मंगलवार, 18 जून 2024

 श्रीमद्भगवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेदों का सार-सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं, इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति सहित विचार करने से इसके पद पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। भगवान के गुण, प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्र में किया गया है, वैसा अन्य ग्रन्थों में मिलना कठिन है; क्योंकि प्रायः ग्रन्थोंमें कुछ-न-कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है। भगवान्ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है।

श्रीवेदव्यासजी ने महाभारत में गीताजी का वर्णन करने के उपरान्त कहा है 'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्रीगीताजी को भली प्रकार पढ़ कर अर्थ और भावसहित अन्तःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्रीविष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है?' स्वयं श्री भगवान ने भी इस के माहात्म्य का वर्णन किया है ।इस गीताशास्त्र में मनुष्यमात्र का अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम में स्थित हो; परंतु भगवान में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये; क्योंकि भगवान ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि भी मेरे परायण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं; अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं - इन सबपर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार है।

परन्तु उक्त विषय के मर्म को न समझने के कारण बहुत से मनुष्य, जिन्होंने श्रीगीताजी का केवल नाममात्र ही सुना है, कह दिया करते हैं कि गीता तो केवल संन्यासियों के लिये ही है; वे अपने बालकों को भी इसी भय से श्रीगीताजी का अभ्यास नहीं कराते कि गीता के ज्ञानसे कदाचित् लड़का घर छोड़कर संन्यासी न हो जाय; किन्तु उनको विचार करना चाहिये कि मोह के कारण क्षात्रधर्म से विमुख होकर भिक्षा के अन्नसे निर्वाह करने के लिये तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया, उस गीताशास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है ? अतएव कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकों को अर्थ और भाव के सहित श्रीगीताजी का अध्ययन करायें एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान्‌ के आज्ञानुसार साधन करने में तत्पर हो जायँ; क्योंकि अति दुर्लभ मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी दुःखमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।


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