लिया सीढ़ियों की तरह। ज्ञान पर तो चढ़े और भक्ति तक पहुंचे। अज्ञानी से अज्ञानी के पास भी थोड़ा बहुत ज्ञान है। नहीं तो वह कभी का ज्ञानी हो गया होता। अज्ञानी के पास भी थोड़ा न बहुत ज्ञान है, वही अटका रहा है अज्ञान नहीं अटका रहा है, ज्ञान अटका रहा है।

 तुमने ऐसा अज्ञानी देखा जो कह, मैं पूर्ण अज्ञानी हूं? अगर ऐसा अज्ञानी तुम्हें मिल जाए, उसके चरण पकड़ लेना। क्योंकि वह तो ज्ञान को उपलब्ध हो गया, जो कह दे मैं पूर्ण अज्ञानी। लाओत्सु ने कहा है कि मेरी हालत महामूढ़ जैसी है। जैसे मूढों की खोपड़ी खाली होती है, ऐसी मेरी है।

अज्ञानी भी दंभ करता है कि मैं जानता हूं। हो सकता है तुमसे कम जानता हूं; लेकिन जानता हूं। मात्रा का भेद होगा, गुण का भेद नहीं है। पंडित में और मूर्ख में मात्रा का भेद होता है, गुण का भेद नहीं होता। मूर्ख थोड़ा कम पंडित, पंडित थोड़ा कम मूर्ख है, बस इतना ही फर्क होता है। एक ही सीढ़ी पर है एक जरा आगे, एक जरा पीछे।

 ज्ञान रोकता है, अज्ञानी को भी और ज्ञानी की भी। धन्यभागी हैं वे जो ज्ञान की सहायता ले लें। जो ज्ञान की सीढ़ियां बना लें। भकया जानातीतिचेत्रभिज्ञप्तया साहाथ्यात्। भक्ति के अंत में ज्ञान नहीं है। भक्ति के शुरू में ही जो ज्ञान है उसको सीढ़ियां बना लेनी हैं, सहायता ले लेनी है। सीढ़ियों पर चढ़कर जब तुम मंदिर में पहुंचोगे तो भगवान मिलेगा, और सीढ़ियां नहीं मिलेंगी। नहीं तो मंदिर में पहुंचे ही नहीं अगर और सीढ़ियां मिलें।

 ज्ञान तो सहयोगी हो सकता है ज्यादा से ज्यादा, अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। ज्ञान साधन हो सकता है, साध्य नहीं हो सकता। तुम कोई चीज जानना चाहते हो, क्योंकि तुम कुछ और पाना चाहते हो। ज्ञान अपने आप मे साध्य नहीं, उपकरण है। भक्ति साध्य है।

 जैसे समझो, तुम धन कमाना चाहते हो। कोई पूछे कि धन किसलिए? तुम उत्तर दे सकते हो कि ताकि आराम से रह सकूं। कोई पूछे, आराम से किसलिए रहना चाहते हो? उससे तुम कहोगे ताकि मैं प्रेम कर सकूं? अपने बच्चे, अपनी पत्नी...। लेकिन कोई तुमसे पूछे कि प्रेम किसलिए करना चाहते हो? तो तुम अटक जाओगे, तुम उत्तर न दे पाओगे। और जो उत्तर दे दे, वह प्रेम को जानता ही नहीं। तुम कहोगे प्रेम तो प्रेम के लिए। धन किसी चीज के लिए, पद किसी चीज के लिए, ज्ञान किसी चीज के लिए, लेकिन प्रेम? प्रेम गंतव्य है। प्रेम अपने आप में अपना साध्य है। भक्ति तो प्रेम की पराकाष्ठा है। इसलिए भक्ति के बाद और कोई फल नहीं है, भक्ति तो स्वयं फल है। और सब खाद बन जाए। खाद तुम बना सको तो बुद्धिमान हो। इन अपूर्व सूत्रों पर खूब ध्यान करना। इनके रस में डूबना। एक एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि तुम पूरे जीवन से भी चुकाना चाहो तो उसकी कीमत नहीं चुकायी जा सकती।

भक्त कुछ मांगने नहीं जाता। भक्ति में भिक्षा का भाव ही नहीं है। लेकिन फिर भी भक्त हाथ तो पसारता है। मांगना नहीं चाहता, मांगता भी नहीं; पर हाथ तो फैलाता है, झुकता तो है। और ऐसा भी नहीं कि भक्त पाता नहीं, भक्त खूब पाता है। जितना भक्त पाता है, कोई भी नहीं पाता।

जो बिना मांगे हाथ पसार दे, अहोभाग्य हैं उसके! क्योंकि मांग नहीं होगी, तो सारा ब्रह्मांड उपलब्ध हो जाएगा, सब उपलब्ध हो जाएगा। बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून। भिखारी को कुछ भी नहीं मिलता। भिखारी को तो कहा जाता है, आगे बढ़ों। सम्राटों को मिलता है। जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।

प्रेम को उगाओ। अगर तुम्हारे पास प्रेम है तो और मिलेगा तुम्हें। मांगों मत, मांगने की जरूरत नहीं है, प्रेम के पीछे अपने आप साम्राज्य चले आते हैं। प्रेम के पीछे अपने आप सब चला आता है।

जीसस ने कहा है, पहले तुम प्रभु के राज्य को खोज लो और पीछे सब अपने आप चला आता है। सब, किसी और चीज को अलग अलग खोजने की जरूरत नहीं है।

भक्ति के पीछे आता प्रसाद। 

किसी वासना से, किसी हेतु से, किसी कारण से प्रार्थना मत करना। नहीं तो प्रार्थना पहले से ही तुमने गलत कर दी। प्रार्थना करना प्रार्थना के सहज आनंद के लिए। नाचना, डोलना, मस्त होना, मदमस्त होना, मगर सहज आनंद के लिए। यहां हजारों लोग आते, ध्यान करते, नाचते आनंदित होते; उनमें से वे ही पाते हैं, जो अकारण नाचते। यह रोज रोज घटते देखता हूं। प्रकरणाच्च। इसके प्रकरण ही प्रकरण यहां फैले हुए हैं। मिलता उन्हीं को, जो मांगते ही नहीं, जिन्हें मांगने का भाव ही नहीं है। जो कहते हैं गीत में तल्लीन हो जाना, संगीत में डूब जाना, और क्या चाहिए! नाच लिए क्षणभर कों सारा अस्तित्व नाच रहा है, चांद तारे नाच रहे हैं, इनको साथ हम भी सम्मिलित हो गए। इस रासलीला में, थोड़ी देर हम भी भागीदार हो गए, और क्या चाहिए! जो ऐसा कहेगा, उसके हाथ में सारा ब्रह्मांड आ जाता है। तुम्हारे हाथ में भी आ सकता है, पसारों; मगर मांगने के लिए मत पसारना। पसारने के आनंद के लिए पसारना।

 ओशो रजनीश प्रवचनों पर आधारित

हरिओम सिंगल 







कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...