यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। ४६।।
क्योंकि मनुष्य का, सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर, छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।
कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे छोटे-छोटे नदी तालाब हैं, कुएं-पोखर हैं, झरने हैं, इन झरनों में नहाने से जो आनंद होता है, जो शुचिता मिलती है, ऐसी शुचिता तो सागर में नहाने से मिल ही जाती है अनेक गुना होकर। शब्दों के पोखर में, शास्त्रों के पोखर में जो मिलता है, उससे अनेक गुना ज्ञान के सागर में मिल ही जाता है। वेद में जो मिलेगा--संहिता में, शास्त्र में, शब्द में--वह ज्ञानी को ज्ञान में तो अनंत गुना होकर मिल ही जाता है।
इसमें दो बातें ध्यान रखने जैसी हैं। एक तो यह कि जो सीमा में मिलता है, वह असीम में मिल ही जाता है। इसलिए असीम के लिए सीमित को छोड़ने में भय की कोई भी आवश्यकता नहीं है। अगर ज्ञान के लिए वेद को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं है। सत्य के लिए शब्द को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं है। अनुभव के लिए शास्त्र को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं है--पहली बात। क्योंकि जो मिलता है यहां, उससे अनंत गुना वहां मिल ही जाता है।
दूसरी बात, सागर में जो मिलता है, ज्ञान में जो मिलता है, असीम में जो मिलता है, उस असीम में मिलने वाले को सीमित के लिए छोड़ना बहुत खतरनाक है। अपने घर के कुएं के लिए सागर को छोड़ना बहुत खतरनाक है। माना कि घर का कुआं है, अपना है, बचपन से जाना, परिचित है, फिर भी कुआं है। घरों में कुएं से ज्यादा सागर हो भी नहीं सकते। सागरों तक जाना हो तो घरों को छोड़ना पड़ता है। घरों में कुएं ही हो सकते हैं।
हम सबके अपने-अपने घर हैं, अपने-अपने वेद हैं, अपने- अपने शास्त्र हैं, अपने-अपने धर्म हैं, अपने-अपने संप्रदाय हैं, अपने-अपने मोहग्रस्त शब्द हैं। हम सबके अपने-अपने--कोई मुसलमान है, कोई हिंदू है, कोई ईसाई है--सबके अपने वेद हैं। कोई इस मूर्ति का पूजक, कोई उस मूर्ति का पूजक; कोई इस मंत्र का भक्त, कोई उस मंत्र का भक्त है। सबके अपने-अपने कुएं हैं।
कृष्ण यहां कह रहे हैं, इनके लिए सागर को छोड़ना खतरनाक है। हां, इससे उलटा, वाइस-वरसा हो सकता है। सागर के लिए इनको छोड़ने में कोई भी हर्ज नहीं है। क्योंकि जो इनमें मिलेगा, वह अनंत गुना होकर सागर में मिल ही जाता है।
इसलिए वह व्यक्ति अभागा है, जो अपने घर के कुएं के लिए--बाइबिल, कुरान, वेद, गीता...गीता भी! गीता का कृष्ण ने उल्लेख नहीं किया, कैसे करते! क्योंकि जो वे कह रहे थे, वही गीता बनने वाला था। गीता तब तक थी नहीं। मैं उल्लेख करता हूं, गीता भी! जो इनमें मिलता है, इससे अनंत गुना होकर ज्ञान में मिल ही जाता है। इसलिए जो इनके कारण ज्ञान के लिए रुकावट बनाए, इनके पक्ष में ज्ञान को छोड़े, वह अभागा है। लेकिन जो ज्ञान के लिए इन सबको छोड़ दे, वह सौभाग्यशाली है। क्योंकि जो इनमें मिलेगा, वह ज्ञान में मिल ही जाने वाला है।
लेकिन क्या मतलब है? ज्ञान का और वेद का, ज्ञान का और शास्त्र का फासला क्या है? भेद क्या है?
गहरा फासला है। जो जानते हैं, उन्हें बहुत स्पष्ट दिखाई पडता है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि किन्हीं भी दो चीजों का फासला जानने के लिए दोनों चीजों को जानना जरूरी है। जो एक ही चीज को जानता है, दूसरे को जानता ही नहीं, फासला कैसे निर्मित करे? कैसे तय करे?
हम शास्त्र को ही जानते हैं, इसलिए हम जो फासले निर्मित करते हैं, ज्यादा से ज्यादा दो शास्त्रों के बीच करते हैं। हम कहते हैं, कुरान कि बाइबिल, वेद कि गीता, कि महावीर कि बुद्ध, कि जीसस कि जरथुस्त्र। हम जो फासले तय करते हैं, वे फासले ज्ञान और शास्त्र के बीच नहीं होते, शास्त्र और शास्त्र के बीच होते हैं। क्योंकि हम शास्त्रों को जानते हैं। असली फासला शास्त्र और शास्त्र के बीच नहीं है, असली फासला शास्त्रों और ज्ञान के बीच है। उस दिशा में थोड़ी-सी सूचक बातें खयाल ले लेनी चाहिए।
ज्ञान वह है, जो कभी भी, कभी भी अनुभव के बिना नहीं होता है। ज्ञान यानी अनुभव, और अनुभव तो सदा अपना ही होता है, दूसरे का नहीं होता। अनुभव यानी अपना। शास्त्र भी अनुभव है, लेकिन दूसरे का। शास्त्र भी ज्ञान है, लेकिन दूसरे का। ज्ञान भी ज्ञान है, लेकिन अपना।
मैं अपनी आंख से देख रहा हूं, यह ज्ञान है। मैं अंधा हूं, आप देखते हैं और मुझे कहते हैं, यह शास्त्र है। नहीं कि आप गलत कहते हैं। ऐसा नहीं कि आप गलत ही कहते हैं। लेकिन आप कहते हैं, आप देखते हैं। आप जो आंख से करते हैं, वह मैं कान से कर रहा हूं। फर्क पड़ने वाला है। कान आंख का काम नहीं कर सकता।
इसलिए शास्त्र के जो पुराने नाम हैं, वे बहुत बढ़िया हैं। श्रुति, सुना हुआ--देखा हुआ नहीं। स्मृति, सुना हुआ, स्मरण किया हुआ, याद किया हुआ, मेमोराइज्ड--जाना हुआ नहीं। सब शास्त्र श्रुति और स्मृति हैं। किसी ने जाना और कहा। हमने जाना नहीं और सुना। जो उसकी आंख से हुआ, वह हमारे कान से हुआ। शास्त्र कान से आते हैं, सत्य आंख से आता है। सत्य दर्शन है, शास्त्र श्रुति हैं।
दूसरे का अनुभव, कुछ भी उपाय करूं मैं, मेरा अनुभव नहीं है। हां, दूसरे का अनुभव उपयोगी हो सकता है। इसी अर्थ में उपयोगी हो सकता है--इस अर्थ में नहीं कि मैं उस पर भरोसा कर लूं, विश्वास कर लूं, अंधश्रद्धालु हो जाऊं; इस अर्थ में तो दुरुपयोग ही हो जाएगा; हिन्ड्रेंस बनेगा, बाधा बनेगा--इस अर्थ में उपयोगी हो सकता है कि दूसरे ने जो जाना है, उसे जानने की संभावना का द्वार मेरे लिए भी खुलता है। जो दूसरे को हो सका है, वह मेरे लिए भी हो सकता है, इसका आश्वासन मिलता है। जो दूसरे के लिए हो सका, वह क्यों मेरे लिए नहीं हो सकेगा, इसकी प्रेरणा। जो दूसरे के लिए हो सका, वह मेरे भीतर छिपी हुई प्यास को जगाने का कारण हो सकता है। लेकिन बस इतना ही। जानना तो मुझे ही पड़ेगा। जानना मुझे ही पड़ेगा, जीना मुझे ही पड़ेगा, उस सागरत्तट तक मुझे ही पहुंचना पड़ेगा।
एक और मजे की बात है कि घर में जो कुएं हैं, वे बनाए हुए होते हैं, सागर बनाया हुआ नहीं होता। आपके पिता ने बनाया होगा घर का कुआं, उनके पिता ने बनाया होगा, किसी ने बनाया होगा। जिसने बनाया होगा, उसे एक सीक्रेट का पता है, उसे एक राज का पता है कि कहीं से भी जमीन को तोड़ो, सागर मिल जाता है। कुआं है क्या? जस्ट ए होल, सिर्फ एक छेद है। आप यह मत समझना कि पानी कुआं है। पानी तो सागर ही है, कुआं तो सिर्फ उस सागर में झांकने का आपके आंगन में उपाय है। सागर तो है ही नीचे फैला हुआ। वही है। जहां भी जल है, वहीं सागर है।
हां, आपके आंगन में एक छेद खोद लेते हैं आप। कुएं से पानी नहीं खोदते, कुएं से सिर्फ मिट्टी अलग करते हैं, परत तोड़ देते हैं, एक छेद हो जाता है; अपने ही घर में सागर को झांकने का उपाय हो जाता है।
लेकिन कुआं बनाया हुआ है। और अगर कुआं इसकी खबर लाए--रिमेंबरेंस--कि सागर भी है और सागर की यात्रा करवा दे, तब तो कुआं सहयोगी हो जाता है। और अगर कुआं ही सागर बन जाए और हम सोचें कि यही रहा सागर, तो फिर सागर की, असीम की यात्रा नहीं हो पाती; फिर हम कुएं के किनारे ही बैठे समाप्त होते हैं।
शास्त्र कुएं हैं। जो जानते हैं, खोदते हैं। और शब्द की सीमा में छेद बनाते हैं। जो कहा जा सकता है, उसकी सीमा में छेद बनाते हैं। और अनकहे की थोड़ी-सी झलक, थोड़ा-सा दर्शन करवाते हैं। इस आशा में कि इसको देखकर अनंत की यात्रा पर कोई निकलेगा। इसलिए नहीं कि इसे देखकर कोई बैठ जाएगा और तृप्त हो जाएगा।
कुआं सागर है, सीमा में बंधा। सागर कुआं है, असीम में मुक्त। शास्त्र ज्ञान है, सीमा में बंधा। ज्ञान शास्त्र है, असीम में मुक्त।
तो कृष्ण जब वेद की, शब्द की बात कर रहे हैं, तो निंदा नहीं है, सिर्फ निर्देश है। और निर्देश स्मरण में रखने योग्य है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल