गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 12

  

चातुरर्‌वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। 13।।


तथा हे अर्जुन! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनके कर्ता को भी, मुझ अविनाशी परमेश्वर को, तू अकर्ता ही जान।


कृष्ण इस श्लोक में कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार चार वर्ण मैंने ही रचे हैं! एक बात। और तत्काल दूसरी बात कहते हैं कि फिर भी, उन्हें निर्माण करने वाले मुझ कर्ता को, तू अकर्ता ही जान।

बहुत मिस्टीरियस, बहुत रहस्यपूर्ण वक्तव्य है। पहले हिस्से को पहले समझ लें, फिर दूसरे हिस्से को समझें।

वर्ण की बात ही असामयिक हो गई है। कृष्ण के इस सूत्र को पढ़कर न मालूम कितने लोग बेचैनी अनुभव करते हैं। परमात्मा ने रचे हैं वर्ण! कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि वर्णों के नाम पर इतनी बेहूदगी हुई है और वर्णों के नाम पर इतना अनाचार हुआ है, वर्णों की ओट और आड़ में इतना सड़ापन पैदा हुआ है, इतनी सड़ांध पैदा हुई है कि भारत का पूरा हृदय ही कैंसर से ग्रस्त अगर हुआ, तो वह वर्णों के सहारे हुआ है।


तो आज कोई भी विचारशील व्यक्ति जब इस सूत्र को पढ़ता है, तो थोड़ा या तो बेचैन होता है या जल्दी इसको पढ़कर आगे निकल जाता है। इस पर ज्यादा रुकता नहीं। ऐसा लगता है कि कुछ ठीक नहीं है; आगे बढ़ो। पर मैं इस पर जरा रुकना चाहूं। क्यों? क्योंकि जीवन में सत्यों के आधार पर भी असत्य चल जाते हैं। सच तो यह है कि असत्य के पास अपने पैर नहीं होते; उसे पैर सदा सत्य से ही उधार लेने पड़ते हैं। इसलिए असत्य बोलने वाला बहुत कसमें खाता है कि जो मैं बोल रहा हूं, वह सत्य है। बेईमानी को भी ईमानदारी के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। और दुनिया में जब भी कोई सत्य जीवन-सिद्धांत प्रकट होता है, तो उसका भी दुरुपयोग किया गया है, किया जाता रहा है। लेकिन इससे सिद्धांत गलत नहीं होता।

एटम का विश्लेषण हुआ। परिणाम में हिरोशिमा और नागासाकी का विध्वंस मिला। हिरोशिमा और नागासाकी के कारण एटम के विश्लेषण का सिद्धांत गलत नहीं होता। लाख आदमी मर गए, जलकर राख हो गए। और पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक बच्चे प्रभावित रहेंगे। पंगु, अपंग, अंधे, लंगड़े, लूले पैदा होंगे। लेकिन फिर भी अणु के विश्लेषण का सिद्धांत, थिअरी गलत नहीं होती है। गलत उपयोग हुआ, यह हमारे कारण, सिद्धांत के कारण नहीं।

वर्ण के कारण जो-जो हुआ, उसके लिए हम जिम्मेवार हैं, हम गलत लोग। उसके लिए वर्ण की वैज्ञानिक चिंतना जिम्मेवार नहीं है।

कृष्ण जब कहते हैं, तो वे दो शब्दों का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने चार वर्ण बनाए। गुण और कर्म!

व्यक्ति-व्यक्ति में गुणों का भेद है। और दुनिया में कोई समानता का उपाय नहीं है, जिससे हम गुण-भेद मिटा सकें। हम कितनी ही बड़ी कम्युनिस्टिक सोसायटी को पैदा कर लें, कितना ही साम्यवादी समाज निर्मित कर लें, गुण-भेद नहीं मिटा पाएंगे। धन को बराबर बांट दें; कपड़े एक से पहना दें; मकान एक से बना दें; गुण भिन्न ही होंगे। गुण में अंतर नहीं मिटाया जा सकेगा। कोई उपाय नहीं है। गुण व्यक्ति की आत्मा का हिस्सा है; बाह्य समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं है गुण।

इसलिए पहली बात आपसे कहता हूं कि कृष्ण का यह खयाल कि यह वर्ण की व्यवस्था मैंने बनाई, यह व्यक्ति के आंतरिक गुणधर्म की चर्चा है। इसका सामाजिक व्यवस्था से दूर का संबंध है। गहरे में संबंध व्यक्ति के भीतर के निजी व्यक्तित्व से है, इंडिविजुअलिटी से है।

एक-एक व्यक्ति में गुण का भेद है। और गुण हम जन्म से लेकर पैदा होते हैं। गुण निर्मित नहीं होते, बिल्ट-इन हैं; पैदाइश के साथ बंधे हैं। वह जो मां और पिता से जो कण मिलते हैं हमें, हमारे सब गुण उनमें ही छिपे हैं।

आइंस्टीन इतनी बुद्धिमत्ता को उपलब्ध होगा, यह उसके पहले अणु में छिपी हुई है। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक पहले अणु की जांच करके खबर कर सकेंगे कि यह व्यक्ति क्या होगा। वैज्ञानिक तो यहां तक पहुंच गए हैं कि उनका खयाल है, जैसे आज बाजार में फलों की और फूलों की दुकान पर फूलों के बीजों के पैकेट मिलते हैं, और अंदर बीज होते हैं और ऊपर फूल की तस्वीर होती है, कि इन बीजों को अगर बो दिया, तो ऐसे फूल पैदा हो जाएंगे। वैज्ञानिक कहते हैं, कुछ सालों के भीतर,  हम आदमी के जीवाणु को भी पैकेट(टेस्ट ट्यूब) में रखकर दुकान पर बेच सकेंगे कि यह जीवाणु इस तरह का व्यक्ति बन सकेगा। उसकी तस्वीर भी ऊपर दे सकेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि वह जो पहला अणु है, उसमें सारा बिल्ट-इन, सभी भीतर से निर्मित गुणों की व्यवस्था है। वह बाद में प्रकट होगी; मौजूद सदा से है। और उस गुण में बुनियादी भेद है।

उन भेदों को कृष्ण कहते हैं, चार में मैंने बांटा। मैंने अर्थात प्रभु ने, चार में बांटा। प्रकृति ने, परमात्मा ने, जो भी नाम हम पसंद करें, चार मोटे विभाजन किए हैं। और चार मोटे विभाजन हैं। यह बहुत संयोग की बात नहीं है कि दुनिया में जब भी जिन लोगों ने मनुष्यों के टाइप का विभाजन किया, तो विभाजन हमेशा चार में किया; चाहे कहीं भी किया हो।

चार ही हैं प्रकार, मोटे। फिर तो एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही प्रकार हैं।

कुछ लोग हैं, जिनके जीवन की ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ बहती है; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गंवा देंगे, लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे।

अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है कि किस-किस जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को जीभ में रखने से वह मर जाएगा, लेकिन फिर भी वह जानना चाहता है। हम कहेंगे, पागल है; बिलकुल पागल है! ऐसे जानने की जरूरत क्या है?

लेकिन हमारी समझ में न आएगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जानकर रहेगा। वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें कौन-सा फायदा है? उस आदमी को क्या मिल रहा है? हम समझ न पाएंगे। सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ पाएगा, अन्यथा हम न समझ पाएंगे।

आइंस्टीन को क्या मिल रहा है? सुबह से सांझ तक लगा है प्रयोगशाला में! क्या मिल रहा है? कौन-सा धन? यह सुबह से सांझ तक पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है?

नहीं, किसलिए का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने के लिए लगा हुआ है।

तो कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म।

गुण भिन्न हैं, चार तरह के गुण हैं; चार तरह के आर्च टाइप हैं। जुंग ने आर्च टाइप शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल प्रकार हैं। एक--जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के लिए, अंतहीन यात्रा करती है।

अब जो लोग चांद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा? कुछ बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना! चांद पर भी नहीं रुकेंगे--और, और, और आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं--गुण से।

दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए पावर, शक्ति सब कुछ है; शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाए, तो उसी की यात्रा में लगा रहेगा। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। उसे इनकार नहीं किया जा सकता। क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है।

अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है; कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार करता है, तब बड़ी अड़चन में पड़ जाता है। क्योंकि वह वह काम कर रहा है, जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा है, जिसे वह कर सकता था।

और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी तरह कर पाएं जो करने को नियति, डेस्टिनी, जो करने को प्रभु ने उत्प्रेरित किया है। अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती, आनंद नहीं मिल सकता। जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं; जो गीत हमसे पैदा होने को था, वह पैदा हो जाए।

लेकिन अगर ब्राह्मण क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण ने उतने आदर, सम्मान, सर्वश्रेष्ठ ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पाई नहीं। ब्राह्मण भिखारी का भिखारी रहा। उसने कोई शक्ति पाई नहीं। वह दीन का दीन ही रहा। वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज करता रहा। आदर उसे बहुत था। सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते थे। राज्य उसके चरणों में लोट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म की, दूर जंगल में बैठकर। पागल रहा होगा! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर रखने आया था, तो कुछ तो मांग ही लेना था!


  तीसरा टाइप है। वह धन, वैश्य का टाइप है। इसे प्रयोजन नहीं है, न ज्ञान से, न शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। इसे ब्रह्म से कोई वास्ता नहीं है। इसे ब्रह्मांड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों से मतलब नहीं है। पास के रुपए काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता जाए, भरता चला जाए। यह भी इसका टाइप है। यह वैश्य का टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है।

चौथा एक शूद्र का टाइप है; श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं है, जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को हम मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए; ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी लोग नहीं रह सकते।

अभी अमेरिका में कठिनाई आनी शुरू हुई है। क्योंकि श्रम का काम समाप्त होने के करीब है, मशीनें करने लगी हैं। और अमेरिका के सब बड़े विचारशील लोग वे सब इस चिंता में पड़े हैं कि दस-पंद्रह साल में सारा आटोमेटिक इंतजाम हो जाएगा। सब मशीनें काम कर देंगी। तो अब सवाल यह है कि लोग काम मांगेंगे, तो हम काम कहां से देंगे? और लोग काम मांगेंगे, क्योंकि लोग बिना काम रह नहीं सकते। कुछ लोग तो रह ही नहीं सकते बिना काम।


आज भारत में अमेरिका की तर्ज में दो दिन की छुट्टी हो गई है सप्ताह में, तो आप जानकर हैरान होंगे कि अमेरिका में एक कहावत है कि दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि एक सप्ताह विश्राम की जरूरत पड़ती है। यह बड़ी मुश्किल बात है! दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि सात दिन के विश्राम की जरूरत पड़ती है! तो छुट्टी में विश्राम किया आपने?

नहीं, छुट्टी में लोग सैकड़ों-हजारों मील कार चलाए, बीच पर पहुंचे। एक नहीं पहुंचा; नैक टु नैक कारें, एक-दूसरे से फंसी रहीं। लाखों कारें पहुंच गईं। पूरी बस्ती समुद्र के तट पर पहुंच गई। जिस बस्ती से भागे थे, लेकिन पूरी बस्ती भाग रही है, वह पूरी बस्ती वहां मौजूद हो गई। इससे तो अच्छा घर रह जाते, तो अब घर में थोड़ा सन्नाटा रहता। क्योंकि सारी बस्ती बीच पर आ गई। अब सारी बस्ती बीच पर रही। फिर बीच से भागे!

सारे अमेरिका में छुट्टी के दिन सर्वाधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं। क्योंकि छुट्टी के दिन लोग बिलकुल शैतानी के काम में लग जाते हैं। क्या करें? फुर्सत खतरनाक है! जब तक मिली नहीं, तब तक आपको पता नहीं। अगर पूरी फुर्सत मिल जाए, तो खतरनाक है। तब आपको पता चलेगा कि श्रम करने वाला भी एक टाइप है, जो बिना श्रम किए नहीं रह सकता।

कृष्ण कहते हैं, ये चार गुण से विभाजित लोग हैं। शायद इन चारों की जरूरत भी है। क्योंकि सारे लोग ज्ञान खोजें, तो जगत अस्तित्व में नहीं रह जाए। और सारे लोग शक्ति खोजें, तो सिवाय युद्धों के कुछ भी न हो। और सारे लोग धन खोजें, तो आदमी मर जाएं और तिजोरियां बचें। और सारे लोग श्रम करें, तो कोई संस्कृति, कोई सभ्यता, कोई कला, कोई विज्ञान, कोई दर्शन, कोई धर्म--कुछ भी न हो। ये चारों कांप्लिमेंट्री हैं। इन चारों के बिना जगत नहीं हो सकता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये चार, गुण से और कर्म से।

भीतर तो गुण हैं, उन गुणों से जुड़े हुए संयुक्त कर्म हैं। गुण ही बाहर प्रगट होकर कर्म बन जाते हैं। भीतर जिनका नाम गुण है, बाहर उनका नाम कर्म है। जब बीज में होते हैं, तो उनका नाम गुण है; और जब प्रकट होकर संबंधित होते हैं, तो उनका नाम कर्म हो जाता है

गुण-कर्म से मैंने चार में बांटा, कृष्ण कहते हैं।

यह चार का विभाजन, कृष्ण की दृष्टि में ऊंचे-नीचे का विभाजन नहीं है। कृष्ण की दृष्टि में इसमें कोई हायरेरकी नहीं है। इसमें कोई ऊपर और कोई नीचे नहीं है। ये चार जीवन के, शरीर के, चार अंग हैं, समान मूल्य के। एक के भी बिना तीन नहीं हो सकते।

विकृति उस दिन आनी शुरू हुई, जिस दिन हमने हायरेरकी बनाई। जिस दिन हमने कहा कि नहीं कोई ऊपर, और कोई नीचे। नहीं, श्रम भी उतना ही ऊपर है, जितना ज्ञान। और अगर किसी को ज्ञान की पिपासा है और किसी को अगर श्रम की पिपासा है, तो श्रम की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। ज्ञान की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। और दोनों ही पिपासाएं विराट से मिली हैं, जन्म से मिली हैं, बिल्ट-इन हैं। इसलिए गौरव की बात क्या है?

अगर मुझे सत्य की खोज की आकांक्षा है, तो इसमें गौरव की बात क्या है? यह मुझे वैसे ही मिली है, वरदान है परमात्मा का, जैसे एक आदमी को श्रम की क्षमता मिली है। इसमें अगौरव क्या है? कोई नीचे-ऊपर नहीं है। वह उसका बिल्ट-इन प्रोग्रेम है।

एक फूल गुलाब बनने को हुआ है, एक फूल कमल बनने को हुआ है, एक फूल जुही बना है, एक फूल चमेली बना है। दुनिया सुंदर है। जितने ज्यादा फूल हैं, उतनी ही सुंदर है। लेकिन गुलाब गुलाब होने की मजबूरी में है। कमल कमल होने की मजबूरी में है। कमल का कमल होना, कमल का गौरव नहीं है; वह कमल की नियति है, डेस्टिनी है। गुलाब का गुलाब होना भी गुलाब की डेस्टिनी है। और एक घास के फूल का घास का फूल होना भी उसकी अपनी डेस्टिनी है।

और मजे की बात यह है कि जब घास का फूल अपने पूरे सौंदर्य में खिलता है, तो किसी गुलाब के फूल से पीछे नहीं होता। आपके लिए होगा, क्योंकि बाजार में बेचेंगे, तो घास के फूल का दाम नहीं मिलेगा। लेकिन घास के फूल के लिए, खुद घास के फूल के लिए, घास का फूल जब पूरी तरह खिलता है, तो उतनी ही एक्सटैसी में, उतने ही हर्षोन्माद में होता है, जितना जब गुलाब का फूल अपनी पूरी पंखुड़ियों को खिलाकर नाचता है सूरज की रोशनी में। दोनों अपने आनंद में होते हैं। और सूरज घास के फूल से यह नहीं कहता कि शूद्र! हट, मैं सिर्फ गुलाब के फूलों के लिए आया हूं। नहीं, सूरज उतने ही आनंद से बरसता है घास के फूल पर। चांद उतने ही आनंद से अमृत बरसाता है। हवाएं उतने ही आनंद से घास के फूल को भी नृत्य और थपकी देती हैं, जितनी गुलाब के फूल को देती हैं। इसमें कोई भेद-भाव नहीं है।

जगत के, अस्तित्व के भीतर कोई भेद-भाव नहीं है। गुण-भेद है, भेद-भाव नहीं है। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। विभाजन है, शत्रुता नहीं है। कोई एक-दूसरे के कांफ्लिक्ट में नहीं है। संघर्ष नहीं है, सहयोग है।

कृष्ण के लिए, जिस दिन वर्ण की उन्होंने बात कही, चारों वर्णों में एक अंतर-सहयोग था, एक इनर को-आपरेशन था। एक आर्गेनिक यूनिटी थी। इन चारों के बीच एक शरीर-संबंध था।

इसलिए कृष्ण ने पीछे शरीर से तुलना भी की है कि कोई सिर है, कोई पैर है, कोई पेट है। अंग की भांति सारे वर्ण हैं। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। लेकिन नीचे-ऊपर दिखाई पड़ता है। क्योंकि उन्होंने कहा कि सिर। सिर ऊपर मालूम होता है। पैर! पैर नीचे मालूम होते हैं। लेकिन यह ऊपर-नीचे होना फिजिकल है। यह ऊपर-नीचे होना मूल्यांकन नहीं है। यह मूल्यांकन, इसमें कोई वेल्युएशन नहीं है कि पैर नीच है, ऐसा नहीं है। अगर नीचा है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि स्पेस में सिर ऊपर मालूम हो रहा है, पैर नीचे। लेकिन वह भी सब बातचीत काल्पनिक है।

एक आदमी किसी की छत पर खड़े होकर देखे, तो आपका सिर नीचे हो जाता है, उसका सिर ऊंचा हो जाता है। छोटे बच्चे करते हैं। कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं बाप के पास और कहते हैं, हम तुमसे बड़े हैं। फिजिकल! हैं भी बड़े, जब ऊपर हो गए। अगर सिर ऊपर है पैर से, तो बेटा कुर्सी पर खड़ा होकर बड़ा है।

तो छिपकली, जो आपके छत पर चल रही है आपके सिर के ऊपर! छिपकली के बाबत क्या खयाल है? ब्राह्मण के ऊपर छिपकली चल रही है! छिपकली बहुत ऊपर है!

ये ऊपर-नीचे की बचकानी बातें हैं। इसमें कुछ भेद, कोई मूल्यांकन कृष्ण के मन में नहीं है; किसी के मन में नहीं था। हमारे मन में पैदा हुआ। हमने थोपा।

कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने विभाजित किया व्यक्तियों को।

गुण, भीतरी क्षमता; कर्म, बाहरी अभिव्यक्ति; कर्म, मैनिफेस्टेशन।

ध्यान रहे, गुण जब कर्म बनता है, तभी दूसरों को पता चलता है। जब तक गुण गुण रहता है, तब तक किसी को पता नहीं चलता। दूसरों को ही नहीं, खुद को भी पता नहीं चलता। खुद को भी पता तभी चलता है, जब गुण कर्म बनता है। जब एक व्यक्ति अपने को प्रकट करता है अपने कर्मों में, तभी आपको भी पता चलता है और उसको भी पता चलता है कि वह क्या है।

गुण, बीज की तरह छिपा हुआ अस्तित्व है। कर्म, वृक्ष की तरह प्रकट अस्तित्व है।

गुण और कर्म के अनुसार विभाजित मनुष्य हैं। इस विभाजन को कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता। इस विभाजन को इनकार किया जा सकता है। कानून बनाया जा सकता है कि ऐसा कोई विभाजन नहीं है। विधान बनाया जा सकता है, ऐसा कोई विभाजन नहीं है। लेकिन विभाजन जारी रहेगा।

अगर हम एक कानून बना लें। और कोई कठिन नहीं है, हम एक कानून बना दें कि स्त्री-पुरुषों के बीच कोई विभाजन नहीं है। कानून बनाया जा सकता है, मेजारिटी चाहिए! और हमेशा मेजारिटी हर तरह की बेवकूफी के लिए मिल सकती है। अगर आपकी धारा-सभा में, आपकी असेंबली और पार्लियामेंट में, बहुमत तय कर ले कि स्त्री-पुरुष में कोई फासला नहीं है, तो कानून बन सकता है। लेकिन कानून बनने से प्रकृति नहीं बदल जाती।

कानून बन भी गए हैं करीब-करीब। कानून ही नहीं बन गए, पश्चिम के मुल्कों ने स्त्री और पुरुष के बीच के फासले को गिराना भी शुरू कर दिया है। तो पुरुष स्त्रियों जैसे होने की कोशिश में लग गए हैं; ताकि एक-दूसरे की तरफ थोड़ा-थोड़ा चलें, तो फासला कम हो जाए। स्त्रियां पुरुषों जैसी होने लग गई हैं। स्त्रियां पुरुषों के कपड़े पहन रही हैं; पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहनने की कोशिश में लगे हैं। स्त्रियां बाल कटा रही हैं, पुरुष बाल लंबे कर रहे हैं! ऐसा दोनों थोड़ा-थोड़ा चलेंगे, तो कहीं मिलन हो जाएगा, इस आशा में।

लेकिन अगर स्त्रियों और पुरुषों को बिलकुल एक जैसी शकल का भी बनाकर खड़ा कर दिया जाए, तो भी नियति का जो फासला है, वह नहीं गिर जाता। लेकिन उस फासले में कोई ऊंच-नीच नहीं है। वह वर्टिकल नहीं है, हारिजांटल है। वह फासला ऊंचा-नीचा नहीं है।

ठीक गुण और कर्म से भी जो भेद है, वह नियतिगत, स्वभावगत है। उस स्वभावगत भेद को कृष्ण कहते हैं, मैंने ही निर्मित किया।

इस विभाजन को स्वाभाविक, परमात्मा से आया हुआ विभाजन वे कह रहे हैं। इन-बॉर्न, इन-बिल्ट, प्रकृति में ही छिपा हुआ, यही उनका अर्थ है। और यह वे इसीलिए कह रहे हैं, ताकि अर्जुन को ठीक से खयाल आ जाए कि उसका अपना गुणकर्म क्या है। और वह उसके स्मरण को ध्यान में लेकर कर्म में सक्रिय हो सके, गुण को पहचानकर कर्म कर सके।

गुण और कर्म का मेल हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में एक हार्मनी, एक अंतर-संगीत पैदा हो जाता है। गुण और कर्म का भेद टूट जाए, तो व्यक्ति के जीवन में विसंगीत उत्पन्न हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...