गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 34

  मोह का टूटना


यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। 35।।


कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा; और हे अर्जुन, जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा।


ज्ञान का पहला आघात मोह पर होता है। ज्ञान की पहली चोट ममत्व पर होती है। या उलटा कहें, तो ममत्व के विदा होते ही ज्ञान की किरण, पहली किरण, फूटती है। मोह के नाश होते ही ज्ञान के सूर्य का उदय होता है। ये दोनों घटनाएं युगपत हैं, साइमल्टेनियस हैं। इसलिए दोनों तरह से कहा जा सकता है, प्रकाश के फूटते ही अंधकार विलीन हो जाता, या ऐसा कहें कि जहां अंधकार विलीन हुआ, हम जानते हैं कि प्रकाश फूट गया है।

कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है अर्जुन।

मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है?


पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं जरूर, रहूं जरूर; मिट न जाऊं--लस्ट फार लाइफ; जिजीविषा।

जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई मकान को मोह करता, तो मकान को कोई मोह नहीं करता। मकान का मोह--मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, सरवाइव कर सकूं--उसी मोह का विस्तार है। कोई धन को मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी रूट्स, उसकी जड़ उस मैं के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं।

अगर और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है। पति पत्नी को मोह करता; पत्नी पति को मोह करती; बाप बेटे को मोह करता, बेटा बाप को मोह करता। वे सब  बचने के उपाय हैं। मिट न जाऊं, बचूं सदा--जीने की ऐसी जो आकांक्षा है, वह मोह का गहरा रूप है। फिर बाकी सब आकांक्षाएं मोह की इसी आकांक्षा से पैदा होती हैं।

कभी-कभी हैरानी होती है। राह पर देखकर कभी अंधे, लंगड़े, लूले, भिखारी को, मन में सवाल उठा होगा, किसलिए जीना चाहता है? अंग-अंग गल गए हैं! किसलिए जीना चाहता है? कभी सवाल उठा होगा। उसी लिए, जिस लिए हम जीना चाहते हैं। अंग गल जाएं, लेकिन जीने का मोह नहीं गलता। आंखें चली जाएं, पैर टूट जाएं, आदमी सड़ता हो, फिर भी जीने का मोह नहीं पिघलता!

कई बार लगता है कि बूढ़े कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले। तो आप यह मत समझना कि वे सच ही उठ जाने को तैयार हैं। अगर आप सब मिलकर कोशिश करने लगें कि ठीक; उठवाए देते हैं! तब आपको पता चलेगा कि वे जब यह कह रहे हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले, तो वे सिर्फ एक शिकायत कर रहे हैं कि इस तरह जिंदा रखने में कोई मजा नहीं; और तरह जिंदा रखे। गहरे में मरने की आकांक्षा उनकी भी नहीं है।


यह खयाल रख लें, अगर परमात्मा हमारी सारी प्रार्थनाएं सुन ले, तो हम प्रार्थना करना सदा के लिए बंद कर दें। नहीं सुनता है, इसलिए किए चले जाते हैं। शायद इसीलिए नहीं सुनता है, क्योंकि हम अपने ही खिलाफ प्रार्थनाएं किए चले जाते हैं। क्योंकि पूरी कर दे, तो हम फिर भी शिकायत करेंगे कि तूने पूरी क्यों कर दी? हमारा यह मतलब थोड़े ही था! जब एक आदमी कहता है, हे प्रभु, अब तो उठा लो! तो उसका मतलब यह नहीं है कि उठा लो। उसका मतलब है, इस भांति जिंदा मत रखो, ढंग से जिंदा रखो! सांकेतिक भाषा में बोल रहा है।

कोई मरना नहीं चाहता।

आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग करते हैं! वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।

एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ, यह स्त्री मिले; यह कंडीशन है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता--उसका जीने का मोह इतना सघन है--कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।

एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी मेरी आकांक्षा थी, वैसा।

एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है।

जिनकी जीवन की गहन शर्तें हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है।

जीवन के इस मोह की फिर बहुत शाखाएं फैल जाती हैं। वे सभी चीजें, जो जीने में सहयोगी होती हैं, महत्वपूर्ण बन जाती हैं। इसलिए धन इतना महत्वपूर्ण है। लोग कहते हैं कि धन में कुछ भी नहीं रखा। गलत कहते हैं। मोह का प्राण है वहां। मोह की आत्मा धन में बसती है।

इतना धन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? क्या लोग पागल हैं? नहीं; लोग पागल नहीं हैं। धन के बिना जीना बहुत कठिन है। जीने की आकांक्षा जितनी प्रबल है, धन पर पकड़ भी उतनी ही प्रबल होती है। धन पर प्रबल पकड़ सिर्फ जीने की प्रबल पकड़ की सूचना देती है।

अगर महावीर या बुद्ध जैसे लोग सब धन छोड़कर चले जाते हैं, तो धन छोड़कर नहीं जाते हैं। अगर गहरे में देखें, तो जीवन का जो आग्रह है, वह छूटने की वजह से धन छूट जाता है। धन को करेंगे भी क्या बचाकर? कल हुआ जीवन, तो ठीक है; न हुआ, तो ठीक है। नहीं हुआ तो उतना ही ठीक है, जितना हुआ तो ठीक है।


ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही आता है।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है।

अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है--व्यक्त अज्ञान, मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, दौलत--फैलता चला जाता है।

और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांदत्तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चांदत्तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।

क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांदत्तारा मेरा नहीं है, वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है आदमी।


मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।


इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का फ्रोजन बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए परेशान था।

जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ आदमी परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है।

एक लहर अपने को बचाने में लग जाए, फिर दिक्कत में पड़ेगी। क्योंकि लहर सागर से अलग कुछ है भी नहीं। उठी है, तो भी सागर के कारण है, तो भी सागर के कारण; मिटेगी, तो भी सागर के कारण। नहीं थी, तब भी सागर में थी; है, तब भी सागर में है; नहीं हो जाएगी, तब भी सागर में होगी।

लेकिन एक लहर अगर सोचने लगे कि मैं अलग हूं; बस, लहर आदमी हो गई! अब लहर वही सब करेगी, जो आदमी करेगा। अब लहर सब तरफ से अपने को बचाने की कोशिश करेगी। भयभीत होगी मिट न जा, डरेगी। इस डर की कोशिश में लहर क्या कर सकती है? फ्रोजन हो जाए, बर्फ बन जाए, तो बच सकती है। सिकुड़ जाए, मर जाए। क्योंकि लहर तभी तक जिंदा है, जब तक बर्फ नहीं बनी। सब तरफ से सिकुड़ जाए, सख्त हो जाए।

अहंकार फ्रोजन हो जाता है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, लिक्विड नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता।

अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता।

यह भी खयाल रख लें कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।

असल में हम मोह को प्रेम कहकर बचाते रहते हैं। धोखा देने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है! हम मोह को प्रेम कहते हैं। बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पत्नी पति से कहती है कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। मोह है।


इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं सिर्फ। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए मालूम पड़ते हैं। वह सिर्फ मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही मालूम पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, जो नहीं रहे। बड़ी उलटी बातें हैं।

जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो हैं, बचे हैं, वे सिर्फ मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही रास्ता है। प्रेम तो मिटने का रास्ता है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।

इसलिए देखें, जितना आदमी जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोड़ी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। मकान बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।

दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।

कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।

लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह--परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। लेकिन गीत--अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य--अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का।

मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।

इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन!


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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