सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 7

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र मुह्यति।। १३।।

किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमारयुवा और वृद्ध अवस्था होती हैवैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।






कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे इस एक शरीर में भी सब बदलाहट है--बचपन हैजवानी हैबुढ़ापा हैजन्म हैमृत्यु है--जैसे इस एक शरीर में भी कुछ थिर नहीं हैजैसे इस एक शरीर में भी सब अथिरसब बदला जा रहा हैबच्चे जवान हुए जा रहे हैंजवान बूढ़े हुए जा रहे हैंबूढ़े मृत्यु में उतरे जा रहे हैं...।

एक बड़े मजे की बात हैभाषा में पता नहीं चलताक्योंकि शब्दों में गति नहीं होती। शब्द तो ठहरे हुए थिर  होते हैं। चूंकि भाषा में शब्द ठहरे हुए होते हैंजीवन के साथ भाषा बड़ा अनाचार करती है। जीवन में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता। न ठहरे हुए जीवन पर जब हम ठहरे हुए शब्दों को जड़ देते हैंतो बड़ी गलती हो जाती है।


कृष्ण कह रहे हैंइस जीवन में भी अर्जुनचीजें ठहरी हुई नहीं हैं। इस जीवन में भी जिन आकृतियों को तू देख रहा हैकल वे बच्चा थींजवान हुईंबूढ़ी हो गईं।

बड़े मजे की बात है। अगर मां के पेट में जब पहली दफे बीजारोपण होता हैउस सेलउस कोष्ठ का चित्र ले लिया जाए और आपको बताया जाए कि आप यही थे पचास साल पहलेतो आप मानने को राजी न होंगे कि क्या मजाक करते हैंमैं और यह! एक छोटा-सा सेल जो नंगी आंख से दिखाई भी नहीं पड़ताजिसको खुर्दबीन से देखना पड़ता हैजिसमें न कोई आंख हैन कोई कान हैन कोई हड्डी हैजिसमें कुछ भी नहीं हैजिसका पता नहीं कि वह स्त्री होगी कि पुरुष होगाजिसका पता नहींएक छोटा-सा बिंदुयह काला धब्बा--यह मैं! मजाक कर रहे हैं। यह मैं कैसे हो सकता हूं! लेकिन यह आपकी पहली तस्वीर है। इसे अपने एल्बम में लगाकर रखना चाहिए। और अगर यह आप नहीं हैंतो जो तस्वीर आपकी आज हैवह भी आप नहीं हो सकते हैं। क्योंकि कल वह भी बदल जाएगी।

अगर हम एक आदमी कीपहले दिन पैदा हुआ था तब की तस्वीरऔर जिस दिन मरता है उस दिन की तस्वीर को आस-पास रखेंक्या इन दोनों के बीच कोई भी तालमेल दिखाई पड़ेगाकोई भी संबंध हम जोड़ पाएंगेक्या हम कभी कल्पना भी कर पाएंगे कि यह वही बच्चा हैजो पैदा हुआ थावही यह बूढ़ा मर रहा है!  कोई संगति दिखाई नहीं पड़ेगीबड़ी असंगत बात दिखाई पड़ेगी कि कहां यह कहां वहइसका कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन इतने असंगत प्रवाह की भी हम कभी चिंताकभी विचार नहीं करते हैं।

कृष्ण यही विचार उठाना चाह रहे हैं अर्जुन में। वे यह कह रहे हैं कि जिन आकृतियों को तू कह रहा है कि ये मिट जाएंगीइसका मुझे डर हैये आकृतियां मिट ही रही हैं। ये चौबीस घंटे मिटती ही रही हैं। ये सदा मिटने के क्रम में ही लगी हैं।

तो कृष्ण कह रहे हैं कि बचपन थाजवानी थीबुढ़ापा था। इस सब बदलाहट के बीच कोई थिरकोई नहीं बदलने वालाकोई अपरिवर्तितकोई अनमूविंग तथ्यउसकी स्मृति जगाने की है। तब फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बच्चा थाफिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं जवान थाफिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बूढ़ा हूं।

नहींतब हमारी बात और होगी। तब हम कहेंगे कि मैं कभी बचपन में थामैं कभी जवानी में थामैं कभी बुढ़ापे में था। मैं कभी जन्मामैं कभी मरने में था। लेकिन यह जो मैं हैयह इन सारी स्थितियों से ऐसे ही टूट जाएगाजैसे कोई यात्री स्टेशनों से गुजरता है। तो अहमदाबाद के स्टेशन पर नहीं कहता कि मैं अहमदाबाद हूं। वह कहता है कि मैं अहमदाबाद के स्टेशन पर हूं। बंबई पहुंचकर वह यह नहीं कहता कि मैं बंबई हो गया हूं। वह कहता हैमैं बंबई के स्टेशन पर हूं। क्योंकि अगर वह बंबई हो जाएतो फिर अहमदाबाद कभी नहीं हो सकेगा। अहमदाबाद हो जाएतो फिर बंबई कभी नहीं हो सकेगा।

आप अगर बच्चे थेतो जवान कैसे हो सकते हैंऔर अगर आप जवान थेतो बूढ़े कैसे हो सकते हैंनिश्चित ही कोई आपके भीतर होना चाहिए जो बच्चा नहीं था। इसलिए बचपन भी आया और गयाजवानी भी आई और गईबुढ़ापा भी आया और जाएगा। जन्म भी आयामृत्यु भी आईऔर कोई हैजो इस सब के भीतर खड़ा है और सब आ रहा है और जा रहा है स्टेशंस की तरह।
अगर यह फासला दिखाई पड़ जाए कि जिन्हें हम अपना होना मान लेते हैंवे केवल स्थितियां हैं। हमारा होना वहां से गुजरा हैलेकिन हम वही नहीं हैं--उसके स्मरण के लिए कृष्ण कह रहे हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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