गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 7

  ज्ञान विजय है 


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। 7।।


और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।


सुख-दुख में, प्रीतिकर-अप्रीतिकर में, सफलता- असफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है--अनुद्विग्न, अनुत्तेजित--ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।


एक, द्वंद्व में जो थिर है, विपरीत अवस्थाओं में जो समान है। सफलता हो कि असफलता, मान हो कि अपमान, जैसे उसके भीतर कोई अंतर ही नहीं पड़ता है, जैसे भीतर कोई स्पर्श ही नहीं होता है। घटनाएं बाहर घट जाती हैं और व्यक्ति भीतर अछूता छूट जाता है। पहले तो इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना जरूरी है कि इसका क्या अर्थ है, क्या अभिप्राय है? क्या प्रक्रिया इस तक पहुंचने की है? क्या मार्ग है?

पहले तो यह ठीक से समझ लें कि हम उद्विग्न कैसे हो जाते हैं? जब दुख आता है तब भी और जब सुख आता है तब भी, तब भीतर चेतना की ज्योति को कंपने का अवसर क्यों बन जाता है? क्या है कारण? क्या दुख ही कारण है? यदि दुख ही कारण है, तब तो कृष्ण जो कहते हैं, वह कभी संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि कृष्ण पर भी दुख आएंगे।

जब भीतर की चेतना समतुलता खो देती है सुख में, उत्तेजित हो जाती है, क्या सुख ही कारण है? यदि सुख ही कारण है, तब तो फिर इस पृथ्वी पर कोई भी कभी उस स्थिति को नहीं पा सकेगा, जिसकी कृष्ण बात करते हैं। स्वयं कृष्ण भी नहीं पा सकेंगे।

हम सब ऐसा ही सोचते हैं कि उद्विग्न हो गए दुख के कारण; उत्तेजित हो गए सुख के कारण। नहीं, सुख और दुख कारण नहीं हैं। जब तक आप सुख और दुख को कारण समझेंगे, तब तक उत्तेजित होते ही रहेंगे। आपने कारण ही गलत समझा है, आपका निदान ही भ्रांत है।

सुख से उत्तेजित नहीं होता है कोई। सुख के साथ अपने को एक समझ लेता है, इससे उत्तेजित होता है। दुख से कोई उत्तेजित नहीं होता। दुख में अपने को खो देता है, इसलिए उत्तेजित होता है।

दुख और सुख के बाहर खड़े रहने में हम समर्थ नहीं हैं; भीतर प्रवेश कर जाते हैं। एक आइडेंटिटी हो जाती है, एक तादात्म्य हो जाता है। जब आप पर दुख आता है, तो ऐसा नहीं लगता है, मुझ पर दुख आया। ऐसा लगता है, मैं दुख हो गया। जब सुख आपको घेर लेता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सुख आपके चारों ओर आपको घेरकर खड़ा है; ऐसा लगता है कि आप ही सुख हो गए; सुख की एक लहर मात्र।

यह तादात्म्य, यह सुख और दुख के साथ बंध जाने की वृत्ति ही उत्तेजना का कारण है। और यह वृत्ति तोड़ी जा सकती है।

सुख-दुख आते रहेंगे। सुख-दुख बंद नहीं होते। बुद्ध के पैरों में भी कांटे चुभ जाते हैं। बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं। बुद्ध को भी मृत्यु आती है। लेकिन हमसे कुछ भिन्न ढंग से आती है। मृत्यु तो ढंग नहीं बदलेगी। मृत्यु तो अपने ही ढंग से आएगी। लेकिन बुद्ध अपने को इतना बदल लेते हैं कि मृत्यु के आने का ढंग पूरा का पूरा बदल जाता है।

मृत्यु तो आ रही है, लेकिन बुद्ध मृत्यु को और तरह से देखते हैं। मैं मरूंगा, ऐसा बुद्ध नहीं देखते। बुद्ध देखते हैं, जो मर सकता है, जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। स्वयं को दूर खड़ा कर पाते हैं, तटस्थ हो पाते हैं। मृत्यु की नदी बह जाएगी, बुद्ध तट पर खड़े रह जाएंगे--अछूते, बाहर।

पीड़ा भी आती है, दुख भी आता है। सब आता रहेगा। रात भी आएगी, सुबह भी होगी। इस पृथ्वी पर आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो रात उजाली नहीं हो जाएगी। आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो दुख सुख नहीं बन जाएगा। आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो कांटा गड़ेगा तो फूल जैसा मालूम नहीं पड़ेगा, कांटे जैसा ही मालूम पड़ेगा। फिर अंतर कहां होगा?

भीतर की चेतना कब डांवाडोल होती है? पैर में कांटा चुभता है तब? नहीं; जब भीतर की चेतना ऐसा मानती है कि मुझे कांटा चुभ गया, तब। अगर भीतर की चेतना कांटे के पार रह जाए, तो अनुद्विग्न रह जाती है। तो फिर चेतना अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर रह जाती है।

यह बाहर रह जाने की कला ही योग है। इस बाहर रह जाने की कला के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं। और ऐसी थिर हो गई चेतना में, ऐसी जैसी ज्योति को हवा के झोंकों में कोई अंतर न पड़ता हो; ऐसी चेतना में ही परम सत्ता विराजमान हो जाती है। द्वार खुल जाते हैं उसके मंदिर के। वह विराजमान है ही। हमें उसका पता नहीं चलता।

चेतना दो में से एक चीज का ही पता चला सकती है। या तो तादात्म्य की दुनिया में संयुक्त रहे, तो संसार का पता चलता रहता है। या तादात्म्य की दुनिया से हट जाए, तटस्थ हो जाए, तो परमात्मा का पता चलना शुरू हो जाता है।

ऐसा समझें कि हम बीच में खड़े हैं। इस ओर संसार है, उस ओर परमात्मा है। जब तक हमारी नजर संसार के साथ जोर से चिपटी रहती है, तब तक पीछे नजर उठाने का मौका नहीं आता। जब संसार से नजर थोड़ी ढीली होती है, पृथक होती है, अलग होती है, तो अनायास ही--अनायास ही--परमात्मा पर नजर जानी शुरू हो जाती है।

दृष्टि तो कहीं जाएगी ही। दृष्टि का कहीं जाना धर्म है। लेकिन दो तरफ जा सकती है, पदार्थ की तरफ जा सकती है, परमात्मा की तरफ जा सकती है। और परमात्मा की तरफ जाने का एक ही सुगम उपाय है कि वह पदार्थ की तरफ तादात्म्य को उपलब्ध न हो। बस, परमात्मा की तरफ बहनी शुरू हो जाती है।

वह परमात्मा सदा मौजूद ही है। लेकिन हमारी दृष्टि उस पर मौजूद नहीं है। हम उससे विपरीत देखे चले जाते हैं। हम जो हैं, उससे हम अपना तादात्म्य नहीं करते; और जो हम नहीं हैं, उससे हम अपने को एक समझ लेते हैं! क्यों हो जाती है ऐसी भूल?

भूल इतनी बड़ी है कि उसे भूल कहना शायद ठीक नहीं। क्योंकि भूल उसे ही कहना चाहिए, जिसे कोई कभी करता हो। जिसे सभी निरंतर करते हैं, उसे भूल कहना एकदम ठीक नहीं मालूम पड़ता।

भूल का मतलब ही यह होता है कि सौ में कभी एक कर लेता हो, तो हम हकदार हैं कहने के कि कहें, भूल। सौ में सौ ही करते हैं। कभी करोड़ दो करोड़ में एक आदमी नहीं करता है। तो भूल एकदम सिर्फ भूल नहीं है; मैथमेटिकल इरर जैसी भूल नहीं है कि दो और दो जोड़े और पांच हो गए, ऐसी भूल नहीं है। वह कोई कभी करता है। सिर्फ भूल कहने से नहीं चलेगा; भ्रांति है।

भूल और भ्रांति में थोड़ा फर्क है। और भूल और भ्रांति के फर्क को खयाल में ले लेना, दूसरी बात है। तो इस सूत्र को समझा जा सकेगा।

भूल वह है, जिसमें व्यक्ति जिम्मेवार होता है, खुद की ही कुछ गलती से कर जाता है। भ्रांति वह है, जिसमें जाति, मनुष्य जैसा है, वही जिम्मेवार होती है। मनुष्य के होने का ढंग ही जिम्मेवार होता है।

रास्ते से आप गुजर रहे हैं और एक रस्सी को आपने सांप समझ लिया, तो वह आपकी भूल है। सब गुजरने वाले सांप नहीं समझेंगे। वह सांप से डरने वाला चित्त, सांप से भयभीत चित्त, सांप के अनुभवों से भरा हुआ चित्त, रस्सी से भी सांप का अनुमान कर लेगा। वह इनफरेंस है उसका कि कहीं सांप न हो। लेकिन सभी को सांप नहीं दिखाई पड़ेगा। वह भूल है, इसलिए बहुत कठिनाई नहीं है। टार्च जला ली जाए, दीया जला लिया जाए और भूल मिट जाएगी। वह व्यक्तिगत है। वह मनुष्य के चित्त से पैदा नहीं होती; व्यक्तिगत चित्त से पैदा होती है। वह इंडिविजुअल है, कलेक्टिव नहीं है।

लेकिन जिस भूल की मैं बात कर रहा हूं या कृष्ण इस सूत्र में बात कर रहे हैं, वह कलेक्टिव है। ऐसा नहीं है कि किसी को रस्सी सांप दिखाई पड़ती है। जो भी गुजरता है, उसी को दिखाई पड़ती है। बल्कि किनारे बुद्ध और महावीर और कृष्ण जैसे लोग खड़े होकर चिल्लाते रहें कि यह सांप नहीं, रस्सी है, फिर भी सांप ही दिखाई पड़ता है। तो इसको भूल कहना आसान नहीं है।

दीए जला लो, रोशनी कर दो, चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहो कि यह रस्सी है, सांप नहीं! फिर भी जो गुजरता है, सुनकर भी उसे सांप ही दिखाई पड़ता है, रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। तो यह भूल कलेक्टिव माइंड की है, इसलिए भ्रांति है।

यह उस तरह की है, जैसे हम एक लकड़ी को पानी में डाल दें और वह तिरछी हो जाए। तिरछी होती नहीं, दिखाई पड़ती है। लकड़ी को बाहर खींच लें, वह फिर सीधी मालूम होती है। फिर पानी में डालें, वह फिर तिरछी मालूम होती है। अंदर लकड़ी को पानी में हाथ डालकर टटोलें, वह सीधी मालूम पड़ती है। लेकिन आंख को फिर भी तिरछी दिखाई पड़ती है! वह भूल नहीं है, भ्रांति है। आप हजार दफे जान लिए हैं भलीभांति कि लकड़ी तिरछी नहीं होती पानी में, फिर भी जब लकड़ी पानी में दिखाई पड़ेगी, तो तिरछी ही दिखाई पड़ेगी।

भ्रांति वह है, जो समूहगत मन से पैदा होती है।

इसे मैं भ्रांति कहता हूं, हमारे तादात्म्य को। दुख और सुख के साथ हम अपने को एकदम एक कर लेते हैं। यह समूहगत मन, कलेक्टिव माइंड से पैदा होने वाली भ्रांति है। जैसे पानी में लकड़ी डाल दी और वह तिरछी मालूम हुई। यह सांप दिखाई पड़ने लगे रस्सी में, वैसी भूल नहीं है। इसलिए हजार दफे समझने के बाद, फिर, फिर वही भूल हो जाती है।

अचेतन से आती है यह भ्रांति। आप कम जिम्मेवार हैं, अभी। आप अनंत जन्मों में जिस ढंग से जीए हैं, उसकी जिम्मेवारी ज्यादा है। गहरे में बैठ गई है यह बात। क्यों बैठ गई है? बैठ जाने का सूत्र भी समझ लेना चाहिए।

इतने गहरे में जब भ्रांति बैठी हो, तो उसका कोई सूत्र बहुत गहरा होता है। और इसीलिए तोड़ने में इतनी मुश्किल पड़ती है। गीता चिल्लाती रहती है, पढ़ते रहते हैं। कोई तोड़ता नहीं। बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है। क्योंकि गीता तो आप पढ़ते हैं बुद्धि से, जो बहुत ऊपर है। और भ्रांति आती है बहुत गहरे से आपके। उन दोनों का कोई मेल नहीं हो पाता।

पढ़ लेते हैं, सुख-दुख में समबुद्धि रखनी चाहिए। फिर जरा-सा पैर में कांटा गड़ा, और सब सूत्र खो जाते हैं। गीता भूल जाती है, पैर पकड़ लेते हैं। और कहते हैं, मुझे कांटा गड़ गया! वह जो बुद्धि ने सोचा था, वह काम नहीं पड़ता। बुद्धि से भी ज्यादा गहरी भ्रांति है कहीं। भ्रांति अचेतन में है। और क्यों है?

दुख के कारण नहीं है भ्रांति; भ्रांति सुख के कारण है। भ्रांति दुख के कारण नहीं है, इस बात को तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। यह बड़ी सुखद है बात कि यह पता चल जाए कि पैर में कांटा गड़ता है, वह मुझे नहीं गड़ता। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। बीमारी आती है, वह मुझे नहीं आती। मौत आती है, वह मुझे नहीं आती। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा।

नहीं, कठिनाई दुख से नहीं है; कठिनाई सुख से है। सुख मैं नहीं हूं, यह मानने को हम स्वयं ही राजी नहीं होते। इसलिए दुख सवाल नहीं है, सवाल सुख है। जब आप कहते हैं कि मैं जिंदा हूं, तो फिर आपको कहना पड़ेगा कि मैं मरूंगा।

ध्यान रखें, भूल मरने से नहीं आती, जिंदगी के साथ आती है। जिंदगी--मैं जिंदा हूं! और अगर भूल तोड़नी है, तो जिंदगी से तोड़नी पड़ेगी, मौत से नहीं। लेकिन लोग मौत से तोड़ने का उपाय करते हैं। बैठ-बैठकर याद करते रहते हैं कि आत्मा अमर है। मैं कभी नहीं मरूंगा।

लेकिन उनको खयाल नहीं है कि जब आप अपने को जीवित समझ रहे हैं, तो एक दिन आपको, मरता हूं, यह भी समझना पड़ेगा। यह उसका दूसरा हिस्सा है। लेकिन कोई भी बैठकर यह स्मरण नहीं करता कि मैं जीवित कहां हूं! यह बहुत घबड़ाने वाली बात होगी। अगर तोड़ना है, तो यहां से तोड़ना पड़ेगा।

जब सुख आए, तब तो मन तत्काल राजी हो जाता है कि मैं सुख हूं। जब कोई गले में फूलमाला डाले, तब तो ऐसा लगता है, मेरे ही गले में डाली है। मुझ में कुछ गुण हैं। और जब कोई जूतों की माला गले में डाल दे, तो हम समझते हैं, वह आदमी शैतान था, दुष्ट था; मेरे गले में नहीं डाली।

जब कोई सम्मान करे, तब तो तादात्म्य करने के लिए बड़ी तैयारी होती है। लेकिन जब कोई अपमान करे, तब तो हम खुद ही तादात्म्य तोड़ना चाहते हैं। दुख से तो कोई तादात्म्य बनाना चाहता नहीं। बनता है। बनता इसलिए है कि सुख से सब तादात्म्य बनाना चाहते हैं।

सुख से हम क्यों तादात्म्य बनाना चाहते हैं? और जब तक सुख से न टूटे, तब तक दुख से कभी न टूटेगा। जब तक सम्मान से न टूटे, तब तक अपमान से न टूटेगा। जब तक प्रशंसा से न टूटे, तब तक निंदा से न टूटेगा। जब तक जीवन से न टूटे, तब तक मृत्यु से न टूटेगा।

इसलिए साधक को शुरू करना है सुख से। दुख से तो सभी शुरू करते हैं, कभी नहीं टूटता। सुख से शुरू करना है। सुख में अपने को बाहर रखने की चेष्टा! जब सुख आए, तब दूर खड़े करने की कोशिश अपने को!

और यह बड़े मजे की बात है कि सुख से कोई शुरू नहीं करता। यद्यपि सुख से कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। यह दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं। सुख से कोई शुरू नहीं करता। सुख से कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। दुख से लोग शुरू करते हैं। दुख से शुरू किया नहीं जा सकता। दुख से शुरू करना असंभव है।

हमारे संबंध सुख से हैं, दुख तो सुख के पीछे आता है। इनडायरेक्ट हैं उससे हमारे संबंध, डायरेक्ट नहीं हैं; परोक्ष हैं, प्रत्यक्ष नहीं हैं। जिससे हमारे प्रत्यक्ष संबंध हैं, उससे ही संबंध तोड़े जा सकते हैं। और सरलता से तोड़े जा सकते हैं।

लेकिन सुख से कोई शुरू नहीं करता, और वहीं सरलता से टूट सकते हैं। दुख से सभी लोग शुरू करते हैं, वहां कभी टूट नहीं सकते। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि दुखी लोग धर्म की तलाश में निकल जाते हैं। सुखी आदमी धर्म की तलाश में कभी नहीं जाता।

 लोग दुख में धर्म की तलाश करते हैं, जब कि तलाश नहीं की जा सकती। और लोग सुख में कहते हैं कि हम तो सुखी हैं; तलाश की क्या जरूरत है?

ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि लोग धर्म को भी सुख के लिए तलाश करते हैं। धर्म को भी सुख के लिए तलाश करते हैं! इसलिए दुख में कहते हैं कि ठीक है, अभी चित्त दुखी है, तो हम धर्म की तलाश करें।

और धर्म का सुख से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का तो पूरा विज्ञान सुख से तोड़ने का विज्ञान है। यद्यपि जो सुख से टूट जाता है, वह आनंद से जुड़ जाता है। वह बिलकुल दूसरी बात है।

कभी भूलकर भी आप यह मत समझना कि जिसे आप सुख कहते हैं, उससे आनंद का कोई भी संबंध है। इतना ही संबंध हो सकता है--है--कि सुख के कारण आनंद कभी नहीं आ पाता। बस इतना ही संबंध है। सुख के कारण ही अटकाव खड़ा रहता है और आनंद के द्वार तक आप नहीं पहुंच पाते।


धर्म तुम्हारा उपकरण नहीं बन सकता। धर्म कोई इमरजेंसी मेजर नहीं है कि तुम तकलीफ में हो, तो जल्दी से इमरजेंसी दरवाजा खोल लिया धर्म का और चले गए। धर्म तुम्हारे दुख से छुटकारे का उपाय नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो धर्म सुख से छुटकारे का उपाय है। उसके लिए तो मन कभी तैयार नहीं होता है, इसलिए कभी धर्म जीवन में आता नहीं।

और ध्यान रहे, जो सुख से छूट जाता है, वह दुख से तत्काल छूट जाता है। और जो दुख से छूटना चाहता है और सुख पाना चाहता है, वह कभी दुख से छूट ही नहीं सकता, क्योंकि वह सुख से नहीं छूट सकता।

दुख सुख का ही दूसरा पहलू है, अनिवार्य। और दुख को छोड़ने की हमारी तैयारी है, उससे हम छूट नहीं सकते। सुख को छोड़ने की हमारी तैयारी नहीं है।

मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि सुख की पीड़ा को समझें। सुख के पूरे रूप को समझें। हर सुख के पीछे छिपे हुए दुख को समझें। हर सुख के धोखे के प्रति जागें। हर सुख सिर्फ प्रलोभन है आपको फिर एक नए दुख में गिरा देने का। जब तक सुख के प्रति इतना होश न हो, तब तक आप किनारे पर खड़े न हो पाएंगे।


लेकिन जागना पड़े सुख में; जागना पड़े सम्मान में; जागना पड़े वहां, जहां अहंकार को तृप्ति मिलती है; अहंकार के चारों तरफ फूल सज जाते हैं, वहां जागना पड़े। और वहां जागना सरल है, क्योंकि शुरुआत है वहां; अभी यात्रा शुरू होती है। दुख तो अंत है, सुख प्रारंभ है। और सदा जो प्रारंभ में सजग हो जाए, वह बाहर हो सकता है। बीच में सजग होना बहुत मुश्किल हो जाता है।

लेकिन हम प्रारंभ में सोना चाहते हैं। लोग कहते हैं, सुख की नींद। सुख एक नींद ही है। सुख में बहुत मुश्किल से कोई जागता है।

दूसरा सूत्र स्मरण रखें कि जरूर जल्दी, आजकल में सुख आएगा, तब सजग रहें कि दुख पीछे खड़ा है, प्रतीक्षा कर रहा है। जरूर आजकल में सम्मान आएगा, तब चौंककर खड़े हो जाएं;  अब यह आदमी अपमान का इंतजाम किए दे रहा है। जल्दी कोई सिंहासन पर बैठने का मौका आएगा, तब भाग खड़े हों। फिर दुख से आपकी कभी कोई मुलाकात न होगी।

और एक बार यह सूत्र आपकी समझ में आ गया कि सुख से बचने की सामर्थ्य दुख से बचने की पात्रता है; और जिस दिन आप सुख से बचने की सामर्थ्य जुटा लेते हैं, दुख से बचने की पात्रता मिल जाती है, उसी दिन आनंद का द्वार खुल जाता है। जैसे ही सुख से कोई अपने को दूर खड़ा कर ले, वैसे ही चित्त की डोलती हुई लौ थिर हो जाती है। और जो सुख में नहीं डोला, वह दुख में कभी नहीं डोलेगा।

ध्यान रखें, सुख में डोल गए, तो दुख में डोलना ही पड़ेगा। वह अनिवार्य कंपन है, जो सुख के पैदा हुए कंपनों की परिपूर्ति करते हैं, कांप्लिमेंट्री हैं। जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं आपने घुमा दिया, तो वह दाएं जाएगा, जाना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है बचने का। सुख में कंपित हो गए, तो दुख में कंपित होना पड़ेगा।

लेकिन हम सुख में कंपित होना चाहते हैं और दुख में कंपित नहीं होना चाहते। इससे उलटा करना पड़े। सुख में कंपित न होना चाहें, फिर आपको दुख छू भी नहीं सकेगा। सुख की खोज में रहें कि जब सुख मिले, तब होश से भर जाएं और देखें कि सुख आपको कंपित तो नहीं कर रहा है।

कठिन नहीं है। बस, स्मरण करने की बात है। कठिन जरा भी नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है, बस इतनी ही बात है। हमें स्मृति ही नहीं है इस बात की कि सुख ही हमारा दुख है। दुख को हम दुख समझते हैं, सुख को हम सुख समझते हैं; बस, वहीं भ्रांति है। और वह भ्रांति समूहगत है। व्यक्तिगत नहीं है, समूहगत है।

जब आपका बेटा स्कूल से प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होकर घर नाचता हुआ आए, तब आप जानना कि वह दुख की तैयारी कर रहा है। काश, मां-बाप बुद्धिमान हों, तो उसे कहें कि इतने सुखी होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तू सुखी होगा, उतना ही दुख दूसरे पलड़े पर रख दिया जाएगा, जो आजकल में लौट आएगा। उस बच्चे में समूहगत मन पैदा हो रहा है, और हम सहयोग दे रहे हैं। हम भी घर में बैंड-बाजा बजाकर, फूल-मिठाई बांट देंगे। हमने उसके सुख के साथ तादात्म्य होने की, जोड़ बांधने की चेष्टा शुरू कर दी। हमने उसके मन को एक दिशा दे दी, जो उसे दुख में ले जाएगी।

हम सब बच्चों को अपनी शक्ल में ढाल देते हैं। हमारे मां-बाप हमें ढाल गए थे, उनके मां-बाप उन्हें ढाल गए थे! बीमारियां बीमारियों को ढालती चली जाती हैं। रोग रोग को जन्म देते चले जाते हैं।

उस बच्चे के भी अतीत के अनुभव हैं, उस बच्चे के भी पिछले जन्मों के अनुभव हैं। उनमें भी उसने इसी भूल को दोहराया था। इस जन्म में फिर हम बचपन से उसके दिमाग को, उसके मस्तिष्क को फिर कंडीशन करते हैं, फिर संस्कारित करते हैं। सुख में सुखी होने की तैयारी दिखलाते हैं। फिर दुख में वह दुखी होता है।

जन्म होता है, तो बैंड-बाजा बजाकर हम बड़ी खुशी मनाते हैं। हमने कंडीशनिंग शुरू कर दी। आप कहेंगे, छोटे बच्चे को तो पता भी नहीं चलेगा, पहले दिन के बच्चे को कि बैंड-बाजा खुशी में बज रहा है।

लेकिन अभी जो लोग, जो वैज्ञानिक मनुष्य के शरीर की स्मृति पर काम करते हैं, बाडी मेमोरी पर, उनका कहना है कि वे बैंड-बाजे भी बच्चे के अचेतन मन में प्रवेश करते हैं। वे बैंड-बाजे ही नहीं, मां के पेट में जब बच्चा होता है, तब भी जो घटनाएं घटती हैं, वे भी बच्चे की अचेतन स्मृति का हिस्सा हो जाती हैं; वे भी बच्चे को निर्मित करती हैं।

ये बैंड-बाजे, यह खुशी की लहर, यह चारों तरफ जो सुख के साथ एक होने की भावना प्रकट की जा रही है, इसकी तरंगें भी बच्चे में प्रवेश कर जाती हैं। फिर यही तरंगें मृत्यु के वक्त दुख लाएंगी।

अगर मृत्यु के वक्त दुख न लाना हो, तो जन्म के वक्त सुख के साथ तादात्म्य पैदा करने की व्यवस्था को हटाएं। सुख जहां से शुरू होता है, वहां से तोड़ना शुरू करें।

योग सुख में जागने का नाम है। जागकर देखें कि मैं अलग हूं। और फिर आप अपने दुख में भी जागकर देख सकेंगे कि अलग हैं; कोई अड़चन न आएगी, कोई कठिनाई न पड़ेगी। तटस्थ होते रहें।

समय लगेगा। समय लगने का आंतरिक कारण नहीं है; समय लगने का कुल कारण इतना है कि हमारी आदतें मजबूत हैं और पुरानी हैं। डोलने की आदत मजबूत है, बहुत पुरानी है। हमें पता ही नहीं चलता, कब हम डोलने लगे। जब कोई आपकी प्रशंसा के दो शब्द कहता है, तब आपको पता ही नहीं चलता कि मन सुनने के साथ ही, बल्कि शायद सुनने के थोड़ी देर पहले ही डोल गया। उस आदमी का चेहरा देखा। लगा कि कुछ प्रशंसा में कहेगा, और भीतर कुछ डोल गया। यह भी जानकर डोल जाएगा कि प्रशंसा झूठी है, तो भी डोल जाएगा। क्योंकि आप भी जानते हैं कि आप भी दूसरों की झूठी प्रशंसाएं कर रहे हैं और उनको डुला रहे हैं! और कोई आपकी भी प्रशंसा कर रहा है और आपको डोला रहा है!

बिना आपको कंपित किए, आपका उपयोग नहीं किया जा सकता। आपको कंपाकर ही उपयोग किया जा सकता है। इसलिए इतनी खुशामद दुनिया में चलती है। इतनी खुशामद चलती है, क्योंकि पहले आपको थोड़ा डांवाडोल किया जाए, तभी आपका उपयोग किया जा सकता है। डांवाडोल होते ही आप कमजोर हो जाते हैं।

ध्यान रखें, जैसे ही आपकी चेतना कंपी कि आप कमजोर हो जाते हैं। फिर आपका कुछ भी उपयोग किया जा सकता है। जो आपकी खुशामद कर रहा है, वह आपको कमजोर कर रहा है, वह आपको भीतर से तोड़ रहा है।

इसलिए कृष्ण ने इसमें एक शब्द उपयोग किया है कि जो सुख-दुख में अनडोल रह जाए, वही स्वाधीन है। इसमें एक शब्द उपयोग किया है कि वही स्वाधीन है, जो सुख और दुख में सम रह जाए। उसे दुनिया में कोई पराधीन नहीं बना सकता।

हमें तो कोई भी पराधीन बना सकता है, क्योंकि हमें कोई भी कंपा सकता है। और जैसे ही हम कंपे कि जमीन हमारे पैर के नीचे की गई। कोई भी कंपा सकता है। कोई भी आपसे कह सकता है कि ऐसी सुंदर शक्ल कभी देखी नहीं, बहुत सुंदर चेहरा है आपका! कंप गए आप। अब आपका उपयोग किया जा सकता है; अब आपसे गुलामी करवाई जा सकती है।

कोई भी आपसे कह देता है कि आपकी बुद्धिमत्ता का कोई मुकाबला नहीं; बेजोड़ हैं आप! कंप गए आप। और उस आदमी ने आपको बुद्धिमान कहकर बुद्धू बना दिया! अब आपसे कम बुद्धि का आदमी भी आपसे गुलामी करवा सकता है। कंप गए आप। कंपे कि कमजोर हो गए। कंपे कि पराधीन हुए।

जो आदमी भीतर कंपित होता है सुख-दुख में, वह कभी भी गुलाम हो जाएगा। उसकी पराधीनता सुनिश्चित है। वह पराधीन है ही। एक छोटा-सा शब्द, और उसको गुलाम बनाया जा सकता है। सिर्फ उस आदमी को पराधीन नहीं बनाया जा सकता, जिसको सुख और दुख नहीं कंपाते। उसको अब इस दुनिया में कोई पराधीन नहीं बना सकता। कोई उपाय न रहा। उस आदमी को हिलाने का उपाय न रहा। अब तलवारें उसके शरीर को काट सकती हैं, लेकिन वह अडिग रह जाएगा। अब सोने की वर्षा उसके चरणों में हो सकती है, लेकिन मिट्टी की वर्षा से ज्यादा कोई परिणाम नहीं होगा। अब सारी पृथ्वी का सिंहासन उसे मिल सकता है, वह उस पर ऐसे ही चढ़ जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर पर चढ़ता है; और ऐसे ही उतर जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर से उतरता है।

भीतरी शक्ति अकंपन से आती है। भीतरी शक्ति, आंतरिक ऊर्जा, परम शक्ति उस व्यक्ति को उपलब्ध होती है, जो अकंप को उपलब्ध हो जाता है। और अकंप वही हो सकता है, जो सुख-दुख में कंपित न हो।

योगारूढ़ होने के पहले यह अकंप, यह निष्कंप दशा उपलब्ध होनी जरूरी है। और इस निष्कंप दशा में ही आदमी के पास इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति, इतनी स्वतंत्रता और इतनी स्वाधीनता होती है, कहना चाहिए, आदमी स्व होता है, स्वयं होता है कि इस पात्रता में ही परमात्मा से मिलन है; इसके पहले कोई मिलन नहीं है।

जो सुख-दुख से कंप जाता है, वह इतना कमजोर है कि परमात्मा को सह भी न पाएगा। इतना कमजोर है! एक चांदी के सिक्के से जिसके प्राण डांवाडोल हो जाते हैं। एक जरा-सा कांटा जिसकी आत्मा तक छिद जाता है। एक जरा-सी तिरछी आंख किसी की जिसकी रातभर की नींद को खराब कर जाती है। वह आदमी इतना कमजोर है कि कृपा है परमात्मा की कि उस आदमी को न मिले। नहीं तो आदमी टूटकर, फूटकर, एक्सप्लोड ही हो जाएगा, बिलकुल नष्ट ही हो जाएगा।

इतनी बड़ी घटना उस आदमी की जिंदगी में घटेगी, जो एक रुपए से कंप जाता है, जिसका एक रुपया रास्ते पर खो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है! इतनी बड़ी घटना को झेलने की उसकी सामर्थ्य नहीं होगी। वह  इतना संगठित नहीं है भीतर, इतना सत्तावान नहीं है कि परमात्मा को झेल सके। वह पात्रता उसकी नहीं है।

नियम से सब घटता है। जिस दिन आप पात्र हो जाएंगे स्वाधीन होने के, उसी दिन परम सत्ता आप पर अवतरित हो जाती है। वह सदा उतरने को तैयार है, सिर्फ आपकी प्रतीक्षा है। और आप इतनी क्षुद्र बातों में डोल रहे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। कभी हिसाब लगाकर देखें कि आपको कैसी-कैसी बातें डांवाडोल कर जाती हैं! कैसी क्षुद्र बातें डांवाडोल कर जाती हैं! रास्ते से गुजर रहे हैं, दो आदमी जरा जोर से हंस देते हैं; आप डांवाडोल हो जाते हैं।

लोग क्या कहेंगे! लोगों के कहे हुए शब्द कितना कंपा जाते हैं! शब्द! जिनमें कुछ भी नहीं होता है; हवा के बबूले। एक आदमी ने होंठ हिलाए। एक आवाज पैदा हुई हवा में। आपके कान से टकराई। आप कंप गए। इतनी कमजोर आत्मा! नहीं; फिर बड़ी घटनाओं की पात्रता पैदा नहीं हो सकती।

कृष्ण कहते हैं कि सुख-दुख में जो अडोल रह जाए, अकंप, उसकी चेतना थिर होती है। और वैसी चेतना परमात्मा के भीतर विराजमान है और वैसी चेतना में परमात्मा विराजमान है।

चलें निष्कंप चेतना की तरफ! बढ़ें! सुख से शुरू करें, दुख से कभी शुरू मत करना। सुख से शुरू करें, दुख तक पहुंच जाएगी बात। दुख से कभी शुरू मत करना। दुख से कभी शुरू नहीं होती बात।

सुख को ठीक से देखें और पाएंगे कि सुख दुख का ही रूप है। सुख में ही तलाश करें और पाएंगे कि सुख में ही दुख के सारे के सारे बीज, सारी संभावना छिपी है। और सुख से अपने को न कंपने दें।

न कंपने देने के लिए क्या करना पड़ेगा? क्या आंख बंद करके खड़े हो जाएंगे कि सुख न कंपाए? अगर बहुत ताकत लगाकर खड़े हो गए, तो आप कंप गए!

अगर एक आदमी कहे कि मैं तो अंधेरे में से निकल जाता हूं। आंख बंद कर लेता हूं; हाथ पकड़कर जोर से ताकत लगाता हूं; बिलकुल निकल जाता हूं बिना डरे। यह हाथ और यह ताकत, ये सब डर के लक्षण हैं। इस आदमी का यह कहना कि मैं अंधेरे में बिना डरे निकल जाता हूं, यह भी डरे हुए आदमी का वक्तव्य है। नहीं तो अंधेरे का पता ही नहीं चलता; यह निकल जाता। उजाले में तो नहीं कहता यह आदमी कि मैं उजाले में बिना डरे निकल जाता हूं! अंधेरे की कहता है कि अंधेरे में बिना डरे निकल जाता हूं।

नहीं; अगर आपने बहुत ताकत लगाई, तो समझ लेना कि आप कंप गए, वह ताकत कंपन ही है। नहीं; ताकत लगाने की कोई जरूरत नहीं है।

इस बात को, तीसरे सूत्र को, ठीक से खयाल में ले लें। इससे साधक को बड़ी कठिनाई होती है।

ताकत लगाई अगर आपने और कहा कि ठीक है, अब सुख आएगा, तुम डालना मेरे गले में माला और मैं बिलकुल छाती को अकड़ाकर और सांस को रोककर बिलकुल अकंप रह जाऊंगा!

आप कंप गए। बुरी तरह कंप गए। यह इतनी ताकत लगाई माला के लिए! चार आने में बाजार में मिल जाती है। चार आने के लिए इतनी ताकत लगानी पड़ी आत्मा की, तब तो कंपन काफी हो गया। और कितनी देर मुट्ठी बांधकर रखिएगा? थोड़ी देर में मुट्ठी ढीली करनी पड़ेगी। सांस कितनी देर रोकिएगा? थोड़ी देर में सांस लेंगे। तो जो डर था, वह थोड़ी देर बाद शुरू हो जाएगा।

नहीं; समझ की जरूरत है, शक्ति की जरूरत नहीं है। समझ की जरूरत है। जब सुख आए, तो समझने की कोशिश करिए; ताकत लगाकर दुश्मन बनकर मत खड़े हो जाइए। क्योंकि जिसके खिलाफ आप दुश्मन बनकर खड़े हुए, उसकी ताकत आपने मान ली। ताकत मत लगाइए, समझ।

और ध्यान रखिए, जितनी समझ कम हो, लोग उतनी ज्यादा ताकत लगाते हैं। सोचते हैं, ताकत से समझ का काम पूरा कर लेंगे। कभी नहीं पूरा होता। रत्तीभर समझ, पहाड़भर ताकत से ज्यादा ताकतवर है। समझ का काम कभी ताकत से पूरा नहीं होगा। समझ को ही विकसित करिए।

जब सुख आए, तो उसको देखिए गौर से, भोगिए, समझने की कोशिश करिए। और देखिए कि रोज कैसे सुख दुख में बदलता जा रहा है। और अंत तक यात्रा करिए और देखिए कि सुख से शुरू हुआ था और दुख पर पूरा हुआ! दो-चार-दस सुखों के बीच से गुजरिए समझते हुए। और आप पाएंगे कि आपकी समझ में वह जगह आ गई,  वह प्रौढ़ता आपकी समझ में आ गई कि अब ताकत लगाने की जरूरत नहीं है। आप, बस अब सुख आता है और जानते हैं कि वह दुख है। इतनी सरलता से जिस दिन आप रहेंगे, उस दिन निष्कंप चित्त पैदा होगा; ताकत से नहीं पैदा होगा।

इसलिए बहुत से हठवादी धर्म को ताकत से छीनना चाहते हैं। वे कभी धर्म को नहीं उपलब्ध हो पाते, सिर्फ अहंकार को उपलब्ध होते हैं। ताकत से अहंकार मिल सकता है। समझ से अहंकार गलता है।

अगर ताकत लगाकर आपने कहा कि ठीक, अब हम सुख को सुख नहीं मानते, दुख को दुख नहीं मानते; और खड़े हो गए आंख बद करके ताकत लगाकर, तो सिर्फ अहंकार मजबूत होगा। और कुछ भी होने वाला नहीं है। और यह अहंकार अपने तरह के सुख देने लगेगा; और यह अहंकार अपने तरह के दुख लाने लगेगा; खेल शुरू हो जाएगा।

समझ, अंडरस्टैंडिंग पर खयाल रखिए। जितनी समझ बढ़ती है, जितनी प्रज्ञा बढ़ती है, उतना ही...।

बुद्ध ने तीन शब्द उपयोग किए हैं--प्रज्ञा, शील, समाधि। बुद्ध कहते हैं, जितनी प्रज्ञा बढ़े, जितनी समझ बढ़े, उतना शील रूपांतरित होता है, चरित्र बदलता है। जितना चरित्र रूपांतरित हो, उतनी समाधि निकट आती है।

लेकिन शुरुआत करनी पड़ती है प्रज्ञा से, समझ से। समझ बनती है शील बाहर की दुनिया में, और भीतर की दुनिया में समाधि। यहां समझ बढ़ती है, तो बाहर की दुनिया में चरित्र पैदा होता है। और चरित्र का अगर ठीक-ठीक अर्थ समझें, तो चरित्र केवल उसी के पास होता है, जो अकंप है। जो जरा-जरा सी बात में कंप जाता है, उसके पास कोई चरित्र नहीं होता।



जागें। सुख को समझने की कोशिश करें। वह जैसे-जैसे समझ बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे संतुलन, तटस्थता, उपेक्षा आती जाएगी। आप पार खड़े हो जाएंगे। उस पार खड़े व्यक्ति को कह सकते हैं हम कि वह मंदिर बन गया परम सत्ता का। परम सत्ता उसके भीतर प्रतिष्ठित ही है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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