गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 1

 अर्जुन का पलायन-


संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।। १।।
संजय ने कहा: पूर्वोक्त प्रकार से दया से भरकर और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।। २।।
हे अर्जुनतुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआक्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया हैन स्वर्ग को देने वाला है, न कीर्ति को करने वाला है।

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। ३।।
इसलिए हे अर्जुननपुंसकता को मत प्राप्त हो। यह तेरे लिए योग्य नहीं है। हे परंतपतुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो।





संजय ने अर्जुन के लिएदया से भरा हुआदया के आंसू आंख में लिएऐसा कहा है। दया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। संजय ने नहीं कहाकरुणा से भरा हुआकहा हैदया से भरा हुआ।
साधारणतः शब्दकोश में दया और करुणा पर्यायवाची दिखाई पड़ते हैं। साधारणतः हम भी उन दोनों शब्दों का एक-सा प्रयोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। दया का अर्थ हैपरिस्थितिजन्यऔर करुणा का अर्थ हैमनःस्थितिजन्य। उनमें बुनियादी फर्क है।
करुणा का अर्थ हैजिसके हृदय में करुणा है। बाहर की परिस्थिति से उसका कोई संबंध नहीं है। करुणावान व्यक्ति अकेले में बैठा होतो भी उसके हृदय से करुणा बहती रहेगी। जैसे निर्जन में फूल खिला होतो भी सुगंध उड़ती रहेगी। राह पर निकलने वालों से कोई संबंध नहीं है। राह से कोई निकलता है या नहीं निकलता हैफूल की सुगंध को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। नहीं कोई निकलतातो निर्जन पर भी फूल की सुगंध उड़ती है। कोई निकलता है तो उसे सुगंध मिल जाती हैयह दूसरी बात हैफूल उसके लिए सुगंधित नहीं होता है।


करुणा व्यक्ति की अंतस चेतना का स्रोत है। वहां सुगंध की भांति करुणा उठती है। इसलिए बुद्ध को या महावीर को दयावान कहना गलत हैवे करुणावान हैंमहाकारुणिक हैं।
अर्जुन को संजय कहता हैदया से भरा हुआ। दया सिर्फ उनमें पैदा होती हैजिनमें करुणा नहीं होती। दया सिर्फ उनमें पैदा होती हैजिनके भीतर हृदय में करुणा नहीं होती। दया परिस्थिति के दबाव से पैदा होती है। करुणा हृदय के विकास से पैदा होती है। राह पर एक भिखारी को देखकर जो आपके भीतर पैदा होता हैवह दया हैवह करुणा नहीं है।
और तब एक बात और समझ लेनी चाहिए कि दया अहंकार को भरती है और करुणा अहंकार को विगलित करती है। करुणा सिर्फ उसमें ही पैदा होती हैजिसमें अहंकार न हो। दया भी अहंकार को ही परिपुष्ट करने का माध्यम है। अच्छा माध्यम हैसज्जनों का माध्यम हैलेकिन माध्यम अहंकार को ही पुष्ट करने का है।
जब आप किसी को दान देते हैंतब आपके भीतर जो रस उपलब्ध होता है--देने वाले कादेने वाले की स्थिति में होने का--भिखारी को देखकर जो दया पैदा होती हैउस क्षण में अगर भीतर खोजेंगेतो अहंकार का स्वर भी बजता होता है। करुणावान चाहेगापृथ्वी पर कोई भिखारी न रहेदयावान चाहेगाभिखारी रहे। अन्यथा दयावान को बड़ी कठिनाई होगी। दया पर खड़े हुए समाज भिखारी को नष्ट नहीं करतेपोषित करते हैं। करुणा पर कोई समाज खड़ा होगातो भिखारी को बरदाश्त नहीं कर सकेगा। नहीं होना चाहिए।
अर्जुन के मन में जो हुआ हैवह दया है। करुणा होती तो क्रांति हो जाती। इसे इसलिए ठीक से समझ लेना जरूरी है कि कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैंवह ध्यान में रखने योग्य है। तत्काल कृष्ण उससे जो कह रहे हैंवह सिर्फ उसके अहंकार की बात कह रहे हैं। वह उससे कह रहे हैंअनार्यों के योग्य। वह दूसरा सूत्र बताता है कि कृष्ण ने पकड़ी है बात।
अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें। वह कह रहा हैमुझे दया आती है। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूंकृत्य बुरा हैऐसा नहीं। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूंइतना बुरा मैं कहां हूं!  इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं।

इस स्वर को कृष्ण ने पकड़ा है। इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण इस पृथ्वी पर पहले मनोवैज्ञानिक हैं। क्योंकि दूसरा सूत्र कृष्ण का सिर्फ अर्जुन के अहंकार को और बढ़ावा देने वाला सूत्र है।
दूसरे सूत्र में कहते हैंकैसे अनार्यों जैसी तू बात करता हैआर्य का अर्थ है श्रेष्ठजनअनार्य का अर्थ है निकृष्टजन। आर्य का अर्थ है अहंकारीजनअनार्य का अर्थ है दीन-हीन। तू कैसी अनार्यों जैसी बात करता है!
अब सोचने जैसा है कि दया की बात अनार्यों जैसी बात है! आंख में दया से भरे हुए आंसू अनार्यों जैसी बात है! और कृष्ण कहते हैंइस पृथ्वी पर अपयश का कारण बनेगा और परलोक में भी अकल्याणकारी है ,दया!
शायद ही कभी आपको खयाल आया हो कि संजय कहता हैदया से भरा अर्जुनआंखों में आंसू लिएऔर कृष्ण जो कहते हैंउसमें तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि दया को हमने कभी ठीक से नहीं समझा कि दया भी अहंकार का भूषण है। दया भी अहंकार का कृत्य है। 
ध्यान रहेअहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता हैबुराइयों से भी अपने को भरता है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलतीतभी वह बुराइयों से अपने को भरता है।
इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैंउनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता। सज्जन और दुर्जनएक ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है। सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है। चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता।

सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं। अगर मैं आपको भूखा मारूंतो दुर्जन हो जाऊंगा। कानूनअदालत मुझे पकड़ेंगे। लेकिन मैं खुद ही अनशन करूंतो कोई कानूनअदालत मुझे पकड़ेगा नहींआप ही मेरा जुलूस निकालेंगे।
लेकिन भूखा मारना आपको अगर बुरा हैतो मुझको भूखा मारना कैसे ठीक हो जाएगासिर्फ इसलिए कि यह शरीर मेरे जिम्मे पड़ गया है और वह शरीर आपके जिम्मे पड़ गया है! तो आपके शरीर को अगर कोड़े मारूं और आपको अगर नंगा खड़ा करूं और कांटों पर लिटा दूंतो अपराध हो जाएगा। और खुद नंगा हो जाऊं और कांटों पर लेट जाऊंतो तपश्चर्या हो जाएगी! सिर्फ रुख बदलने सेसिर्फ तीर उस तरफ से हटकर इस तरफ आ जाएतो धर्म हो जाएगा!
अर्जुन कह रहा हैइन्हें मारने की बजाय तो मैं मर जाऊं। वह बात वही कह रहा हैमरने-मारने की ही कह रहा है। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। हांतीर का रुख बदल रहा है।
और ध्यान रहेदूसरे को मारने में कभी इतने अहंकार की तृप्ति नहीं होतीजितना स्वयं को मारने में होती है। क्योंकि दूसरा मरते वक्त भी मुंह पर थूककर मर सकता है। लेकिन खुद आदमी जब अपने को मारता हैतो बिलकुल निहत्थाबिना उत्तर के मरता है। दूसरे को मारना कभी पूरा नहीं होता। दूसरा मरकर भी बच जाता है। उसकी आंखें कहती हैं कि मार डाला भलालेकिन हार नहीं गया वह! लेकिन खुद को मारते वक्त तो कोई उपाय ही नहीं। हराने का मजा पूरा आ जाता है।
अर्जुन दया की बात करता हो और कृष्ण उससे कहते हैं कि अर्जुनतेरे योग्य नहीं हैं ऐसी बातेंअपयश फैलेगा--तो वे सिर्फ उसके अहंकार को फुसला रहे हैंपरसुएड कर रहे हैं।
दूसरा सूत्र कृष्ण काबताता है कि पकड़ी है उन्होंने नस। वे ठीक जगह छू रहे हैं उसे। क्योंकि उसे यह समझाना कि दया ठीक नहींव्यर्थ है। उसे यह भी समझाना कि दया और करुणा में फासला हैअभी व्यर्थ है। अभी तो उसकी रग अहंकार है। अभी अहंकार सैडिज्म से मैसोचिज्म की तरफ जा रहा है। अभी वह दूसरे को दुख देने की जगहअपने को दुख देने के लिए तत्पर हो रहा है।
इस स्थिति में वे दूसरे सूत्र में उससे कहते हैं कि तू क्या कह रहा है! आर्य होकरसभ्यसुसंस्कृत होकरकुलीन होकरकैसी अकुलीनों जैसी बात कर रहा है! भागने की बात कर रहा है युद्ध सेकातरता तेरे मन को पकड़ती हैवे चोट कर रहे हैं उसके अहंकार को।
बहुत बार गीता को पढ़ने वाले लोग ऐसी बारीक और नाजुक जगहों पर बुनियादी भूल कर जाते हैं। क्या कृष्ण यह कह रहे हैं कि अहंकारी होनहींकृष्ण सिर्फ यह देख रहे हैं कि जो दया उठ रही हैवह अगर अहंकार से उठ रही हैतो अहंकार को फुलाने से तत्काल विदा हो जाएगी।
इसलिए कहते हैंकातरपन की बातें कर रहा है! कायरता की बातें कर रहा है! सख्त से सख्त शब्दों का वे उपयोग करेंगे।
यहां अर्जुन से वे जो कह रहे हैं पूरे वक्तउसमें क्या प्रतिक्रिया पैदा होती हैउसके लिए कह रहे हैं। मनोविश्लेषण शुरू होता है। कृष्ण अर्जुन को साइकोएनालिसिस में ले जाते हैं। लेट गया अर्जुन कोच पर अब कृष्ण की। अब वे जो भी पूछ रहे हैंउसको जगाकर पूरा देखना चाहेंगे कि वह है कहां! कितने गहरे पानी में है!
अब आगे से कृष्ण यहां साइकोएनालिस्टमनोविश्लेषक हैं। और अर्जुन सिर्फ पेशेंट हैसिर्फ बीमार है। और उसे सब तरफ से उकसाकर देखना और जगाना जरूरी है। पहली चोट वे उसके अहंकार पर करते हैं।
और स्वभावतःमनुष्य की गहरी से गहरी और पहली बीमारी अहंकार है। और जहां अहंकार हैवहां दया झूठी है। और जहां अहंकार हैवहां अहिंसा झूठी है। और जहां अहंकार हैवहां शांति झूठी है। और जहां अहंकार हैवहां कल्याण और मंगल और लोकहित की बातें झूठी हैं। क्योंकि जहां अहंकार हैवहां ये सारी की सारी चीजें सिर्फ अहंकार के आभूषण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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