गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 15

  वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान


किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 16।।


कर्म क्या है और अकर्म क्या है, ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हैं, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा, जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार-बंधन से छूट जाएगा।


कर्म क्या है और अकर्म क्या है, बुद्धिमान व्यक्ति भी निर्णय नहीं कर पाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह गूढ़ तत्व मैं तुझसे कहूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है।




अजीब-सी लगेगी यह बात; क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह तो मूढ़जन भी जानते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह बुद्धिमानजन भी नहीं जानते हैं।

हम सभी को यह खयाल है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व। तो फिर पुनर्विचार करना जरूरी है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा।


हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए  हैं। किसी ने गाली दी आपको, और आपने भी उत्तर में गाली दी। आप जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न हुआ; वह प्रतिकर्म  हुआ। किसी ने प्रशंसा की, और आप मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न हुआ; प्रतिकर्म  हुआ।

आपने कभी कोई कर्म किया है! या प्रतिकर्म ही किए हैं?

चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते  हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से सहज-जात नहीं होता, स्पांटेनियस नहीं होता। हमारा सब करना हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है।

किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो गदगद हो प्रेम बहने लगता है। लेकिन ये सब प्रतिकर्म हैं।

ये प्रतिकर्म वैसे ही हैं, जैसे बटन दबाई और बिजली का बल्ब जल गया; बटन बुझाई और बिजली का बल्ब बुझ गया। बिजली का बल्ब भी सोचता होगा कि मैं कर्म करता हूं जलने का, बुझने का। लेकिन बिजली का बल्ब जलने-बुझने का कर्म नहीं करता है। कर्म उससे कराए जाते हैं। बटन दबती है, तो उसे जलना पड़ता है। बटन बुझती है, तो उसे बुझना पड़ता है। यह उसकी स्वेच्छा नहीं है।

इसको ऐसा लें, किसी ने आपको गाली दी। और अगर आप गाली का उत्तर देते हैं, तो थोड़ा सोचें, यह गाली का उत्तर आपने दिया या देना पड़ा? अगर दिया, तो कर्म हो सकता है; देना पड़ा, तो प्रतिकर्म होगा।

आप कहेंगे, दिया, चाहते तो न देते। तो फिर चाहकर कोशिश करके देखें, तब आपको पता चलेगा। हो सकता है, ओंठों को रोक लें, तो भीतर गाली दी जाएगी। तब आपको पता चलेगा, गाली मजबूरी है; बटन दबा दी है किसी ने। और अगर कोई गाली दे, और आपके भीतर गाली न उठे, तो कर्म हुआ। तो आप कह सकते हैं, मैंने गाली न देने का कर्म किया।

कर्म का अर्थ है, सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है, प्रेरित। कारण है जहां बाहर, और कर्म आता है भीतर से, वहां कर्म नहीं है।

हम चौबीस घंटे प्रतिकर्म में ही जीते हैं। बुद्ध, या महावीर, या कृष्ण, या क्राइस्ट जैसे लोग कर्म में जीते हैं। उनके जीवन में प्रतिकर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा।


इसलिए कृष्ण अगर कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, कि बुद्धिमान भी नहीं समझ पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है।

अकर्म तो और भी कठिन है फिर। कर्म ही नहीं समझ पाते। प्रतिकर्म को हम कर्म समझते हैं; और अकर्मण्यता को हम अकर्म समझते हैं। अकर्मण्यता को, कुछ न करने को, बैठे-ठालेपन को, इनएक्शन को हम नान-एक्शन समझ लेते हैं। कुछ न करने को हम समझते हैं, अकर्म हो गया। एक आदमी कहता है कि हम कुछ नहीं करते, तो सोचता है, अकर्म हो गया।

लेकिन अकर्म बहुत बड़ी क्रांति-घटना है, म्यूटेशन है। सिर्फ न करने से अकर्म नहीं होता। क्योंकि जब आप बाहर नहीं करते, तो मन भीतर करता रहता है। जब आप बाहर करना बंद कर देते हो, मन भीतर करना शुरू कर देता है।

आपने देखा होगा, आरामकुर्सी पर बैठ जाएं, हाथ-पैर ढीले कर दें--अकर्म में हो गए; हम सब की परिभाषा में। कुछ भी नहीं कर रहा है आदमी, इनएक्टिव है, आरामकुर्सी पर लेटा है। लेकिन उस आदमी की खोपड़ी में एक खिड़की बनाई जा सके, तो पता चले कि वह आदमी कितने कामों में लगा हुआ है!

हो सकता है, इलेक्शन लड़ रहा हो; जीत गया हो; दिल्ली पहुंच गया हो। न मालूम क्या-क्या कर रहा हो! जितना वह कुर्सी पर से दौड़कर भी नहीं कर सकता था, उतना कुर्सी पर लेटकर कर सकता है। कुर्सी पर से दौड़कर कुछ करता, तो समय बाधा डालता। दिल्ली इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकता था। लेकिन कुर्सी पर लेटकर दिल्ली पहुंचने में समय का कोई व्यवधान नहीं; स्थान की कोई बाधा नहीं; न कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती है, न कोई हवाई जहाज पकड़ना पड़ता है; न वोटर्स के सिरों की सीढ़ियां बनानी पड़ती हैं--कुछ नहीं करना पड़ता है। आरामकुर्सी पर लेटा, दिल्ली पहुंचा! इच्छा ही कर्म बन जाती है।

जो बाहर से काम रोककर बैठ जाते हैं, वे अकर्मण्य तो हो जाते हैं, कर्महीन दिखाई पड़ते हैं; लेकिन भीतर बड़ी सक्रियता, बड़े गहन कर्म का जाल चलने लगता है।

रात आप पड़े हैं, सोए हैं। दिखता है ऊपर से, बिलकुल ही अकर्म में पड़े हैं; लेकिन भीतर सपनों का जाल बुन रहे हैं। दिनभर भी जो नहीं बुन पाए, वह रातभर बुनेंगे। दिन में जो हत्याएं नहीं कर पाए, रात में करेंगे। दिन में जो व्यभिचार नहीं कर पाए, रात में करेंगे। दिन में जो नहीं हो सका, वह रात में पूरा किया जाएगा। रातभर गहन कर्म से चेतना गुजरेगी।

तो कृष्ण तो सोए हुए आदमी को भी नहीं कहेंगे कि यह अकर्म में है। वे कहेंगे, अकर्म का पता तो तब चलेगा, जब भीतर गहरे में कर्म की वासना न रह जाए, जब भीतर गहरे में मन शून्य और मौन हो जाए, जब भीतर गहरे में कर्म की सूक्ष्म तरंगें न उठें--तब होगा अकर्म।

और यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत ही मजे की बात है कि जिसके भीतर अकर्म होगा, उसके बाहर प्रतिकर्म कभी नहीं होता। जिसके भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है।

कर्म सहज है--दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं, दूसरे के प्रत्युत्तर में नहीं--सहज, अपने से भीतर से आया हुआ, जन्मा हुआ।

जिस व्यक्ति के भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है। और जिस व्यक्ति के भीतर गहन कर्म होता है, उसके बाहर प्रतिकर्म होता है, रिएक्शन होता है।

इसलिए कृष्ण अगर यह कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, गहन है यह राज, गूढ़ है यह रहस्य, बुद्धिमान भी तय नहीं कर पाते कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है! अर्जुन, तुझे मैं कहूंगा वह गूढ़ रहस्य; क्योंकि उसे जो जान लेता, वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है।

जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच की बारीक रेखा को पहचान लेता है, वह स्वर्ग के पथ को पहचान लेता है। जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच के बहुत नाजुक और सूक्ष्म विभेद को देख लेता है, उसके लिए इस जगत में और कोई सूक्ष्म बात जानने को शेष नहीं रह जाती।

तो दो बातें स्मरण रख लें। हम जिसे कर्म कहते हैं, वह प्रतिकर्म है, कर्म नहीं। हम जिसे अकर्म कहते हैं, वह अकर्मण्यता है, अकर्म नहीं। कृष्ण जिसे अकर्म कहते हैं, वह आंतरिक मौन है; वह अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव है; लेकिन बाहर कर्म का अभाव नहीं है।

जब अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव होता है, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि कर्ता का निर्माण अंतर में उठी हुई कर्म की तरंगों का संघट है, जोड़ है। भीतर जो कर्म की वासना है, वही इकट्ठी होकर कर्ता बन जाती है। अगर भीतर कर्म की कोई तरंगें नहीं हैं, तो भीतर का कर्ता भी विदा हो जाता है। तब बाहर कर्म रह जाते हैं। लेकिन वे कर्म कर्ता-शून्य होते हैं। उनके पीछे अकर्ता होता है, अकर्म होता है। और चूंकि पीछे अकर्ता होता है, इसलिए प्रत्युत्तर से नहीं पैदा होते वे। वे सहज-जात होते हैं। जैसे वृक्षों में फूल आते हैं, ऐसे उस व्यक्ति में कर्म लगते हैं। आप में कर्म लगते नहीं; दूसरों के द्वारा खींचे जाते हैं।


हमारा सारा कर्म प्रतिकर्म है, इसे अगर ठीक से देख लिया, तो हमारा सारा अकर्म भीतरी कर्म बन जाता है--यह भी दिखाई पड़ जाएगा।

और कृष्ण कहते हैं, इसकी ठीक मध्यम रेखा को देख लेने से व्यक्ति मुक्त होता है। इसलिए अर्जुन, मैं तुझसे कर्म और अकर्म की विभाजक रेखा की बात करूंगा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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