मंगलवार, 18 जून 2024


 मंत्रों का जाप या सुनना स्पंदन उत्पन्न करता है; सकारात्मक ऊर्जा, और सार्वभौमिक उत्थान करता हैं। ॐ नमः शिवाय सबसे शक्तिशाली मंत्रों में से एक है। इस मंत्र के जाप से आपके सिस्टम में ऊर्जा का निर्माण होता है और वातावरण भी साफ होता है। लोग हजारों सालों से इस मंत्र का जाप करते आ रहे हैं।

ना मा शि वा या - ये पांच अक्षर पांच तत्वों, संस्कृत में पंच भूत के रूप में जाना जाता है, को इंगित करते हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और ईथर। पांच तत्व मानव शरीर सहित सृष्टि में हर चीज के निर्माण खंड हैं, और भगवान शिव इन पांच तत्वों के स्वामी हैं। जबकि 'ॐ' ब्रह्मांड की ध्वनि है। 'ॐ' का अर्थ है शांति और प्रेम। तो पर्यावरण में पांच तत्वों के सामंजस्य के लिए ' ॐ नमः शिवाय' का जाप किया जाता है। जब पांचों तत्वों में शांति, प्रेम और सद्भाव होता है, तो आनंद होता है और न केवल आपके भीतर, बल्कि आपके आसपास भी आनंद होता है।

ॐ नमः शिवाय का जाप करने से हमें अपने भीतर के पांच तत्वों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है, जिससे मन शांत हो जाता है। मौन से शिव तत्त्व का अनुभव होता है। इस तरह, इस मंत्र के माध्यम से हर कोई शिव तक पहुंच सकता है। इस मंत्र का जाप हमारे अस्तित्व के विभिन्न कोषों या परतों को जोड़ता है और हमारे भीतर शिव के गुणों को बढ़ाता है।  इसमें मन को शांत करने का प्रभाव होता है और इसलिए यह ध्यान की तैयारी का एक अच्छा तरीका भी है।

 महाभारत में वर्तमान कलियुग तक की घटनाओं का विवरण मिलता है। इसी युग के प्रारम्भ में आज से लगभग ५,००० वर्ष पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को भगवद्गीता सुनाई थी।

उनकी यह वार्ता, जो मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता है, उस महायुद्ध के शुभारम्भ के पूर्व हुई, जो धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों तथा उनके चचेरे भाई पाण्डवों के मध्य होने वाला था।

धृतराष्ट्र तथा पाण्डु भाई-भाई थे जिनका जन्म कुरुवंश में हुआ था और जो राजा भरत के वंशज थे, जिनके नाम पर ही महाभारत नाम पड़ा। चूँकि बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था, अतएव राजसिंहासन उसे न मिलकर उसके छोटे भाई पाण्डु को मिला।

पाण्डु की मृत्यु बहुत ही कम आयु में हो गई, अतएव उसके पाँच पुत्र- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव धृतराष्ट्र की देखरेख में रख दिये गये, क्योंकि उसे कुछ काल के लिए राजा बना दिया गया था। इस तरह धृतराष्ट्र तथा पाण्डु के पुत्र एक ही राजमहल में बड़े हुए। दोनों ही को गुरु द्रोण द्वारा सैन्यकला का प्रशिक्षण दिया गया और पूज्य भीष्म पितामह उन्हें सलाह देते रहते थे।

 धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों से घृणा और ईर्ष्या करता था और अन्धा तथा दुर्बलहृदय धृतराष्ट्र पाण्डुपुत्रों के बजाय अपने पुत्रों को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। इस तरह धृतराष्ट्र के परामर्श से दुर्योधन ने पाण्डु के युवा पुत्रों को जान से मार डालने का षड्यन्त्र रचा। पाँचों पाण्डव अपने चाचा विदुर तथा अपने ममेरे भाई कृष्ण के संरक्षण में रहने के कारण अपने प्राणों की रक्षा करते रहे।

कृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात् परम ईश्वर हैं जिन्होंने इस धराधाम में अवतार लिया था और अब एक राजकुमार की भूमिका अदा कर रहे थे। वे पाण्डु की पत्नी कुन्ती  के भतीजे थे। इस तरह सम्बन्धी के रूप में तथा धर्म के पालक होने के कारण वे पाण्डुपुत्रों का पक्ष लेते रहे और उनकी रक्षा करते रहे।

किन्तु अन्ततः चतुर दुर्योधन ने पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए ललकारा । उस निर्णायक स्पर्धा में दुर्योधन तथा उसके भाइयों ने पाण्डवों की सती पत्नी द्रौपदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और फिर उसे राजाओं तथा राजकुमारों की सभा के मध्य निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। कृष्ण के दैवी हस्तक्षेप से उसकी रक्षा हो सकी, किन्तु जुए में हार जाने के कारण पाण्डवों को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा और तेरह वर्ष के लिए  वनवास  जाना पड़ा।

वनवास से लौटकर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य माँगा, किन्तु उसने देने से इनकार कर दिया। पाँचों पाण्डवों ने अन्त में अपना पूरा राज्य न माँगकर केवल पाँच गाँवों की माँग रखी, किन्तु दुर्योधन सुई की नोक भर भी भूमि देने के लिए राजी नहीं हुआ ।

अभी तक तो पाण्डव सहनशील बने रहे, लेकिन अब उनके लिए युद्ध करना अवश्यम्भावी हो गया।

विश्वभर के राजकुमारों में से कुछ धृतराष्ट्र के पुत्रों के पक्ष में थे, तो कुछ पाण्डवों के पक्ष में। उस समय कृष्ण पाण्डुपुत्रों के संदेशवाहक बनकर शान्ति की याचना के लिए धृतराष्ट्र के दरबार में गये। जब उनकी याचना अस्वीकृत हो गई, तो युद्ध निश्चित था।

अत्यन्त सच्चरित्र पाँचों पाण्डवों ने कृष्ण को भगवान् के रूप में पहचान लिया था, किन्तु धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्र उन्हें नहीं समझ पाये थे। फिर भी कृष्ण ने विपक्षियों की इच्छानुसार ही युद्ध में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा। ईश्वर के रूप में वे युद्ध नहीं कर सकते थे, किन्तु जो भी उनकी सेना का उपयोग करना चाहे, कर सकता था। राजनीति में कुशल दुर्योधन ने कृष्ण की सेना झपट ली, जबकि पाण्डवों ने कृष्ण को लिया। इस प्रकार कृष्ण अर्जुन के सारथी बने और उन्होंने उस सुप्रसिद्ध धनुर्धर का रथ हाँकना स्वीकार किया। इस तरह हम उस बिन्दु तक पहुँच जाते हैं जहाँ से भगवद्‌गीता का शुभारम्भ होता है- दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार खड़ी हैं और धृतराष्ट्र अपने सचिव सञ्जय से पूछ रहा है कि उन सेनाओं ने क्या किया ?






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 श्रीमद्भगवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेदों का सार-सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं, इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति सहित विचार करने से इसके पद पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। भगवान के गुण, प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्र में किया गया है, वैसा अन्य ग्रन्थों में मिलना कठिन है; क्योंकि प्रायः ग्रन्थोंमें कुछ-न-कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है। भगवान्ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है।

श्रीवेदव्यासजी ने महाभारत में गीताजी का वर्णन करने के उपरान्त कहा है 'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्रीगीताजी को भली प्रकार पढ़ कर अर्थ और भावसहित अन्तःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्रीविष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है?' स्वयं श्री भगवान ने भी इस के माहात्म्य का वर्णन किया है ।इस गीताशास्त्र में मनुष्यमात्र का अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम में स्थित हो; परंतु भगवान में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये; क्योंकि भगवान ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि भी मेरे परायण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं; अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं - इन सबपर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार है।

परन्तु उक्त विषय के मर्म को न समझने के कारण बहुत से मनुष्य, जिन्होंने श्रीगीताजी का केवल नाममात्र ही सुना है, कह दिया करते हैं कि गीता तो केवल संन्यासियों के लिये ही है; वे अपने बालकों को भी इसी भय से श्रीगीताजी का अभ्यास नहीं कराते कि गीता के ज्ञानसे कदाचित् लड़का घर छोड़कर संन्यासी न हो जाय; किन्तु उनको विचार करना चाहिये कि मोह के कारण क्षात्रधर्म से विमुख होकर भिक्षा के अन्नसे निर्वाह करने के लिये तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया, उस गीताशास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है ? अतएव कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकों को अर्थ और भाव के सहित श्रीगीताजी का अध्ययन करायें एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान्‌ के आज्ञानुसार साधन करने में तत्पर हो जायँ; क्योंकि अति दुर्लभ मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी दुःखमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।


रविवार, 16 जून 2024

विजय की प्राप्ति करने की इच्छा हर एक के अंतःकरण में होती है, परंतु बहुत थोडे लोग जानते हैं, कि विजय प्राप्ति की संभावना मनुष्य के मन की अवस्था पर निर्भर है । विजय प्राप्ति के लिये जिस प्रकार का मन होना आवश्यक है, उस प्रकार का मन बनाने के लिये ही महाभारत लेखक ने यह" जय इतिहास" लिखा है। यह इतिहास इतना उत्साहमय है कि यदि यह इतिहास मनुष्य पढेगा और इसके उपदेश का मनन करेगा, तो निः संदेह वह मनुष्य उत्साह की मूर्ति बन जायगा । निराशावाद का अंश भी इसके पढने के पश्चात् मनुष्य के मन में रह नहीं सकता ।

धर्मराज को अल्पसंतुष्ट न रहते हुए, अपने संपूर्ण शत्रुओं का पूर्ण नाश करके अपना संपूर्ण राज्य पुनः प्राप्त करने की प्रेरणा करने के लिये ही यह इतिहास भगवती माता कुंती देवी ने कहा है और धर्मराजपर उसका अच्छा परिणाम भी हुआ है।

यहां माता का भी कर्तव्य स्पष्ट हो जाता है, कि यदि उनके कोई पुत्र या पुत्री निरु- त्साहित हों, तो उनको पुनः उत्साहित करके अधिक प्रयत्न करने के लिये प्रेरित करना। श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जिजाबाईजी का चरित्र इसी प्रकार ओजस्वी था और उनकी प्रेरणा से श्री शिवाजी महाराज को जो अमोल ओजस्वी उपदेश मिलता था वह अपूर्व ही था। इसी प्रकार श्री० विदुलादेवी का उपदेश इस जय इतिहास में है ।

स्वयं महाभारत के लेखक प्रतिज्ञा पूर्वक कहते हैं कि यह इतिहास पढने से ये लाभ होगें-" यह इतिहास विजय चाहने वाले राजा को अवश्य पढना योग्य है, निरुत्साहित और शत्रु से पीडित राजा को यह पढना या सुनना योग्य है। क्योंकि इसके पढने से निरुत्सा- हित राजा ऐसा ओजस्वी बनता है, कि वह अपने संपूर्ण शत्रुओं को पराजित करके संपूर्ण पृथ्वी का राज्य प्राप्त कर सकता है। यदि गर्भवती अवस्था में स्त्री इसको सुनेगी तो उसके गर्भ से पुत्र या पुत्री जो भी उत्पन्न होगा वह तेजस्वी होगा, इसमें कोई संदेह ही नहीं है। यदि अपनी संतान विद्वान, उदार, तपस्वी, उत्साही, तेजस्वी, वलवान, वीर, शूर, धैर्यशाली, विजयी, अपराजित, सज्जनों की रक्षक तथा दुष्टों का शमन करने- वाला इत्यादि गुणों से युक्त बन जाय, ऐसी इच्छा है, तो पति पत्नी को यह इतिहास वारंवार पढना चाहिये । " हमें विश्वास है कि निःसंदेह ऐसा होगा।  आशा है कि इसके पढने से हमारे देश में वीरता बढेगी और हमारा देश वीरों का देश बनेगा । 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...