गुरुवार, 7 सितंबर 2023

मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में हजारों तरह के "रिचुअल', हजारों तरह के क्रियात्मक खेल विकसित हुए हैं। ये सारे-के-सारे खेल अगर गंभीरता से ले लिए जाएं, तो बीमारी बन जाते हैं। अगर ये सारे खेल की तरह लिए जाएं, तो उत्सव बन जाते हैं। जैसे, जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ--और सबसे बड़े आविष्कारों में अग्नि का आविष्कार है।

आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।

आज हमें बहुत कठिनाई होगी यह सोचकर, क्योंकि अग्नि आज बिलकुल सहज बात है। माचिस में बंद है। लेकिन सदा ऐसा नहीं था। फिर हमारा जो भी विकास हुआ है मनुष्य का, जैसा मनुष्य आज है, उसमें नब्बे प्रतिशत अग्नि का हाथ है। फिर हमारे जो भी आविष्कार हुए हैं, वे सब बिना अग्नि के हो नहीं सकते। उन सब की बुनियाद में वह अग्नि का आविष्कर्ता खड़ा है।

स्वभावतः जब पहली बार अग्नि किसी ने खोजी होगी, तो हमने अग्नि का भी स्वागत किया था उसके चारों ओर नाचकर। यह जिंदगी की बिलकुल सहज घटना थी। अग्नि को और किसी तरह धन्यवाद दिया भी नहीं जा सकता था। और अग्नि ने एक केंद्रीय अर्थ मनुष्य की जिंदगी में उस दिन बना लिया था। मनुष्य के सारे पुराने धर्म, किसी-न-किसी रूप में अग्नि या सूरज के आसपास विकसित हुए हैं। रात थी अंधकारपूर्ण, खतरनाक, पशुओं का डर था। दिन था उजाले से भरा, निर्भय; हमला कोई कर सके, इसके पहले पता चल जाता था। तो सूर्य बड़ा मित्र मालूम हुआ। अंधकार बड़ा शत्रु बन गया। अंधकार में खतरे थे, भय था, उपद्रव था। सूर्य के साथ सब खतरे तिरोहित हो जाते थे, सब भय मिट जाते थे। तो सूर्य परमात्मा की तरह खयाल में आया था। और जब अग्नि का आविष्कार कर लिया, तो स्वभावतः, रात के अंधकार पर भी हमारी विजय हो गई थी। सूर्य से भी ज्यादा अग्नि प्रीतिकर हो गई थी। इस अग्नि के आसपास नाच का, गान का, नृत्य का, प्रेम का, उत्सव का विकसित हो जाना बिलकुल स्वाभाविक था। वह विकसित हुआ।

मनुष्य का मन उस सबके प्रति उत्सव से भर जाता है जो नया है, जिससे नए का आगमन होता है। नए बच्चे के जन्म पर ही हम बैंडबाजा नहीं बजाते और उत्सव से भर जाते, जब भी इस जगत में नया कुछ पैदा होता है, तो हमारा चित्त उत्सव से उसका स्वागत करता है और उचित है कि ऐसा हो। क्योंकि जिस दिन आदमी नए के स्वागत में भी उत्सवपूर्ण नहीं रहेगा, उस दिन समझना चाहिए कि आदमी के भीतर कुछ महत्वपूर्ण मर गया है।

 यह उन लोगों का आविष्कार था, जिनकी जिंदगी में अग्नि पहली बार आयी थी और इस अग्नि के लिए वे उत्सव मना रहे थे। वे इसके चारों ओर नाच रहे थे। और जो कुछ श्रेष्ठ उनके पास था, उन्होंने अग्नि को दिया। क्या दे सकते थे? उनके पास गेहूं था, उन्होंने गेहूं दिया। उनके पास सोमरस था--उस दिन की सुरा थी--वह उन्होंने दी; उनके पास जो श्रेष्ठतम गाय होती, वह उन्होंने अग्नि को दी; उनके पास जो भी था, वह उन्होंने अग्नि को भेंट किया। एक देवता अवतरित हुआ था, जिसने जिंदगी को सब बदल दिया था। उसके उत्सव में उन्होंने सब यह किया। यह बहुत सहज था। लेकिन, यह बहुत "सोफिस्टिकेटेड' नहीं था। यह बिलकुल ग्रामीण-चित्त से उठी हुई बात थी, और ग्राम ही थे जगत में, ग्रामीण-चित्त ही था।

गीता के समय तक ऐसा यज्ञ बेमानी हो गया था। क्योंकि गीता के समय तक अग्नि घर-घर की चीज हो गई थी। उसके आसपास नाचना व्यर्थ मालूम होने लगा था। उसमें गेहूं फेंकना, मंत्र पढ़ना सार्थक नहीं रह गया था। और हजारों लोग इसका विरोध कर चुके थे इस बीच की प्रक्रिया में। क्योंकि उनको कुछ भी पता नहीं था कि अग्नि का पहला आगमन जिनकी जिंदगी में हुआ था, वे उसे भगवान की तरह ही स्वीकार कर सकते थे। उनके लिए उतना बड़ा वरदान था। इसलिए गीता ने फिर शब्दों पर नई कलमें लगाईं और कृष्ण ने नए शब्द ईजाद किए, ज्ञानयज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, ज्ञान से उसे जोड़ा। 

कृष्ण के समय तक जीवन काफी "सोफिस्टिकेटेड', काफी विकसित हुआ था। और जब अग्नि के आसपास नाचना अपने-आप में अर्थपूर्ण न था। अब तो ज्ञान की अग्नि जलाने की बात कृष्ण ने उठाई। लेकिन स्वभावतः पुराने शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। अब अगर नाचना ही था तो ज्ञान की ज्योति के आसपास नाचना था। और अब कुछ भेंट भी करना था तो गेहूं के दानों से क्या भेंट होगी, अब अपने को ही दान कर देना था। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, ज्ञान की अग्नि में स्वयं को जो समर्पित कर देता है। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, कि अब साधारण अग्नि से नहीं, ज्ञान की अग्नि से, जिसमें व्यक्ति जलता है और समाप्त हो जाता है। यह अग्नि का प्रतीक लेकिन जारी रहा। इसके जारी रहने के पीछे बहुत गहरे कारण थे।

सबसे बड़ा गहरा कारण जो था वह यह था कि अतीत के मनुष्य की जिंदगी में सदा ऊपर की तरफ जाने वाली चीज सिवाय अग्नि के और कोई भी न थी। पानी नीचे की तरफ जाता है। उसे कहीं से भी डालो, वह नीचे की जगह खोज लेता है। अग्नि के साथ कुछ भी उपाय करो, उसकी लपटें सदा ऊपर की तरफ भागती हैं। पुराने मनुष्य के समक्ष अग्नि भर एक ऐसी चीज थी जो सदा ऊपर की तरफ भागती है; ऊपर की तरफ भागना, ऊर्ध्वगमन ही जिसका स्वभाव है; जिसे हम नीचे की तरफ बहा ही नहीं सकते। अगर हम उलटी भी कर दें जलती हुई लकड़ी को, तो लकड़ी ही उलटी होती है, अग्नि ऊपर की तरफ ही भागती रहती है। ऊर्ध्वगमन का प्रतीक बन गई अग्नि। उसकी लपटें आकाश की यात्रा की, अज्ञात की यात्रा की सूचक हो गईं। जमीन के "ग्रेविटेशन', को तोड़ने वाली वह पहली चीज मालूम पड़ी। पृथ्वी की जो कोशिश है, उसको तोड़ देती है, उसको उससे कोई फिक्र नहीं है। अग्नि पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। एक कारण तो यह था कि ऊर्ध्वगमन का प्रतीक अग्नि बन गई, इसलिए जिन्होंने अग्नि की लपटों के आसपास नृत्य किया था, नाचे थे, गीत गाए थे, खुशी प्रगट की थी, उन्होंने एक प्रतीक के अर्थ में भी वह खुशी प्रगट की थी कि किस दिन वह दिन होगा जिस दिन हम भी अग्नि की लपटों की तरह ऊपर की यात्रा करेंगे।

अभी आदमी का मन जैसा है वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, पानी की तरह है। आदमी का मन जैसा है, वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, उसके नियम पानी के नियम हैं, वह नीचे गङ्ढे खोजता है। उसे पर्वत-शिखर पर भी ले जाकर छोड़ दो तो बहुत जल्दी खाई में नीचे आकर झील में विश्राम करने लगता है। उसे कितनी ही ऊंचाई पर ले जाओ, वह तत्काल नीचे की तरफ जाने को आतुर है। जैसा मनुष्य का मन अभी है, वह नीचे जाने की आतुरता है। अग्नि के आसपास नाचने वाले ऋषियों ने घोषणा की कि हम ऊपर की तरफ की यात्रा के सूत्र को नमस्कार करते हैं। और हम अपने भीतर के प्राणों को अग्नि जैसा बनाना चाहते हैं कि वे ऊपर की तरफ भागें। हम उन्हें नीचे खाई में भी छोड़ दें, खंदक में भी छोड़ दें, घाटी में भी छोड़ दें, तो भी वे शिखर पर चले जाएं। यह बड़ा "सिंबालिक', बड़ा प्रतीकात्मक था।

दूसरी बात अग्नि में और बड़ी खूबी की थी और वह और भी गहरी थी, और वह थी कि अग्नि पहले तो ईंधन को जलाती और फिर खुद ही जल जाती। पहले ईंधन राख होता है, फिर अग्नि खुद राख हो जाती है। ज्ञान के लिए यह प्रतीक बड़ा गहरा बन गया। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है। पहले तो ज्ञान अज्ञान को मिटाता है और फिर ज्ञान ज्ञान को भी मिटा देता है। इसलिए उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। निश्चित ही यह व्यंग्य में कही गई बात है उन ज्ञानियों के लिए जिनके पास उधार ज्ञान है। क्योंकि जिनके पास अपना ज्ञान है वे तो बचते ही नहीं, उनके भटकने का तो उपाय नहीं है। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है; फिर ज्ञान को भी जला देता है, ज्ञानी को भी जला देता है, पीछे कुछ भी बचता नहीं। अग्नि पहले ईंधन को जलाती है, फिर ईंधन जल जाता है, फिर अग्नि भी बुझ जाती है, फिर अंगारे भी बुझ जाते हैं, फिर राख ही रह जाती है, फिर सब समाप्त हो जाता है।

तो ज्ञान की घटना जिनके जीवन में घटी, उनको दिखाई पड़ा कि ज्ञान की घटना अग्नि जैसी है। पहले अज्ञान जलेगा, फिर ज्ञान भी जलेगा, फिर ज्ञानी भी जलेगा और पीछे तो सिवाय राख के कुछ बचेगा नहीं। सब तिरोहित हो जाएगा। इतना शून्य होने को जो तैयार है, वह ज्ञान की यात्रा पर निकल सकता है।

तीसरी बात। अग्नि की लपटें हमने उठते देखी हैं, थोड़ी दूर तक ही दिखाई पड़ती हैं, फिर खो जाती हैं। अग्नि बहुत थोड़े दूर तक दृश्य है, इसके बाद अदृश्य हो जाती है। ज्ञान भी बहुत थोड़े दूर तक दिखाई पड़ता है, या ऐसा कहें कि थोड़े दूर तक ज्ञान का संबंध दिखाई पड़ने वाले से रहता है, दृश्य से रहता है, और इसके बाद उसका संबंध अदृश्य से हो जाता है। फिर दृश्य खो जाता है और अदृश्य ही रह जाता है। इन सारे कारणों से अग्नि बड़ा ही समर्थ प्रतीक ज्ञान का बन गया और कृष्ण ज्ञानयज्ञ शब्द का उपयोग कर सके।

ये प्रतीक अगर हमारे खयाल में हों, तो ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। अग्नि के आसपास निर्मित हुए दूसरे "रिचुअल' और यज्ञ तो खो जाएंगे, क्योंकि वे परिस्थिति से पैदा होते हैं, लेकिन ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। इसलिए कृष्ण ने यज्ञ को पहली दफा परिस्थिति से मुक्त करके शाश्वत अर्थ दे दिया। वेद जिस यज्ञ की बात करते थे वह परिस्थिति से बंधा था, एक घटना से जुड़ा था। कृष्ण ने उसे उस घटना से मुक्त कर दिया और एक शाश्वत अर्थ दे दिया। अब कृष्ण के अर्थ में ही यज्ञ का प्रयोजन होगा आगे। उसका अर्थ कृष्ण के द्वारा ही निकल सकता है। और कृष्ण के पहले के अध्याय बंद हो गए हैं। अब भी जो कृष्ण के पहले के यज्ञ की बात करता है, वह असामयिक, "आउट आफ डेट', व्यर्थ की बात करता है; अब उसमें कोई अर्थ नहीं रह गया है, वह बात समाप्त हो चुकी है। अब अग्नि के आसपास आनंद से नहीं कूदा जा सकता, क्योंकि अग्नि अब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना नहीं है।

वह जपयज्ञ की भी बात करते हैं। कृष्ण जपयज्ञ की भी बात करते हैं। जप के साथ भी वही राज है, जो ज्ञान के साथ है। जप पहले तो दूसरे विचारों को जलाएगा, फिर जब दूसरे विचार जल जाएंगे, तो जप का विचार भी जल जाएगा। जो शेष रह जाएगा, वह अजपा स्थिति होती है। इसलिए उसको भी अग्नि से प्रतीक बनाया जा सकता है। वह भी यज्ञ बनाया जा सकता है।

आपके मन में बहुत विचार हैं। आप एक शब्द का जप की भांति प्रयोग करते हैं। सारे विचारों को हटा देते हैं, एक ही विचार पर आप अपने मन को डोलाते हैं। एक घड़ी ऐसी आती है कि यह विचार भी बेमानी हो जाता है कि इसको क्यों दोहराए चले जाना। जब सब विचार ही छूट गए, तो इस एक को भी क्यों पकड़े चले जाना! फिर यह भी छूट जाता है। फिर आप जिस स्थिति में होते हैं, वह अजपा स्थिति है, वहां जप भी नहीं है। अग्नि ने पहले ईंधन जलाया, फिर खुद भी जल गई।

लेकिन, खतरा है जप के साथ, जैसा कि ज्ञान के साथ खतरा है। खतरे सब चीजों के साथ हैं। ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है जिस पर न भटका जा सके। ऐसा रास्ता हो भी कैसे सकता है! जो भी रास्ता पहुंचा सकता है, उस पर यात्री चाहे तो भटक भी सकता है। सब रास्ते इस अर्थों में भटकाने वाले की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं, और आदमी ऐसा है कि वह सब रास्तों को पहुंचने के लिए काम में कम लाता है, भटकने के लिए ज्यादा काम में लाता है। मैंने कहा कि ज्ञान यज्ञ है, जैसे कृष्ण कहते हैं। लेकिन आदमी ज्ञान का अर्थ ले सकता है पांडित्य, "इनफॅर्मेशन', सूचनाएं, शास्त्र, सिद्धांत, शब्द और इनको इकट्ठा कर ले सकता है। तब वह भटक गया। वैसा आदमी ज्ञान को उपलब्ध ही नहीं हुआ। ज्ञान के नाम से उसने कुछ और ही अपने ऊपर थोप लिया है। और ध्यान रहे, अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है जितना मिथ्या ज्ञान से है। अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है, जितना झूठे, उधार, बासे ज्ञान से है। क्योंकि बासे ज्ञान में कोई अग्नि नहीं होती। बासा ज्ञान समझना चाहिए कि बुझ गए अंगारों के बुझे कोयलों की तरह है। उसे कितना ही इकट्ठा कर लो, उससे कोई जीवन रूपांतरण नहीं होता है। लेकिन अगर कोई ज्ञान का यह अर्थ ले ले, तो भटकेगा।

ऐसे ही जप के साथ भी कठिनाई है। जप का अगर कोई यह अर्थ ले ले कि जप करते-करते ही पहुंच जाऊंगा, तो गलती में है। जप करते-करते कोई कभी नहीं पहुंचा है। जप का उपयोग ऐसा ही किया जाता है जैसे पैर में एक कांटा लग गया हो और उस कांटे को हम दूसरे कांटे से निकाल देते हैं। लेकिन फिर दूसरे कांटे को पहले वाले कांटे के घाव में रख नहीं लेते सुरक्षित। पहला कांटा निकला कि दूसरा बिलकुल वैसे ही बेकार है, जैसा पहला है, और दोनों को एक-साथ फेंक देते हैं। लेकिन हो सकता है कोई नासमझ! वह कहे कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला, उसको मैं कैसे फेंक सकता हूं। वह कहे कि शिष्टता भी तो कम-से-कम इतना कहती है कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला उसको मैं सम्हाल कर रखूं। तब यह आदमी पागल है।

बुद्ध निरंतर कहते हैं, बार-बार एक कहानी वह कहते हैं कि एक गांव में कुछ लोग एक नाव से उतरे, फिर जब वे नाव से नदी के किनारे उतर गए तो उन आठों लोगों ने तय किया--वे बड़े बुद्धिमान थे--उन्होंने तय किया कि जिस नाव ने हमें नदी पार कराई, उस नाव को हम छोड़ कैसे सकते हैं! और उन्होंने सोचा कि जिस नाव से हम नदी पार किए और जिस पर हम बैठकर सवार हुए, अब उचित है कि हम उसको अपने ऊपर सवार करें। तो उन्होंने नाव को आठों आदमियों ने अपने सिरों पर उठा लिया और बाजार की तरफ चले। गांव में लोग उनसे पूछने लगे कि पागलो, हमने नाव पर तो बहुत बार लोगों को देखा, लेकिन नाव लोगों पर नहीं देखी, यह बात क्या है? वे सब कहने लगे कि तुम हो अकृतज्ञ। तुम्हें "ग्रेटीच्यूड' का कुछ पता नहीं है। हम जानते हैं अनुग्रह का भाव। इस नाव ने हमें नदी पार करवाई है, अब इस नाव को संसार पार करवा के रहेंगे। अब तो सदा यह हमारे सिर पर रहेगी।

तो बुद्ध यह मजाक में कहते हैं कि बहुत लोग हैं, जो फिर साधना को इस बुरी तरह पकड़ लेते हैं कि वही साध्य हो जाता है। नदी पार करने को नाव है, सिर पर ढोने को नाव नहीं है।

जप का उपयोग किया जा सकता है, इस होश के साथ कि वह भी एक कांटा है। और अगर आपने उसको कांटा नहीं समझा और प्रेम में पड़ गए उसके, तो जो दूसरे विचार आपको भरे थे वे तो हट जाएंगे, जप आपको भर देगा। अब एक आदमी चौबीस घंटे राम-राम, राम-राम कर रहा है, उसकी बजाय हो सकता है जो व्यर्थ विचारों से भरा है उसके जीवन में भी कुछ सार्थकता फलित हो जाए, क्योंकि उसके व्यर्थ विचारों में भी कुछ आ सकता है। इसके पास सिवाय राम-राम के कुछ आने को नहीं है। और जब यह राम-राम को छोड़ने को राजी नहीं होगा, यह कहेगा सब विचारों से छुटकारा दिलाया राम-राम ने, तो अब मैं कैसे छोड़ सकता हूं, अब तो मैं नाव को सिर पर रखूंगा।

जप को यज्ञ कहना बड़ी "सीक्रेट' बात है। कृष्ण जब जप को यज्ञ कहते हैं तो वह कहते हैं, ध्यान रखना, जप भी अग्नि की भांति है। पहले दूसरे को जलाएगा, फिर खुद को जलाएगा, और जब खुद को जला ले तभी समझना कि सार्थक हुआ है।

तो हम शब्द का उपयोग कर सकते हैं दूसरे शब्दों को बाहर करने में, लेकिन फिर उस शब्द को भी बाहर करना पड़ेगा। और अगर मोहग्रस्त हुए और उस शब्द को सम्हालकर रखा तो जप यज्ञ न रहेगा, जप सम्मोहन हो जाएगा। फिर हम जप शब्द से ही "आब्सेस्ड' हो गए, फिर हम उसी से पीड़ित होकर रहने लगेंगे, और वही हमारा पागलपन बन जाएगा। इसलिए जो लोग जप करते वक्त जप में लीन हो जाते हैं, वे लोग जप को फिर कभी न छोड़ सकेंगे, क्योंकि लीनता में एक गहरा संबंध स्थिर हो जाता है। जो लोग जप करते समय साक्षी बने रहते हैं, जो ऐसा अनुभव नहीं करते कि मैं जप कर रहा हूं, बल्कि ऐसा अनुभव करते हैं कि जप मन से हो रहा है और मैं देख रहा हूं, वे एक दिन जप के बाहर जा सकते हैं। तब जप यज्ञ हो जाता है, क्योंकि तब जप अग्नि की भांति हो जाता है। पहले वह दूसरे विचारों को जला देता है, फिर खुद जलकर राख हो जाता है। आप जब खाली रह जाते हैं, शून्य, तब आप ध्यान को, समाधि को उपलब्ध होते हैं।

इसलिए कृष्ण ने ज्ञान और जप, दोनों के साथ यज्ञ का प्रयोग किया। यज्ञ का प्रयोग अग्नि के केंद्र पर है। और अग्नि के प्रतीक को हम समझ लें तो ये दोनों बातें भी साफ समझ में आ सकती हैं। असल में जो जलने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है, जो मिटने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। जो होम होने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। और तब सब यज्ञ छोटे पड़ जाते हैं और जीवनयज्ञ ही शेष रह जाता है।


"भगवान श्री, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानीजन कर्मफल त्याग कर जन्मरूप बंधन से छूट जाते हैं और परमपद को प्राप्त करते हैं। तो क्या कृष्ण जन्म को बंधन मानते हैं? आप तो जन्म को, संसार को निर्वाण ही है, ऐसा कहते हैं।'


कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर, फलासक्ति को छोड़कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं। ये सब बातें समझने जैसी हैं।

पहली बात, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होकर नहीं, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होने को नहीं कहा जा रहा है कि काम से मुक्त हो जाने का जोर ही इसलिए है कि कर्म पीछे बचाया गया है। कर्म तो रहेगा, फलासक्ति नहीं रहेगी।

फलासक्ति से मुक्त होकर कोई कैसे कर्म को उपलब्ध होगा, यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम तो अगर फल से मुक्त हो जाएं तो कर्म से ही मुक्त हो जाएंगे। अगर कोई आपसे कहे कि फल की कामना न करें, और कर्म करें, तो आप कहेंगे, मैं पागल हूं! अगर फल की कामना नहीं है तो कर्म क्यों होगा? फल की कामना से ही तो कर्म होता है। एक कदम भी उठाते हैं तो किसी फल की कामना से उठाते हैं। अगर फल की कामना ही नहीं होगी, तो कदम ही क्यों उठेगा? हम उठाएंगे ही क्यों?

इस "फलासक्ति से मुक्त होकर', इस शब्द ने, जिन लोगों ने कृष्ण को सोचा है उन्हें बड़ी कठिनाई में डाला है। और सबसे बड़ी कठिनाई उन्होंने यह पैदा की है कि तब उन्होंने एक बहुत ही रहस्यपूर्ण ढंग से फल की पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है। फिर उन्होंने यह कहा कि जो फलासक्ति से मुक्त होते हैं, वे मोक्ष को या मुक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। और मुक्ति और मोक्ष को फल की तरह उपयोग में लाना शुरू किया है, कि तुम ऐसा करोगे, तो ऐसा मिलेगा। तुम ऐसा करोगे तो ऐसा नहीं मिलेगा। यही तो फल की आकांक्षा है। मोक्ष को भी फल बना लिया। तभी वे लोगों को समझा पाए कि तुम सब और फलों को छोड़ दो। तो मोक्ष को अगर पाना चाहते हो, तो सब फलों को छोड़कर ही तुम मोक्ष को पा सकते हो। लेकिन यह तो कृष्ण के साथ बड़ी ज्यादती हो गई। अगर कृष्ण ऐसा भी कहते हैं कि जो सब फलासक्ति से मुक्त हो जाते हैं, वे ज्ञानीजन जन्मरूपी बंधन से मुक्त होते हैं, तो उनकी मुक्त होने की जो बात है वह सिर्फ परिणाम की सूचक है। "कांसीक्वेंस' की खबर है। वह फल नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें जन्मरूपी बंधन से मुक्त होना है, वे फल की आकांक्षा छोड़ दें, तब तो यह फिर फल की ही आकांक्षा हो गई। यह सिर्फ खबर है कि ऐसा होता है। फल की आकांक्षा छोड़ने से मुक्ति फलित होती है, ऐसा होता है। लेकिन मुक्ति की आकांक्षा जो करता है उसे तो मुक्ति कभी फलित नहीं हो सकती, क्योंकि वह फल की आकांक्षा करता है। लेकिन हम बिना फल-आकांक्षा के कर्म कैसे करेंगे?

इसे समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि हमारी जिंदगी में दो तरह के कर्म हैं। एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं, कल कुछ कुछ पाने की आशा में। ऐसा कर्म भविष्य की तरफ से "पुल' है, खींचना है। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह। जैसे एक गाय को कोई गले में रस्सी बांध खींचे लिए जा रहा है, ऐसा भविष्य हमारे गले में रस्सियां डालकर हमें खींचे लिए जा रहा है। यह मिलेगा, इसलिए हम यह कर रहे हैं। वह मिलेगा, इसलिए हम वह कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में, कर अभी रहे हैं। रस्सी अभी गले में पड़ी है; हाथ में जो फंदा है रस्सी का, वह भविष्य के लिए है। मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह पक्का नहीं है। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह है कि जो पक्का नहीं है। भविष्य का अर्थ ही यह है, जो अभी नहीं हुआ है, होगा। लेकिन उस आशा में हम रस्सी में बंधे हुए पशु की तरह भागे चले जा रहे हैं।

यह बड़े मजे की बात है, यह शब्द पशु बड़ा बढ़िया है। कभी आपने शायद खयाल न किया होगा कि पशु का मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। पशु शब्द का ही मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। तब तो हम सब पशु हैं, अगर हम भविष्य के पाश में बंधे हुए खिंचे जा रहे हैं। पशु का मतलब ही इतना है कि जो भविष्य से बंधा है और जिसकी लगाम भविष्य के हाथों में है और जो खिंचा जा रहा है। जो रोज आज इसलिए जीता है कि कल कुछ होगा, कल भी इसीलिए जियेगा कि परसों कुछ होगा। जो हर दिन आज कल के लिए जियेगा और कभी नहीं जी पाएगा--क्योंकि जब आएगा तब आज आएगा, और जीना उसका सदा कल होगा। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा, क्योंकि जब भी समय आएगा वह आज की तरह आएगा और यह आदमी पाश में बंधा हुआ पशु की तरह भविष्य से खिंचा हुआ कल में जियेगा। यह कभी नहीं जी पाएगा। इसकी पूरी जिंदगी अनजियी, "अनलिव्ड' बीत जाएगी। मरते वक्त यह कह सकेगा कि मैंने सिर्फ जीने की कामना की, मैं जी नहीं पाया हूं। और मरते वक्त उसकी सबसे बड़ी पीड़ा यही होगी कि अब आगे कोई फल नहीं दिखाई पड़ता। और कोई पीड़ा नहीं है। अगर आगे कोई फल दिखाई पड़ जाए इसे, तो यह मौत को भी झेलने को राजी हो जाएगा। इसलिए मरता हुआ आदमी पूछता है, पुनर्जन्म है? मैं मरूंगा तो नहीं? वह असल में यह पूछ रहा है, कल है अभी बाकी? अगर कल हो तो चल सकता है, क्योंकि मेरे जीने का ढंग कल पर निर्भर है। अगर कल नहीं है अब, तो बड़ा मुश्किल हो गया। मैं तो रोज-रोज कल के लिए जिया और आज अचानक पाता हूं कि आज के साथ ही सब समाप्त होता है और कल नहीं है। "फ्यूचर ओरियेंटेड लिविंग' जो है, वह फलासक्ति का अर्थ है। भविष्य-केंद्रित जीवन।

एक ऐसा कर्म भी है, जो भविष्य से खिंचाव की तरह नहीं निकलता, बल्कि "स्पांटेनियस' है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं, उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर आप जा रहे हैं, किसी आदमी का--आपके सामने चल रहा है, उसका छाता गिर गया है, आपने उठाया और छाता दे दिया। न तो छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई "प्रेसरिपोर्टर' आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई "फोटोग्राफर' आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई देख रहा है कि नहीं देख रहा है; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि यह आदमी धन्यवाद देगा कि नहीं; तो यह कर्म फलासक्तिरहित हुआ। यह आपसे निकला सहज। लेकिन समझें कि उस आदमी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया, दबाया छाता और चल दिया। और अगर मन में विषाद की जरा-सी भी रेखा आई, तो आपको फलाकांक्षा का पता नहीं था लेकिन अचेतन में फलाकांक्षा प्रतीक्षा कर रही थी। आप सचेतन नहीं थे कि इसके धन्यवाद देने के लिए मैं छाता उठाकर दे रहा हूं, लेकिन अचेतन मन मांग ही रहा था कि धन्यवाद दो। उसने धन्यवाद नहीं दिया, उसने छाता दबाया और चल दिया, तो आपके मन में विषाद की एक रेखा छूट गई और आपने कहा कि यह कैसा कृतघ्न, कैसा अकृतज्ञ आदमी है! मैंने छाता उठाकर दिया और धन्यवाद भी नहीं! तो भी फलाकांक्षा हो गई। अगर कृत्य अपने में पूरा है, "टोटल', अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है।

कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, "सर्किल' की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है। बल्कि छाता देकर आपने उसे धन्यवाद दिया कि तूने मुझे एक पूर्ण कृत्य करने का मौका दिया, जिसमें कि कोई आकांक्षा न थी वह अवसर मेरे लिए दे दिया! फलाकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति किसी-न-किसी तरह की आकांक्षा, अपेक्षा से भरा होगा। लेकिन जब पूर्ण कृत्य होता है तो वह इतना आनंद दे जाता है कि उसके पार कोई मांग नहीं है। फलाकांक्षारहित कृत्य का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह है कि कृत्य पूर्ण हो, उसके बाहर कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद ही इतना आनंद दे जाता है, वह खुद ही अपना फल है, कृत्य ही अपना फल है, आज ही अपना फल है, यही क्षण अपना फल है।

जीसस एक गांव से गुजर रहे हैं और उस गांव के आसपास लिली के फूलों के बड़े खेत हैं और वह अपने शिष्यों से कहते हैं कि देखते हो इन लिली के फूलों को? शिष्य बड़ी देर से देख रहे थे, लेकिन नहीं देख रहे थे, क्योंकि सिर्फ आंखों से तो नहीं देखा जाता, प्राणों से देखा जाता है। जीसस ने कहा, देखते हो इन लिली के फूलों को? उन्होंने कहा, देखते हैं, इसमें देखने जैसा क्या है? जैसे लिली के फूल होते हैं, वैसे हैं। जीसस ने कहा, नहीं, मैं तुमसे कहता हूं कि सोलोमन भी--सम्राट सोलोमन भी अपनी पूरी प्रतिष्ठा और गौरव में इतना सुंदर न था जितना ये गरीब लिली के फूल इस गांव के किनारे हैं। जीसस से पूछा कि सोलोमन से इनकी आप क्या तुलना करते हैं? कहां सोलोमन! यहूदी विचार में कुबेर का तुलनात्मक प्रतीक है सोलोमन। कहां सोलोमन, कहां ये गरीब लिली के फूल, इस अनजाने गांव के रास्तों पर खिले! जीसस ने कहा कि नहीं, लेकिन देखो गौर से। सोलोमन भी अपनी पूरी "ग्लोरी' में, जब वह पूरा अपने वैभव पर था तब भी इस एक साधारण से लिली के फूल के बराबर सुंदर न था।

कोई पूछता है कि क्या कारण है? तो जीसस कहते हैं, फूल अभी और यहीं खिलते हैं, सोलोमन सदा भविष्य में रहता है। और भविष्य का तनाव कुरूप कर जाता है। फूल अभी और यहीं खिलते हैं। फूलों को कल कोई पता नहीं। यही हवा का झोंका सब कुछ है, यही सूरज की किरण सब कुछ है, यही पृथ्वी का टुकड़ा सब कुछ है; यही राह, यही होना, बस यही सब कुछ है, इसके बाहर कुछ होना नहीं। ऐसा नहीं कि सांझ नहीं आएगी। सांझ अपने से आएगी। आपकी अपेक्षाओं से आती है? आपकी आकांक्षाओं से आती है? ऐसा नहीं है कि इन फूलों में बीज नहीं लगेंगे और फल नहीं बनेंगे, वे अपने से लगते हैं। आपकी अपेक्षाओं से लगते हैं? लेकिन हम उस पागल औरत की तरह हैं, जिसके बाबत हम सबको पता होगा ही, क्योंकि हम सब उसकी तरह हैं।

एक पागल औरत एक दिन सुबह अपने गांव से नाराज होकर चली गई। गांव भर के लोगों ने कहा कि यह क्या कर रही हो? कहां जा रही हो? उसने कहा कि अब मैं जा रही हूं, तुमने मुझे बहुत सताया, अब कल से तुम्हें पता चलेगा! पर उन लोगों ने कहा कि बात क्या है? उसने कहा, मैं वह मुर्गा अपने साथ लिए जा रही हूं जिसकी बांग देने पर इस गांव में सूरज ऊगा करता था। अब यह सूरज दूसरे गांव में ऊगेगा। वह दूसरे गांव पहुंच गई। सुबह सूरज ऊगा--मुर्गे ने बांग दी, सूरज ऊगा, उसने कहा, अब रोते होंगे नासमझ, क्योंकि अब सूरज इस गांव में ऊग रहा है।

उस बूढ़ी औरत के तर्क में कोई खामी है? जरा भी नहीं। उसके मुर्गे की बांग देने से सूरज ऊगता था। और फिर जब दूसरे गांव में भी बांग देने से सूरज ऊगा, तब तो बिलकुल पक्का ही हो गया न, कि अब उस गांव का क्या होगा! मुर्गे ऐसी भ्रांति में नहीं पड़ते, लेकिन मुर्गों के मालिक पड़ जाते हैं। मुर्गे तो सूरज ऊगता है, इसलिए बांग देते हैं, मुर्गों के मालिक समझते हैं कि अपना मुर्गा बांग दे रहा है, इसलिए सूरज ऊग रहा है।

हम सबका चित्त ऐसा है। भविष्य तो आता है अपने से। वह आ ही रहा है, वह हमारे रोके न रुकेगा। कल आते हैं अपने से, वे हमारे रोके न रुकेंगे। हम अपने कृत्य को पूरा कर लें, इतना काफी है, उसके बाहर हमें होने की जरूरत नहीं है। कृष्ण इतना ही कहते हैं कि तुम्हारा कृत्य पूरा हो--"द एक्ट मस्ट बी टोटल'। "टोटल' का मतलब है कि उसके बाहर करने को कुछ तुम्हें कुछ भी न बचे, तुम पूरा उसे कर लिए और बात खत्म हो गई। इसलिए वे कहते हैं कि तुम परमात्मा पर छोड़ दो फल। परमात्मा पर छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि कोई नियंता, कहीं "कंट्रोलर' कोई बैठा है, उस पर तुम छोड़ दो, वह तुम्हारा हिसाब-किताब रखेगा। परमात्मा पर छोड़ने का कुल इतना ही मतलब है कि तुम कृपा करो, तुम सिर्फ करो और समष्टि से उस करने की प्रतिध्वनि आती ही है। वह आ ही जाएगी। जैसे कि मैं इन पहाड़ों में जोर से चिल्लाऊं और कोई मुझसे कहे कि तुम चिल्लाओ भर, प्रतिध्वनि की चिंता मत करो, पहाड़ प्रतिध्वनि करते ही हैं। तुम पहाड़ों पर छोड़ दो प्रतिध्वनि की बात। तुम नाहक चिंतित मत होओ, क्योंकि तुम्हारी चिंता तुम्हें ठीक से ध्वनि भी न करने देगी और फिर हो सकता है प्रतिध्वनि भी न हो पाए, क्योंकि प्रतिध्वनि होने के लिए ध्वनि तो होनी चाहिए। फलाकांक्षा कर्म को ही नहीं करने देती। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक ही जाते हैं, क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। जिनकी आंखें भविष्य पर गड़ी हैं भविष्य पर, कल पर, फल पर, तो काम तो बेमानी हो जाता है। किसी तरह हम करते हैं। नजर लगी होती है आगे, ध्यान लगा होता है आगे--और जहां ध्यान है, वहीं हम हैं। और अगर ध्यान वर्तमान क्षण पर नहीं है, तो गैर-ध्यान में, "इनअटेंटिविली' जो होता है, उस होने में बहुत गहराई नहीं होती, उस होने में पूर्णता नहीं होती, उस होने में आनंद नहीं होता है।

कृष्ण की फलाकांक्षारहित कर्म की जो दृष्टि है, उसका कुल मतलब इतना है कि तुम इतना भी अपना हिस्सा भविष्य के लिए मत तोड़ो कि इस काम में बाधा पड़ जाए, तुम इस काम को पूरा ही कर लो। भविष्य जब आए तब भविष्य में पूरे हो लेना, कृपा करके अभी तुम पूरे हो लो। अभी तुम इसी में पूरे हो लो, भविष्य आएगा। और तुम्हारे पूरे होने से फल निकलेगा। उसकी तुम चिंता ही मत करो, उसे तुम निश्चिंत हो परमात्मा पर छोड़ सकते हो। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं वह हमारा आनंद हो जाए, तभी हम भविष्य से और फल से बच सकते हैं। जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे आनंद से निकले, उसका आविर्भाव हमारे आनंद से हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे--किसी भविष्य के लिए नहीं; पशु की तरह नहीं, झरने की तरह। झरना किसी भविष्य के लिए नहीं फूट रहा है।

भला आप सोचते होंगे कि नदियां सागर के लिए बह रही हैं, गलती में हैं आप। सागर तक पहुंच जाती हैं, यह दूसरी बात है। नदियां बहती हैं अपने वेग से, नदियां बहती हैं अपने "ओरिजनल सोर्स' की क्षमता से। गंगोत्री की क्षमता से गंगा बहती है। सागर तक पहुंचती है, यह बिलकुल दूसरी बात है। इस पूरी लंबी यात्रा में गंगा को सागर से कुछ लेना-देना नहीं है। सागर मिलेगा कि नहीं मिलेगा, इससे कोई संबंध ही नहीं है। गंगा की भीतरी ऊर्जा इतनी है कि वह बहाए लिए जाती है, बहाए लिए जाती है, और हर तट पर गंगा नाच रही है। कोई सागर के तट पर ही नाचती है, ऐसा नहीं, हर तट पर नाच रही है। पत्थरों में, पहाड़ों में, गङ्ढों में, ऊंचाइयों पर, नीचाइयों में, सुख में, दुख में, निर्जन में, रेगिस्तान में, वृक्षों में, हरियाली में, मनुष्यों में, न-मनुष्यों में, वह हर जगह नाच रही है। जहां है जिस तट पर पहुंचने के लिए वह किसी तट से जल्दी में नहीं है। फिर एक दिन वह सागर तक पहुंच जाती है। सागर तक पहुंच जाना उसके जीवन की फलश्रुति है। वह फल है, लेकिन उस फल के लिए कहीं कोई आकांक्षा नहीं है। एक झरना फूट रहा है, अपनी भीतरी ऊर्जा से उसका कृत्य फूटता है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि आदमी ऐसा जिये कि अपनी भीतरी ऊर्जा से फूटता रहे। मेरी दृष्टि में संन्यासी में और गृहस्थ में यही फर्क है। गृहस्थ रोज कल के लिए जीता है, संन्यासी आज की ऊर्जा से फूटता है और जीता है। आज पर्याप्त है। कल आएगा, वह भी आज की तरह आएगा, उसमें भी हम आज की तरह जी लेंगे।

मुहम्मद के जीवन में एक छोटी-सी घटना है। मुहम्मद उन थोड़े-से संन्यासियों में हैं जैसे संन्यासी मैं दुनिया में देखना चाहूंगा। मुहम्मद को रोज लोग भेंट कर जाते हैं। कोई मिठाइयां दे जाता है, कोई रुपये दे जाता है, कोई कुछ कर जाता है। सांझ तक जो लोग आते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सांझ को मुहम्मद अपनी पत्नी को कहते हैं कि अब सब बांट दो, क्योंकि सांझ हो गई। तो जो भी होता है, सब बांट दिया जाता है। सांझ मुहम्मद फिर फकीर हो जाते हैं। उनकी पत्नी उनसे पूछती भी है कि यह ठीक नहीं है, कल के लिए कुछ बचाना उचित है, तो मुहम्मद कहते हैं कि जो आज आया था, कल उसकी फिर प्रतीक्षा करेंगे। और जब आज बीत गया, तो कल भी बीत जाएगा। और फिर वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि क्या तू मुझे नास्तिक समझती है कि मैं कल का इंतजाम करूं? कल का इंतजाम नास्तिकता है। कल का इंतजाम इस बात की सूचना है कि जिस समष्टि ने मुझे आज दिया, कल पता नहीं देगी, नहीं देगी! कल का इंतजाम अश्रद्धा है। कल का इंतजाम अश्रद्धा है जागतिक ऊर्जा पर, विश्व-प्राण पर। जिसने मुझे आज दिया, वह कल मुझे देगा या नहीं देगा, इसलिए मैं इंतजाम कर लूं। लेकिन मैं कितना इंतजाम कर पाऊंगा, क्या इंतजाम कर पाऊंगा और मेरे इंतजाम कहां तक काम पड़ेंगे। मुहम्मद कहते हैं, बांट दे, कल सुबह फिर श्रद्धा से प्रतीक्षा करेंगे। मुहम्मद कहते हैं, मैं आस्तिक हूं। तो कल के लिए बचाकर नहीं रख सकता, नहीं तो परमात्मा क्या कहेगा कि ऐ मुहम्मद, तेरा इतना भी भरोसा नहीं! तो रोज सांझ सब बंट जाता है।

फिर मुहम्मद की मौत आती है। मरने की रात, चिकित्सकों ने कहा है कि आज वह बच न सकेंगे। तो उनकी पत्नी ने सोचा कि आज तो कुछ बचा लेना चाहिए, रात दवा-दारू की जरूरत हो सकती है! खैर, कल सुबह कोई लाएगा, वह तो ठीक है, लेकिन आधीरात कौन लाएगा? तो उसने पांच दीनार, पांच रुपये तकिये के नीचे छिपा दिए। सांझ को जब सब बांटा है, पांच रुपये छिपा दिए। रात को बारह बजे मुहम्मद बड़ी तड़फन में हैं, बड़ी पीड़ा में हैं। आखिर उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पत्नी से पूछा कि मैं सोचता हूं, समझता हूं कि मालूम होता है आज गरीब मुहम्मद गरीब नहीं है। कुछ घर में बचा है। उसकी पत्नी तो बहुत घबड़ा गई। उसने कहा आपको कैसे पता चला? तो मुहम्मद ने कहा कि तेरे चेहरे को देखकर पता चलता है, क्योंकि आज तू वैसी निश्चिंत नहीं है जैसी सदा निश्चिंत है। घर में तूने जरूर कुछ बचाया है। जो चिंतित हैं वे भी बचा लेते हैं, जो बचा लेते हैं वे भी चिंतित हो जाते हज, वह "विसियस सर्किल' है। तो मुहम्मद कहते हैं, उसे निकाल और बांट दे अभी। मुझे शांति से मरने दे। आखिरी रात, कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा कहे कि आखिरी रात मुहम्मद, तू चूक गया! और जब मैं उसके सामने जाऊं तो अपराधी की तरह खड़ा होना पड़े। निकाल कहां है? उसकी पत्नी ने घबड़ाहट में वे पांच रुपये जो छिपा रखे थे कि रात दवा-दारू की जरूरत पड़े, निकाले। मुहम्मद ने कहा, किसी को भी पुकार दे सड़क से। तब उसने कहा, आधी रात कौन होगा? उन्होंने कहा, तू पुकार दे। पुकार दी गई है, कोई बाहर सड़क पर भिखारी था वह भीतर आ गया। मुहम्मद ने कहा, देख, आधी रात को लेने वाला आ सकता है तो देने वाला भी आ सकता है। तू उसको दे दे। ये पांच रुपये दे दे। वे पांच रुपये उसे दे दिए गए, फिर मुहम्मद ने चादर ओढ़ ली और वह उनका आखिरी कृत्य था उनका चादर ओढ़ना। मुहम्मद डूब गए उसी वक्त। जैसे वे पांच रुपये अटकाव थे। जैसे वे पांच रुपये बाधा थे। जैसे वे पांच रुपये पीड़ा थे। जैसे वह पांच रुपये की गांठ उस संन्यासी को भारी पड़ रही थी, रोके हुए थी।

प्रत्येक कृत्य और प्रत्येक क्षण और प्रत्येक दिन अपने में पूरा होता जाए, तो भी कल आता है। कल सदा आता रहा है, लेकिन तब कल रोज नया होता है। बासा नहीं होता। और तब कल जैसा अभी आता है, वह "फ्रस्ट्रेट' नहीं करता। कल हमें विषाद से भर देगा अगर आज की हमारी अपेक्षाओं के विपरीत पड़ा। और किन अपेक्षाओं के अनुकूल भविष्य पड़ता है! कभी नहीं पड़ता। क्योंकि भविष्य इतने विराट पर निर्भर है और हमारी अपेक्षाएं इतने क्षुद्र पर निर्भर हैं कि इस क्षुद्र की अपेक्षाएं इस विराट में कैसे पूरी होंगी! उनका कोई पता ही नहीं चलेगा। यह ऐसा ही है जैसे कि नदी की बहती धार में एक बूंद तय करती हो कि अगर पश्चिम को कल बहें तो बड़ा अच्छा। नदी की पूरी धार में एक बूंद कहां निर्णायक होगी कि पश्चिम को बहें। नदी को जहां बहना है, बहेगी। एक बूंद उसके साथ ही होगी, लेकिन कल दुखी होगी। क्योंकि उसने तय किया था पश्चिम बहने का और नदी पूरब बही जा रही है और तब विषाद और पीड़ा भर जाएगी। अपेक्षाएं, फलाकांक्षाएं, विषाद, दुख, "फ्रस्ट्रेशन' और पीड़ा से भर जाती हैं, असफलताओं से भर जाती हैं। जो आदमी प्रतिपल पूरा जी रहा है, उसके जीवन में विषाद नहीं है।

इसलिए जो कर रहे हैं, उस करने में पूरे हो जाएं और फल परमात्मा पर छोड़ दें। ऐसा जो करेगा, तो कृष्ण कहते हैं, वह जन्म के, जन्मरूपी बंधन से छूट जाता है। और वह बड़े मजे की बात कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से। जन्म बंधन है, ऐसा वह नहीं कह रहे हैं। असल में जो आदमी फलाकांक्षा से भरा है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता से भरा होता है। क्योंकि फल को पूरा करने के लिए कल तो होना चाहिए न! जो आदमी फलों में जीता है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता में जीता है। उसे जन्म लेना ही पड़ेगा। और जो आदमी फलों में जीता है उसके लिए जन्म बंधन बन जाता है। वह उसकी मुक्ति नहीं रहती। रहेगी नहीं मुक्ति। क्योंकि जन्म का भी आनंद उसे नहीं है। आनंद तो उसे कुछ फल मिलने का है। जन्म भी उसके लिए आनंद नहीं है। जन्म भी एक अवसर है, जिसमें वह कुछ फलों को पाकर आनंदित होना चाहता है। मृत्यु उसके लिए दुख होगी, क्योंकि मृत्यु उसे उन सब मार्गों को तोड़ देगी जिन मार्गों से भविष्य में जिआ जा सकता था। और जन्म उसके लिए बंधन मालूम पड़ेगा। जन्म उसके लिए इसलिए बंधन मालूम पड़ेगा कि वह जीवन को जानता ही नहीं है, जो मुक्ति है। और एक बार कोई जीवन को जान ले, तो जन्म भी नहीं रह जाता और मृत्यु भी नहीं रह जाती है। कृष्ण ने उसमें जो बात कही है वह अधूरी है, उसे पूरा किया जाना चाहिए। वह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। मैं आपको कहता हूं, वह मृत्युरूपी बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

इसका मतलब यह नहीं है कि जन्म और मृत्यु बंधन हैं। इसका मतलब यह है कि जन्म और मृत्यु बंधन प्रतीत होते हैं अज्ञान में। ज्ञानी के लिए तो जन्म और मृत्यु रह ही नहीं जाते। यह जो बंधन की प्रतीति है, वह अज्ञानी चित्त की प्रतीति है। और जो मुक्ति की प्रतीति है, वह ज्ञानी चित्त की प्रतीति है। जन्म बुरा है, ऐसा वह नहीं कह रहे। लेकिन जैसे हम हैं, उनको जन्म बंधन मालूम होगा। हम जैसे आदमी प्रेम तक को बंधन बना लेते हैं। मेरे पास न-मालूम कितने मित्रों की लड़कियों के, लड़कों के विवाह के निमंत्रण आते हैं, उसमें लिखा रहता है कि मेरी पुत्री प्रेम के बंधन में बंधने जा रही है; मेरा बेटा विवाह के बंधन में बंध रहा है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं; जबकि प्रेम मुक्ति है। कहना तो यही उचित होगा कि मेरी बेटी प्रेम में मुक्त होने जा रही है। हम कहते हैं, बेटी प्रेम में बंधने जा रही है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। इसमें प्रेम बंधन है ऐसा नहीं, हम जैसे हैं, हम मृत्यु को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधनों की एक शृंखला बना लेते हैं। जो व्यक्ति क्षण में जीता है, वर्तमान में जीता, फलाकांक्षा से मुक्त जीता, अनासक्त जीता, जो व्यक्ति जीवन को अभिनय की तरह जीता, जो करता हुआ न करता है, न करता हुआ करता है, ऐसा व्यक्ति जिंदगी में जो भी है उस सबको मुक्ति बना लेता है। उसके लिए बंधन भी मुक्ति हो जाते हैं, हमारे लिए मुक्ति भी बंधन है। यह हमारे होने के ढंग पर निर्भर करता है। इसलिए कृष्ण की बात में कोई जन्म बंधन है, ऐसा जन्म की निंदा नहीं है, हम जैसे हैं, हमने जन्म को बंधन बनाया है। और अगर हम फलाकांक्षारहित होकर जीना शुरू करें, तो जन्म हमारे लिए बंधन नहीं रह जाएगा। ऐसा व्यक्ति जीवनमुक्ति को उपलब्ध होता है। यही जीवन मुक्ति। यहीं है वह जीवन, अभी है वह जीवन। हमारे देखने पर निर्भर करता है।

मैंने सुना है कि एक विद्रोही को--एक विद्रोही फकीर को, एक सूफी को किसी खलीफा ने कारागृह में डाल दिया। उसके हाथों पर जंजीरें डाल दीं, उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं और वह सूफी, वह फकीर जो निरंतर स्वतंत्रता के गीत गाता था, जेल के सींखचों में डाल दिया गया। सम्राट--वह खलीफा उससे मिलने गया। और उसने पूछा कि कोई तकलीफ तो नहीं है? तो उस फकीर ने कहा, तकलीफ कैसी! शाही मेहमान को तकलीफ कैसे हो सकती है! आप मेजबान, आप "होस्ट', तकलीफ कैसे हो सकती है! हम बड़े आनंद में हैं। झोपड़े से महल में ले आए। उस सम्राट ने कहा, मजाक तो नहीं करते हो? उस फकीर ने कहा, जिंदगी को मजाक समझा, इसीलिए ऐसा कह पाते हैं। तो उसने कहा कि जंजीरें बहुत बोझिल तो नहीं हैं? ये जंजीरें कोई पीड़ा तो नहीं देतीं? तो उस फकीर ने जंजीरों को गौर से देखा और उसने कहा कि मुझसे बहुत दूर हैं। मेरे और इन जंजीरों के बीच बड़ा फासला है। सो तुम इस भ्रम में होओगे कि तुमने मुझे कारागृह में डाला, लेकिन मेरी मुक्ति को तुम कारागृह नहीं बना सकते, क्योंकि मैं कारागृह को भी मुक्ति बना सकता हूं।

इस पर ही सब निर्भर करता है कि हम कैसे देखते हैं। उस फकीर ने कहा, बड़ा फासला है इन जंजीरों में और मुझमें। तुम कैसे मुझ पर जंजीरें डालोगे? मंसूर को सूली दी गई और मंसूर के हाथ-पैर काटे गए और लाखों लोग देखने इकट्ठे थे, लेकिन मंसूर हंसता ही रहा, और उसकी हंसी बढ़ती ही गई। जब उसके पैर काटे, तब वह जितना हंस रहा था, जब हाथ काटे तब और जोर से हंसने लगा। लोगों ने पूछा कि पागल मंसूर, यह कोई हंसने की घड़ी है? मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम समझ रहे हो कि मुझे मार रहे हो, और तुम किसी और को काटे जा रहे हो! याद रखना, मंसूर ने कहा, कि मंसूर को जब तुम काट रहे थे तब वह हंस रहा था। ध्यान रखना कि तुम मंसूर को छू भी नहीं सकते हो, काटना तो बहुत दूर की बात है। और तुम जिसे काट रहे हो, वह मंसूर नहीं है। मंसूर तो वही है जो हंस रहा है। तब तो जो जल्लाद उसको काट रहे थे, जो उसके दुश्मन उसे काट रहे थे उन्होंने कहा कि कैसे हंसता है हम देखें, उन्होंने जीभ काट दी मंसूर की, लेकिन तब मंसूर की आंखें हंस रही थीं। इन लाखों लोगों ने कहा, जीभ तो तुमने काट दी, लेकिन मंसूर हंस रहा है, उसकी आंखें हंस रही हैं। उन जल्लादों ने उसकी आंखें फोड़ दीं। लेकिन मंसूर का चेहरा हंसता रहा। उसका रोआं-रोआं हंस रहा था। लोगों ने का तुम इसको न रुला सकोगे। अब इस आदमी के पास काटने को भी कुछ नहीं बचा, लेकिन उसका पूरा अस्तित्व हंस रहा है।

जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। जन्म वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। मृत्यु वैसी ही हो जाती है, जैसे हम हैं। यदि हम मुक्ति हैं, तो जन्म मुक्ति है, जीवन मुक्ति है, मृत्यु मुक्ति है। यदि हम बंधे हैं, पाश में पशु हैं, तो जन्म बंधन है, जीवन बंधन है, प्रेम बंधन है, मृत्यु बंधन है, सब बंधन है। परमात्मा भी तब एक बंधन की तरह ही दिखाई पड़ता है।


"पहले एक चर्चा में आपने कहा था कि पुरुष में साठ प्रतिशत पुरुष और चालीस प्रतिशत स्त्री, तथा स्त्री में साठ प्रतिशत स्त्री और चालीस प्रतिशत पुरुष होता है। यदि दोनों शक्तियों का पचास-पचास प्रतिशत अनुपात हो जाए, तो क्या वह शक्ति नपुंसक होगी? और परमात्मा को अर्द्धनारीश्वर क्यों कहा है?'


मैंने ऐसा नहीं कहा था कि साठ और चालीस का अनुपात होता है, उदाहरण के लिए कहा। अनुपात बहुत हो सकते हैं। सत्तरत्तीस भी हो सकता है, अस्सी-बीस भी हो सकता है, नब्बे-दस भी हो सकता है, इक्यावन-उनचास भी हो सकता है। और पचास-पचास भी हो सकता है। और जब पचास-पचास होता है, तभी "एसेक्सुअलिटी' पैदा हो जाती है। तभी वह व्यक्ति यौन की दृष्टि से द्वंद्व के बाहर हो जाता है, जिसको हम नपुंसक या "इम्पोटेंट' कह रहे हैं।

यह बड़े मजे की बात है कि इस मुल्क ने ब्रह्म शब्द को नपुंसकलिंग में रखा है। ब्रह्म पुरुष है कि स्त्री? नहीं, ब्रह्म "इम्पोटेंट' है। वह जो कि "ऑमनीपोटेंट' है, वह जो कि सर्वशक्तिमान है, उसको हमने जो लिंग रखा है वह नपुंसकलिंग में रखा है। क्योंकि वह कैसे स्त्री हो सकता है, वह पक्ष हो जाएगा। वह कैसे पुरुष हो सकता है, वह पक्ष हो जाएगा। वह निष्पक्ष है। निष्पक्ष है, तो वह पचास-पचास दोनों पूरा है, तभी निष्पक्ष हो  सकता है। अर्द्धनारीश्वर की कल्पना ब्रह्म की कल्पना है। उसमें नारीत्व और पुरुषत्व आधा-आधा है। वह दोनों है एकसाथ। क्योंकि वह दोनों नहीं है। अगर पुरुष है तो स्त्रीत्तत्व का इस जगत में कहां से आविर्भाव होगा? अगर वह स्त्री है, तो पुरुषत्तत्व कहां से आएगा, कहां से शुरू होगा, कहां से पैदा होगा? वह दोनों ही है। एकसाथ दोनों है। इसलिए दोनों को पैदा कर पाता है।

और हम जब तक स्त्री-पुरुष हैं, तब तक हम परमात्मा के टूटे हुए दो हिस्से हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष का आपसी आकर्षण एक होने का आकर्षण है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण पूरा होने का आकर्षण है। वह आधे-आधे हैं। अर्द्धनारीश्वर की हमारी कल्पना और हमारी प्रतिमा बड़ी अनूठी है। दुनिया ने बहुत प्रतिमायें बनाई हैं, लेकिन अर्द्धनारीश्वर में जो बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है, उसका कोई मुकाबला नहीं है। अर्द्धनारीश्वर में हम इतना ही कह रहे हैं कि परमात्मा दोनों हैं, एक-साथ, और पूरा है। एक पहलू उसका स्त्रैण है, एक पहलू उसका पुरुष है। या ऐसा कहें कि वह दोनों का सम्मिलन है, दोनों का मध्य है; दोनों का "बियांड' है, दोनों का पार है।

यह जो मैंने कहा कि परमात्मा को, ब्रह्म को, यह जो मध्य की स्थिति है, जीसस ने एक बहुत अच्छा शब्द उपयोग किया है, "यूनचेज़ ऑफ गॉड'। जीसस ने कहा है कि जिसे प्रभु को पाना है, उसे प्रभु के लिए नपुंसक हो जाना पड़ेगा। बड़ी अजीब बात कही है। पर कही बिलकुल ठीक है। जिसे प्रभु को पाना है, उसे प्रभु जैसा होना ही पड़ेगा। इसलिए बुद्ध अपनी पूरी गरिमा में, या कृष्ण अपनी पूरी गरिमा में न स्त्री हैं, न पुरुष हैं। अपनी पूरी गरिमा में वे दोनों हैं। अपनी पूरी गरिमा में वे मिश्रित हैं। अपनी पूरी गरिमा में एक अर्थ में वे "ट्रांसेंडेंटल सेक्स' हैं, वे पार हो गए दोनों द्वंद्वों के और दोनों के बाहर हो गए। लेकिन हमारे बीच द्वंद्व है। मात्राओं का द्वंद्व है।

और जो उन्होंने पूछा कि जो हमारे बीच "थर्ड सेक्स' पैदा होता है कभी, उसका क्या कारण है? उसका वही कारण है। अगर उसके भीतर "फिजियोलाज़िकली', शारीरिक तल पर दोनों तत्व समान रह गए, तो उसका लिंग विकसित नहीं हो पाता किसी भी दिशा में। उसकी जाति ठीक से विकसित नहीं हो पाती। दोनों बराबर समतुल शक्तियां एक-दूसरे को काट जाती हैं। यह भी संभव हो गया है, पहले तो कभी-कभी आकस्मिक होता था कि कोई स्त्री बाद के जीवन में पुरुष हो गई, या कोई पुरुष बाद में स्त्री हो गया।

लंदन में पीछे एक बड़ा मुकदमा चला। और सनसनीखेज मुकदमा था। और मुकदमा यह था कि एक लड़की और एक लड़के का विवाह हुआ, लेकिन विवाह के बाद वह लड़की जो थी वह लड़का हो गई। और अदालत में जो मुकदमा था वह यह था कि उस लड़की ने धोखा दिया, वह लड़का थी ही। बड़ी कठिनाई हुई इस मुकदमे में। उस लड़की का तो कहना था, वह लड़की थी, और वह विकास उसमें बाद में हुआ है। लेकिन तब तक विज्ञान इस संबंध में बहुत साफ नहीं था। लेकिन अभी इधर बीस-पच्चीस वर्षों में विज्ञान बहुत साफ हुआ। और घटनाएं बहुत तरह की घटी हैं, जिनमें "सेक्स'-रूपांतरण हुआ, जिनमें कोई पुरुष स्त्री हो गया, कोई स्त्री पुरुष हो गई। अगर यह "मार्जिनल केसेज' हैं, अगर उन्चास और इक्यावन का "मार्जिन' है, तो बदलाहट कभी भी हो सकती है। थोड़े-से "केमिकल' फर्कों से बदलाहट हो सकती है। और अब, अब तो बहुत सुविधापूर्ण हो गई है बात और भविष्य में बहुत ज्यादा दिन नहीं हैं कि कोई आदमी जिंदगी भर पुरुष रहने का ही कष्ट भोगे, या कोई स्त्री जिंदगी भर स्त्री रहने के ही चक्कर में रहे। इसमें बदलाहट कभी भी की जा सकती है। यह "सेक्स' जो है, यह रूपांतरित हो सकेगा, क्योंकि उसके "केमिकल' सूत्र सारे खयाल में आ गए हैं कि अगर एक "केमिकल' की मात्रा बढ़ा दी जाए व्यक्तित्व के शरीर में, "हारमोन्स' बदल दिए जाएं, तो उस व्यक्तित्व में स्त्री प्रगट हो सकती है--फिर पुरुष स्त्री हो सकता है, स्त्री पुरुष हो सकती है।

स्त्री और पुरुष एक ही तरह के व्यक्ति हैं, सिर्फ मात्राओं के फर्क हैं उनमें कुछ। उन मात्राओं के कारण सारी-की-सारी बात है।

अर्द्धनारीश्वर इस बात की सूचना है कि विश्व का मूलस्रोत न तो स्त्री है न तो पुरुष है। वह दोनों एकसाथ हैं। लेकिन क्या मैं आपसे यह कहूं कि वह जो "इम्पोटेंट' हैं, नपुंसक है, वह परमात्मा के ज्यादा निकट पहुंच जाएगा? यह मैं नहीं कह रहा हूं। परमात्मा दोनों हैं और नपुंसक दोनों नहीं हैं।

इस फर्क को आप खयाल में ले लेना।

परमात्मा दोनों हैं एकसाथ, और जिसे हम नपुंसक कहें, वह दोनों नहीं है। नपुंसक हमारा सिर्फ अभाव है, "एब्सेंस' है। और परमात्मा भाव है, "प्रेजेंस' है। परमात्मा में स्त्री और पुरुष दोनों हैं। इसलिए अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा है, उसमें आधी स्त्री है, आधा पुरुष है। हम परमात्मा को नपुंसक जैसा भी बना सकते थे, जिसमें न स्त्री होती, न पुरुष होता; लेकिन वह अभाव होता। परमात्मा दोनों का भाव है, दोनों की "पाज़िटिविटी' है। और जिसे हम नपुंसक कहते हैं, वह बेचारा दोनों का अभाव है। उसके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है, इसलिए उसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं है। इसलिए जब जीसस कहते हैं, "यूनचेज़ ऑफ गॉड, तब वह बिलकुल कह रहे हैं कि परमात्मा में, परमात्मा के लिए वे न स्त्री रह जाएं, न पुरुष हो जाएं; और तब वे दोनों रह जाएंगे, दोनों हो जाएंगे।


"जैन-शास्त्रों में क्यों कहा है कि स्त्रियों के लिए मोक्ष नहीं है?'


बात जरा बदल जाएगी। एक सवाल छोटा-सा पूछा है। बात बदल जाएगी, इसलिए थोड़े में करें, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे। पूछा है कि जैन-शास्त्रों में क्यों कहा है कि स्त्रियों के लिए मोक्ष नहीं है। उसका कारण है कि जैन-शास्त्र पुरुष-चित्त के द्वारा निर्मित शास्त्र हैं। जैन-साधना पुरुष-साधना है। जैन-साधना की पूरी प्रक्रिया "एग्रेसिव' है, आक्रामक है। और इसलिए जैन-शास्त्र सोच नहीं सकता कि स्त्री को कैसे मोक्ष हो सकता है? अगर कृष्ण के भक्त से हम पूछें तो वह बहुत मुश्किल में पड़ेगा! वह कहेगा, स्त्री के सिवाय और किसी का मोक्ष हो ही कैसे सकता है! पुरुष का मोक्ष होगा कैसे! क्योंकि कृष्णभक्त अगर पुरुष भी हैं, तो अपने को स्त्री बनाकर कृष्ण के प्रेम में पड़ता है। मीरा जब गई वृंदावन और वहां के मंदिर में प्रवेश पर उस पर रोक लगाई गई, क्योंकि प्रवेश में, उस मंदिर में जो पुजारी था वह स्त्रियों को नहीं देखता था। और जब मीरा को रोका तो मीरा ने कहा, एक सवाल उन पुजारी से पूछ लो कि क्या कृष्ण के अलावा और कोई पुरुष भी है? और कृष्ण के पुजारी होकर अभी तक पुरुष बने हुए हो? तो उस पुजारी ने कहा, उसको आने दो। मेरी भूल मुझे पता चल गई, मैं गलती में था। तो कृष्ण के आसपास तो "पैसिव', समर्पण, "सरेंडर', वह जो स्त्री का चित्त है वह।

महावीर के आसपास पुरुष-चित्त की गति है। महावीर स्वयं पुरुष-चित्त के साधक हैं। उनकी सारी साधना पुरुष-चित्त की साधना है, इसलिए महावीर सोच भी नहीं सकते, मान भी नहीं सकते कि स्त्री मोक्ष जा सकती है। तो महावीर की परंपरा में स्त्री को थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़े, उसे एक पर्याय और लेनी पड़े, एक बार पुरुष होना पड़े, फिर ही वह जा सकती है। और मैं मानता हूं कि इसमें गलती नहीं है। अगर महावीर की ही साधना करनी हो तो दुनिया में कोई स्त्री नहीं कर सकती। स्त्रैण-चित्त ही महावीर की साधना नहीं कर सकता। सिर्फ पुरुष-चित्त ही कर सकता है। और अगर पुरुष चित्त की साधना करनी हो, तो कृष्ण के साथ बहुत कठिनाई है। हो नहीं सकती। पुरुष-चित्त का कृष्ण से तालमेल नहीं बैठेगा।

ये हमारे जो दो चित्त हैं, इन दो चित्तों पर सब कुछ निर्भर करता है।

फिर कल सुबह बात करेंगे।





मंगलवार, 5 सितंबर 2023

  




और हम बजाय अपने मन को समझाने के लिए, अपनी "कैटेग्रीज' को बचाने के लिए कृष्ण को कई व्यक्तियों में बांटें, इससे अच्छा होगा अपनी "कैटेग्रीज' छोड़ें और अपने इस चित्त को एक तरफ फेंकें और कृष्ण को पूरा देखें। मैं नहीं कहता अलग हुए भी हों तो मुझे फिकिर नहीं है। मुझे इसकी चिंता नहीं है। हो सकता है कि ऐतिहासिक सिद्ध करें कि फासला है दो हजार साल का भागवत के कृष्ण में और गीत के कृष्ण में। मैं फिक्र न करूंगा, मैं कहूंगा, मुझे फासला नहीं है। मेरे लिए तो कृष्ण का अर्थ ही तभी है जब यह एक व्यक्ति है। अगर यह एक व्यक्ति नहीं है, तो व्यर्थ हो गया, इसका कोई अर्थ न रहा। हुए हों, न हुए हों, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। मैं मानता हूं कि जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसमें अनेक व्यक्ति एकसाथ फलित होंगे। जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसकी असंगतियों में एक संगति होगी। उसके विरोधों में एक अविरोध होगा। उसके व्यक्तित्व में विरोधी छोर होंगे, लेकिन जुड़े होंगे। हो सकता है धागे हमें दिखाई न पड़ें, हमारी आंखें कमजोर हैं बहुत।

ऐसा ही समझें कि अगर मैं एक मकान की सीढ़ियों पर चढ़ रहा हूं, तो नीचे की सीढ़ी मुझ दिखाई पड़ती हो और बीच की सीढ़ियां दिखाई न पड़ें और आखिरी सीढ़ी दिखाई पड़ती हो, तो क्या मैं कभी भी सोच सकूंगा कि पहली सीढ़ी और आखिरी सीढ़ी में कोई जोड़ है? कभी भी न सोच सकूंगा। बीच की सीढ़ियां भी दिखाई पड़ जाएं तो मैं कह सकूंगा, पहली और आखिरी सीढ़ी दो सीढ़ियां नहीं हैं, एक ही सीढ़ी के दो हिस्से हैं। पहली सीढ़ी पर शुरू होती है यात्रा, आखिरी सीढ़ी पर पूरी होती है। यह एक ही चीज का विस्तार है। कृष्ण के व्यक्तित्व की जो बीच की सीढ़ियां हैं वह हमें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हमारे ही व्यक्तित्व की बीच की सीढ़ियां हमें दिखाई नहीं पड़ीं। वे जो "लिंक्स' हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। आपने अपनी अशांति भी देखी, शांति भी देखी। दोनों के बीच का क्षण देखा? वह नहीं देखा है। आपने प्रेम भी देखा और घृणा भी देखी। लेकिन दोनों के बीच की यात्रा देखी है कि प्रेम किस भांति घृणा बनता है? घृणा किस भांति प्रेम बनती है? आपने मित्रता भी साधी, शत्रुता भी साधी, लेकिन कभी यह देखा कि मित्रता किस कीमिया से, किस "केमिकल' प्रक्रिया से शत्रुता बन जाती है? और शत्रुता किस कीमिया से मित्रता बन जाती है?

केमिस्ट हुए--अलकेमिस्ट--जो इस कोशिश में लगे थे कि लोहा सोने में कैसे बदल जाए। लेकिन लोग उनको समझ न पाए। लोग समझे कि सच में ही वे लोहे को सोना बनाने में लगे हैं। वे सिर्फ यह कह रहे थे कि अगर लोहा है तो कहीं-न-कहीं सोने से जुड़ा होगा। यह हो नहीं सकता कि लोहा और सोना जुड़ा न हो। कहीं-न-कहीं कोई "लिंक', कहीं-न-कहीं कोई बीच की कड़ी होगी जो हमें दिखाई नहीं पड़ रही है। यह हो नहीं सकता कि जगत "अनलिंक्ड' हो। अगर वहां फूल खिला रहा है और यहां मैं बैठा हूं तो कहीं-न-कहीं कोई "लिंक' होगा। और अगर मैं प्रसन्न हूं तो उस प्रसन्नता में फूल की प्रसन्नता कहीं भागीदार होगी। हो सकता है, कड़ी हमें दिखाई न पड़ती हो। और वहां फूल कुम्हला जाए और मैं उदास हो जाऊं और कड़ी दिखाई न पड़े। जीवन जोड़ है, इसमें सब जुड़ा है।

"अलकेमिस्ट' कहते थे कि लोहा है और सोना है, तो कहीं जोड़ होगा। हम कोई रास्ता खोज ही लेंगे जिसमें सोना लोहा बन जाए और लोहा सोना बन जाए। इस खोज में थे। लेकिन इतनी ही खोज न थी, वे यह कह रहे थे कि जिसको हम नीचा कहते हैं वह ऊंचे से जुड़ा होगा। "द बेसर मस्ट बी लिंक्ड विद हायर'। नहीं तो हो नहीं सकता। कहीं-न-कहीं सेक्स परमात्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। कहीं-न-कहीं जमीन आकाश से जुड़ी होगी। जुड़ी होनी चाहिये। कहीं-न-कहीं जन्म मृत्यु से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। बिना जुड़े हो कैसे सकता है? संभव नहीं रह जायेगा। जड़ कहीं-न-कहीं चेतना से जुड़ा होगा। पत्थर कहीं-न-कहीं आत्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। अन्यथा हो कैसे सकता है? इस बड़े जोड़ के प्रतीक की तरह कृष्ण हैं।

मैं तो कहता हूं, यह व्यक्ति हुआ, ऐसा ही हुआ। इतिहास दलीलें जुटाए, मैं उठाकर कचरे में फेंक दूंगा। मनोवैज्ञानिक बताए, मैं कहूंगा तुम्हारा दिमाग खराब है। तुम अभी समझ न पाओगे। क्योंकि तुमने खंडों का साफ-सुथरापन समझा है, तुमने सभी खंडों का जोड़ अभी नहीं समझा है। फ्रायड बहुत खोज करता है। जितना वह आदमी जानता है क्रोध के संबंध में, शायद कम आदमी जानते होंगे। लेकिन कोई जरा धक्का मार दे, तो क्रोध उसे भी आ जाता है। तो यह जानकारी बड़ी बाहरी हो गई। पर बहुत खोज करता है। फ्रायड जितना पागलपन के संबंध में जानता है शायद कोई जानता हो। लेकिन फ्रायड खुद पागल हो सकता है, कभी भी "पोटेंशियल' है। किसी भी क्षण पागल हो सकता है। मौके आ जाते हैं जब वह पागलपन करता है।

मनोवैज्ञानिक क्या कहता है, इसका बहुत मूल्य मेरे लिए नहीं है, क्योंकि कृष्ण मन के बाहर गए व्यक्ति हैं, मन के पार गए व्यक्ति हैं। कृष्ण मन के पार गए व्यक्ति हैं। और एक और तरह की अखंडता है, जो आत्मा की अखंडता है, जो एक ही साथ सबमें हो सकती है, सब मनों में हो सकती है, सब तरह के मनों में हो सकती है। इसलिए मैं एक ही व्यक्ति मानकर बात करूंगा।


"गीता आप प्रामाणिक वचन मानेंगे कृष्ण के?'


पूछते हैं, गीता को प्रामाणिक वचन मानेंगे कृष्ण के?

कृष्ण जैसा व्यक्ति हुआ हो तो गीता जैसा वचन प्रामाणिक ही होगा। यह सवाल नहीं है कि कृष्ण ऐसा बोला कि नहीं बोला। सवाल यह है कि कृष्ण बोलेगा तो ऐसा ही बोल सकता है। और अगर कृष्ण ने न बोला हो और व्यास ने ही गीता लिखी हो, तो कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि व्यास लिख नहीं सकता अगर कृष्ण जैसा व्यक्ति न हो। व्यास को भी कहना पड़े--व्यास लिखे, कोई फर्क नहीं पड़ता है--लेकिन व्यास भी तो गीता बोलेगा न! इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर कृष्ण बोले, व्यास बोले, कोई अ, ब, स कोई और बोले, लेकिन गीता बोलने के लिए एक भीतर कोई चाहिए न! यह गीता आसमान से पैदा नहीं होती। कहीं से पैदा होती है। नाम से क्या फर्क पड़ता है! उस आदमी का नाम व्यास है, कि कृष्ण है, कि क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसलिए मैं उल्टी तरह से सोचता हूं। मैं यह नहीं कहता कि गीता का वचन प्रामाणिक वचन है कृष्ण का। गीता-वचन प्रामाणिक है या नहीं; मैं यह कहता हूं, गीता है, यह प्रमाण है, कृष्ण की खबर है। इस तरह ही देखता हूं, गीता है, यह बोली गई, यह कही गई, यह लिखी गई, यह अस्तित्व में है। यह बिना कृष्ण के अस्तित्व में नहीं हो सकती। एक आदमी तो चाहिए न जो यह बोले, जो यह लिखे! वह कौन था, इससे क्या फर्क पड़ता है? उसका नाम क्या था, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन एक चेतना तो चाहिए न जिससे इसका जन्म हो। गंगोत्री प्रमाण नहीं है गंगा के लिए, गंगा प्रमाण है गंगोत्री के लिए। गंगा है तो हम कह सकते हैं कि गंगोत्री होगी। चाहे हो न हो; चाहे मिले, चाहे न मिले; चाहे खोज पाएं या न खोज पाएं, लेकिन गंगा है तो गंगोत्री होगी। गीता है तो कृष्ण होंगे। गीता से कृष्ण की तरफ चलना मुझे उचित मालूम पड़ता है, क्योंकि गीता अभी है। कृष्ण की तरफ से गीता की तरफ चलेंगे तो झंझटें पड़ेंगी। क्योंकि उसमें डर हो सकता है कि कृष्ण न हों, और तब फिर गीता संदिग्ध हो जाए, और फिर गीता को हमें कोई और आदमी खोजना पड़े। लेकिन, हम बड़े पागलपन का काम करते हैं।


"श्रीमद्भागवत में वस्त्रहरण-लीला के प्रसंग में कृष्ण का नैसर्गिक "इरोटिक गेस्चर' सुस्पष्ट है। वर्णन है कि गोपिकाओं की अक्षत योनियां देखकर कृष्ण प्रसन्न हुए। और वस्त्र लेने के लिए लज्जावश गोपिकाएं गुह्यांग हाथ से ढांककर बाहर आती हैं, तब कृष्ण कहते हैं कि तुमने जल देवता का नग्न नहाकर अपराध किया है, इसलिए पापशमन हेतु मस्तक पर दोनों हाथ जोड़ उन्हें नमस्कार कर वस्त्र ले जाओ। बाद में भागवतकार लिखते हैं कृष्ण ने कुमारिकाओं को ठगकर लज्जा त्याग करवाया। इस संदर्भ में निरावरणता के सर्वप्रथम पुरस्कर्ता कृष्ण के आप समर्थ अनुगामी हैं, मगर आपके खयाल और जर्मनी आदि देशों के "न्यूडिस्ट क्लब' के खयाल में क्या बुनियादी फर्क है? वस्त्र सभ्यता का प्रतीक है, संस्कृति चमड़ी है। इस त्वचा का आवरण अलग करने से जो अस्थि-पंजर दिखाई पड़ेगा, इससे हम प्राकृतिक रूप में दिखाई पड़ेंगे, मगर बर्बर भी दिखाई पड़ेंगे। यह खयाल "बैक टु प्रिमिटिज्म, बैक टु जंगल' नहीं होगा? घड़ी के कांटे को पीछे घुमाने की विधि को आप आप बाद में "प्रोग्रेस' कह सकोगे?'


पहली बात, सिग्मंड फ्रायड का "लिबिडो' का खयाल बहुत कीमती है। "लिबिडो' को अगर हम ठीक शब्द दें, तो उसका अर्थ होगा, काम-ऊर्जा, "सेक्स-एनर्जी'। मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के जीवन में, सृजन में काम-ऊर्जा गुह्यतम छिपी है। पुराण कहते हैं, ब्रह्मा ने जगत बनाया तो काम से पीड़ित होकर। सृजन होगा ही नहीं कामना के बिना। समस्त सृजन कामना से ही आविर्भूत होता है। जो भी है, वह काम का ही विस्तार है। जीवन की समस्त लीला, जीवन की सारी अभिव्यक्ति--चाहे फूल खिलते हों, चाहे पक्षी गीत गाते हों--काम-ऊर्जा का ही खेल हो। ऐसा समझें, जैसे काम-ऊर्जा का एक सागर है और उसमें अनंत-अनंत लहरें उठती हैं, अनंत-अनंत रूपों में। स्वयं परमात्मा ही बहुत गहरे में काम-ऊर्जा का केंद्र है।

कृष्ण के जीवन में काम-ऊर्जा की सहज, निश्छल स्वीकृति है। सहज स्वभाव का अंगीकार है। न कहीं कोई निषेध है, न कहीं कोई दमन है। जैसा है जीवन, वैसा अनुग्रहपूर्वक, अनुग्रहभाव से उसे जीने की सहजता है। इसलिए कृष्ण की घटनाओं को जो लोग दबाने, बदलने, शक्ल देने की कोशिश करते हैं, वे केवल अपनी अपराध-वृत्तियों, अपने दमित काम, अपने चित्त के रोगों की खबर देते हैं। निश्चित ही यह कोशिश की जाती रही है कि जिस कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र लिए और वृक्ष पर चढ़ गए, वह बहुत छोटे थे। हमें बड़ी राहत मिलेगी अगर वे बहुत छोटे हों। उससे हम उनको स्वीकार करने में सुलभता पाएंगे। लेकिन छोटे बच्चे भी एक-दूसरे को नग्न देखना चाहते हैं। बहुत छोटा बच्चा भी उत्सुक है जानने को--लड़की भी, लड़का भी। और यह जिज्ञासा अत्यंत स्वाभाविक है। जैसे ही एक बच्चे को--वह चाहे लड़की हो, चाहे लड़का--जैसे ही अपने शरीर का बोध शुरू होता है, वैसे ही उसे यह भी बोध शुरू होता है कि लड़की भी है घर में, बहन भी है उसकी, जिसके शरीर में कुछ फर्क है। लड़की को भी बोध होता है कि लड़का है, उसके शरीर में कुछ फर्क है। यह बोध इतना कठिन न हो, अगर लड़के और लड़कियां सहज ही घर में नग्न भी होते हों। लेकिन बड़े-बूढ़े इतने कामग्रसित हैं, इने "आब्सेस्ड' हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को भी जल्दी वस्त्र पहनाने के लिए आतुर होते हैं। यह उनकी आतुरता इतनी ज्यादा है कि छोटे बच्चे एक-दूसरे को नग्न सहजता से नहीं देख पाते। तो कृष्ण ने ही कोई, अगर यह भी मान लें कि उनकी उम्र छोटी रही हो, तो नहाती हुई लड़कियों के वस्त्र लेकर वे वृक्ष पर चले गए हों, तो इसमें कुछ बहुत नया नहीं है। सभी छोटे बच्चे लड़कियों को नग्न देखना चाहते हैं। न नदी उपलब्ध है अब, न वृक्ष उपलब्ध हैं अब, न नदी पर नहाती हुई लड़कियां उपलब्ध हैं। तो बच्चों को नए-नए रास्ते खोजने पड़ते हैं।

फ्रायड ने एक खेल का उल्लेख किया है, डाक्टर के खेल का। छोटे बच्चे लड़कियों को बीमार करके लिटाकर डाक्टर का खेल शुरू करेंगे और उनको नग्न देखना चाहेंगे। यह बड़ी सहज जिज्ञासा है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि हम एक-दूसरे से परिचित होना चाहें। यह हमारे शरीर-परिचय की बिलकुल प्राथमिक कड़ी है। तो अगर कृष्ण छोटे भी रहे हों, तब भी संभव है। लेकिन उम्र ज्यादा भी रही हो, तब भी असंभव नहीं है। हमारे लिए असंभव हो जाएगा, कृष्ण के लिए असंभव नहीं है। क्योंकि कृष्ण जीवन को सहज जीते हैं, जैसा है उसे स्वीकार करते हैं। और जिस संस्कृति में वह पैदा हुए होंगे, वह संस्कृति भी  बहुत सहजता को स्वीकार करती होगी। अगर कृष्ण हमारे समाज में पैदा हुए होते, तो हमने इस उल्लेख को ही काट दिया होता। हम इस उल्लेख को कभी लिखते ही नहीं। जिन लोगों ने इस उल्लेख को सहजता से लिखा है, उनके मन में कोई भी ऐसा भाव न रहा होगा कि कुछ गलत हुआ है। नहीं तो गलत को हम छांट देते। हजारों साल तक यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि कृष्ण कैसा आदमी है। यह अभी हमने उठाना शुरू किया है। यह सवाल नहीं उठाता है। जिस संस्कृति में कृष्ण की यह घटना घटी होगी, वह संस्कृति इसको सहज स्वीकार कर ली होगी। यह कोई कृष्ण ही कपड़े चुराकर अगर चले गए होते, तो अनूठी घटना अगर होती, तो इसकी निंदा भी होती। यह और भी कृष्ण यह करते रहे होंगे, ये और लड़के भी यह करते रहे होंगे, ये और बालगोपाल भी यह करते रहे होंगे।

लड़कियां भी बहुत कम उम्र की रही होंगी, यह नहीं माना जा सकता। इतनी उम्र की तो रही होंगी जहां से लड़कियों को लड़कियां होने का बोध शुरू हो जाता है। जहां से शर्म शुरू हो जाती है। जहां से वे काम के मामले में, "सेक्स' के मामले में, यौन के मामले में भिन्न हैं; उनके पास कुछ छिपाने को है; जहां से उन्हें छिपाने का बोध शुरू होता है, वह वही बोध है जहां से कोई दूसरा उन्हें जानने और देखने को उत्सुक होता है। ये दोनों एक ही घड़ी, एक ही उम्र की बात है। तो कृष्ण जिस उम्र के रहे होंगे उससे बहुत भिन्न उम्र की लड़कियां नहीं रही होंगी। कृष्ण देखने को उत्सुक हैं उन्हें नग्न, ये लड़कियां कृष्ण न देख पाएं, इसके लिए आतुर हैं।

इस मामले में एक बात बहुत समझ लेनी जरूरी है कि पुरुष-चित्त और स्त्री-चित्त में जो बहुत से फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है। पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है, वह "वोयूर' है। स्त्री पुरुष को नग्न नहीं देखना चाहती है, इतनी उसकी उत्सुकता नहीं है। वह "वोयूर' नहीं है। इसलिए बड़े मजे की बात है। लेकिन पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है। इसीलिए दुनिया में इतनी नग्न स्त्रियों की प्रतिमाएं हैं। पुरुषों की नहीं हैं। और अगर कहीं पुरुषों की नग्न प्रतिमाएं हैं, तो वे उन संस्कृतियों में पैदा हुईं, जो कि "होमोसेक्सुअल' थीं। जैसे, यूनान में पैदा हुईं। सुकरात और प्लेटो के वक्त में पैदा हुईं, जो कि "होमोसेक्सुअल' वक्त है। जिसमें कि पुरुष पुरुषों को भी काम-विषय बनाते थे, "सेक्स आब्जेक्ट' बनाते थे, तो वह भी पुरुषों ने ही बनाई हैं वे मूर्तियां नग्न पुरुषों की। स्त्रियां नग्न पुरुषों में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। इसलिए ऐसी कोई पत्रिका नहीं निकलती जिसमें नग्न पुरुषों की तस्वीरें देखकर स्त्रियां प्रसन्न होती हों, वे बिलकुल प्रसन्न नहीं होतीं। लेकिन ऐसी बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं जिनमें नग्न स्त्रियों की तस्वीरें देखकर पुरुष बड़े प्रसन्न होते हैं। स्त्रियों को समझ में नहीं आता कि पुरुषों को यह क्या पागलपन है।

कभी आपने शायद खयाल न किया हो कि प्रेम के गहरे-से-गहरे क्षण में पुरुष जरूर स्त्री को नग्न करना चाहेगा। स्त्री उनकी उत्सुक नहीं होगी। बल्कि पुरुष नग्न भी हो, तो प्रेम के गहरे क्षण में पुरुष की आंख खुली रहेगी, स्त्री की आंख बंद हो जाएगी। अगर स्त्री का चुंबन भी लिया जा रहा हो तो वह आंख बंद कर लेगी। देखने में उसका बहुत रस नहीं है। "एब्ज़ार्व' कर लेने में, पी लेने में, हो जाने में उसका रस है, देखने में उसका रस नहीं है। पुरुष देखने में बहुत रसपूर्ण है। और पुरुष की यह देखने की उत्सुकता है, यह स्त्री को छिपने की उत्सुकता का जन्म बन जाती है। वह अपने को छिपाना शुरू कर देती है। इसलिए स्त्री छिपाए जा रही है। लेकिन स्त्री की बड़ी मुश्किल है। अगर वह बहुत ज्यादा छिपा ले, तो पुरुष के लिए अनाकर्षक हो जाती है। इसलिए स्त्री को दोहरा काम करना पड़ता है। छिपाना भी पड़ता है और उघाड़ना भी पड़ता है। उसकी दोहरी मुसीबत है। उसको एक ही चीज से दोहरे काम करने पड़ते हैं। उन्हीं कपड़ों से छिपाना पड़ता है खुद को, उन्हीं कपड़ों से उघाड़ना पड़ता है खुद को। तो जिन कपड़ों से स्त्री अपने को छिपाती है, उन्हीं से उघाड़ने का भी काम लेती है। क्योंकि, छिपाना तो वह पुरुष की जो जिज्ञासा की जो "क्याूरिआसिटी' है, उससे वह भयभीत है। वह उसकी समझ के बाहर है। तो अपने को छिपाती है। लेकिन इस पुरुष के लिए उसे आकर्षक भी होना है, क्योंकि इस पुरुष के लिए अगर वह आकर्षक नहीं है तो बेमानी है। तो उसे उघाड़ना भी है। तो स्त्रियां एक बड़ी जिच में पड़ी रहती हैं, सदा--उघाड़ो भी, ढांको भी। इधर से ढांको, उधर से उघाड़ो। यह अंग ढांको, वह अंग उघाड़ो। उनको पूरे वक्त इन दोनों के बीच एक तालमेल और एक संतुलन और एक "बैलेंस' बनाए रखना पड़ता है।

तो वे स्त्रियां अगर पानी से अपने गुह्य अंगों को ढांककर निकली हों, तो बिलकुल स्वाभाविक है। यह घटना बड़ी सहज है। और कृष्ण ने अगर उनसे कहा हो कि हाथ जोड़कर देवता को नमस्कार करो, तो यह भी बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ कठिनाई नहीं है। यह पुरुष-चित्त है। और कृष्ण सीधे, सहज पुरुष-चित्त हैं--कहना चाहिए, पूरे पुरुष-चित्त हैं। और इसके बाबत न कोई दमन है, न कोई विरोध है। और जिन्होंने ये कथाएं लिखीं, वे भी बड़े सहज लोग रहे होंगे, उन्होंने सीधी-सीधी बातें लिख दी हैं, जैसी थीं। उनके मन में अभी तक कोई ऐसा मामला नहीं आया था, न कोई ऐसे सिद्धांत आ गए थे जो कहते कि यह क्या लिख रहे हो? और कृष्ण जिसे तुम भगवान बना रहे हो, उसके बाबत ऐसी बात लिखकर तुम दिक्कत डाल रहे हो। बाद के लोगों को बड़ी कठिनाई होगी कि यह भगवान कैसा था! भगवान ही ऐसा हो सकता है। इतना सरल और सहज, इतना "स्पांटेनियस' भगवान ही हो सकता है, आदमी नहीं हो सकता। आदमी तो "स्पांटनियस' हो ही नहीं सकता, वह तो "प्रीप्लांड' है। इतना जरूर मैं कहूंगा कि कृष्ण ने यह "प्लानिंग' न की होगी। इतना मैं कहूंगा। इसका कोई "ब्लू प्रिंट' नहीं रहा होगा, कि लड़कियां अपने अंग छिपा लेंगी तो मैं उनसे कहूंगा कि हाथ जोड़ो। बस यह हुआ होगा कि लड़कियों ने अंग छिपाए होंगे, कृष्ण ने कहा होगा कि हाथ जोड़ो नदी के देवता को, क्या करती हो? नाराज कर दिया नदी के देवता को! पर यह "स्पांटेनियस', सहज। और इस सहजता को इसी तरह वर्णित किया जिन लोगों ने, वे अदभुत रहे होंगे। सरल रहे होंगे, सीधे रहे होंगे। घटनाओं में काट-छांट नहीं की है। "इम्प्रूवमेंट' नहीं किया है कोई घटनाओं पर। चीजों को छोड़ दिया है जैसी वे थीं। पीछे हमको कठिनाई होती चली गई है। पीछे हम मुश्किल में पड़ते चले गए। ऐसी बहुत घटनाएं हैं जो हमें पीछे दिक्कत में सालती हैं। क्योंकि पीछे हमारे नए सिद्धांत और नई धारणाएं और नई नैतिकताएं नए खयाल दे देती हैं और वह हमको पीछे की तरफ लौटकर उनको हमें लागू करना पड़ता है। फिर कठिनाई खड़ी हो जाती है।

तो मैं तो मानता हूं कि काम-ऊर्जा की जो सहजतम अभिव्यक्ति हो सकती है, वह कृष्ण में हुई है। उसमें उन्होंने कोई बाधा नहीं मानी है। वह सहज जिए हैं। और उनके समाज में, जिसमें वह थे, उसने सहज स्वीकार कर लिया था। वह समाज भी सहज होगा।

दूसरी बात पूछी है, कि मैं भी पुरस्कर्ता हूं। एक अर्थ में हूं। ऐसा नहीं कि वस्त्रों का विरोधी हूं। अगर वस्त्रों का विरोधी हूं, तो मैं घड़ी के कांटों को पीछे की तरफ घुमाता हूं। वस्त्रों की उपादेयता है, वस्त्रों का अर्थ है, वस्त्रों का प्रयोजन है। लेकिन वस्त्रों की कोई नैतिकता नहीं है, वस्त्रों की कोई "मॉरलिटी' नहीं है। प्रयोजन है। सर्दी है और वस्त्र जरूरी हैं। गर्मी है और और तरह के वस्त्र जरूरी हैं। और आप रास्ते पर जाने के लिए हैं, तो भी वस्त्र जरूरी हैं, क्योंकि कोई आपको नग्न न देखना चाहे तो आपको दिखाने का हक नहीं है, वह "ट्रेसपास' है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई हमें नग्न देखने को राजी नहीं है तो हम अपने घर पर भी नग्न होने को स्वतंत्र न रह जाएं, या किन्हीं घड़ियों में हम नग्न न हो सकें। नहीं, नग्नता और वस्त्र ऐसे ही होने चाहिए जैसे जूते हैं। घर पर हम जूता नहीं पहनकर घूम रहे हैं, उतार देते हैं, बाहर पहनकर चले जाते हैं। लेकिन घर में जूता उतारकर कोई नहीं कहता कि तुम नंगे हो गए। हो तो गए हैं, पैर तो नंगे हो ही गए।

कपड़े सहजता से लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जा सकते हैं जब नग्नता भी सहजता से ली जाए, नहीं तो नहीं लिए जा सकते हैं। तब कपड़े एक नैतिक अर्थ ले लेते हैं, जो उनमें बिलकुल नहीं है। मनुष्य ने बहुत कपड़े ओढ़ डाले। इतने कपड़े ओढ़ डाले कि उन कपड़ों की वजह से उसे कपड़े उघाड़ने के हजार तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं। उससे अनैतिकता पैदा होती है।

मैं मानता हूं कि अगर हम नग्नता को सहज स्वीकार कर लें, जैसा कि हम नग्न पैदा होते हैं। कपड़ों के भीतर भी नग्न ही रहते हैं, नग्न ही मरते हैं। परमात्मा ने हमें नग्न ही पैदा किया है। वह सहजता है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम नंगे ही रहें। परमात्मा ने हमें जैसा पैदा किया है उसमें हम बहुत फर्क करते हैं। परमात्मा धूप डाल रहा है, हम छाता लगाए हुए हैं। इसमें हम कोई परमात्मा का विरोध नहीं कर रहे हैं। क्योंकि छाता लगाने से जो छाया आती है वह भी परमात्मा के नियम का हिस्सा है। उसमें कोई विरोध नहीं है। सिर्फ हम हमारे लिए जो मौज का है वह हम कर रहे हैं, और इतनी स्वतंत्रता हमें है कि हम धूप में बैठें कि छाया में। लेकिन अगर किसी दिन कोई आदमी छाया में बैठने को नैतिकता बना ले और धूप में जाने को पाप बना दे, तो फिर छाया में बैठना बड़ा बोझिल हो जाएगा। और फिर धूप में जाना अपराध हो जाएगा--और लोग चोरी से धूप में जाने लगेंगे, जो कि बड़ी सहज बात है। जिसमें चोरी से जाने का कोई कारण न था, अब अकारण हम चोरी पैदा कर रहे हैं, अकारण हम अनैतिकता पैदा करवा रह हैं। अकारण "कंडेमनेशन' पैदा कर रहे हैं, अकारण लोगों को अपराधी सिद्ध करवा रहे हैं और उनको "गिल्ट' दे रहे हैं, जिसको देने की कोई जरूरत न थी।

तो मैं मानता हूं कि नग्नता एक सत्य है जीवन का, उसे सरलता से स्वीकार करने की बात है। उससे भागने की कोई जरूरत नहीं है। भागने के कारण पच्चीस उपाय कर रहे हैं। सड़क-सड़क पर नंगे पोस्टर लगे हैं, वे बिलकुल न लगेंगे। अगर हम सहज नग्नता को स्वीकार कर लें, अगर घर में कभी लोग नग्न भी बैठते हों, कभी नदी के किनारे नग्न नहाते भी हों, कभी मित्रों के बीच नग्न गपशप भी करते हों, कभी नग्न बैठकर धूप भी लेते हों--ऐसा नहीं कि कपड़े छोड़कर भाग जाएं; कपड़े छोड़कर भागेंगे तो घड़ी का कांटा पीछे लौटेगा। और अगर कपड़े छोड़कर भागते नहीं हैं, नग्नता को भी स्वीकार करते हैं, तो जो लोग नग्न थे उनको कपड़ों का जो फायदा नहीं था, वह हमें होगा; और जो लोग सिर्फ कपड़ा पहने हुए हैं और कपड़ों से जो परेशानी में पड़ गए हैं, उस परेशानी में हम न होंगे। और इसलिए इसे मैं विकास कहूंगा। यह आगे जाना होगा। यह अकेले नंगे लोगों से भी आगे जाना होगा, अकेले कपड़े ढंके लोगों से भी आगे जाना होगा।

र्न्यूडिस्ट-क्लब' बगावत हैं। "न्यूडिस्ट-क्लब' एक प्रतिक्रिया हैं उस समाज की जिन्होंने कपड़े बहुत थोप दिए हैं। मैं "न्यूडिस्ट-क्लब' के पक्ष का नहीं हूं। यानी इसका मतलब यह हुआ कि एक तरफ पूरा समाज बीमार होता है और एक तरफ अस्पताल बनाते हैं। मैं कहता हूं, बीमार ही क्यों हों! "न्यूडिस्ट-क्लब' की जरूरत जो है, वह यह जो "आब्सेस्ड' लोग हैं कपड़े से, इनकी वजह से पैदा होती है। अगर हम "आब्सेसन' अलग कर लें, तो "न्यूडिस्ट-क्लब' की कोई जरूरत  नहीं रह जाती। अगर हम सहजता से घर में बाप बेटे के साथ नग्न नहा सके, मां बेटे के साथ नग्न नहा सके तो हैरान होंगे आप इस बात को जानकर कि अगर घर में मां अपने बेटे के साथ नग्न नहा सके तो यह बेटा किसी लड़की को रास्ते पर धक्का देने में असमर्थ हो जाएगा। इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यह बिलकुल बेमानी बात हो जाएगी। स्त्री और पुरुष के बीच का फासला इतना कम हो जाएगा कि धक्का मारकर फासला कम करने की कोई जरूरत नहीं है। धक्का मारकर भी फासला ही कम किया जा रहा है, और कुछ किया नहीं जा रहा है। और चूंकि आहिस्ता से हाथ रखने कोई उपाय नहीं है, इसलिए धक्का मारा जा रहा है। अगर कोई स्त्री मुझे अच्छी लगे और उसका हाथ मैं हाथ में लेकर कहूं कि मुझे हाथ बहुत प्यारा लगता है, एक क्षण हाथ में ले सकता हूं, और समाज इतना सहज हो कि वह कहे कि ठीक है, यह हाथ आपको प्यारा लगा, धन्यवाद--मेरे हाथ को इतना प्यारा लगने का भी तो धन्यवाद होना चाहिए--तो फिर धक्का मारना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वह नहीं संभव हुआ है। हम फूलों को धक्के नहीं मारते; हम खड़े होकर देख लेते हैं, रास्ते से गुजर जाते हैं। अगर कल फूल कोई कानून बना लें, और फूल भी पुलिस के आदमी खड़े कर लें और कहें कि कोई देखेगा तो ठीक नहीं होगा, तो फिर फूलों के साथ ज्यादती शुरू हो जाएगी। फिर अनैतिकता शुरू हो जाएगी।

असल में अति नैतिकता का आग्रह अनैतिकता का जन्म बन जाता है, "टू मच मॉरैलिटी क्रिएट्स इम्मॉरैलिटी'। ज्यादा नैतिक हुए कि आप अनैतिक होंगे फिर। तो बहुत कपड़े पहन लिए तो "न्यूडिस्ट-क्लब' है। मैं कोई "न्यूडिस्ट-क्लब' के पक्ष में नहीं, क्योंकि मैं बहुत कपड़े वालों के पक्ष में नहीं। मैं कहता हूं, सहजता से जिंदगी जैसी है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। और कृष्ण बड़े अदभुत प्रतीक हैं। वह सहज जीवन में जो है, उसकी सहज स्वीकृति है।


"भगवान श्री, आपने इसकी ओर यथार्थ इंगित किया कि आप किसी पक्ष में नहीं हैं। पर जैसा कि आपने अभी कहा कि किसी का हाथ प्यारा लगे तो उस हाथ को सहज समाज में आप ले सकें, वह एक "नार्मल सिचुएशन' हो सकती है। मगर तक तो आपसे यही प्रश्न पूछना मुनासिब होगा कि आप "इम्मॉरैलिटी' की व्याख्या क्या करते हैं? क्योंकि आप हाथ कहेंगे, ऐसे दूसरा कोई और अंगों की मांग करेगा। क्या उससे व्यक्ति के जीवन में "कान्फ्लिक्ट' नहीं पैदा हो जाएगी? क्या कोई पति दिक्कत में नहीं पड़ जाएगा?

साथ दूसरा भी एक प्रश्न है कि जो कृष्ण वस्त्रहरण कर सके, वही कौरव-सभा में द्रौपदी का चीर पूरा भी कर सके। ये कृष्ण के व्यक्तित्व के दो छोर हुए। द्रौपदी का वस्त्र पूर्ण करते कृष्ण अलौकिक हैं, लोकोत्तर हैं, चमत्कारिक हैं। क्या यह केवल अदभुत दृष्टांत नहीं हो सकता? द्रौपदी के वस्त्र को पूर्ण करने वाले कृष्ण काले थे। श्रीमद्भागवत में उनके रंग के वर्णन के लिए तीन विशेषण दिए गए हैं--शुक्ल, पीत और कृष्ण। कवियों ने बहुत-बहुत कल्पनाएं कीं कि कृष्ण क्यों काले हैं फिर भी मतवाले हैं, इत्यादि। आप भी कुछ कहें।'


जहां तक सहजता का संबंध है, शरीर के किसी अंग में और हाथ में कोई फर्क नहीं है। फर्क हमें दिखाई पड़ता है, क्योंकि फर्क हमने पैदा कर लिया है। फर्क निर्मित है। फर्क है नहीं। शरीर के सभी अंग एक जैसे हैं। हाथ में और किसी अंग में कोई फर्क नहीं है। हमें फर्क दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमने शरीर में भी खंड कर लिए हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो बैठकखाने जैसा है, जिसको सब देख सकते हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो गोडाऊन जैसा है, जिसके लिए "लाइसेंस' चाहिए। हमने शरीर को कई हिस्सों में बांटा हुआ है। ऐसे शरीर अखंड और इकट्ठा है। इसमें कोई हिस्से का कोई फर्क नहीं है। और जिस दिन मनुष्य सच में पूरा स्वस्थ होगा और सहज होगा, उस दिन कोई फर्क नहीं होगा।

लेकिन आपका यह कहना ठीक है कि इसे किस सीमा तक? अगर कोई व्यक्ति किसी का हाथ हाथ में ले लेता है, तो सोचा जा सकता है कि ठीक है। लेकिन, दो बातें विचारणीय हैं। जिस सहज समाज की मैं बात करता हूं, या जिस सहज संभावना की बात करता हूं, दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को व्यर्थ ही, अकारण बाधा डालना ठीक नहीं है, वैसे ही दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त व्यर्थ ही, अकारण ही दूसरे व्यक्ति को कष्ट न हो, वह भी सहजता का हिस्सा है। क्योंकि जब मैं किसी व्यक्ति का हाथ लेता हूं तो किसी व्यक्ति का हाथ ले रहा हूं, और मेरे लिए आनंदपूर्ण हो सकता है उसका हाथ लेना, लेकिन अगर उसको दुखपूर्ण है, तो उसको भी स्वतंत्रता तो है ही। मैं अपना आनंद लेने के लिए हकदार हूं तो दूसरा भी अपने आनंद का ध्यान रखने के लिए हकदार है। अगर मुझे अच्छा लग रहा है किसी का हाथ हाथ में लेना तो यह भी जानना जरूरी है कि उसे अच्छा लग रहा है या नहीं लग रहा है। मैं अपने सुख के लिए स्वतंत्र हूं तो वह भी अपने सुख के लिए स्वतंत्र है। जहां से यह दूसरा व्यक्ति शुरू होता है वहां से ही हमारी स्वतंत्रता पर दूसरे की स्वतंत्रता की जिम्मेदारी भी शुरू हो जाती है। वह बिलकुल सहज है, स्वाभाविक। क्योंकि आप आएं और मुझे गले से लगा लें, लेकिन मुझे इससे सिर्फ घबड़ाहट होती हो, तो आप आप आनंद लेने के हकदार हैं, लेकिन मैं भी तो अपनी घबड़ाहट से बचने का हकदार हूं। इसलिए सहज समाज निवेदन करेगा। ये निवेदन ही हो सकते हैं। और इनकी स्वीकृति अनिवार्य नहीं है; क्योंकि दूसरा व्यक्ति शुरू हो गया तत्काल।

मैं किस बात को नैतिकता कहता हूं, आपने पूछा, मैं किस बात को "मॉरेलिटी' कहता हूं? मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं। मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं कि दूसरे व्यक्तित्व का सम्मान, दूसरे व्यक्ति का उतना ही सम्मान जितना मेरा सम्मान मेरी दृष्टि में है, इसको मैं नैतिकता कहता हूं। इसके अतिरिक्त मेरे लिए कोई नैतिकता नहीं है। और मैं मानता हूं कि और जितनी नैतिकताएं हैं वे सब इसके नीचे अपने-आप फलित होती हैं। दूसरे व्यक्ति का मेरे ही जितना सम्मान नैतिकता का मूल है। जिस दिन मैं अपने को दूसरे व्यक्ति के ऊपर रखता हूं उसी दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। जिस दिन मैं दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करता हूं और मैं साध्य हो जाता हूं, उस दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में साध्य है, "एंड' है। जब तक मैं इसका स्मरण रखता हूं, तब तक मैं नैतिक होता हूं।

आपने पूछा है कि एक पति को तो बुरा लगता है। लग सकता है। असल में पति एक प्रकार की अनैतिकता है। एक तरह की "इम्मॉरेलिटी' है। असल में पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक पत्नी को सदा के लिए अपना साधन बना लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक व्यक्ति को खरीद लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि वह एक व्यक्ति का मालिक हो गया है, "ओनरशिप' हो गई है। व्यक्तियों की मालकियत नहीं हो सकती। मालकियत सिर्फ वस्तुओं की हो सकती है। और व्यक्तियों की मालकियत अनैतिक है।

तो मेरे हिसाब में तो विवाह एक अनैतिकता है। प्रेम एक नैतिकता है, विवाह एक अनैतिकता है। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी, उस दिन दो व्यक्ति जीवन भर साथ रह सकते हैं, लेकिन वह साथ रहना कोई "कांट्रेक्ट' नहीं होगा। यह साथ रहना कोई सौदा नहीं होगा, यह साथ रहना कोई संस्था नहीं होगी, यह साथ रहना उनके प्रेम का प्रतिफल होगा। यह उनका प्रेम है कि वे साथ रह रहे हैं। जिस दिन प्रेम कानून बनता है, उस दिन प्रेम की हत्या हो जाती है।

जिस दिन मैं किसी स्त्री से कह सकता हूं कि मैं हकदार हूं तुमसे प्रेम मांगने का, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो, उस दिन प्रेम कानून बन गया। उस दिन पत्नी अगर कहे कि आज तो मैं प्रेम के क्षण में नहीं हूं--और प्रेम के "मूड' होते हैं, प्रेम के क्षण होते हैं। इस योग्य बहुत कम लोग हैं जो चौबीस घंटे प्रेम में हैं। चौबीस घंटे प्रेम में वही हो सकता है जो प्रेम हो गया है। साधारणजन तो किसी क्षण में प्रेम में होता है, चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होता। लेकिन कानून तो क्षण नहीं देखेगा। मैं अपनी पत्नी से कह सकता हूं कि मैं इस वक्त प्रेम चाहता हूं। प्रेम मांगा जा सकता है, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। और उसे प्रेम देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता है तब वह प्रेम नहीं रह जाता। लेकिन पत्नी अगर कहे कि आज तो प्रेम का क्षण ही नहीं है, इस क्षण तो आप मेरे कोई भी नहीं हैं--क्योंकि नाता तो सिर्फ प्रेम का ही है, इस वक्त प्रेम ही नहीं है--इस वक्त आप ऐसे ही पराए हैं जैसे कोई और पराया है, तो कठिनाई खड़ी होगी कानून में।

लेकिन हम यह भी समझें कि क्या यह संभव है जो हमने बनाया है नीति के नाम पर? हमने नीति के नाम पर बहुत-सी असंभावनाएं थोप दी हैं और उन असंभावनाओं की वजह से बहुत अनैतिकता पैदा हुई है। मैं आज एक व्यक्ति को प्रेम करता हूं, क्या मैं पक्का वायदा कर सकता हूं कि कल मैं किसी दूसरे व्यक्ति को प्रेम नहीं करूंगा? कैसे कर सकता हूं? यह बिलकुल असंभव है। अभी कल आया नहीं, अभी वह व्यक्ति भी मुझे नहीं मिला जिससे कि मेरा प्रेम हो सकता है, मैं वायदा कैसे कर सकता हूं? और अगर मैंने वायदा किया, तो कल उपद्रव यह होगा कि कल वह व्यक्ति तो आ जाएगा--वह मेरे वायदे को देखता नहीं--कल वह चित्त की घड़ी भी आ जाएगी--वह भी मेरे वायदे को नहीं देखती--कल एक घटना घट सकती है जब मैं किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाऊं, लेकिन तब मेरा वायदा बीच में खड़ा हो जाएगा। तब दोहरी कठिनाई होगी। या तो मैं चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से करना पड़े, उस दुनिया में और क्या है जिसको हम ईमानदारी से कर सकेंगे? एक तरफ यह होगा कि मैं चोरी से प्रेम करूं और दूसरी तरफ यह होगा कि जिससे मैंने प्रेम का वायदा किया है उसके साथ मैं प्रेम का अभिनय करूं। क्योंकि अब उसके साथ प्रेम कैसे हो सकेगा! और जिस दुनिया में प्रेम का भी अभिनय करना पड़ता हो, वहां किस चीज का आचरण किया जा सकेगा?

तो मैं पति को, विवाह को अनैतिकताएं मानता हूं, जो एक अनैतिक समाज ने ईजाद की हैं। और उनके साथ ही हजार तरह की अनैतिकताएं पैदा होती हैं। जब हम पति को, पत्नी को बहुत जोर से कस देते हैं, वेश्या पैदा हो जाती हैं। फौरन पैदा हो जाती हैं। वेश्या जो है, वह सती-सावित्रियों की रक्षा है। सती-सावित्री बचानी है तो वेश्या पैदा करनी पड़ेगी। लेकिन स्त्रियां भी पसंद करेंगी कि उनका पति एक वेश्या के पास चला जाए, बजाए पड़ोसी की पत्नी से प्रेम में पड़ जाए। क्योंकि प्रेम में "इनवॉल्वमेंट' है, खतरा है। पड़ोसी की पत्नी के प्रेम में अगर पति पड़ जाए, तो पत्नी को खतरा है। वेश्या के पास चला जाए तो कोई खतरा नहीं है। वह वापस सुबह लौट आएगा। और यह पैसे का सौदा है, इसमें कोई खतरा नहीं है। इसलिए पत्नियां वेश्याओं के लिए राजी हो गईं, प्रेम के लिए राजी नहीं हुईं।

अब जब इस सब को मैं ऐसा कहता हूं, तो आप जो कहते हज ठीक कहते हैं कि "टैबूज़' से भरा हुआ आदमी, हजार तरह के संस्थान, हजार तरह के संस्कार, हजार तरह की आदतें, हजार तरह की नैतिकताओं में पला हुआ आदमी, वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, वह बड़ी मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। मैं जो कह रहा हूं, उससे वह मुश्किल के बाहर जा सकता है। वह मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। कहां है वह आदमी, जो मुश्किल में नहीं है? सब आदमी मुश्किल में पड़े हैं। लेकिन, अगर मुश्किल पुरानी है, तो हमें दिखाई नहीं पड़ती। अगर मुश्किल आदतन हो गई, तो दिखाई नहीं पड़ती। अगर बीमारी स्थायी है, तो हम उसे भूल जाते हैं। मैं जो कह रहा हूं वह नई मुश्किल होगी। नई मुश्किल इसलिए नहीं है कि मैं जो कह रहा हूं उससे आदमी की जिंदगी में मुश्किलें आएंगी, मैं जो कह रहा हूं उससे एक मुश्किल होगी कि पुरानी मुश्किल आदतें छोड़नी पड़ेंगी। पुरानी मुश्किल के संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। और अगर किसी दिन पृथ्वी इस बात के लिए राजी हो सकी कि हम जीवन को सहज कर लें, और जीवन पर असंभावनाएं न थोपें, तो कृष्ण जैसे लाखों व्यक्तित्व पैदा हो सकते हैं। कोई एक ही कृष्ण पैदा हो, यह जरूरी नहीं है। सारी पृथ्वी कृष्णों से भर सकती है।

आखिरी प्रश्न उन्होंने पूछा है कि कृष्ण के बहुत रंगों की बात हुई है। बहुत रंगों के आदमी थे! रंगीन आदमी थे! एक रंग में उनको नहीं बताया जा सकता। इसी कारण। बहुत रंग के आदमी थे। कई रंग एकसाथ थे उस आदमी में। शरीर तो एक ही रंग का रहा होगा, लेकिन आदमी कई रंग का था। फिर देखने वाली आंखों पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि कौन-सा रंग दिखाई पड़ता है। तो जिनने जिस आंख से देखा होगा, उन्हें वे रंग दिखाई पड़ गए होंगे। हां, एक आदमी भी तीन हालातों में तीन रंग देख सकता है। क्योंकि एक ही आदमी तीन हालातों में एक ही आदमी कहां रहता है? कभी जब मैं प्रेम में होता हूं तब आपको दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और जब मैं क्रोध में होता हूं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी आप मेरे प्रति प्रेम में होते हैं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी जब आप मेरे प्रति क्रोध में होते हैं तो दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और वे रंग रोज बदलते रहते हैं। रंग प्रतिपल बदलते रहते हैं। सब बदलता रहता है। यहां थिर कुछ भी नहीं है। इस जगत में थिरता जैसी बात ही झूठ है। यहां सब बदल रहा है। लेकिन, अधिक लोगों ने उनमें सांवला रंग ही देखा। उसके कुछ कारण हैं।

ऐसा लगता है कि सांवला रंग उनकी थिरता का स्थायित्व गुण रहा होगा। यानी वे सांवले रंग में ही अथिर होते रहे होंगे। वह चंचल रहे होंगे, सांवले रंग में ही। इस मुल्क के मन में सांवले रंग के लिए कुछ आग्रह हैं। असल में गोरा रंग उतना सुंदर कभी भी नहीं होता, जितना सांवला रंग सुंदर होता है। उसके कई कारण हैं। लेकिन आमतौर से हमें गोरा रंग सुंदर दिखाई पड़ता है, क्योंकि गोरे रंग की चमक में बहुत-सी असुंदरताएं छिप जाती हैं। और काले रंग में कुछ भी नहीं छिपता, इसलिए काला आदमी मुश्किल से कभी सुंदर होता है। गोरे आदमी बहुत सुंदर होते हैं क्योंकि काला रंग कुछ छिपाता नहीं है, सीधा प्रगट कर देता है। सफेदी की चमक में बहुत-सी चीजें छिप जाती हैं। इसलिए गोरे रंग के बहुत-से आदमी सुंदर दिखाई पड़ेंगे, काले रंग का कभी-कभी कोई आदमी सुंदर होता है। लेकिन जब काले रंग का कोई सुंदर होता है, तो गोरे रंग का सुंदर आदमी एकदम फीका पड़ जाता है। इसलिए हमने राम को भी सांवला, कृष्ण को भी सांवला--हमने जिनको भी सुंदर देखा उनको हमने सांवले रंग में देखा। सांवले रंग का सौंदर्य "रेअरिटी' है। वह बहुत "रेअर' है। सफेद रंग के सुंदर बहुत लोग होते हैं। वह कोई "रेअरिटी' नहीं है। वह कोई बहुत विशेषता नहीं है। सफेद रंग का सुंदर होना बड़ी साधारण बात है, सांवले रंग का सुंदर होना बड़ी असाधारण बात है।

कुछ और भी कारण हैं। सफेद रंग में गहराई नहीं होती, "डेप्थ' नहीं होती, फैलाव होता है। इसलिए सफेद शक्ल "फ्लैट' होती है, "डीप' नहीं होती। नदी देखी है, जब गहरी हो जाती है तब सांवली हो जाती है। सांवले रंग में एक "डेप्थ' है। फैलाव नहीं है, एक "इनटेंसिटी' है। सांवला चेहरा चेहरे पर ही समाप्त नहीं होता, उसमें भीतर कुछ "ट्रांसपेरेंट' भी होता है। उसमें पर्तें होती हैं। सांवले आदमी के चेहरे के भीतर चेहरे, चेहरे के भीतर चेहरों की पर्तें होती हैं। हां, गोरा आदमी "फ्लैट' होता है, उसका चेहरा साफ, जो है सामने होता है। इसलिए गोरे रंग से बहुत जल्दी ऊब पैदा हो जाती है। सांवले रंग से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें नए रंग दिखाई ही पड़ते चले जाते हैं। और कृष्ण जैसा आदमी ऐसा आदमी है कि उससे ऊब पैदा हो नहीं सकती।

अभी आप जानकर हैरान होंगे कि पश्चिम की सारी सुंदरियां सांवला होने के लिए बड़ी दीवानी हैं। सागर के तट पर लेटी हैं। किसी तरह धूप थोड़ी सांवली कर दे। क्या पागलपन आ गया है? असल में जब भी कोई संस्कृति अपने शिखर पर पहुंचती है, तब फैलाव कम मूल्य का रह जाता है, गहराई ज्यादा मूल्य की हो जाती है। हमको पश्चिम का आदमी सुंदर दिखाई पड़ता है, पश्चिम का आदमी जानता है कि अब सौंदर्य गहराई में खोजना है, हो चुकी वह बात। अब पश्चिम की सुंदर स्त्री सांवला होने की कोशिश में लगी है। इसलिए पश्चिम का सुंदरतम आदमी भी "ट्रांसपेरेंट' नहीं होता। उसका चेहरा बोथला हो जाता है। वह सफेद रंग की खराबी है।

वह सफेद रंग की खूबियां हैं, कि बहुत लोग सुंदर हो सकते हैं सफेद रंग में। सफेद रंग की खराबी है, कि उसमें बहुत गहरा सौंदर्य नहीं हो सकता। इसलिए सांवले रंग पर हमने देखा। मैं नहीं मानता कि कृष्ण सांवले रहे ही होंगे यह कोई जरूरी नहीं है। हमने सांवला देखा। इतना प्यारा आदमी था कि हम उसको गोरा नहीं सोच सके। हमने उनको सांवला सोचा। वे सांवले हो भी सकते हैं, वह मेरे लिए गौण है।

मेरे लिए तथ्य बहुत गौण हैं। मेरे लिए काव्य बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम न सोच सके इस आदमी को गोरा, क्योंकि यह इतने रंग का आदमी था, इतना गहरा आदमी था, और इसके चेहरे में झांकते जाने, झांकते जाने का मन होता था, डूबते जाने का मन होता था। इसमें और गहराइयां थीं, जो उघड़ती चली जाती थीं। इसलिए बहुत रंग में एक व्यक्ति ने भी देखा और बहुत लोगों ने भी देखा, पर एक स्थायी रंग में हमने सोचा है, वह है सांवला रंग। श्याम नाम ही उनको इसलिए दे दिया। श्याम का मतलब है, काले। कृष्ण का मतलब भी है, काला। न केवल हमने सोचा, बल्कि हमने नाम भी जो उन्हें दिए उसमें सांवलापन था। श्याम कहा, कृष्ण कहा, वे सब काले रंग के ही प्रतीक हैं।

और एक बात उन्होंने पूछी है कि एक तरफ उघाड़ते हैं वस्त्रों को कृष्ण, दूसरी तरफ उघड़ती हुई द्रौपदी पर वस्त्र फेंकते हैं। असल में जिसने कभी उघाड़ा नहीं, वह जिंदगी भर उघाड़ता ही रहता है। लेकिन जिसने उघाड़कर देख लिया, अब वह वस्त्र ढांक सकता है।

ढांकने और उघाड़ने में एक और बड़ा फर्क है।

प्रेम तो उघाड़ने की आज्ञा दे सकता है। प्रेम उघाड़ना चाहता है। लेकिन द्रौपदी प्रेम से नहीं उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी बड़ी घृणा से उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी को देखने वाली आंखें प्रेम की जिज्ञासा से भरी हुई आंखें न थीं। जो घटना है, उस घटना का मेरे लिए मूल्य नहीं--जैसा मैं निरंतर कहता हूं, मेरे लिए तथ्यों का कोई मूल्य नहीं। कोई चमत्कार ऐसा घटा हो कि दूर से कोई कृष्ण ढांकते रहे हों, मैं मानता हूं कि ये सब प्रतीक हैं। कृष्ण ने किसी-न-किसी तरह उस दिन द्रौपदी को उघाड़ने से रोका होगा, इतना ही मैं मानता हूं। किसी-न-किसी तरह कृष्ण उस दिन द्रौपदी के उघड़ने में बाधा बन गए होंगे, इतना ही मैं मानता हूं। लेकिन कवि जब इसको लिखेगा तो कविता बन जाएगी। और जब कविता बनेगी, और बाद में जब हम कविता को तथ्य बनाते हैं, तब "मिकरेल' मालूम होने लगते हैं। बाकी कविता ही एकमात्र "मिकरेल' है और कोई मामला नहीं है। कृष्ण किसी-न-किसी तरह उस दरबार में नग्न की जाती द्रौपदी के लिए बाधा बन गए होंगे। वह बाधा अनिवार्य हो गई होगी।

और यह बड़े मजे की बात है कि कृष्ण का नाम है कृष्ण, द्रौपदी का एक नाम कृष्णा है। सच तो यह है कि कृष्ण जैसा शानदार आदमी नहीं हुआ और कृष्णा जैसी शानदार स्त्री नहीं हुई। द्रौपदी का कोई मुकाबला नहीं है। हमने बहुत सीता और दूसरों की चर्चा की है, द्रौपदी की जरा कम की है। क्योंकि हमें बड़ी तकलीफ है द्रौपदी के साथ। वह पांच पतियों की पत्नी है, वह हमें भारी पड़ गई। लेकिन ध्यान रखें, एक ही पति की पत्नी होना भी बड़ी मुश्किल बात है। पांच पतियों की पत्नी होना असाधारण स्त्री का काम हो सकता है।

कृष्ण का बड़ा प्रेम है कृष्णा से। गहरे-से-गहरे उनकी प्रेयसियों में से वह है। इसलिए प्रेम इस क्षण में काम न आए तो कब काम आए। पर वह बात अलग है। वह तो कभी द्रौपदी पर चर्चा करेंगे, तब।


"भागवत में उल्लेख है...जो कृष्ण पर अहमदाबाद में हमने बात की थी और आपने बताया था कि शुक्र का विनियोग होते हुए भी वसुदेव और देवकी का जो संभोग हुआ था, वह आध्यात्मिक संभोग था, जिसकी वजह से कृष्ण मिले...मगर कृष्ण के सोलह हजार रानियों या आठ प्रतिभावान पटरानियों के साथ संबंध होने पर भी कृष्ण या राम, दोनों के पुत्र उतने प्रतिभावान नहीं हुए। इससे क्या यह नतीजा निकल सकता है कि राम या कृष्ण ने आध्यात्मिक संभोग अपनी पत्नियों के साथ किया ही नहीं?'


इसमें दो बातें समझ लेनी उचित होंगी।

एक तो आध्यात्मिक संभोग का यह अर्थ नहीं है कि मैं शारीरिक संभोग की कोई निंदा कर रहा हूं। आध्यात्मिक संभोग से मेरा सिर्फ इतना ही अर्थ है कि दो व्यक्तियों के शरीर नहीं मिले हैं, आत्मा भी मिली है। शरीर के मिलन से पैदा होता है, वह उन ऊंचाइयों को उपलब्ध नहीं हो सकता, जो आत्मा के मिलन से पैदा होता है और ऊंचाइयों को उपलब्ध होता है। कृष्ण का जन्म मैं आध्यात्मिक संभोग का फल मानता हूं। क्राइस्ट का जन्म भी आध्यात्मिक संभोग का फल मानता हूं। इसीलिए क्राइस्ट के जानने वाले लोग यह कह सके कि क्राइस्ट का जन्म भी हो गया लेकिन "मेरी' वर्जिन बनी रही, क्वांरी बनी रही। क्योंकि शरीर के तल पर कोई वासना और कोई गहरी कामना न थी। आत्मा के तल पर मिलन हुआ था, शरीर छाया की तरह उसके पीछे गया था। इसलिए छाया पर उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

लेकिन यह सवाल निश्चित ही महत्वपूर्ण है कि फिर कृष्ण के बच्चे हैं, राम के बच्चे हैं, इनका क्या हुआ?

इसके और कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि कृष्ण से बड़ा बेटा तो पैदा होना असंभव है। वसुदेव से बड़ा बेटा पैदा हो सकता है। वसुदेव साधारणजन हैं। कृष्ण तो ऊंचाई हैं, आखिरी से आखिरी जो हो सकती है। कृष्ण जैसे पिता से जो भी बेटा होगा, वह इतिहास में सदा भुला दिया जाएगा। वह सदा कृष्ण जैसे व्यक्ति की छाया में पड़ जाता है। जैसे विंध्याचल में जो पहाड़ की ऊंचाई बड़ी ऊंचाई हो सकती है, वही ऊंचाई एवरेस्ट के पास आकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। चीजें तो दिखाई पड़ती हैं न! कृष्ण के पीछे कोई भी नहीं दिखाई पड़ सकता। इसलिए जो लोग "पीक' को छूते हैं जीवन की, आखिरी ऊंचाई को छूते हैं, उनसे बहुत अच्छे बेटे नहीं उपलब्ध हो पाते। कभी नहीं हो सके हैं। न बुद्ध से हो सका, न कृष्ण से हो सका, न राम से हो सका, न महावीर से हो सका, किसी से नहीं हो सका।

इसका कारण सिर्फ इतना है कि इतनी बड़ी ऊंचाई पर ये खड़े हैं कि लव-कुश कितने ही ऊंचे हों, राम की छाया में ही खो जाएंगे। ये लव-कुश किसी और के घर पैदा हुए होते, तो ये भी इतिहास में नाम छोड़ जाते। साधारणजन न थे। लेकिन नाम छोड़ जाना तो सदा "रिलेटिव' और "कंपेरेटिव' है। राम के साथ नाम नहीं छोड़ सकते। साधारण बेटे न थे ये दोनों। राम को साधारण बेटा हो भी नहीं सकता। लेकिन सवाल तो राम से तुलना का पड़ेगा इतिहास में। दशरथ बहुत साधारण पिता हैं। दशरथ को कोई जानता भी नहीं अगर रात पैदा न होते। दशरथ का कोई अर्थ भी न होता। राम हुए हैं इसलिए दशरथ का कोई नाम है। छोटे बाप के घर बड़ा बेटा पैदा हो जाता है, तो बाप भी बड़ा हो जाता है और बड़े बाप के घर बड़ा बेटा भी पैदा हो जाता है, तो छोटा हो जाता है।

संभोग तो आध्यात्मिक ही था। जो पैदा हुए हैं आध्यात्मिक से ही पैदा हुए हैं। लेकिन हमारी तौल तो "रिलेटिव' होगी सदा, "कंपेरेटिव' होगी, तुलना होगी।

वह कहानी हम सबको पता है कि अकबर ने एक लकीर खींची और दरबार के लोगों से कहा कि बिना छुए इसे छोटा कर दो। और कोई उसे छोटा न कर पाया, और बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। उस लकीर को छुआ नहीं और वह लकीर छोटी हो गई। लकीर उतनी ही रही।

लव-कुश जो हैं, हैं, लेकिन राम की लकीर बहुत बड़ी है। उसके नीचे वे एकदम खो जाते हैं। राम की लकीर न होती, तो लव-कुश भी दिखाई पड़ते। इतिहास उनके भी चरण-चिह्नों का स्मरण रखता। लेकिन उनकी जरूरत न रही। राम के पीछे आकर उनका कोई अर्थ नहीं।


"लिबिडो', काम-ऊर्जा का उल्लेख, आया है। आध्यात्मिक संभोग की बात भी आई है। इसी कड़ी में एक बड़ा ही नाजुक और स्पष्ट प्रश्न है। बांसुरी कृष्ण की है, संगीत के मधुर सुर राधा के हैं। गीत कृष्ण के अधरों के हैं, उस गीत की काव्य-माधुरी राधा की है। नृत्य कृष्ण का है, किंतु उनके चरणों में गति और झंकार राधा की है। ऐसा अभिन्न व्यक्तित्व है कृष्ण का और राधा का। तभी तो हम राधाकृष्ण तो कहते हैं, लेकिन विवाहित होते हुए भी रुक्मिणी-कृष्ण कोई नहीं कहता। राधा को कृष्ण से अलग कर दिया जाए तो कृष्ण का जीवन भी औरों की तरह ही उदास-उदास और अधूरा-अधूरा-सा लगने लगेगा। और मजे की बात यह है कि कृष्ण की अनंत लीलाओं के आधारग्रंथ भागवत में राधा का कहीं नाम नहीं आया है। कोई बात नहीं। लेकिन कृष्ण के जीवन की समग्रता में शक्ति और प्रेमरूप राधा का क्या भावात्मक या "सेक्सुअल' संबंध है, इस पर प्रकाश डालने का एकमात्र अधिकारी है, भगवान श्री, आप-जैसा कृष्ण!'


जो लोग शास्त्रों में खोजते हैं, उनके लिए बड़ी कठिनाई रही है इस बात से कि राधा का कोई उल्लेख ही नहीं है। और तब कुछ ने तो यह भी कहना शुरू कर दिया कि राधा जैसा कोई व्यक्तित्व कभी हुआ भी नहीं। राधा बाद के युगों के कवियों की कल्पना है। स्वभावतः जो इतिहास में जीते हैं, तथ्यों में जीते हैं, उनके लिए कठिनाई है। राधा का उल्लेख बहुत बाद के ग्रंथों में शुरू होता है। किसी प्राचीन ग्रंथ में राधा का कोई उल्लेख नहीं होता।

मेरी हालत बिलकुल उल्टी है। मैं मानता हूं कि राधा का उल्लेख न होने का कुल कारण इतना है कि राधा कृष्ण से इतनी एक और लीन हो गई कि अलग उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। जो अलग थे, उनका उल्लेख है। जो अलग न थी और छाया की तरह थी, उसके उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। उल्लेख करने के लिए भी तो किसी का अलग होना जरूरी है। रुक्मिणी अलग है। वह कृष्ण को प्रेम करती हो सकती है, कृष्णमय नहीं है। कृष्ण से उसके संबंध हो सकते हैं, कृष्ण में आत्मसात नहीं है। संबंध तो उनके ही होते हैं, जो अलग हैं। राधा का कोई संबंध नहीं है कृष्ण से। राधा कृष्ण ही है। इसलिए अगर उसका उल्लेख न किया गया हो, तो मैं मानता हूं न्याययुक्त है, उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।

तो एक तो यह बात खयाल लें, उसके उल्लेख न होने का कारण है। वह छाया की तरह अदृश्य है। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि उसे कोई जाने और पहचाने। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि कोई उसे नाम भी दे, कोई जगह भी दे। इस कारण।

दूसरी बात, यह भी सच है कि राधा के बिना कृष्ण का व्यक्तित्व एकदम अधूरा रह जाएगा। अधूरा इसलिए रह जाएगा कि मैंने कहा कि कृष्ण पूरे पुरुष हैं। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जगत में, जो पूरे पुरुष हों। प्रत्येक पुरुष के भीतर उसका भी स्त्री-अंग होता है, और प्रत्येक स्त्री के भीतर उसका भी पुरुष-अंग होता है। मनस को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है, प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है। जो फर्क है वह सिर्फ "डिग्रीज' का, क्रमों का है। जिसे हम पुरुष कहते हैं, वह साठ फीसदी पुरुष है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। इसलिए ऐसे भी पुरुष हैं जो स्त्रैण मालूम पड़ते हैं, और ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुष मालूम पड़ती हैं। अगर मात्रा बहुत ज्यादा है भीतर स्त्री की, तो पुरुष पर हावी हो जाएगी। अगर पुरुष की मात्रा बहुत ज्यादा है, तो स्त्री पर हावी हो जाएगी। लेकिन इस अर्थों में भी कृष्ण पूर्ण हैं, जो मैं कह रहा था। वे पूर्ण पुरुष हैं। उनके भीतर स्त्री का कोई तत्व ही नहीं है। या जैसे मीरा को मैं कहूंगा, वह पूरी स्त्री है। उसके भीतर पुरुष का कोई तत्व ही नहीं है। और जब भी कोई पूर्ण पुरुष होगा, तब एक अर्थ में अधूरा पड़ जाएगा, उसको पूरी स्त्री जरूरी है। अन्यथा वह अधूरा पड़ जाएगा। हां, अधूरा पुरुष जी सकता है बिना स्त्री के। उसके भीतर अपनी स्त्री भी है, जिससे काम चलता है। लेकिन कृष्ण जैसा पुरुष, अनिवार्य रूप से उसकी राधा उसके साथ खड़ी हो जाएगी। और उसे पूर्ण स्त्री चाहिए।

अब यह भी बड़े मजे की बात है कि पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष का थोड़ा अर्थ भी हम समझें। और भी उसके अर्थ हैं।

पुरुष की जो गहरी-से-गहरी गहराई है, वह आक्रामक है, "एग्रेसिव' है। स्त्री की गहरी-से-गहरी गहराई है, वह समर्पण की है, "सरेंडर' की है। कोई भी स्त्री पूरी स्त्री न होने से कभी पूरा समर्पण नहीं कर पाती। कोई भी पुरुष पूरा पुरुष न होने से कभी पूरा आक्रामक नहीं हो पाता। इसलिए दो अधूरे स्त्री और पुरुष जब मिलते हैं, तो निरंतर कलह और संघर्ष चलता है। चलेगा। क्योंकि स्त्री के भीतर कुछ है, जो आक्रामक भी है। वह आक्रमण भी करती है। कुछ है जो सम्पर्क भी है, वह समर्पण भी करती है। किसी क्षण में वह पुरुष के हाथ भी दाबती है, पैर भी दाबती है, उसके पैर पर सिर भी रखती है। और किसी क्षण में वह बिलकुल ही विकराल हो जाती है और पुरुष की गर्दन दबाने को उत्सुक हो जाती है। ये दोनों रूप उससे निकलते हैं। पुरुष किसी क्षण बड़ा आक्रामक होता है, बिलकुल दबा डालना चाहता है। और किसी क्षण वह बिलकुल दब्बू हो जाता है और स्त्री के पीछे घूमने लगता है। वे दोनों उसके भीतर हैं।

रुक्मिणी का कृष्ण के साथ बहुत गहरा मेल नहीं हो सकता, उसके भीतर पुरुष है। राधा पूरी डूब सकी, वह अकेली निपट स्त्री है, वह समर्पण पूरा हो गया। वह समर्पण पूरा हो सका। कृष्ण का किसी ऐसी स्त्री से बहुत गहरा मेल नहीं बन सकता जिसके भीतर थोड़ा भी पुरुष है। अगर कृष्ण के भीतर थोड़ी-सी स्त्री हो तो उससे मेल बन सकता था। लेकिन कृष्ण के भीतर स्त्री है ही नहीं। वह पूरे ही पुरुष हैं। पूरा समर्पण ही उनसे मिलन बन सकता है। इससे कम वह न मांगेंगे, इससे कम में काम न चलेगा। वह पूरा ही मांग लेंगे। हालांकि पूरा मांगने का मतलब यह नहीं है कि वह कुछ न देंगे, पूरा मांगकर वह पूरा ही दे देंगे। इसलिए हुआ ऐसा पीछे कि रुक्मिणी छूट गई, जिसका उल्लेख था शास्त्रों में, जो दावेदार थी। और भी दावेदार थीं, वे छूटती चली गईं। और जो बिलकुल गैर-दावेदार था, जिसका कोई दावा ही नहीं था, जिसे कृष्ण अपनी है ऐसा भी नहीं कह सकते थे--राधा तो पराई थी, रुक्मिणी अपनी थी। रुक्मिणी से संबंध संस्थागत था, विवाह का था। राधा से संबंध प्रेम का था, संस्थागत नहीं था--जिसके ऊपर कोई दावा नहीं किया जा सकता था, जिसके पक्ष में कोई "कोर्ट' निर्णय न देती कि यह तुम्हारी है, आखिर में ऐसा हुआ कि वे जो अदालत से जिनके लिए दावा मिल सकता था, जो कृष्ण से "मेंटिनेंस' मांग सकती थीं, वे खो गईं, और यह स्त्री धीरे-धीरे प्रगाढ़ होती चली गई, और वक्त आया कि रुक्मिणी भूल गई, और कृष्ण के साथ राधा का नाम ही रह गया।

और मजे की बात है कि राधा ने सब छोड़ा कृष्ण के लिए, लेकिन नाम पीछे न जुड़ा, नाम आगे जुड़ गया। कृष्ण-राधा कोई नहीं कहता, राधा-कृष्ण हम कहते हैं, जो सब समर्पण करता है, वह सब पा लेता है। जो बिलकुल पीछे खड़ा हो जाता है, वह बिलकुल आगे हो जाता है।

नहीं, राधा के बिना कृष्ण को हम न सोच पाएंगे। राधा उनकी सारी कमनीयता है। राधा उनका सारा-का-सारा जो भी नाजुक है, वह सब है, जो "डेलीकेट' है, वह है। राधा उनके गीत भी, उनके नृत्य का घुंघरू भी, राधा उनके भीतर जो भी स्त्रैण है वह सब है। क्योंकि कृष्ण निपट पुरुष हैं, और इसलिए अकेले कृष्ण का नाम लेना अर्थपूर्ण नहीं है। इसलिए वह इकट्ठे हो गए, राधाकृष्ण हो गए। राधाकृष्ण होकर इस जीवन के दोनों विरोध इकट्ठे मिल गए हैं। इसलिए भी मैं कहता हूं कि यह भी कृष्ण की पूर्णताओं की एक पूर्णता है।

महावीर को किसी स्त्री के साथ खड़ा करके नहीं सोचा जा सकता। स्त्री असंगत है। महावीर का व्यक्तित्व स्त्री के बिना है। महावीर की शादी हुई, विवाह हुआ, बच्ची हुई; लेकिन महावीर का एक पंथ दिगंबरों का मानता है कि नहीं, उनका विवाह नहीं हुआ, न उनकी कोई बच्ची हुई। मैं मानता हूं कि शायद ऐतिहासिक तथ्य यही है कि उनका विवाह हुआ हो, बच्ची हुई हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक तथ्य दिगंबर जो कहते हैं वही ठीक है कि महावीर जैसे आदमी के साथ स्त्री को जोड़ना ही बेमानी है। हुआ भी हो तो नहीं माना जा सकता। महावीर कैसे किसी स्त्री को प्रेम करेंगे। असंभव। महावीर के पूरे व्यक्तित्व में कहीं कोई वह छाया भी नहीं है। बुद्ध के साथ स्त्री थी, लेकिन छोड़कर चले गए। क्राइस्ट के साथ भी स्त्री को जोड़ना मुश्किल है। वे निपट क्वांरे हैं। "बैचलर' होने में उनकी अर्थवत्ता है। इस अर्थ में भी वह सब अधूरे हैं। इस जगत की व्यवस्था में जैसे धन विद्युत अधूरी है ऋण विद्युत के बिना, जैसे विधेय अधूरा है निषेध के बिना, ऐसे स्त्री और पुरुष का एक परम मिलन भी है। स्त्री और पुरुष का न कहें, स्त्रैणता और पौरुषता का; आक्रामकता का और समर्पण का; जीतने का और हारने का।

अगर हम कृष्ण और राधा के लिए कोई प्रतीक खोजने निकलें, तो सारी पृथ्वी पर चीन भर में एक प्रतीक है जिसे वह "यिन' और "यांग' कहते हैं। बस एक प्रतीक है, चीनी भाषा में, क्योंकि चीनी भाषा तो "पिक्टोरियल' है, चित्रों की है, उसके पास एक प्रतीक है, जिसे वे जगत का प्रतीक कहते हैं। उसमें एक गोल वर्तुल है और वर्तुल में दो मछलियां एक-दूसरे को मिलती हुई--आधा सफेद, आधा काला। काली मछली में सफेद गोल एक घेरा, सफेद मछली में काला एक घेरा और पूर्ण एक वर्तुल। दो मछलियां पूरी तरह मिलकर एक गोल घेरा बना रही हैं। एक मछली की पूंछ दूसरे के मुंह से मिल रही है, दूसरी मछली का मुंह पहली की पूंछ से मिल रहा है। और दोनों मछलियां मिलकर पूरा गोल घेरा बन गई हैं। "यिन एंड यांग'। एक का नाम "यिन', एक का नाम "यांग' है। एक ऋण, एक धन। वे दोनों मिलकर इस जगत का पूरा वर्तुल हैं।

राधा और कृष्ण पूरा वर्तुल हैं। इस अर्थ में भी वे पूर्ण हैं। अधूरा नहीं सोचा जा सकता कृष्ण को। अलग नहीं सोचा जा सकता। अलग सोचकर वे एकदम खाली हो जाते हैं। सब रंग खो जाते हैं। पृष्ठभूमि खो जाती है, जिससे वे उभरते हैं। जैसे हम रात के तारों को नहीं सोच सकते रात के अंधेरे के बिना। अमावस में तारे बहुत उज्जवल होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, बहुत शुभ्र हो जाते हैं, बहुत चमकदार हो जाते हैं। दिन में भी तारे तो होते हैं, आप यह मत सोचना कि दिन में तारे खो जाते हैं। खोएंगे भी बेचारे तो कहां खोएंगे! दिन में भी तारे होते हैं--आकाश तारों से भरा है अभी भी--लेकिन सूरज की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ सकते। अगर आप किसी गहरे कुएं में चले जाएं, तो दोत्तीन सौ फीट गहरा कुआं हो तो आपको उस गहरे कुएं से तारे दिन में भी दिखाई पड़ सकते हैं। क्योंकि बीच में अंधेरे की पर्त आ जाती है; फिर तारे दिखाई पड़ सकते हैं। रात में तारे आते नहीं सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि अंधेरे की चादर फैल जाती है। और अंधेरे की चादर में तारे चमकने लगते हैं।

कृष्ण का सारा व्यक्तित्व चमकता है राधा की चादर पर। चारों तरफ से राधा की चादर उन्हें घेरे है। वह उसमें ही पूरे-के-पूरे खिल उठते हैं। कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है। वह पूरा-का-पूरा इकट्ठा है। इसलिए उनको अलग नहीं कर सकते। वह युगल पूरा है। इसलिए राधाकृष्ण पूरा नाम है, कृष्ण अधूरा नाम है।




रविवार, 3 सितंबर 2023

कृष्ण स्मृति 3

 "सारी गीता में कृष्ण परम अहंकारी मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपने सुबह के प्रवचन में कहा कि निरहंकारी होने से ही कृष्ण कह सके कि सब छोड़कर मेरी शरण में आ, मैं ही सब कुछ हूं, आदि। लेकिन बुद्ध और महावीर ऐसा नहीं कहते हैं। क्या इनकी निरहंकारिता भिन्न-भिन्न है? उनका मौलिक अंतर क्या है?'

निरहंकारिता दो ढंग से उपलब्ध हो सकती है। एक तो इस ढंग से उपलब्ध हो सकती है कि कोई अपने को मिटाता चला जाए, अपने को समाप्त करता चला जाए, अपने को काटता चला जाए और ऐसी घड़ी आ जाए कि फिर काटने को कुछ न बचे। तो निरहंकारिता उपलब्ध होती है। लेकिन यह निरहंकारिता "निगेटिव' है, नकारात्मक है। और इसमें एक अहंकार बहुत गहरे में शेष रह ही जाएगा कि मैंने अपने अहंकार को काट दिया है।

एक और ढंग से भी निरहंकारिता उपलब्ध होती है कि कोई अपने को फैलाता चला जाए और इतना बड़ा करता चला जाए कि उसके अलावा फिर कुछ शेष ही न रह जाए, वही शेष रह जाए, सब उसमें समा जाए, तब भी निरहंकारिता, तब भी "इगोलेसनेस' उपलब्ध होती है। लेकिन तब पीछे कहने को इतना भी नहीं रह जाता कि मैं निरहंकारी हो गया हूं।

जो लोग अहंकार को काटकर चलेंगे, वे लोग अंततः आत्मा को उपलब्ध होंगे। आत्मा का अर्थ होगा, उनका अंतिम अहंकार शेष रह जाएगा कि मैं हूं। मैं की और सारी चीजें नष्ट हो जाएंगी, शुद्ध "मैं' ही शेष रह जाएगा। लेकिन जो व्यक्ति अहंकार को काटकर चलेगा, वह कभी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होगा। जो व्यक्ति अहंकार को भी विस्तीर्ण करता चला जाएगा, इतना विस्तीर्ण कि सब उसमें समा जाए, उस दिन आत्मा का बोध नहीं रह जाएगा, परमात्मा का ही बोध रह जाएगा।

कृष्ण का जो व्यक्तित्व है, यह "पाजिटिव' है। वह विधायक है, वह निषेधात्मक नहीं है। वे जीवन में किसी भी चीज का निषेध नहीं करते। वे अहंकार का निषेध भी नहीं करते । वे तो कहते हैं, अहंकार को इतना बड़ा कर लो कि सभी उसमें समा जाए। तू बचे ही न, तो फिर स्वयं को मैं कहने का कोई उपाय न रह जाए। हम अपने को "मैं' तभी तक कह सकते हैं जब तक "तू' बाहर अलग खड़ा है। तू के विरोध में ही मैं की आवाज है। तू गिर जाए, तू न बचे, तो मैं भी बचेगा नहीं। मैं इतना बड़ा हो जाए--इसलिए उपनिषद के ऋषि कह सके: "अहं ब्रह्मास्मि'। वह यह कह सके, मैं ही ब्रह्म हूं। इसका यह मतलब नहीं है कि तू ब्रह्म नहीं है। इसका मतलब यह है कि तू तो है ही ब्रह्म, मैं ही हूं। हवाओं में जो लहरा रहा है वह भी मैं ही हूं और जो वृक्षों में लहर खा रहा है, वह भी मैं हूं। वह जो जन्मा है वह भी मैं ही हूं, जो मरेगा वह भी मैं ही हूं। वह जो पृथ्वी है वह भी मैं ही हूं, जो आकाश है वह भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए अब मैं के बचने की भी कोई जगह नहीं बची। मैं किससे कहूं कि मैं हूं? किसके विरोध में कहूं कि मैं हूं? तो कृष्ण का पूरा का पूरा व्यक्तित्व विराट के साथ फैलाव का है, विस्तार का है। इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, मैं ब्रह्म हूं। इसमें कोई अहंकार नहीं है। यह भाषा में ही मैं का प्रयोग है, मैं जैसा कोई पीछे बचा नहीं है।

एक दूसरा रास्ता, जो मैंने कहा निषेध का है, नकार का है, इनकार का है, तोड़ने का है, त्याग का है--छोड़ते जाएं। धन "मैं' को मजबूत करता है, धन को छोड़ दें। अमीर का अहंकार होता है, लेकिन गरीब का नहीं होता है, इस भूल में मत पड़ जाना। गरीब का भी अहंकार होता है। वह गरीब होता है, "पुअर इगो' होता है। धन का दावा नहीं कर सकता। गृहस्थी का अहंकार होता है, लेकिन संन्यासी का नहीं होता है ऐसा मत सोचना। संन्यासी का भी अहंकार होता है। अगर मैं छोड़ता चला जाऊं तो जिन-जिन चीजों से अहंकार बढ़ता है, मजबूत होता है, वह सब छोड़ दूं--धन छोड़ दूं, मकान छोड़ दूं, पत्नी छोड़ दूं, बच्चे छोड़ दूं, घर-द्वार छोड़ दूं, तो मेरे अहंकार को टिकने की कोई जगह न रह जाएगी, कोई खूंटी न रह जाएगी जहां मैं अहंकार को टांग सकूं और कह सकूं कि मैं धनी हूं, कह सकूं कि मैं ज्ञानी हूं, कह सकूं कि मैं त्यागी हूं, ऐसी कोई जगह न रह जाएगी, लेकिन इससे मैं मिट नहीं जाऊंगा। और जब मेरे मैं को टिकने के लिए कोई खूंटी नहीं रहेगी, तो मैं फिर बहुत सूक्ष्म में मुझसे ही टिका रह जाएगा। फिर आखिर में मैं ही रह जाऊंगा।

यह जो मैं का सूक्ष्मतम अनुभव है, यह निषेध से उपलब्ध होगा। बहुत लोग इसमें अटके रह जा सकते हैं, बहुत से लोग अटक कर रह जाते हैं, क्योंकि यह दिखाई भी नहीं पड़ता, यह बहुत सूक्ष्म है। धनी का अहंकार दिखाई पड़ता है, त्यागी का कैसे दिखाई पड़ेगा। लेकिन धनी का अहंकार क्या है--कि मेरे पास धन है। त्यागी का अहंकार क्या है--कि मैंने त्याग किया है, मैंने धन छोड़ा है। गृहस्थी का अहंकार दिखाई पड़ता है--कि यह रहा उसका घर, यह रही उसकी सीमा, संन्यासी का अहंकार दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। वह हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। उसके भी आश्रम हैं, उसकी भी सीमाएं हैं, उसके भी बंधन हैं, वह भी अटका है। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। यह जो घड़ी है निषेध की, इसमें कोई अटक सकता है। अगर अटक जाए, तो लगेगा बिलकुल निरहंकारी क्योंकि वह मैं शब्द का भी उपयोग न करेगा, मैं भी छोड़ देगा, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके भी पार जाना पड़ेगा।

महावीर और बुद्ध इसके पार तो चले जाते हैं, लेकिन यह पार जाना, उस आखिरी सूक्ष्म मैं के पार जाना उन्हें बहुत ही कठिन पड़ता है। वही असली तपश्चर्या है उनकी। बड़ी तपश्चर्या की बात हो जाती है। क्योंकि जो मेरे पास था, जो मेरा था, उसको तो छोड़ दिया गया है, अब मैं ही बचा हूं, अब इसको कैसे छोडूंगा? इसको कैसे छोड़ियेगा? इसलिए निषेध की प्रक्रिया से अगर हजार लोग चलेंगे तो एक ही आदमी निरहंकारिता तक पहुंचता है, नौ सौ निन्यानबे आदमी सूक्ष्म मैं पर खड़े होकर रह जाते हैं। महावीर तो निकल जाएंगे, लेकिन महावीर के पीछे चलने वाला संन्यासी अटक जाएगा। अति दुरूह है यह बात। सहारे तोड़ देना तो बहुत आसान है। जिन-जिन सहारों से मेरा मैं मजबूत होता है, मैं उनको गिरा दूं, लेकिन फिर मैं बच रहूंगा, उसको कैसे गिराऊंगा?

तो निषेध से चलने वाले व्यक्ति की जो तकलीफ है वह आखिरी क्षण में है और विधेय से चलने वाले की जो तकलीफ है, वह पहले क्षण में है। पहले "स्टेज' पर विधेय से चलने वाले की बड़ी कठिनाई आती है कि तू को कैसे इनकार कर दूं? तू है, दिखाई पड़ रहा है, उसको कैसे इनकार करें? कृष्ण की साधना की पहली तकलीफ पहले चरण पर है--असली तकलीफ आखिरी चरण पर है। पहले बहुत आसान है मामला। आखिरी क्षण में जब कि मैं के सब सहारे टूट जाएंगे और शुद्ध मैं बच रहेगा, "प्योरीफाइड इगो' रह जाएगी, उसको कैसे छोड़ियेगा। उसको छोड़ने का क्या करियेगा आप?

पहले चरण पर जो करना पड़ेगा विधायक-साधक को, वही अंतिम चरण पर निषेध के साधक को करना पड़ेगा। पहले चरण पर विधेय का साधक क्या करेगा? वह तू में भी मैं को खोजने की कोशिश करेगा। निषेध का साधक अंतिम चरण पर क्या करेगा? मैं में भी तू को खोजने की कोशिश करेगा। अगर उसे मैं में भी तू मिल जाए, तब तो ठीक। बहुत कठिनाई हो जाएगी। लेकिन तू में मैं को देखना बहुत आसान है, मैं में तू को देखना बहुत कठिन है। और शुद्ध मैं में तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि बहुत सूक्ष्म मैं का भाव बचता है। वह इतना बारीक हो जाता है कि उसमें तू को कहां समायें। बुद्ध और महावीर की कठिनाई आती है आखिरी चरण में। इसलिए बुद्ध या महावीर की साधना में आखिरी चरण के पहले से भी गिरना संभव है। आखिरी कदम के पहले भी कोई लौट सकता है, रुक सकता है, अटक सकता है। आखिरी छलांग...और जब पूरी जिंदगी इस मैं को बचाया पूरी साधना में, तो आखिरी क्षण में एकदम से छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

छोड़ा जा सकता है। एक ही रास्ता है कि इस मैं के बिंदु में तू दिखाई पड़ जाए। इसलिए महावीर या बुद्ध की जो आखिरी साधना की कड़ी है, उसका नाम है--केवल ज्ञान। ज्ञानी न रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। जानने वाला न रह जाए, सिर्फ जानना रह जाए, तो उस जानने में झलक मिल सकती है एकता की। आखिरी मुक्ति मैं से मुक्ति है। मैं को मुक्त नहीं होना है, मैं से मुक्त होना है। लेकिन जो पीछे आता है, उसको कठिनाई हो जाती है। वह यही पूछता रहता है कि मुझे मोक्ष कैसे होगा? "मुझे' कभी मोक्ष हुआ ही नहीं। जब भी मोक्ष हुआ है तो "मुझ' से हुआ है। इसलिए महावीर की साधना-परंपरा में जो लोग पीछे आएंगे, उनके अहंकार के पोषण की बड़ी सुविधा है। महावीर की साधना में चलने वाला साधक अति अहंकारी हो जाए तो आश्चर्य नहीं। त्याग, तपश्चर्या उसके अहंकार को मजबूत करते चलेंगे। कठोर होता जाएगा, सख्त होता जाएगा। आखिर में सब छूट जाएगा और एक मैं की गांठ बच जाएगी। उसको तोड़ना बहुत मुश्किल पड़ेगा। वह टूट सकती है, टूटी है। महावीर को टूटी है। उस क्षण के अलग प्रयोग हैं कि वह मैं की गांठ कैसे छूट जाए।

कृष्ण की साधना में, कृष्ण के व्यक्तित्व में मैं की गांठ को पहले ही तोड़ देना है। जिस बीमारी को आखिरी में गिराना पड़े, उसे इतनी देर तक ढोना भी उचित नहीं है। इतनी देर में वह संक्रामक भी बनेगी, और "क्रॉनिक' भी हो जाएगी। उसे पहले ही तोड़ देना है। इसलिए जिसको महावीर "केवल ज्ञान' कहेंगे, वह अंतिम घड़ी में आ जाएगा। जिसको कृष्ण साक्षीभाव कहेंगे, वह पहली ही घड़ी में आ जाएगा। पहले ही क्षण से इस सत्य को जानना है कि मैं अलग नहीं हूं। लेकिन अगर मैं अलग नहीं हूं तो फिर त्याग बेमानी हो जाएगा। छोड़ेंगे किसको? मैं ही हूं। छोड़ेगा कौन? जिसे छोड़कर जा रहा हूं, वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां से? जहां से भाग रहा हूं वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां? जहां भागना है, वह भी मैं ही हूं।

रवीन्द्रनाथ ने एक बहुत गहरी मजाक यशोधरा से करवाई है, बुद्ध के लिए। बुद्ध जब ज्ञान लेकर वापस लौटे हैं, तो यशोधरा उनसे पूछती है कि मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना था, आप आ गए हैं तो पूछ लूं। मैं तुमसे यह पूछना चाहती हूं कि जो तुमने जंगल जाकर पाया, वह क्या इस घर में मौजूद नहीं था? और बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि अगर वह यह कहें कि वह इस घर में मौजूद था, क्योंकि जो जंगल में मिलता है वह घर में भी मिल सकता है--अगर वह यह कहें कि वह यहां भी मौजूद था, तो यशोधरा कहेगी कि मैंने कहा था कि मत जाओ। निश्चित ही उसने कहा था। रात जब गए थे तो उसे बिना बताए ही जाना पड़ा था। और अगर वह यह कहें कि वह यहां भी था जो जंगल में था, तो यशोधरा कहेगी, पागलपन किया इतने दिन? जो यहीं था, उसे खोजने वहां गए? अगर वे यह कहें कि वह यहां नहीं था, जंगल में ही है, तो गलत होगा, क्योंकि बुद्ध अब जानते हैं कि वह यहां भी है जो जंगल में मिला है।

कृष्ण कहीं छोड़कर नहीं जा रहे हैं। बुद्ध को जो आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है, वह कृष्ण को पहली घड़ी से ही दिखाई पड़ रहा है। बुद्ध जो आखिरी क्षण में जान पाते हैं कि वही है सब जगह, वह कृष्ण पहले से जान रहे हैं कि वही है सब जगह।

मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है कि वह एक गांव के किनारे पड़ा रहा जीवन भर। और जब भी कोई उससे पूछता कि तुम कुछ साधना नहीं कर रहे हो, तो वह कहता, किसे साधूं? जिसे साधूंगा, वह साधा ही हुआ है। कोई उससे पूछता है कि तुम कहीं जाते दिखाई नहीं पड़ते। वह कहता, मैं कहां जाऊं? जहां पहुंचना था वहां मैं पहुंचा ही हुआ हूं। कोई उससे पूछता, तुम्हें कुछ पाना नहीं है? तो वह कहता, जिसे पाना है, वह सदा से प्राप्त है। यह फकीर क्या साधना करे?

इसलिए कृष्ण की साधना विकसित नहीं हो पाई। कृष्ण का साधक कहीं भी न मिलेगा जो साधना कर रहा हो। साधना किसकी करनी है? साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं मिला है और मिल सकेगा। साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं पाया है, और पाया जा सकता है। साधना संभावना की है। साधना उपलब्धि की कभी नहीं होती। जो है ही, उसको कैसे पाइएगा? बुद्ध को भी आखिरी क्षण में जब ज्ञान हुआ और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला, हमें बताएं? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं; जो मिला ही हुआ था, उसका पता भर चला है। जो था ही मेरे पास, लेकिन मुझे पता नहीं था, अब मैंने जाना कि यह तो मेरे पास ही था। मिला कुछ भी नहीं है, जो था ही उसका पता चला है। जब नहीं था पता, तब भी वह इतना ही, कमी कुछ भी न थी। लेकिन बुद्ध यह आखिरी क्षण में कहते हैं।

कृष्ण यह पहले क्षण में कहेंगे। कृष्ण कहेंगे, कहां जा रहे हो? क्योंकि जहां जाना चाहते हो वहां तो तुम खड़े हो। जिसे तुम मंजिल कह रहे हो वह तो तुम्हारा मुकाम ही है, जहां तुम खड़े ही हो। किस तरफ दौड़ रहे हो? क्योंकि जहां तुम दौड़कर पहुंचोगे, वहां तो तुम पहुंचे ही हुए हो।

इसलिए बुद्ध और महावीर के जीवन में साधना का काल है, फिर सिद्धि की अवस्था है। कृष्ण सदा ही सिद्ध हैं, उनके जीवन में साधना का कोई काल नहीं है। कृष्ण ने कब साधा सत्य को, पता है आपको? कौन-सा ध्यान किया? कौन-सा योग किया? किस जंगल में गए? कौन-सी तपश्चर्या की? कौन-से उपवास किए? कौन-सा आसन, कौन-से व्यायाम? कृष्ण के जीवन में साधना जैसी कोई चीज ही नहीं दिखाई पड़ती। साधना है ही नहीं।

बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में सिद्ध होते हैं, कृष्ण जैसे सिद्ध हैं ही। तब साधना कैसी, साधना किसकी? ये बुनियादी फर्क हैं। और कृष्ण को जो दिखाई पड़ रहा है, उसमें अहंकार का कोई उपाय नहीं है क्योंकि तू है ही नहीं कहीं। कबीर की बात सुबह मैं कर रहा था। कबीर ने एक दिन अपने बेटे को जंगल में भेजा है घास काट लाने को। जैसे यहां पौधे हवा में नाच रहे हैं, ऐसे ही वह जंगल में गया है, हंसिया लेकर घास काट रहा है, सुबह से सांझ होने लगी है और वह नहीं लौट रहा है। कबीर परेशान हो गए और सबने कहा कि कुछ पता लगाओ, घास काटने में इतनी देर की कोई जरूरत न थी, दोपहर तक आ जाना था। फिर सांझ भी हो गई। अब अंधेरा भी घिर जाएगा थोड़ी देर में। लोगों ने कहा तो कबीर और सारे लोग खोजने निकले कि वह कहां गया है? देखा जाकर घास में, गले-गले घास में वह खड़ा है। खड़ा कहना गलत है। हवाएं नाच रही हैं, वह भी नाच रहा है। जैसे वृक्ष नाच रहे हैं, पौधे नाच रहे हैं, घास के पत्ते नाच रहे हैं, वह भी नाच रहा है। उसे हिलाया, उसने आंख खोली। उन सबने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? घास काटी नहीं? उसने कहा, अच्छी याद दिलाई! हंसिया उठाया। उसने कहा, अब तो सांझ भी हो गई है, लोगों ने कहा अब वापिस चलो। लेकिन तुम दिन भर क्या किए? उस लड़के ने कहा, मैं घास हो गया था। मैं भूल ही गया कि मैं भी हूं। मैं भूल ही गया कि वह घास है और उसको काटना है। इतनी आनंद की थी सुबह, सब इतना नाचता हुआ था कि मैं पागल नहीं था कि नाचते हुए समय और काटने में लग जाऊं, मैं नाचने लगा। और फिर तो मुझे याद ही न रही कि कौन घास है और कौन कमाल है जो काटने आया है। यह तो आप आए तो आपने मुझे खयाल दिला दिया।

कृष्ण इतने नाचने में मगन हो गए इस जगत में। कबीर का बेटा तो घास के साथ नाचा, कृष्ण इस पूरे जगत के साथ नाचे। इसके चांदत्तारों के साथ नाचे, इसके स्त्री-पुरुषों के साथ नाचे, इसके फूलों के साथ नाचे, इसके कांटों के साथ नाचे। वह इस जगत के साथ नाचने में ऐसे लीन हो गए कि कौन है मैं, कौन है तू, इसकी कोई जगह न रही। इस क्षण जो निरहंकार उपलब्ध हुआ, वह महावीर और बुद्ध को अत्यंत तपश्चर्या, "आरडुअस' लंबी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर उपलब्ध होता है। वे बहुत दौड़कर उस जगह आते हैं, जहां से कृष्ण कभी दौड़े ही नहीं। वे बहुत यात्रा करके उस जगह का पता लगा पाते हैं, जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।

इसलिए कृष्ण साधक नहीं हैं। कृष्ण को साधक कहना ही मुश्किल है। कृष्ण सिद्ध हैं और इस सिद्ध अवस्था में, इस चित्त की दशा में जो भी उन्होंने कहा है, उसमें हमें अहंकार दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि वह जो शब्द हम उपयोग करते हैं मैं का, वह वह भी कर रहे हैं, लेकिन हमारे और उनके मैं की अभिव्यक्ति और अर्थ में बड़ा फर्क है, "कनोटेशन' में बड़ा फर्क है। जब हम कहते हैं मैं, तो मतलब होता है, इस शरीर के भीतर जो कैद है, वह। और जब कृष्ण कहते हैं मैं, तो वह कहते हैं, जो सब जगह फैला है, वह। इसलिए हिम्मत से कह सकते हैं अर्जुन को कि सब छोड़ और मेरी शरण में आ। यह अगर शरीर के भीतर घिरा हुआ मैं होता, तो इतनी हिम्मत से नहीं कही जा सकती ऐसी बात। और अगर यह शरीर के भीतर बंद मैं होता तो अर्जुन भी कहता कि आप कैसी बात कर रहे हैं? मैं आपकी शरण में क्यों आऊं? फिर तो अर्जुन के मैं को भी चोट लगती। क्योंकि जब भी एक तरह से मैं बोलता है तो दूसरी तरफ से मैं में प्रतिध्वनि पैदा होती है। अगर आप मैं की भाषा बोलते हैं तो दूसरा आदमी तत्काल मैं की भाषा बोलना शुरू कर देता है। मैं एक-दूसरे की भाषा बड़े ढंग से पहचानते हैं और तत्काल प्रतिक्रिया में सन्नद्ध हो जाते हैं। लेकिन कृष्ण कह सके कि तू मेरी शरण में आ। क्योंकि इस शरण का अर्थ है, समस्त की शरण। इसका अर्थ है कि यह सब जो फैला हुआ है, इसकी शरण में चला जा, तू अपने को छोड़।

निरहंकार महावीर और बुद्ध को भी आता है, लेकिन लंबी यात्रा के बाद। और महावीर और बुद्ध की यात्रा पर चलने वाले बहुत से साधकों को कभी नहीं आएगा, क्योंकि वह आखिरी बात है जो वह कर पाएं, न कर पाएं। लेकिन कृष्ण की धारा में जो बहेगा, वह तो पहली ही बात है; न कर पाएं तो उस धारा में बह ही नहीं सकते। महावीर के साथ बहुत दूर तक चल सकते हैं अपने मैं को बचाकर। कृष्ण के साथ तो पहले कदम पर ही नहीं चल सकते। चलना ही है तो मैं छोड़कर ही चलना होगा। नहीं तो चल ही न पाएंगे। महावीर के साथ बहुत दूर तक ताल-मेल बैठ सकता है हमारे मैं का, कृष्ण के साथ नहीं बैठ सकता। पहले क्षण में ही यह जानना होगा। "द फर्स्ट इज़ द लास्ट', कृष्ण के लिए। महावीर और बुद्ध' के लिए, "द लास्ट इज़ द फर्स्ट'। वह जो आखिरी है, वह पहला है। और कृष्ण के लिए जो पहला है वही आखिरी है। यह फर्क खयाल में आ जाए--बड़ा फर्क है, बहुत बुनियादी फर्क है--खयाल में आ जाए तो सारी स्थिति और होगी।

कृष्ण के साथ साधना क्या करियेगा? नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं, डूब सकते हैं। साधना क्या करियेगा? या इसको ही साधना कहें तो बात और है। इसलिए कृष्ण किसी से और कोई अपेक्षा नहीं करते। जब पहला ही चरण निरहंकारिता का है तब और अपेक्षा नहीं की जा सकती। महावीर और बुद्ध के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, मैं क्या करूं? तो वह आपको बता सकते हैं। वह कहेंगे, पहले यह छोड़ो, पहले वह छोड़ो, अहंकार को पीछे देख लेंगे। कृष्ण के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, तो वह कहेंगे, कोई रास्ता ही न रहा। क्योंकि अहंकार ही जाए, वही तो शुरुआत है। इसलिए कृष्ण कोई साधकों का संघ नहीं बना सके। बहुत मुश्किल थी बात। साधक तो वही कहेगा, बस ठीक है, यही पहली बात; अहंकार तो छूटता नहीं, धन छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे कि धन छोड़ने से क्या होगा। धन छोड़कर भी बीमारी तो वही रहेगी।

एक आदमी आया है, वह कहता है कि केंसर है मुझे, केंसर तो नहीं छोड़ सकता, सिर घुटवा सकता हूं। घुटवा लें, इससे कोई अंतर नहीं, इससे कोई संगति नहीं। केंसर अपनी जगह रहेगा। सिर घुटवाने के बाद भी फिर केंसर को ही ठीक करना पड़ेगा। वह आदमी कहता है, मैं कपड़े भी छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे, कपड़े छोड़ने से कुछ लेना-देना नहीं है। महावीर और बुद्ध उसको लौटा नहीं देंगे। महावीर और बुद्ध के द्वार पर सभी को प्रवेश हो जाएगा। वह सभी के लिए तैयार हैं, कि ठीक है, जो तुम कर सकते हो वह करो, आखिरी बात आखिरी में देखेंगे। लेकिन कृष्ण कहते हैं, आखिरी बात करो तो ही मेरे मकान में प्रवेश है। इसलिए कृष्ण का मकान करीब-करीब खाली रह गया। उसमें प्रवेश बहुत मुश्किल हुआ। इसलिए कार्डर्स' खड़े नहीं हो सके। महावीर के साथ पचास हजार संन्यासी चलते थे। संभव था यह। कृष्ण के साथ मुश्किल है। पचास हजार निरहंकारी आदमी पहले दिन कैसे खोजियेगा?

महावीर और बुद्ध को अगर हम ठीक से कहें तो "ग्रेजुअल एनलाइटेनमेंट' की बात है वह, क्रमिक। क्रम की बात हमें समझ में आती है। एक रुपये से दो रुपये हो सकते हैं, तीन रुपये हो सकते हैं, चार रुपये हो सकते हैं, हमारी समझ में आता है। लेकिन गरीब एकदम अमीर हो सकता है, यह हमारी समझ में नहीं आता। कृष्ण जो बात कर रहे हैं, वह "सडन एनलाइटेनमेंट' की है। वह कहते हैं, नाहक इतनी परेशानी क्यों करते हो? एक रुपया है तब भी तुम गरीब हो, एक रुपये वाले गरीब हो; दो रुपया है तब भी तुम गरीब हो, दो रुपये वाले गरीब हो; तीन रुपया है तब भी तुम गरीब हो, तीन रुपये वाले गरीब हो। करोड़ हैं तो भी तुम गरीब हो, करोड़ रुपये वाले गरीब हो। कृष्ण कहते हैं, हम तुम्हें सम्राट बनाते हैं, रुपये का तुम हिसाब-किताब छोड़ो। रुपये से भी छूट सकता है, दो से भी छूट सकता है, तीन से भी छूट सकता है, करोड़ से भी छूट सकता है। हम तुम्हें सम्राट ही बनाए देते हैं--बना क्या देते हैं, हम तुम्हें याद दिलाना चाहते हैं कि तुम सम्राट हो। इसलिए महावीर और बुद्ध की पद्धति साधना है, कृष्ण की पद्धति सिर्फ "रिमेंबरिंग' है, स्मरण है। स्मरण करो कि तुम कौन हो, बस मामला पूरा हुआ जाता है। "जस्ट रिमेंबर'।

एक कहानी मैंने सुनी है, वह मैं आपसे कहूं।

मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने बेटे को निकाल बाहर किया, नाराज था। एक ही बेटा था। निकाल बाहर कर दिया तो बेटा कुछ भी न जानता था--सम्राट के बेटे क्या जान सकते हैं! न वह पढ़ा-लिखा था, वह कुछ भी नहीं कर सकता था। हां, कभी शौक में कुछ गीत गाना और कुछ नाचना सीखा था, तो सड़कों पर भीख मांगने लगा और नाचने लगा। और नाच-नाचकर भीख मांगने लगा। लेकिन बाप ने उसे देश के बाहर निकालने की आज्ञा दे दी थी, तो अपने देश में तो नहीं कर सकता, देश छोड़ देना पड़ा।

फिर बाप बूढ़ा हुआ। इस बात को वर्षों बीत गए और वह लड़का भूल गया कि मैं सम्राट था। दस साल जो भीख मांगे, उसको याद ही कैसे रहे कि वह सम्राट है। था तो वह सम्राट ही। और दस साल जब उसने भीख मांगी थी, तो वह रोज सम्राट होने का ज्यादा अधिकारी होता चला गया था। क्योंकि उसका बाप बूढ़ा होता चला गया था। एक ही बेटा था। उसके जूते फट गए हैं और धूप है तेज और एक रेगिस्तानी मुल्क में भटक रहा है और वह एक होटल के सामने जहां साधारण-सी, गंदी-सी होटल वहां भीख मांग रहा है और लोगों के सामने बर्तन फैला रहा है, कह रहा है कुछ पैसे दे दें, क्योंकि जूते की जरूरत है, धूप बढ़ती जाती है, पैर पर फफोले पड़ गए हैं। सम्राट बूढ़ा हुआ। उसने अपने वजीरों को खोजने भेजा कि उस बेटे को वापिस लौटा लाओ। क्योंकि यह अब राज्य कौन संभालेगा? न किसी के संभालने से तो बेहतर है कि वह जो नासमझ है वही संभाले।

सम्राट के वजीर उसे खोजने गए। बड़ी मुश्किल से सम्राट का प्रधान वजीर उस गांव में पहुंच गया जहां वह भीख मांग रहा है। रथ सामने आकर रुका तब वह अपने टूटे हुए टीन के बर्तन में भीख मांग रहा था, बजा रहा था और कह रहा था--कुछ पैसे मिल जाएं तो मैं जूते खरीद लूं! रथ रुका, वजीर नीचे उतरा। चेहरा पहचाना हुआ था। कपड़े वही थे जो दस साल पहले पहने निकला था। फट गए थे, चीथड़े हो गए थे। नंगे पैर था, चेहरा सांवला और काला पड़ गया था। वजीर नीचे उतरा, वजीर ने उसके पैर छुए और कहा कि पिता ने क्षमा कर दिया है और वापिस बुलाया है। एक क्षण, एक का भी हजारवां हिस्सा, और वह जो हाथ में टीन का ठीकरा था वह फिंक गया! उस युवक की आंखें एकदम बदल गईं। वह भिखारी नहीं रहा, सम्राट हो गया। उसने वजीर को कहा, जाओ, शीघ्र जूते खरीदो, अच्छे कपड़े लाओ, स्नान का इंतजाम करो। वह रथ पर बैठ गया। वह जिनसे भीख मांगता था, जो न कुछ थे उस होटल में, वह सब भीड़ लगाकर खड़े हो गए और उन्होंने देखा यह आदमी दूसरा है, वह उनकी तरफ देख भी नहीं रहा है। वह उनको पहचानता भी नहीं है। उन्होंने कहा, अरे, हमें भूल गए! उसने कहा, तुम्हें तभी तक याद रख सकता था, जब तक अपने को भूले हुए था। जब अपनी याद आ गई, अब भूल जाओ उस आदमी को जो भीख मांगता था। उन्होंने कहा, अभी क्षण भर पहले! और उसने कहा कि मुझे याद आ गई।

कृष्ण की प्रक्रिया इतनी ही है कि आदमी को सिर्फ इतनी याद दिलाने की बात है कि तुम कौन हो। यह साधने की बात नहीं है, स्मरण की है। और उस याद के साथ ही एक क्षण में सब बदल जाता है, टीन का ठीकरा बाहर फिंक जाता है। जिनसे हम भीख मांग रहे थे, अचानक हाथ खींच लेते हैं, हम खुद ही सम्राट हो जाते हैं। लेकिन यह सम्राट होना "सडन' है। और ध्यान रहे, सम्राट कोई आदमी "सडन' ही होता है। भिखारी "ग्रेजुअल' होता है। सम्राट होने के लिए भी कोई सीढ़ियां हों तो आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर आप थोड़े अच्छे ढंग के भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। पैसे वाला भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन भीख जारी रहेगी। और एक दिन आपको छलांग लगानी पड़ेगी, वहां जहां आप "ग्रेजुअली' चढ़-चढ़कर पहुंचे हैं, वहां से कूद जाना पड़ेगा। लेकिन यह घड़ी महावीर और बुद्ध की साधना में आखिरी क्षण आती है, जिस दिन छलांग लगानी पड़ती है। कृष्ण के मामले में पहले ही आ जाती है। कहते हैं, छलांग लगाओ आगे, फिर दूसरी बात। फिर दूसरी बात ही करने की कोई जरूरत नहीं होती, छलांग लगाने की बात है।

गीता में पूरे वक्त अर्जुन को वह कुछ खास नहीं समझा रहे हैं, सिर्फ याद दिला रहे हैं कि तू कौन है। वह कोई उपदेश नहीं दे रहे हैं, वह सिर्फ चोटें दे रहे हैं कि तू कौन है। वह किसी को समझा नहीं रहे, किसी को जगा रहे हैं। वह सिर्फ हिला रहे हैं, झकझोर रहे हैं कि तू उठकर देख कि तू कौन है! तू भी कहां छोटी-छोटी बातों में पड़ा है कि यह मर जाएगा, वह मर जाएगा! तू जागकर देख, कोई कभी मरा ही नहीं है। तू कब मरा! मगर वह नींद में है, और अपने सपने में है, वह यही पूछे जा रहा है कि यह मेरा भाई है, यह मेरा रिश्तेदार है, यह मेरा गुरु है, इनको मैं कैसे मारूं! वह सपने में ही है। कृष्ण उसको समझा नहीं रहे हैं, उसको धक्के दे रहे हैं कि तू नींद खोल, जरा आंख खोलकर देख, क्या सपना देख रहा है। या तो सभी सबके हैं, या कोई किसी का नहीं है। दोनों हालत में मतलब एक है। या तो सभी लोग मर ही जाते हैं, तब मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता; या मरते ही नहीं है, तब भी मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।

कृष्ण की जीवन-चिंतना स्मरण की है। इसलिए साधना नहीं है वह। वह सीधे सिद्ध होने में छलांग है। हम उतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, इसलिए हम कहते हैं यह अपना काम नहीं। हम तो कहीं जाएं जहां धीरे-धीरे, एक-एक कदम हम चलेंगे। लेकिन हर कदम पर आप अपने को बचाते हुए चलेंगे, ध्यान रखना। इसीलिए तो छलांग नहीं लगाते, छलांग लगाने में बच नहीं सकते। बचने में खतरा है। आप कहते हैं, हम तो एक-एक कदम चलेंगे जिसमें अपने को बचाकर चलें। लेकिन जिसको आप बचा रहे हैं, वह आखिरी कदम में भी बचा रहेगा। और वह फिर भी कहेगा कि अपने को बचाकर किसी तरह निकल जाओ मोक्ष। अपने को बचाकर कोई मोक्ष में प्रवेश नहीं कर सकता। अपने को खोकर ही प्रवेश कर सकता है। यह आखिरी क्षण में वही दिक्कत आएगी। और मैं मानता हूं कि जो दिक्कत आखिरी क्षण में आनी हो, वह पहले क्षण में ही आ जाए। क्योंकि इतना समय क्यों व्यय करना है, इतना समय क्यों व्यर्थ खोना।

आखिरी क्षण में महावीर और बुद्ध का जो स्मरण आता है, वह स्मरण है, वह साधना का फल नहीं है। लेकिन हमने साधना देखी है। एक आदमी गांव में बीस चक्कर लगाता है, फिर उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। एक आदमी एक ही चक्कर लगाता है, उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। कोई-कोई चक्कर नहीं लगता है, उसे स्मरण आता है। लेकिन हम जो देखने वाले हैं, हम कहेंगे, इस आदमी को बीस चक्कर लगाने से कोई "काज़-इफेक्ट' का संबंध नहीं है, यह बात जरा आपको ठीक से समझ लेनी चाहिए।

महावीर ने क्या किया और महावीर को क्या हुआ, इसमें कोई "काज़ल लिंक' नहीं है। इसमें कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है कि महावीर ने ऐसा किया, इसलिए ऐसा हुआ। अगर ऐसा है तो फिर जीसस को नहीं हो सकेगा, क्योंकि जीसस ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। फिर बुद्ध को नहीं हो सकेगा, क्योंकि बुद्ध ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। अगर सौ डिग्री पानी गर्म होने से ही भाप बनता है, तो तिब्बत में बनाया जाए, हिंदुस्तान में बनाया जाए, चीन में बनाया जाए, अमरीका में बनाया जाए, वह सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसका सौ डिग्री पर भाप बनना "कॉज़ल' है, उसमें कार्य-कारण है।

आध्यात्मिक जीवन "कॉज़ल' नहीं है। उसमें कार्य-कारण नहीं है। इसलिए तो आध्यात्मिक जीवन मुक्त हो सकता है। कार्य-कारण की शृंखला में मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती। कार्य-कारण का मतलब ही बंधन है। हर चीज पिछली चीज से बंधी है। और जो चीज पिछली चीज से बंधी है, वह अगली चीज से बंधी होगी। उसमें "चेन सीरीज़' है, सब चीजें बंधी हैं। अगर पानी भाप बनेगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब भाप के नियमों में बंध जाएगा। अगर पानी बर्फ बन जाएगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब बर्फ के नियमों से बंध जाएगा। आगे, पीछे, दोनों तरफ बंधन होंगे। जिसको मुक्ति कहते हैं, वह "नॉन-कॉज़ल' है, उसके पीछे कोई कारण नहीं है, कि इस कारण से फलां आदमी मुक्त हुआ, यह-यह कारण से मुक्त हुआ, क्योंकि इसने इतना उपवास किया इसलिए मुक्त हुआ है। तब तो कोई भी आदमी उतना उपवास करे तो मुक्त होना चाहिए। लेकिन यह नहीं होता।

सौ डिग्री पर कोई भी पानी गर्म होता है, भाप बनता है। लेकिन कोई भी आदमी उपवास करे तो मुक्त नहीं होता है। महावीर करते हैं तो होते हैं। कोई भी आदमी नग्न खड़ा हो जाए तो मुक्त हो जाएगा? नहीं होता। बहुत लोग ऐसे ही नग्न हैं, कपड़े ही नहीं है। लेकिन महावीर खड़े हो जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं। तो नग्नता से मुक्ति का कोई "कॉज़ल-रिलेशनशिप' है, कोई कार्य-कारण-संबंध है? अगर संबंध है तो फिर सबको करना ही पड़ेगा। नहीं, संबंध नहीं है। असल में मुक्ति का अर्थ ही कार्य-कारण की शृंखला के बाहर हो जाना है। वह जो कार्य-कारण की शृंखला है कि ऐसा करने से ऐसा होता है, ऐसा न करने ऐसा नहीं होता, इस सबके बाहर हो जाना ही मुक्ति का अर्थ है। असल में कार्य-कारण की सीमा में जो बंधा है, उसी का नाम पदार्थ है और कार्य-कारण की सीमा के जो बाहर है, उसी का नाम परमात्मा है।

लेकिन, किस जगह इसके बाहर होंगे आप? हम प्रत्येक घड़ी को कार्य-कारण से जोड़ते हैं। अभी मैं एक कहानी कह रहा था--

एक आदमी एक ट्रेन में सवार हुआ है, पहली दफा। उसके गांव के लोगों ने उसकी जन्म-जयंती मनाई है। पचहत्तर साल का हो गया है, बूढ़ा है और गांव गरीब है, उसको क्या भेंट दें! तो उन्होंने सोचा कि हमारे गांव में कभी कोई ट्रेन पर सवार नहीं हुआ है--पहली दफा ट्रेन चली--तो हम सब गांव के लोग चंदा करके इसको ट्रेन पर भेज दें। तो उसको ट्रेन पर भेजा। साथ में एक मित्र और उसके ट्रेन पर गया है। वे दोनों सवार हुए। पहली दफा गाड़ी में बैठे। बड़े आनंदित हैं और तभी गाड़ी में चीजें बिकने आ गईं। कुछ उन्होंने पाकिट-खर्च भी उनको दिया था कि कुछ खरीद भी करना आते-जाते। आनंद लेना। एक सोडा बेचने वाला, एक आदमी सोडा बेच रहा है। उन्होंने कहा, पता नहीं क्या खतरनाक चीज है, लेकिन पहले कोई पीता हो तो अपन देख लें। एक आदमी ने लेकर पिआ तो उन्होंने कहा, ठीक है, पिआ तो जा सकता है। पर उन्होंने कहा, एक ही लें पहले। आधा तुम पी लो, आधा मैं पी लूं। क्योंकि जंचे भी, न जंचे। तो उन्होंने एक सोडे की बॉटल ली। एक आदमी ने आधी बोतल पी। पहले दफे पी थी, और जैसे ही उसने बोतल पी वैसे ही ट्रेन एक "टनल' में, एक बोगदे में प्रवेश की। वह आधे के आगे पीता चला गया तो दूसरे ने रोका, उसने कहा कि तुम आधे के आगे जा रहे हो।  उसने बोतल नीचे की, आंखें खोलीं, घनघोर अंधेरा था। तो उसने दूसरे आदमी को कहा कि, "डोंट टच दिस स्टफ, आई हैव बीन स्ट्रक ब्लाइंड'। इसको छूना ही मत, मैं अंधा हो गया हूं। भूलकर मत पीना, अब जो हो गया मेरे साथ, हो गया।

स्वभावतः वह जो अंधेरा घटित हुआ था, वह उसके लिए "कॉज़ल लिंक में ही सोच सकता है--सोडा पीने से आंखें एकदम अंधी हो गईं। हम जिंदगी में इसी भाषा में सोचते हैं। इससे बड़ी भ्रांतियां पैदा होती हैं। मुक्ति का जो अनुभव है, वह "बियांड द कॉज़ल लिंक' है। वह हमारे सब कार्य-कारण के बाहर है। बुद्ध ने जो किया है उसके कारण वह उसको उपलब्ध नहीं हुए, उसके करने के बावजूद उपलब्ध हुए, "इनस्पाइट आफ दैट'। महावीर ने जो किया है उसके कारण उपलब्ध नहीं हुए, उसको करने के बावजूद उपलब्ध हुए हैं। इसलिए कोई अगर महावीर की पूरी नकल भी कर ले तो उपलब्ध नहीं होगा। पूरी नकल कर ले, "टोटल', कि उसमें एक अंक भी कम देने की गुंजाइश न रह जाए, उसको सौ परसेंट आंकड़े देने पड़ें कि अब इसमें कोई कमी नहीं रह गई, फिर भी नहीं होगा। उसका कोई संबंध नहीं है।

मुक्ति "एक्सप्लोजन' है, एक विस्फोट है, कार्य-कारण की शृंखला के बाहर।

कृष्ण यह कहते हैं कि अगर यह खयाल में आ जाए तो वह अभी हो सकता है। पात्र-अपात्र का सवाल नहीं है, सभी पात्र हैं। साधना का उतना सवाल नहीं है। लेकिन कुछ लोग थोड़ा चक्कर खाएंगे। उनको अगर अपने घर भी आना हो तो वह पूरी बस्ती में घूमे बिना नहीं आ सकते। उनके लिए जरूरी होगा कि पूरा गांव घूम आएं। कुछ लोग, अपने पास भी उनको आना है तो "वाया दि अदर', वह दूसरे के बिना अपने पास भी नहीं आ सकते। उनका रास्ता ही वह है। फिर हमारे अपने-अपने चक्कर हैं। वह चक्कर हम पूरा करेंगे। लेकिन कृपा करके अपना ही चक्कर पूरा करें, तब भी ठीक है। दूसरे ने जो चक्कर पूरा किया है, उसको करने निकल जाते हैं आप, तब बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। वह आपका चक्कर ही नहीं है। कोई दूसरा उस चक्कर से अपने तक आया था, लेकिन आप वह नहीं हैं, आप दूसरे आदमी हैं। आप उस चक्कर से नहीं आ सकते हैं अपने तक।

पहली बार जब उपनिषद पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित हुए, तो वहां जिन लोगों ने पढ़ा उनकी पहली जो तकलीफ हुई वह यही थी, कि इनमें कोई साधना तो बताई नहीं है। क्या करना, क्या नहीं करना; क्या खाना, क्या नहीं पीना; क्या पहनना, क्या नहीं पहनना; क्या बुरा है, क्या भला है; यह सब इसमें कुछ बताया हुआ नहीं है। ये किस तरह के धर्मग्रंथ हैं। क्योंकि बाइबिल में सब बहुत साफ है। क्या करो, क्या न करो, यह बहुत साफ है। "कमांडमेंट' जाहिर है; यह कहना है और यह नहीं करना है। यह तो धर्मग्रंथ है। यह उपनिषद किस तरह का धर्मग्रंथ है, जिसमें कोई चर्चा ही नहीं; जिसमें कोई साधना की प्रक्रिया नहीं, आचरण की कोई व्यवस्था नहीं। कठिन है समझना कि बाइबिल में जो उपदेश है, वह धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह सिर्फ "रिमेंबरिंग' की बात है। वे यह कह रहे हैं कि तुम स्मरण करो। जिसे तुम भूल गए हो, जो तुम हो, जो तुम इसी वक्त हो, उसे स्मरण करो। इसे कहीं पाने नहीं जाना है, अभी और यहीं हो ही तुम। सिर्फ स्मरण करो। यह सिर्फ विस्मृति है।

कृष्ण की दृष्टि में, जो हमें पाना है वह सिर्फ विस्मृत हुआ है, खोया नहीं है। जो हमें पाना है, वह हम भूल गए हैं, बस इससे ज्यादा नहीं है। वह हमें याद नहीं रहा है। इसलिए पहले ही चरण में उसको याद करो और कूद जाओ। इसलिए जो साधनाएं और जो नैतिकताएं और जो व्यवस्थाएं धर्म देगा, वह कृष्ण नहीं दे रहे हैं। कृष्ण का अहंकार, पहले ही क्षण में नहीं है। और जो आदमी भी आंख खोलकर देखेगा, उसका अहंकार नहीं रह जाएगा। आंख बंद करके हम जीते हैं, इसलिए अहंकार रह जाता है। ऐसा नहीं है कि आप कहेंगे, कृष्ण को हुआ, मुझे क्यों नहीं होता है? आप आंख बंद करके जीते हैं। आपने कभी अपने जन्म के संबंध में सोचा कि किसने आपको पैदा किया? आपने पैदा किया? कम-से-कम इतना तो तय है कि आपने पैदा नहीं किया। आप जैसे हैं, ऐसा आपको आपने नहीं बनाया, इतना तो तय है। लेकिन हमें भी वहम पैदा हो जाता है। हमारे बीच में भी कई "सेल्फ-मेड' पागल होते हैं, वह सोचते हैं, मैंने अपने को बनाया। वह भगवान तक को तकलीफ नहीं देते उनको बनाने की, वह खुद ही पर अपना सब थोप लेते हैं। तो मैंने अपने को बनाया--"सेल्फ-मेड'। न हम अपने को बनाते, हमारा होना भी हमारे हाथ में तो नहीं है। ऐसे सीधे-से सत्य भी हमें दिखाई नहीं पड़ते कि मेरा होना भी मेरे हाथ में कहां है! मैं हूं, इसके लिए मेरी जिम्मेवारी कहां है! मैं नहीं होता, तो मैं किससे शिकायत करने जाता? जो नहीं हैं वहां शिकायत कर रहे हैं? नहीं होता तो नहीं होता, हूं तो हूं। मैं ऐसा हूं तो ठीक, और ऐसा नहीं होता, और-जैसा होता तो क्या करता!

अगर हम जीवन के तथ्यों में थोड़ी आंख डालकर देखें तो हमें दिखाई पड़ेगा, न जन्म हमारे हाथ, न मृत्यु हमारे हाथ, हमारे भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जरा अपने हाथ से अपने ही हाथ को पकड़ने की कोशिश करें तो पता चलेगा। कुछ भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जहां कुछ भी हमारे हाथ में नहीं है, वहां "मैं' कहने का अर्थ क्या है, प्रयोजन क्या है? जहां सभी कुछ संघट है, जहां सभी कुछ एक-साथ घट रहा है--कहा नहीं जा सकता कि आज बगीचे में जो फूल खिले हैं, अगर वह आज नहीं खिलते तो जरूरी था कि मैं फिर भी यहां होता। कोई नहीं कह सकता। आमतौर से हम कहेंगे, इससे क्या संबंध है; बगीचे में फूल नहीं होते, तो भी मैं यहां हो सकता था। जरूरी नहीं है। वह जो बगीचे में एक फूल खिला है, उसकी मौजूदगी और मेरा होना एक ही होने के दो छोर हैं।

अभी सूरज शांत हो जाए तो हम सब यहीं शांत हो जाएंगे। सूरज बहुत दूर है। करोड़ों मील दूर है। उसके होने पर हम निर्भर हैं; और सूरज भी किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर है, और वे महासूर्य भी और किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर हैं--सब निर्भर है। यहां जीवन "इंटरडिपेंडेंट' हैं, हम छोटे-छोटे द्वीप नहीं हैं, हम महासागर हैं, यहां सब इकट्ठा है। इसको जरा ही आंख खोलकर देख लें तो कोई याद दिलाना पड़ेगा कि मैं और तू हमारे मानवीय आविष्कार हैं, और बड़े गलत आविष्कार हैं! वह दिखाई पड़ जाए तो उसका स्मरण आ जाए जो है। वह दिखाई न पड़े तो उसका स्मरण मुश्किल होगा। तब तक हम अपने को मैं माने चले जाएंगे, दूसरे को तू माने चले जाएंगे और एक कल्पना में, एक पुराण में जी लेंगे; एक "मिथ' में जी लेंगे।

कृष्ण पहले ही चरण में कहते हैं स्मरण करो, और कुछ मत करो। बस स्मरण करो। कौन हो, क्या हो, कहां हो, इसका स्मरण करो और सब प्रगट हो जाएगा।


"भगवान श्री, पूर्णता के संबंध में एक प्रश्न था। आपने सुबह कहा कि पूर्णता का मूल लक्षण आप शून्यता मानते हैं। बुद्ध भी तो परम शून्य थे। क्या उन्हें पूर्ण नहीं कहा जा सकता? और इसी के साथ क्या शून्यता स्वयं में बहु-आयामी नहीं है?


दोत्तीन बातें।

एक तो, बुद्ध शून्यता पर पहुंचे, जैसा मैं अभी कह रहा था। बुद्ध शून्यता पर पहुंचे। वह उनका "अचीवमेंट' है। वह उन्होंने पाया। वे शून्य हुए। जो शून्यता पाई जाएगी, वह "वन डायमेंशनल' हो जाती है। उसकी एक दिशा हो जाती है। वह पाने वाले पर निर्भर हो जाती है।

इसको ऐसा समझें। असल में मैं अपने भीतर से जिस चीज को शून्य कर दूंगा, जिस चीज को काट डालूंगा, अलग कर दूंगा, वह समाप्त हो जाएगी, मेरे भीतर से हट जाएगी। एक तरह का शून्य उपलब्ध होगा। लेकिन वह शून्यता किसी चीज का अभाव होकर आएगी। एक और शून्यता है, जो हम लाते नहीं, जो हमारे होने के बोध में ही जनमती है। हम हैं ही शून्य, हम होते नहीं शून्य। शून्यता हमारा स्वभाव है। ऐसे हम हैं ही। जिस दिन शून्यता हमारा स्वभाव होती है, साधन नहीं, अभ्यास नहीं, उपलब्धि नहीं, उस दिन शून्यता बहु-आयामी, "मल्टी-डायमेंशनल' हो जाती है। हमने किसी चीज को खाली करके अपने को शून्य नहीं किया है। हम शून्य हैं ही, इसको स्मरण किया है।

तो बुद्ध की जो शून्यता हमें दिखाई पड़ती है, वह शून्यता लाई हुई है। और जो शून्यता लाई हुई है, वही हमें दिखाई पड़ती है। कृष्ण में हमें शून्यता कभी नहीं दिखाई पड़ी। कृष्ण को तो लोग कहेंगे, बहुत भरे-पूरे आदमी हैं, बहुत "ऑकुपाइड' आदमी हैं। कृष्ण की "प्रेजेंस' तो अनुभव होती है, कृष्ण में "एब्सेंश' अनुभव नहीं होती। कृष्ण में कुछ मौजूद है, यह तो पता चलता है, कृष्ण खाली हैं, यह पता नहीं चलता। पता हमें चलता है कि बुद्ध खाली हैं। उसका कारण है कि जो हम में भरा है, उसको बुद्ध ने निकाल दिया है, इसलिए बुद्ध खाली लगते हैं। अगर हम में क्रोध है, तो बुद्ध ने उसे निकल दिया; अगर हम में हिंसा है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में राग है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में मोह है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; जिससे हम भरे हैं, बुद्ध उससे खाली हैं। इसलिए हमें लगता है कि वह शून्यता है। बुद्ध शून्य हुए। असल में जिससे हम भरे हैं, वह उनमें नहीं है। हम उनकी शून्यता को पहचान लेते हैं। कृष्ण की शून्यता हमें पहचान में नहीं आती। क्योंकि इस आदमी में अगर लोभ नहीं है, तो भी यह आदमी जुआ खेलने बैठ सकता है। अगर इस आदमी में क्रोध नहीं है, तो यह आदमी हाथ में चक्र लेकर कैसे उतर जाता है युद्ध में! अगर इस आदमी में हिंसा नहीं है, तो अर्जुन को क्यों उकसाता है हिंसा के लिए? अगर इसमें राग नहीं है, तो यह प्रेम क्यों करता है? जिससे हम भरे हैं, वह हमें कृष्ण में दिखाई पड़ता है, कृष्ण की शून्यता हमारी पकड़ में नहीं आ सकती।

बुद्ध की शून्यता को अगर ठीक से समझें, तो वह किसी चीज की "एब्सेंश' है, जो हम में मौजूद है। तो हम पहचान लेते हैं। असल में जिस-जिस को हम मनुष्यता की बीमारियां कहते हैं, बुद्ध में उनका अभाव है। जहां तक मनुष्य के बीमार होने का संबंध है, बुद्ध बिलकुल शून्य हैं। आदमी की कोई बीमारियां उनमें नहीं हैं। बस यहीं तक बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद बुद्ध एक और छलांग लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध मर रहे हैं और आखिरी क्षण में भी उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि जब आप मर जाएंगे तो आप कहां जाएंगे? कहीं तो होंगे आप! मोक्ष में होंगे? निर्वाण में होंगे? कैसे होंगे? बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं नहीं होऊंगा, मैं होऊंगा ही नहीं। यह उनके पकड़ में नहीं आता। क्योंकि वह मानते हैं, जिसने लोभ छोड़ा, क्रोध छोड़ा, मोह छोड़ा, उसे कहीं होना चाहिए? हां, जमीन पर नहीं, मोक्ष में होना चाहिए, लेकिन कहीं होना चाहिए! बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। मैं ऐसे ही मिट जाऊंगा जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाती है। जब हम पानी पर रेखा खींचते हैं तब वह होती है, और जब मिट जाती है तब बुद्ध पूछते हैं--वह कहां जाती है? कहीं चली जाती? कहीं रहती? बस मैं पानी पर खींची गई रेखा की तरह मिट जाऊंगा। मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। बुद्ध की यह बात उनके शिष्यों की समझ में नहीं आती। कृष्ण इस पानी पर खींची गई रेखा की तरह जिंदगी भर जीते हैं, इसलिए कोई शिष्य भी नहीं खोज पाते, तो किसी को भी समझ में नहीं आते।

बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में उस छलांग को भी पूरा करते हैं, जो एक "डायमेंशनल नथिंगनेस' से, एक-आयामी शून्यता से परम शून्य में छलांग हो जाती है, लेकिन उस शून्य को पकड़ नहीं पाते हम, उसको हम देख नहीं पाते। और कृष्ण के साथ हमारी कठिनाई और ज्यादा हो जाती है क्योंकि वह शून्य में जीते ही हैं। वह रेखा किसी दिन मिटेगी, नहीं, ऐसा नहीं, वह प्रतिपल खींचते हैं और मिट जाती है। न केवल खींचते हैं और मिट जाती है, बल्कि उससे विपरीत रेखा भी खींच देते हैं। रेखाएं-रेखाएं हो जाती हैं, सब मिटता है, सब होता रहता है। बुद्ध शून्यता को किसी दिन उपलब्ध होते हैं, कृष्ण शून्य ही हैं। और इसलिए कृष्ण की शून्यता को पकड़ना मुश्किल होता है।

जिस दिन बुद्ध शून्य होते हैं, उस दिन जहां तक बुद्ध के भीतर जो कैद थी चेतना, जो अस्तित्व, वह मुक्त होकर विराट के साथ एक हो जाता है। लेकिन उस दिन वह बुद्ध नहीं रह जाते--उस दिन वह जो गौतम सिद्धार्थ पैदा हुआ था; उससे कोई संबंध नहीं है। वह जो भीतर एक शून्य था अस्तित्व का, वह विराट अस्तित्व के साथ एक हो गया। इसलिए उस विराट अस्तित्व के साथ एक हो गए उस शून्य की कोई कथा नहीं है हमारे पास। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन ऐसे जीते हैं कि उस शून्य की हमारे पास एक कथा है, कि अगर बुद्ध भी उस शून्य के बाद जगत में जिएं, तो कैसे जिएंगे। वह तो हमें मौका नहीं मिलता, वह मौका हमें कृष्ण में मिलता है।

बुद्ध का शून्य होना और समाप्त हो जाना एक साथ घटित होते हैं, कृष्ण का शून्य होना और होना एक साथ चलते हैं। अगर बुद्ध पूर्ण निर्वाण को, महानिर्वाण को पाकर वापस लौट आएं, तो वह कृष्ण-जैसे होंगे। फिर वह चुनाव नहीं करेंगे--फिर वह यह नहीं कहेंगे, यह बुरा है और यह भला है। फिर वह छोड़ेंगे-पकड़ेंगे नहीं। फिर वे कुछ भी नहीं करेंगे, फिर वे जिएंगे। कृष्ण वैसे जीते ही हैं। जो बुद्ध की परम उपलब्धि है, कृष्ण का वह सहज जीवन है। और इसलिए बहुत कठिनाई है। परम उपलब्ध लोग तो समाप्त हो जाते हैं, उपलब्ध होते-होते खो जाते हैं, इसलिए हमें बहुत परेशानी में नहीं डालते। जब तक वे होते हैं, हमारी नैतिक धारणाओं की परिपुष्टि उनसे होती मालूम पड़ती है। लेकिन, यह आदमी होता ही शून्य है और इसलिए हमारी किसी नैतिक मान्यता को इससे पुष्टि नहीं मिलती। यह हमारा सारा-का-सारा अस्तव्यस्त कर जाता है। यह आदमी हमें बड़े भ्रम में छोड़ जाता है। हम समझ ही नहीं पाते कि अब क्या करें और क्या न करें? असल में बुद्ध और महावीर से करने के सूत्र निकलते हैं; कृष्ण से होने का सूत्र निकलता है। बुद्ध और महावीर से "डूइंग' के लिए रास्ता मिलता है, कृष्ण से सिर्फ "बीइंग' के लिए रास्ता मिलता है। कृष्ण सिर्फ "हैं'।

एक झेन फकीर से किसी आदमी ने जाकर पूछा है कि मुझे ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि तुम मुझे देखो और सीख लो। वह आदमी बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढे खोद रहा है। उसने थोड़ी देर तो देखा, उसने कहा कि गङ्ढा खोदना मैं बहुत देख चुका हूं, मैंने बहुत खोदे हैं, आप कृपा करके ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम मुझे देखकर नहीं सीख सकते, तो मैं और कैसे सिखा सकता हूं; मैं ध्यान हूं! मैं जो भी कर रहा हूं, वह ध्यान है। मेरे गङ्ढे खोदने को ठीक से देखो। उस आदमी ने कहा, मुझे तो लोगों ने भेजा था कि बड़े ज्ञानी के पास भेज रहे हैं, मैं भी कहां आ गया। गङ्ढा खोदना ही मुझे देखना होता तो मैं कहीं भी देख लेता। उस फकीर ने कहा, एक-दो दिन रुक जाओ।

कभी वह फकीर खाना खाने बैठता, कभी वह सो जाता, कभी वह स्नान करता, कभी वह गङ्ढा खोदता, कभी बीज बोता, दो दिन में वह आदमी घबड़ा गया, उसने कहा, मैं ध्यान सीखने आया हूं, इन सब बातों में मुझे कोई मतलब नहीं है। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं करना नहीं सिखाता, मैं होना सिखाता हूं। अगर तुम मुझे गङ्ढा खोदते देखो तो समझो कि ध्यान कैसे गङ्ढा खोदता है। अगर तुम मुझे खाना खाते देखते हो, तो देखो कि ध्यान कैसे खाना खाता है? मैं ध्यान करता नहीं, मैं ध्यान हूं। उस आदमी ने कहा, मैं भी किस पागल के पास आ गया! मैंने सदा यही सुना था कि ध्यान किया जाता है, अब तक मैंने सुना नहीं कि कोई ध्यान होता है। उस फकीर ने कहा, यह तो बहुत मुश्किल सवाल है कि पागल हम दोनों में से कौन है। और हम दोनों तो इसको तय कर ही न सकेंगे।

हम सबने प्रेम किया है, हम कभी प्रेम नहीं हुए हैं, इसलिए अगर कोई आदमी हमारे बीच आ जाए जो प्रेम है, तो मुश्किल में डाल देगा। क्योंकि हम तो प्रेम करते हैं। "लव एज़ एक ऐक्ट' हमारे लिए आता है। "लव एज़ बीइंग' हमारे लिए कभी नहीं है। इसको प्रेम करते, उसको प्रेम करते, कभी करते, कभी नहीं करते, वह हमारा कामधाम है। लेकिन एक आदमी जो प्रेम है, वह हमें मुश्किल में डाल देता। उसका होना प्रेम है। वह जो भी करता है वह प्रेम है। वह जो नहीं करता, वह भी प्रेम है। वह लड़ता है तो प्रेम है, वह गले लगता है तो प्रेम है--वह जो भी करता है। वह आदमी हमें मुश्किल में डाल देगा। हम उससे बहुत कहेंगे कि भाई, हमें प्रेम करो; वह कहेगा प्रेम मैं कैसे करूं, मैं प्रेम हूं; प्रेम तो वे कर सकते हैं जो प्रेम न हों।

कृष्ण की यही कठिनाई है। कृष्ण का अस्तित्व शून्य है, शून्य हुए नहीं है वह। उन्होंने कुछ खाली नहीं किया, उन्होंने कुछ हटाकर जगह रिक्त नहीं बनाई, उन्होंने तो जो है, उसको स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया इसलिए शून्य हो गए। इस शून्यता में और बुद्ध और महावीर की शून्यता में आखिरी क्षण के एक क्षण पहले तक फर्क रहेगा। बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण तक होंगे कुछ। आखिरी छलांग में न-कुछ हो जाएंगे। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन न-कुछ हैं। यह शून्यता, जिसको कहें "लिविंग नथिंगनेस', जीवंत शून्यता है। बुद्ध और महावीर की शून्यता जीवंत नहीं है। जीने के आखिरी क्षण तक तो वे उस शून्यता से भरे रहते हैं जो शून्यता हम पहचान लेते हैं कि यह-यह खाली किया है, आखिरी क्षण में छलांग लेते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध, दोनों कहेंगे, लौटना नहीं है। लौटना नहीं है। लेकिन कृष्ण राधा से कह सकता है कि हम बहुत बार पहले भी आए और नाचे, और बहुत बार फिर भी आएंगे और नाचेंगे।

बुद्ध और महावीर के लिए शून्यता महामृत्यु है। उसके बाद कोई लौटना नहीं है, खो जाना है। वह आवागमन का बंद हो जाना है। कृष्ण कह सकता है कि आवागमन से मुझे क्या डर है? मैं शून्य हूं ही। मुझे मोक्ष में और ज्यादा क्या मिलेगा। मैं जहां हूं वहां मोक्ष है ही। मैं आता रहूंगा। इसलिए वह बड़ी अदभुत बात कहते हैं। वह अर्जुन से कहते हैं कि जब भी मुसीबत हो, मैं आ सकता हूं। जब भी धर्म की ग्लानि हो, मैं आ जाऊंगा। ऐसा बुद्ध और महावीर नहीं कह सकते। ऐसा उनका कोई वक्तव्य नहीं है कि दुनिया में मुसीबत हो, अंधेरा हो, बीमारी हो, तकलीफ हो, अधर्म हो, तो मैं आ जाऊंगा। क्योंकि वह कहेंगे, मैं आऊंगा कैसे, मैं तो मुक्त हो चुका होऊंगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, तुम फिक्र मत करना, कोई मुसीबत हो तो मैं आ सकता हूं। आ सकने का यह मतलब नहीं है कि आ जाएंगे। आ सकने का कुछ मतलब यह है कि इस आदमी को आने-जाने में कोई फर्क नहीं है, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। यह शून्य है ही, इसलिए आने से क्या बिगड़ेगा; कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।

शून्यता का यह फर्क है।

और महावीर और बुद्ध शून्यता को मुक्ति के अर्थों में ही ले पाएंगे, क्योंकि उनके जीवन भर मुक्ति की आकांक्षा ही उनकी साधना है। इसलिए जब शून्यता आएगी तो वे कहेंगे, हम मुक्त हुए, विश्राम में गए। अब लौटते नहीं हैं। "प्वाइंट आफ नो रिटर्न', अब इससे लौटना नहीं है। अब लौटने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि लौटने का उनके लिए एक ही मतलब साफ होगा कि वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जंजाल, वही संसार, वही उपद्रव, वही मुसीबत। अब लौटना नहीं है। अब हम सबके बाहर हुए। इसलिए शून्य की घटना जब उनके चित्त में घटेगी तो वह डूब जाएंगे उसमें, खो जाएंगे विराट में। वह नहीं लौटने की बात कर सकते। लेकिन कृष्ण के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। वह क्रोध में भी वही हैं, प्रेम में भी वही हैं, राग में भी वही हैं, सब में भी वही हैं। इसलिए वह कहेंगे, अगर लौटना है तो मजे से लौट आएंगे। उसमें कोई तकलीफ नहीं है। इधर कोई बेचैनी, कोई कठिनाई नहीं होती। आना-जाना हो सकता है। इसमें बाधा नहीं है। इसलिए वह कह सकते हैं। उनका शून्य जीवंत है।

लेकिन अनुभूति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे महावीर और बुद्ध का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। चाहे कृष्ण का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन महावीर और बुद्ध का आनंद जो है, वह विश्राम में ले जाएगा। कृष्ण का जो आनंद है, वह हो सकता है विराट सक्रियता में ले जाए। तो अगर हम ऐसा शब्द बना सकें, "एक्टिव वॉयड', सक्रिय शून्य, तो कृष्ण पर लागू होगा। अगर हम ऐसा कोई बना सकें, निष्क्रिय शून्य, "नॉनएक्टिव वॉयड', तो वह महावीर और बुद्ध पर लागू होगा। अनुभूति तो आनंद की ही होगी, लेकिन एक आनंद सृजनात्मक हो जाएगा और एक आनंद लीन हो जाएगा। वह फर्क है। एकाध सवाल और पूछ लें तो फिर हम बैठें।


"बुद्ध पूर्णता अर्थात महाशून्यता के बाद भी तो चालीस-बयालीस साल जीते हैं?'


बुद्ध जीते हैं। महावीर भी चालीस साल जीते हैं, बुद्ध भी चालीस साल, बयालीस साल जीते हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं मरने के पहले कि वह जो निर्वाण मुझे हुआ था चालीस साल पहले, वह निर्वाण था, अब जो हो रहा है, वह महानिर्वाण है। पहले निर्वाण में बुद्ध ने वही शून्य पाया था जो हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे महानिर्वाण में बुद्ध उस शून्य को पाते हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ता, जो कृष्ण को दिखाई पड़ सकता है। तो बुद्ध तीस-चालीस साल जीते हैं। उस जीने में भी परम शून्य नहीं हैं। उस जीने में भी एक छोटी-सी बाधा तो है ही। उस जीने में भी अभी कष्ट है। अभी होना चल रहा है। इसलिए बुद्ध अगर गांव-गांव जा भी रहे हैं, तो वह करुणावश जा रहे हैं, आनंदवश नहीं। अगर वह दूसरे को समझा रहे हैं तो करुणा के कारण, कि जो मुझे मिला है मैं आपको भी कह दूं कि शायद आपको मिल जाए। लेकिन कृष्ण अगर दूसरे को कुछ कह रहे हैं, तो आनंद के कारण, वह कोई करुणा के कारण नहीं। कृष्ण में करुणा को न खोज पाओगे तुम।

बुद्ध का व्यक्तित्व "कम्पैसन' है। चालीस साल करुणावश वह जा रहे हैं, आ रहे हैं, लेकिन, वह आखिरी क्षण की प्रतीक्षा है जब यह आना-जाना भी छूट जाएगा। इससे भी मुक्ति होगी। इसलिए बुद्ध कहते हैं, दो तरह के निर्वाण हैं। एक निर्वाण वह है, जो समाधि से मिलता है। और एक महानिर्वाण है, जब कि शरीर भी खो जाता है--मन ही नहीं खोता है, शरीर भी खोता है। वही परम निर्वाण है। परम शून्य उससे ही मिलेगा।

कृष्ण के लिए ऐसा नहीं है। कृष्ण के लिए निर्वाण और महानिर्वाण दो नहीं हैं, एक ही हैं।



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...