शुक्रवार, 17 मई 2024

 एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, 'मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवान के लिये कहती है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं।' वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दर की बात सुन रही थी। उसने मन-ही-मन कामना की- 'मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानी के पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी?' प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपी के मन की जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया-  उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी। 

वह खुशी से छककर फूली-फूली फिरने लगी। आनन्द उसके हृदय में समा नहीं रहा था। सहेलियों ने पूछा- 'अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या?' वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी। उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्‌गद हो गयी, मुँह से बोली नहीं निकली। सखियों ने कहा- 'सखि ! ऐसी क्या बात बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है-हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं। भला, हमसे छिपाने की कौन सी बात है?' तब उसके मुँहसे इतना ही निकला- 'मैंने आज अनूप रूप देखा है।' बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेम के आँसू बहने लगे ! सभी गोपियों की यही दशा थी।

रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखतीं। उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता। प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीके पर रखतीं; कहीं प्राणधन आकर लौट न जायें, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं - 'हा! आज प्राणप्रियतम क्यों नहीं आये? इतनी देर क्यों हो गयी? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करेंगे? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे? कहीं यशोदा मैया ने तो उन्हें नहीं रोक लिया? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं। माखन की क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!' इन्हीं विचारों में आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौड़कर दरवाजे पर जाती, लाज छोड़कर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता ! ऐसी भाग्यवती गोपियों की मनःकामना भगवान् उनके घर पधार कर पूर्ण करते।

अपने निजजन व्रजवासियों को सुखी करने के लिये ही तो भगवान् गोकुल में पधारे थे। माखन तो नन्दबाबा के घर पर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्दबाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिये ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुरा कर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा- पद्धति का भगवान्‌ के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान् भक्तकी पूजा स्वीकार कैसे न करें?

भगवान की इस दिव्यलीला - माखनचोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये- ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं- उनकी जान में, उनके देखते-देखते और आगे जानने की कोई बात ही नहीं - उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महत्त्वकी यह है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान्‌ की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान्‌ का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चोरी कर सकते हैं? हाँ, चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान्‌ की वस्तु को अपनी मान कर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियोंसे यही सिद्ध होता है कि माखन चोरी चोरी न थी, भगवान्‌ की दिव्य लीला थी। असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान्‌ का प्रेम का नाम 'चोर' रख दिया था, क्योंकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही।

जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण को भगवान् नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान्‌ की लीलापर विचार करने का कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टि से भी इस प्रसंग में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेह के कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करनेवालों को कुछ सन्तोष होगा।



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