गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 5

  सम्यक दृष्टि


यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। 5।।


तथा ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधर्म प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को फलरूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।



देखते सभी हैं; यथार्थ बहुत कम लोग देखते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं होता, जो है। वरन हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि दर्शन को विकृत कर जाती है। हमारी आंखें दृश्य को देखती ही नहीं, दृश्य को निर्मित भी कर जाती हैं।

जीवन में चारों ओर बिना व्याख्या के हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते हैं। और व्याख्या के साथ किया गया अनुभव विकृत अनुभव है। जो भी हम देखते हैं, उसमें हम भी सम्मिलित हो जाते हैं। दर्शन विकृत हो जाता है।

कृष्ण यहां कह रहे हैं कि कर्म से, निष्काम कर्म से या कर्म-संन्यास से; कर्मयोग से या कर्मत्याग से, एक ही परम स्थिति उपलब्ध होती है।

लेकिन ऐसा तो केवल वे ही देख पाते हैं, जो वही देखते हैं, जो है। जिनकी दृष्टि दर्शन में बाधा नहीं बनती। जिनके अपने खयाल यथार्थ के ऊपर आरोपित नहीं होते, इम्पोज नहीं होते। जो अपने को हटाकर देखते हैं, या ऐसा कहें कि जो शून्य होकर देखते हैं, जो बीच में नहीं आते। वे तो ऐसा ही देखते हैं कि चाहे कोई कर्म के जगत में जीकर आकांक्षाओं को छोड़कर चले, या कोई कर्म को ही छोड़कर चल दे, अंतिम उपलब्धि एक ही होती है।

लेकिन यह उनकी प्रतीति है, जिनके पास अपने कोई विचार आरोपित करने को नहीं हैं। यह उनकी स्थिति है, जो निर्विचार हैं। यह उनकी स्थिति है, जिनके पास अपना कोई भी खयाल यथार्थ के ऊपर रोपने को नहीं है। लेकिन बाकी शेष सारे लोग दोनों में विरोध देखेंगे।

विरोध दिखाई पड़ता है। कहां तो कर्म का जीवन, और कहां सारे कर्म को छोड़कर चले जाने वाला जीवन! अगर ये दोनों विरोधी नहीं हैं, तो फिर इस जगत में क्या विरोधी हो सकता है! कहां तो एक व्यक्ति, जो दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे कर्मों में घिरा है! 

कृष्ण, युद्ध के मैदान पर खड़े हैं। कहां बुद्ध, जीवन का सारा संघर्ष छोड़कर हट गए हैं। कहां जनक, महलों में, जीवन के घने बाजार के बीच, साम्राज्य के बीच खड़े हैं! कहां महावीर, वस्त्र के भी रहने से शरीर पर कहीं कर्म का कोई लेप न चढ़ जाए, इसलिए वस्त्र भी छोड़कर नग्न हो गए हैं! कहां मोहम्मद, तलवार लेकर जूझने को तैयार। कहां महावीर, पैर भी फूंककर रखेंगे कि चींटी न दब जाए! इन दोनों आदमियों को एक देख पाना अति कठिन है। सहज ही प्रतीत होता है कि विपरीत हैं दोनों बातें। विपरीत ही दिखाई पड़ती हैं दोनों बातें।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, विपरीत उसे दिखाई पड़ती हैं, जो अज्ञानी है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए।

इस जगत में जो-जो चीज विपरीत दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही विपरीत दिखाई पड़ती है। जहां-जहां भेद, जहां-जहां द्वैत दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही दिखाई पड़ती है। अंधेरे और प्रकाश में भी विरोध नहीं है। और जन्म और मृत्यु में भी विरोध नहीं है। जन्म भी वही है, जो मृत्यु है। और अंधेरा भी वही है, जो प्रकाश है।

लेकिन यह उसे दिखाई पड़ता है, जिसकी आंखों से सारा धुआं विचार का हट गया और जिसके प्राणों से अहंकार की बदलियां हट गईं। और जिसका अंतःप्राण पारदर्शी, ट्रांसपैरेंट हो गया। जो दर्पण की तरह हो गया। जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; जो दिखाई पड़ता है, वही झलकता है।

जो दर्पण की तरह हो गया, निर्द्वंद्व, उसे तो सारे रास्ते परमात्मा तक ही पहुंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह तो कहेगा कि रावण भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहा है। और राम भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहे हैं। उतना गहरा देखने पर तो राम और रावण के बीच का भी फासला गिर जाएगा। लेकिन उतना गहरा देखना तभी संभव है, जब हमारे भीतर विचार का द्वैत विसर्जित हो गया हो।

जो व्यक्ति जीवन में इस भांति निर्विचार देखने में समर्थ हो जाता है, उस व्यक्ति को अत्यंत विरोधी मार्ग भी एक ही मालूम पड़ते हैं। वह कह सकता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मूढ़जन को तो, बुद्धिहीन को तो बड़े विपरीत मालूम पड़ेंगे। लगेगा कि कहां संसार के कर्म का जाल और कहां सब छोड़कर किसी गुफा में बैठ जाना मौन, बड़ी विपरीत हैं बातें। लेकिन कृष्ण कहते हैं, नहीं हैं विपरीत। क्यों नहीं हैं विपरीत? नहीं हैं विपरीत इसलिए, कि चाहे कोई आकांक्षाओं को छोड़ दे, और चाहे कोई कर्म को छोड़ दे, दोनों से चित्त में एक ही अवस्था घटित होती है।

जिसने आकांक्षा को छोड़ दिया, उसके लिए कर्म अभिनय से ज्यादा, एक्टिंग से ज्यादा नहीं रह जाता। जिसने फल की आकांक्षा छोड़ दी, उसे कर्म खेल से ज्यादा, लीला से ज्यादा नहीं रह जाता। वह कर्म को छोड़े या न छोड़े, कर्म की कोई भी प्रभावना उसकी चेतना पर अंकित नहीं होती है। क्योंकि कर्म अंकित नहीं होते, फल की आकांक्षा अंकित होती है।

कभी आपने सोचा कि आप कर्म से कभी पीड़ित नहीं हैं, आप पीड़ित फल की आकांक्षा से हैं! और अगर कर्म से पीड़ित होते हैं, तो फल की आकांक्षा के कारण पीड़ित होते हैं। पीड़ा का जो जहर है, वह फल की आकांक्षा में है, अपेक्षा में है, एक्सपेक्टेशन में है। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कर्म देता है। जितनी छोटी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कम हो जाती है। जितनी शून्य अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा विदा हो जाती है। लेकिन हम कोई कर्म जानते नहीं, जो हमने बिना फल की अपेक्षा के किया हो।

दिन में चौबीस घंटे में जो आदमी एक काम अपेक्षारहित कर ले, उसने प्रार्थना की, उसने नमाज पढ़ी, उसने ध्यान किया। एक काम आदमी अगर चौबीस घंटे में अपेक्षारहित, फलरहित कर ले, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसके कर्मों का जाल धीरे-धीरे अपेक्षारहित होने लगे। क्योंकि उस छोटे-से काम को करके वह पहली दफे पाएगा कि जीवन न दुख में है, न सुख में है, वरन परम शांति में उतर गया। उस छोटे-से कृत्य के द्वारा शांत हो गया।

अपेक्षा सुख का आश्वासन देती है, दुख का फल लाती है। अपेक्षारहित कृत्य गहन शांति के सागर में डुबा जाता है। अपेक्षारहित कृत्य आनंद के द्वार खोल देता है।

देखें, प्रयोग करें। और जैसे-जैसे खयाल में आएगा, वैसे-वैसे समझ में आएगा कि अगर अपेक्षारहित कृत्य किया, तो वही अंतिम फल मिलता है, जो कर्म को छोड़ने वाले को मिलता होगा। जो आदमी कर्म छोड़कर भाग गया है, वह भी शांत हो जाता है, अशांति का कोई कारण नहीं रह जाता। लेकिन जिस आदमी ने फल की आकांक्षा छोड़ दी है, अशांति के सारे कारण मौजूद रहते हैं, लेकिन भीतर अशांति को पकड़ने वाली ग्राहकता, रिसेप्टिविटी नष्ट हो जाती है।


दो रास्ते हैं। एक दर्पण है। और मैं उसके सामने खड़ा हूं। मैं हट जाऊं, तो दर्पण पर तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, मैं खड़ा रहूं, तो भी तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। मैं हट जाऊं, दर्पण को बना रहने दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। दोनों कृत्य बहुत अलग हैं। लेकिन परिणाम दोनों का एक है कि तस्वीर मिट जाती है।

दर्पण को तोड़ना कर्म को छोड़ने जैसा है। और आकांक्षा को तोड़ना स्वयं दर्पण से हट जाने जैसा है। दर्पण अपनी जगह है, मैं ही हट गया। कर्म अपनी जगह है, मैंने ही कर्म से अपनी आकांक्षा हटा ली, अहंकार को हटा लिया। मैं पीछे हो गया।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दोनों में से कुछ भी हो जाए अर्जुन, परिणाम एक ही होता है। लेकिन ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। और जो ऐसा जानते हैं, उनका ही दर्शन सम्यक है। उनका ही देखना ठीक देखना है। जो ऐसा नहीं जानते, उनका देखना मिथ्या देखना है।

एक अंतिम बात और इस संबंध में आपसे कहूं, और वह यह है, न देखना, गलत देखने से बेहतर है। न देखना, आंख का बंद होना, मिथ्या देखने से बेहतर है। न देखने वाला किसी न किसी दिन जल्दी ही देखने पर पहुंच जाएगा। लेकिन गलत देखने वाले की ठीक देखने पर पहुंचने में बड़ी लंबी यात्रा है।

अज्ञान मिथ्या ज्ञान से भी खतरनाक है।  क्योंकि अज्ञान में एक विनम्रता है, मिथ्या ज्ञान में विनम्रता नहीं है। अज्ञानी कहता है, मैं नहीं जानता। एक गहरी विनम्रता  है। अज्ञानी अनुभव करता है कि मैं नहीं जानता, तो जानने की संभावना निरंतर मौजूद रहती है।

मिथ्या ज्ञानी सोचता है कि मैं जानता हूं, बिलकुल ठीक से जानता हूं, जानने का द्वार भी बंद हो गया। जानने की यात्रा भी शुरू नहीं होगी। और मिथ्या ज्ञानी को खयाल है कि मैं जानता हूं, तो वह जिस चीज को जानता है, उसे जोर से पकड़े बैठा रहता है। और जब तक मिथ्या ज्ञान न हट जाए, तब तक सम्यक ज्ञान के उतरने का कोई उपाय नहीं है।

हाथ खाली हो, बेहतर। तो किसी दिन हीरे दिखाई पड़ जाएं, तो खाली हाथ उन्हें उठा ले सकते हैं। लेकिन हाथ कंकड़-पत्थर को हीरे समझकर बांधकर मुट्ठियां बंद हुए बैठे हों, तो खतरनाक। क्योंकि हीरे भी दिखाई पड़ जाएं, तो शायद ही दिखाई पड़ें। क्योंकि जिसकी मुट्ठी में रंगीन पत्थर बंद हैं और जो सोच रहा है कि मेरे पास हीरे हैं, वह शायद ही अपनी मुट्ठी को छोड़ इस बड़े जगत में खोजने निकले कि हीरे कहीं और हैं। हीरे तो उसके पास हैं ही, इसलिए उसकी यात्रा बंद है।

कृष्ण कहते हैं, जो इन दो विरोधों के बीच एक को देख पाता है, वही ठीक देखता है।

दो विरोधों के बीच एक को देख पाना इस जगत का सबसे बड़ा अनुभव है। दो विरोधों के बीच एक को देख पाना गहरी से गहरी, सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि है। नहीं दिखाई पड़ता। आकाश और पृथ्वी एक नहीं दिखाई पड़ते। कहां आकाश, कहां पृथ्वी! दो दिखाई पड़ते हैं साफ। जन्म और मृत्यु एक दिखाई नहीं पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं। पत्थर और चेतना एक नहीं दिखाई पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं।

लेकिन हमारा साफ दिखाई पड़ना बहुत ही गलत है। आकाश और पृथ्वी दो नहीं हैं। बता सकते हैं, कहां पृथ्वी समाप्त होती है और कहां आकाश शुरू होता है? आकाश पृथ्वी को सब ओर से घेरे हुए है। गङ्ढा खोदें पृथ्वी में। तो कुआं खोदते हैं, तब आप सोचते हैं कि आप पृथ्वी खोद रहे हैं? आप गलती कर रहे हैं। आप सिर्फ मिट्टी अलग कर रहे हैं और आकाश को प्रकट कर रहे हैं। जब आप गङ्ढा खोदकर कुआं खोदते हैं, तो जमीन के भीतर आकाश मिल जाता है। खोदते चले जाएं और आकाश मिलता चला जाएगा। आर-पार हो जाएं; यहां से खोदें और अमेरिका में निकल जाएं, तो बीच में आकाश ही आकाश मिलता चला जाएगा।

वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी भी श्वास लेती है, पोरस है। पृथ्वी भी छिद्रहीन नहीं है; सछिद्र है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम पृथ्वी को कनडेंस कर सकें, उसमें जितना आकाश है उसको बाहर निकाल सकें, तो एक छोटी-सी बच्चे के खेलने की गेंद के बराबर कर सकते हैं। लेकिन वह बच्चे की गेंद भी पोरस होगी और विज्ञान अगर किसी दिन और समर्थ हो जाए, तो उसे और छोटा कर सकता है।

आकाश और पृथ्वी अलग नहीं, एक ही हैं। पृथ्वी आकाश से ही बनती है, वैज्ञानिक कहते हैं। आकाश से ही जन्मती है। जैसे पानी में भंवर पड़ती है, पानी की ही भंवर। ऐसे ही आकाश जब भंवर से भर जाता है, नेबुला बन जाता है, तो पृथ्वी बनती है। फिर एक दिन पृथ्वी आकाश में खो जाती है।

रोज न मालूम कितने ग्रह आकाश में वापस खो रहे हैं, जैसे रोज आदमी मृत्यु में खो जाते हैं। और रोज बच्चे पैदा होते रहते हैं। आदमी ही पैदा होते हैं, ऐसा नहीं; चांदत्तारे भी रोज पैदा होते हैं। और रोज चांदत्तारे मरते रहते हैं। पैदा होते हैं शून्य आकाश से, विलीन हो जाते हैं शून्य आकाश में। आकाश और पृथ्वी दो नहीं।

गेहूं आप खा लेते हैं, खून बन जाता है। चेतना बन जाती है। कहते हैं, पत्थर और चेतना अलग है। सिर्फ नासमझ कहते हैं। क्योंकि मिट्टी भी आपके भीतर जाकर चेतन हो जाती है। आपका शरीर मिट्टी से ज्यादा क्या है? इसलिए कल जब मर जाएंगे, तो डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। मरे हुए आदमी को हम कहते हैं कि मिट्टी उठाओ जल्दी। कल तक आदमी था, जिंदा था, जीवित था। कोई कह देता, मिट्टी हो, तो छुरा निकालकर खड़ा हो जाता। आज हम कहते हैं, मिट्टी जल्दी उठाओ।

सब मिट्टी में खो जाता है। मिट्टी से ही आया था, इसीलिए मिट्टी में खो जाता है। रोज मिट्टी ही खा रहे हैं। जिसको आप भोजन कहते हैं, मिट्टी से ज्यादा नहीं है। हां, दो-चार स्टेजेज पार करके आता है, इसलिए खयाल में नहीं आता।

नहीं, आकाश और पृथ्वी अलग नहीं हैं। नहीं, मिट्टी और चेतना भी अलग नहीं हैं। नहीं, पदार्थ और परमात्मा भी अलग नहीं हैं। लेकिन अज्ञानी सब चीजों को दो में करके देखते हैं--विरोध में। जब तक अज्ञानी दो न बना ले, तब तक देख ही नहीं पाता है। और ज्ञानी जब तक दो में एक को न देख ले, तब तक देख ही नहीं पाता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा देखता है, वही देखता है। कर्म-संन्यास भी और कर्मयोग भी एक ही परम स्थिति को उपलब्ध करा देते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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