गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 3

  निष्काम कर्म 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। 3।।


हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है, और न किसी की आकांक्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि रागद्वेषादि द्वंद्वों से रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बंधन से मुक्त हो जाता है।


जीवन में या तो हम खिंचते हैं किसी से, आकर्षित होते हैं; या हटते हैं और विकर्षित होते हैं। या तो कहीं हम आकांक्षा से भरे हुए बंध जाते हैं, या कहीं हम विपरीत आकांक्षा से भरे हुए मुड़ जाते हैं। लेकिन ठहरकर खड़ा होना--आकर्षण और विकर्षण के बीच में रुक जाना--न हमें स्मरण है, न हमें अनुभव है। और आश्चर्य यही है कि न आकर्षण से कभी कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है और न विकर्षण से। दोनों के बीच जो ठहर जाता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है।

राग का अर्थ है, खिंचना; द्वेष का अर्थ है, हटना। साधारणतः राग और द्वेष विपरीत मालूम पड़ते हैं, एक-दूसरे के शत्रु मालूम पड़ते हैं। लेकिन राग और द्वेष की जो शक्ति है, वह एक ही शक्ति है, दो नहीं। आपकी तरफ मैं मुंह करके आता हूं, तो राग बन जाता हूं। आपकी तरफ पीठ करके चल पड़ता हूं, तो द्वेष बन जाता हूं। लेकिन चलने वाले की शक्ति एक ही है। जब वह आपकी तरफ आता है, तब भी; और जब आपसे पीठ करके जाता है, तब भी।

सभी आकर्षण विकर्षण बन जाते हैं। और कोई भी विकर्षण आकर्षण बन सकता है। वे रूपांतरित हो जाते हैं। इसलिए राग-द्वेष दो शक्तियां नहीं हैं, पहले तो इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक ही शक्ति के दो रूप हैं। घृणा और प्रेम दो शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति के दो रूप हैं। मित्रता और शत्रुता भी दो शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति की दो दिशाएं हैं।

इसलिए सारा जगत, सारा जीवन, इस तरह के द्वंद्वों में बंटा होता है--राग-द्वेष, शत्रुता-मित्रता, प्रेम-घृणा। ये एक ही शक्ति के दो आंदोलन हैं। और हमारा मन या तो प्रेम में होता है या घृणा में होता है। प्रेम सुख का आश्वासन देता है; घृणा दुख का फल लाती है। राग सुख का भरोसा देता है; द्वेष दुख की परिणति बन जाता है। राग आकांक्षा है, द्वेष परिणाम है। ये दोनों एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं, आकांक्षा और परिणाम।

कृष्ण कहते हैं निष्काम कर्मयोग की परिभाषा में, कि जो व्यक्ति राग-द्वेष दोनों के अतीत हो जाता है, वह निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है।

राग-द्वेष दोनों के द्वंद्व के बाहर जो हो जाता है! लेकिन हम कभी द्वंद्व के बाहर नहीं होते। जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, वे भी द्वंद्व के बाहर नहीं होते। वे भी केवल विरागी होते हैं। उनका राग उलटा हो गया होता है। घर को छोड़ते हैं, भागते हैं, घर को पकड़ते नहीं। धन को त्यागते हैं, छाती से नहीं लगाते। लेकिन त्याग करने में उतने ही आब्सेशन से, उतनी ही तीव्रता से भरे होते हैं, जितना धन को पकड़ने की आकांक्षा से भरे हुए थे। त्याग सहज नहीं, विकर्षण है। किसी की तरफ मैं जाऊं, तो भी मैं उससे बंधा हूं। और उससे भागूं, तो भी उससे ही बंधा हूं। जब जाता हूं, तब लोगों को दिखाई पड़ता है कि बंधा हूं।



विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है; विपरीत है। वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से डरता है।

यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि द्वंद्वातीत महाबाहो! जिस दिन राग और द्वेष दोनों के अतीत कोई हो जाता, उस दिन निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है।

कठिन मामला मालूम होता है। क्योंकि कर्म हम दो ही कारणों से करते हैं। या तो आकर्षण हो, तो करते हैं; और या विकर्षण हो, तो करते हैं। या तो कुछ पाना हो, तो करते हैं; या कुछ छोड़ना हो, तो करते हैं। हमारे कर्म की जो मोटिविटी है, जो मोटिवेशन है, हमारे कर्म की जो प्रेरणा है, वह दो से ही आती है। या तो मुझे धन कमाना हो, तो मैं कुछ करता हूं; या धन त्यागना हो, तो कुछ करता हूं। या तो कोई मेरा मित्र हो, तो उसकी तरफ जाता हूं; या मेरा कोई शत्रु हो, तो उसकी तरफ से हटता हूं। लेकिन मेरा कोई मित्र नहीं, मेरा कोई शत्रु नहीं, तो फिर मैं चलूंगा कैसे? कर्म कैसे होगा? फिर मोटिवेशन नहीं है। यह बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि अनमोटिवेटेड एक्शन हो सकता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि बिना किसी अंतर्प्रेरणा के कर्म हो सकता है। सब कर्म मोटिवेटेड हैं। सभी कर्मों के पीछे करने की प्रेरणा होगी ही, अन्यथा कर्म फलित नहीं होगा। कर्म है, तो भीतर मोटिवेशन होगा।

कृष्ण कहते हैं, कर्म है और भीतर करने का कोई कारण है-- सुखद या दुखद; आकर्षण का या विकर्षण का; राग का या द्वेष का--अगर कोई भी भीतर कारण है कर्म का, तो कर्म फिर बंधन का निर्माता होगा। और अगर कोई कारण नहीं है भीतर, फिर कर्म फलित हो, तो निष्काम कर्म है। और सुख के मार्ग से व्यक्ति बंधन के बाहर हो जाता है।

लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा कर्म हो नहीं सकता। कर्म होगा, तो आकर्षण से या विकर्षण से। इसलिए इसे थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी है।

पश्चिम की पूरी साइकोलाजी की यह चुनौती है। पश्चिम के मनसशास्त्र का यह दावा है कि कर्म तो होगा ही कारण से। अकारण--न राग, न द्वेष; कहीं पहुंचना भी नहीं है, कहीं से बचना भी नहीं है--तो कर्म नहीं होगा।

अगर यह बात सच है, तो कृष्ण का पूरा विचार धूल में गिर जाता है। फिर उसकी कोई जगह नहीं रह जाती। क्योंकि कृष्ण की सारी चिंतना इस बात पर खड़ी है कि ऐसा कर्म संभव है।

जिसमें राग और द्वेष न हों, ऐसा कर्म कैसे संभव है? हम तो जो भी करते हैं, अगर हम अपने किए हुए कर्मों का विचार करें, तो पश्चिम के मनोविज्ञान का दावा सही मालूम पड़ता है। लेकिन हमारे कर्म रुग्ण मनुष्यों के कर्म हैं। हमारे कर्मों के ऊपर से निर्णय लेना ऐसे ही है, जैसे दस अंधे आदमियों की आंखों को देखकर यह निर्णय ले लेना कि जो भी आदमी चलते हैं, वे सब अंधे हैं। क्योंकि दस अंधे आदमी चलते हैं। दसों ही अंधे हैं और चलते हैं; इसलिए यह निर्णय ले लेना कि आंख वाला आदमी चलेगा ही नहीं, क्योंकि दस अंधे आदमी चलते हैं, और चलने वाले दसों अंधे हैं!

पश्चिम का मनोविज्ञान एक बुनियादी भ्रांति पर खड़ा है। वह बुनियादी भ्रांति दोहरी है। एक तो यह कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे नतीजे बीमार लोगों को देखकर लिए गए हैं, पैथालाजिकल हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान ने जिन लोगों का अध्ययन किया है, वे रुग्ण, विक्षिप्त, पागल, न्यूरोटिक हैं।

यह बहुत हैरानी की बात है कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे निष्कर्ष बीमार आदमियों के ऊपर निर्भर हैं। सच बात तो यह है कि मनोवैज्ञानिक के पास कोई स्वस्थ आदमी कभी जाता नहीं। जाएगा किसलिए? मनोवैज्ञानिक जिनका अध्ययन करते हैं, वे रुग्ण हैं और बीमार हैं, करीब-करीब विक्षिप्त हैं। कहीं न कहीं कोई साइकोसिस, कोई न्यूरोसिस, कोई मानसिक रोग उन्हें पकड़े हुए है।

फ्रायड से लेकर फ्रोम तक पश्चिम के सारे मनोवैज्ञानिकों का अध्ययन बीमार आदमियों का अध्ययन है। बीमार आदमियों से वे सामान्य आदमी के संबंध में नतीजे लेते हैं, जो कि गलत है।

दूसरी बात, सामान्य आदमी के अध्ययन से भी नतीजे लेने गलत होंगे, क्योंकि सामान्य आदमी भी पूरा आदमी नहीं है। कृष्ण ने जो नतीजा लिया है, वह पूरे आदमी से लिया गया नतीजा है। इस मुल्क का मनोविज्ञान बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शंकर, नागार्जुन, रामानुज, इन लोगों के अध्ययन पर निर्भर है। मनुष्य जो हो सकता है परम, उस मनुष्य की परम संभावनाओं के अध्ययन पर इस मुल्क का मनसशास्त्र ठहरा हुआ है।

पश्चिम का मनसशास्त्र, मनुष्य जहां तक गिर सकता है आखिरी, उस आखिरी सीमा-रेखा पर खड़ा हुआ है। निश्चित ही, पश्चिम के मनोविज्ञान और पूरब के मनोविज्ञान का कोई तालमेल नहीं हो पाता।

हमने श्रेष्ठतम पर ध्यान रखा है, उन्होंने निकृष्टतम पर। हमने चोटी पर ध्यान रखा है, उन्होंने खाई पर। निश्चित ही, जो खाई का अध्ययन करेगा और जो शिखर का अध्ययन करेगा, उनके अध्ययन के नतीजे भिन्न होने वाले हैं। जो शिखर का अध्ययन करेगा, वह कहेगा कि शिखर पर सूरज की किरणों का बहुत स्पष्ट फैलाव है। बादल छूते हैं। जो खाई का अध्ययन करेगा, वह कहेगा कि अंधकार सदा भरा रहता है। बादलों का कभी कोई पता नहीं चलता है।

मनुष्य में दोनों हैं, ऊंचाइयां भी और खाइयां भी। मनुष्य में बुद्ध जैसे शिखर भी हैं; हिटलर जैसी रुग्ण खाइयां भी हैं। मनुष्य एक लंबा रेंज है। मनुष्य कहने से कुछ पता नहीं चलता। मनुष्य में आखिरी मनुष्य भी सम्मिलित है और प्रथम मनुष्य भी सम्मिलित है। जो ऊंचे से ऊंचे तक पहुंचा है शिखर पर जीवन के, वह भी सम्मिलित है; और जो नीचे से नीचे उतर गया है, वह भी सम्मिलित है। वे जो पागलखाने में बंद हैं विक्षिप्त, वे भी सम्मिलित हैं; और जो परम आनंद को उपलब्ध हुए हैं विमुक्त, वे भी सम्मिलित हैं।

पश्चिम ने विक्षिप्त लोगों के अध्ययन पर जो नतीजा लिया है, वह अपनी सीमा में ठीक है। विक्षिप्त आदमी कभी भी राग और द्वेष से मुक्त नहीं हो सकता। राग और द्वेष के कारण ही तो वह विक्षिप्त और पागल होता है; मुक्त होगा कैसे? वे तो उसके पागल होने के बुनियादी आधार हैं। विमुक्त मनुष्य राग और द्वेष के बाहर होता है। बाहर होता है, तभी विमुक्त है। अन्यथा विमुक्त नहीं है।

भारत ने श्रेष्ठतम को आधार बनाया। मुझे लगता है, उचित है यही। क्योंकि हम श्रेष्ठतम को आधार बनाएं, तो शायद हमारे जीवन में भी यात्रा हो सके। हम निकृष्टतम को आधार बनाएं, तो हमारे जीवन में भी पतन की संभावना बढ़ती है।

अगर हमें ऐसा पता चले कि आदमी कभी आनंद को उपलब्ध हो ही नहीं सकता, तो हम अपने दुख में ठहर जाते हैं। अगर हमें ऐसा पता चले कि जीवन में प्रकाश संभव ही नहीं है, तो फिर हम अंधेरे से लड़ने का संघर्ष बंद कर देते हैं। अगर हमें ऐसा पता चले कि हर आदमी बेईमान है, चोर है, तो हमारे भीतर वह जो बेईमान है और चोर है, वह जस्टीफाइड हो जाता है; वह न्याययुक्त ठहर जाता है, कि जब सभी लोग चोर और बेईमान हैं, तो वह जो पीड़ा है चोर और बेईमान होने की, विदा हो जाती है। हम अपनी चोरी और बेईमानी में भी राजी हो जाते हैं।

निकृष्टतम को आधार बना लिया जाए, तो मनुष्य रोज नीचे गिरेगा। और पचास सालों में पश्चिम के मनोविज्ञान ने आदमी को नीचे गिराने की सीढ़ियां निर्मित की हैं।

और बड़े मजे की बात है, जब आदमी नीचे गिरता है, तो पश्चिम का मनोवैज्ञानिक कहता है कि हम तो पहले ही कहते थे कि नीचे गिरने के सिवाय और कुछ हो नहीं सकता। सेल्फ फुलफिलिंग प्रोफेसीज! कुछ भविष्यवाणियां ऐसी होती हैं, जो खुद होकर अपने को पूरा कर लेती हैं।

किसी आदमी से कह दें कि तुम पंद्रह साल बाद फलां दिन मर जाओगे। जरूरी नहीं है कि यह भविष्यवाणी उसकी मृत्यु की जानकारी से निकली हो। लेकिन इस भविष्यवाणी से उसकी मृत्यु निकल सकती है। सेल्फ फुलफिलिंग हो जाएगी। पंद्रह साल बाद मरना है, यह बात ही आधा मार डालेगी। फिर वह रोज मरने की ही तैयारी करेगा या मरने से बचने की तैयारी करेगा, जो कि दोनों एक ही बात हैं। जिसमें कोई फर्क नहीं है। मरने से बचने की तैयारी करेगा या मरने की तैयारी करेगा, दोनों हालत में मृत्यु ही उसके जीवन की आधारशिला और केंद्र बन जाएगी। आब्सेस्ड हो जाएगा, फोकस्ड। मौत पर उसकी आंखें ठहर जाएंगी। सारी जिंदगी से सिकुड़ जाएंगी आंखें, और मौत पर ठहर जाएंगी।

पश्चिम के मनोविज्ञान ने पचास साल में जो-जो घोषणाएं की थीं, वे सब सही हो गईं। सही इसलिए नहीं हो गईं कि सही थीं, सही इसलिए हो गईं कि सही मान ली गईं। और आदमी ने कहा कि जब हो ही नहीं सकता अनमोटिवेटेड एक्ट, तो पागलपन है। उसे करने की कोशिश छोड़ दो।

लेकिन मैं कहता हूं, हो सकता है। उसे समझना पड़ेगा कि कैसे हो सकता है। तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं, तो कृष्ण का निष्काम कर्मयोग खयाल में आ जाए।

पहली बात, कभी आप खेल खेलते हैं। न कोई राग, न कोई द्वेष; खेलने का आनंद ही सब कुछ होता है। आदतें हमारी बुरी हैं, इसलिए खेल को भी हम काम बना लेते हैं। वह हमारी गलती है। समझदार तो काम को भी खेल बना लेते हैं। वह उनकी समझ है।

हम अगर शतरंज भी खेलने बैठें, तो थोड़ी देर में हम भूल जाते हैं कि खेल है और सीरियस हो जाते हैं। वह हमारी बीमारी है। गंभीर हो जाते हैं। हार-जीत भारी हो जाती है। जान दांव पर लग जाती है। कुल जमा लकड़ी के हाथी और घोड़े बिछाकर बैठे हुए हैं! कुछ भी नहीं है; खेल है बच्चों का। लेकिन भारी हार-जीत हो जाएगी। गंभीर हो जाएंगे। गंभीर हो गए, तो खेल काम हो गया। फिर राग-द्वेष आ गया। किसी को हराना है; किसी को जिताना है। जीतकर ही रहना है; हार नहीं जाना है। फिर द्वंद्व के भीतर आ गए। शतरंज न रही फिर, बाजार हो गया। शतरंज न रही, असली युद्ध हो गया!

मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि शतरंज भी कोई पूरे भाव से खेल ले, तो उसकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, क्योंकि लड़ने का कुछ हिस्सा निकल जाता है। निकास हो जाता है। हाथी-घोड़े लड़ाकर भी, लड़ने की जो वृत्ति है, उसको थोड़ी राहत मिल जाती है। हराने और जिताने की जो आकांक्षा है, वह थोड़ी रिलीज, उसका धुआं थोड़ा निकल जाता है।

हम खेल को भी बहुत जल्दी काम बना लेते हैं। लेकिन खेल काम नहीं है। बच्चे खेल रहे हैं। खेल काम नहीं है। खेल सिर्फ आनंद है, अनमोटिवेटेड। रस इस बात में नहीं है कि फल क्या मिलेगा। रस इस बात में है कि खेल का काम आनंद दे रहा है।

सुबह एक आदमी घूमने निकला है, कहीं जा नहीं रहा है। आप उससे पूछें, कहां जा रहे हैं? वह कहेगा, कहीं जा नहीं रहा, सिर्फ घूमने निकला हूं। कहीं जा नहीं रहा, कोई मंजिल नहीं है। यही आदमी इसी रास्ते पर दोपहर अपने दफ्तर भी जाता है। रास्ते के किनारे खड़े होकर देखें, सुबह जब यह घूमने जाता है, तब इसके चेहरे को, इसके पैरों की गति को, इसके हल्केपन को, इसकी ताजगी को। दोपहर उसी रास्ते से, वही आदमी, उन्हीं पैरों से दफ्तर जाता है, तब उसके भारीपन को, उसके सिर पर रखे हुए पत्थर को, उसकी छाती पर बढ़े हुए बोझ को--वह सब देखें। सुबह क्या था? मोटिवेटेड नहीं था, कहीं पहुंचना नहीं था, कोई अंत नहीं था। घूमना अपने में पर्याप्त था, घूमना ही काफी था।

हां, कुछ लोग घूमने को भी मोटिवेटेड बना ले सकते हैं। अगर नेचरोपैथ हुए, तो घूमने को भी खराब कर लेंगे! अगर कहीं प्राकृतिक चिकित्सा के चक्कर में हुए, तो घूमना भी खराब कर लेंगे। घूमना भी फिर सिर्फ घूमना नहीं है। फिर घूमना बीमारी से लड़ना है। और जो आदमी घूम रहा है बीमारी से लड़ने के लिए, वह बीमारी से तो शायद ही लड़ेगा, बीमारी उसके घूमने में भी प्रवेश कर गई! तब घूमना हल्का-फुल्का आनंद नहीं रहा; भारी काम हो गया। बीमारी से लड़ रहे हैं! स्वास्थ्य कमाने जा रहे हैं! फिर कहीं पहुंचने लगे आप। मोटिव भीतर आ गया।

लेकिन क्या कभी ऐसा जिंदगी में आपके नहीं हुआ कि शरीर ताकत से भरा है, सुबह उठे हैं और मन हुआ कि दस कदम दौड़ लें? अनमोटिवेटेड! कोई कारण नहीं है। सिर्फ शक्ति भीतर धक्के दे रही है। उसी तरह जैसे कि झरना बहता है पहाड़ से, फूल खिलते वृक्षों में, पक्षी सुबह गीत गाते हैं--अनमोटिवेटेड। कोई राग-द्वेष नहीं है; ऊर्जा भीतर है, वह बहना चाहती है, आनंदमग्न होकर बहना चाहती है।

कृष्ण कह रहे हैं कि जब भी कोई व्यक्ति राग और द्वेष दोनों को समझ लेता, तब उसकी ऊर्जा तो रहती है, जो राग-द्वेष में लगती थी, ऊर्जा कहां जाएगी? मुझे किसी से लड़ना नहीं है; मुझे किसी से जीतना नहीं है; फिर भी मेरी ताकत तो मेरे पास है। वह कहां जाएगी? वह बहेगी। वह अनमोटिवेटेड बहेगी। वह कर्म बनेगी, लेकिन अब उस कर्म में कोई फल नहीं होगा। अब वह बहेगी, लेकिन बहना अपने में आनंद होगा।

लेकिन हम इतने बीमार और रुग्ण हैं कि हमें कभी सुबह ऐसा मौका नहीं आया। कभी-कभी बाथरूम में आप गा लेते होंगे। शायद उतना ही है अनमोटिवेटेड--बाथरूम सिंगर्स। किसी को सुनाना नहीं है। कोई ताली नहीं बजाएगा। कोई अखबार में नाम नहीं छपेगा। कोई सुनने वाला श्रोता नहीं है। अकेले हैं अपने बाथरूम में। एक गीत की कड़ी फूट पड़ी है। शायद ठंडा पानी सिर पर गिरा हो। फव्वारे के नीचे खड़े हो गए हों। सुबह की ताजी हवा ने छुआ हो। फूलों को छूती हुई एक गंध आपके कमरे में आ गई हो। कोई पक्षी बाहर गाया हो। किसी मुर्गे ने बांग दी हो। आपके भीतर की ऊर्जा भी जग गई है; उसने भी एक कड़ी गुनगुनाई है, अनमोटिवेटेड, कोई कारण नहीं है। भीतर एक शक्ति है, जो बाहर अभिव्यक्त होना चाहती है।

साधारण लोगों की जिंदगी में बस ऐसे ही छोटे-मोटे उदाहरण मिलेंगे। आपके उदाहरण ले रहा हूं, ताकि आपको खयाल में आ सके। कृष्ण जैसे लोगों की पूरी जिंदगी ही ऐसी है--पूरी जिंदगी, चौबीस घंटे!

लेकिन अगर एक क्षण ऐसा हो सकता है, तो चौबीस घंटे भी हो सकते हैं। कोई बाधा नहीं रह जाती। क्योंकि आदमी के हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता। दो क्षण किसी आदमी के हाथ में नहीं होते। एक ही क्षण हाथ में होता है। अगर एक क्षण में भी एक कृत्य ऐसा घट सकता है, जिसमें कोई राग-द्वेष नहीं था, जिसमें भीतर की ऊर्जा सिर्फ उत्सव से भर गई थी, फेस्टिव हो गई थी, समारोह से भर गई थी और फूट पड़ी थी...।

दुनिया से समारोह कम हो गए हैं। क्योंकि दुनिया से वह जो रिलीजस फेस्टिव डायमेंशन है, वह जो उत्सव का आयाम है, वह क्षीण हो गया है। लेकिन दुनिया की अगर हम पुरानी दुनिया में लौटें, या आज भी दूर गांव-जंगल में चले जाएं, खेत में जब फसल आ जाएगी, तो गांव गीत गाएगा--अनमोटिवेटेड। उस गीत गाने से खेत की फसल के गेहूं ज्यादा बड़े नहीं हो जाएंगे। उस गीत के गाने से कोई फसल के ज्यादा दाम नहीं आ जाएंगे। लेकिन खेत नाच रहा है फसल से भरकर। पक्षी उड़ने लगे हैं खेत के ऊपर। चारों तरफ खेत के खेत में आ गई फसलों की सुगंध भर गई है। सोंधी गंध चारों तरफ तैरने लगी है। उसने गांव के मन-प्राण को भी पकड़ लिया है। खेत ही नहीं नाच रहे, गांव भी नाचने लगा है।

दुनिया के पुराने सारे उत्सव मौसम और फसलों के उत्सव थे। गांव भी नाच रहा है। रात, आधी रात तक चांद के नीचे पूरा गांव नाच रहा है। उस नाचने से कुछ मिलेगा नहीं। वह कोई गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में किया गया लोक-नृत्य नहीं है। उससे कुछ मिलने को नहीं है। उसकी कोई तैयारी नहीं है। लेकिन भीतर ऊर्जा है और वह बहना चाहती है।

कृष्ण जब अर्जुन को कह रहे हैं कि राग-द्वेष से मुक्त होकर यदि तू कर्म में संलग्न हो जाए, तो सुखद मार्ग से समस्त बंधनों के बाहर हो जाएगा। तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है, ऊर्जा हो भीतर, राग-द्वेष न हो बाहर, तो भी ऊर्जा सक्रिय होगी, क्योंकि ऊर्जा बिना सक्रिय हुए नहीं रह सकती।

एनर्जी, ऊर्जा अनिवार्य रूप से क्रिएटिव है। वह सृजन करेगी ही। वह बच नहीं सकती। इसीलिए तो बच्चों को आप बिठा नहीं पाते। आपको बहुत बेहूदगी लगती है बच्चों के कामों में। कहते हैं कि बेकाम क्यों कूद रहा है! आप बहुत समझदार हैं! आप कहते हैं, कूदना हो तो काम से कूद। मैं भी कूदता हूं दफ्तर में, दुकान में, लेकिन काम से! बेकाम क्यों कूद रहा है?

अब आपको पता ही नहीं है कि बेकाम क्यों कूद रहा है। ऊर्जा भीतर है; ऊर्जा कूद रही है। काम का कोई सवाल नहीं है। शक्ति भीतर नाच रही है, स्पंदित हो रही है।

धार्मिक व्यक्ति पूरे जीवन बच्चे की तरह है। निष्काम कर्म उसको ही फलित होगा, जिसका शरीर तो कुछ भी उम्र पा ले, लेकिन जिसका मन कभी भी बचपन की ताजगी नहीं खोता। वह फ्रेशनेस, वह ताजगी, वह क्वांरापन बना ही रहता है। इसीलिए तो कृष्ण जैसा आदमी बांसुरी बजा सकता है, नाच सकता है। वह बालपन कहीं गया नहीं।

ऊर्जा भीतर हो, तो ऊर्जा निष्क्रिय नहीं होती। ध्यान रहे, शक्ति हो, तो शक्ति सक्रिय होगी ही। चाहे कोई कारण न हो, अकारण भी शक्ति सक्रिय होगी। शक्ति का होना और सक्रिय होना, एक ही चीज के दो नाम हैं। शक्ति निष्क्रिय नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि हम कभी राग और द्वेष के बाहर नहीं होते, इसलिए शक्ति राग और द्वेष की चैनल्स में चली जाती है। इसलिए दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है। पहली बात, कर्म राग-द्वेष से पैदा नहीं होता; कर्म पैदा होता है भीतर की ऊर्जा से। इनर एनर्जी से पैदा होता है कर्म।

चांदत्तारे भी चल रहे हैं बिना किसी राग-द्वेष के। कहीं उन्हें पहुंचना नहीं है। कण-कण के भीतर परमाणु घूम रहे हैं, नाच रहे हैं, नृत्य में लीन हैं। कुछ उन्हें पाना नहीं है। फूल खिल रहे हैं। पक्षी उड़ रहे हैं। आकाश में बादल हैं। झरने नदियां बनकर सागर की तरफ जा रहे हैं। सागर भाप बनकर आकाश में उठ रहा है। कहीं कोई राग-द्वेष नहीं है, सिर्फ आदमी को छोड़कर। कहीं कोई मोटिवेशन नहीं है।

पूछें गंगा से कि क्यों इतनी परेशान है? सागर पहुंचकर भी क्या होगा? गंगा उत्तर नहीं देगी। क्योंकि उत्तर देना भी बेकार है। गंगा है, तो सागर पहुंचेगी ही। गंगा सागर पहुंच रही है, यह कोई चेष्टा नहीं है। गंगा के भीतर पानी है, तो वह सागर पहुंचेगा ही।

आदमी को छोड़ दें, तो सारा जगत कर्म में लीन है, लेकिन कर्म राग-द्वेष रहित है। आदमी का क्या पागलपन है कि आदमी इस सारे जगत में बिना राग-द्वेष के कर्म में लीन न हो सके? आदमी भी हो सकता है।

पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि कर्म का जन्म राग-द्वेष से नहीं होता; कर्म का जन्म भीतर की ऊर्जा से होता है। ऊर्जा कर्म है। लेकिन अब यह ऊर्जा जो कर्म बनती है, आप चाहें तो इसको किसी भी खूंटी पर टांग सकते हैं। मेरे पास कोट है, मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। किसी खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, खयाल रखें। खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, कोट मेरे पास है; अब मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। राग की खूंटी पर टांग दूं, द्वेष की खूंटी पर टांग दूं। मेरे भीतर ऊर्जा है।

जीवन ऊर्जा है। लाइफ इज़ एनर्जी। और तो कुछ जीवन है नहीं; ऊर्जा है। नाचती हुई शक्ति है। अनंत शक्ति का नृत्य है भीतर।

और अभी तो विज्ञान ने छोटे-से परमाणु में अनंत ऊर्जा को खोजकर बता दिया। जब हम पहले कभी यह कहते रहे कि एक-एक आदमी के भीतर परमात्मा की अनंत शक्ति भरी है, तो हंसी की बात मालूम पड़ती थी। लेकिन अब तो एक-एक परमाणु के भीतर अनंत शक्ति भरी है, तो एक-एक आदमी के भीतर क्यों भरी हुई नहीं हो सकती! और अगर मिट्टी के कण के भीतर, मृत कण के भीतर इतनी शक्ति है, तो मनुष्य के जीवित कोष्ठ, जीवित सेल के भीतर उससे अनंत गुनी हो सकती है।

अभी पश्चिम का विज्ञान एटम को तोड़ पाया है, कल सेल को भी तोड़ लेगा। जिस दिन जेनेटिक सेल तोड़ी जा सकेगी, उस दिन हम पाएंगे कि वह जो पूरब सदा से कहता रहा था कि छोटे-से पिंड में ब्रह्मांड है, उस नतीजे पर विज्ञान आज नहीं कल पहुंच जाएगा।

एक-एक व्यक्ति अनंत ऊर्जा से भरा हुआ है। इस ऊर्जा से कर्म पैदा होता है। यह पहली बात समझ लें। इस कर्म को हम चाहें, तो राग पर टांग सकते हैं, चाहें तो द्वेष पर टांग सकते हैं। यह हमारा चुनाव है। और चाहें तो अनटांगा छोड़ सकते हैं; यह भी हमारा चुनाव है। खूंटी कहती नहीं कि मुझ पर टांगो। मैं कोट को नीचे भी पटक दे सकता हूं। कोई खूंटी मुझे मजबूर नहीं करती। मैं चाहूं तो अपनी जीवन ऊर्जा को किसी आकर्षण में लगा दूं। किसी के पीछे दौड़ने लगूं। कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं। कोहिनूर मुझसे नहीं कहता कि मेरे पीछे दौड़ो। मैं कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं, कि जब तक कोहिनूर न मिल जाए, मेरा जीवन बेकार है।

अब मैंने एक खूंटी चुन ली, जिस पर मैं अपने को टांग कर रहूंगा। और सोचता हूं, टंग जाऊंगा, तो सब पा लूंगा। कोहिनूर मिल जाए, तो कुछ मिलना नहीं है। सिर्फ ऊर्जा व्यय हुई। और इतने दिन तक पीछे दौड़ने की जो आदत पड़ गई, वह फिर कहेगी, अब और किसी के पीछे दौड़ो। अब कोई और राग खोजो। कोई और आकर्षण, उसके पीछे दौड़ो।

चाहूं तो मैं द्वेष पर भी अपने को टांग सकता हूं। द्वेष पर भी टांग सकता हूं! मैं किसी के विरोध में लग जाऊं, मैं किन्हीं को नष्ट करने में लग जाऊं, मैं कुछ छोड़ने में लग जाऊं, तो भी मैं अपनी शक्ति को टांग सकता हूं।

दो ही तरह के लोग हैं। एक वे, जो किसी चीज को पाने में लग जाते हैं। एक वे, जो किसी चीज को छोड़ने में लग जाते हैं। एक को हम गृहस्थ कहते हैं, दूसरे को हम संन्यासी कहते हैं। हमारी आम बातचीत में, पकड़ने वाले को हम गृहस्थ कहते हैं, छोड़ने वाले को हम त्यागी कहते हैं। लेकिन कृष्ण नहीं कहेंगे। कृष्ण तो कहते हैं, जो दोनों के बाहर है, वह संन्यासी है। वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हुआ, जो दोनों के बाहर है; जो अपनी ऊर्जा को किसी पर टांगता ही नहीं।

ध्यान रहे, जब आप अपनी ऊर्जा को न राग पर टांगेंगे, न द्वेष पर, तो भी ऊर्जा होगी। फिर ऊर्जा कहां जाएगी? अनटांगी गई ऊर्जा परमात्मा पर समर्पित हो जाती है; विराट में लीन हो जाती है। बिना टांगी गई ऊर्जा, अनफोकस्ड, अनंत के प्रति, अनंत के चरणों में बहने लगती है। जिस क्षण राग और द्वेष नहीं हैं, उसी क्षण व्यक्ति का समस्त जीवन परमात्मा को समर्पित हो जाता है।

तीन तरह के समर्पण हुए, राग को समर्पित, द्वेष को समर्पित, राग-द्वेष दोनों के अतीत परमात्मा को समर्पित। यह परमात्मा को समर्पित जीवन ही निष्काम कर्मयोग है।

और कृष्ण ने एक और बात उसमें कही। उन्होंने कहा कि यह बड़े सुख से बंधन के बाहर हो जाना है।

दुख से भी बंधन के बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन दुख से बंधन के बाहर जो हो जाता है, उसके हाथों में पैरों में बंधन की थोड़ी-बहुत रेखा और चोट रह जाती है। जैसे कोई कच्चे पत्ते को वृक्ष से तोड़ ले। कच्चा पत्ता भी वृक्ष से तोड़ा जा सकता है। पत्ते में भी घाव रह जाता है, वृक्ष में भी घाव छूट जाता है। एक पका पत्ता वृक्ष से गिरता है। कहीं खबर नहीं होती--मौन, निष्पंद, चुपचाप। कहीं कोई आवाज भी नहीं होती कि पत्ता गिर गया। न वृक्ष को पता चलता, न पत्ते को पता चलता। कहीं कोई घाव नहीं छूटता। चुपचाप!

कृष्ण कहते हैं, सुखद ढंग से बंधन के बाहर हो जाने की राह मैं कह रहा हूं महाबाहो! तू कर्म कर और द्वंद्व, राग और द्वेष से दूर खड़े होकर कर्म में लग जा। एक दिन तू पके पत्ते की तरह चुपचाप बाहर हो जाएगा।

कच्चे पत्ते की तरह भी बाहर हुआ जा सकता है। संघर्ष से, समर्पण से नहीं। संकल्प से, समर्पण से नहीं। लड़कर, जूझकर, चुपचाप विसर्जित होकर नहीं। कोई लड़ भी सकता है। ध्यान रहे, राग और द्वेष से भी अगर कोई लड़ने में लग जाए, तो वह फिर द्वेष का ही नया रूप है।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि राग-द्वेष को समझकर!

जो यह देख लेता है कि राग भी दुख है, द्वेष भी दुख है। जो यह देख लेता है, राग भी पीड़ा में ले जाता, द्वेष भी पीड़ा में ले जाता। जो यह देख लेता है कि राग और द्वेष से कभी कोई आनंद फलित नहीं होता; कभी जीवन में उत्सव की घड़ी नहीं आती; नर्क ही निर्मित होता है। चाहते तो हैं कि बना लें स्वर्ग; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि बन गया नर्क। चाहते तो हैं कि बना लें मंदिर; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि अपने ही हाथ कारागृह निर्मित हो गया। ऐसा जो समझकर, ऐसी प्रज्ञा से, ऐसे बोध से जो दोनों के बाहर हो जाता है, वह बड़े सुखद मार्ग से--सूखे पत्ते की तरह--बंधन के बाहर गिर जाता है। कहीं कोई पता भी नहीं चलता है।

संन्यास तो वही अर्थपूर्ण है, जो इतना संगीतपूर्ण हो। इतना-सा भी विसंगीत पैदा नहीं होना चाहिए। जरा-सी भी चोट कहीं पैदा नहीं होनी चाहिए।

कर्म छोड़कर जो जाएगा, उससे तो चोट पैदा होगी। एक आदमी घर छोड़कर जाएगा। पत्नी रोएगी। आंसू पीछे होंगे ही। क्योंकि किसी की अपेक्षाएं टूटेंगी। बच्चे पीड़ित होंगे; अनाथ हो जाएंगे। कहीं किसी की छाती पर पत्थर गिरेगा ही। कहीं कुछ उजड़ जाएगा।

और ऐसा आदमी, जो सब छोड़कर जा रहा है, बहुत गहरे में स्वार्थी नहीं मालूम पड़ता? अपनी मुक्ति के लिए वह अपने चारों तरफ एक मरघट बनाकर जा रहा है। चीजें टूटेंगी; चारों तरफ दुख निर्मित होगा।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्मयोग!

पत्नी को छोड़कर कहीं जाना नहीं। चुपचाप भीतर ही पत्नी के प्रति राग और द्वेष छोड़ देना। पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।

बड़े मजे की बात है। अगर चुपचाप भीतर से ही राग-द्वेष छोड़ दिया जाए, किसी को कहीं पता नहीं चलेगा सिवाय आपके। और अगर किसी को पता भी चलेगा, तो सुखद पता चलेगा। क्योंकि हम राग करके भी किसी को सुख नहीं दे पाते, सिर्फ दुख देते हैं। और द्वेष करके तो दुख देते ही हैं।

जैसे ही भीतर राग-द्वेष गिर जाता है, हम हलके हो जाते हैं। आनंदपूर्ण हो जाते हैं। संबंध सहज और सरल हो जाते हैं। हमारे भीतर से पत्नी मिट जाती है। दूसरी तरफ भी परमात्मा हो जाता है। पति मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। बेटा मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। फिर भी उस बेटे को स्कूल में भेज आते हैं। उसके भोजन का इंतजाम कर देते हैं। लेकिन अब यह इंतजाम परमात्मा के लिए है। बेटे को कभी पता नहीं चलेगा। बल्कि बेटा तो आनंदित होगा, क्योंकि जिसके पिता के मन में बेटे के लिए परमात्मा का भाव आ गया हो, उसके बेटे को दुख का कोई भी कारण नहीं है। आनंद ही आनंद का कारण है।

कृष्ण कहते हैं, सुख से, चुपचाप, अत्यंत शांतिपूर्ण मार्ग से निष्काम कर्मयोगी बंधन के बाहर हो जाता है। कोई जल्दी नहीं करता तोड़ने की, चुपचाप चीजों से सरक जाता है।

और जो तोड़कर सरकता है, वह बहुत कुशल नहीं है। जो तोड़कर हटता है, वह बहुत कलात्मक नहीं है। जो तोड़कर हटता है, उसे संगीत का बहुत बोध नहीं है। उसे सौंदर्य का बहुत बोध नहीं है। उसे मानवीय जीवन की गरिमा का बहुत स्पष्ट खयाल नहीं है। वह अपने ही लिए जी रहा है। धन कमाता था, तो अपने लिए; धर्म कमा रहा है, तो अपने लिए। लेकिन चारों तरफ और भी परमात्माओं के दीए जल रहे हैं, वे बुझ जाएं, इसकी उसे चिंता नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म को करते हुए कोई भी व्यक्ति सुख से, कहीं भी दुख का कोई स्पंदन खड़ा किए बिना, बाहर हो जाता है।

राग-द्वेष के अतीत होते ही ऊर्जा--अनमोटिवेटेड--सक्रिय हो जाती है। निश्चित ही, जो ऊर्जा बिना किसी लक्ष्य के, बिना किसी अंत के सक्रिय होगी, वह ऊर्जा अधर्म के लिए सक्रिय नहीं हो सकती। उस ऊर्जा की सक्रियता अनिवार्यरूपेण धर्म के लिए, मंगल के लिए, श्रेयस के लिए होगी। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन धर्म-कृत्य, धार्मिक कृत्य बन जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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