गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 4

  

न कर्मणामनारम्भान्र्नैष्कम्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।। ४।।


मनुष्य न तो कर्मों के न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों को त्यागने मात्र से भगवत् साक्षात्कार रूप सिद्धि को प्राप्त होता है।



कर्मों के न करने से निष्कर्म को मनुष्य प्राप्त नहीं होता है और न ही सब कुछ छोड़कर भाग जाने से भगवत् साक्षात्कार को उपलब्ध होता है।

बड़े ही विद्रोही और क्रांतिकारी शब्द हैं। क्या होगा त्यागियों का! क्या होगा भागने वालों का?

कृष्ण कहते हैं, मात्र कर्म को छोड़कर भाग जाने से कोई निष्कर्म को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि निष्कर्म कर्म के अभाव से ज्यादा बड़ी बात है। मात्र कर्म का न होना निष्कर्म नहीं है। निष्कर्म और भी बड़ी घटना है।

जैसे कि बीमारी का न होना स्वास्थ्य नहीं है; स्वास्थ्य और बड़ी घटना है। ऐसा हो सकता है कि आदमी बिलकुल बीमार न हो और बिलकुल स्वस्थ न हो। सब तरह की जांच-परख कहे कि कोई बीमारी नहीं है और आदमी बिलकुल ही स्वस्थ न हो। बीमारी का न होना मात्र, स्वास्थ्य नहीं है। और मात्र कर्मों को छोड़कर भाग जाने से निष्कर्म उपलब्ध नहीं होता। क्यों?

तो निष्कर्म की व्याख्या कृष्ण की समझनी पड़ेगी। क्योंकि आमतौर से हम अब तक कर्म के न करने को निष्कर्म समझते रहे हैं; निष्क्रियता को निष्कर्म समझा है। निष्क्रियता निष्कर्म नहीं है। तब तो आलसी भी निष्कर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। तब तो मुरदे भी निष्कर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। तब तो पत्थर इत्यादि परमात्म- साक्षात्कार में ही होंगे।


निष्कर्म नहीं, लेकिन कर्म कर्तारहित निष्कर्म बनता है। कर्म, जहां भीतर करने वाला मैं मौजूद नहीं है, निष्कर्म बनता है। निष्कर्म कर्म का अभाव नहीं, कर्ता का अभाव है--नाट एब्सेंस आफ डूइंग, बट एब्सेंस आफ दि डुअर, वह जो करने वाला है।

कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अगर तू यह छोड़ दे कि तू कर रहा है, तो तेरा कोई कर्म कर्म नहीं है, सब निष्कर्म हो जाता है। अगर तू यह पकड़े रहे कि मैं कर रहा हूं, तो तू कर्म से भाग भी जा, तो भागना भी तेरा कर्म बन जाता है।

भागना भी कर्म है, भागना भी तो पड़ेगा। त्यागना भी तो कर्म है, त्यागना भी तो पड़ेगा। जहां कर्ता मौजूद है, जहां लग रहा है कि मैं कर रहा हूं, वहां कर्म मौजूद है, चाहे वह करना आलस्य ही क्यों न हो, चाहे वह करना न-करना ही क्यों न हो। लेकिन जहां लग रहा है कि मेरे करने का कोई सवाल ही नहीं, परमात्मा कर रहा है; जो है, वह कर रहा है, सारा जीवन कर रहा है; जहां मैं एक हवा में डोलते हुए पत्ते की तरह हूं, जहां मैं नहीं डोल रहा, हवा डोल रही है; जहां मैं एक सागर की लहर की तरह हूं, मैं नहीं लहरा रहा, सागर लहरा रहा है; जहां मेरा मैं नहीं--वहां निष्कर्म है। निष्क्रियता नहीं, निष्कर्म।

कर्म होगा, फिर भी कर्म का जो उत्पात है, वह नहीं होगा। कर्म होगा, लेकिन कर्म की जो चिंता और संताप है, वह नहीं होगा। कर्म होगा, लेकिन कर्म के साथ जो विफलता और सफलता का रोग है, वह नहीं होगा। कर्म होगा, लेकिन कर्म के पीछे वह जो महत्वाकांक्षा का ज्वर है, बुखार है, वह नहीं होगा। कर्म होगा, लेकिन कर्म के पीछे वह जो फलाकांक्षा की विक्षिप्तता है, वह नहीं होगी। और तब कर्म फूल की तरह आनंददायी हो जाता है; तब उस पर कोई वजन नहीं रह जाता; तब कर्म फूल की तरह खिलता है। तब करने वाला मौजूद नहीं होता; तब कर्म का आनंद ही और हो जाता है; तब वह परमात्मा को समर्पित हो जाता है।

कृष्ण कह रहे हैं कि कर्म को छोड़कर तू अगर भाग गया, तो तू यह मत समझना कि तू निष्कर्म को उपलब्ध हो गया है। क्योंकि जो निष्कर्म को उपलब्ध होता है, वह कर्म को छोड़कर क्यों भागेगा! वह स्वीकार कर लेगा, जो नियति है, जो डेस्टिनी है, जो हो रहा है, उसे स्वीकार कर लेगा।

दूसरी बात वे कहते हैं कि चीजों को त्यागकर, छोड़कर कोई अगर सोचता हो कि संसार को त्यागकर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाए, तो जरूरी नहीं है। ऐसा नहीं होता है। परमात्मा का साक्षात्कार किसी भी सौदे से नहीं होता है। कि आपने ये-ये चीजें छोड़ दीं, तो परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, कुछ त्याग देने से परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो जाता।

परमात्मा का साक्षात्कार बात ही अलग है। वह त्याग से फलित नहीं होती है। हां, ऐसा हो सकता है कि परमात्मा के साक्षात्कार से त्याग फलित हो जाए। ऐसा होता है। क्योंकि जब कोई उस विराट को जान लेता है, तो क्षुद्र को पकड़ने को राजी नहीं रहता। जब किसी को हीरे मिल जाते हैं, तो कंकड़-पत्थर छोड़ता है। त्याग से परमात्मा मिलता है, ऐसा नहीं; लेकिन परमात्मा से अक्सर त्याग फलित होता है। क्योंकि परमात्मा महाभोग है, वह परम रस है।

कृष्ण यहां एक बहुत ही कैटेगोरिकल वक्तव्य, एक बहुत निश्चयात्मक वक्तव्य दे रहे हैं। वह वक्तव्य बहुत कीमती है। उस वक्तव्य पर पूरे जीवन का यहां से वहां होना निर्भर है। वह वक्तव्य यह है कि कर्म नहीं छोड़ना है। छोड़ा भी नहीं जा सकता। जीते-जी कर्म को छोड़ने का कोई उपाय भी नहीं है।

संन्यासी भी कर्म करेगा ही! दुकान नहीं चलाएगा, तो भीख मांगेगा। फर्क क्या पड़ता है? भीख मांगना कोई कम कर्म है दुकान करने से? उतना ही कर्म है। घर नहीं बनाएगा, आश्रम बनाएगा। घर छोड़कर आश्रम बनाना कोई कम कर्म है? उतना ही कर्म है।

कर्म से भागा नहीं जा सकता। जब कर्म से भागा ही नहीं जा सकता, तो कर्म से भागना सिर्फ हिपोक्रेसी में ले जाएगा, पाखंड में ले जाएगा। जो असंभव है, उसे करने की कोशिश पाखंड पैदा करती है। अगर अर्जुन भाग भी जाए युद्ध के मैदान को छोड़कर, तो करेगा क्या? कुछ तो करेगा। वह जो भी करेगा, वह भी कर्म है। कर्म से नहीं भागा जा सकता। तो फिर क्या कोई उपाय नहीं है?

कृष्ण एक नया द्वार, एक नया डायमेंशन, एक नया आयाम खोलते हैं। वे कहते हैं, कर्म जारी रखो, कर्ता से भाग जाओ। कृष्ण मनुष्य के व्यक्तित्व में बड़ी गहरी क्रांति की बात कहते हैं। वे कहते हैं, कर्म जारी रखो। वह असंभव है, उससे जाया नहीं जा सकता; लेकिन कर्ता से जाया जा सकता है। कर्म को चलने दो, कर्ता को जाने दो। भीतर से कर्ता को छोड़ो, यह छोड़ो कि मैं कर रहा हूं।

इसलिए कृष्ण बार-बार गीता में अर्जुन को कहते हैं कि जिन्हें तू सोचता है कि तू मारेगा, मैं तुझे कहता हूं कि वे पहले ही मारे जा चुके हैं। जिन्हें तू सोचता है कि तेरे कारण मरेंगे, तू नासमझ है, तू मात्र निमित्त है, वे तेरे बिना भी मरेंगे। पूरे समय वे यह कह रहे हैं कि तू एक खयाल छोड़ दे कि तू करने वाला है। और अर्जुन की परेशानी यही है, उसे लग रहा है कि करने वाला मैं हूं। अगर मैं भाग जाऊं, तो युद्ध बच जाए।

यह जरूरी नहीं है। अर्जुन अकेला नहीं है। अर्जुन के भागने से भी युद्ध बच जाएगा, यह जरूरी नहीं है। युद्ध अनंत कारणों पर निर्भर है।


युद्ध इतना विराट जाल है कि वह कोई अर्जुन यह सोचता हो कि मेरे भाग जाने से हट जाएगा, बहुत अहंकारी है। सोच रहा है, मेरी वजह से ही यह इतना बड़ा विराट युद्ध हो रहा है!


कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू यह पागलपन छोड़ कि तेरी वजह से कुछ हो रहा है। वजह बड़ी है। विराट है जाल उसका। उस विराट जाल को ही नियति  कहते हैं। जो एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है। अनंत-अनंत कारणों के जाल पर जो निर्भर है। उससे हो रहा है। इसलिए तू यह पागलपन छोड़ कि तेरे हट जाने से कोई युद्ध नहीं होगा, कि तेरे होने से युद्ध हो रहा है। तू नहीं भी हो, तो भी हो जाएगा। क्योंकि तू बहुत छोटा पुर्जा है। तेरे बिना हो सकता है। शायद पुर्जा भी नहीं है। क्योंकि जिसने तुझे पुर्जा चुना है, वह किसी दूसरे को भी पुर्जा चुन सकता है। और तुझसे तो पूछकर चुना नहीं है उसने, दूसरे को भी बिना पूछे चुन लेगा।

कर्ता होने का खयाल अगर गिर जाए और व्यक्ति देखे कि अनंत नियमों के जाल में जीवन चलता है। एक धारा है, जो बही जा रही है; उसमें हम तिनकों-से बहते हैं--तिनके। हम बहते हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं। धारा बहती है। हम तो तिनके हैं, हम क्या खाक बहते हैं! धारा बहती है, हम सिर्फ धारा में होते हैं। धारा पूरब बहती है, तो हम पूरब बहते हैं; धारा पश्चिम बहती है, तो हम पश्चिम बहते हैं।

कृष्ण का सारा जोर इस बात पर है कि तू यह भूल जा कि तू करने वाला है और फिर कर्म को होने दे; और फिर मैं तुझे विश्वास दिलाता हूं कि फिर कोई कर्म नहीं छूता।

पाप नहीं छूता, पाप का कर्ता होना छूता है। पुण्य नहीं छूता, पुण्य का कर्ता होना छूता है। अगर ठीक से समझें, आध्यात्मिक अर्थों में समझें, तो करने का खयाल एकमात्र पाप है। कर्ता का बोध एकमात्र पाप है। ओरिजिनल सिन अगर किसी चीज को कहें, मूल पाप, तो कर्ता का खयाल कि मैं कर रहा हूं।

लेकिन सोचने जैसा है। इधर कृष्ण तो कहते हैं अर्जुन को कि कर्ता एक ही है, परमात्मा। तू छोड़। अठारहवीं सदी के बाद सारी दुनिया में हमने परमात्मा को हटाने की कोशिश की है। कास्मिक आर्डर से, एक जगत की व्यवस्था से हमने कहा कि तुम रिटायर हो जाओ। परमात्मा को कहा कि आप छोड़ो। बहुत दिन हो गए, आप हटो। आदमी को कर्ता बनने दो!

ध्यान रहे, परमात्मा को अगर हम हटा दें जगत के खयाल से--जगत से तो नहीं हटा सकते, अपने खयाल से हटा सकते हैं--हटा दें, तो आदमी कर्ता हो जाता है। क्या आपने कभी यह सोचा कि जिन-जिन समाजों में आदमी कर्ता हो गया और परमात्मा कर्ता नहीं रहा, वहां मानसिक तनाव अपनी अति पर पहुंच गए हैं! वहां चिंता भयंकर हो गई है! वहां चित्त एकदम विक्षिप्त होने की हालत में पहुंच गया है! क्योंकि सारा बोझ मेरे मैं पर पड़ गया है। दुनिया चल रही है मेरे मैं पर; मैं हो गया है सेंटर।

आज पश्चिम की सारी सभ्यता मैं पर खड़ी है। इसलिए बड़ी पीड़ा है। न रात नींद है, न दिन चैन है। कहीं कोई शांति नहीं; कहीं कोई अर्थ नहीं; सब बेबूझ हो गया है। लेकिन एक बात खयाल में नहीं आती है कि जिस दिन से आदमी कर्ता बनने के खयाल में पड़ा है, उस दिन से चिंता उसने पुकार ली है।

अर्जुन भी चिंता में पड़ गया है। चिंता पैदा ही कर्ता होने के खयाल से पैदा होती है; कर्म से चिंता नहीं होती। आप कितना ही कर्म करें, कर्म चिंता नहीं लाता। और जरा-सा भी कर्ता बने कि चिंता आनी शुरू हो जाती है। एंग्जाइटी जो है, वह कर्ता की छाया है। अर्जुन बड़ा चिंतित है। उसकी सारी चिंता एक बात से है कि वह सोच रहा है, मैं मारने वाला हूं, मैं न मारूं तो ये न मरेंगे। मैं अगर युद्ध न करूं, तो युद्ध बंद हो जाएगा, शांति छा जाएगी। उसे ऐसा लग रहा है कि वही निर्णायक है। कोई निर्णायक नहीं है, समष्टि निर्णायक है; नियति निर्णायक है।

इसलिए कृष्ण उसको कहते हैं कि तू कर्ता को छोड़ और कर्म को चलने दे। निष्पाप बताकर उसे, वे जो दूसरी बात कहते हैं, वह निष्पाप में ले जाने वाली है। पहले उसे कहते हैं, तू निष्पाप है। और फिर वे जो दूसरा वक्तव्य देते हैं, वह समस्त पापों के बाहर ले जाने वाला है। वे निष्पाप कहकर चुप नहीं हो जाते, वे निष्पाप बनाने के लिए राह भी देते हैं। आश्वासन देकर मान नहीं लेते कि बात समाप्त हो गई। बात सिर्फ शुरू हुई है। और आदमी पूर्ण निष्पाप उसी दिन होता है, जिस दिन पूर्ण अकर्ता हो जाता है। कर्म नहीं बांधते, कर्ता बांध लेता है। कर्म नहीं छोड़ते, कर्ता छूट जाए तो छूटना हो जाता है।

ठीक उसके साथ ही दूसरी बात उन्होंने कही, त्याग नहीं साक्षात्कार को ले जाता है।

क्यों नहीं ले जाता है त्याग साक्षात्कार को? नहीं ले जाता इसलिए कि हम परमात्मा के सामने सौदे की हालत में खड़े नहीं हो सकते, बारगेनिंग नहीं हो सकती, खरीद-फरोख्त नहीं हो सकती। त्याग नहीं, समर्पण।


त्यागी कभी समर्पित नहीं होता। त्यागी आदमी कभी समर्पण नहीं करता। वह तो कहता है कि मेरे पास कारण है कि मैंने इतना छोड़ा, अब मुझे मिलना चाहिए। समर्पण तो वह करता है, जो कहता है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं जो दावा कर सकूं कि मुझे मिलना चाहिए। मैं तो सिर्फ प्रार्थना कर सकता हूं, मैं तो सिर्फ चरणों में सिर रख सकता हूं। मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है।

समर्पण वह करता है, जिसके खयाल में यह बात आ जाती है कि मैं असहाय हूं, टोटल हेल्पलेस हूं। मैं बिलकुल, मेरे पास कुछ भी नहीं है परमात्मा को देने को। रो सकता हूं, चिल्ला सकता हूं, पुकार सकता हूं; दे तो कुछ भी नहीं सकता। जो इतना दीन, इतना दरिद्र, इतना असहाय, इतना बेसहारा पुकारता है, वह समर्पित हो जाता है, वह साक्षात्कार को उपलब्ध हो जाता है।

त्यागी की तो अकड़ होती है, वह बेसहारा नहीं होता। उसके पास तो बैंक बैलेंस होता है त्याग का। कहता है कि यह मेरे पास है, इतना मैंने छोड़ा है--इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने मकान--कहां हो, बाहर निकलो! त्याग पूरा कर दिया है, साक्षात्कार होना चाहिए।

त्यागी के पास तो दंभ होगा ही। त्यागी कभी दंभ के बाहर नहीं हो पाता। हां, उनकी बात दूसरी है, जिनके दंभ के जाने से त्याग फलित होता है। पर उनको त्याग का कभी पता नहीं चलता। उनको पता ही नहीं चलता कि उन्होंने कुछ त्यागा है। अगर आप उनसे कहें कि आपने कुछ त्यागा है? तो वे कहेंगे कि कभी था ही नहीं हमारे पास कुछ, हम त्यागेंगे कैसे! अगर उनसे आप कहें, आपने कुछ छोड़ा है? तो वे कहेंगे, कभी कुछ पकड़ा क्या था? छोड़ेंगे कैसे! खाली हाथ हैं, हमारे पास कुछ है नहीं। हम सिर्फ खाली हाथ ही परमात्मा के चरणों में रखते हैं।

और ध्यान रहे, जो भरे हाथ परमात्मा के सामने जाता है, वह खाली हाथ लौट आता है; और जो खाली हाथ जाता है, उसके हाथ भर दिए जाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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