गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 4

  न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्

यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। ८।।

क्योंकि भूमि में निष्कंटक धनधान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपन को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले
शोक को दूर कर सके।

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। ९।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। १०।।

संजय बोले: हे राजननिद्रा को जीतने वाला अर्जुन अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण के प्रति इस प्रकार कहकर
फिर (श्री गोविंद को) युद्ध नहीं करूंगा,
ऐसे स्पष्ट कहकर चुप हो गया।
उसके उपरांत हे भरतवंशी धृतराष्ट्रअंतर्यामी श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को
हंसते हुए से यह वचन कहा।


अर्जुन अति अनिश्चय की स्थिति में है। संजय कहता हैफिर भी ऐसा कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूंगाअर्जुन रथ में बैठ गया है। अति अनिश्चय की स्थिति में ऐसा निश्चयात्मक भाव कि मैं युद्ध नहीं करूंगासोचने जैसा है।  इतना निर्णायक वक्तव्य कि मैं युद्ध नहीं करूंगा और इतनी अनिश्चय की स्थिति कि क्या ठीक हैक्या गलत हैइतनी अनिश्चय की स्थिति कि मन अविद्या से भरा है मेरामुझे प्रकाशित करो। लेकिन मुझे प्रकाशित करोयह कहता हुआ भी वह निर्णय तो अपना ही ले लेता है। वह कहता हैमैं युद्ध नहीं करूंगा।
इसके जरा भीतर प्रवेश करना जरूरी होगा। अक्सर जब आप बहुत निश्चय की बात बोलते हैंतब आपके भीतर अनिश्चय गहरा होता है। एक आदमी कहता है कि मैं दृढ़ निश्चय करता हूं। जब ऐसा कोई आदमी कहेतो समझना कि उसके भीतर अनिश्चय बहुत ज्यादा हैनहीं तो दृढ़ निश्चय की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी कहेमेरा ईश्वर पर पक्का भरोसा हैतो समझना कि भरोसा भीतर बिलकुल नहीं है। नहीं तो पक्के भरोसे का लेबल लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी बार-बार कहे कि मैं सत्य ही बोलता हूंतब समझना कि भीतर असत्य की बहुत संभावना है। अन्यथा ऐसे बोलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

हम अपने भीतर जो डांवाडोलपन है
उसे निश्चयात्मक वक्तव्यों को ऊपर से थोपकर मिटाने की कोशिश में रत होते हैं। हम सभीहम सभी जो भीतर बिलकुल निश्चित नहीं हैउसको भी बाहर चेहरे पर निश्चित करके देख लेना चाहते हैं।
अब यह अर्जुन बड़े मजे की बात कह रहा है। वह कह रहा हैमैं युद्ध नहीं करूंगा। उसने तो आखिरी निर्णय ले लियाउसने निष्पत्ति ले ली। उसने तो निर्णायक बात कह दी। अब कृष्ण के लिए छोड़ा क्या हैअगर युद्ध नहीं करूंगातो अब कृष्ण से पूछने को क्या बचा हैसलाह क्या लेनी है?
इसलिए दूसरी बात जो संजय कह रहा हैवह बड़ी मजेदार है। वह कह रहा हैकृष्ण ने हंसते हुए...।
वह हंसी किस बात पर हैहंसने का क्या कारण हैअर्जुन हंसी योग्य हैइतनी दुख और पीड़ा में पड़ा हुआइतने संकट मेंऔर कृष्ण हंसते हैं! लेकिन अब तक नहीं हंसे थे। पहली दफे कृष्ण हंसते हैं उसके वक्तव्य को सुनकर।
उस हंसी का कारण है। कि वे देखते हैंइतना अनिश्चित आदमी इतने निश्चय वक्तव्य दे रहा है कि युद्ध नहीं करूंगा! धोखा किसको दे रहा हैउसके धोखे परउसकी आत्मवंचना पर कृष्ण को हंसी आ जाती है। जो जानता हैउसे आएगी। देख रहे हैं कि नीचे तो दरारें ही दरारें हैं उसके मन में। देख रहे हैं कि नीचे तो कटा-कटा मन है उसकाटूटा-टूटा मन है। देख रहे हैं कि नीचे कुछ भी तय नहीं है और ऊपर से वह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। यह वह अपने को धोखा दे रहा है।
हम सब देते हैं। और जब भी हम बहुत निश्चय की भाषा बोलते हैंतब भीतर अनिश्चय को छिपाते हैं। जब हम बहुत प्रेम की भाषा बोलते हैंतो भीतर घृणा को छिपाते हैं। और जब हम बहुत आस्तिकता की भाषा बोलते हैंतो भीतर नास्तिकता को छिपाते हैं। आदमी उलटा जीता है। ऊपर जो दिखाई पड़ता हैठीक उससे उलटा भीतर होता है।
इसलिए कृष्ण की हंसी बिलकुल मौजूं हैठीक वक्त पर है। असामयिक नहीं हैलगेगी असामयिक। अच्छा नहीं लगता यह। बड़ी कठोर बात मालूम पड़ती है कि कृष्ण हंसें। इतने दुखइतने संकट में पड़ा हुआ अर्जुनउस पर हंसें! लेकिन हंसी का कारण है। देख रहे हैं उसको कि कैसा दोहरा काम अर्जुन कर रहा है। एक तरफ कुछ कह रहा हैदूसरी तरफ ठीक उलटा वक्तव्य दे रहा है।
दो-सुरे आदमी के वक्तव्य मेंदोहरे आदमी के वक्तव्य में हमेशा अंतर्विरोध होता है। अंतर्विरोध बहुत साफ है। यानी वह ऐसा काम कर रहा हैकि एक हाथ से ईंट रख रहा है मकान की और दूसरे हाथ से खींच रहा हैएक हाथ से दीवार उठाता हैदूसरे हाथ से खींचता हैदिनभर मकान बनाता हैरात गिरा लेता है। यह जो दोहरा काम वह कर रहा हैइसलिए कृष्ण हंस रहे हैं। यह हंसी उसके व्यक्तित्व के इस दोहरेपन परबंटे हुए पन पर हंसी के सिवाय और क्या हो सकता है!
मगर कृष्ण की हंसी में काफी इशारा है। लेकिन मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी देखी होगी। और मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी सुनी होगी।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...