देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र मुह्यति।। १३।।
किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।
कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे इस एक शरीर में भी सब बदलाहट है--बचपन है, जवानी है, बुढ़ापा है, जन्म है, मृत्यु है--जैसे इस एक शरीर में भी कुछ थिर नहीं है, जैसे इस एक शरीर में भी सब अथिर, सब बदला जा रहा है, बच्चे जवान हुए जा रहे हैं, जवान बूढ़े हुए जा रहे हैं, बूढ़े मृत्यु में उतरे जा रहे हैं...।
एक बड़े मजे की बात है, भाषा में पता नहीं चलता, क्योंकि शब्दों में गति नहीं होती। शब्द तो ठहरे हुए थिर होते हैं। चूंकि भाषा में शब्द ठहरे हुए होते हैं, जीवन के साथ भाषा बड़ा अनाचार करती है। जीवन में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता। न ठहरे हुए जीवन पर जब हम ठहरे हुए शब्दों को जड़ देते हैं, तो बड़ी गलती हो जाती है।
कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में भी अर्जुन, चीजें ठहरी हुई नहीं हैं। इस जीवन में भी जिन आकृतियों को तू देख रहा है, कल वे बच्चा थीं, जवान हुईं, बूढ़ी हो गईं।
बड़े मजे की बात है। अगर मां के पेट में जब पहली दफे बीजारोपण होता है, उस सेल, उस कोष्ठ का चित्र ले लिया जाए और आपको बताया जाए कि आप यही थे पचास साल पहले, तो आप मानने को राजी न होंगे कि क्या मजाक करते हैं, मैं और यह! एक छोटा-सा सेल जो नंगी आंख से दिखाई भी नहीं पड़ता, जिसको खुर्दबीन से देखना पड़ता है; जिसमें न कोई आंख है, न कोई कान है, न कोई हड्डी है; जिसमें कुछ भी नहीं है; जिसका पता नहीं कि वह स्त्री होगी कि पुरुष होगा; जिसका पता नहीं, एक छोटा-सा बिंदु, यह काला धब्बा--यह मैं! मजाक कर रहे हैं। यह मैं कैसे हो सकता हूं! लेकिन यह आपकी पहली तस्वीर है। इसे अपने एल्बम में लगाकर रखना चाहिए। और अगर यह आप नहीं हैं, तो जो तस्वीर आपकी आज है, वह भी आप नहीं हो सकते हैं। क्योंकि कल वह भी बदल जाएगी।
अगर हम एक आदमी की, पहले दिन पैदा हुआ था तब की तस्वीर, और जिस दिन मरता है उस दिन की तस्वीर को आस-पास रखें, क्या इन दोनों के बीच कोई भी तालमेल दिखाई पड़ेगा? कोई भी संबंध हम जोड़ पाएंगे? क्या हम कभी कल्पना भी कर पाएंगे कि यह वही बच्चा है, जो पैदा हुआ था, वही यह बूढ़ा मर रहा है! कोई संगति दिखाई नहीं पड़ेगी, बड़ी असंगत बात दिखाई पड़ेगी कि कहां यह कहां वह, इसका कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन इतने असंगत प्रवाह की भी हम कभी चिंता, कभी विचार नहीं करते हैं।
कृष्ण यही विचार उठाना चाह रहे हैं अर्जुन में। वे यह कह रहे हैं कि जिन आकृतियों को तू कह रहा है कि ये मिट जाएंगी, इसका मुझे डर है; ये आकृतियां मिट ही रही हैं। ये चौबीस घंटे मिटती ही रही हैं। ये सदा मिटने के क्रम में ही लगी हैं।
तो कृष्ण कह रहे हैं कि बचपन था, जवानी थी, बुढ़ापा था। इस सब बदलाहट के बीच कोई थिर, कोई नहीं बदलने वाला, कोई अपरिवर्तित, कोई अनमूविंग तथ्य, उसकी स्मृति जगाने की है। तब फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बच्चा था; फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं जवान था; फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बूढ़ा हूं।
नहीं, तब हमारी बात और होगी। तब हम कहेंगे कि मैं कभी बचपन में था, मैं कभी जवानी में था, मैं कभी बुढ़ापे में था। मैं कभी जन्मा, मैं कभी मरने में था। लेकिन यह जो मैं है, यह इन सारी स्थितियों से ऐसे ही टूट जाएगा, जैसे कोई यात्री स्टेशनों से गुजरता है। तो अहमदाबाद के स्टेशन पर नहीं कहता कि मैं अहमदाबाद हूं। वह कहता है कि मैं अहमदाबाद के स्टेशन पर हूं। बंबई पहुंचकर वह यह नहीं कहता कि मैं बंबई हो गया हूं। वह कहता है, मैं बंबई के स्टेशन पर हूं। क्योंकि अगर वह बंबई हो जाए, तो फिर अहमदाबाद कभी नहीं हो सकेगा। अहमदाबाद हो जाए, तो फिर बंबई कभी नहीं हो सकेगा।
आप अगर बच्चे थे, तो जवान कैसे हो सकते हैं? और अगर आप जवान थे, तो बूढ़े कैसे हो सकते हैं? निश्चित ही कोई आपके भीतर होना चाहिए जो बच्चा नहीं था। इसलिए बचपन भी आया और गया; जवानी भी आई और गई; बुढ़ापा भी आया और जाएगा। जन्म भी आया, मृत्यु भी आई; और कोई है, जो इस सब के भीतर खड़ा है और सब आ रहा है और जा रहा है स्टेशंस की तरह।
अगर यह फासला दिखाई पड़ जाए कि जिन्हें हम अपना होना मान लेते हैं, वे केवल स्थितियां हैं। हमारा होना वहां से गुजरा है, लेकिन हम वही नहीं हैं--उसके स्मरण के लिए कृष्ण कह रहे हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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