गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 38

 


 संशयात्मा विनश्यति


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 40।।


और हे अर्जुन भगवत विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।



संशय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता, न उस लोक में। विनाश ही उसकी नियति है।

दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं।



एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा हुआ। दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति भगवत्प्रेम को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति संशयात्मा नहीं होता है। लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग कहा, क्योंकि दोनों के तल अलग-अलग हैं।

संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन मन से संशय न जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण नहीं होता। और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन संशयरहित होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन दोनों की अभिव्यक्ति का तल भिन्न-भिन्न है।

इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं कि संशयात्मा--संशय से भरी हुई आत्मा--विनष्ट हो जाती है, तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है; तल मन है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने संशयात्मा प्रयोग किया है।

जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही आत्मा जानता है। और ऐसा मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता है।

संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें, अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन  यह या वह, इस भांति सोचता है।

जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही तय नहीं कर पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर पाता। जो यही तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह कभी भी कुछ नहीं हो पाता।

सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए। विनाश के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना पड़ता।

किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे रहें, विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना पड़ता है। लेकिन पत्थर की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं होती।

इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस जगत में विनाश स्वयं आ जाता है, बिना हमारे सहारे के। लेकिन इस जगत में सृजन हमारे संकल्प के बिना नहीं होता है। इस जगत में कुछ भी निर्मित हमारी पूरी की पूरी श्रम, शक्ति, चित्त, शरीर, सबके समाहित लग जाए बिना, इस जगत में कुछ निर्मित नहीं होता है। विनाश अपने से हो जाता है। बनाना हो, बनाना अपने से नहीं होता है।

संशय से भरा हुआ चित्त विनाश को उपलब्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि संशय से भरे चित्त को विनाश के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। विनाश आ जाता है, संशय से भरा हुआ चित्त देखता रहता है। घर में लगी हो आग, संशय से भरी आत्मा की क्या स्थिति होगी? बाहर निकलूं या न निकलूं? घर में लगी है आग, बाहर निकलूं या न निकलूं? संशय से भरे चित्त की यह स्थिति होगी।

आग नहीं रुकेगी आपके संशय के लिए, न आपके निर्णय के लिए। आग बढ़ती रहेगी। और संशय से भरा चित्त ऐसा होता है कि जितनी बढ़ेगी आग, उतना प्रगाढ़ हो जाएगा उसका भीतर का खंडन। उतना ही विचार तेज चलने लगेगा, निकलूं न निकलूं! आग नहीं रुकेगी। विनाश फलित होगा। वह आदमी घर के भीतर मरेगा। हम सब जिस जीवन में खड़े हैं--पदार्थ के, संसार के--वह आग लगे घर से कम नहीं है।


संशय से भरा हुआ चित्त समय को गंवा देता है, इसलिए विनष्ट होता है। समय एक अवसर है, एक अपरचुनिटी। और ऐसा अवसर, जो मिल भी नहीं पाता और खो जाता है। क्षण आता है हाथ में; दो क्षण कभी एक साथ नहीं आते। एक क्षण से ज्यादा इस पृथ्वी पर शक्तिशाली से शक्तिशाली मनुष्य के पास भी कभी ज्यादा नहीं आता। एक ही क्षण आता है हाथ में, बारीक क्षण। जान भी नहीं पाते कि आया और निकल जाता है।

संशय से भरा हुआ व्यक्ति जीवन के सभी क्षणों को गंवा देता है। क्योंकि संशय के लिए काफी समय चाहिए, और क्षण एक ही होता है हाथ में। जब तक वह सोचता है, तब तक क्षण चला जाता है। जब तक वह सोचता है, फिर क्षण चला जाता है। अंततः मृत्यु ही आती है संशय के हाथ में; जीवन पर पकड़ नहीं आ पाती; जीवन खो जाता है। जीवन खो जाता है निर्णय में ही कि करूं, न करूं।

असल में निःसंशय व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जीवन का अंतिम जोड़ हमारे किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय निर्णय का जोड़ ज्यादा है। जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने, करने, और करने, और करने, और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और असंशय रहने की योग्यता इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय किए गए निर्णय की क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।


कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो जाता है, तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। कृष्ण तो परम अवसर की बात कर रहे हैं कि जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर में कोई चाहे तो परम उपलब्धि को पा सकता है--आनंद को, एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि जहां सब जीवन का कण-कण नाच उठता और अमृत से भर जाता है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट जाता; और जहां जीवन के सब फूल सुवासित हो खिल उठते हैं; जहां जीवन का प्रभात होता है और आनंद के गीत का जन्म होता है।

उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!


एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है, तब कभी इतना सोचते हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना सोचते हैं? जब वासना उठती है मन में, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे में तो हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार पर, तो हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही खड़े थे द्वार पर हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं!

यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय नहीं करता, शुभ को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश से खिंचा चला आता है। लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, गौरीशंकर की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर फेंकना पड़ता है। अगर बहुत सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को नहीं ढोया जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना पड़ता है। वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा है। एक-एक चीज छोड़ते जानी पड़ती है।

अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गङ्ढे में गिरते चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है।

क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के लिए दो क्षण सोच ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण अगर संन्यास के लिए भी सोच ले, तो संन्यास से भी चूक जाएगा।

अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के साथ जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा।

फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ मिलता है। शुभ के मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।



असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है। साधु के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता; आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या न करे! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त। अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते हैं इरछे-तिरछे को, विषम को।

जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं घूम जाता है। गति सीधी नहीं होती।

निःसंशय चित्त की गति स्टे्रट, सीधी होती है। संशय से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।

फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध!

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं। एक, वस्तुओं का प्रेम। जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!

नहीं; इस तरह बचाना मत।


आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना।

लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं।


हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं, मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता। सिर्फ वस्तुओं की मालकियत होती है। अगर कोई पत्नी पति को पजेस करती है, कहती है, मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि मेरी हो; तो फर्नीचर में और पत्नी में बहुत भेद नहीं रह जाता है। उपयोग हो गया, लेकिन व्यक्ति का सम्मान न हुआ। उस दूसरे व्यक्ति की निज आत्मा का कोई आदर न हुआ।

वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं, इसलिए व्यक्तियों को भी प्रेम करते हैं, तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।

दूसरा प्रेम, व्यक्तियों का जो प्रेम है, वह कभी लाख में एक आदमी को, मैंने कहा, उपलब्ध होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है, दूसरे का अपना मूल्य है; मेरी उपयोगिता भर मूल्य नहीं है उसका। मैं उसका उपयोग कर लूं--इतना ही उसका मूल्य नहीं है। उसका अपना निज मूल्य है। वह मेरा साधन नहीं है। वह स्वयं अपना साध्य है।


गहरे से गहरा सूत्र है कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति, एक वस्तु की भांति नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी भी नहीं हो सकता हूं।

लेकिन व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते।

फिर तीसरा प्रेम है, भगवत्प्रेम। वह अस्तित्व का प्रेम है,  वस्तुओं के प्रति प्रेम, मकान, धन-दौलत, पद-पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम, मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम, भगवत्प्रेम है। समग्र अस्तित्व को प्रेम।

अब इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते हैं, तो हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखाई पड़ती हैं, कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग हैं जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही इंटिमेट नोइंग है। आंतरिक, आत्मीय जानना प्रेम ही है।

इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, तभी हम जानते हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं, तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह निर्भय होता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह छिपाता नहीं है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह उघड़ता है, खुलता है; भीतर बुलाता है, आओ; अतिथि बनो! ठहराता है हृदय के घर में।

जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है। अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा को। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जो भी है, उसके होने के कारण प्रेम।


जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है, उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है, वस्तु मात्र हो जाता है। व्यक्ति में भी वस्तु दिखाई पड़ती है। और भगवत चैतन्य तो कहीं दिखाई नहीं पड़ सकता।

भगवत चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है; फिर व्यक्तियों के प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता है, वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है, पूरा अस्तित्व। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखाई पड़ने लगता है। एक तरफ वस्तुओं का संसार है और एक तरफ अस्तित्व का लोक है। फिर वह आगे बढ़ सकता है।


व्यक्ति का प्रेम भी भगवत्प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम एक छोटी-सी खिड़की है, झरोखा, जिसमें से हम किसी एक व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। खिड़की! 

व्यक्ति से प्रेम करने में डर लगता है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता मांगेगा। वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है; स्वतंत्रता नहीं मांगते। तिजोरी में बंद किया; ताला डाला; आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद हैं। न भागते, न निकलते; न विद्रोह करते, न बगावत करते; न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा, आज नहीं चलेंगे! नहीं; जब चाहो, तब हाजिर होते हैं; जैसा चाहो, वैसा हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं, इसलिए हम वस्तुओं को चाहते हैं।

जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता, वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा, वह भगवत्प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत्प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।

भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत एक व्यक्तित्व है, भगवत्प्रेम का अर्थ है, जगत नहीं है, भगवान है। इसका मतलब समझते हैं? अस्तित्व नहीं है, भगवान है। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है; हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।

इसलिए भक्त--भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने व्यक्तित्व दिया। भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने भगवान कहा। भक्त का अर्थ है, ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय, जो इस पूरे अस्तित्व को एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है, तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। सूरज को नमस्कार नासमझ नहीं कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से नासमझ कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू किया था, वे नासमझ नहीं थे।

फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था। तो हमने कहा, सूर्य देवता है; रथ पर सवार है; घोड़ों पर जुता हुआ है; दौड़ता है आकाश में। सुबह होता, जागता; सांझ होता, अस्त होता। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं; ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें पदार्थगत नहीं हैं; ये बातें आत्मगत हैं।

नदियों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। वृक्षों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। सारे जगत को व्यक्तित्व दे दिया। कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है। आज भी आप कभी किसी पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं। लेकिन आपने खयाल नहीं किया होगा कि जो आदमी, आदमियों को वस्तु जैसा व्यवहार करता है, उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है, जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है, वह भी परमात्मा का हिस्सा है; उसके पत्ते-पत्ते में भी उसी की छाप है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह-जगह वही है अनेक-अनेक रूपों में। चेहरे होंगे भिन्न; वह जो भीतर छिपा है, भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उनसे, वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श करता है उनसे, वह वही है।

मैंने कहा, गीत गाता हुआ, वाणी से नहीं। ऐसे भी गीत हैं, जो प्राणों से गाए जाते हैं। ऐसे भी गीत हैं, जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शब्द से तो चुप था। पर गीत गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद देता हुआ!


इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत्प्रेम को उपलब्ध हुआ होगा, तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है।भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल लेता है उससे।


जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा कि हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं; तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा। पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा; लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश--खाली और शून्य। हंसे होंगे मन में कि पागल है। लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया, क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।

भगवत्प्रेम हो, तो व्यक्ति और परम-व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है, आदान-प्रदान हो पाता है। और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार और कोई भी नहीं है। प्रार्थना उसका नाम है। भगवत्प्रेम में वह घटित होती है।

तो कृष्ण कहते हैं, संशयमुक्त, भगवत्प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है, परलोक में भी। संशय से भरा हुआ, भगवत्प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस लोक में भी।

दुख हमारा अपना अर्जन है, हमारी अपनी अघनग है। हमारा अपना अर्जित है दुख। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है। दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है, और कोई रिस्पांसिबल नहीं है। दुखी हैं, तो कारण है कि संशय को जगह देते हैं। दुखी हैं, तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं; परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं।

आनंदित जो होता है, उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है। वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।

गङ्ढे हैं। वर्षा होती है, तो गङ्ढों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत के शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती। पानी नीचे बहकर गङ्ढों में पहुंचकर झील बन जाती है। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं, उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलों पर वर्षा होती है, तो भर जाता है। झीलें खाली हैं, इसलिए भर जाता है।

जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत्प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं; बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए। जब संशय होता है, तो अनेक संशय होते हैं। संशय भी भीड़ में आते हैं, एक नहीं आता। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं।

संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है संशय का। उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है, लेकिन भर नहीं पाता। संशयमुक्त झील बन जाता है--गङ्ढा, खाली, शून्य--प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए गर्भ बन जाता है। स्वीकार कर लेता है।

इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना, तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया, तो उसका भी कारण है। कारण है। और वह कारण है, गङ्ढा बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव बनना है। स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है; गर्भ बनती है; स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर जन्म देती है, बढ़ाती है। अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की, तो उसका कारण है। इसीलिए कि वे गङ्ढे बन जाएं, प्रभु उनमें भर जाए।

लेकिन जो अहंकार के शिखर हैं, वे खाली रह जाते हैं। और जो विनम्रता के गङ्ढे हैं, वे भर जाते हैं।

प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनंद है, उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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