गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 26

 


 भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्

सुहृदं सर्व भूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। 29।।


और हे अर्जुन! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपों का भोगने वाला, और संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूत प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है।



कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है सर्व लोकों के परमात्मा की भांति! मुझे, कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है। जब हम पढ़ेंगे और कृष्ण कहते हैं, सब लोकों के परमात्मा की भांति! परमात्माओं का भी परमात्मा! जब हम पढ़ते हैं, तो हमें थोड़ी कठिनाई होगी कि कृष्ण स्वयं को सब परमात्माओं का परमात्मा कहते हैं! बड़े अहंकार की बात मालूम पड़ती है! बहुत ईगोइस्ट मालूम पड़ती है। क्योंकि हम मैं का एक ही अर्थ जानते हैं।

हमारा मैं सदा ही तू के विपरीत है। हमारे मैं का एक ही अनुभव है--तू के खिलाफ, तू से भिन्न, तू से अलग। हमारे मैं में तू इनक्लूडेड नहीं है, एक्सक्लूडेड है। कृष्ण जैसे व्यक्ति जब कहते हैं, मैं, तो उनके मैं में सब तू इनक्लूडेड हैं, सब तू सम्मिलित हैं। सब तू इकट्ठे उनके मैं में सम्मिलित हैं।

यह आयाम हमारे लिए नहीं है। इसका हमें कोई परिचय नहीं है। इसलिए कृष्ण पर अनेक लोगों को आपत्ति लगती है कि क्या बात कहते हैं! कहते हैं कि मुझे जो प्रेम करता है सब परमात्माओं के परमात्मा की भांति, वही उपलब्ध होता है मुक्ति को, आनंद को! वही उपलब्ध होता है मोक्ष को, मुझे!


निश्चित ही, हमारे मैं और उनके मैं के उपयोग में कोई अंतर होना चाहिए। हम जब भी कहते हैं मैं, तब वह तू के विपरीत एक शब्द है। जब कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग कहते हैं मैं, तब तू से उसका कोई संबंध नहीं, अनरिलेटेड है। उससे तू से कोई लेना-देना ही नहीं है। इसीलिए इतनी सरलता से कह पाते हैं कि तू छोड़ सब मुझ पर। मुझे कर प्रेम परमात्माओं के परमात्मा की तरह।

अर्जुन संदेह भी नहीं उठाता। अर्जुन के मन में भी तो सवाल उठा होगा। अपना सखा, अपना साथी, सारथी बना हुआ बैठा है! निश्चित ही, स्थिति तो अर्जुन की ही ऊपर थी। रथ में तो वही विराजमान था। कृष्ण तो सिर्फ सारथी थे, अर्जुन के रथ चलाने वाले थे। जहां तक संसार की हैसियत का संबंध है, उस घड़ी में कृष्ण की हैसियत अर्जुन से बड़ी न थी।

अब यह बहुत मजेदार घटना है। जो अपने को कहता है कि मैं परमात्माओं का परमात्मा, वह एक साधारण से अज्ञानी आदमी का सारथी बन जाता है! अहंकारी होता, तो कभी न बनता। एक साधारण से आदमी के रथ के घोड़ों को निकालकर सांझ नदी पर पानी पिला लाता है; सफाई कर लाता है। अहंकारी होता, तो यह संभव न था। अहंकारी कहीं सारथी बने हैं! अहंकारी रथ पर विराजमान होते हैं। अर्जुन भलीभांति जानता है कि अहंकार का तो कोई सवाल ही नहीं है। क्योंकि जो आदमी सारथी की तरह घोड़ों की लगाम लेकर बैठ गया है, उससे ज्यादा निरहंकारी आदमी और कहां खोजने से मिलेगा!

फिर वह सारथी बना हुआ आदमी कह रहा है कि तू मुझे जान कि मैं परमात्माओं का परमात्मा हूं! अर्जुन पहचानता है। कृष्ण की विनम्रता को पहचानता है। इसलिए कृष्ण के अहंकार जैसे शब्द के उपयोग को भी समझ पाता है।

हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी। इसलिए कृष्ण पर बहुत लोगों ने आपत्ति की है कि कृष्ण घोषणा करते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य, सब धर्म छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा--मामेकं शरणं व्रज--आ जा मेरी शरण। यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती है।

जिन्हें ठीक नहीं मालूम पड़ती, वे फिर पुनर्विचार करें। कहीं उन्हें इसलिए तो ठीक नहीं मालूम पड़ती कि उनके अहंकार को बेचैनी होती है--कि हम किसी की शरण में चले जाएं? कृष्ण की शरण में मैं चला जाऊं? नहीं; यह नहीं हो सकता। यह कृष्ण अहंकारी मालूम होता है।

ध्यान रखना, हमारे अहंकार को लगी चोट, हमसे कहलवाती है, रेशनलाइज करवाती है कि कृष्ण अहंकारी हैं। मैं मान लूं इस कृष्ण को कि सारे जगत का परमात्मा है, मैं! यह हम स्वीकार न करेंगे। हम कहेंगे, यह बात नहीं मानी जा सकती। कोई आदमी यह कहे कि मैं परमात्मा हूं, यह तो निपट अहंकार हुआ। अपने अहंकार का खयाल न लेंगे कि अपने अहंकार को चोट लगती है।


यह जिस दिन उन्होंने कहा था, उस दिन जगत का अहंकार बहुत अविकसित था। लोग भोले थे, लोग सरल थे। लोगों के पास अहंकार घना नहीं था। अगर कोई आदमी कहता था कि मैं परमात्मा हूं, तो लोग सोचते थे कि सोचें; शायद होगा! आज अगर कोई कहेगा, मैं परमात्मा! तो लोग कहेंगे, बंद करो पागलखाने में। इलाज करवाना चाहिए।

 कृष्ण को अर्जुन समझ पाया। उसे अड़चन नहीं हुई है। उसने यह सवाल नहीं उठाया कि तुम सारथी होकर, मेरे सारथी हो और कहते हो, परमात्मा! वह समझ पाया कि कृष्ण क्या कह रहे हैं, किस गहरे अर्थ में कह रहे हैं। वह उनकी विनम्रता को जानता है, इसलिए उनके अहंकार का सवाल नहीं उठता।

अगर आज का होता अर्जुन, तो वह कहता, बस; बंद करो बातचीत। तुम्हारी सब विनम्रता, तुम्हारा सारथी होना, तुम्हारा घोड़ों को पानी पिलाना, सब बेकार हो गया। तुम मुझसे कह रहे हो कि तुम परमात्मा हो! लेकिन वह जानता है कि जिसकी इतनी विनम्रता गहरी है, जल्दी नतीजे का कोई कारण नहीं है। और समझा जा सकता है। और अगर कृष्ण कहते हैं, तो उसमें कुछ अर्थ होगा।

जब कृष्ण जैसा व्यक्ति कहता है, मैं की उदघोषणा करता है, तो आपके मैं को विसर्जित करने के लिए; आपका मैं समर्पित हो सके, इसलिए। और जब तक कोई समर्पित न हो, तब तक मुक्त नहीं हो पाता है। समर्पण, सरेंडर मुक्ति है।

और यह बड़े मजे की बात है कि इसके पहले सूत्र में कृष्ण कहते हैं कि तू संकल्प को बड़ा कर, आज्ञा-चक्र को जगा। और ठीक उसके बाद के सूत्र में कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, ऐसा जान।


असल में, जो महा संकल्पवान है, वही समर्पण कर पाता है। जिसके पास संकल्प नहीं है, वह समर्पण भी नहीं कर पाएगा। कमजोरों के लिए संकल्प नहीं है। शक्ति समर्पण बनती है।

गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने में पूर्ण है। 

अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए--समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए। खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में--तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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