गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 18

 


 सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।। 21।।


तथा इंद्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनंत आनंद है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है।



उसी सूत्र का और भी गहरा रूप। भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है। वह चित्त, वह व्यक्ति, वह योगी, जो इंद्रियों के पार हूं मैं, ऐसा जानता है, भगवत्स्वरूप से चलायमान नहीं होता है।

भगवत्स्वरूप से चलायमान हम होते इसीलिए हैं कि मानते हैं कि इंद्रियां हूं मैं। इंद्रियां हूं मैं, तो यात्रा शुरू हो गई। हमने स्वयं से दूर जाना शुरू कर दिया। और फिर इंद्रियां और दूर ले जाएंगी, क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय कहेगी कि मुझे मेरा विषय चाहिए। तो उसकी विषय की खोज होगी। और प्रत्येक विषय के बाद अनुभव होगा कि इससे तृप्ति नहीं होती, दूसरा विषय चाहिए, तो दूसरे की खोज होगी। और फिर जीवन एक यात्रा बन जाएगा।


यात्रा के दो चरण हैं। पहला चरण, मैं इंद्रियां हूं, ऐसा तादात्म्य बनाना जरूरी है। अगर संसार में जाना है, तो जानना जरूरी है कि मैं इंद्रियां हूं। और यह तादात्म्य बन जाता है। यह बन जाता है इसी तरह कि चेतना इतनी निर्मल और इतनी शुद्ध है कि जिस चीज के भी पास जाती है, उसका प्रतिबिंब पकड़ लेती है।

पुराने योग के ग्रंथ उदाहरण देते हैं नीलमणि का। प्रीतिकर है उदाहरण। पुराने योग के ग्रंथ कहते हैं कि नीलमणि को अगर शुद्ध जल, एक बर्तन में, एक कटोरे में शुद्ध जल रखा हो, नीलमणि को उस जल में डाल दें, तो पूरा जल नीला मालूम होने लगता है। वह जो नीलमणि की आभा है, वह पूरे जल को घेर लेती है।

अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि क्या कहेगी कि मैं मणि हूं, जल से अलग? नहीं। क्योंकि जल भी तो नीला हो गया है। नीलमणि कैसे जान पाएगी कि कहां मणि समाप्त होती है और कहां जल शुरू होता है! क्योंकि जल ने भी नीलापन ले लिया है। अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि जल की परिधि को ही अपनी परिधि मानेगी, क्योंकि वहां तक नील का विस्तार है।

ठीक ऐसे ही, वह जो भीतर शुद्ध आत्मा है, वह जो चेतना है, उसकी आभा इंद्रियों को घेर लेती है; शरीर के कोने-कोने में व्याप्त हो जाती है। मेरी आत्मा मेरी अंगुलियों के पोरों तक समा गई है। मेरी आत्मा मेरे रोएं-रोएं के कोने-कोने तक प्रवेश कर गई है। मेरी आत्मा ने मेरी पूरी इंद्रियों को, मेरे पूरे शरीर को आवृत कर लिया है। मेरी चेतना की आभा में सब समा गया है। और यह आभा अनंत है। इसलिए चींटी के छोटे-से शरीर को भी घेर लेती है, हाथी के बड़े शरीर को भी घेर लेती है। अगर मैं पूरे ब्रह्मांड जैसा शरीर भी पा जाऊं, तो भी मेरी आभा इतने को घेर लेगी। यह आत्मा की आभा अनंत है। और यह आभा जहां पड़ती है, जिस सीमा को घेरती है, उस सीमा के साथ लगता है कि मैं एक हो गया।

इसलिए पहला कदम उठ जाता है कि मैं इंद्रियां हूं, फिर दूसरा कदम उठना अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि इंद्रियां कहती हैं, कामेंद्रिय कहती है कि काम-विषय खोजो। तो फिर काम-विषय की खोज में जाना पड़ता है। ऐसे हम अपने से बाहर जाते हैं, या चलायमान होते हैं, गतिमान होते हैं। ऐसे हमारे भीतर वह जो अचलायमान है सदा, वह चलायमान होने की भ्रांति में पड़ता है। फिर वह खोजता निकलता चला जाता है--दूर, और दूर, और दूर। और जितना खोजता है, उतना ही पाता है, नहीं मिलता, तो और दूर जाता है! ऐसे जन्मों की लंबी यात्रा होती है।

कृष्ण कह रहे हैं, जिसने जाना कि मैं इंद्रियों के अतीत और पार हूं, फिर चलायमान नहीं होता भगवत्स्वरूप से, फिर भगवान से चलायमान नहीं होता। फिर वह भगवान में एक हो जाता है, फिर वह भगवान ही हो जाता है। लेकिन सूत्र है, इंद्रियों के पार हूं मैं, इसे जानना; ट्रांसेंडेंटल हूं, अतीत हूं, इंद्रियां नहीं हूं मैं, इसे जानना।

एक-एक इंद्रिय के प्रति ऐसे ही जागना पड़ता है कि यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं। और कठिन नहीं है।  कभी बैठकर शांति से विचार ही करें अंगुली को उठाकर कि क्या यह अंगुली मैं हूं? उठाए रहें अंगुली को; भीतर सोचें, क्या यह अंगुली मैं हूं? बहुत देर न लगेगी, अंगुली से कोई चीज भीतर वापस गिर जाएगी। अंगुली अलग, आप अलग हो जाएंगे।

कभी आंख बंद करके सोचें, यह शरीर मैं हूं? ध्यान रहे, प्रश्न पूछें, उत्तर न दें! हम उत्तर देने में बड़े होशियार हैं। हम सबको मालूम है कि मैं शरीर नहीं हूं! पूछा भी नहीं कि उत्तर तैयार है, रेडीमेड। कह दिया कि मैं शरीर नहीं हूं। बस, व्यर्थ हो गया। नहीं; सिर्फ पूछें। उत्तर को आने दें। आप जल्दी न करें। आपके उत्तर दो कौड़ी के हैं। क्योंकि आपको उत्तर ही मालूम होता, तो पूछने की जरूरत क्या थी? उत्तर आपको मालूम नहीं है।

लेकिन शास्त्र दुश्मन हो गए हैं। पढ़ लिया है उनको। उनमें लिखा है कि मैं शरीर नहीं हूं! जो मित्र हो सकते थे, उनको हमने दुश्मन कर लिया है। कंठस्थ कर लिया, मैं शरीर नहीं हूं। बैठे, पूछते हैं, मैं शरीर हूं? पूछ भी नहीं पाते, हमको उत्तर पहले से ही पता है। वह कहता है, क्या बेकार में! मैं शरीर नहीं हूं। उठकर वापस वही के वही आदमी वापस हो गए।

नहीं; पूछें, क्या मैं शरीर हूं? और चुप रह जाएं। जाने दें प्रश्न को गहरा। उत्तर न दें स्मृति से। उतरने दें प्रश्न को गहरा। अनुभव करें, क्या मैं शरीर हूं?

शरीर के प्रति जागें, शरीर को भीतर से देखें कि यह रहा शरीर। जैसे कि कोई आदमी अपने मकान के भीतर बैठा है और देखता है कि चारों तरफ दीवाल है, ठीक ऐसे ही अपने शरीर के भीतर बैठकर देखें, चारों तरफ शरीर की दीवाल है, हाथ हैं, पैर हैं। यह शरीर रहा। क्या मैं शरीर हूं? उत्तर न दें। कृपा कर उत्तर से बचें। मैं शरीर हूं? प्रश्न--और प्रश्न को तीर की तरह भीतर उतर जाने दें।

और जल्दी ही कोई चीज भीतर गिर जाएगी पर्दे की तरह, और अचानक प्रतीत होगा, कहां! शरीर तो वह रहा; मैं यह अलग हूं। लेकिन यह उत्तर आप मत देना; यह उत्तर आने देना। और जब यह आएगा, तो आपके जीवन को बदल जाएगा। और जब आप देंगे, तो जीवन वही का वही बना रहेगा। यही कसौटी है।

अगर इस उत्तर के बाद जीवन दूसरा हो जाए, तो जानना कि उत्तर आया। और अगर जीवन वही रहे कि पूछ-पांछकर उठे और सिगरेट मुंह में लगाकर जला ली और फिर धुआं उड़ाने लगे! और जीवन वही का वही रहा, कोई अंतर न पड़ा, कोई ट्रांसफार्मेशन न हुआ, तो जानना कि उत्तर आथेंटिक नहीं था; हमने ही दे दिया था।

और मन की चालाकी अनंत है। वह उत्तर तैयार रखे है, ताकि आपको नाहक भीतर न जाना पड़े। वह कहता है, कहां जा रहे हो? पहरेदार हूं, मैं ही बताए देता हूं। मालिक से मिलने की जरूरत क्या है? दरवाजे पर पहरेदार की तरह खड़ा है। आपसे कहता है, हम ही बताए देते हैं, आप कहां जाते हो? बैठो यहीं। सब उत्तर हमें मालूम हैं; नाहक भीतर जाने का कष्ट क्यों उठाते हो!

तो मन से कहना कि क्षमा करो। तुम्हारे उत्तर अपने पास रखो। तुम्हारे उत्तर नहीं चाहिए। तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत तुम्हीं सम्हालो। मुझे कृपा कर भीतर जाने दो। मैं ही जानना चाहता हूं कि क्या है। मुझे कुछ भी पता नहीं है।

पूछें! और तब भीतर एक पर्दा गिर जाएगा। एक झीना-सा पर्दा आभा का, सिर्फ आभा का पर्दा है, वह सिकुड़ जाएगा। शरीर अलग, आप अलग हो जाएंगे।

और जिस क्षण यह अनुभव होता है कि शरीर अलग, मैं अलग; इंद्रियां अलग, मैं अलग; फिर चेतना चलायमान नहीं होती है। फिर प्रभु में रम जाती है। फिर प्रभु से एक हो जाती है। फिर कभी प्रभु के घर को छोड़कर जाती नहीं। फिर कहीं भी जाए, प्रभु के घर में ही रहती हुई जाती है। फिर मंदिर से चली जाए दुकान पर, तो मंदिर दुकान पर पहुंच जाता है। रास्ते से गुजरे, तो भी जानता है व्यक्ति कि मैं प्रभु में ठहरा हुआ हूं। चलेगा शरीर, मैं ठहरा हुआ हूं। कटेगा शरीर, मैं अनकटा हूं। छिदेगा शरीर, मैं अनछिदा हूं। मरेगा शरीर, मैं अमृत हूं। वह जानता ही रहता है; वह जानता ही रहता है।

ऐसी प्रतीति प्रभु में थिर कर जाती है। और प्रभु में थिरता आनंद है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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