गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 18

  कामना-शून्य चेतना


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। 19।।


और हे अर्जुन, जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।


कामना और संकल्प से क्षीण हुए, कामना और संकल्प की मुक्तिरूपी अग्नि से भस्म हुए...। चेतना की ऐसी दशा में जो ज्ञान उपलब्ध होता है, ऐसे व्यक्ति को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। इसमें दोत्तीन बातें गहरे से देख लेने की हैं।

एक तो, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।

अज्ञानीजन तो पंडित किसी को भी कहते हैं। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो ज्यादा सूचनाएं संगृहीत किए हुए है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो शास्त्र का जानकार है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो तर्कयुक्त विचार करने में कुशल है।



ज्ञानीजन उसे पंडित नहीं कहते। ज्ञानीजन तो उसे पंडित कहते हैं, जो कामना और संकल्प को छोड़कर चेतना की उस शुद्ध अवस्था को उपलब्ध होता है, जहां ज्ञान का सीधा साक्षात्कार  है। अज्ञानीजन पंडित उसे कहते हैं, जो कि ज्ञानीजनों ने जो कहा है, उसका संग्रह रखकर बैठा है। ज्ञानीजन उसे पंडित कहते हैं, जो उधार नहीं है; जिसका सत्य से सीधा, बिना मध्यस्थ के, संपर्क है, संस्पर्श है। यह संस्पर्श उसका ही हो सकता है, जिसकी चेतना से कामना और संकल्प क्षीण हुए हों। इसलिए दूसरी बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कामना और संकल्प के क्षीण होने का क्या अर्थ है?

कामना का क्षीण होना तो हमारी समझ में आ सकता है--जहां वासनाएं गिर गईं, इच्छाएं गिर गईं; जहां कुछ पाने का खयाल गिर गया। कामना के विरोध में तो बहुत वक्तव्य हैं; पर थोड़ा उसे भी ठीक से समझ लें। फिर संकल्प भी क्षीण हो जाए! उसे समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा।

कामना का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी चाह। कामना के क्षीण होने का अर्थ है, जो है, उस पर पूर्णताः। जो नहीं है, उसकी चाह कामना है। जो है, उसके साथ पूरी तृप्ति, कामना से मुक्ति है।

कामना का अर्थ है, दौड़। जहां मैं खड़ा हूं, वहां नहीं है आनंद। जहां कोई और खड़ा है, वहां है आनंद। वहां मुझे पहुंचना है। और मजे की बात यह है कि जहां कोई और खड़ा है, और जहां मुझे आनंद मालूम पड़ता है, वह भी कहीं और पहुंचना चाहता है! वह भी वहां होने को राजी नहीं है। उसे भी वहां आनंद नहीं है। उसे भी कहीं और आनंद है।

कामना का अर्थ है, आनंद कहीं और है। उस जगह को छोड़कर जहां आप खड़े हैं, और कहीं भी हो सकता है आनंद। उस जगह नहीं है, जहां आप हैं। जो आप हैं, वहां आनंद नहीं है। कहीं भी हो सकता है पृथ्वी पर; पृथ्वी के बाहर, चांदत्तारों पर; लेकिन वहां नहीं है, जिस जगह को आप घेरते हैं। जिस होने की स्थिति में आप हैं, वह जगह आनंदरिक्त है--कामना का अर्थ है।

कामना से मुक्ति का अर्थ है, कहीं हो या न हो आनंद, जहां आप हैं, वहां पूरा है; जो आप हैं, वहां पूरा है। संतृप्ति की पराकाष्ठा कामना से मुक्ति है। इंचभर भी कहीं और जाने का मन नहीं है, तो कामना से मुक्त हो जाएंगे।

कामना के बीज, कामना के अंकुर, कामना के तूफान क्यों उठते हैं? क्या इसलिए कि सच में ही आनंद कहीं और है? या इसलिए कि जहां आप खड़े हैं, उस जगह से अपरिचित हैं?

अज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना इसलिए उठती है कि सुख कहीं और है। और अगर वहां तक जाना है, तो बिना कामना के मार्ग से जाइएगा कैसे? ज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना के अंधड़ इसलिए उठते हैं कि जहां आप हैं, जो आप हैं, उसका आपको कोई पता ही नहीं है। काश, आपको पता चल जाए कि आप क्या हैं, तो कामना ऐसे ही तिरोहित हो जाती है, जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।


अज्ञानी से पूछें, तो वह कहेगा, नहीं; दूसरी जगह सुख है, इसलिए दौड़ते हैं। ज्ञानी से पूछें, तो वह कहेगा, इसलिए दौड़ते हैं, क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम अपनी जगह कौन हैं? क्या हैं?

तो जो अपने भीतर डूबे, जो थोड़ा-सा आत्मा को जान ले, वही कामना से मुक्त हो सकता है। अन्यथा नहीं मुक्त हो सकता है। आत्मा को जाना कि कामना तिरोहित हो जाती है; या कामना तिरोहित हो जाए, तो आत्मा जान ली जाती है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

दूसरी बात और भी कठिन है। कृष्ण कहते हैं, संकल्प भी...।

संकल्प का अर्थ है, विल पावर। संकल्प भी छोड़ दो। साधारणतः, अगर कार्लाइल जैसे विचारकों से पूछें, तो वे कहेंगे, संकल्प तो प्राण है। विल चली जाएगी, विललेस हो जाओगे, संकल्पहीन हो जाओगे, तो इंपोटेंट हो जाओगे, क्लीव हो जाओगे। कुछ बचेगा ही नहीं तुम्हारे पास।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, संकल्प से भी...।

संकल्प का उपयोग ही क्या है? जब तक कामना है, तब तक उपयोग है। जब कामना नहीं, तो संकल्प का कोई उपयोग नहीं। जब तक इच्छा पूरी करनी है, तब तक इच्छाशक्ति की जरूरत है। और जब इच्छा ही नहीं है, तो इच्छाशक्ति का क्या करिएगा? वह बोझ हो जाएगी। उसे भी छोड़ दो।

हमें इच्छाशक्ति की जरूरत है, क्योंकि इच्छाएं पूरी करनी हैं, तो पैरों में ताकत चाहिए दौड़ने की। कामना पूरी करनी है, तो शक्ति चाहिए, मंजिल तक पहुंचने की। वही संकल्प है।

संकल्पहीन की हम निंदा करते हैं, कि तुम कुछ डिसीजन नहीं ले पाते, संकल्पहीन हो; तुम कुछ निर्णय नहीं कर पाते, तुम कुछ पक्का नहीं कर पाते, मजबूत नहीं कर पाते। कुछ कर नहीं पाते, हम उसकी निंदा करते हैं। निंदा हम इसीलिए करते हैं कि कामनाएं तो उसके भीतर बहुत हैं और संकल्प नहीं है।

अगर कामनाएं बहुत हों और संकल्प न हो, तो आदमी पागल हो जाएगा। क्योंकि पहुंचने की इच्छा बहुत है और चलने की ताकत बिलकुल नहीं है, तो वह आदमी बड़ी कठिनाई में पड़ जाएगा। वह वैसी ही कठिनाई में पड़ जाएगा, जैसे वृद्धजन कामवासना से तकलीफ में पड़ जाते हैं। वृद्ध हैं; शरीर ने साथ छोड़ दिया; अब कोई शक्ति नहीं है कामवासना को पूरी करने की; लेकिन मन अभी कामवासना के विचार उठाए चला जाता है!

ध्यान रहे, युवा अवस्था में कामवासना उतनी पीड़ा नहीं देती, क्योंकि वासना भी होती है, शक्ति भी होती है। वृद्धावस्था में कामवासना बुरी तरह पीड़ा देती है। क्योंकि शक्ति खो गई होती है; वासना नहीं खोती। वासना अपनी जगह खड़ी रहती है।

संकल्प की हम बात करते हैं कि संकल्प बढ़ाओ, विल पावर बढ़ाओ। क्योंकि वासनाएं अगर पूरी करनी हैं, तो बिना संकल्प के पूरी न होंगी। लेकिन अगर वासनाएं छोड़ देनी हैं, तब संकल्प की कोई भी जरूरत नहीं है; तब तो समर्पित हो जाओ। तब नाहक की शक्ति बोझ बन जाएगी।

ध्यान रहे, शक्ति अगर प्रयोग न की जाए, तो आत्मघाती हो जाती  है। इसे मैं फिर दोहराता हूं, शक्ति अगर प्रयुक्त न हो, तो स्वयं का ही विनाश करने लगती है।

इसलिए कृष्ण बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। लेकिन क्रम से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, पहले वासना-कामना से क्षीण, संकल्प से क्षीण।

अगर कोई वासनाओं के पहले संकल्प छोड़ दे, तो बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा। बहुत-बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा, बड़ा दीन और हीन हो जाएगा। पहले वासना चली जाए, तो फिर संकल्प का बचना खतरनाक। क्योंकि फिर शक्ति करेगी क्या? और जब शक्ति बाहर नहीं जा पाती, दौड़ नहीं पाती, जब शक्ति सक्रिय नहीं हो पाती, तो फिर भीतर सक्रिय हो जाती है। और फिर भीतर ही दौड़ने लगती है। शक्ति जब भीतर दौड़ती है, तो आदमी पागल हो जाता है।

शक्ति जब बाहर दौड़ती है, तब भी पागल होता है। लेकिन तब नार्मल पागल होता है, जैसे सभी पागल हैं। इसलिए बहुत दिक्कत नहीं आती। लेकिन जब शक्ति भीतर दौड़ने लगती है, तब असाधारण रूप से पागल हो जाता है। क्योंकि सब लोग बाहर की तरफ दौड़ते हैं, वह भीतर ही भीतर दौड़ता है। फिर भीतर दौड़ने से कहीं पहुंच तो सकते नहीं; कोल्हू के बैल बन जाते हैं। वहीं-वहीं वर्तुल की तरह घूमते रहते हैं। फिर जिंदगी बड़ी कठिनाई में हो जाती है।

और यह भी स्मरणीय है कि शक्ति के दो रूप हैं। अगर वह वासनाओं की तरफ दौड़े, तो क्रिएटिव होती है। वह कुछ सृजन करती है; कामनाओं का, वासनाओं का, सपनों का, आकांक्षाओं का सृजन करती है। अगर आकांक्षाएं, वासनाएं, कामनाएं छूट जाएं, तो शक्ति सृजन नहीं करती। संकल्प की शक्ति फिर स्वयं को ही विनाश करने लगती  है।

इसलिए कृष्ण का दूसरा सूत्र पहले सूत्र से भी बहुमूल्य और स्मरणीय है, संकल्प भी छोड़ देता है जो व्यक्ति...।

वासनाएं छोड़ देता है, संकल्प छोड़ देता है। यह भी छोड़ देता है कि मुझे कहीं पहुंचना है; यह भी छोड़ देता है कि मैं कहीं पहुंच सकता हूं। यह भी छोड़ देता है कि कोई मंजिल है; और यह भी छोड़ देता है कि मैं कोई यात्री हूं! यह भी छोड़ देता है कि मुझे कोई दूर के फल तोड़ लाने हैं; और यह भी छोड़ देता है कि मैं तोड़कर ला सकता हूं।

ऐसा कामना-शून्य, संकल्परिक्त हुआ व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है। क्यों? ऐसा व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध क्यों हो जाता है कि जिसको ज्ञानी भी पंडित कहते हैं?

ऐसा व्यक्ति इसलिए ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है कि ऐसा व्यक्ति दर्पण की भांति निर्मल और ठहरा हुआ हो जाता है। कभी देखी है झील आपने? जब लहरें चलती होती हैं, तो झील दर्पण नहीं बन पाती। लेकिन झील पर लहरें न चलें, झील शांत हो जाए--दौड़े न, चले न, रुक जाए; ठहर जाए; मौन हो जाए, विश्राम में चली जाए--तो झील दर्पण बन जाती है। फिर झील की सतह मिरर का काम करती है, दर्पण का काम करती है। फिर चांदत्तारे उसमें नीचे झलक आते हैं। फिर आकाश का सूरज उसमें प्रतिबिंबित होता है। पूरा आकाश छोटी-सी झील पकड़ लेती है। अनंत आकाश, विराट आकाश, जिसकी कोई सीमा नहीं, एक छोटी-सी झील की छाती में प्रतिबिंबित हो जाता है।

ठीक ऐसा ही होता है। जब चित्त पर कोई वासना की लहर नहीं होती, और जब चित पर कामना का कोई झंझावात नहीं होता, और जब चित्त अपने ही भीतर घूमती शक्ति से आंदोलित नहीं होता, तब चित्त भी एक झील की भांति मौन, ठहर गया होता है। उस ठहराव में दर्पण बन जाता है। उस दर्पण में विराट परमात्मा इस छोटे-से आदमी के हृदय में भी प्रतिफलित होता है; आमने-सामने हो जाता है। विराट है परमात्मा, हम बड़े छोटे हैं। छोटी है झील, बड़ा है आकाश!


ध्यान रहे, बड़े का मतलब यह नहीं कि हम नाप चुके। ऐसा नहीं कि हमने नापा और पाया कि बड़ा है। ऐसा कि हमने नापा और पाया कि कोई मेजरमेंट, कोई नाप काम नहीं आता, बहुत बड़ा है! हमारे सब माप बेकार हैं। वह जो इतना बड़ा है, वह इस आदमी के छोटे-से हृदय के साथ कैसे साक्षात्कार हो सकेगा?

कभी आपने देखा कि एक छोटे-से दर्पण में भी बहुत बड़ा साक्षात्कार हो जाता है। छोटे-से दर्पण में विराट सूर्य का प्रतिफलन हो जाता है। दर्पण फिर भी बड़ा है। छोटी-सी आंख गौरीशंकर को भी पकड़ लेती है। विराट एवरेस्ट को छोटी-सी आंख पकड़ लेती है। माना कि होगे विराट, माना कि आंख बड़ी छोटी है, लेकिन प्रतिफलन की क्षमता अनंत है, दि कैपेसिटी टु रिफ्लेक्ट। छोटी है आंख, लेकिन प्रतिफलन की क्षमता अनंत है। इसलिए आंख एकदम छोटी नहीं है। एक अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता है। एक अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता है!

एक अर्थ में भक्त के हृदय के सामने भगवान छोटा पड़ जाता है। इस अर्थ में, अनंत है विराट, लेकिन भक्त के छोटे-से हृदय में भी पूरा प्रतिफलित हो जाता है। असीम पूरा पकड़ लिया जाता है।

लेकिन यह हृदय होना चाहिए मौन, शांत, वासना-संकल्प से रिक्त और खाली। और तब ज्ञानी भी--ज्ञानी अर्थात जो जानते हैं, वे भी--ऐसे व्यक्ति को पंडित कहते हैं। और ध्यान रहे, कृष्ण की यह शर्त बड़ी कीमती है। क्योंकि जो नहीं जानते, वे किसी को पंडित कहें, इसका कोई भी मूल्य नहीं है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है।

जो नहीं जानते हैं, वे किसी को पंडित कहें, इसका क्या मूल्य हो सकता है? वे उसी को पंडित कहते हैं, जो उनसे ज्यादा जानता हुआ मालूम पड़ता है। क्वांटिटेटिव अंतर है। न जानने वाले और ज्यादा जानने वाले में क्वांटिटी का अंतर है। आपने दो किताबें पढ़ी हैं, उसने दस पढ़ी हैं। आप दो क्लास पढ़े हैं, उसने दस क्लास पढ़ी हैं। आपके पास प्राइमरी का सर्टिफिकेट है, उसके पास यूनिवर्सिटी का। लेकिन अंतर क्वांटिटी का है, क्वालिटी का नहीं। अंतर परिमाण का, मात्रा का है, गुण का नहीं।

लेकिन जब कोई व्यक्ति परमात्मा को जान लेता है, तो यह कोई बड़ा सर्टिफिकेट नहीं है छोटे सर्टिफिकेट के मुकाबले। यह कोई प्राइमरी की डिग्री के मुकाबले पीएच.डी. की डिग्री नहीं है। यह कोई डिग्री ही नहीं है।

हमारे पास जो शब्द है डिग्री के लिए, वह बहुत बढ़िया है-- उपाधि। उपाधि का मतलब बीमारी भी होता है। असल में उपाधिग्रस्त आदमी, डिग्रीधारी, बीमार ही होता है। क्योंकि सब उपाधियां, सब डिग्रियां अहंकार को और भारी करती चली जाती हैं। और सब उपाधियां, और सब डिग्रियां कामना और वासना को और गतिमान करती हैं। सब उपाधियां संकल्प को और दौड़ाती हैं।

नहीं, जिसे ज्ञानी भी पंडित कहते हैं, यह उपाधिमुक्त है। यह डिग्रीलेस है। इसकी कोई उपाधि नहीं है। इसके पास कोई प्रमाणपत्र नहीं है जानने का। यह स्वयं ही प्रमाणपत्र है जानने का। इसकी स्वयं की आंखें गवाही हैं। इसके हृदय से उठते हुए स्वर गवाही हैं। इसका रोआं-रोआं, इसका उठना-बैठना गवाही है।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।

अज्ञानीजन तो किसी को भी पंडित कहते हैं। अंधों में काना भी राजा हो जाता है! नहीं, उसका कोई मूल्य नहीं है।

यह स्मरण में रखना कि इस आखिरी वक्तव्य ने पंडितों की दो कोटियां कर दीं। एक वे पंडित, जिनके पास परिमाण में ज्ञान है; मात्रा है ज्ञान की एक। लेकिन वे कंप्यूटर से ज्यादा नहीं हैं। उनके पास बंधे हुए उत्तर हैं, रटे हुए। उनके अपने उत्तर नहीं हैं। उत्तर किसी और के हैं; वे केवल दोहराने का काम कर रहे हैं। वे केवल दलाल हैं, उससे ज्यादा नहीं हैं। उत्तर उपनिषद के होंगे, कि बुद्ध के होंगे, कि कृष्ण के होंगे, कि महावीर के होंगे। उनके अपने नहीं हैं, इसलिए आथेंटिक नहीं हैं, इसलिए प्रामाणिक नहीं हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है अपने से--तब! जानकर--तब!

और यह दुनिया बहुत सुलझी हुई हो सकती है, अगर ये नंबर दो के पंडित थोड़े कम हों। या न हों, तो बड़ा सुखद हो सकता है। जो नहीं जानता, वह जानने वाले की तरह बोलकर भारी नुकसान पहुंचाता है।

जो जानता है, वह चुप भी रह जाए, तो भी लाभ पहुंचाता है। जो नहीं जानता है, वह बोले, तो भी नुकसान पहुंचाता है। सौ में निन्यानबे मौके पर लोग जानते नहीं हैं, सिर्फ जाने हुए की बातों को जानते हैं। सेकेंड हैंड भी नहीं कहना चाहिए; हजारों हाथों से गुजरी हुई बातों को जानते हैं। सब सड़ गया होता है। अज्ञानीजन उनको पंडित कहते हैं।

लेकिन ज्ञानीजन उसे पंडित कहते हैं, जिसने आमना-सामना किया, एनकाउंटर किया; जिसके हृदय और परमात्मा के हृदय के बीच कोई पर्दा न रहा; सब पर्दे गिरे। और जिसके हृदय ने परमात्मा के हृदय का संस्पर्श किया; जिसने आंखों में आंखें डालकर परमात्मा में झांका; और जिसने परमात्मा को आंखें डालकर अपने भीतर झांकने दिया; जो झील की तरह आकाश से मिला, मौन झील की तरह--उसे पंडित, उसे ही पंडित कहा जा सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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