जिसे तुम प्रेम कहते हो वह सिवाय कामवासना के और कुछ भी नहीं। वह तो सिर्फ एक जैविक जबरदस्ती है। तुम्हारे भीतर प्रकृति का दबाव है, तुम्हारी मालकियत नहीं है। वह कोई प्रेम है? सिर्फ वासना की पूर्ति है। प्रेम कैसे हो सकता है? और जहां वासना की पूर्ति है वहां कलह होगी ही, क्योंकि जिससे हम वासना की पूर्ति करते हैं उस पर हम निर्भर हो जाते हैं।
और इस दुनिया में कोई भी किसी पर निर्भर नहीं होना चाहता। जिस पर हम निर्भर होते हैं, उसे हम कभी क्षमा नहीं कर पाते। क्योंकि जिस पर हम निर्भर होते हैं उसके हम गुलाम हो गए। पति पत्नी से बदला लेता है इस गुलामी का। पत्नी पति से बदला लेती है इस गुलामी का। जहां वासना है वहां बदला होगा। और जहां वासना है वहां पश्चात्ताप भी होगा, क्योंकि वासना हीन तल की बात है। जीवन का सबसे निम्नतम जो तल है वही वासना का है।
तो जब पुरुष किसी स्त्री की वासना में पड़ता है तो उसे ऐसा लगता है इसी दुष्ट ने मुझे इस हीन तल पर उतार दिया! तो जब उसे पश्चाताप होता है, उसकी सारी जिम्मेवारी वह स्त्री पर थोपता है। इसीलिए तो तुम्हारे ऋषि—मुनि लिख गए कि स्त्री नरक का द्वार है।
स्त्री नरक का द्वार नहीं है, न पुरुष नरक का द्वार है। कोई दूसरा तुम्हारे लिए नरक का द्वार है ही नहीं; तुम ही अपने लिए नरक का द्वार बन सकते हो या स्वर्ग का द्वार बन सकते हो।
और जब स्त्री देखती है कि पति के कारण उसे वासना में उतरना पड़ता है.. और स्त्रियां ज्यादा देखती हैं, क्योंकि स्त्री की वासना निष्क्रिय वासना है, पुरुष की वासना सक्रिय वासना है। इसलिए तो पुरुष बलात्कार कर सकता है, स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। उसकी वासना निष्क्रिय वासना है। चूंकि उसकी वासना निष्क्रिय है, इसलिए पुरुष जब तक उसको उकसाए न, भड़काए न, तब तक उसकी वासना सोई रहती है। तो स्वभावत: स्त्री को ज्यादा लगता है कि इस पुरुष के कारण ही मुझे वासना में उतरना पड़ता है।
स्त्री को कठिनाई ज्यादा होती है और पश्चात्ताप भी ज्यादा होता है। इसलिए कोई स्त्री अपने पति को आदर नहीं कर सकती। किसी ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे को आदर कर सकती है। आ जाएं कोई मुनि महाराज गांव में, उनको आदर कर सकती है। कोई महात्मा, कोई बाबा, कोई भी, किसी को भी आदर कर सकती है, मगर अपने पति को नहीं कर सकती। हांलाकि कहती है औपचारिक रूप से कि पति परमात्मा है, मगर वे कहने की बातें हैं। जानती तो यह है कि यह पति के कारण ही मैं बार—बार नीचे उतारी जा रही हूं। अगर यह पति से छुटकारा हो जाता, अगर यह पति की वासना मिट जाती, तो मैं भी ऊपर उड़ सकती, मेरे भी पंख लग सकते!
स्त्री बहुत पछताती है। और पछताएगी तो जिम्मेवार पति को ठहराएगी। इसलिए फिर अनजाना क्रोध भड़केगा, चौबीस घंटे परेशानी रहेगी। और यह सब अचेतन होगा। यह चेतन में हो तो तुम समझ भी जाओ। यह अचेतन तल पर हो रहा है। इसलिए इसकी साफ—साफ तुम्हें पकड़ भी नहीं आती; धुंधला— धुंधला सा समझ में आता है, स्पष्ट कभी नहीं हो पाता कि यह खेल क्या है, यह गणित क्या है!
और जब स्त्री बचना चाहती है पति से, इसकी वासना से, तो स्वभावत: पति की वासना सक्रिय है, वह आस—पास की स्त्रियों में उत्सुक होने लगता है। फिर एक दूसरा उपद्रव शुरू होता है। फिर ईर्ष्या का और जलन का और वैमनस्य का उपद्रव शुरू होता है। फिर पत्नी अगर पति की वासना में सहयोगी भी होती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं वह किसी और स्त्री में उत्सुक न हो जाए।
मगर यह कोई प्रेम है? यह तो व्यवसाय हुआ, वेश्यागिरी हुई। यह तो यह ग्राहक कहीं किसी और दुकान पर न चला जाए, इस ग्राहक को बचाने का उपाय हुआ। और जहां प्रेम नहीं है वहां यह ग्राहक कितने दिन टिकेगा? यह ग्राहक अगर केवल शरीर के कारण टिका है तो शरीर से जल्दी ऊब जाएगा, क्योंकि एक ही शरीर बार—बार, एक ही ढंग, एक ही रंग, एक ही रूप— कौन नहीं ऊब जाता! तुम भी रोज एक ही भोजन करोगे तो ऊब जाओगे और एक ही कपड़ा पहनोगे तो परेशान हो जाओगे। थोड़ी बदलाहट चाहिए। एक ही फिल्म को रोज—रोज देखने जाओ तो ऊब जाओगे। चाहे मुफ्त ही क्यों न दिखाई जा रही हो तो भी घबड़ा जाओगे। वही फिल्म रोज—रोज देखना, वही स्त्री रोज—रोज!
पुरुष की वासना सक्रिय है, इसलिए वह जल्दी ऊब जाता है। वह इधर—उधर तलाश करने लगता है। और जब वह तलाश करता है तो उसकी स्त्री ईर्ष्या से जलती है। और वह ईर्ष्या का बदला लेगी, वह हजार तरह से पुरुष को कष्ट देगी। और जितना ही ईर्ष्या से जलेगी वह स्त्री और पुरुष को कष्ट देगी, उतना ही धक्का दे रही है कि वह किसी और दूसरी स्त्री के चक्कर में पड़ जाए। यह एक बड़ा उपद्रव का जाल है। और इस सब जाल के पीछे एक बात है कि हमारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं है। हमारा सच्चा प्रेम तो तभी हो सकता है जब प्रेम ध्यान से आविर्भूत हो।