सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 38

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। ५३।।


और जब तेरी अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू समत्वरूप योग को प्राप्त होगा।







जैसी बुद्धि है, निश्चल नहीं है। जैसी बुद्धि है, दृढ़ नहीं है। जैसी बुद्धि है, वेवरिंग, कंपित, कंपती हुई, लहराती हुई है। जैसी बुद्धि है वह ऐसी है, जैसे तूफान और आंधी में दीए की ज्योति होती है। एक क्षण भी एक जगह नहीं; एक क्षण में भी अनेक जगह। क्षण के शुरू में कहीं होती है, तो क्षण के अंत में कहीं। एक क्षण को भी आश्वस्त नहीं कि बचेगी, बुझती-जलती मालूम पड़ती है। झोंके हवा के--और ज्योति अब गई, अब गई, ऐसी ही होती रहती है।

कीर्कगार्ड ने मनुष्य को कहा है, ए ट्रेंबलिंग, एक कंपन। पूरे समय--जन्म से लेकर मृत्यु तक--एक कंपन, जहां सब कंप रहा है, जहां सब भूकंप है। जहां भीतर कोई थिरता नहीं, कोई दृढ़ता नहीं। जो हम बाहर से चेहरे बनाए हुए हैं, वे झूठे हैं। हमारे बाहर के चेहरे ऐसे लगते हैं, बड़े अकंप हैं। सचाई वैसी नहीं है; भीतर सब कंपता हुआ है। बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भय से कंप रहा है। बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भय से कंप रहा है।

स्टैलिन था। नाम ही उसको स्टैलिन इसलिए दिया--मैन आफ स्टील, लौहपुरुष। नाम नहीं है उसका असली वह, दिया हुआ नाम है--लौहपुरुष, स्टैलिन, स्टील का आदमी। लेकिन ख्रुश्चेव ने अभी संस्मरण लिखे हैं। तो उसमें लिखा है कि वह इतना भयभीत आदमी था, जिसका कोई हिसाब नहीं। और एक दिन तो ख्रुश्चेव से उसने कहा कि अब तक तो मैं दूसरों से डरता था, अब तो मैं अपने से भी डरने लगा हूं। डर भारी था।

स्टैलिन कभी भी भोजन नहीं कर सकता था सीधा, जब तक कि दो-चार को खिलाकर न देख ले। अपनी लड़की पर भी भरोसा नहीं था, कि जो खाना बना है, उसमें जहर तो नहीं है! ख्रुश्चेव ने लिखा है, हम सब को उसका भोजन पहले चखना पड़ता था। हम भी कंपते हुए चखते थे कि जिससे स्टैलिन घबड़ा रहा है, लौहपुरुष, वह हमको चखना पड़ रहा है! लेकिन मजबूरी थी। पहले चार को भोजन करवा लेता सामने बिठाकर। जब देख लेता कि चारों जिंदा हैं, तब भोजन करता। भोजन करना भी निश्चिंतता न रही।

घर से बाहर नहीं जाता था। समझा तो यह जाता है कि उसने एक डबल आदमी रख छोड़ा था, अपनी शकल का एक आदमी और रख छोड़ा था, जो सामूहिक जलसों में सम्मिलित होता था। हिटलर ने भी एक डबल रख छोड़ा था। सामूहिक जलसे में कहां-कब गोली लग जाएगी! सब इंतजाम है, फिर भी डर है। इंतजाम भारी था। स्टैलिन और हिटलर के पास जैसा इंतजाम था, ऐसा पृथ्वी पर किसी आदमी के पास कभी नहीं रहा। एक-एक आदमी की तलाशी ले ली जाती थी। हजारों सैनिकों के बीच में थे। सब तरह का इंतजाम था। लेकिन फिर भी आखिरी इंतजाम यह था कि जो आदमी सलामी ले रहा है जनता की, वह असली स्टैलिन नहीं है। वह एक नकली अभिनेता है, जो स्टैलिन का काम कर रहा है। स्टैलिन तो अपने घर में बैठा हुआ देख रहा है, खबर सुन रहा है कि क्या हो रहा है।

कैसी विडंबना है कि स्टैलिन और हिटलर जैसे आदमी इसी यश को पाने के लिए इतना श्रम करते हैं! और फिर कोई अभिनेता नमस्कार लेता है जाकर। पत्नी को भी कमरे में सुला नहीं सकते। क्योंकि रात कब गरदन दबा देगी, कुछ पता नहीं।

खूब स्टील के आदमी हैं! तो घास-फूस का आदमी कैसा होता है? भूसे से भरा आदमी कैसा होता है? और अगर स्टैलिन इतने भूसे से भरे हैं, तो हमारी क्या हालत होगी? हम तो स्टैलिन नहीं हैं, हम तो स्टील के आदमी नहीं हैं। स्टील के आदमी की यह हालत हो, तो हमारी क्या हालत होगी?

नहीं, एक चेहरा, एक मास्क, एक मुखौटा है, जो ऊपर से बिलकुल थिर है। भीतर असली चेहरा पूरे वक्त कंप रहा है। वहां कंपन ही चल रहा है। वहां बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भयभीत है। वहां तथाकथित ज्ञानी से ज्ञानी, भीतर गहरे में अज्ञान से कंप रहा है। यहां वह कह रहा है कि मुझे पता है, ब्रह्म है। और वहां भीतर वह जान रहा है, मुझे कुछ भी पता नहीं। यह भी पता नहीं है कि मैं भी हूं। बाहर वह दिखला रहा है अधिकार, कि मुझे मालूम है। भीतर उसे कुछ भी मालूम नहीं है। भीतर अज्ञान खाए जा रहा है। बाहर से वह कह रहा है, आत्मा अमर है। और भीतर मौत मुंह बाए मालूम पड़ती है।

ऐसी जो हमारी बुद्धि है, जो दृढ़ नहीं है। लेकिन दृढ़ का क्या मतलब है? फिर वही कठिनाई है शब्दों की। दृढ़ का क्या मतलब है? जिसको हम दृढ़ आदमी कहते हैं, क्या उसके भीतर कंपन नहीं होता? असल में जितनी दृढ़ता आदमी बाहर से दिखाता है, उतना ही भीतर कंपित होता है। असल में दृढ़ता जो है, वह सेफ्टी मेजर है, वह भीतर के कंपन को झुठलाने के लिए आयोजन है।

एडलर ने इस संबंध में बड़ी मेहनत की है। शायद मनुष्य जाति के इतिहास में इस दिशा में एडलर की खोज सर्वाधिक कीमती है। एडलर कहता है कि एक बड़ी अजीब घटना आदमी के साथ घटती है कि आदमी जो भीतर होता है, उससे ठीक उलटा बाहर आयोजन करता है, दि एग्जेक्ट कानट्रेरी, ठीक उलटा आयोजन करता है। जितना मनुष्य भीतर हीनता से पीड़ित होता है, उतना बाहर श्रेष्ठता का आयोजन करता है।

सभी राजनीतिज्ञ इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होते हैं। होंगे ही, अन्यथा राजनीतिज्ञ होना मुश्किल है। राजनीतिज्ञ होने के लिए जरूरी है कि भीतर हीनता का भाव हो कि मैं कुछ भी नहीं हूं। तभी आदमी दौड़कर सिद्ध करता है कि देखो, मैं कुछ हूं। यह आपको कम सिद्ध करता है, अपने को ज्यादा सिद्ध करता है--अपने सामने--कि नहीं, गलत थी वह बात कि मैं कुछ नहीं हूं। देखो, मैं कुछ हूं।

एडलर का कहना है कि बड़े से बड़े जो संगीतज्ञ हुए हैं जगत में, वे वे ही लोग हैं, जिनके बचपन में कान कमजोर होते हैं। कमजोर कान का आदमी संगीतज्ञ हो जाता है। कमजोर आंख के आदमी चित्रकार हो जाते हैं।

लेनिन कुर्सी पर बैठता था, तो उसके पैर जमीन नहीं छूते थे। पैर बहुत छोटे थे, ऊपर का हिस्सा बहुत बड़ा था। लेकिन बड़ी से बड़ी कुर्सी पर वह आदमी बैठ सका। उसने सिद्ध करके बता दिया कि तुम्हारे पैर अगर जमीन को छूते हैं, तो कोई बात नहीं, कोई फिक्र नहीं, हम कुर्सी को आसमान से छूकर बताए देते हैं। एडलर कहेगा कि लेनिन की इस महत्वाकांक्षा में उसके पैरों का छोटा होना ही कारण था, वह हीनता ही उसको पीड़ित कर रही थी। पैर बहुत छोटे थे, साधारण कुर्सी पर भी लटक जाते थे, जमीन पर नहीं पहुंचते थे।

बर्नार्ड शा ने मजाक में कहा है कि छोटे पैर से क्या फर्क! छोटा हो पैर कि बड़ा हो, जमीन पर आदमी खड़ा हो, तो सभी के पैर जमीन पर पहुंच जाते हैं। क्या फर्क पड़ता है छोटे-बड़े पैर से? जमीन पर खड़ा हो, तो सभी के पैर जमीन पर पहुंच जाते हैं।

वह तो ठीक है। लेकिन छोटे पैर से फर्क पड़ता है; आदमी कुर्सी पर पहुंच जाता है। क्योंकि जब तक कुर्सी पर नहीं पहुंच जाता, तब तक उसके प्राण पीड़ित होते रहते हैं कि पैर छोटे हैं, पैर छोटे हैं, पैर छोटे हैं। वही पीड़ा उसको विपरीत यात्रा पर ले जाती है।
तो एडलर से अगर पूछें कि दृढ़ता का क्या मतलब है? तो एडलर और कृष्ण के मतलब में फर्क है; वह मैं समझाना चाहता हूं। एडलर कहेगा, दृढ़ता का मतलब कि आदमी वीकलिंग है, भीतर कमजोर है। आदमी भीतर कमजोर है, इसलिए बाहर से दृढ़ता आरोपित कर रहा है। आदमी भीतर घास-फूस का है, इसलिए बाहर से स्टैलिन है। आदमी भीतर से कुछ नहीं है, इसलिए बाहर से सब कुछ बनने की कोशिश में लगा है। क्या कृष्ण भी इसी दृढ़ता की बात कर रहे हैं? अगर इसी दृढ़ता की बात कर रहे हैं, तो दो कौड़ी की है।

नहीं, इस दृढ़ता की वे बात नहीं कर रहे हैं। एक और दृढ़ता है, जो भीतर की कमजोरी को दबाने से उपलब्ध नहीं होती, जो भीतर के चित्त के विपरीत आयोजन करने से उपलब्ध नहीं होती, बल्कि भीतर के कंपित चित्त के विदा हो जाने से उपलब्ध होती है।
दो तरह की दृढ़ताएं हैं। एक दृढ़ता वह है, जिसमें मेरे भीतर कमजोरी तो मौजूद रहती है, और उसकी छाती पर सवार होकर मैं दृढ़ हो जाता हूं। और एक ऐसी दृढ़ता है, जो मेरी कमजोरी बिखर जाती है, विलीन हो जाती है, उसके अभाव में जो मेरे भीतर छूट जाती है। लेकिन उसे हम क्या कहें? उसे दृढ़ता कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सच तो यह है कि दृढ़ता पहले वाली ही है। वह एडलर ठीक कहता है। उसे हम क्या कहें, जो कमजोरी के विसर्जन पर बचती है?

एक तो स्वास्थ्य वह है, जो भीतर बीमारी को दबाकर प्रकट होता है। और एक स्वास्थ्य वह है, जो बीमारी के अभाव पर, एब्सेंस में प्रकट होता है। लेकिन जो बीमारी के अभाव में प्रकट होता है, उस स्वास्थ्य को हम क्या कहें? क्योंकि हम एक ही तरह के स्वास्थ्य से परिचित हैं, जो बीमारी को दबाकर उपलब्ध होता है। दबाने की प्रक्रिया को इसलिए हम दवा कहते हैं। दवाई--दबाने वाली। जिससे हम बीमारी को दबाते रहते हैं, उसको हम दवा कहते हैं।
लेकिन एक और स्वास्थ्य है, जो बीमारी का अभाव है--दबाव नहीं, सप्रेशन नहीं--एब्सेंस। लेकिन अगर हम मेडिकल साइंस से पूछने जाएं, तो वह कहेगी कि नहीं, हम ऐसे किसी स्वास्थ्य को नहीं जानते हैं, जो बीमारी का अभाव है। हम तो ऐसे ही स्वास्थ्य को जानते हैं, जो बीमारी से लड़कर उपलब्ध होता है।

इसलिए अगर आप किसी चिकित्सक से जाकर कहें कि मुझे स्वस्थ होना है, तो वह कहेगा, हम कुछ रास्ता नहीं बता सकते हैं। हमसे तो यह पूछो कि कौन-सी बीमारी है, उसे अलग करना है, उसे मिटाना है, तो हम रास्ता बता सकते हैं।

इसलिए आज तक दुनिया की कोई भी मेडिकल साइंस, चाहे वह आयुर्वेद हो और चाहे वह एलोपैथी हो और चाहे होमियोपैथी हो और चाहे यूनानी हो और चाहे कोई और हो, कोई भी पैथी हो, वह अब तक स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं कर पाई, सिर्फ बीमारियों की परिभाषा कर पाई है। उससे पूछो कि स्वास्थ्य क्या है? तो वह कहेगी, हमें पता नहीं। हमसे पूछो कि बीमारियां क्या हैं, तो हम बता सकते हैं, टी.बी. का मतलब यह, कैंसर का मतलब यह, फ्लू का मतलब यह। लेकिन स्वास्थ्य का क्या मतलब है? स्वास्थ्य का हमें कोई पता नहीं है।

हीनता को दबाकर एक श्रेष्ठता प्रकट होती है, यह श्रेष्ठता सदा ही नीचे की हीनता पर कंपती रहती है। सदा भयभीत, सदा अपने को सिद्ध करने को आतुर, सदा अपने को तर्क देने को चेष्टारत, सदा संदिग्ध, सदा भीतर से भयग्रस्त।

और एक ऐसी भी श्रेष्ठता है--असंदिग्ध, अपने को सिद्ध करने को आतुर नहीं, अपने को प्रमाणित करने के लिए चेष्टारत नहीं, जिसे अपने होने का पता ही नहीं।

अब ध्यान रहे, जिस दृढ़ता का आपको पता है, वह एडलर वाली दृढ़ता होगी। और जिस दृढ़ता का आपको पता ही नहीं है, वह कृष्ण वाली दृढ़ता होगी। जिस दृढ़ता का पता है...पता चलेगा कैसे? पता हमेशा कंट्रास्ट में चलता है। स्कूल में शिक्षक लिखता है सफेद खड़िया से काले ब्लैक-बोर्ड पर। सफेद दीवार पर भी लिख सकता है, लिख जाएगा, पता नहीं चलेगा। लेकिन काले ब्लैक-बोर्ड पर लिखता है; लिखता है, दिखाई पड़ता है। काले पर लिखता ही इसीलिए है कि दिखाई पड़ सके। जितना काला ब्लैक-बोर्ड, उतने अक्षर साफ दिखाई पड़ते हैं।

जितना हीन आदमी, उतनी श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है। जितना श्रेष्ठ आदमी, उतनी श्रेष्ठता सफेद दीवार पर सफेद अक्षरों जैसी लीन हो जाती है, दिखाई नहीं पड़ती है। कंट्रास्ट में, विरोध में दिखाई पड़ती है।

अगर आपको पता चलता है कि मैं स्वस्थ हूं, तो समझना कि बीमारी कहीं दबी है। अगर आपको पता चलता है, मैं ज्ञानी हूं, तो समझना कि अज्ञान कहीं दबा है। अगर आपको पता चलता है कि मैं दृढ़ चित्तवान हूं, तो समझना कि भीतर भूसा कहीं भरा है। अगर पता ही नहीं चलता...।

इसलिए उपनिषद कहते हैं कि जो कहता है, मैं जानता हूं, समझना कि नहीं जानता है। इसलिए उपनिषद एक अदभुत वचन कहते हैं। शायद इससे ज्यादा करेजियस स्टेटमेंट, इससे ज्यादा साहसी वक्तव्य पृथ्वी पर कभी नहीं दिया गया है। उपनिषद कहते हैं कि ज्ञानी को क्या कहें! अज्ञानी तो भटक ही जाते हैं अंधकार में, ज्ञानी महा-अंधकार में भटक जाते हैं, ग्रेटर डार्कनेस। अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा-अंधकार में भटक जाते हैं। किन ज्ञानियों की बात कर रहा है उपनिषद? उन ज्ञानियों की बात कर रहा है, जिन्हें ज्ञान का पता है कि ज्ञान है।

जिन्हें दृढ़ता का पता है, वे दृढ़ नहीं हैं। कृष्ण जिस दृढ़ता की बात कह रहे हैं, उसे एडलर की दृढ़ता से बिलकुल भिन्न जान लेना। कृष्ण का मनोविज्ञान बहुत और है। वह विपरीत पर खड़ा हुआ नहीं है। क्योंकि जो विपरीत पर खड़ा हुआ मकान है, किसी भी दिन गिर जाएगा; उसका कोई भरोसा नहीं है। जो प्रतिकूल पर ही निर्मित है, वह अपने शत्रु पर ही आधार बनाए है। स्वभावतः, अपने ही शत्रु के कंधे पर हाथ रखकर जो बलशाली हुआ है, वह कितनी देर बलशाली रहेगा? जो अपने ही विपरीत को अपनी बुनियाद में आधारशिला के पत्थर बनाया है, उसके शिखर कितनी देर तक आकाश में, सूर्य की रोशनी में उन्नत रहेंगे? कितनी देर तक?

नहीं, यह नहीं हो सकता ज्यादा देर। और जितनी देर ये शिखर ऊपर उन्नत दिखाई भी पड़ेंगे, उतनी देर नीचे बुनियाद में पूरे समय संघर्ष है, पूरे समय द्वंद्व है, पूरे समय प्राणों में कंपन है, वेवरिंग है, ट्रेंबलिंग है। वहां कंपन चलता ही रहेगा, वहां भय हिलता ही रहेगा, वहां पानी की धार कंपती ही रहेगी। यह रेत पर बनाया हुआ मकान है। रेत पर भी नहीं, पानी पर बनाया हुआ मकान है। यह अब गिरा, अब गिरा, अब गिरा--भीतर आप जानते ही रहेंगे; अब गिरा, अब गिरा, अब गिरा--भीतर आप डरते ही रहेंगे। जितना भीतर डरेंगे, उतनी बाहर दृढ़ता दिखलाएंगे--अपने को धोखा देने के लिए, दूसरों को धोखा देने के लिए।

लेकिन कृष्ण जिस दृढ़ता की बात कर रहे हैं, वह प्रवंचना नहीं है, वह रूपांतरण है। लेकिन वह कब फलित होता है? वह तभी फलित होता है, वह तभी फलित होता है, जब चित्त राग और विराग से, जब बुद्धि चुनाव से, और जब मन विषयों के बीच कंपन को छोड़कर अकंप हो जाता है, जब मन इच्छाओं के बीच कंपन को छोड़कर अनिच्छा को उपलब्ध हो जाता है। अनिच्छा का मतलब विपरीत इच्छा नहीं, इच्छा के अभाव को उपलब्ध हो जाता है। तब वे कहते हैं कि अर्जुन, ऐसी अकंप चित्त की दशा में जीवन की संपदा की उपलब्धि है। तब चित्त दृढ़ है। तब चित्त पानी पर नहीं, चट्टानों पर है। और तब आकाश में शिखर उठ सकता है। और तब पताका, जीवन की, अस्तित्व की ऊंचाइयों में फहरा सकती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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