गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 9

  ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। 10।।


जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।



परमात्मा को समर्पण करके समस्त कर्मों को जीता है जो पुरुष, वह कमल के पत्तों की भांति जल में रहते हुए भी जल से, पाप से लिप्त नहीं होता है।

दोत्तीन छोटी-सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। पहली बात, परमात्मा को समर्पित कर देता है जो!

हम भी परमात्मा को समर्पित करना चाहते हैं। कभी-कभी करते हैं, लेकिन केवल अपनी असफलताएं! सफलताएं कभी भी नहीं। केवल पराजय, जीत कभी भी नहीं। केवल दुख, सुख कभी भी नहीं।

कोई हार जाता है, तो कहता है, भाग्य। और कोई जीत जाता है, तो कहता है, मैं। कोई टूट जाता है, गिर जाता है, तो कहता है, अवसर, समय। सफल हो जाता है, तो कहता है, मैं। सफलताएं सब मैं को समर्पित कर देते हैं; असफलताएं सब परमात्मा को समर्पित कर देते हैं! दुख आते हैं, तो परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं कि क्यों देता है दुख! सुख आते हैं, तो अकड़कर निकलते हैं कि देखा, सुख निर्मित कर लिया!

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब समर्पित कर देता है जो।

समर्पित तो हम भी करते हैं, सब नहीं, चुन-चुनकर समर्पित करते हैं। सब! कह देता है, हार तेरी, जीत तेरी। कह देता है, तू ही है, मैं नहीं। कह देता है, फल तेरे। न फल आएं, तो निष्फलता तेरी। मेरा कुछ भी नहीं। स्वभावतः, जो इतनी सामर्थ्य दिखा पाएगा...।

और ध्यान रहे, समर्पण से बड़ी सामर्थ्य नहीं है। समर्पण से बड़ा संकल्प भी नहीं है। समर्पण कमजोरों की दुनिया की बात नहीं है, समर्पण इस जगत में बड़ी से बड़ी शक्ति की घटना है।

जो कह देता है, सब तेरा, स्वभावतः उसी क्षण बाहर हो जाता है। स्वभावतः, उसी क्षण सारी झंझट के बाहर हो जाता है। फिर छुएगा कैसे! फिर पाप छुएंगे कैसे? जब कर्म ही नहीं छूता, तो पाप कैसे छुएंगे! पुण्य भी नहीं छुएंगे, ध्यान रखना। नहीं तो भूल होती है निरंतर गीता पढ़ने वालों को। वे सोचते हैं कि ऐसे आदमी को पाप नहीं छूते, पुण्य इकट्ठे करता चला जाता है! पुण्य भी नहीं छुएंगे। जिसे पाप नहीं छूते, उसे पुण्य छुएंगे? वह जो कमल का पत्ता होता है; क्या आप सोचते हैं, गंदा पानी उसको नहीं छूता, स्वच्छ पानी छू लेता है? क्या पानी में इत्र डाल देंगे, तो छू लेगा?

नहीं, जब कर्म ही नहीं छूते, तो न पाप छूता है, न पुण्य छूते हैं। कुछ भी नहीं छूता। वैसा आदमी अस्पर्शित, अनटच्ड जीवन से गुजर जाता है। बस, ठीक कमल के पत्ते की तरह। जल में ही होता है। पूरे समय जल की धार भी उस पर पड़ती है। कभी जल की लहरें छलांग मारकर उसकी छाती पर पड़ जाती हैं। बूंदें चमकने लगती हैं उसकी छाती पर मोतियों की तरह। लेकिन अस्पर्शित; पत्ते को छू नहीं पातीं। पड़ी रहती हैं ऊपर, तो पड़ी रहें। परमात्मा को समर्पित। सागर जाने, सागर की लहरें जानें। जब वापस लेना होगा हवा के झोंकों को, फिर उतर जाएंगी बूंदें। लेकिन पत्ता अस्पर्शित रह जाता है।

ठीक ऐसे ही, जो पुरुष कर देता सब कर्म समर्पित प्रभु को, वह भी अस्पर्शित जीवन में यात्रा करता है। और जिसे न पाप छुएं और न पुण्य, उसकी ताजगी, उसका क्वांरापन, उसकी वर्जिनिटी...। सच पूछें, तो वही क्वांरा है। जिसे छू जाएं पाप और पुण्य, वह क्वांरा न रहा।

कर्म परमात्मा को समर्पित है तब। तब कोई भी व्यक्ति इस जीवन से ऐसे गुजर जाता है, जैसे आया ही न हो। ऐसे गुजर जाता है कि जैसे हवा का झोंका आया और निकल गया। जैसा आया, वैसा ही निकल गया।

यह सूत्र, निष्काम कर्मयोगी हो कोई या कोई कर्म-त्याग के संन्यास में जी रहा हो, दोनों के लिए सार्थक है। एक ही बात स्मरण रखने की है, सारे कर्म परमात्मा को समर्पित!


वही है धार्मिक, जो कहता है कि करने वाला परमात्मा है। वही है अधार्मिक, जो कहता है, करने वाला मैं हूं। अगर आपने प्रार्थना करने में भी यह कहा कि मैंने प्रार्थना की है, तो आप अधार्मिक हो गए। आपने पूजा करके भी यह कहा कि मैंने पूजा की है, तो आप अधार्मिक हो गए! जहां कृत्य का भाव स्वयं से जुड़ा, अधर्म आ गया। और जहां कृत्य परमात्मा पर छोड़ दिया, वहीं धर्म है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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