गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 36

 


 कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्य नामयम्।। ५

क्योंकि बुद्धियोगयुक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर, जन्मरूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष, अर्थात अमृतमय परमपद को प्राप्त होते हैं।


जो भी ऐसे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो भी ऐसी निष्ठा को, ऐसी श्रद्धा को, ऐसे अनुभव को उपलब्ध हो जाता है जहां द्वंद्व नहीं है, वैसा व्यक्ति जन्म के, मृत्यु के घेरे से मुक्त होकर परमपद को पा लेता है।
इसे थोड़ा-सा खोलना पड़ेगा।
एक तो, जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका ऐसा मतलब नहीं है कि अभी जन्म-मृत्यु में है। है तो अभी भी नहीं; ऐसा प्रतीत करता है कि है। जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि पहले बंधा था और अब मुक्त हो जाता है। नहीं, ऐसा बंधा तो पहले भी नहीं था, लेकिन मानता था कि बंधा हूं। और अब जानता है कि नहीं बंधा हूं। पहला तो यह खयाल ले लेना जरूरी है। जो घटना घटती है जन्म और मृत्यु से मुक्ति की, वह वास्तविक नहीं है, क्योंकि जन्म और मृत्यु ही वास्तविक नहीं हैं। जो घटना घटती है, वह एक असत्य का, एक अज्ञान का निराकरण है।
जैसे कि मैं एक गणित करता हूं, दो और दो पांच जोड़ लेता हूं। मैं कितना ही दो और दो पांच जोडूं, दो और दो पांच होते नहीं हैं। जब मैं दो और दो पांच जोड़ रहा हूं, तब भी दो और दो चार ही हैं। यानी मेरे जोड़ने से कोई दो और दो पांच नहीं हो जाते। एक कमरे में कुर्सियां रखी हैं दो और दो, और मैं जोड़कर बाहर आता हूं और कहता हूं कि पांच हैं, तो भी कमरे में पांच कुर्सियां नहीं हो जातीं। कमरे में कुर्सियां चार ही होती हैं। भूल जोड़ की है। जोड़ की भूल, अस्तित्व की भूल नहीं बनती।
तो सांख्य का कहना है कि जो गलती है, वह अस्तित्व में नहीं है। जो गलती है, वह हमारी समझ में है। वह जोड़ की भूल है। ऐसा नहीं है कि जन्म और मृत्यु हैं। ऐसा हमें दिखाई पड़ रहा है कि हैं। हमारे दिखाई पड़ने से हो नहीं जातीं।
फिर कल मुझे पता चलता है कि नहीं, दो और दो पांच नहीं होते, दो और दो चार होते हैं। मैं फिर लौटकर कमरे में जाता हूं और मैं देखता हूं कि ठीक, दो और दो चार ही हैं। और मैं बाहर आकर कहता हूं कि जब गणित ठीक आ जाता है किसी को, तो कुर्सियां पांच नहीं रह जातीं, चार हो जाती हैं। ऐसा ही--ठीक ऐसा ही--ऐसा ही समझना है। जो भूल है, वह ज्ञान की भूल है,   अस्तित्वगत नहीं है। क्योंकि अस्तित्वगत अगर भूल हो, तो सिर्फ जानने से नहीं मिट सकती है।
अगर कुर्सियां पांच ही हो गई हों, तो फिर मैं दो और दो चार कर लूं, इससे चार नहीं हो जातीं। कुर्सियां दो और दो चार होने से चार तभी हो सकती हैं, जब वे चार रही ही हों उस समय भी, जब मैं पांच गिनता था। वह मेरे गिनने की भूल थी।
जीवन और मरण आत्मा का होता नहीं, प्रतीत होता है, एपियरेंस है, दिखाई पड़ता है, गणित की भूल है। मैंने पीछे आपसे बात कही, इसे थोड़ा और आगे ले जाना जरूरी है। हम दूसरे को मरते देख लेते हैं, तो सोचते हैं, मैं भी मरूंगा। यह इमिटेटिव मिसअंडरस्टैंडिंग है। और चूंकि जिंदगी में हम सब इमिटेशन से सीखते हैं, नकल से सीखते हैं, तो मृत्यु भी नकल से सीख लेते हैं। यह नकल है। नकल चोरी है बिलकुल। जैसे कि बच्चे स्कूल में दूसरे की कापी में से उतारकर उत्तर लिख लेते हैं। उनको हम चोर कहते हैं। हम सब चोर हैं, जिंदगी में हमारे अधिकतम अनुभव चोरी के हैं। मृत्यु जैसा बड़ा अनुभव भी चुराया हुआ है। किसी को मरते देखा, कहा कि अब हम भी मरेंगे।
आपने अपने को कभी मरते देखा है? किसी को मरते देखा; सोचा, हम भी मरेंगे। नकल कर ली। फिर रोज कोई न कोई मर रहा है--एक मरा, दो मरे, तीन मरे, चार मरे, पांच मरे। फिर पता चला कि सबको मरना ही पड़ता है। पहले जो भी हुए, सब मरे। तो फिर पक्का होता जाता है अनुमान, गणित तय होता जाता है कि नहीं, मरना ही है।
मृत्यु है, यह अनुभूत सत्य नहीं है। यह अनुमानजन्य है। यह हमने चारों तरफ देख लिया कि ऐसा होता है, इसलिए मृत्यु है।
आपने अपना जन्म देखा? यह बड़े मजे की बात है, आप जन्मे और आपको अपने जन्म का भी पता नहीं? छोड़ें, मृत्यु अभी आने वाली है, भविष्य में है, इसलिए भविष्य का अभी हम कैसे पक्का करें! लेकिन जन्म तो कम से कम अतीत में है। आप जन्मे हैं। आपको जन्म का भी पता नहीं है कि आप जन्मे हैं! बड़ी मजेदार बात है। मृत्यु का न पता हो, समझ में आता है। क्योंकि मृत्यु अभी भविष्य है, पता नहीं होगी कि नहीं होगी। लेकिन जन्म तो हो चुका है। पर आपको जन्म का भी कोई पता नहीं। और आप ही जन्मे और आपको ही अपने जन्म का पता नहीं है!
असल में आपको अपना ही पता नहीं है, जन्म वगैरह का पता कैसे हो! इतनी बड़ी घटना जन्म की घट गई, और आपको पता नहीं है! असल में आपको जीवन की किसी घटना का--गहरी घटना का--कोई भी पता नहीं है। आपको तो जो सिखा दिया गया है, वही पता है। स्कूल में गणित सिखा दिया गया, मां-बाप ने भाषा सिखा दी, फिर धर्म-मंदिर में धर्म की किताब सिखा दी, फिर किसी ने हिंदू-मुसलमान सिखा दिया, फिर किसी ने कुछ और सिखा दिया--वह सब सीखकर खड़े हो गए हैं। मगर आपको जिंदगी का कुछ भी गहरा अनुभव नहीं है, जन्म तक का कोई अनुभव नहीं है!
तो ध्यान रहे, जब जन्म से गुजरकर आपको जन्म का अनुभव नहीं मिला, तो पक्का समझना कि मृत्यु से भी आप गुजर जाओगे और आपको अनुभव नहीं मिलेगा। क्योंकि वह भी इतनी ही गहरी घटना है, जितनी जन्म है। वह दरवाजा वही है; जन्म से आप आए थे, मृत्यु से आप लौटेंगे--दि सेम डोर। दरवाजा अलग नहीं है; दरवाजा वही है। इधर आए थे, उधर जाएंगे। और दरवाजे को देखने की आपकी आदत नहीं है। आंख बंद करके निकल जाते हैं। अभी निकल आए हैं आंख बंद करके, अब फिर आंख बंद करके निकल जाएंगे।
तो ये जन्म और मृत्यु...जन्म भी, लोग हमसे कहते हैं कि आपका हुआ। वह भी कथन है। मृत्यु भी हम देखते हैं कि होती है, वह अनुमान है। जन्म किसी ने बताया, मृत्यु का अनुमान हमने किया है। लेकिन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। तो ये जन्म और मृत्यु होते हैं, ये बड़े इमिटेटिव कनक्लूजंस हैं; ये नकल से ली गई निष्पत्तियां हैं।
सांख्य कहता है कि काश! तुम एक बार जन्म लो जानते हुए। काश! तुम एक बार मरो जानते हुए। फिर तुम दुबारा न कहोगे कि जन्म और मरण होता है। और अभी मृत्यु को तो देर है, और जन्म हो चुका, लेकिन जीवित अभी आप हैं। सांख्य कहता है, अगर तुम जीवित रहो जानते हुए, तो भी छुटकारा हो जाएगा। छुटकारे का मतलब ही इतना है कि वह जो भ्रांति हो रही है, विचार से जो निष्कर्ष लिया जा रहा है, वह गलत सिद्ध होता है।
तो जो सांख्यबुद्धि को उपलब्ध हो जाते हैं, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वे जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ठीक होता कहना कि वे कहते कि वे जन्म-मृत्यु की गलती से मुक्त हो जाते हैं। परमपद को उपलब्ध होते हैं।


वह परमपद कहां है? जब भी हम परमपद की बात सोचते हैं, तो कहीं ऊपर आकाश में खयाल आता है। क्योंकि पद जो हैं हमारे, वे जमीन से जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने बड़े होते जाते हैं।

जिस परमपद की कृष्ण बात कर रहे हैं, वह समव्हेअर इन-- ऊपर की बात नहीं है वह; वह कहीं भीतर--उस जगह, जिसके और भीतर नहीं जाया जा सकता; उस जगह, जो आंतरिकता का अंत है। जो इनरमोस्ट कोर, वह जो भीतरी से भीतरी जगह है, वह जो भीतरी से भीतरी मंदिर है चेतना का, वहीं परमपद है। सांख्य को उपलब्ध व्यक्ति उस परम मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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