गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 43

  विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। ५९।।

यद्यपि इंद्रियों द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले देहाभिमानी तपस्वी पुरुष के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु रस निवृत्त नहीं होता। परंतु इस पुरुष का रस भी परमात्मा को साक्षात करके निवृत्त हो जाता है।

देहाभिमानी तपस्वी के...।
तपस्वी और देहाभिमानी? असल में देहाभिमान दो तरह का हो सकता है--भोगी का, तपस्वी का। लेकिन दोनों की स्थिति देहाभिमान  की है। क्योंकि भोगी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से, और तपस्वी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से। भोगी भी मानता है कि शरीर ही द्वार है सुख का, त्यागी भी मानता है कि शरीर ही द्वार है सुख का। सुख की धारणाएं उनकी अलग हैं। भोगी शरीर से ही विषयों तक पहुंचने की कोशिश करता है, त्यागी शरीर से ही विषयों से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन  शरीर ही आधार है दोनों का। और दोनों बड़े देहाभिमानी हैं, शरीर-केंद्रित हैं। दोनों की दृष्टि शारीरिक है।


इस तथ्य को पहले समझें, फिर दूसरा हिस्सा खयाल में लाया जा सकता है। दोनों की स्थिति शारीरिक है। एक आदमी सोचता है, शरीर से इंद्रियों को तृप्त कर लें। सारा जगत सोचता है।
 सब सुख एंद्रिक हैं। इंद्रिय के अतिरिक्त कोई सुख नहीं है। सुख यानी एंद्रिक होना। सुख चाहिए तो इंद्रिय से ही मिलेगा। हां, वह कहता है, यह बात सच है कि दुख भी इंद्रिय से मिलते हैं। यह बिलकुल ठीक ही है, जहां से सुख मिलेगा, वहीं से दुख भी मिलेगा। लेकिन वह कहता है, कोई भी पागल भूसे के कारण गेहूं को नहीं फेंक देता। कोई भी पागल कांटों के कारण फूल को नहीं छोड़ देता। तो दुख के कारण सुख को छोड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। बुद्धिमान दुख को कम करता और सुख को बढ़ाता चला जाता है। लेकिन सब सुख एंद्रिक हैं।
क्या इस बात पर आपको कभी भी शक हुआ है कि सब सुख एंद्रिक हैं? अगर शक नहीं हुआ, तो कृष्ण को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा। हम सब का भी भरोसा यही है कि सब सुख एंद्रिक हैं। हमने कोई सुख जाना भी नहीं है, जो इंद्रिय के बाहर जाना हो। स्वाद जाना है, संगीत जाना है, दृश्य देखे हैं, गंध सूंघी है, सौंदर्य देखा है--जो भी, वह सब इंद्रियों से देखा है। वह सब एंद्रिक हैं। इंद्रिय के अतिरिक्त हमने और कुछ जाना नहीं है। हम इंद्रियों के अनुभव का ही जोड़ हैं।
इसीलिए तो हमें आत्मा का कोई पता नहीं चलता। क्योंकि इंद्रिय का अनुभव ही जिसकी सारी संपदा है, वह शरीर के ऊपर किसी भी तत्व को नहीं जान सकता है। यह तो हमारी स्थिति है। यह हमारी देहाभिमानी भोगी की स्थिति है।
फिर अगर कभी कोई देहाभिमानी भोगी देह को भोगते-भोगते ऊब जाता है...। हर चीज को भोगते-भोगते ऊब आ जाती है। सभी चीजों से चित्त ऊब जाता है। अगर स्वर्ग में भी बिठा दिया जाए आपको, तो ऊब जाएगा। ऐसा मत सोचना कि स्वर्ग में बैठे हुए लोग जम्हाई नहीं लेते, लेते हैं। वहां भी ऊब जाएंगे।
देहाभिमानी भोगी ऊब जाता है, इंद्रियों के सुखों से ऊब जाता है, तो वह इंद्रियों की शत्रुता करने लगता है। वह देहाभिमानी भोगी की जगह देहाभिमानी त्यागी बन जाता है। फिर जिस-जिस इंद्रिय से उसने सुख पाया है, उस-उस इंद्रिय को सताता है। और कहता है, अब इससे विपरीत चलकर सुख पा लेंगे। लेकिन मानता है इंद्रिय को ही आधार अब भी।
तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा विषयों को छोड़ सकता है, लेकिन रस से मुक्त नहीं होता। अब आंख फोड़ डालेंगे, तो दिखाई पड़ने वाले आब्जेक्ट से तो मुक्त हो ही जाएंगे। जब दिखाई ही नहीं पड़ेगा, तो दिखाई पड़ने वाला विषय तो खो ही जाएगा। जब कान ही न होंगे, तो वीणा तो खो ही जाएगी, सुनाई पड़ने वाला विषय तो खो ही जाएगा। लेकिन क्या रस खो जाएगा?
रस, विषय से अलग बात है। विषय बाहर है, रस भीतर है, इंद्रियां बीच में हैं। इंद्रियां सेतु हैं; ब्रिजेज हैं; रस और विषय के बीच में बना हुआ सेतु हैं। रस को ले जाती हैं विषय तक, विषय को लाती हैं रस तक। इंद्रियां बीच के द्वार, मार्ग, पैसेज हैं। इंद्रिय तोड़ दें; तो ठीक है, विषय से रस का संबंध टूट जाएगा। लेकिन रस तो नहीं टूट जाएगा। रस भीतर निर्मित रह जाएगा--अपनी जगह तड़पता, अपनी जगह कूदता, विषयों की मांग करता, लेकिन विषयों तक पहुंचने में असमर्थ, इंपोटेंट; क्लीव हो जाएगा रस। पुंसत्व खो देगा, द्वार खो देगा, मार्ग खो देगा, विक्षिप्त हो जाएगा, लेकिन भीतर घूमने लगेगा। अब वह रस भीतर कल्पना के विषय निर्मित करेगा। क्योंकि जब वास्तविक विषय नहीं मिलते, जब एक्चुअल आब्जेक्ट्स नहीं मिलते, तब चित्त कल्पित विषय निर्मित करना शुरू कर देता है।
असल में, रस इतना प्रबल है कि अगर विषय न हों, तो वह काल्पनिक विषयों को निर्मित कर लेता है। सेतु टूट जाए, तो भीतर ही विषय बना लेता है; आटो इरोटिक हो जाता है। दूसरे की जरूरत ही नहीं रह जाती, वह आत्ममैथुन में रत हो जाता है। अपने ही रस को अपना ही विषय बनाकर भीतर ही जीने लगता है। पागल, विक्षिप्त, न्यूरोटिक हो जाता है।
कृष्ण जो कह रहे हैं कि विषय तो टूट जाएंगे, छूट जाएंगे देहाभिमानी त्यागी के, लेकिन रस नहीं छूटेंगे। और असली सवाल विषयों का नहीं है, असली सवाल रसों का है। असली सवाल इसका नहीं है कि बाहर कोई बड़ा मकान है; असली सवाल इसका है कि मेरे भीतर बड़े मकान की चाह है। असली सवाल यह नहीं है कि बाहर सौंदर्य है; असली सवाल यह है कि मेरे भीतर सौंदर्य की मालकियत की आकांक्षा है। असली सवाल यह नहीं है कि बाहर फूल है; असली सवाल यह है कि मेरे हाथ में फूल को तोड़ने की हिंसा है। असली सवाल फूल नहीं है, रहे फूल; अगर मेरे हाथ में तोड़ने की हिंसा नहीं है, तो मैं निकल जाऊंगा फूल के पास से। फूल कभी कहता नहीं कि आओ, तोड़ो। फूल बुलाता नहीं, फूल निमंत्रण नहीं देता, मैं ही जाता हूं।
रस! कीमती क्या है, विषय या रस? अगर विषय कीमती है, तो तपश्चर्या बहुत मैटीरियल होगी, शारीरिक होगी, फिजिकल होगी। और अगर रस, तो फिर तपश्चर्या मनोवैज्ञानिक होगी; फिर तपश्चर्या आंतरिक होगी। और मैंने जैसा कहा कि कृष्ण गहरे मनोवैज्ञानिक हैं, इसलिए साधक के इस मामले में भी वह जो फिजिकल, वह जो भौतिक साधक है, उसकी गहरी व्यंगना और गहरी मजाक कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि उसके विषय छूट जाते हैं, रस नहीं छूटता। और देहाभिमानी कहकर जितनी कड़ी आलोचना हो सकती है, उतनी उन्होंने कर दी है। देहाभिमानी तपस्वी! अब देहाभिमानी और तपस्वी कहते हैं!
नहीं, देह को मानने वाला तपस्वी...। उसको भी तपस्वी कह रहे हैं, क्योंकि तपश्चर्या तो बहुत करता है--व्यर्थ करता है, करता बहुत है। असफल होता है, चेष्टा बहुत करता है। श्रम में कमी नहीं है, दिशा गलत है। रस भीतर रह जाएंगे। और अगर सारे विषय बाहर से छोड़ दिए जाएं और सारे रस भीतर रह जाएं, तो इससे सिर्फ  विक्षिप्तता पैदा होती है, विमुक्तता पैदा नहीं होती।
समाधिस्थ व्यक्ति के विषय नहीं, रस छूट जाते हैं। और जिस दिन रस छूटते हैं, उस दिन विषय विषय नहीं रह जाते। क्योंकि वे विषय इसीलिए मालूम पड़ते थे कि रस उनको विषय बनाते थे। जिस दिन रस छूट जाते हैं, उस दिन विषय वस्तुएं रह जाते हैं, विषय नहीं--थिंग्स। क्योंकि उनसे अब कोई रस का संबंध नहीं रह जाता।
समाधिस्थ व्यक्ति रसों के विसर्जन में उत्सुक है, विषयों के त्याग में नहीं। त्याग हो जाता है, यह दूसरी बात है। लेकिन असली सवाल आंतरिक रसों के विसर्जन का है। इसलिए यह लक्षण भी वे गिनाते हैं कि समाधिस्थ व्यक्ति रसों से मुक्त हो जाता है, विषयों की उसे जरा भी चिंता नहीं है।
यह ध्यान में ले लेना जरूरी है, क्योंकि यही कृष्ण के ऊपर बड़े से बड़ा आक्षेप रहा है। क्योंकि कृष्ण को आम्र-कुंजों में नाचते देखकर बड़ी कठिनाई पड़ेगी देहाभिमानी तपस्वी को, कि यह क्या हो रहा है! उसकी पीड़ा का अंत न रहेगा। उसका वश चले तो वह पुलिस में रिपोर्ट लिखाने भागेगा। यह क्या हो रहा है? ये कृष्ण और नाच रहे हैं? कृष्ण को समझ पाना उसे मुश्किल हो जाएगा। उसके खयाल में भी नहीं आ सकता कि किसी व्यक्ति के रस अगर भीतर सिकुड़ गए हों, तो बाहर के विषयों से कोई भी सेतु नहीं बनता। सेतु बनाने वाला ही खो गया है। तब न कोई भागना है, न कोई चाहना है।
इसलिए कृष्ण के जीवन में अदभुत घटनाएं घटती हैं। जिस वृंदावन में वे नाचे हैं, उस वृंदावन को जब छोड़कर चले गए हैं, तो लौटकर भी नहीं देखा है। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो छोड़कर जाना बहुत मुश्किल पड़ता। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो स्मृतियां बड़ी पीड़ा देतीं। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो लौट-लौटकर वृंदावन मन को घेरता, सपनों में आता।
नहीं, वृंदावन जैसे था ही नहीं--गया। जैसे पृथ्वी के नक्शे पर अब नहीं है। जिन्होंने वृंदावन में उनके आस-पास नृत्य करके उनको प्रेम किया था, उनकी पीड़ा का अंत नहीं है। वहां रस भी रहा होगा। इसलिए उनका मन तो वृंदावन और द्वारिका के बीच ब्रिज बनाने की चेष्टा में लगा ही है, सेतु बनाना ही चाहता है। लेकिन कृष्ण को? कृष्ण को जैसे कोई बात ही नहीं है, सब समाप्त हो गया। जहां थे, वहां थे। जहां नहीं हैं, वहां नहीं हैं। वृंदावन नहीं है। वह नक्शे से गिर गया। रस न हो भीतर, तो ही यह संभव है। रस भीतर हो, तो यह कतई संभव नहीं है।
खूबी है यह कि जितना रस, वासना से भरा हुआ व्यक्ति हो, उतना विषय के निकट होने पर पीड़ित नहीं होता, जितना दूर होने पर पीड़ित होता है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास रहे, तो उसकी याद नहीं आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह दूर हो, तभी उसकी याद आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास हो, तब तो भूलना बहुत आसान है। जिसे हम चाहते हैं, जब वह पास न हो, तब भूलना बहुत कठिन है।
लेकिन कृष्ण उलटे हैं। जो पास है, उसे वे पूरी तरह याद रखते हैं। हम, जो पास है, उसे बिलकुल भूल जाते हैं; जो दूर है, उसे पूरी तरह याद रखते हैं। कृष्ण, जो पास है, उसे पूरी तरह याद रखते हैं। वह उनकी चेतना में पूरा का पूरा है। उसी से तो भ्रम पैदा होता है। उसी से तो प्रत्येक को लगता है कि इतना ध्यान मेरी तरफ दिया; फिर मुझे इस तरह भूल गए, तो बड़ी गैर-वफादारी है।
उसे पता नहीं है कि कृष्ण जहां हैं, वहीं उनका पूरा ध्यान है। वे जहां हैं, वहां पूरे हैं; उनकी उपस्थिति पूरी है। पत्थर को भी देखते हैं, तो पूरे ध्यान से देखते हैं। पत्थर भूल में नहीं पड़ता, यह बात दूसरी है। लेकिन आदमी को देख लेते हैं, तो भूल में पड़ जाता है। स्त्री को देख लेते हैं, तो और भी भूल में पड़ जाती है। फिर वह तड़पती है, रोती है, चिल्लाती है। उसे पता नहीं है कि कृष्ण गए, तो गए। वहां भीतर कोई सेतु नहीं बनता, वहां भीतर कोई रस नहीं है।
इस तथ्य को न समझे जाने से कृष्ण के संबंध में भारी भूल हुई है। जिस स्थितधी की वे बात कर रहे हैं, वैसी थिरता चेतना की स्वयं उनमें पूरी तरह फलित हुई है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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