गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 14

 


एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।। 15।।


पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर कर्म किया गया है; इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।


कृष्ण कहते हैं, ऐसा जानकर, ऐसा स्पृहा से फल की मुक्त होकर, कर्ता से शून्य होकर, अहंकार से बाहर होकर, पहले भी पूर्वपुरुषों ने भी कर्म किया है, ऐसा ही तू भी कर्म कर।

पूर्व पुरुषों ने भी ऐसा ही कर्म किया है, कर्ता से मुक्त होकर। जैसे, जनक। कहीं जनक का नाम भी कृष्ण ने पहले लिया है--जनकादि। वे कर्म करते रहे हैं कर्ता से मुक्त होकर। यह क्यों याद दिलाते हैं कृष्ण? क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि जब तक हम फल की स्पृहा करते हैं, तब तक कर्म करते हैं। और जब हम कहते हैं फल की स्पृहा नहीं करते, तो हम फिर अकर्म करते हैं। फिर हम कहते हैं, अब हम जाते हैं।


दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो कर्म भी छोड़ेंगे।

इसलिए दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने वाले संन्यासी। दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने वाले गृहस्थ; फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ देने वाले संन्यासी--ये एक ही चीज के दो पहलू हैं। गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? तो छोड़ देता है।

कृष्ण बहुत तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर और फल की आकांक्षा छोड़ दे। आर्डुअस है, बड़ा सूक्ष्म है; पर बड़ा रूपांतरकारी  है।

अगर एक आदमी ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो खूबी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में कुछ खूबी नहीं है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी खूबी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह तो गृहस्थ ही पीठ करके खड़ा हो गया; मन जरा भी नहीं बदला।

कृष्ण कहते हैं, कर्म तो तू कर, कर्ता मत रह जा। कृष्ण कहते हैं, गृहस्थ तो तू रह, और संन्यासी हो जा। और कहते हैं, ऐसा पूर्वपुरुषों ने भी किया है। यह सिर्फ भरोसे के लिए, आश्वासन के लिए--कि तू घबड़ा मत! ऐसा मत सोच कि ऐसा कभी नहीं किया गया है। ऐसा पहले भी किया गया है।

सच में ही इस पृथ्वी पर जो लोग ठीक से जाने हैं, उन्होंने कर्ता को छोड़ दिया और कर्म को जारी रखा है।

ठीक संन्यास: कर्ताहीन, कर्म-सहित। ठीक संन्यास: अहंकार-मुक्त, कर्म-संयुक्त। ठीक संन्यास: स्वयं को छोड़ देता, शेष सबको जारी रखता है। ऐसे ठीक-ठीक संन्यास की, सम्यक संन्यास की, ऐसे राइट रिनंसिएशन की कृष्ण अर्जुन को शिक्षा देते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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