बुधवार, 31 अगस्त 2022

पतन या विकास 2

 पश्चिम के बहुत हंसोड़ लेखक मार्क टवेन ने लिखा है कि मैं जब सत्रह साल का था और विश्वविद्यालय से पहली दफा घर आया, तो मुझे लगा—अरे, मेरे माता—पिता कितने गंवार हैं! फिर जब मैं चौबीस वर्ष का हो गया और विश्वविद्यालय से सारी शिक्षाएं पूरी कर के लौटा, तब मैं बड़ा चकित हुआ कि इन सात—आठ सालों में मेरे मां—बाप ने बड़ा विकास कर लिया, ये बड़े बुद्धिमान हो गए। जैसे—जैसे समझ बढ़ी वैसे—वैसे माता—पिता में बुद्धिमत्ता दिखाई पड़ी। जितनी समझ कम थी, उतने माता—पिता बुद्ध मालूम होते थे। जवानी में हर युवक सोचता है कि मां—बाप मेरे मूढ़ हैं।

क्यों? 

सोचता है मैं विकास कर रहा हूं। मैं आगे जा रहा हूं। मेरे मां—बाप को पता क्या है? ये अभी भी पुराने ढर्रे के लोग अभी भी पुरानी रूढ़ि में चल रहे हैं और जी रहे हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है। जिंदगी कहां से कहां चली गई, इन्हें कुछ पता नहीं है। जवानी में हर आदमी क्रांतिकारी होता है और सोचता है कि मैं जिंदगी को बड़े आगे ले जा रहा हूं। वह सिर्फ जवानी का भ्रम है। पक्षी जब तक उसकी आंखें बंद हैं यही सोचता होगा कि मैं आगे बढ़ता जा रहा हूं कितना आगे बढ़ता जा रहा हूं! कितना दूर निकल आया, मां बाप को कितने पीछे छोड़ आया! बेचारी मां, वहीं के वहीं हैं। जब आंख खुलती है, तब उसे पता चलता है कि मैं दूर तो निकल आया लेकिन आगे नहीं निकल आया हूं। दूर निकल आना अनिवार्यरूप से आगे निकल जाना नहीं है। दूर निकल जाना गिरना भी हो सकता है, उठना भी हो सकता है। और उठना तो आंख खुलने के बाद ही संभव है। क्योंकि आंख खुली हो तभी पंखों का सदुपयोग हो सकता है।

अब तुम होमापक्षी को खोजने मत निकल जाना! नहीं तो कहीं नहीं मिलेगा। यह बात हो ही नहीं सकती कि इतनी ऊंचाई पर मां अंडा दे। ऊंचाई पर रहेगी कैसे? घोंसला कहां बनाएगी? अंडे को रखेगी कहां? इतनी ऊंचाई तो कोई भी नहीं है जहां से अंडा गिरे और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते पक्षी निकल आए; और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते पंख निकल आएं; और गिरते ही गिरते, गिरते ही गिरते आंखें खुल जाएं, ऐसी तो कोई ऊंचाई नहीं है। यह प्रतीक कथा है। सोमा भी कोई जड़ी—बूटी नहीं है, वह परमात्मा को पी जाने का नाम है। वह परम औषधि को पी जाने का नाम है। ये प्रतीक हैं। जब कोई व्यक्ति सोमरस पी लेता है—सोमरस यानी प्रभु—रस; रसों वै सः—जब प्रभु के रस को कोई पी लेता है, तो फिर जो मस्ती आती है, वह कभी टूटती नहीं। यहां तो जितने भी रस उपलब्ध हैं सबकी मस्ती टूट ही जाती है। क्षणभंगुर है। अभी है, अभी समाप्त हो जाएगी।

कीमती से कीमती शराब भी कितनी देर काम आएगी? थोड़ी देर विस्मरण हो जाता है, फिर सब वही जाल शुरू हो जाता है। मगर भक्ति का एक ऐसा रस है, एक ऐसी मधुशाला है, जहां अगर तुमने पी लिया, तो बस पी लिया। उसको पीते ही तुम मिट जाते हों—विस्मरण नहीं होते, मिट ही जाते हो, गल ही जाते हो, खो ही जाते हो।

सोमा प्रतीक है परम रस का। और होमा प्रतीक है उस परम गृह का, उस मातृगृह का, उस मातृभूमि का जहां से हम आए हैं। हम बड़ी ऊंचाइयों से आ रहे हैं। हम अगम्य ऊंचाइयों से आ रहे हैं। हमारे तथाकथित गौरीशंकर इत्यादि कुछ भी नहीं हैं, बच्चों के खिलौने हैं, जिन ऊंचाइयों से हम आ रहे हैं। हम परमात्मा से आ रहे हैं। कोई अभी अंडे में ही है। जो अंडे में ही है, उसे धर्म शब्द अर्थहीन मालूम होता है। उसे हैरानी होती है लोग जब धर्म चर्चा के लिए जाते हैं, या सत्संग के लिए जाते हैं, वह कहता है—क्या करते हो? मैं सिनेमा जा रहा हूं चलो वहा! वहां कुछ रस है, कुछ आनंद; तुम जाते कहां हो? धर्म में रखा क्या है? अभी वह अंडे में है। जो अंडे में है, उसे अंडे के बाहर क्या है यह पता नहीं हो सकता। 

इस दुनिया में अधिक लोग अंडे में हैं। अभी अंडा भी नहीं टूटा, वे गिरते ही जा रहे हैं गिरते ही जा रहे हैं। कुछ लोग अंडे में ही रह कर मर जाते हैं।

अंडा भी तभी टूट सकता है जब तुम थोड़े पंख फड़फड़ाओ। तुम जरा भीतर से चोंच मारो! तुम अंडे से राजी मत हो जाओ! तुम अपनी सुरक्षा से राजी मत हो जाओ! तुम थोड़े—से अभियान करो, थोड़ी खोजबीन करो, थोड़ी जिज्ञासा करो— ! अंडा टूटेगा, मगर तुम कुछ भीतर से करोगे तो टूटेगा। बाहर तो कोई तोड़ नहीं सकता। बाहर से यह अंडा तोड़ा नहीं जा सकता, इसकी कुंजी भीतर से ही तोड़ी जा सकती है। बाहर से तो कोई तोड़ेगा तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि तुम भीतर से रक्षा करने लगते हो। तुम आत्मरक्षा में लग जाते हो। तुम भयभीत हो जाते हो। तुम्हीं साहस जुटाओगे तो अंडा टूटेगा। 

कुछ का अंडा टूट जाता है, मगर उनकी आंखें नहीं खुलतीं। फिर वे बंद आंखों से गिरना शुरू हो जाते हैं। ऐसे लोग धर्म के संबंध में विचार तो करते हैं, लेकिन धर्म का आचरण नहीं करते। सोचते हैं। कहते हैं, धर्म अच्छी बात है, ईश्वर इत्यादि की सैद्धांतिक चर्चा करते हैं, गीता इत्यादि पढ़ते हैं,  शब्द कंठस्थ कर लेते हैं, लेकिन उनके जीवन में कोई रंग नहीं होता। जीवन को नहीं रंगते। बातचीत ही होता है धर्म। बकवास होता है धर्म। बहुत लोग ऐसे ही बकवास करते समाप्त हो जाते हैं।

बहुत थोड़े से सौभग़यशाली लोग हैं जो आंख खोलने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। भजन से खुलती है आंख। भजन की ऊर्जा में ही आंख के खुलते की संभावना—या ध्यान से खुलती है आंख। एक ही बात को कहने के दो ढंग। ध्यान से या भजन से आंख खुलती है। भजन के संबंध में मत सोचते रहो, भजन करो। धर्म तुम्हारा कृत्य हो तो आंख खुलेगी। और आंख खुलते ही क्रांति घट जाती है। आंख खुलते ही दिखाई पड़ता है—तुम गिर रहे हो। रोज—रोज गिरते जा रहे हो। हम सब मृत्यु के मुंह में गिरते जा रहे हैं। वही है जमीन से टकराकर टूट जाना।

देखते नहीं कितने लोग टूटकर गिर गए हैं और अपनी कब्रों में पड़े हैं? तुम भी कितनी देर चलोगे? जल्दी ही टकरा जाओगे, टूटोगे और कब्र में समा जाओगे। कोई भी खो गई घडी वापस नहीं मिलती। जो समय गया, गया। आंख खुलते ही दिखाई पड़ता है कि बहुत मैं गंवा चुका हूं। अब और गंवाने की जरूरत नहीं।  दिशा रूपातरित हो जाती है।

पंख तो तुम्हारे पास ही हैं, आंख न हो तो अपने पंख भी नहीं दिखाई पड़ते। आंख न हो तो मैं कितनी संपदा लेकर पैदा हुआ हूं यह भी दिखाई नहीं पड़ता। आंख न हो तो पता ही नहीं चलता कि मेरे भीतर हीरे—जवाहरातों की खदानें हैं। प्रभु का राज्य मेरे भीतर है। परमात्मा ने पूरा पाथेय देकर भेजा है। मगर आंख तो चाहिए ही चाहिए। कहते रहते हैं बुद्ध और क्राइस्ट और कृष्ण कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है, तुम सुन भी लेते हो फिर अपनी दुकान पर बैठ जाते हो। सुन लेते हो और अनसुना कर देते हो। 

कुछ लोग सौभाग्यशाली हैं, जिनकी आंख खुलती है। बस आंख खुलने का क्षण संन्यास का क्षण है। फिर उसके बाद रूपांतरण हो जाता है। विलोम शुरू हुआ, वापसी की यात्रा शुरू हुई। बेटा बाप की तरफ वापिस लौटने लगा। जो अदम प्रभु के राज्य से निष्कासित हो गया था, वह फिर प्रभु की तलाश में चल पड़ा। अपने घर की खोज।

इस होमापक्षी की कथा को कथा मान कर तुम पढ़ लोगे तो चूक जाओगे इसका रस। इसमें पूरी प्रक्रिया छिपी हुई है।

ओशो रजनीश 



सोमवार, 29 अगस्त 2022

पतन या विकास 1

वेदों में होमापक्षी की कथा है। यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊंचे पर रहती है। वहीं पर अंडे देती है। अंडा देते ही वह गिरने लगता है। परंतु इतने ऊंचे से गिरता है कि गिरते—गिरते बीच में ही फूट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते—गिरते ही उसकी आंखें खुलती हैं और पंख निकल आते हैं। आंखें खुलने से जब वह बच्चा देखता है कि मैं गिर रहा हूं और जमीन पर गिर कर चूर—चूर हो जाऊंगा, तब वह एकदम अपनी मां की ओर फिर ऊंचे चढ़ जाता है। 

 यह कथा किसी पक्षी की कथा नहीं, मनुष्य की कथा है। मनुष्य के पतन, मनुष्य के बोध की कथा है। ऐसा ही मनुष्य है। आकाश में हमारा घर है, ऊंचाइयों पर हमारा घर है, लेकिन जन्म के साथ ही हम गिरना शुरू हो जाते हैं। गिरने का कोई अंत नहीं है। क्योंकि खाई अतल है। कोई तल नहीं है खाई का। हम गिरते जा सकते हैं और गिरते जा सकते हैं। ऐसी कोई सीमा नहीं है जहां अनुभव में आए कि बस इसके आगे गिरना और नहीं हो सकता। और भी हो सकता है, और भी हो सकता है।

गिरने का कोई अंत नहीं है। गिरते ही गिरते किसी दिन आंख खुलती है। गिरने की चोट से ही आंख खुलती है। गिरने की पीड़ा से ही आंख खुलती है। और उसी आंख के खुलने में मनुष्य को अपने घर की याद आनी शुरू  होती है। उस आंख का खुलना है—दर्शन, दृष्टि। नहीं तो हम अंधे हैं। ये बाहर की आंखें खुली हैं इससे यह मत सोच लेना कि तुम्हारे पास आंखें हैं। 

हमारी आंखें वैसी ही हैं जैसे तुमने मोर के पंख पर बनी आंखें देखी हों। उनसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता, आंखें भर हैं। हमारी आंखें मोरपंखी हैं। चित्रित हैं। दिखता कुछ नहीं है, सूझता कुछ नहीं है, बुझता कुछ नहीं है। टटोल—टटोल कर गिरते—उठते हम चलते रहते हैं। आंख तो तब है जब तुम्हें अपने घर की याद आ जाए।

आंख तो तब है जब तुम्हें ऊंचाई का स्मरण आ जाए। तुम कहां से आए हो, किस स्रोत से आए हो, जब उसकी प्रतीति सघन हो जाए, तब समझना कि आंख खुली। और उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। उसी क्षण अनुलोम समाप्त हुआ, विलोम प्रारंभ हुआ। उसी क्षण हम परमात्मा से दूर जाने के बजाय उसके पास आने शुरू हो जाते हैं। और पंख हमारे पास हैं, आंख हमारे पास नहीं है। आंख हो तो हम पंखों का सम्यक उपयोग कर लें। शक्ति हमारे पास है, दृष्टि हमारे पास नहीं है। इसलिए हमारी शक्ति आत्मघाती हो जाती है।   मनुष्य ही अपना मित्र और मनुष्य ही अपना शत्रु है। शत्रु तब तक जब तक आंख नहीं। तब तक हाथ में आई हुई ऊर्जा भी आत्मघाती सिद्ध होती है। और मित्र उस दिन से जिस दिन आंख खुली। 

यहां पूरी चेष्टा यही है कि तुम्हें यह स्मरण आ जाए कि तुम्हारे पास आंख अभी है नहीं। तुम्हें स्मरण आ जाए कि तुम्हारा जो ज्ञान है थोथा है, झूठा है। तुम्हें ये स्मरण आ जाए कि जिसे तुमने जीवन समझा है, वह सपने से ज्यादा नहीं है और इससे तुम कुछ निकाल न पाओगे। जैसे कोई रेत से तेल निकालने की कोशिश कर रहा है, ऐसे ही जीवन में हारोगे। विषाद में मरोगे। ये आशाएं जो तुमने संजो रखी हैं, कोई भी काम आनेवाली नहीं हैं। क्योंकि इन आशाओं का अस्तित्व से कोई सामंजस्य नहीं है। ये तुम्हारे निजी सपने हैं। ये सपने पूरे नहीं हो सकते। अस्तित्व का सहयोग मिले तो कोई चीज पूरी हो सकती है। और अस्तित्व का सहयोग तभी मिलता है कि जब तुम्हारा अहंकार मरता है। अहंकार गिराता है, निर—अहंकार उठाता है। अहंकार अंधापन है, निर— अहंकार आंख है।

यह होमा बहुत ऊंचे आकाश में रहता है। ये तो प्रतीक हैं। हम ऊंचाई से आते हैं।

चार्ल्स डार्विन ने पश्चिम में एक विचार प्रतिपादित किया—विकासवाद का। वह विचार समस्त धर्मों के विपरीत है। विकासवाद का अर्थ होता है—हम नीचाई से ऊपर की तरफ आ रहे हैं। पतन नहीं हो रहा है, विकास हो रहा है। समस्त बुद्धों ने इससे भिन्न बात कही है। उन्होंने कहा है—मनुष्य का पतन हुआ है, हम ऊंचाई से नीचाई की तरफ आ रहे हैं। बुद्धों ने कहा है कि हम परमात्मा से नीचे गिरे हैं! यह हमारा पतन है। डार्विन ने कहा है—हम बंदरों से ऊपर उठे हैं। यह हमारा विकास है। बुद्धों ने कहा, परमात्मा हमारा पिता है और चार्ल्स डार्विन कहता है—बंदर हमारे पिता हैं। चार्ल्स डार्विन की बात के पीछे भी थोड़ा बल है; नहीं तो जीतती नहीं बात। ऊपर से देखने में ऐसा ही लगता कि डार्विन ही ठीक है, विकास हो रहा है, देखो बैलगाड़ी की जगह हवाई जहाज, तो विकास हो गया। यह जीवन को एक तरह से देखने का ढंग हुआ। तलवार की जगह एटम बम, यह विकास हो गया। लेकिन बुद्धों से पूछो। बुद्ध कहते हैं—तलवार जिसने खोजी थी और जिसने एटम बम खोजा है, इनमें विकास नहीं हुआ है, पतन हो गया, क्योंकि तलवार छोटी—मोटी हिंसा की खबर देती थी, एटम बम विराट हिंसा की खबर देता है। जिन्होंने तलवार से काम चला लिया था, वे बहुत बड़े हिंसक नहीं थे। हमारा तो एटम बम से भी काम नहीं चलता है। तो हाइड्रोजन बम! और अब और आगे बात चल रही है कि हम और भी नए बम खोज लें। हमारी चेष्टा यह है कि एक ही बम सारी पृथ्वी को डुबाने में समर्थ हो जाए। ये विकास है?

आदमी और विकृत हो गया।

जिंदगी को देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है, तुम कैसे देखते हो।

आज लोग ज्यादा पढ़े—लिखे हैं, निश्चित। आज से दस हजार साल पहले गैर पढ़े—लिखे लोग थे। कोई लिखना नहीं जानता था, कोई पढ़ना नहीं जानता था। इस हिसाब से देखो तो आज का आदमी विकसित है। किताब पढ़ लेता है, अखबार पढ़ लेता है। लेकिन दस हजार साल पहले जो आदमी था, वह ज्यादा शांत था, ज्यादा आनंदित था, ज्यादा प्रफुल्लित था। उसके जीवन में एक राग था, एक छंद था। वह सब छंद खो गया। उस छंद को देखो तो पतन हो गया है। अखबार की कतरनें बढ़ती चली गई हैं, छंद खोता चला गया है। पढ़ाई—लिखाई हो गई बहुत, मस्तिष्क में बहुत—सी सूचनाएं संगृहीत हो गई और हृदय बिलकुल सिकुड़ गया है। अगर मस्तिष्क को देखो, तो मात्रा बढ़ी है, मात्रा का विकास हुआ है। लेकिन अगर हृदय को देखो तो गुण गिरा है गुण का पतन हुआ है।

मूल्यवान क्या है—गुण या मात्रा? 

अगर आदमी को देखो तो कभी झोपड़ी में रहता था, फिर अच्छे मकानों में रहा, अब महलों में रह रहा है। आज गरीब से गरीब आदमी जो कपड़े पहने हुए हैं, वे सम्राटों को उपलब्ध नहीं थे। अशोक और अकबर के पास तुम जैसे अच्छे कपड़े नहीं थे। बिजली का पंखा नहीं था। न रेडियो था, न टेलीविजन था। आज गरीब से गरीब आदमी भी एक अर्थ में अशोक और अकबर से ज्यादा आगे हैं—विकसित हैं। चीजें बढ़ गइ।

आदमी के पास परिग्रह का विस्तार बढ़ गया। लेकिन परिग्रह के विस्तार को बढ़ाने वाला आदमी विकसित आदमी है? यह सवाल है। क्योंकि जितना परिग्रह बढ़ता है, उतनी चिंता बढ़ती है। उतनी अशांति बढ़ती है, उतनी बेचैनी बढ़ती है, उतनी विक्षिप्तता बढ़ती है। चीजों की गिनती कर रहे हो, तो विकास मालूम होता है। लेकिन चीजों का विकास क्या आदमी का विकास है?

लोग कहते हैं जीवन—स्तर बढ़ गया। स्टैंड़र्ड आफ लाइफ। अच्छा मकान है। अच्छी सड़कें हैं, अच्छे कपड़े हैं, अच्छी दवाइयां हैं—जीवन स्तर बढ़ गया। इसको जीवन—स्तर कहते हो? बस, इतने पर जीवन समाप्त हो जाता है? जीवन गुण की बात है।

डार्विन की बात अगर हम केवल मात्रा को सोचें तो ठीक मालूम होती है। अगर भीतर के गुणों को सोचें तो ठीक नहीं मालूम होती।

यह होमा की कथा मनुष्य की चेतना के निरंतर पतन की कथा है।

इसलिए इस देश में हमने जो विभाजन किया है, वह देखते हो? चार कालों में समय को बांटा है। पहला काल, सतयुग। फिर द्वापर। फिर त्रेता। फिर कलि। श्रेष्ठतम युग पहले। फिर प्रतिक्षण पतन होता जाता है। फिर एक—एक टांग टूटती जाती है। आदमी अपंग होकर गिर पड़ता है कलि में। दोनों हाथ, दोनों पैर, सब टूट गए। इसके पीछे बड़ा गहरा मनोविज्ञान है। इसे तुम एक—एक आदमी की जिंदगी में भी देख सकते हो।

बच्चा पैदा होता है, तब वह सतयुग में होता है। बच्चे के जीवन में श्रद्धा होती है, सरलता होती है, निर्दोष भाव होता है। सौंदर्य होता है। आह्लाद होता है। आश्चर्यविमुग्ध बच्चा जीता है। छोटे बच्चे को देखो, अभी— अभी ताजे पैदा हुए बच्चे को देखो! वह सतयुग में है। सतयुग के लिए तुम्हें दार्शनिक सिद्धातों में जाने की जरूरत नहीं है, छोटे बच्चे को देखो, वह सतयुग में है। फिर धीरे— धीरे पतन शुरू होता है। अहंकार पैदा होगा। पतन शुरू हुआ। फिर परिग्रह बढ़ेगा। पतन और शुरू हुआ। और आखिर में तुम एक आदमी को देखो, बुढ़ापे में, वह कलियुग है। सब यंत्रवत हो जाता है। जिंदगी बोझ हो जाती है। बूढ़ा आदमी मशीन की तरह हो जाता है। जीता है किसी तरह, सांस लेता किसी तरह, अब मरने की तैयारी है, मरने के सिवाय और कोई भविष्य नहीं है।

इसलिए इस देश में हमने कहा है कि कलियुग के बाद प्रलय हो जाएगी। मृत्यु! कलियुग के बाद फिर कोई और समय नहीं बचता, मृत्यु ही बचती है। यह आदमी के सामान्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है। और जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है, वही मनुष्य जाति की भी कहानी है।

होमापक्षी गिरना शुरू होता है ऊंचाई से, परमात्मा के घर से। पहले अंडे में छिपा होता है। फिर अंडा भी टूट जाता है—गिरते—गिरते—गिरते। फिर पंख भी निकल आते हैं—गिरते—गिरते—गिरते। फिर आंख भी खुल जाती है—गिरते—गिरते। और जब आंख खुलती है तब उसे समझ में आता है कि क्या हो रहा है! जब तक आंख नहीं खुली थी, तब तक शायद वह सपना देखता हो कि मैं ऊंचाइयों पर जा रहा हूं, विकास हो रहा है। कि मैं अपनी मां को कितना पीछे छोड़ आया! हर बच्चा ऐसा ही सोचता है कि मैं अपने मां—बाप को कितना पीछे छोड़ आया!

ओशो रजनीश 




रविवार, 28 अगस्त 2022

भगवान बुद्ध ओर यशोधरा-

 

गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्‍ध होने के बाद घर वापस लौटे। बारह साल बाद वापस लौटे। जिस दिन घर छोड़ा था, उनका बच्‍चा, उनका बैटा एक ही दिन का था। राहुल एक ही दिन का था। जब आए तो वह बारह वर्ष का हो चुका था। और बुद्ध की पत्‍नी यशोधरा बहुत नाराज थी। स्‍वभावत:। और उसने एक बहुत महत्‍वपूर्ण सवाल पूछा। उसने पूछा कि मैं इतना जानना चाहती हूं; क्‍या तुम्‍हें मेरा इतना भी भरोसा न था कि मुझसे कह देते कि मैं जा रहा हूं? क्‍या तुम सोचते हो कि मैं तुम्‍हें रोक लेती? मैं भी क्षत्राणी हूं। अगर हम युद्ध के मैदान पर तिलक और टीका लगा कर तुम्‍हें भेज सकते है, तो सत्‍य की खोज पर नहीं भेज सकते ?

तुमने मेरा अपमान किया है। बुरा अपमान किया है। जाकर किया अपमान ऐसा नहीं। तुमने पूछा क्‍यों नहीं? तुम कह तो देते कि मैं जा रहा हूं। एक मौका तो मुझे देते। देख तो लेते कि मैं रोती हूं, चिल्‍लाती हूं, रूकावट डालती हूं।

      कहते है बुद्ध से बहुत लोगों ने बहुत तरह के प्रश्‍न पूछे होंगे। मगर जिंदगी में एक मौका था जब वे चुप रह गए। जवाब न दे पाये। और यशोधरा ने एक के बाद एक तीर चलाए। और यशोधरा ने कहा कि मैं तुमसे दूसरी यह बात पूछती हूं कि जो तुमने जंगल में जाकर पाया, क्‍या तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो कि वह यहीं नहीं मिल सकता था?

      यह भी भगवान बुद्ध कैसे कहें कि यहीं नहीं मिल सकता था। क्‍योंकि सत्‍य तो सभी जगह है। और भ्रम वश कोई अंजान कह दे तो भी कोई बात मानी जाये, अब तो उन्‍होंने खुद सत्‍य को जान लिया है, कि वह जंगल में मिल सकता है, तो क्‍या बाजार में नहीं मिल सकता। पहले बाजार में थे तब तो लगता था सत्‍य तो यहां नहीं है। वह तो जंगल में ही है। वह संसार में कहां वह तो संसार के छोड़ देने पर ही मिल सकता है। पर सत्‍य के मिल जाने के बात तो फिर उसी संसार और बाजार में आना पडा तब जाना यहां भी जाना जा सकता था । पर यहां थोड़ा कठिन जरूर है, पर ऐसा कैसे कह दे की यहां नहीं है। वह तो सब जगह है। भगवान बुद्ध के पास इस बात का कोई उत्‍तर नहीं था। उन्‍होंने आंखे झुका ली।

      और तीसर प्रश्न जो यशोदा ने चोट की, शायद यशोदा समझ न सकी की बुद्ध पुरूष का यूं चुप रह जाना अति खतरनाक है। उस पर बार-बार चोट कर अपने आप को झंझट में डालने जैसा है, बुद्धों के पास क्‍या होता है। ध्‍यान-ध्‍यान-ध्‍यान और सन्‍यास। सो इस आखरी चोट में यशोदा उलझ गई। तीसरी बात उसने कहीं, राहुल को सामने किया और कहा कि ये तेरे पिता है। ये देख, ये जो भिखारी की तरह खड़ा है, हाथ में भिक्षा पात्र लिए।  यहीं है तेरे पिता। ये तुझे पैदा होने के दिन छोड़ कर कायरों की तरह भाग गये थे। अंधेरे में अपना मुहँ छूपाये। जब तू मात्र के एक दिन का था। अभी पैदा हुआ नवजात। अब ये लौटे है, तेरे पिता, देख ले इन्‍हीं जी भर कर। शायद फिर आये या न आये। तुझे मिले या न मिले। इनसे तू अपनी वसीयत मांग ले। तेरे लिए क्‍या है इनके पास देने के लिए। वह मांग ले।

  यह बड़ी गहरी चोट थी। बुद्ध के पास देने को था ही क्‍या। यशोधरा प्रतिशोध ले रही थी बारह वर्षों का। उसके ह्रदय के घाव जो नासूर बन गये थे। बह रहा था पीड़ा और संताप का मवाद। नहीं सूखा था वो जख्‍म जो बुद्ध उस रात दे कर चले गये थे। लेकिन उसने कभी सोचा भी नहीं था कि ये घटना कोई नया मोड़ ले लेगी। वह तो भाव में बहीं जा रही थी। बात को इतने आगे तक खींच लिया था अब उस का तनाव उसकी तरफ वापस लौटेगा। इस की और उसका ध्‍यान गया ही नहीं। भगवान जो इतनी देर से शांत बैठे थे उनके चेहरे पर मंद हंसी आई, यशोधरा का क्रोध और भभक उठा। उस इस बात का एहसास भी नहीं हो रहा था की वह बंध रही है मकड़ी की तरह अपने ही ताने बाने में।

      भगवान ने तत्क्षण अपना भिक्षा पात्र सामने खड़े राहुल के हाथ में दे दिया। यशोधरा कुछ कहें या कुछ बोले। यह इतनी जल्‍दी हो गया। कि उसकी कुछ समझ में नहीं आया। इस के विषय में तो उसने सोचा भी नहीं था। भगवान ने कहा,बेटा मेरे पास देने को कुछ और है भी नहीं, लेकिन जो मैंने पाया है वह तुझे दूँगा। जिस सर्व सब के लिए मैने घर बार छोड़ा तुझे तेरी मां, और इस राज पाट को छोड़, और आज मुझे वो मिल गया है। मैं खुद चाहूंगा वही मेरे प्रिय पुत्र को भी मिल जाये। बाकी जो दिया जा सकता है। क्षणिक है। देने से पहले ही हाथ से फिसल जाता हे। बाकी रंग भी कोई रंग है। संध्‍या के आसमान की तरह,जो पल-पल बदलते रहते है। मैं तो तुझे ऐसे रंग में रंग देना चाहता हूं जो कभी नहीं छुट सकता। तू संन्‍यस्‍त हो जा।

      बारह वर्ष के बेटे को संन्‍यस्‍त कर दिया। यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। उसने कहां ये आप क्‍या कर रहे है।

      पर बुद्ध ने कहा,जो मेरी संपदा है वही तो दे सकता हूं। समाधि मेरी संपदा है, और बांटने का ढंग संन्‍यास है। और यशोधरा, जो बीत गई बात उसे बिसार दे। आया ही इसलिए हूं कि तुझे भी ले जाऊँ। अब राहुल तो गया। तू भी चल। जिस संपदा का मैं मालिक हुआ हूं। उसकी तूँ भी मालिक हो जा।

      और सच में ही यशोधरा ने सिद्ध कर दिया कि वह क्षत्राणी थी। तत्‍क्षण पैरों में झुक गई और उसने कहा, मुझे भी दीक्षा दें। और दीक्षा लेकर भिक्षुओं में, संन्‍यासियों में यूं खो गई कि फिर उसका कोई उल्‍लेख नहीं है। पूरे धम्म पद में कोई उल्‍लेख नहीं आता। हजारों संन्‍यासियों कि भीड़ में अपने को यूँ मिटा दिया। जैसे वो है ही नहीं। लोग उसके त्‍याग को नहीं समझ सकते। अपने मान , सम्‍मान, अहंकार को यूं मिटा दिया की संन्‍यासी भूल ही गये की ये वहीं यशोधरा है। भगवान बुद्ध की पत्‍नी। बहुत कठिन तपस्‍या थी यशोधरा की। पर वो उसपर खरी उतरी। उसकी अस्‍मिता यूं खो गई जैस कपूर। बौद्ध शास्‍त्रों में इस घटना के बाद उसका फिर कोई उल्‍लेख नहीं आता।

कैसे जीयी, कैसे मरी,कब तक जीयी, कब मरी, किसी को कुछ पता नहीं। हां राहुल का जरूर जिक्र आता है बौद्ध शास्‍त्रों में जब उसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्‍त हुआ, शायद वह सोलह साल का था। उस रात उसे मार ने डराया, वह संन्‍यासियों की कतार में बहुत दूर सोता था। एक साधारण सन्‍यासी की तरह। उस रात वह जब मार ने उसे डराया, तब वह गंध कुटी के बहार आ कर सो गया। भगवान बुद्ध की कुटिया को गंध कुटी कहते थे। उसी रात राहुल ब्रह्म ज्ञान को उपलब्‍ध हुआ। मात्र राहुल का भी बौद्ध ग्रंथों में यही वर्णन आता है। कठिन था जीवन, रोज-रोज भिक्षा मांग कर खानी होती थी। और जब आप अति विशेष हो तो आपको अपनी अति विशेषता को छोड़ना अति कठिन है। यशोधरा और राहुल ने छोड़ा, उन संन्यासियों की भीड़ में ऐसे गुम हो गये। यूं लीन हो गये, यूं डूब गये, इसको कहते है आन। कि आने के पद चाप भी आप न देख सके कोई ध्वनि भी न हुई, कोई छाया तक नहीं बन। तभी कोई अपने घर आ सकता है। बेन्ड बाजा बजा कर केवल आने का भ्रम पैदा कर देना है।

--ओशो



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...