गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 3

 आसक्ति का सम्मोहन 


आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 3।।


और समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में, निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिए सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है।



समत्वबुद्धि योग का सार है। समत्वबुद्धि को सबसे पहले समझ लेना उपयोगी है। साधारणतः मन हमारा अतियों में डोलता है, एक्सट्रीम्स में डोलता है। या तो एक अति पर हम होते हैं, या दूसरी अति पर होते हैं। या तो हम किसी के प्रेम में पागल हो जाते हैं, या किसी की घृणा में पागल हो जाते हैं। या तो हम धन को पाने के लिए विक्षिप्त होते हैं, या फिर हम त्याग के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं। लेकिन बीच में ठहरना अति कठिन मालूम होता है। मित्र बनना आसान है, शत्रु भी बनना आसान है; लेकिन मित्रता और शत्रुता दोनों के बीच में ठहर जाना अति कठिन है। और जो दो के बीच में ठहर जाए, वह समत्व को उपलब्ध होता है।


जीवन सब जगह द्वंद्व है। जीवन के सब रूप द्वंद्व के ही रूप हैं। जहां भी डालेंगे आंख, जहां भी जाएगा मन, जहां भी सोचेंगे, वही पाएंगे कि दो अतियां मौजूद हैं। इस तरफ गिरेंगे, तो खाई मिल जाएगी; उस तरफ गिरेंगे, तो कुआं मिल जाएगा। दोनों के बीच में बहुत पतली धार है। वहां जो ठहर जाता है, वही योग को उपलब्ध होता है। दो के बीच, द्वंद्व के बीच जो पतली धार है, द्वंद्व के बीच जो संकीर्ण मार्ग है, वही संकीर्ण मार्ग समत्वबुद्धि है।

समत्वबुद्धि का अर्थ है, संतुलन; द्वंद्व के बीच सम हो जाना। जैसे कभी देखा हो दुकान पर दुकानदार को तराजू में सामान को तौलते। जब दोनों पलड़े बिलकुल एक से हो जाएं और तराजू का कांटा सम पर ठहर जाए--न इस तरफ झुकता हो बाएं, न उस तरफ झुकता हो दाएं; न बाएं जाए; न दाएं जाए, --बीच में ठहर जाए, तो समत्वबुद्धि उपलब्ध होती है।

कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है।

कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता। त्यागी हो सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे।


योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वंद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं; मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूं। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहां चुनाव है, वहां संकल्प है।

मैं कहता हूं, मैं इसे चुनता हूं। अगर मैं यह भी कहता हूं कि मैं त्याग को चुनता हूं, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूं, मैं सादगी को चुनता हूं, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर लिया। जहां चुनाव है, वहां अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक छोर पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ, तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं।

और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते हैं। और जो लोग त्याग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग के और भोगने के सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है।

द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूं, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूं उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा।

और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊंगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके विपरीत पर चला जाऊं। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व से दूसरे द्वंद्व में भटकता रहता है।

जब कृष्ण कहते हैं, समत्व, तो अगर हम ठीक से समझें, तो समत्व को वही उपलब्ध होगा, जो मन को क्षीण कर दे। क्योंकि मन तो चुनाव है। बिना चुनाव के मन एक क्षण भी नहीं रह सकता।

जब मैंने आपसे कहा कि तराजू का कांटा जब बीच में ठहर जाता है, तब अगर हम दूसरी तरह से कहना चाहें, तो हम यह भी कह सकते हैं कि तराजू अब नहीं है। क्योंकि तराजू का काम तौलना है। और जब कांटा बिलकुल बीच में ठहर जाता है, तो तौलने का काम बंद हो गया; चीजें समतुल हो गईं। तौलने का तो मतलब यह है कि तराजू खबर दे। लेकिन अब दोनों पलड़े थिर हो गए और कांटा बिलकुल बीच में आ गया, समतुलता आ गई, तो वहां तराजू का काम समाप्त हो गया। समतुल तराजू, तराजू होने के बाहर हो गया। ऐसे ही मन का काम अतियों का चुनाव है।

अगर ठीक से हम समझें, अगर हम मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहेगा, मन का विकास ही चुनाव की वजह से पैदा हुआ। और इसीलिए आदमी के पास सबसे ज्यादा विकसित मन है, क्योंकि आदमी के पास सबसे ज्यादा चुनाव की आकांक्षा है। पशु बहुत चुनाव नहीं करते, इसलिए बहुत मन उनमें पैदा नहीं होता। पक्षी बहुत चुनाव नहीं करते। पौधे बहुत चुनाव नहीं करते। आदमी की सामर्थ्य यही है कि वह चुन सकता है। वह कह सकता है, यह भोजन मैं करूंगा और वह भोजन मैं नहीं करूंगा। पशु तो वही भोजन करते चले जाएंगे, जो प्रकृति ने उनके लिए चुन दिया है।

अगर यहां हजार तरह की घास लगी हो और आप भैंस को छोड़ दें, तो भैंस उसी घास को चुन-चुनकर चर लेगी जो प्रकृति ने उसके लिए तय किया है, बाकी घास को छोड़ देगी। भैंस खुद चुनाव नहीं करेगी, इसलिए भैंस के पास मन भी पैदा नहीं होगा।

सारी प्रकृति मनुष्य को छोड़कर मन से रहित है। ठीक से समझें, तो मनुष्य हम कहते ही उसे हैं, जिसके पास मन है। मनुष्य शब्द का भी वही अर्थ है, मन वाला।

मनुष्य में और पशुओं में इतना ही फर्क है कि पशुओं के पास कोई मन नहीं और मनुष्य के पास मन है। मनुष्य इसलिए मनुष्य नहीं कहलाता कि मनु का बेटा है, बल्कि इसलिए मनुष्य कहलाता है कि मन का बेटा है; मन से ही पैदा होता है। वह उसका गौरव भी है, वही उसका कष्ट भी है। वही उसकी शान भी है, वही उसकी मृत्यु भी है। मन के कारण वह पशुओं से ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के कारण ही वह परमात्मा नहीं हो पाता।

यह दूसरी बात भी खयाल में ले लें।

मन के कारण वह पशुओं के ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के ही कारण वह परमात्मा नहीं हो पाता। पशुओं से ऊपर उठना हो, तो मन का होना जरूरी है। और अगर मनुष्य के भी ऊपर उठना हो और परमात्मा को स्पर्श करना हो, तो मन का पुनः न हो जाना जरूरी है। यद्यपि मनुष्य जब मन को खो देता है, तो पशु नहीं होता, परमात्मा हो जाता है।

मनुष्य मन को जान लिया, और तब छोड़ता है। पशु ने मन को जाना नहीं, उसका उसे कोई अनुभव नहीं है। अनुभव के बाद जब कोई चीज छोड़ी जाती है, तो हम उस अवस्था में नहीं पहुंचते जब अनुभव नहीं हुआ था, बल्कि उस अवस्था में पहुंच जाते हैं जो अनुभव के अतीत है।

मन है चुनाव, --यह या वह। मन सोचता है इसे चुनूं या उसे चुनूं! दुकान पर आप खड़े हैं; मन सोचता है, इसे चुनूं, उसे चुनूं! समाज में आप खड़े हैं; मन सोचता है, इसे प्रेम करूं, उसे प्रेम करूं! प्रतिपल मन चुनाव कर रहा है, यह या वह। सोते-जागते, उठते-बैठते, मन कांटे की तरह डोल रहा है तराजू के। कभी यह पलड़ा भारी हो जाता है, कभी वह पलड़ा भारी हो जाता है।

और ध्यान रहे, जिस चीज को मन चुनता है, बहुत जल्दी उससे ऊब जाता है। मन ठहर नहीं सकता। इसलिए मन अक्सर जिसे चुनता है, उसके विपरीत चला जाता है। आज जिसे प्रेम करते हैं, कल उसे घृणा करने लगते हैं। आज जिसे मित्र बनाया, कल उसे शत्रु बनाने में लग जाते हैं। जो बहुत गहरा जानते हैं, वे तो कहेंगे, मित्र बनाना शत्रु बनाने की तैयारी है। इधर बनाया मित्र कि शत्रु बनने की तैयारी शुरू हो गई। मन लौटने लगा।

या तो मन आसक्त होगा, या विरक्त होगा। या तो पकड़ना चाहेगा, या छोड़ना चाहेगा। या तो गले लगाना चाहेगा, या फिर कभी नहीं देखना चाहेगा। मन ऐसी दो अतियों के बीच डोलता रहेगा। इन दो अतियों के बीच डोलने वाले मन का ही नाम संकल्पात्मक, संकल्प से भरा हुआ।

जहां संकल्प है, वहां विकल्प सदा पीछे मौजूद रहता है। जब आप किसी को मित्र बना रहे हैं, तब आपके मन का एक हिस्सा उसमें शत्रुता खोजने में लग जाता है, फौरन लग जाता है! आपने किसी को प्रेम किया और मन का दूसरा हिस्सा तत्काल उसमें घृणा के आधार खोजने में लग जाता है। आपने किसी को सुंदर कहा और मन का दूसरा हिस्सा तत्काल तलाश करने लगता है कि कुरूप क्या-क्या है! आपने किसी के प्रति श्रद्धा प्रकट की और मन का दूसरा हिस्सा फौरन खोजने लगता है कि अश्रद्धा कैसे प्रकट करूं!

मन का दूसरा पलड़ा मौजूद है, भला ऊपर उठ गया हो, अभी वजन उस पर न हो। लेकिन वह भी वजन की तलाश शुरू कर देगा। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि नीचे का पलड़ा थक जाएगा, हल्का होना चाहेगा। ऊपर का उठा पलड़ा भी थक जाएगा और भारी होना चाहेगा। और हम एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर वजन रखते हुए जिंदगी गुजार देंगे। इस पलड़े से वजन उठाएंगे, उस पलड़े पर रख देंगे। उस पलड़े से वजन उठाएंगे, इस पलड़े पर रख देंगे। पूरी जिंदगी, मन के एक अति से दूसरी अति पर बदलने में बीत जाती है।

कृष्ण कहते हैं, उसे कहता हूं मैं योगी, जो समत्वबुद्धि को उपलब्ध हो। जो पलड़ों पर वजन रखना बंद कर दे। इस बचकानी, नासमझ हरकत को बंद कर दे और कहे कि मैं इस किस जाल में पड़ गया! जो तराजू के पलड़ों से अपनी आइडेंटिटी, अपना तादात्म्य तोड़ दे। और तराजू जहां ठहर जाता है, जहां समतुल हो जाता है, वहां आ जाए, मध्य में। दो अतियों के बीच, ठीक मध्य को जो खोज ले; न मित्र, न शत्रु; जो बीच में रुक जाए।

यह बड़ा अदभुत क्षण है, बीच में रुक जाने का। और एक बार इस बीच में रुकने का जिसे आनंद आ गया--और इस बीच में रुकने के अतिरिक्त कहीं कोई आनंद नहीं है। क्योंकि जब भी एक पलड़े पर भार होता है, तभी चित्त में तनाव हो जाता है।

जब भी आप कुछ चुनते हैं, चित्त में उत्तेजना शुरू हो जाती है। सच तो यह है कि उत्तेजना के बिना चुन ही नहीं सकते। उत्तेजना से ही चुनते हैं; उद्विग्न हो जाते हैं। और जब भी उत्तेजना से चुनते हैं, तभी मन के लिए पीड़ा के लिए निमंत्रण दे दिया, दुख को बुलावा दे दिया। फिर थोड़ी देर में ऊब होगी, फिर थोड़ी देर में परेशान होंगे। फिर इससे विपरीत चुनेंगे, यह सोचकर कि जब इसमें कुछ सुख न मिला, तो शायद विपरीत में मिल जाए।

मन का गणित ऐसा है। वह कहता है, इसमें सुख नहीं मिला, तो इससे उलटे को चुन लो। शायद उसमें सुख मिल जाए! उसमें सुख नहीं मिला, तो फिर उलटे को चुन लो। और मन निरंतर, जिसको हम अनुभव कर लेते हैं, उससे ऊब जाता है; और उससे विपरीत, जिसका हम अनुभव नहीं करते, उसके लिए लालायित बना रहता है।

और स्मृति हमारी बड़ी कमजोर है। ऐसा नहीं है कि जिसे हम आज ऊबकर छोड़ रहे हैं, उसे हम फिर पुनः कल न चुन लेंगे। स्मृति हमारी बड़ी कमजोर है। कल फिर हम उसे चुन सकते हैं। जिसे हमने आज ऊबकर छोड़ दिया है और विपरीत को पकड़ लिया है, कल हम विपरीत से भी ऊब जाएंगे और फिर इसे पकड़ लेंगे। स्मृति बड़ी कमजोर है।

असल में अतियों से भरे हुए चित्त में स्मृति होती ही नहीं। अतियों से भरे चित्त में तो विपरीत का आकर्षण ही होता है। कभी लौटकर जिंदगी को देखें। आपकी जिंदगी में आप उन्हीं-उन्हीं चीजों को बार-बार चुनते हुए मालूम पड़ेंगे।

आज सांझ किया है क्रोध; मन पछताया। क्रोध करते ही मन पछताना शुरू कर देता है। वह विपरीत है। वह दूसरी अति है। इधर क्रोध जारी हुआ, उधर मन ने पछताने की तैयारी शुरू की। क्रोध हुआ, आग जली, उत्तेजित हुए, पीड़ित-परेशान हुए। फिर मन दुखी हुआ, रोया, पराजित हुआ, पछताया। पछताने में दूसरी अति छू ली। लेकिन ध्यान रखना, पछताकर फिर आप क्रोध करने की तैयारी में पड़ेंगे। कल सांझ तक आप फिर तैयारी कर लेंगे क्रोध की। वह कल जो पछताए थे, उसकी स्मृति नहीं रह जाएगी।

कितनी बार पछताए हैं! पश्चात्ताप कोई नई घटना नहीं है। वही किया है रोज-रोज; फिर पछताए हैं। फिर वही करेंगे, फिर पछताएंगे। और कभी यह खयाल न आएगा कि इतनी बार पश्चात्ताप किया, कोई परिणाम तो होता नहीं।

तो अगर आप इतना भी कर लें कि अब क्रोध तो करूंगा, लेकिन पश्चात्ताप नहीं करूंगा, तो भी आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि अगर आपने पश्चात्ताप नहीं किया, तो फिर मन फिर से क्रोध की तैयारी नहीं कर पाएगा। यह आपको उलटा लगेगा। लेकिन जीवन की धारा ऐसी है।

आपसे मैं कहता हूं, क्रोध मत छोड़ें, पश्चात्ताप ही छोड़ दें सिर्फ। फिर आप क्रोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप पुनः क्रोध की तैयारी है। क्रोध छोड़ दें, तो पश्चात्ताप नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप की कोई जरूरत न रह जाएगी। पश्चात्ताप छोड़ दें, तो क्रोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप के बिना क्रोध को भूलना असंभव है। फिर क्रोध के पलड़े पर ही बैठे रह जाएंगे; फिर दूसरे पलड़े पर जाना तराजू के बहुत मुश्किल है। और मन एक ही पलड़े पर बैठा नहीं रह सकता; बहुत घबड़ा जाएगा, बहुत परेशान हो जाएगा। और अगर आपने इतना ही तय कर लिया कि मैं पछताऊंगा नहीं, तो मन के लिए एक ही उपाय है कि वह मध्य में चला जाए, जहां कोई पलड़ा नहीं है।

लेकिन मन धोखा देता है। मन कहता है, क्रोध किया है, पछताओ। और मन यह भी समझाता है, और न मालूम कितने लोग समझाते रहते हैं--साधु हैं, संन्यासी हैं--सारे मुल्क में समझाते रहते हैं, बिलकुल अवैज्ञानिक बात। वे कहते हैं, क्रोध किया है, तो पश्चात्ताप करो। पश्चात्ताप से, वे कहेंगे कि तुम्हारा क्रोध मिट जाएगा। कभी किसी का नहीं मिटा। वे कहते हैं, क्रोध किया, तो पश्चात्ताप करो; पश्चात्ताप से क्रोध मिट जाएगा। क्रोध नहीं मिटेगा, सिर्फ क्रोध को पुनः करने की सामर्थ्य पैदा हो जाएगी। करके देखें और आप पाएंगे कि पुनः आप समर्थ हो गए।

क्रोध से जो थोड़ा-सा दंश पैदा हुआ था, पीड़ा आई थी, वह फिर मिट गई। क्रोध से जो अहंकार को थोड़ी-सी चोट लगी थी कि मैं कैसा बुरा आदमी हूं, वह फिर मिट गई। पश्चात्ताप से फिर लगा कि मैं तो अच्छा आदमी हूं। पश्चात्ताप करके आप पुनः उसी स्थिति में आ गए, जैसा क्रोध करने के पहले थे। आपने स्टेटस को, पुनः-पुनः पुरानी स्थिति में अपने को स्थापित कर लिया। अब आप फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप बुरे आदमी नहीं हैं। अब आप क्रोध कर सकते हैं।

द्वंद्व! और जो मैंने क्रोध के लिए कहा, वही मन की सभी वृत्तियों के लिए लागू है। सभी वृत्तियों के लिए लागू है। कृष्ण कहते हैं, बीच में है योग। ये दोनों ही अयोग हैं--क्रोध भी, पश्चात्ताप भी; प्रेम भी, घृणा भी। बीच में है योग; वहीं है, जहां संतुलन है।

क्या करें? संतुलन में कैसे ठहर जाएं? कहां रुकें?

जब भी एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर जाने की तैयारी हो रही हो, तब दूसरे पलड़े पर न जाएं। जल्दी न करें। दूसरे पलड़े पर न जाएं। अगर क्रोध है, तो क्रोध में ही ठहर जाएं; पश्चात्ताप पर जल्दी न करें जाने की। क्रोध में ही ठहर जाएं।

ठहर न सकेंगे। मन का नियम नहीं है ठहरने का। अगर पश्चात्ताप पर जाने से आपने रोक लिया, तो भी मन जाएगा। लेकिन जाने का, तीसरा एक ही उपाय है कि वह पलड़े के बाहर चला जाए।

इसलिए जो आदमी क्रोध कर सके, वह क्रोध में ही ठहर जाए। बुरा है क्रोध बहुत। ठहर नहीं सकेंगे, हटना पड़ेगा। रुक न सकेंगे, उतरना ही पड़ेगा। लेकिन जल्दी न करें दूसरी अति पर जाने की। तो फिर एक ही विकल्प रह जाएगा अपने आप, आपको मध्य में जाने के अलावा कहीं जाने की गति न रह जाएगी।

जो भी चित्त का रोग है, उसी रोग में ठहर जाएं। भागें मत; जल्दी न करें। विपरीत रोग को न पकड़ें; वहीं ठहर जाएं। मन के ठहरने का नियम नहीं है; वह तो जाएगा। आप उसको द्वंद्व में भर न जाने दें, तो वह मध्य में चला जाएगा। इसे प्रयोग करें और आप हैरान हो जाएंगे।

लेकिन जैसे ही क्रोध हुआ कि मन दूसरा कदम उठाकर पश्चात्ताप के पलड़े में रखना शुरू कर देता है। आदमी का आधा हिस्सा क्रोध करता है, आधा हिस्सा पश्चात्ताप की तैयारी करने लगता है। क्रोध करते हुए आदमी को देखें। उसके चेहरे पर खयाल रखें, तो आप फौरन उसके चेहरे पर धूप-छाया पाएंगे। वह क्रोध भी कर रहा है, सकुचा भी रहा है; तैयारी भी कर रहा है कि पश्चात्ताप कर ले। अभी हाथ मारने को उठाया था; थोड़ी देर में हाथ जोड़कर माफी मांग लेगा। निपटा दिया! वह मन के द्वंद्व में पूरा एक कोने से दूसरे कोने में चला गया। इस मन की द्वंद्वात्मकता को, डायलेक्टिक्स को समझ लेना जरूरी है।

माक्र्स ने तो कहा है कि समाज डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक है। समाज द्वंद्व से जीता है। लेकिन ऐसा दिन तो कभी आ सकता है, जब समाज द्वंद्व से न जीए। माक्र्स के खुद के खयाल से भी अगर कभी साम्यवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाएगा। फिर नान-डुअलिस्टिक हो जाएगा समाज। नान-डायलेक्टिकल हो जाएगा; द्वंद्व नहीं होगा। लेकिन मन कभी भी, किसी स्थिति में भी गैर-द्वंद्वात्मक नहीं हो सकता। द्वंद्व रहेगा। हां, मन ही न रह जाए--उसके सूत्र कृष्ण कह रहे हैं--वह बात दूसरी है। मन रहेगा, तो द्वंद्व रहेगा। मन ही न रह जाए, तो द्वंद्वहीनता आ जाएगी।

इसलिए कृष्ण के सूत्र को अगर कोई ठीक से समझे, तो माक्र्स का साम्यवाद दुनिया में तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि दुनिया में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग न हों, जिनके पास मन न रह जाए। नहीं तो द्वंद्व जारी रहेगा। द्वंद्व बच नहीं सकता।

समाज में जो द्वंद्व दिखाई पड़ते हैं, वे व्यक्ति के ही मन के द्वंद्वों का विस्तार है। जब तक भीतर मन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है, तब तक हम कोई ऐसा समाज निर्मित नहीं कर सकते, जिसमें द्वंद्व समाप्त हो जाए। हां, द्वंद्व बदल जाएगा। अमीर-गरीब का न रहेगा, तो सत्ताधारी कमीसार और गैर-सत्ताधारी का हो जाएगा। पद वाले का और गैर-पद वाले का हो जाएगा। धन का न रहेगा, सौंदर्य का हो जाएगा, बुद्धि का हो जाएगा।

और बड़े मजे की बात है! पुराने जमाने में लोग कहते थे कि धन तो भाग्य से मिलता है। कल अगर समाजवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई सुंदर होगा, कोई असुंदर होगा। किसी के सुंदर होने से उतनी ही ईष्या जगेगी, जितनी किसी के धनी होने से जगती रही है। फिर साम्यवाद क्या कहेगा कि सुंदर होना कैसे हो जाता है? कहेगा, भाग्य से हो जाता है। कहेगा, प्रकृति से हो जाता है।

फिर एक आदमी बुद्धिमान होगा और एक आदमी बुद्धिहीन होगा। और बुद्धिहीन सत्ता में तो नहीं पहुंच पाएंगे; बुद्धिमान सत्ता में पहुंच जाएंगे। फिर समाजवाद क्या कहेगा? कि ये बुद्धिमान सत्ता में पहुंच गए। आखिर बुद्धिमान और बुद्धिहीन को समान हक होना चाहिए। पर यह बुद्धिमान सत्ता में पहुंच जाता है। तब एक ही उत्तर रह जाएगा कि बुद्धिमान के लिए हम कैसे बंटवारा करें! वह शायद भाग्य से ही है। वह बुद्धिमान है पैदाइश से, और तुम बुद्धिमान नहीं हो पैदाइश से।

द्वंद्व बदल जाएंगे। द्वंद्व नहीं बदलेगा; द्वंद्व जारी रहेगा। क्योंकि मन द्वंद्वात्मक है। लेकिन माक्र्स को खयाल भी नहीं था मन का, उसे तो खयाल था समाज की व्यवस्था का।

बुद्ध या कृष्ण या महावीर या क्राइस्ट को हम पूछें, तो वे कहेंगे, समाज की व्यवस्था तो मन का फैलाव है। हां, उस दिन समाज समतुल हो सकता है, जिस दिन व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं, बड़े पैमाने पर। इतने बड़े पैमाने पर व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं कि जो योगारूढ़ नहीं हैं, वे अर्थहीन हो जाएं; उनका होना, न होना व्यर्थ हो जाए। पर अभी तो एकाध आदमी कभी करोड़ में योगारूढ़ हो जाए, तो बहुत है। इसलिए जो सिर्फ सपने देखते हैं, वे कह सकते हैं कि कभी ऐसा हो जाएगा कि सब लोग योगारूढ़ हो जाएं। यह दिखाई नहीं पड़ता। यह संभावना बड़ी असंभव मालूम पड़ती है।

यह आशा बड़ी निराशा से भरी मालूम पड़ती है कि समाज किसी दिन समतुल हो जाए। क्योंकि अभी तो हम व्यक्ति को भी समबुद्धि का नहीं बना पाते हैं। समाज तो बड़ी घटना है। और समाज तो बदलती हुई घटना है। एक व्यक्ति भी हम निर्मित नहीं कर पाते हैं, जो कि सम हो जाए। इसलिए साम्य कभी समाज में हो जाए, यह असंभव मालूम पड़ता है। जब तक व्यक्ति का चित्त पूरी समता को उपलब्ध न हो--और एक व्यक्ति के चित्त के समता को उपलब्ध होने से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि कुछ कृष्ण और महावीर और कुछ बुद्ध सदा समता को उपलब्ध होते रहे हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई भी मार्ग नहीं है।

मन दुख लाएगा ही, क्योंकि मन द्वंद्व लाएगा। जहां होगा द्वंद्व, वहां होगा संघर्ष, वहां होगी कलह, वहां होगा द्वेष, वहां होगी उत्तेजना, वहां होगा तनाव; वहां पीड़ा सघन होगी, वहां संताप घना होगा, वहां जीवन नर्क होगा।

मन नर्क का निर्माता है। मन के रहते कोई स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि मन ही नर्क है। लेकिन अगर कोई सम हो जाए...।

तो कभी छोटे-छोटे प्रयोग करके देखें सम होने के। बहुत छोटे-छोटे प्रयोग करके देखें; उनसे ही रास्ता धीरे-धीरे साफ हो सकता है।

कभी स्नान करके खड़े हैं। खयाल करें, तो आप हैरान होंगे कि या तो आपका वजन बाएं पैर पर है या दाएं पैर पर है। थोड़ा-सा खयाल करें आंख बंद करके, तो आप पाएंगे, वजन बाएं पैर पर है या दाएं पैर पर है। अगर पता चले कि आपके शरीर का वजन बाएं पैर पर है, तो थोड़ी देर रुके हुए देखते रहें। आप थोड़ी देर में पाएंगे कि वजन दाएं पैर पर हट गया। अगर दाएं पैर पर वजन मालूम पड़े, तो वैसे ही खड़े रहें और पीछे अंदर देखते रहें कि वजन दाएं पैर पर है। क्षण में ही आप पाएंगे कि वजन बाएं पैर पर हट गया। मन इतने जोर से बदल रहा है भीतर। वह एक पैर पर भी एक क्षण खड़ा नहीं रहता। बाएं से दाएं पर चला जाता है; दाएं से बाएं पर चला जाता है।

अब अगर इस छोटे-से अनुभव में आप एक प्रयोग करें, उस स्थिति में अपने को ऐसा समतुल करके खड़ा करें कि न वजन बाएं पैर पर हो, न दाएं पैर पर; दोनों पैरों के बीच में आ जाए। यह बहुत छोटा-सा प्रयोग आपसे कह रहा हूं। वजन दोनों के बीच आ जाए।

एक क्षण को भी उसकी झलक आपको मिलेगी, तो आप हैरान हो जाएंगे। और मिलेगी झलक। क्योंकि जब बाएं पर जा सकता है और दाएं पर जा सकता है, तो बीच में क्यों नहीं रह सकता! कोई कारण नहीं है, कोई बाधा नहीं है, सिर्फ पुरानी आदत के अतिरिक्त। एक क्षण को आप ऐसे अपने को समतुल करें कि बीच में रह गए, न बाएं पर वजन है, न दाएं पर। और जिस क्षण आपको पता चलेगा कि बीच में है, उसी क्षण आपको लगेगा कि शरीर नहीं है। एकदम लगेगा, बाडीलेसनेस हो गई है; शरीर में कोई भार न रहा। शरीर जैसे निर्भार हो गया। ऐसा लगेगा, जैसे आकाश में चाहें तो उड़ सकते हैं! उड़ नहीं सकेंगे; लेकिन लगेगा ऐसा कि चाहें तो उड़ सकते हैं। ग्रेविटेशन नहीं मालूम होता। ग्रेविटेशन तो है, जमीन तो अभी भी खींच रही है। लेकिन जमीन का जो भार है, वह असली भार नहीं है। असली भार तो मन का है, जो निरंतर द्वंद्व, हर छोटी चीज में द्वंद्व को खड़ा करता है।

इस छोटे-से प्रयोग को भी अगर रोज पंद्रह मिनट कर पाएं, तो तीन महीने में आप उस स्थिति में आ जाएंगे, जब दोनों पैर के बीच में आपको खड़े होने का अनुभव शुरू हो जाएगा। तो इस छोटे-से सूत्र से आपको मन को समत्वबुद्धि में ले जाने का आधार मिल जाएगा। तब जब भी मन और कहीं भी बायां-दायां चुनना चाहे, तब आप वहां भी बीच में ठहर पाएंगे। लेकिन बीच में ठहरने का अनुभव कहीं से तो शुरू करना पड़े। कठिन बात मैंने नहीं कही है, बहुत सरल कही है। क्योंकि और चीजें बहुत कठिन हैं।

और चीजें बहुत कठिन हैं। मित्र न बनाएं, शत्रु न बनाएं--बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा। मन ने किसी को देखा नहीं कि बनाना शुरू कर देता है। आपको थोड़ी देर बाद पता चलता है; मन उसके पहले बना चुका होता है। अजनबी आदमी भी आपके कमरे में प्रवेश करता है, आपका मन चौंककर निर्णय ले चुका होता है। निर्णय आपको भी बाद में जाहिर होते हैं। मन कह देता है, पसंद नहीं है यह आदमी। अभी मिले भी नहीं, बात भी नहीं हुई, चीत भी नहीं हुई; अभी पहचाना भी नहीं, लेकिन मन ने कह दिया कि पसंद नहीं है। पुराने अनुभव होंगे।


मन के पास अपने अनुभव हैं। कभी इस शकल के आदमी ने कुछ गाली दे दी होगी। कि इस आदमी के शरीर से जैसी गंध आ रही है, वैसे आदमी ने कभी अपमान कर दिया होगा। कि इस आदमी की आंखों में जैसा रंग है, वैसी आंखों ने कभी क्रोध किया होगा। कोई एसोसिएशन इस आदमी से तालमेल खाता होगा। मन ने कह दिया कि सावधान! यह आदमी तुर्की टोपी लगाए हुए है, मुसलमान है। यह आदमी तिलक लगाए हुए है, हिंदू है। जरा सावधान! यही आदमी मस्जिद में आग लगा गया था; कि यही आदमी मंदिर को तोड़ गया था। सावधान!

यह बहुत अचेतन है, यह आपके होश में नहीं घटता है। होश में घटने लगे, तब तो घट ही न पाए। यह आपकी बेहोशी में घटता है। आपके भीतर उन अंधेरे कोनों में घट जाता है यह निर्णय, जिनके प्रति आप भी सचेतन नहीं हैं। आप तो थोड़ी देर बाद सचेतन होंगे; देर लगेगी। इस आदमी से बातचीत होगी। और आपके मन ने जो निर्णय ले लिया, उस निर्णय के अनुसार मन इस आदमी में वे-वे बातें खोज लेगा, जो आपने निर्णय लिया है।

आमतौर से आप सोचते हैं कि आप सोच-समझकर निर्णय लेते हैं। लेकिन जो मन को समझते हैं, वे कहते हैं, निर्णय आप पहले लेते हैं, सोच-समझ सब पीछे का बहाना है।

एक आदमी के प्रेम में आप पड़ जाते हैं। आपसे कोई पूछे, क्यों पड़ गए? तो आप कहते हैं, उसकी शकल बहुत सुंदर है, कि उसकी वाणी बहुत मधुर है। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, प्रेम में आप पहले पड़ जाते हैं, ये तो सिर्फ बाद के रेशनलाइजेशंस हैं।

अगर कोई पूछे कि क्यों प्रेम में पड़ गए? तो आप इतने समझदार नहीं हैं कि आप यह कह सकें कि मुझे पता नहीं क्यों प्रेम में पड़ गया! बस, पड़ गया हूं! समझदारी दिखाने के लिए आप कहेंगे कि इसकी शकल देखते हैं, कितनी सुंदर है! लेकिन इसी की शकल को देखकर कोई घृणा में पड़ जाता है। इसी की शकल को देखकर कोई दुश्मन हो जाता है। कहते हैं, देखते हैं, इसकी आवाज कितनी मधुर है! इसी की आवाज सुनकर किसी को रातभर नींद नहीं आती। और आपको भी कितने दिन आएगी, कहना पक्का नहीं है। महीने, दो महीने, तीन महीने, चार महीने बाद हो सकता है, डायवोर्स की दरख्वास्त लेकर खड़े हों। यही आवाज बहुत कर्णकटु हो जाए, जो बहुत मधुर मालूम पड़ी थी।

क्या हो गया? आवाज वही है, आप वही हैं, चेहरा वही है। इससे बड़ी सुगंध आती थी, अब दुर्गंध आने लगी। नाक-नक्श वही है, लेकिन पहले बिलकुल संगमरमर मालूम होता था, अब बिलकुल मिट्टी मालूम होने लगा। हो क्या गया?

कुछ हो नहीं गया। मन भीतर पहले निर्णय ले लेता है; पीछे आपकी बुद्धि उसका अनुसरण करती रहती है।

हम ऐसे मकान बनाने वाले हैं--मकान बनाने के लिए स्ट्रक्चर खड़ा करना पड़ता है न बाहर! चारों तरफ बांस-लकड़ियां बांधनी पड़ती हैं, फिर मकान बनता है। लेकिन मन का मकान उलटा बनता है। पहले मकान बन जाता है, फिर हम बाहर लकड़ियां वगैरह बांध देते हैं।

पहले मन निर्णय ले लेता है, फिर पीछे हम बुद्धि के सब बांस इकट्ठे करके खड़ा करते हैं, ताकि कोई यह न कह सके कि हम निर्बुद्धि हैं। किसी की छोड़ दें, हम न कह सकें अपने को ही कि हम निर्बुद्धि हैं। हम बुद्धिमान हैं। हमने जो भी निर्णय लिया है, बहुत सोच-समझकर लिया है।

कोई निर्णय आप सोच-समझकर नहीं ले रहे हैं। क्योंकि जो आदमी सोच-समझकर निर्णय लेगा, वह एक ही निर्णय लेता है, वह जो कृष्ण ने कहा है, वह समत्व का निर्णय लेता है। वह कोई दूसरा निर्णय कभी लेता ही नहीं।

द्वंद्व के सब निर्णय नासमझी के निर्णय हैं। निर्द्वंद्व होने का निर्णय ही समझदारी का निर्णय है। वे जो भी समझदार हैं, उन्होंने एक ही निर्णय लिया है कि द्वंद्व के बाहर हम खड़े होते हैं। और जिसने कहा कि मैं द्वंद्व के बाहर खड़ा होता हूं, वह मन के बाहर खड़ा हो जाता है। और जो मन के बाहर खड़ा हो गया, उसकी शांति की कोई सीमा नहीं; क्योंकि अब उत्तेजना का कोई उपाय न रहा।

उत्तेजना आती थी द्वंद्व से, चुनाव से, च्वाइस से। अब कोई उत्तेजना का कारण नहीं। अब कोई टेंशन, अब कोई तनाव पैदा करने वाले बीज न रहे। अब वह बाहर है। अब वह शांत है। अब वह मौन है। अब वह जीवन को देख सकता है, ठीक जैसा जीवन है। अब वह अपने भीतर झांक सकता है ठीक उन गहराइयों तक, जहां तक गहराइयां हैं। और ऐसा व्यक्ति जो अपने भीतर पूर्ण गहराइयों तक झांक पाता है--योगारूढ़, योग को आरूढ़, योग को उपलब्ध।

योग का प्रारंभ है समत्व, लेकिन जैसे ही समत्व फलित हुआ कि आदमी योगारूढ़ हो जाता है। योगारूढ़ का अर्थ है, अपने में ठहर गया।

हम योग अरूढ़ हैं। हम च्युत हैं। हम कहीं-कहीं डोलते फिरते हैं। वह जगह भर छोड़ देते हैं, जहां हमें ठहरना चाहिए। कभी बाएं पर, कभी दाएं पर, मध्य में कभी भी नहीं। मध्य में ही आत्मा है। बाएं भी शरीर है, दाएं भी शरीर है। जब बाएं पैर पर जोर पड़ता है, तब शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। और जब दाएं पैर पर जोर पड़ता है, तब भी शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। अगर आप दोनों पैर के बीच में ठहर पाए, तो आप शरीर के बाहर ठहर गए; आप आत्मा में ठहर गए। तब किसी शरीर के हिस्से पर जोर नहीं पड़ता है।

और ऐसा ही सब चीजों के लिए है। घृणा भी मन का हिस्सा है, प्रेम भी मन का हिस्सा है। अगर दोनों के बाहर ठहर गए, तो आत्मा में ठहर गए। क्रोध भी मन है, और क्षमा भी मन है। दोनों के बाहर ठहर गए, तो मन के बाहर ठहर गए।

इन दोनों के बाहर ठहरे हुए व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, योगारूढ़, योग में ठहरा हुआ, योग में थिर।

ऐसी थिरता जीवन के समस्त राज को खोल जाती है। ऐसी थिरता जीवन के सब द्वार खोल देती है। हम पहली बार अस्तित्व की गहराइयों से संबंधित होते हैं। पहली बार हम उतरते हैं वहां, जहां जीवन का मंदिर है, या जहां जीवन का देवता निवास करता है। पहली बार हम परमात्मा में छलांग लगाते हैं।

योग के पंख मिल जाएं जिसे, वही परमात्मा में छलांग लगा पाता है। लेकिन योग के पंख उसे ही मिलते हैं, जिसे समत्व का हृदय मिल जाए। नहीं तो योग के पंख नहीं मिलते। समत्व से शुरू करना जरूरी है।

ऐसा व्यक्ति संकल्पों से क्षीण हो जाता है, कृष्ण कहते हैं।

संकल्प की जरूरत ही नहीं रह जाती। संकल्प की जरूरत ही तब पड़ती है, जब मुझे कुछ चुनाव करना हो। कहता हूं, यह चाहता हूं, तो फिर पाने के लिए मन को जुटाना पड़ता है। कहता हूं, धन पाना है, तो फिर धन की यात्रा पर मन को दौड़ाना पड़ता है। चाहता हूं कि हीरे की खदानें खोजनी हैं, तो फिर खदानों की यात्रा पर शक्ति को नियोजित करना पड़ता है। नियोजित शक्ति का नाम संकल्प है। इच्छा सिर्फ प्रारंभ है। अकेली इच्छा से कुछ भी नहीं होता। फिर सारी ऊर्जा जीवन की उस दिशा में बहनी चाहिए।

मैं हाथ में तीर लिए खड़ा हूं, सामने वृक्ष पर पक्षी बैठा है। अभी तीर चलेगा नहीं, अभी पक्षी मरेगा नहीं। मन में पहले इच्छा पैदा होनी चाहिए, इस पक्षी का भोजन कर लूं, या इस पक्षी को कैद करके अपने घर में इसकी आवाज को बंद कर लूं, कि इस पक्षी के सुंदर पंखों को अपने पिंजड़े में, कारागृह में डाल दूं। इच्छा पैदा होनी चाहिए, इस पक्षी की मालकियत की। पर अकेली इच्छा से कुछ भी न होगा। इच्छा आपमें रही आएगी, पक्षी बैठा हुआ गीत गाता रहेगा वृक्ष पर। इच्छा आपके भीतर जाल बुनती रहेगी, पक्षी वृक्ष पर बैठा रहेगा।

नहीं; इच्छा को संकल्प बनना चाहिए। संकल्प का मतलब है, सारी ऊर्जा नियोजित होनी चाहिए। हाथ तीर पर पहुंच जाना चाहिए। तीर पक्षी पर लग जाना चाहिए। सारी एकाग्रता, सारी मन की शक्ति, सारे शरीर की शक्ति तीर में समाहित हो जानी चाहिए। जब तीर चढ़ गया प्रत्यंचा पर, पक्षी पर ध्यान आ गया, तो इच्छा न रही, संकल्प हो गया। हां, अभी भी लौट सकते हैं। अभी भी संकल्प छूट नहीं गया है। लेकिन अगर तीर छूट गया हाथ से, तो फिर लौट नहीं सकते। संकल्प अगर चल पड़ा यात्रा पर, प्रत्यंचा के बाहर हो गया, तो फिर लौट नहीं सकते।

तो संकल्प की दो अवस्थाएं हैं। एक अवस्था, जहां से लौट सकते हैं; और एक अवस्था, जहां से लौट नहीं सकते। हमारे सौ में से निन्यानबे संकल्प ऐसी ही अवस्था में होते हैं, जहां से लौट सकते हैं। जिन-जिन संकल्पों से लौट सकते हैं, लौट जाएं। संकल्प से लौटेंगे, तो इच्छा रह जाएगी। हमारी सौ प्रतिशत इच्छाएं ऐसी हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। निन्यानबे प्रतिशत संकल्प ऐसे हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। केवल उन्हीं संकल्पों से लौटना मुश्किल है, जिनके तीर हमारी प्रत्यंचा के बाहर हो गए।

मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी मेरी वाणी नहीं बना। मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी मुखर नहीं हुआ। लेकिन जो क्रोध गाली बन गया और मेरे होठों से बाहर हो गया, उससे वापस लौटने का कोई उपाय न रहा; तीर छूट गया है।

लेकिन जिन संकल्पों के तीर छूट गए हैं, तीर छूट गया, अब पक्षी को लगेगा और पक्षी गिरेगा मरकर, तो भी मैं इतना तो कर ही सकता हूं, संकल्प को व्यर्थ कर सकता हूं। लौट तो नहीं सकता, लेकिन व्यर्थ कर सकता हूं। व्यर्थ करने का मतलब यह है कि पक्षी पर मालकियत न करूं। जिस इच्छा को लेकर संकल्प निर्मित हुआ था, उस इच्छा को पूरा न करूं। अभी भी तीर खींचा जा सकता है पक्षी से। अभी भी पक्षी के घाव ठीक किए जा सकते हैं। अभी भी पक्षी को पिंजड़े में न डाला जाए, इसका आयोजन किया जा सकता है। अभी भी पक्षी जिंदा हो, तो उसे मुक्त आकाश में छोड़ा जा सकता है।

तो जो संकल्प तीर की तरह निकल गए हों, उन संकल्पों को अनडन करने के लिए जो भी किया जा सके, वह साधक को करना चाहिए, उनको व्यर्थ करने के लिए। जो संकल्प अभी प्रत्यंचा पर चढ़े हैं, प्रत्यंचा ढीली छोड़कर तीरों को वापस तरकस में पहुंचा देना चाहिए। जो संकल्प इच्छा रह जाएं, उन इच्छाओं के द्वंद्व को समझ लेना चाहिए कि चुनाव से पैदा हो रहे हैं। और दाएं और बाएं के बीच में खड़ा हो जाना चाहिए। और कहना चाहिए, मैं चुनूंगा नहीं। मैं एक ही चुनाव करता हूं कि मैं चुनूंगा नहीं। टु बी च्वाइसलेस इज़ दि ओनली च्वाइस। एक ही चुनाव है मेरा कि अब मैं चुनाव नहीं करता।

इच्छाओं के बादल थोड़ी देर में ही बिखर जाएंगे और तिरोहित हो जाएंगे। और अगर आप बाएं और दाएं के बीच में खड़े हो गए, तो समत्व का अनुभव होगा। और समत्व का अनुभव योगारूढ़ होने का द्वार खोल देता है। वहां कोई संकल्प नहीं है; वहां कोई विकल्प नहीं है। वहां परिपूर्ण मौन, परिपूर्ण शून्य है। उसी शून्य में परम साक्षात्कार है।

कृष्ण के सभी सूत्र परम साक्षात्कार के विभिन्न द्वारों पर चोट करते हैं। वे अर्जुन को कहते हैं कि तू समत्वबुद्धि को उपलब्ध हो जा, फिर तू योगारूढ़ हो जाएगा। और फिर योगारूढ़ होकर तेरे सारे संकल्प गिर जाएंगे, सब विकल्प गिर जाएंगे; तेरे चित्त की सारी चिंताएं गिर जाएंगी। तू निश्चिंत हो जाएगा। सच तो यह है कि तू चित्तातीत हो जाएगा। चित्त ही तेरा न रह जाएगा, मन ही तेरा न रह जाएगा। अगर ऐसा कहें, तो कह सकते हैं कि फिर तू अर्जुन न रह जाएगा, आत्मा ही रह जाएगा।

और जिस दिन कोई सिर्फ आत्मा रह जाता है, उसी दिन जान पाता है अस्तित्व के आनंद को, वह जो समाधि है अस्तित्व की, वह जो एक्सटैसी है, वह जो मंगल है, वह जो सौंदर्य है गहन--सत्य, स्वयं में छिपा--उसके उदघाटन को। परम है संगीत उसका, परम है काव्य उसका।

लेकिन जानने के पहले एक तैयारी से गुजरना जरूरी है। उसी तैयारी का नाम योग है। उस तैयारी की सिद्धि को पा लेना योगारूढ़ हो जाना है। उस तैयारी की प्रक्रिया समत्वबुद्धि है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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