गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 5

 


कर्ता का भ्रम


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवशः कर्म प्रकृतिजैर्गुणैः।। ५।


सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता है, क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है। निःसंदेह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं।


जीवन ही कर्म है। मृत्यु कर्म का अभाव है। जन्म कर्म का प्रारंभ है, मृत्यु कर्म का अंत है। जीवन में कर्म को रोकना असंभव है। ठीक से समझें, तो जीवन और कर्म पर्यायवाची हैं। एक ही अर्थ है उनका। इसलिए जीते-जी कर्म चलेगा ही। इस संबंध में मनुष्य की कोई स्वतंत्रता नहीं है।


कर्म के संबंध में जीते-जी छुटकारा असंभव है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है। श्वास भी लूंगा, तो भी कर्म होगा। उठूंगा तो भी, बैठूंगा तो भी कर्म होगा। जीना  कर्म की प्रक्रिया का ही नाम है।


इसलिए जो लोग सोचते हैं कि जीते-जी कर्मत्याग कर दें, वे सिर्फ असंभव बातें सोच रहे हैं। वह संभव नहीं हो सकता है। संभव इतना ही हो सकता है कि वे एक कर्म को छोड़कर दूसरे कर्म को करना शुरू कर दें।

जिसे हम गृहस्थ कहते हैं, वह एक तरह के कर्म करता है। और जिसे संन्यासी कहते हैं, वह दूसरे तरह के कर्म करता है। संन्यासी कर्म नहीं छोड़ पाता। इसमें संन्यासी का कोई कसूर नहीं है। जीवन का स्वभाव ऐसा है। इसलिए जो कर्म छोड़ने की असंभव आकांक्षा करेगा, वह पाखंड में और हिपोक्रेसी में गिर जाएगा।

इस देश में वैसी दुर्घटना घटी। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। यद्यपि आप कहेंगे, गीता से ज्यादा कुछ भी नहीं पढ़ा गया है। लेकिन साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि गीता से कम कुछ भी नहीं समझा गया है। अक्सर ऐसा होता है कि जो बहुत पढ़ा जाता है, उसे हम समझना बंद कर देते हैं। बहुत बार पढ़ने से ऐसा लगता है, बात समझ में आ गई। स्मरण हो जाने से लगता है, समझ में आ गई। स्मृति ही ज्ञान मालूम होने लगती है। गीता कंठस्थ है और पृथ्वी पर सर्वाधिक पढ़ी गई किताबों में से एक है, लेकिन सबसे कम समझी गई किताबों में से भी एक है।

जैसे यही बात, कर्म नहीं छोड़ा जा सकता; फिर भी इस देश का संन्यासी हजारों साल से कर्म छोड़ने की असंभव चेष्टा कर रहा है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निठल्लापन पैदा हुआ है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निष्क्रियता पैदा हुई है। और निष्क्रियता का अर्थ है, व्यर्थ कर्मों का जाल, जिनसे कुछ फलित भी नहीं होता। लेकिन कर्म जारी रहते हैं। पाखंड उपलब्ध हुआ है। जो कर्म को छोड़कर भागेगा, उसकी कर्म की ऊर्जा व्यर्थ के कामों में सक्रिय हो जाती है।

दो तरह से लोग कर्म को छोड़ने की कोशिश करते हैं। दोनों ही एक-सी भ्रांतियां हैं। एक कोशिश संन्यासी ने की है कर्म को छोड़ने की--सब छोड़ दे, कुछ न करे। लेकिन कुछ न करने का मतलब सिर्फ आत्मघात हो सकता है। और आत्मघात भी करना पड़ेगा; वह भी अंतिम कर्म होगा। एक और रास्ता है, जिससे कर्म छोड़ने की आकांक्षा की जाती रही है। वह भी समझ लेना जरूरी है।

पूरब ने संन्यासी के रास्ते से कर्मत्याग की कोशिश की है और असफल हुआ है। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। पश्चिम ने दूसरे ढंग से कर्म को छोड़ने की कोशिश की है और वह यह है कि यदि (मशीन) यंत्र सारे काम कर दें, तो आदमी कर्म से मुक्त हो जाए! अगर सारा काम यंत्र कर सके, तो आदमी काम से मुक्त हो जाए, कर्म से मुक्त हो जाए, तो परम आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन पश्चिम दूसरी मुश्किल में पड़ गया है। और वह मुश्किल यह है कि जितना कम काम आदमी के हाथ में है, उतना आदमी ज्यादा उपद्रव हाथ में लेता चला जा रहा है। वह जो कर्म की ऊर्जा है, वह प्रकट होना मांगती है। वह कर्म की ऊर्जा कहीं से प्रकट होगी।

इसलिए पश्चिम में छुट्टी के दिन ज्यादा दुर्घटनाएं होंगी, ज्यादा हत्याएं होंगी, ज्यादा चोरियां होंगी, ज्यादा बलात्कार होंगे। क्योंकि छुट्टी के दिन कर्म की ऊर्जा क्या करे? अगर एक महीने के लिए पूरी छुट्टी दे दी जाए पश्चिम को, तो सारी सभ्यता एक महीने में नष्ट हो जाएगी और नीचे गिर जाएगी।

इसलिए पश्चिम के विचारक अब परेशान हैं कि आज नहीं कल यंत्र के हाथ में सारा काम चला जाएगा, फिर हम आदमी को कौन-सा काम देंगे! और अगर आदमी को काम न मिला, तो आदमी कुछ तो करेगा ही। और वह कुछ खतरनाक हो सकता है; अगर वह काम का न हुआ, तो आत्मघाती हो सकता है।

कृष्ण की बात पश्चिम में भी नहीं सुनी गई। असल में कृष्ण की बात किसी ने भी नहीं सुनी कि कर्म से छुटकारा नहीं है, क्योंकि जीवन और कर्म एक ही चीज के दो नाम हैं। सिर्फ एक बात हो सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जैसे जी रहे हैं और जो कर रहे हैं, वैसे ही जीते रहें और वैसे ही करते चले जाएं। अगर ऐसा कोई समझता है, तो उसे भी कृष्ण की बात सुनाई नहीं पड़ी।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि कर्म को बदलने की उतनी फिक्र मत करो, कर्ता को बदलने की फिक्र करो। असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो! असली सवाल यह है कि तुम क्या हो और क्या नहीं हो! असली सवाल डूइंग का नहीं, बीइंग का है। असली सवाल यह है कि भीतर तुम क्या हो! अगर तुम भीतर गलत हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे गलत फलित होगा। और अगर तुम भीतर सही हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे सही फलित होगा।

कर्म का प्रश्न नहीं है। वह भीतर जो व्यक्ति है, चेतना है, आत्मा है, कर्म उससे ही निकलते हैं, उससे ही फलते-फूलते हैं। उस चेतना, उस आत्मा का सवाल है। और वह आत्मा बीमार है एक बहुत बड़ी बीमारी से। लेकिन वह बड़ी बीमारी, हमें लगता है कि हमारा बड़ा स्वास्थ्य है। वह आत्मा बीमार है मैं के भाव से। मैं हूं--यही आत्मा की बीमारी है।


कभी शायद आपने खयाल न किया हो, अगर शरीर पूरा स्वस्थ हो, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता। ठीक से समझा जाए, तो स्वास्थ्य का एक ही प्रमाण होता है कि शरीर का पता न चलता हो, बाडीलेसनेस हो जाए। आपके सिर में दर्द होता है, तो सिर का पता चलता है। अगर सिर में दर्द न हो, तो सिर का पता नहीं चलता। और अगर सिर का थोड़ा भी पता चलता हो, तो समझना कि थोड़ा न थोड़ा सिर बीमार है। अगर पैर में पीड़ा हो, तो पैर का पता चलता है; पांव में कांटा गड़ा हो, तो पांव का पता चलता है। जहां भी वेदना है, वहीं बोध है। जहां वेदना नहीं, वहां बोध नहीं। जहां वेदना है, वहीं चेतना सघन हो जाती है। और जहां वेदना नहीं है, वहां चेतना विदा हो जाती है।

यह वेदना शब्द भी बहुत अदभुत है। इसके दो अर्थ होते हैं। इसका अर्थ ज्ञान भी होता है और दुख भी होता है। हमारे पास शब्द है, वेद। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद से ही वेदना बना है। वेदना का एक अर्थ तो होता है: ज्ञान, बोध, कांशसनेस; और एक अर्थ होता है: पीड़ा, दुख। यह अकारण अर्थ नहीं होता है इस शब्द का। असल में जहां पीड़ा है, वहीं बोध टिक जाता है। अगर पैर में कांटा गड़ा है, तो सारा बोध, सारी अटेंशन वहीं, उसी कांटे पर पहुंच जाती है। अगर शरीर में कहीं भी कोई पीड़ा नहीं है, तो शरीर का बोध मिट जाता है। बाडी कांशसनेस चली जाती है। शरीर का पता ही नहीं चलता है। विदेह हो जाता है आदमी, अगर शरीर स्वस्थ हो।

ठीक ऐसे ही अगर आत्मा स्वस्थ हो, तो मैं का पता नहीं चलता। मैं का पता चलता है तभी तक, जब तक आत्मा बीमार है। इसलिए जो आत्मा के तल पर स्वस्थ हो जाते हैं, वे होते तो हैं, लेकिन उन्हें ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूं। उन्हें ऐसा ही लगता है--हूं। हूं काफी हो जाता है, मैं विदा हो जाता है।

वह मैं भी एक कांटे की तरह चुभता है चौबीस घंटे। रास्ते पर चलते, उठते-बैठते, कोई देखे तो, कोई न देखे तो, वह मैं का कांटा चुभता रहता है। उस मैं के घाव से भरे हुए हम कर्ता से घिर जाते हैं।

वह अर्जुन भी उसी पीड़ा में पड़ा है। उसका मैं सघन होकर उसे पीड़ा दे रहा है। वह कह क्या रहा है? वह यह नहीं कहता है, युद्ध में हिंसा होगी, इसलिए मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। नहीं, वह यह नहीं कहता। वह कहता है, युद्ध में मेरे लोग मर जाएंगे, इसलिए मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। कहता है, मेरे प्रियजन, मेरे संबंधी, मेरे मित्र दोनों तरफ युद्ध के लिए आतुर खड़े हैं। सब मेरे हैं, और मर जाएंगे।

कभी आपने सोचा है कि जब मेरा मरता है, तो पीड़ा क्यों होती है? क्या इसलिए पीड़ा होती है कि जो मेरा था, वह मर गया! या इसलिए पीड़ा होती है कि मेरा होने की वजह से मेरे मैं का एक हिस्सा था, जो मर गया! ठीक से समझेंगे, तो किसी दूसरे के मरने से किसी को कभी कोई पीड़ा नहीं होती है। लेकिन मेरा है, तो पीड़ा होती है। क्योंकि जब भी मेरा कोई मरता है, तो मेरे ईगो का एक हिस्सा, मेरे अहंकार का एक हिस्सा बिखर जाता है भीतर, जो मैंने उसके सहारे सम्हाला था।

इसीलिए तो हम मेरे को बढ़ाते हैं--मेरा मकान हो, मेरी जमीन हो, मेरा राज्य हो, मेरा पद हो, मेरी पदवी हो, मेरा ज्ञान हो, मेरे मित्र हों--जितना मेरा मेरे का विस्तार होता है, उतना मेरा मैं मजबूत और बीच में सघन होकर सिंहासन पर बैठ जाता है। अगर मेरा सब विदा हो जाए, तो मेरे मैं को खड़े होने के लिए कोई सहारा न रह जाएगा और वह भूमि पर गिरकर टूट जाएगा, बिखर जाएगा।

अर्जुन की पीड़ा क्या है? अर्जुन की पीड़ा यह है कि सब मेरे हैं। इसलिए वह बार-बार कहता है कि जिनके लिए राज्य जीता जाता है, जिनके लिए धन कमाया जाता है, जिनके लिए यश की कामना की जाती है, वे सब मेरे मर जाएंगे युद्ध में, तो मैं इस राज्य का, इस धन का, इस साम्राज्य का, इस वैभव को पाकर करूंगा भी क्या? जब मेरे ही मर जाएंगे...!

लेकिन उसे भी साफ नहीं है कि मेरे के मरने का इतना डर मैं के मरने का डर है। जब पत्नी मरती है, तो पति भी एक हिस्सा मर जाता है। उतना ही जितना जुड़ा था, उतना ही जितना पत्नी उसके भीतर प्रवेश कर गई थी और उसके मैं का हिस्सा बन गई थी। एकदम से खयाल में नहीं आता कि हम सब एक-दूसरे से अपने मैं के लिए भोजन जुटाते हैं।

एक बच्चा हो रहा है एक मां को। एक स्त्री को बच्चा हो रहा है। जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उस दिन अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता है, उस दिन मां भी पैदा होती है। उसके पहले सिर्फ स्त्री है, बच्चे के जन्म के बाद वह मां है। यह जो मां होना उसमें आया, यह बच्चे के होने से आया है। अब उसके मैं में मां होना भी जुड़ गया। कल यह बच्चा मर जाए, तो उसका मां होना फिर मरेगा, अब उसके मैं से फिर मां होना गिरेगा। बच्चे का मरना नहीं अखरता; गहरे में अखरता है, मेरे भीतर कुछ मरता है, मेरे मैं की कोई संपदा छिनती है, मेरे मैं का कोई आधार टूटता है। 


उपनिषदों ने कहा है, कोई किसी दूसरे के लिए दुखी नहीं होता, सब अपने लिए दुखी होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए आनंदित नहीं होता, सब अपने लिए आनंदित होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए जीता नहीं, सब अपने मैं के लिए जीते हैं। हां, जिन-जिन से हमारे मैं को सहारा मिलता है, वे अपने मालूम पड़ते हैं; और जिन-जिन से हमारे मैं को विरोध मिलता है, वे पराए मालूम पड़ते हैं। जो मेरे मैं को आसरा देते हैं, वे मित्र हो जाते हैं; और जो मेरे मैं को खंडित करना चाहते हैं, वे शत्रु हो जाते हैं।

इसलिए जिसका मैं गिर जाता है, उसका मित्र और शत्रु भी पृथ्वी से विदा हो जाता है। उसका फिर कोई मित्र नहीं और फिर कोई शत्रु नहीं। क्योंकि शत्रु और मित्र सभी मैं के आधार पर निर्मित होते हैं।

यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि कर्म से भागने का कोई उपाय नहीं, मनुष्य परवश है; कर्म तो करना ही होगा, क्योंकि कर्म जीवन है। इस पर इतना जोर इसीलिए दे रहे हैं कि अर्जुन को दिखाई पड़ जाए कि असली बदलाहट,  असली क्रांति कर्म में नहीं, कर्ता में करनी है। कर्म नहीं मिटा डालना, कर्ता को विदा कर देना है। वह भीतर से कर्ता विदा हो जाए, तो कर्म चलता रहेगा, लेकिन तब, तब कर्म परमात्मा के हाथ में समर्पित होकर चलता है। तब मेरा कोई भी दायित्व, तब मेरा कोई भी बोझ नहीं रह जाता। इस बात को ही कृष्ण आगे और स्पष्ट करेंगे।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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