व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। ४१।।
हे अर्जुन, इस कल्याणमार्ग में निश्चयात्मक-बुद्धि एक ही है और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदों वाली अनंत होती हैं।
मनुष्य का मन एक हो सकता है, अनेक हो सकता है। मनुष्य का चित्त अखंड हो सकता है, खंड-खंड हो सकता है। मनुष्य की बुद्धि स्वविरोधी खंडों में बंटी हुई हो सकती है, विभाजित हो सकती है, अविभाजित भी हो सकती है। साधारणतः विषयी चित्त, इच्छाओं से भरे चित्त की अवस्था एक मन की नहीं होती है, अनेक मन की होती है; बहुचित्त होते हैं। और ऐसा ही नहीं कि बहुचित्त होते हैं, एक चित्त के विपरीत दूसरा चित्त भी होता है।
चित्त हमारा बंट जाता है अनेक खंडों में, और विपरीत आकांक्षाएं एक साथ पकड़ लेती हैं। और अनंत इच्छाएं एक साथ जब मन को पकड़ती हैं, तो अनंत खंड हो जाते हैं। और एक ही साथ हम सब इच्छाओं को करते चले जाते हैं। एक आदमी कहता है, मुझे शांति चाहिए, और साथ ही कहता है, मुझे प्रतिष्ठा चाहिए। उसे कभी खयाल में नहीं आता कि वह क्या कह रहा है!
कृष्ण कह रहे हैं कि विषय-आसक्त चित्त--चूंकि विषय बहुत विपरीत हैं--एक ही साथ विपरीत विषयों की आकांक्षा करके विक्षिप्त होता रहता है और खंड-खंड में टूट जाता है। जो व्यक्ति निष्काम कर्म की तरफ यात्रा करता है, अनिवार्यरूपेण--क्योंकि कामना गिरती है, तो कामना से बने हुए खंड गिरते हैं। जो व्यक्ति अपेक्षारहित जीवन में प्रवेश करता है, चूंकि अपेक्षा गिरती है, इसलिए अपेक्षाओं से निर्मित खंड गिरते हैं। उसके भीतर एकचित्तता, यूनिसाइकिकनेस, उसके भीतर एक मन पैदा होना शुरू होता है।
और जहां एक मन है, वहां जीवन का सब कुछ है--शांति भी, सुख भी, आनंद भी। जहां एक मन है, वहां सब कुछ है--शक्ति भी, संगीत भी, सौंदर्य भी। जहां एक मन है, उस एक मन के पीछे जीवन में जो भी है, वह सब चला आता है। और जहां अनेक मन हैं, तो पास में भी जो है, वह भी सब बिखर जाता है और खो जाता है। लेकिन हम सब पारे की तरह हैं--खंड-खंड, टूटे हुए, बिखरे हुए। खुद ही इतने खंडों में टूटे हैं, कि कैसे शांति हो सकती है!
कृष्ण कह रहे हैं, यह जो विषयों की दौड़ है चित्त की, यह सिर्फ अशांति को...। अशांति का अर्थ ही सिर्फ एक है, बहुत-बहुत दिशाओं में दौड़ता हुआ मन, अर्थात अशांति। न दौड़ता हुआ मन, अर्थात शांति। कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्म की जो भाव-दशा है, वह एक मन और शांति को पैदा करती है। और जहां एक मन है, वहीं निश्चयात्मक बुद्धि है।
इसको आखिरी बात समझ लें। तो जहां एक मन है, वहां अनिश्चय नहीं है। अनिश्चय होगा कहां? अनिश्चय के लिए कम से कम दो मन चाहिए। जहां एक मन है, वहां निश्चय है।
इसलिए आमतौर से आदमी लेकिन क्या करता है? वह कहता है कि निश्चयात्मक बुद्धि चाहिए, तो वह कहता है, जोड़त्तोड़ करके निश्चय कर लो। दबा दो मन को और छाती पर बैठ जाओ, और निश्चय कर लो कि बस, निश्चय कर लिया। लेकिन जब वह निश्चय कर रहा है जोर से, तभी उसको पता है कि भीतर विपरीत स्वर कह रहे हैं कि यह तुम क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है। वह आदमी कसम ले रहा है कि ब्रह्मचर्य साधूंगा, निश्चय करता हूं। लेकिन निश्चय किसके खिलाफ कर रहे हो? जिसके खिलाफ निश्चय कर रहे हो, वह भीतर बैठा है।
कृष्ण कुछ और बात कह रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निश्चय करो। वे यह कह रहे हैं, जो निष्काम कर्म की यात्रा पर निकलता है, उसे निश्चयात्मक बुद्धि उपलब्ध हो जाती है; क्योंकि उसके पास एक ही मन रह जाता है। विषयों में जो भटकता नहीं, जो अपेक्षा नहीं करता, जो कामना की व्यर्थता को समझ लेता है, जो भविष्य के लिए आतुरता से फल की मांग नहीं करता, जो क्षण में और वर्तमान में जीता है--वैसे व्यक्ति को एक मन उपलब्ध होता है। एक मन निश्चयात्मक हो जाता है, उसे करना नहीं पड़ता।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल