गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 14

 एक छोटा-सा व्यक्ति उतना ही जटिल है, जितना यह पूरा ब्रह्मांड। उसकी जटिलता में कोई कमी नहीं है। और एक लिहाज से ब्रह्मांड से भी ज्यादा जटिल हो जाता है, क्योंकि विस्तार बहुत कम है व्यक्ति का और जटिलता ब्रह्मांड जैसी है। एक साधारण से शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं, जितनी बड़ी कोई बस्ती पृथ्वी पर नहीं है। 

सात करोड़ जीवकोशों की एक बड़ी बस्ती हैं आप। इसीलिए सांख्य ने, योग ने आपको जो नाम दिया है, वह दिया है, पुरुष। पुरुष का अर्थ है, एक बहुत बड़ी पुरी के बीच रहते हैं आप, एक बहुत बड़े नगर के बीच। आप खुद एक बड़े नगर हैं, एक बड़ा पुर। उसके बीच आप जो हैं, उसको पुरुष कहा है। इसीलिए कहा है पुरुष कि आप छोटी-मोटी घटना नहीं हैं; एक महानगरी आपके भीतर जी रही है।

एक छोटे-से मस्तिष्क में कोई तीन अरब स्नायु तंतु हैं। एक छोटा-सा जीवकोश भी कोई सरल घटना नहीं है; अति जटिल घटना है। ये जो सात करोड़ जीवकोश शरीर में हैं, उनमें एक जीवकोश भी अति कठिन घटना है। अभी तक वैज्ञानिक--अभी तक--उसे समझने में समर्थ नहीं थे। अब जाकर उसकी मौलिक रचना को समझने में समर्थ हो पाए हैं। अब जाकर पता चला है कि उस छोटे से जीवकोश, जिसके सात करोड़ संबंधियों से आप निर्मित होते हैं, उसकी रासायनिक प्रक्रिया क्या है।

यह सारा का सारा जो इतना बड़ा व्यवस्था का जाल है आपका, इस व्यवस्था में एक संगीत, एक लयबद्धता, एकतानता, एक हार्मनी अगर न हो, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। अगर यह पूरा का पूरा आपका जो पुर है, आपकी जो महानगरी है शरीर की, मन की, अगर यह अव्यवस्थित,  अराजक है, अगर यह पूरी की पूरी नगरी विक्षिप्त है, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे।

आपके भीतर प्रवेश के लिए जरूरी है कि यह पूरा नगर संगीतबद्ध, लयबद्ध, शांत, मौन, प्रफुल्लित, आनंदित हो, तो आप इसमें भीतर आसानी से प्रवेश कर पाएंगे। अन्यथा बहुत छोटी-सी चीज आपको बाहर अटका देगी--बहुत छोटी-सी चीज। और अटका देती है इसलिए भी कि चेतना का स्वभाव ही यही है कि वह आपके शरीर में कहां कोई दुर्घटना हो रही है, उसकी खबर देती रहे।

तो अगर आपके शरीर में कहीं भी कोई दुर्घटना हो रही है, तो चेतना उस दुर्घटना में उलझी रहेगी। वह इमरजेंसी, तात्कालिक जरूरत है उसकी, आपातकालीन जरूरत है कि सारे शरीर को भूल जाएगी और जहां पीड़ा है, अराजकता है, लय टूट गई है, वहां ध्यान अटक जाएगा।

छोटा-सा कांटा पैर में गड़ गया, तो सारी चेतना कांटे की तरफ दौड़ने लगती है। छोटा-सा कांटा! बड़ी ताकत उसकी नहीं है, लेकिन उस छोटे-से कांटे की बहुत छोटी-सी नोक भी आपके भीतर सैकड़ों जीवकोशों को पीड़ा में डाल देती है और तब चेतना उस तरफ दौड़ने लगती है। शरीर का कोई भी हिस्सा अगर जरा-सा भी रुग्ण है, तो चेतना का अंतर्गमन कठिन हो जाएगा। चेतना उस रुग्ण हिस्से पर अटक जाएगी।

अगर ठीक से समझें, तो हम ऐसा कह सकते हैं कि स्वास्थ्य का अर्थ ही यही होता है कि आपकी चेतना को शरीर में कहीं भी अटकने की जरूरत न हो।


आपको सिर का तभी पता चलता है, जब सिर में भार हो, पीड़ा हो, दर्द हो। अन्यथा पता नहीं चलता। आप बिना सिर के जीते हैं, जब तक दर्द न हो। अगर ठीक से समझें, तो हेडेक ही हेड है। उसके बिना आपको पता नहीं चलता सिर का। सिरदर्द हो, तो ही पता चलता है। पेट में तकलीफ हो, तो पेट का पता चलता है। हाथ में पीड़ा हो, तो हाथ का पता चलता है।

अगर आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता; आप विदेह हो जाते हैं। आपको देह का स्मरण रखने की जरूरत नहीं रह जाती। जरूरत ही स्मरण रखने की तब पड़ती है, जब देह किसी आपातकालीन व्यवस्था से गुजर रही हो, तकलीफ में पड़ी हो, तो फिर ध्यान रखना पड़ता है। और उस समय सारे शरीर का ध्यान छोड़कर, आत्मा का ध्यान छोड़कर उस छोटे-से अंग पर सारी चेतना दौड़ने लगती है, जहां पीड़ा है!

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