गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 23

  काम-क्रोध से मुक्ति 


लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।। 25।।


और नाश हो गए हैं सब पाप जिनके, तथा ज्ञान करके निवृत्त हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान के ध्यान में चित्त जिनका, ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।


पाप से हो गए हैं जो मुक्त, चित्त की वासनाएं जिनकी शांत हुईं, जो स्वयं में एक शांत झील बन गए हैं, वे शांत ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।

अर्जुन तो चाहता था केवल पलायन। नहीं सोचा था उसने कि कृष्ण उसे एक अंतर-क्रांति में ले जाने के लिए उत्सुक हो जाएंगे। उलझ गया बेचारा। सोचा था, सहारा मिलेगा भागने में। नहीं सोचा था कि किसी आत्मक्रांति से गुजरना पड़ेगा। उसकी मर्जी जिज्ञासा शुरू करने की इतनी ही थी, इस युद्ध से कैसे बच जाऊं। कोई नए जीवन को उपलब्ध करने की आकांक्षा नहीं है।

लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति के पास कोई पत्थर खोजता हुआ भी जाए, तो भी उनकी मजबूरी है कि वे पत्थर दे नहीं सकते हैं। वे हीरे ही दे सकते हैं। कोई पत्थर खोजता हुआ जाए, तो भी कृष्ण को कोई उपाय नहीं कि पत्थर दें, हीरे ही दे सकते हैं।

जो अर्जुन को कृष्ण ने दिया है, वह अर्जुन ने पूछा नहीं, चाहा नहीं। कठिनाई में पड़ता होगा सुनकर उनकी बातें। ब्रह्म और शांत हुए चित्त का ब्रह्म से तादात्म्य--लगता होगा अर्जुन को, सिर पर से निकल रही हैं बातें।



अर्जुन रिटायर होना चाहता था; कृष्ण रिफार्म करना चाहते हैं। अर्जुन चाहता था, सिर्फ बच निकले! कृष्ण उसकी पूरी जीवन ऊर्जा को नई दिशा दे देना चाहते हैं।

और दो ही प्रकार के मार्ग हैं जीवन ऊर्जा के लिए। एक तो मार्ग है कि हम अशांति के जालों को निर्मित करते चले जाएं, जैसा कि हम सब करते हैं। अशांति की भी अपनी विधि है। पागलपन की भी अपनी विधि होती है। बीमार होने के भी अपने उपाय होते हैं। चित्त को रुग्ण करना और विक्षिप्त करना भी बड़ा सुनियोजित काम है! पता नहीं चलता हमें, क्योंकि बचपन से जिस समाज में हम बड़े होते हैं, वहां चारों तरफ हमारे जैसे ही लोग हैं। जो भी हम करते हैं, बिना इस बात को सोचे-समझे कि जो भी हम कर रहे हैं, वह हमें भी बदल जाएगा।

कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। विचार भी करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर किसी की हत्या का विचार कर रहे हैं, माना कि अपने कोई हत्या नहीं की, घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर तक हत्या के विचार ने आपको पतित किया, आप नीचे गिरे। आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या करने की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं।

हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना में जो बीज हम आज बोते हैं, कभी-कभी हम भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई जोड़ है।

जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।

हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं। जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म और स्वयं के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।

अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है। शांत चित्त संसार से संबंधित नहीं हो पाता। अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाता। शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, पाप जिनके क्षीण हुए!

क्या है पाप? जब भी हम किसी दूसरे को दुख पहुंचाना चाहते हैं, विचार में या कृत्य में, तभी पाप घटित हो जाता है। जो व्यक्ति दूसरे को दुख पहुंचाना चाहता है, कृत्य में या भाव में, वह पाप में ग्रसित हो जाता है। जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर किसी को भी दुख नहीं पहुंचाना चाहता, कृत्य में या विचार में, वह पाप के बाहर हो जाता है।

बुद्धि हुई जिनकी निःसंशय!

जिनकी बुद्धि निःसंशय हो गई, सम हो गई, समान हो गई; ठहर गए जो; जिनके भीतर कोई संशय की हवाएं अब नहीं बहतीं; कोई तूफान, आंधियां नहीं उठतीं संशय की; निःसंशय होकर सम हो गए हैं।

हममें से बहुत-से लोग समझते हैं कि समता में रहते हैं। जब हमें लगता है कि हम समता में भी हैं--तब भी--तब भी हम समता में होते नहीं। 

गहरी समता दो के बीच नहीं होती। गहरी समता सदा अपने और दूसरे के बीच होती है। दूसरे के बीच तटस्थ हो जाना बहुत आसान है। बहुत आसान है। सवाल तो तब उठते हैं, जब अपने और दूसरे के बीच तटस्थ होने की बात उठती है।

ध्यान रहे, द्वंद्व के जो बाहर है, वह शांत है। द्वंद्व के भीतर जो है, वह अशांत है। दो के बीच जो चुनाव कर रहा है, वह अशांत है। दो के बीच जो च्वाइसलेस अवेयरनेस को--कृष्णमूर्ति कहते हैं जिस शब्द को बार-बार--कि जो चुनावरहित, विकल्परहित चैतन्य को उपलब्ध हो गया है, वैसा व्यक्ति शांत हो जाता है।

ऐसे शांत व्यक्ति का शांत ब्रह्म से संबंध निर्मित होता है। ऐसी शांति ही मंदिर है, तीर्थ है। जो ऐसी शांति में प्रवेश करता है, उसके लिए प्रभु के द्वार खुल जाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...