सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 37

मोह-मुक्ति, आत्मत्तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता—




यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।


और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।





 मोहरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के आस-पास कौन-सा अंधकार है?

एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता है। धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर धर्म किस अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है?

एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता, वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को कृष्ण कह रहे हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो शब्दों को थोड़ा गहरे में समझना उपयोगी है।

अंधकार का लक्षण क्या है? अंधकार का लक्षण है कि दिखाई नहीं पड़ता जहां, जहां देखना खो जाता है, जहां देखना संभव नहीं हो पाता, जहां आंखों पर परदा पड़ जाता है--एक। दूसरा, जहां दिखाई न पड़ने से कोई मार्ग नहीं मालूम पड़ता, कहां जाएं! क्या करें! तीसरा, जहां दिखाई न पड़ने से प्रतिपल किसी भी चीज से टकरा जाने की संभावना हो जाती है। अंधकार हमारी दृष्टि का खो जाना है।

मोह में भी ऐसा ही घटित होता है। इसलिए मोह को अंधकार कहने की सार्थकता है। मोह में जो हम करते हैं, मोह में जो हम होते हैं, मोह में जैसे हम चलते हैं, मोह में जो भी हमसे निकलता है, वह ठीक ऐसा ही है, जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। नहीं कुछ पता होता, क्या कर रहे हैं! नहीं कुछ पता होता, क्या हो रहा है! नहीं कुछ पता होता, कौन-सा रास्ता है! कौन-सा मार्ग है! आंखें नहीं होती हैं। मोह अंधा है। और मोह का अंधापन आध्यात्मिक अंधापन है, स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस है।

सुना है मैंने, एक आदमी के मकान में आग लग गई है। भीड़ इकट्ठी है। वह आदमी छाती पीटकर रो रहा है, चिल्ला रहा है। स्वभावतः, उसके जीवनभर की सारी संपदा नष्ट हुई जा रही है। जिसे उसने जीवन समझा है, वही नष्ट हुआ जा रहा है। जिसके आधार पर वह खड़ा था, वह आधार गिरा जा रहा है। जिसके आधार पर उसके मैं में शक्ति थी, बल था; जिसके आधार पर वह कुछ था, समबडी था, वह सब बिखरा जा रहा है।

जान सोलिज ने एक किताब लिखी है, अरेस्ट्रोस। उसमें कुछ कीमती वचन लिखे हैं। उसमें एक कीमती वचन है, नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। ठीक-ठीक अनुवाद मुश्किल है। कोई भी नहीं चाहता कि ना-कुछ हो। सभी चाहते हैं, समबडी हों, कुछ हों।

उसकी समबडीनेस बिखरी जा रही है, उस आदमी की। वह कुछ था इस मकान के होने से। और जिनका भी कुछ होना किसी और चीज के होने पर निर्भर है, किसी दिन ऐसा ही रुदन, ऐसी ही पीड़ा उन्हें घेर लेती है। क्योंकि वे सब जो बाहर की संपदा पर टिके हैं, किसी दिन बिखरते हैं, क्योंकि बाहर कुछ भी टिकने वाला नहीं है। वह उसी के मकान में आग लग गई हो, ऐसा नहीं, सभी के बाहर के मकानों में आग लग जाती है। असल में बाहर जो भी है, वह आग पर चढ़ा हुआ ही है।

तो छाती पीटता है, रोता है। स्वाभाविक है। फिर पड़ोस में से कोई दौड़ा हुआ आता है और कहता है, व्यर्थ रो रहे हो तुम। तुम्हारे लड़के ने मकान तो कल बेच दिया। उसका बयाना भी हो गया है। क्या तुम्हें पता नहीं? बस, आंसू तिरोहित हो गए। उस आदमी का छाती पीटना बंद हो गया। जहां रोना था, वहां वह हंसने लगा, मुस्कुराने लगा। सब एकदम बदल गया।

अभी भी आग लगी है, मकान जल रहा है; वैसा ही जैसा क्षणभर पहले जलता था। फर्क कहां पड़ गया? मकान अब मेरा नहीं रहा, अपना नहीं रहा। मोह का जो जोड़ था मकान से, वह टूट गया है। अब भी मकान में आग है, लेकिन अब आंख में आंसू नहीं हैं। आंख में जो आंसू थे, वे मकान के जलने की वजह से थे? वह मकान अब भी जल रहा है। आंख में जो आंसू थे, वे मेरे के जलने की वजह से थे। मेरा अब नहीं जल रहा है, आंखें साफ हो गई हैं। अब आंसुओं की परत आंख पर नहीं है। अब उस आदमी को ठीक-ठीक दिखाई पड़ रहा है। अभी उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।

उधर आग की लपटें थीं, तो इधर आंख में भी तो आंसू थे, सब धुंधला था, सब अंधेरा था। अब तक उसके हाथ-पैर कंपते थे, अब हाथ-पैर का कंपन चला गया। अब वह आदमी ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे और लोग हैं। और कह रहा है, ठीक; जो हो गया, ठीक है।

तभी उसका लड़का दौड़ा हुआ आता है। और वह कहता है, बात तो हुई थी, लेकिन बयाना नहीं हो पाया। बेचने की बात चली थी, लेकिन हो नहीं पाया। और अब इस जले हुए मकान को कौन खरीदने वाला है!

फिर आंसू वापस लौट आए; फिर छाती पीटना शुरू हो गया। मकान अब भी वैसा ही जल रहा है! मकान को कुछ भी पता नहीं चला कि इस बीच सब बदल गया है। सब फिर बदल गया है। मोह फिर लौट आया है। आंखें फिर अंधी हो गई हैं। फिर मेरा जलने लगा है।

इस जीवन में मोह ही जलता है, मोह ही चिंतित होता है, मोह ही तनाव से भरता है, मोह ही संताप को उपलब्ध होता है, मोह ही भटकाता है, मोह ही गिराता है। मोह ही जीवन का दुख है।
इसे कृष्ण मोह कह रहे हैं। बुद्ध ने इसे तृष्णा कहा है, तनहा कहा है। इसे कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके भीतरी रहस्य में एक गुण है, और वह यह कि जो मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होने लगता है। मोह की जो हिप्नोसिस है, मोह का जो सम्मोहन है, वहां जो मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होने लगता है; और जो मेरा है, उसका कुछ पता ही नहीं चलता।

मोह के अंधकार का जो गुणधर्म है, वह यह है कि जो मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होता है। और जो मेरा है, वह मेरा नहीं मालूम होता है। एक रिवर्सन, एक विपर्यय हो जाता है। चीजें सब उलटी हो जाती हैं।

मकान मेरा कैसे हो सकता है? मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं रहूंगा, तब भी रहेगा। जमीन मेरी कैसे हो सकती है? मैं नहीं था, तब भी थी। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगी। और जमीन को बिलकुल पता नहीं है कि मेरी है। और मेरा मोह एक सम्मोहन का जाल फैला लेता है--मेरा बेटा है, मेरी पत्नी है, मेरे पिता हैं, मेरा धर्म है, मेरा धर्मग्रंथ है, मेरा मंदिर है, मेरी मस्जिद है--मैं के आस-पास एक बड़ा जाल खड़ा हो जाता है। वह जो मैं का फैलाव है, वही मोह का अंधकार है।

असल में मैं जो है, उसे ठीक ऐसा समझें कि वह अंधेरे का दीया है। जैसे दीए से रोशनी गिरती है, ऐसे मैं से अंधकार गिरता है। जैसे दीया जलता है, तो प्रकाश हो जाता है; ऐसे मैं जलता है, तो अंधकार हो जाता है। जितना सघन मैं, उतनी डार्कनेस, उतना निबिड़ अंधकार चारों ओर फैलता चला जाता है। जो आदमी मैं में ही जीता है, वह अंधकार में जीता है--मोह-निशा में।

तो कृष्ण कहते हैं, इस मोह की कालिमा से जो मुक्त हो जाता है, वैसा व्यक्ति वैराग्य को उपलब्ध होता है। लेकिन कृष्ण जिसे वैराग्य कहते हैं, हम आमतौर से उसे वैराग्य नहीं कहते हैं। इसलिए इस बात को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।

हम तो वैराग्य जिसे कहते हैं, वह राग की विपरीतता को कहते हैं। विपरीत राग को कहते हैं वैराग्य, हम जिसे वैराग्य कहते हैं। मकान मेरा है, ऐसा जानना राग है--हमारी बुद्धि में। मकान मेरा नहीं है, ऐसा जानना वैराग्य है--हमारी बुद्धि में। लेकिन मेरा है या मेरा नहीं है, ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। कृष्ण इसे वैराग्य नहीं कहते। यह विपरीत राग है। यह राग से मुक्ति नहीं है। नहीं, मेरा नहीं है।

रामतीर्थ अमेरिका से वापस लौटे, टेहरी गढ़वाल में मेहमान थे। उनकी पत्नी मिलने आई। खिड़की से देखा पत्नी को आते हुए, तो खिड़की बंद करके द्वार बंद कर लिया। एक मित्र साथ ठहरे हुए थे, सरदार पूर्ण सिंह। उन्होंने कहा, दरवाजा क्यों बंद करते हैं? क्योंकि मैंने आपको किसी भी स्त्री के लिए कभी दरवाजा बंद करते नहीं देखा! पूर्ण सिंह जानते हैं कि जो आ रही है, उनकी पत्नी है--या थी। रामतीर्थ ने कहा, वह मेरी कोई भी नहीं है। पर पूर्ण सिंह ने कहा कि और भी जो स्त्रियां आती हैं, वे भी आपकी कोई नहीं हैं। लेकिन उन और कोई नहीं स्त्रियों के लिए कभी द्वार बंद नहीं किया! नहीं, यह स्त्री जरूर आपकी कोई है--विशेष आयोजन करते हैं, द्वार बंद करते हैं! रामतीर्थ ने कहा, वह मेरी पत्नी थी; लेकिन मेरी कोई पत्नी नहीं है। पूर्ण सिंह ने कहा, अगर वह पत्नी नहीं है, तो उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें, जैसा किसी भी स्त्री के साथ करते हैं। द्वार खोलें!

यह व्यवहार विशेष है; यह विपरीत राग का व्यवहार है। एक भ्रम था कि मेरी पत्नी है, अब एक भ्रम है कि मेरी पत्नी नहीं है। लेकिन अगर पहला भ्रम गलत था, तो दूसरा भ्रम सही कैसे हो सकता है? वह पहले पर ही खड़ा है; वह पहले का ही एक्सटेंशन है; वह उसी का विस्तार है।

पहला भ्रम तो हमारी समझ में आ जाता है। दूसरा भ्रम विरागी का भ्रम है--संन्यासी का, त्यागी का--वह जरा हमारी समझ में मुश्किल से आता है। लेकिन साफ है बात कि यह पत्नी विशेष है, यह साधारण नहीं है। इस स्त्री के प्रति रामतीर्थ की कोई दृष्टि है। किसी दिन रामतीर्थ ने इस स्त्री के लिए उठकर द्वार खोला होता, अब उठकर द्वार बंद कर रहे हैं। लेकिन इस स्त्री के लिए उठते जरूर हैं। किसी दिन द्वार खोलने उठे होते, अपनी पत्नी है; आज द्वार बंद करने उठे हैं, अपनी पत्नी नहीं है। लेकिन द्वार तक रामतीर्थ को उठना पड़ता है; वैराग्य नहीं है।

पूर्ण सिंह ने कहा कि अगर आप द्वार नहीं खोलते हैं, तो मैं नमस्कार करता हूं। मेरे लिए आपका सब ब्रह्मज्ञान व्यर्थ हो गया। मैं जाता हूं। यह कैसा ब्रह्मज्ञान है! क्योंकि किसी स्त्री से आपने नहीं कहा अब तक रुकने के लिए। सभी स्त्रियों में ब्रह्म दिखाई पड़ा। आज इस स्त्री में कौन-सा कसूर हो गया है कि ब्रह्म नहीं है!
रामतीर्थ को भी चुभी बात; खयाल में पड़ी। द्वार तो खोल दिया। लेकिन विचारशील व्यक्ति थे। यह तो दिखाई पड़ गया कि वैराग्य फलित नहीं हुआ है। क्योंकि वैराग्य का अर्थ ही यह है कि जहां न राग रहा हो, न विराग रहा हो। वैराग्य भी न रहा हो, वहीं वैराग्य है। मोह की निशा पूरी ही खो गई हो। मेरा खो गया हो, मेरा नहीं है, यह भी खो गया हो। जहां वैराग्य भी नहीं है, वहीं वैराग्य है।

रामतीर्थ को भी दिखाई तो पड़ गया। समझ में तो आ गया। उसी दिन उन्होंने गेरुए वस्त्र छोड़ दिए। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि रामतीर्थ ने जिस दिन जल-समाधि ली, उस दिन वे गेरुए वस्त्र नहीं पहने हुए थे। उस दिन उन्होंने साधारण वस्त्र पहन लिए थे। क्योंकि यह उनको भी यह साफ हो गया था कि यह वैराग्य नहीं है।

वैराग्य का अर्थ, जहां न राग रह गया, न विराग रह गया। न जहां किसी चीज का आकर्षण है, न विकर्षण है; न अट्रैक्शन है, न रिपल्शन है। जहां न किसी चीज के प्रति खिंचाव है, न विपरीत भागना है। न जहां किसी चीज का बुलावा है, न विरोध है। जहां व्यक्ति थिर हुआ, सम हुआ; जहां पक्ष और विपक्ष एक से हो गए, वहां वैराग्य फलित होता है।

लेकिन इसे विराग क्यों कहते हैं? वैराग्य क्यों कहते हैं? क्योंकि जहां वैराग्य भी नहीं है, वहां वैराग्य क्यों कहते हैं? कोई उपाय नहीं है। शब्द की मजबूरी है, और कोई बात नहीं है। आदमी के पास सभी शब्द द्वंद्वात्मक हैं, डायलेक्टिकल हैं। आदमी की भाषा में ऐसा शब्द नहीं है जो नान-डायलेक्टिकल हो, द्वंद्वात्मक न हो। मनुष्य ने जो भाषा बनाई है, वह मन से बनाई है। मन द्वंद्व है। इसलिए मनुष्य जो भी भाषा बनाता है, उसमें विपरीत शब्दों में भाषा को निर्मित करता है।

बड़े मजे की बात है कि हमारी भाषा बन ही नहीं सकती विपरीत के बिना। क्योंकि बिना विपरीत के हम परिभाषा नहीं कर सकते, डेफिनीशन नहीं कर सकते। अगर कोई आपसे पूछे कि अंधेरा यानी क्या? तो आप कहते हैं, जो प्रकाश नहीं है। बड़ी सर्कुलर डेफिनीशन है। कोई पूछे, प्रकाश यानी क्या? तो आप कहते हैं, जो अंधेरा नहीं है। न आपको अंधेरे का पता है कि क्या है, न प्रकाश का पता है कि क्या है। अंधेरे को जब पूछते हैं, क्या है? तो कह देते हैं, प्रकाश नहीं है। और जब पूछते हैं, प्रकाश क्या है? तो कह देते हैं, अंधेरा नहीं है। यह कोई परिभाषा हुई? यह कोई डेफिनीशन हुई? परिभाषा तो तभी हो सकती है, जब कम से कम एक का तो पता हो!

मैंने सुना है, एक आदमी एक अजनबी गांव में गया। उसने पूछा कि अ नाम का आदमी कहां रहता है? तो लोगों ने कहा, ब नाम के आदमी के पड़ोस में। पर उसने कहा, मुझे ब का भी कोई पता नहीं, ब कहां रहता है? उन्होंने कहा, अ के पड़ोस में। पर उसने कहा कि इससे कुछ हल नहीं होता, क्योंकि न मुझे अ का पता है, न ब का पता है। मुझे ठीक-ठीक बताओ, अ कहां रहता है? उन्होंने कहा, ब के पड़ोस में। लेकिन ब कहां रहता है? उन्होंने कहा, अ के पड़ोस में।

आदमी से पूछो, चेतना क्या है? वह कहता है, पदार्थ नहीं। उससे पूछो, पदार्थ क्या है? वह कहता है, चेतना नहीं। माइंड क्या है? मैटर नहीं। मैटर क्या है? माइंड नहीं। बड़े से बड़ा दार्शनिक भी इसको परिभाषा कहता है, इसको डेफिनीशन कहता है। यह डेफिनीशन हुई? धोखा हुआ, डिसेप्शन हुआ--परिभाषा न हुई। क्योंकि इसमें से एक का भी पता नहीं है।

लेकिन आदमी को कुछ भी पता नहीं है, काम तो चलाना पड़ेगा। इसलिए आदमी बेईमान शब्दों को रखकर काम चलाता है। उसके सब शब्द डिसेप्टिव हैं। उसके किसी शब्द में कोई भी अर्थ नहीं है। क्योंकि अपने शब्द में वह जिस शब्द से अर्थ बताता है, उस शब्द में भी उसको कोई अर्थ नहीं है। उसकी सब परिभाषाएं सर्कुलर हैं, वर्तुलाकार हैं। वह कहता है, बाएं यानी क्या! वह कहता है, दाएं जो नहीं है। और दाएं? वह कहता है, बाएं नहीं। लेकिन इनमें से किसी का पता है कि बायां क्या है?

यह आदमी की भाषा डायलेक्टिकल है। डायलेक्टिकल का मतलब यह कि जब आप पूछें अ क्या, तो वह ब की बात करता है; जब पूछें ब क्या, तो वह अ की बात करने लगता है। इससे भ्रम पैदा होता है कि सब पता है। पता कुछ भी नहीं है; सिर्फ शब्द पता हैं। लेकिन बिना शब्दों के काम नहीं चल सकता। राग है तो विराग है। लेकिन तीसरा शब्द कहां से लाएं? और तीसरा शब्द ही सत्य है। वह कहां से लाएं?

महावीर कहते हैं, वीतराग। लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। वीतराग का भी मतलब राग के पार हो जाना, बियांड अटैचमेंट होता है। विराग का भी मतलब वही होता है कि राग के बाहर हो जाना। कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कोई भी शब्द बनाएंगे, वह किसी शब्द के विपरीत होगा। वह तीसरा नहीं होता, वह हमेशा दूसरा ही होता है। और सत्य तीसरा है। इसलिए दूसरे शब्द को कामचलाऊ रूप से उपयोग करते हैं। कृष्ण भी कामचलाऊ उपयोग कर रहे हैं।

इसलिए वैराग्य का अर्थ राग की विपरीतता मत समझ लेना। वैराग्य का अर्थ है, द्वंद्व के पार, राग और विराग के पार जो हो गया, जिसे न अब कोई चीज आकर्षित करती है, न विकर्षित करती है। क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। वह सिर के बल खड़ा हो गया आकर्षण है। और मोह की अंध-निशा टूटे तो। शर्त साफ है। वैराग्य को कौन उपलब्ध होता है? मोह की अंध-निशा टूटे तो, मोह की कालिमा बिखरे तो।

लेकिन हम क्या करते हैं? हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ अमोह को साधने लगते हैं। हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ, विरोध में अमोह को साधने लगते हैं। हम कहते हैं, घर में मोह है, तो घर छोड़ दो, जंगल चले जाएं। लेकिन जिस आदमी में मोह था, आदमी में था कि घर में था?

अगर घर में मोह था, तो आदमी चला जाए तो मोह के बाहर हो जाएगा। अगर घर मोह था। लेकिन घर को कोई भी मोह नहीं है आपसे, मोह आपको है घर से। और आप भाग रहे हैं और घर वहीं का वहीं है। आप जहां भी जाएंगे, मोह वहीं पहुंच जाएगा। वह आपके साथ चलेगा, वह आपकी छाया है। फिर आश्रम से मोह हो जाएगा--मेरा आश्रम। क्या फर्क पड़ता है? मेरा घर, मेरा आश्रम--क्या फर्क पड़ता है? मेरा बेटा, मेरा शिष्य--क्या फर्क पड़ता है? मोह नया इंतजाम कर लेगा, मोह नई गृहस्थी बसा लेगा।

यह बड़ी मजेदार बात है कि गृह का अर्थ घर से नहीं है। गृह का अर्थ उस मोह से है, जो घर को बसा लेता है, दैट व्हिच बिल्ट्स दि होम। होम से मतलब नहीं है गृह का; उससे मतलब है, जो घर को बनाता है। वह कहीं भी घर को बना लेगा। वह झाड़ के नीचे बैठेंगे, तो मेरा हो जाएगा। महल होगा, तो मेरा होगा। लंगोटी होगी, तो मेरी हो जाएगी। और मेरे को कोई दिक्कत नहीं आती कि बड़ा मकान हो कि छोटा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे का आयतन कितना है, इससे मेरे के होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा, आयतन पर निर्भर नहीं है।

इसे ऐसा समझें, एक आदमी दो लाख रुपए की चोरी करे और एक आदमी दो पैसे की चोरी करे, तो क्या आप समझते हैं कि दो पैसे की चोरी छोटी चोरी है और दो लाख रुपए की चोरी बड़ी चोरी है? आयतन बड़ा है, चोरी बराबर है। दो लाख की चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी दो पैसे की चोरी है। क्योंकि चोरी करने में जो भी घटना घटती है, वह दो पैसे में भी घट जाती है, दो लाख में भी घट जाती है। चोर तो आदमी हो ही जाता है दो पैसे में उतना ही, जितना दो लाख में। हां, अदालत दो पैसे के चोर को छोटा चोर कहे, दो लाख के चोर को बड़ा चोर कहे, सजा कम-ज्यादा करे, वह बात अलग है। क्योंकि अदालत को चोरी से मतलब नहीं है, दो लाख से मतलब है। अदालत क्वांटिटी पर जीती है।

धर्म का क्वांटिटी से, परिमाण से कोई संबंध नहीं। धर्म का क्वालिटी से संबंध है, गुण से संबंध है। धर्म कहेगा, दो पैसे की चोरी या दो लाख की चोरी, बराबर चोरी है। इसमें कोई फर्क नहीं। गणित में होगा फर्क, धर्म में कोई भी फर्क नहीं है। धर्म के लिए चोरी हो गई। आदमी चोर है।

सच तो यह है कि धर्म को और थोड़ा गहरे में उतरें, तो अगर दो लाख और दो पैसे की चोरी में कोई फर्क नहीं है, तो दो लाख की चोरी और चोरी करने के विचार में भी कोई फर्क हो सकता है? धर्म के लिए कोई फर्क नहीं है। चोरी की या चोरी करने का विचार किया, कोई अंतर नहीं है, बात घटित हो गई। हम जो करते हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। जो हम करने की सोचते हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है।

यह जान सोलिज की जिस किताब का मैंने नाम लिया, अरेस्ट्रोस, उसमें उसका एक वचन और है कि आदमी अपने कर्मों से ही नहीं बंधता--सिर्फ कर्मों से नहीं बंधता--बल्कि जो उसने करना चाहा और नहीं किया, उससे भी बंध जाता है।

हम सिर्फ चोरी से ही नहीं बंधते--की गई चोरी से--नहीं की गई चोरी से, सोची गई चोरी से भी उतने ही बंध जाते हैं। की गई चोरी से दूसरे को भी पता चलता है, न की गई चोरी से जगत को पता नहीं चलता, लेकिन परमात्मा को पूरा पता चलता है। क्योंकि परमात्मा से हमारे संबंध भाव के हैं, कृत्य के नहीं। करने के नहीं हैं हमारे संबंध परमात्मा से, करने के संबंध जगत से हैं, समाज से हैं, बाहर से हैं। होने के संबंध हैं हमारे परमात्मा से--बीइंग के, डूइंग के नहीं।

और होने में क्या फर्क पड़ता है? मैंने चोरी की कल्पना की या मैंने चोरी की, इससे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता, चोर मैं हो गया। परमात्मा की तरफ तो चोरी की खबर पहुंच गई कि यह आदमी चोर है। हां, जगत तक खबर नहीं पहुंची। जगत तक खबर पहुंचने में देर लगेगी। जगत तक खबर पहुंचने में चोरी का विचार ही नहीं, चोरी को हाथ का भी सहयोग लेना होगा। जगत तक पहुंचने में भाव ही नहीं, पौदगलिक कृत्य, मैटीरियल एक्ट भी करना होगा। इससे चोरी बढ़ती नहीं, सिर्फ चोरी प्रकट होती है; अनमैनिफेस्ट चोरी मैनिफेस्ट होती है; अव्यक्त चोरी व्यक्त होती है। बस और कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अव्यक्त चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी व्यक्त चोरी है, जहां तक धर्म का संबंध है।

तो यह सवाल नहीं है कि आपके पास कितना बड़ा मकान है, कि मकान नहीं है, झोपड़ा है। यह सवाल नहीं है कि आपके पास करोड़ों रुपए हैं, कि कौड़ियां हैं। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आपके पास मेरा कहने का भाव है या नहीं है।

वही मेरे का भाव मोह की निशा है, मोह का अंधकार है। जब तक आप कह सकते हैं मेरा, चाहे यह मेरा किसी भी चीज से जुड़ता हो--मेरा धर्म--फर्क नहीं पड़ता, मोह की निशा जारी है। आप कह सकते हैं: हिंदू, मुसलमान मेरा; कुरान, बाइबिल, गीता मेरी; मंदिर-मस्जिद मेरा।

हम अजीब लोग हैं। सारी दुनिया के धर्म चिल्लाते हैं कि जिसे परमात्मा को पाना हो, उसे मेरे को छोड़ना पड़ेगा। और हम इतने कुशल हैं कि हम परमात्मा को भी मेरा बना लेते हैं कि मेरा! वह परमात्मा तेरा, यह परमात्मा मेरा।

मैंने सुना है कि किसी गांव में एक बहुत मजेदार घटना घटी। गणेशोत्सव था और गणेश का जुलूस निकल रहा था। लेकिन पूरे गांव के लोगों के हर मोहल्ले के गणेश होते थे। अब गणेश हर मोहल्ले के होते, कोई ब्राह्मणों का गणेश होता, कोई भंगियों का गणेश होता, कोई चमारों का गणेश होता, कोई लोहारों का, कोई तेलियों का। लेकिन नियम था, डिसिप्लिन थी गणेशों की भी एक। और वह यह थी कि ब्राह्मणों का गणेश पहले चलता, फिर उसके बाद किसी का, फिर किसी का; ऐसी प्रोसेशन में व्यवस्था थी।
लेकिन एक वर्ष ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश जरा समय से देर से पहुंचे। ब्राह्मणों के गणेश थे; समय में जरा देर दिखानी ही चाहिए! आदमी के बड़े होने का पता ही चलता है कि वह समय से जरा देर से पहुंचे। जितना बड़ा नेता, उतनी देर से पहुंचता है। जरा देर से पहुंचे ब्राह्मणों के गणेश, और तेलियों के गणेश जरा पहले पहुंच गए। गरीब गणेश थे, वह जरा पहले पहुंच गए, समय से पहुंच गए कि कहीं जुलूस न निकल जाए। क्योंकि तेलियों के गणेश के लिए कोई जुलूस रुकेगा नहीं। उनको तो समय पर पहुंचना ही चाहिए, वे समय पर पहुंचे।

फिर समय से बहुत देर हो गई, जुलूस निकालना जरूरी था, रात हुई जाती थी, तो तेलियों के गणेश ही आगे हो गए। पीछे से आए ब्राह्मणों के गणेश! तो ब्राह्मणों ने कहा, हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों का गणेश और आगे? यह कभी नहीं हो सकता। बेचारे तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा।

हिंदू के भी देवता हैं, मुसलमान के भी। हिंदुओं में भी हिंदुओं के हजार देवता हैं। एक देवता भी तेलियों और ब्राह्मणों का होकर, अलग हो जाता है। भगवान मेरे को छोड़ने से मिलता है। और हम इतने कुशल हैं कि भगवान को भी मेरे की सीमाओं में बांधकर खड़ा कर देते हैं। मंदिर जलता है, तो किसी मुसलमान को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। मस्जिद जलती है, तो किसी हिंदू को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। और हर हालत में भगवान ही जलता है। लेकिन मेरे की वजह से दिखाई नहीं पड़ता। मेरा अंधा कर जाता है। वह मेरा अंधकार है।

किसी भी तरह के मेरे का भाव मोह की निशा है। इसके प्रति जागना है, भागना नहीं है। भागे कि मैं की विपरीतता शुरू हुई, कि फिर मैं कहीं और निर्माण होगा। फिर वह वहां जाकर अपने को निर्मित कर लेगा।

मैं जो है, बड़ी क्रिएटिव फोर्स है; मैं जो है, बड़ी सृजनात्मक शक्ति है। वास्तविक नहीं, स्वप्न का सृजन करती है, ड्रीम क्रिएटिंग। स्वप्न का निर्माण करती है, लेकिन करती है। बहुत हिप्नोटिक है। जहां भी खड़ी हो जाती है, वहां एक संसार बन जाता है।

सच तो यह है कि मेरे के कारण ही संसार है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन संसार कहीं भी नहीं है। मेरे के कारण ही गृह है, गृहस्थी है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन कहीं कोई गृह नहीं है, कहीं कोई गृहस्थी नहीं है। संन्यासी वह नहीं है, जो घर छोड़कर भाग गया; संन्यासी वह है, जिसके भीतर घर को बनाने वाला बिखर गया। जिसके भीतर से वह निर्माण करने वाली मोह की जो तंद्रा थी, वह खो गई है।

इसे कृष्ण कहते हैं, इस मोह की निशा को जो छोड़ देता है और जिसकी बुद्धि वैराग्य को उपलब्ध हो जाती है, उसके जीवन में, उसके जीवन में फलित होता है--कहें उसे मोक्ष, कहें उसे ज्ञान, कहें उसे आनंद, कहें उसे परमात्मा, कहें उसे ब्रह्म, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सिर्फ नामों के भेद हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...