सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 41

विषय-त्याग नहीं-- रस-विसर्जन मार्ग है—



दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। ५६।।


तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो गए हैं--राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है।





समाधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता...।

दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है।
इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पृहा नहीं है, सुख की जिसे आकांक्षा नहीं है।

ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख की आकांक्षा है, तो दुख की उद्विग्नता होगी। सुख की आकांक्षा नहीं है, तो दुख असमर्थ है फिर उद्विग्न करने में।

दुख को तो कोई भी नहीं चाहता है, दुख आता है। सुख को सभी चाहते हैं। इसलिए दुख को आने का एक ही रास्ता है, सुख की आड़ में; और तो कोई रास्ता भी नहीं है। दुख को तो कोई बुलाता नहीं, निमंत्रण नहीं देता। दुख को तो कोई कहता नहीं कि आओ। दुख का अतिथि द्वार पर आए, तो कोई भी द्वार बंद कर लेता है। दुख का तो कोई स्वागत नहीं करता। फिर भी दुख आता तो है। तो दुख कहां से आता है?

दुख, सुख की आड़ में आता है; वही है मार्ग। अगर बहुत ठीक से समझें, तो दुख सुख की ही छाया है। और भी गहरे में समझें, तो जो ऊपर से सुख दिखाई पड़ता है, वह भीतर से दुख सिद्ध होता है। कहें कि सुख केवल दिखावा है, दुख स्थिति है।

जैसे एक आदमी मछली मार रहा है नदी के किनारे बैठकर, तो कांटे में आटा लगा लेता है। आटे को लटका देता है पानी में। कोई मछली कांटे को पकड़ने को न आएगी। कोई मछली क्यों कांटे को पकड़ेगी? लेकिन आटे को तो कोई भी मछली पकड़ना चाहती है। मछली सदा आटा ही पकड़ती है, लेकिन आटे के पकड़े जाने में मछली कांटे में पकड़ी जाती है। आटा धोखा सिद्ध होता है, आवरण सिद्ध होता है; कांटा भीतर का सत्य सिद्ध होता है।

सुख आटे से ज्यादा नहीं है। हर सुख के आटे में दुख का कांटा है। और सुख भी तभी तक मालूम पड़ता है, जब तक आटा दूर है और मछली के मुंह में नहीं है--तभी तक! मुंह में आते ही तो कांटा मालूम पड़ना शुरू हो जाता है।

तो सुख सिर्फ दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो! तो फिर उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और दुख आ जाए, जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे हों और सूली आ जाए--वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है।

और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग रहा है, वह भी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल न किया हो। खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। आंख बंद करके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह जाए। हमें ही दिखाई पड़ सकता है।

सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भी बदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए मछली के मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता है, कांटे तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती।

एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति एकदम से बंद हो जाती है। लाखो रुपया! हृदय चले भी तो कैसे चले! इतने जोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाखो रुपये के सुख में चलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, इसलिए बंद हो जाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं चाहिए था, लोहे का फेफड़ा चाहिए था, तो लाखो रुपये की उत्तेजना में भी धडकता रहता। लाखो रुपये अचानक मिल जाएं, तो सुख भी भारी पड़ जाता है।

खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भी मात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख की मात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौर से उतरता नहीं।

यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को नहीं मार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुख मिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख के बाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहर निकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है।

सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते हैं, वह तत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो जाएगी। क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख में द्वार है, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर पूरा मिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय नहीं रह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है।

मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई है। उसकी पत्नी बहुत चिंतित और परेशान है, घबड़ा गई है। उस आदमी के हाथ में कभी सौ रुपये नहीं आए, इकट्ठे पांच लाख रुपये! पास में चर्च है। वह पादरी के पास गई है और उसने प्रार्थना की, पांच लाख की लाटरी मिल गई है, पति दफ्तर से लौटते होंगे। क्लर्क हैं, सौ रुपये से ज्यादा कभी देखे नहीं हैं हाथ में, पांच लाख! उन्हें किसी तरह इस सुख से बचाओ। कहीं कुछ हानि न हो जाए!

पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, एकदम से सुख पड़े तो खतरा हो सकता है, इंस्टालमेंट में पड़े तो खतरा नहीं हो सकता। हम आते हैं; हम खंड-खंड सुख देने का इंतजाम करते हैं।

पादरी बुद्धिमान था; आ गया, बैठ गया। पति घर लौटा। पादरी ने सोचा, पांच लाख इकट्ठा कहना ठीक नहीं, पचास हजार से शुरू करो। तो उसने पति को कहा कि सुना तुमने, पचास हजार लाटरी में मिले हैं! फिर आंखों की तरफ देखा कि इतना पचा जाए तो फिर और पचास हजार की बात करूं! लेकिन उस आदमी ने कहा, सच! अगर पचास हजार मुझे मिले हैं, यह सच है, तो पच्चीस हजार चर्च को दान देता हूं। पादरी का हार्ट-फेल हो गया। पच्चीस हजार! पांच पैसे कोई चर्च को देता नहीं था।

सुख का आघात अगर आकस्मिक हो, तीव्र हो, तो जीवनधारा तक टूट सकती है। तार टूट सकते हैं।

सुख भी उत्तेजना है--प्रीतिकर। अपने आप में तो सिर्फ उत्तेजना है। हमारे मनोभाव में प्रीतिकर है, क्योंकि हमने उसे चाहा है। इसलिए एक और बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि सब सुख कनवर्टिबल हैं, दुख बन सकते हैं। और सब दुख सुख बन सकते हैं। कुल सवाल इतना है कि चाह है। चाह का फर्क हो जाना चाहिए।

एक आदमी पहली दफा शराब पीता है, तो प्रीतिकर नहीं होता स्वाद। स्वाद तिक्त ही होता है, अप्रीतिकर ही होता है। इसलिए टेस्ट डेवलप करना होता है। शराब पीने वाले को स्वाद विकसित करना पड़ता है। फिर-फिर पीता है--मित्रों की शान में, लोगों की तारीफ में, कि मैं कोई कमजोर तो नहीं हूं--पीता है, अभ्यास हो जाता है। फिर वह तिक्त स्वाद भी प्रीतिकर लगने लगता है।

सिगरेट कोई पहली दफा पीता है, तो खांसी ही आती है, तकलीफ ही होती है। फिर सिगरेट के साथ जुड़ी है अकड़, सिगरेट के साथ जुड़ा है अहंकार, सिगरेट के साथ शान के प्रतीक जुड़े हैं। उस शान के लिए आदमी उस दुख को झेलता है और अभ्यासी हो जाता है। फिर वह सिगरेट का गंदा स्वाद--धुएं में कोई और अच्छा स्वाद हो भी नहीं सकता--प्रीतिकर लगने लगता है, सुख हो जाता है। दुख का भी अभ्यास सुख बना सकता है। और सुख के अभ्यास से भी दुख निकल आता है।

आए हैं आप मेरे पास, मैंने गले आपको लगा लिया; बहुत प्रीतिकर लगा है क्षणभर को। लेकिन मिनिट होने लगा, अब आप घबड़ा रहे हैं। दो मिनिट होने लगे, अब आप छूटना चाहते हैं। तीन मिनिट हो गए, अब आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट हो गए, अब आप घबड़ाते हैं कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं! पांच मिनिट हो गए, अब आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं!

यह हुआ क्या? पहले क्षण में कह रहे थे, हृदय से मिलकर बड़ा आनंद मिला है। पांच मिनिट में आनंद खो गया! अगर मिला था, तो पांच मिनिट में हजार गुना हो जाना चाहिए था। जब एक सेकेंड में इतना मिला, तो दूसरे में और ज्यादा, तीसरे में और ज्यादा। नहीं, वह पहले सेकेंड में भी मिला नहीं था, सिर्फ सोचा गया था। दूसरे सेकेंड में समझ बढ़ी, तीसरे में समझ और बढ़ी--पाया कि कुछ भी नहीं है। जिन हाथों को हम हाथों में लेने को तरसते हैं, थोड़ी देर में सिवाय पसीने के उनसे कुछ भी नहीं निकलता है।

सब सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं; सब दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और दुख कनवर्टिबल हैं, एक-दूसरे में बदल सकते हैं। इसलिए बहुत गहरे में दोनों एक ही हैं, दो नहीं हैं। क्योंकि बदलाहट उन्हीं में हो सकती है, जो एक ही हों। सिर्फ हमारे मनोभाव में फर्क पड़ता है, चीज वही है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता है।

इसलिए कृष्ण ने दो सूत्र कहे। पहला कि दुख में जो उद्विग्न न हो, दुख में जो अनुद्विग्नमना हो; दूसरा--सुख की जिसे स्पृहा न हो, जो सुख की आकांक्षा और मांग किए न बैठा हो। तीसरी बात--क्रोध, भय जिसमें न हों।

यहां एक बात बहुत ठीक से ध्यान में ले लें, क्योंकि उसके ध्यान में न होने से सारे मुल्क में बड़ी नासमझी है। कृष्ण कह रहे हैं कि जिसमें क्रोध और भय न हों, वह समाधिस्थ है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि जो क्रोध और भय को छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है--वे यह नहीं कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, जो समाधिस्थ है, उसमें क्रोध और भय नहीं पाए जाते हैं। इन दोनों बातों में गहरा फर्क है। क्रोध और भय जो छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है--ऐसा वे नहीं कह रहे हैं। जो समाधिस्थ हो जाता है, उसका क्रोध और भय छूट जाता है--ऐसा वे कह रहे हैं।

आप कहेंगे, इसमें क्या फर्क पड़ता है? ये दोनों एक ही बात हैं।
ये दोनों एक बात नहीं हैं। ये बहुत फासले पर हैं, विपरीत बातें हैं। जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और भय छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय को छोड़ने में ही लगा रहेगा, समाधि को कभी नहीं पा सकता। और जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और भय को छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय से लड़ेगा। और क्रोध से लड़कर आदमी क्रोध के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर आदमी भय के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर आदमी और सूक्ष्म भयों में उतर जाता है। क्रोध से लड़कर आदमी और सूक्ष्म तलों पर क्रोधी हो जाता है।

मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक आदमी की ख्याति हो गई कि उसने क्रोध पर विजय पा ली है। उसका एक मित्र उसके परीक्षण के लिए गया। सुबह थी, सर्दी थी अभी, लेकिन सूरज उग आया था। शायद साधु चार बजे रात से उठ आया होगा। आग जलाकर आग तापता था। फिर आग भी बुझ गई थी, फिर राख ही रह गई थी। अब भी साधु बैठा था। मित्र आया, उसने पास आकर नमस्कार किया और कहा कि थोड़ी-बहुत आग बची या नहीं? 

साधु ने कहा, नहीं; देखते नहीं, अंधे हो? कोई आग नहीं है, राख ही राख है। 
वह आदमी हंसा। उसने कहा कि नहीं बाबा जी, थोड़ी-बहुत तो बची ही होगी; राख के नीचे दबी होगी।
 साधु ने कहा, आदमी कैसे हो? मैं कहता हूं, नहीं है आग। उस आदमी ने कहा, जरा कुरेदकर तो देखें, शायद कहीं कोई चिनगारी पड़ी ही हो!
 साधु का हाथ अपने चिमटे पर चला गया। उसने कहा, तू आदमी है कि जानवर? मैं कहता हूं, नहीं है कोई आग। उस आदमी ने कहा, बाबा जी, अब तो चिनगारी ही नहीं, लपट बन गई है।

वह जिस आग की बात कर रहा है, वह क्रोध है। वह जिस राख की बात कर रहा है, वह ऊपर का दमन है। एक छोटी-सी चर्चा, पता नहीं उस राख में आग थी या नहीं, लेकिन साधु में काफी आग थी, वह निकल आई। जरा-सी चोट और वह निकल आई। उस आदमी ने कहा, मैंने भी यही सुना था कि राख ही राख बची है, आग नहीं बची है। यही देखने आया था। लेकिन आग काफी बची है। राख ऊपर का ही धोखा है, भीतर आग है।

क्रोध से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा क्रोध को भीतर दबाने में समर्थ हो सकता है। भय से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा निर्भय होने में समर्थ हो सकता है, अभय होने में नहीं। निर्भय का इतना ही मतलब है कि भय को भीतर दबा दिया है। भय आता भी है तो कोई फिक्र नहीं; हम डटे ही रहते हैं। अभय का मतलब बहुत और है। अभय का मतलब है, भय का अभाव। निर्भय का अर्थ, भय के बावजूद भी डटे रहने की हिम्मत। अभय का मतलब, फियरलेसनेस। निर्भय का मतलब, ब्रेवरी। बड़े से बड़ा बहादुर आदमी भी भयभीत होता है, अभय नहीं होता। अभय होने का मतलब, भय है ही नहीं; निर्भय होने का भी उपाय नहीं है। भय बचा ही नहीं है।

जो आदमी लक्षण को...लक्षण हैं ये। ये कृष्ण लक्षण गिना रहे हैं; काजेज नहीं, कांसिक्वेंसेज गिना रहे हैं। ये कारण नहीं गिना रहे हैं, लक्षण गिना रहे हैं कि अगर क्रोध न हो, अगर भय न हो, तो ऐसा आदमी स्थितधी है।

लेकिन हम आमतौर से उलटा कर लेते हैं। हम कह सकते हैं कि एक आदमी का शरीर अगर गरम न हो, तो उस आदमी को बुखार नहीं है। ठीक, इसमें कोई अड़चन नहीं मालूम पड़ती है। एक आदमी का शरीर गरम न हो, तो उसे बुखार नहीं है। लेकिन एक आदमी का शरीर गरम हो, तो उसके शरीर को ठंडा करने से बुखार नहीं जाता; पानी डालने से बुखार नहीं जाता। बुखार अगर पानी डालकर मिटाने की कोशिश की, तो बीमारी के जाने की उम्मीद कम, बीमार के जाने की उम्मीद ज्यादा है।

नहीं, शरीर पर बुखार जब देखता है चिकित्सक, टेंपरेचर देखता है, तो यह जानने के लिए देखता है कि बीमारी कितनी है भीतर, जिससे इतना उत्ताप बाहर है। उत्ताप सिर्फ लक्षण है। उत्ताप बीमारी नहीं है। शरीर कहीं भीतर गहन संघर्ष में पड़ा है, उस संघर्ष के कारण उत्तप्त हो गया है। शरीर के सेल, शरीर के कोष्ठ कहीं लड़ रहे हैं भीतर दुश्मनों की तरह। कहीं भीतर कोई लड़ाई जारी है। कोई कीटाणु भीतर घुस गए हैं, जो शरीर के कीटाणुओं से लड़ रहे हैं। शरीर के रक्षक और शरीर के शत्रुओं के बीच कहीं गहरा संघर्ष है। उस संघर्ष की वजह से सारा शरीर उत्तप्त हो गया है। उत्तप्त होना सिर्फ लक्षणा है, सिम्पटम है, बीमारी नहीं है। और अगर गरम होने को ही कोई बीमारी समझ ले, तो ठंडा करना इलाज है। तो पानी डालें। बुखार तो नहीं, बीमार चला जाएगा।
नहीं, इतना ही समझें कि बुखार है, तो भीतर बीमारी है। अब बीमारी को अलग करें। और बीमारी अलग हुई, यह तब जानें, जब शरीर पर बुखार न रह जाए। तो चिकित्सक कहता है, जब शरीर पर गरमी नहीं है तब आदमी स्वस्थ है। लेकिन शरीर पर गरमी घटाने का उपाय स्वास्थ्य की विधि नहीं है।

कृष्ण जब कह रहे हैं कि भय नहीं रह जाता, क्रोध नहीं रह जाता, तो समझना कि क्रोध और भय टेंपरेचर हैं। जो बीमार आदमी के, डिजीज्ड माइंड के, भीतर जिसका मन आपस में लड़ रहा है, कलह से भरा है--कलहग्रस्त मन में क्रोध का बुखार होता है। कलहग्रस्त मन में कमजोरी आ जाती है। स्वयं से लड़कर आदमी टूट जाता है, अपनी शक्ति को खोता है और इसलिए भयभीत हो जाता है। क्रोध और भय, स्वयं जब आदमी मन में संघर्ष में पड़ा होता है, तब लक्षणाएं हैं। वे खबर देती हैं कि आदमी भीतर बीमार है, चित्त रुग्ण है। बस, इतनी ही खबर। और जब क्रोध और भय नहीं होते, तब खबर मिलती है कि भीतर चित्त स्वस्थ है। चित्त का स्वास्थ्य समाधि है, अंतर-स्वास्थ्य समाधि है।

इस भेद को इसलिए आपसे कहना चाहा कि आप क्रोध और भय से मत लड़ने लग जाना। क्रोध और भय को देखना, जानना, पहचानना। उनकी पहचान से पता चलेगा कि भीतर समाधि नहीं है। फिर समाधि लाने के उपाय अलग ही हैं। समाधि लाने के उपाय करना। समाधि आ जाएगी, तो क्रोध और भय चले जाएंगे। टेंपरेचर कहेगा कि नहीं, थर्मामीटर बताएगा कि नहीं। जब क्रोध और भय मालूम न पड़ें, तब समझना कि समाधि फलित हुई है।
लेकिन हम इससे उलटा कर लेते हैं, क्रोध और भय को दबा लेते हैं। दबाने से एक खतरा है। वह खतरा यह है कि समाधि तो भीतर फलित नहीं होती, दबे हुए क्रोध और भय के कारण हमें पता भी नहीं चलता कि भीतर समाधि नहीं है। हम लक्षणों में धोखा दे लेते हैं।

मैंने गुरजिएफ का नाम बीच में लिया था। और मैंने कहा कि गुरजिएफ के कोई पास आता, तो वह शराब पिलाता। वह न केवल शराब पिलाता, बल्कि जब कोई आदमी साधना के लिए उसके पास आता, तो वह अजीब-अजीब तरह के टेंपटेशन पैदा करता। वह अजीब सिचुएशंस, स्थितियां पैदा करता। वह एक आदमी को इस हालत में ला देता कि उसको पता ही न चले कि उसको क्रोध दिलाया जा रहा है, उसका पूरा क्रोध जगवा देता। वह ऐसी हालत पैदा कर देता कि वह आदमी बिलकुल पागल होकर क्रुद्ध हो जाए। और जब वह पूरे क्रोध में आ जाता, तब वह उस आदमी को कहता कि जरा जागकर देख कि कितना क्रोध है तेरे भीतर! जब तू आया था तब इतना क्रोध नहीं था। लेकिन तू यह मत समझना कि यह क्रोध अभी आ गया है। यह था तब भी, लेकिन भीतर दबा था, अब प्रकट हुआ है। इसे पहचान ले, क्योंकि यही लक्षण है।

हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कितना दबा है। आमतौर से हम समझते हैं कि कभी-कभी कोई हमें क्रोधित करवा देता है। यह बड़ी झूठी समझ है। कोई दुनिया में किसी को क्रोधित नहीं करवा सकता, जब तक कि भीतर क्रोध मौजूद न हो। दूसरे लोग तो केवल निमित्त बन सकते हैं, खूंटियां बन सकते हैं; कोट आपका ही टंगता है, कोट खूंटी का नहीं होता। आपके पास कोट होता है, तो आप टांग देते हैं। आप यह नहीं कह सकते कि इस खूंटी ने कोट टंगवा लिया। कोट तो था ही--चाहे हाथ पर टांगते, चाहे सांकल पर टांगते, चाहे खीली पर टांगते, चाहे कंधे पर टांगते--कहीं न कहीं टांगते। कोट तो था ही आपके पास; खूंटी ने सिर्फ रास्ता दिया, आपका कोट टांग लिया। खूंटी जिम्मेवार नहीं है, जिम्मेवार आप ही हैं। खूंटी सिर्फ निमित्त है।

एक आदमी मुझे गाली देता है। आग भड़क उठती है, क्रोध आ जाता है। तो मैं कहता हूं, इस आदमी ने क्रोध पैदा करवा दिया। यह आदमी क्रोध पैदा करवा सकता है? तो मैं आदमी हूं कि मशीन हूं, कि इसने बटन दबाई और क्रोध पैदा हो गया।

नहीं, क्रोध मेरे भीतर उबल रहा है; यह आदमी सिर्फ निमित्त है। और ऐसा मत कहिए कि यह आदमी मुझको खोज रहा है। असलियत तो यह है कि मैं इस आदमी को खोज रहा हूं। अगर यह न मिले, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा। यह मिल जाता है, तो मैं हल्का हो जाता हूं, अनबर्डन्ड हो जाता हूं, बोझ उतर जाता है।
जैसे एक कुएं में हम बालटी डालते हैं। फिर बालटी में पानी भरकर आ जाता है। लेकिन कुएं में पानी तो होना चाहिए न! बालटी खाली कुएं से पानी नहीं ला सकती, सूखे कुएं से पानी नहीं ला सकती। खड़खड़ाकर लौट आएगी। कह देगी, नहीं है। दूसरे आदमी की गाली ज्यादा से ज्यादा बालटी बन सकती है मेरे भीतर। लेकिन क्रोध वहां होना चाहिए, तब उस बालटी में भरकर बाहर आ जाएगा।

सब भरा है भीतर। दबा-दबाकर बैठे हैं। बहुत कागजी दबाव है, बड़ा दबाव नहीं है। जरा खरोंच दो, अभी उभर पड़ेगा। लेकिन उसे देखना जरूरी है।

तो कृष्ण की इस बात से यह मत समझ लेना कि क्रोध को दबा लिया, भय को दबा लिया, तो निश्चिंत हो गए, समाधिस्थ हो गए, स्थितधी हो गए! इतना सस्ता मामला नहीं है। दबाने की बजाय क्रोध को उभारकर ही देखना। और जब कोई गाली दे, तो अपने भीतर देखना, कितना उभरता है! और जब कोई गाली दे, तो उसे धन्यवाद देना कि तेरी बड़ी कृपा! तू अगर बालटी न लाता, तो अपने कुएं की खबर ही न मिलती। ऐसा कभी-कभी बालटी ले आना।

कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। साधुओं से कबीर ने कहा है कि साधुओ! अपने निंदक को आंगन-कुटी छवाकर अपने पड़ोस में ही बसा लो, कि जैसे ही तुम बाहर निकलो, वह बालटी डाल दे और तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, वह तुम्हें दिखाई पड़ जाए। क्योंकि उसे तुम देख लो, उसे तुम पहचान लो, तो तुम्हें अपनी असली स्थिति का बोध हो।
 और जिसे अपनी असली स्थिति का बोध नहीं है, वह अपनी परम स्थिति को कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। जो अपनी वास्तविक, यथार्थ स्थिति को जानता है आज के क्षण में, वह अपनी परम स्थिति को, परम स्वभाव को भी उपलब्ध करने की यात्रा पर निकल सकता है।

क्रोध और भय इंगित हैं, सूचक हैं, सिंबालिक हैं, सिंप्टमैटिक हैं। उनसे डायग्नोसिस कर लेना। उनसे अपना निदान कर लेना कि ये हैं, तो मेरे भीतर समाधि नहीं है। लेकिन इनको दबाकर मत सोच लेना कि इनको दबाने से समाधि हो जाती है। नहीं, समाधि आएगी तो ये नहीं हो जाएंगे। इनके दबाने से समाधि फलित नहीं होगी।
इसलिए कृष्ण ने बहुत ठीक सूत्र कहे, दुख उद्विग्न न करे, सुख की आकांक्षा न हो, क्रोध उत्तप्त न करे, भय कंपाए नहीं, तो जानना अर्जुन कि ऐसा व्यक्ति समाधिस्थ है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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