गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 24

 पदार्थ से प्रतिक्रमण--परमात्मा पर


युग्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।। 28।।


और वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनंत आनंद को अनुभव करता है।


पाप से रहित हुआ व्यक्तित्व आत्मा को सदा परमात्मा में लगाता हुआ परम आनंद को उपलब्ध होता है।

पाप से रहित हुआ पुरुष ही आत्मा को परमात्मा की ओर सतत लगा सकता है। पाप से रहित हुआ जो नहीं है, पाप में जो संलग्न है, वह आत्मा को सतत रूप से पदार्थ में लगाए रखता है।

अगर पाप की हम ऐसी व्याख्या करें, तो भी ठीक होगा, आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है। आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है और आत्मा को परमात्मा में लगाए रखना पुण्य है। पाप का फल दुख है, पुण्य का फल आनंद है।


पदार्थ का उपयोग एक बात है, और पदार्थ में आत्मा को लगाए रखना बिलकुल दूसरी बात है। पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना पदार्थ में आत्मा को लगाए। वही योग की कला है। उस कुशलता का नाम ही योग है।

पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना आत्मा को पदार्थ में लगाए। उपयोग तो करना पड़ता है शरीर से। जैसे आप भोजन कर रहे हैं। भोजन तो करना पड़ता है शरीर से। जाता भी शरीर में है, पचता भी शरीर में है। जरूरत भी, भोजन, शरीर की है। लेकिन भोजन में आत्मा को भी लगाए रखा जा सकता है। और मजा यह है बिना भोजन किए भी आत्मा को भोजन में लगाए रखा जा सकता है। उपवास अगर आपने किया हो, तो आपको पता होगा। भोजन नहीं करते हैं, लेकिन आत्मा भोजन में लगी रहती है।

आत्मा को लगाने के लिए भोजन करना जरूरी नहीं है; और भोजन करने के लिए आत्मा को लगाना जरूरी नहीं है। ये अनिवार्य नहीं हैं बातें। जैसे बिना भोजन किए भी हम आत्मा को भोजन में लगाए रख सकते हैं, वैसे ही हम भोजन करते हुए भी आत्मा को भोजन में न लगाएं, इसकी संभावना है।

एक तो हमारा अनुभव है कि बिना भोजन किए आत्मा शरीर में लग सकती है। वह हमारा सब का अनुभव है। दूसरा अनुभव हमारा नहीं है। लेकिन दूसरा अनुभव इसी अनुभव का दूसरा अनिवार्य छोर है। अगर यह संभव है कि आत्मा भोजन में लगी रहे बिना भोजन के, तो यह संभव क्यों नहीं है कि भोजन चलता रहे और आत्मा भोजन में न लगे?

यह भी संभव है। क्योंकि पदार्थ का सारा संबंध, सारा संसर्ग शरीर से होता है। पदार्थ का कोई संसर्ग आत्मा से होता नहीं। आत्मा तो सिर्फ खयाल करती है कि संसर्ग हुआ, और खयाल से ही बंधती है। आत्मा पदार्थ से नहीं बंधती, विचार से बंधती है।

आत्मा तो सिर्फ विचार करती है, और विचार करके बंध जाती है। विचार ही छोड़ दे, तो मुक्त हो जाती है। आत्मा के ऊपर पदार्थ का कोई बंधन नहीं है, रस का बंधन है। और हम सब पदार्थ में रस लेते हैं। और जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान प्रवाहित होने लगता है। जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान की धारा बहने लगती है।

परमात्मा में हमने कोई रस लिया नहीं। उस तरफ कभी ध्यान की कोई धारा बहती नहीं। पदार्थ में हम रस लेते हैं, उस तरफ धारा बहती है।

क्या करें? इस पाप से कैसे छुटकारा हो? यह जो पदार्थ को पकड़ने का पागलपन है, इससे कैसे छुटकारा हो?

एक आधारभूत बात इस छुटकारे के लिए जरूरी है, और वह यह कि पदार्थ में जब हम रस लेते हैं, तो यह बड़ी मजे की बात है कि जितना ज्यादा आप रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है। जितना ज्यादा रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है।

अगर आप कभी खेल खेलने गए हैं और आपने सोचा कि आज खेल में बहुत आनंद लें, बहुत सुख लें, तो आपको पता चलेगा कि आप कोशिश करते रहना सुख लेने की और आप पाएंगे कि सुख बिलकुल हाथ नहीं लगा। कोशिश से सुख हाथ लगता नहीं। कोई डायरेक्ट, सीधा सुख पाया जा सकता नहीं। जिस चीज से भी आप सीधा सुख पाने की कोशिश करेंगे, पाएंगे कि चूक गए।

आज तय करके जाएं घर कि आज घर जाकर सुख लेंगे। भोजन में सुख लेंगे। बच्चों से मिलकर सुख लेंगे। प्रियजनों से प्रेम करके सुख लेंगे। और पूरी, सतत कोशिश करना कि प्रेम कर रहे, और सुख लेंगे; भोजन कर रहे, और सुख लेंगे; खेल रहे, और सुख लेंगे। और आप अचानक पाएंगे कि सुख तो तिरोहित हो गया, वह कहीं है नहीं।

सुख बाइ-प्रोडक्ट है। सुख सीधी चीज नहीं है। सुख ऐसा है जैसे कि गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। गेहूं बो देते हैं, बालियां लग जाती हैं, गेहूं फल जाता है और साथ में भूसा पैदा हो जाता है। कभी भूलकर भूसे को सीधा मत बो देना। ऐसा मत सोचना कि भूसा बो देंगे, तो पौधा पैदा होगा; पौधे में और भी ज्यादा भूसा लगेगा। क्योंकि गेहूं में इतना भूसा लग गया, तो भूसे में कितना भूसा नहीं लगेगा!

कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। हाथ का भूसा भी सड़ जाएगा। भूसा बाइ-प्रोडक्ट है; गेहूं के साथ पैदा होता है, सीधा पैदा नहीं होता। सुख बाइ-प्रोडक्ट है।

दुख सीधा पैदा होता है। दुख गेहूं की तरह है। अब मैं आपको कहूं, दुख गेहूं की तरह है। सुख उसके भूसे की तरह है। आस-पास दिखाई पड़ता है; सत्व नहीं होता सुख में कुछ। बीज में दुख छिपा होता है।

ध्यान रहे, जब हम जमीन में बोते हैं, तो गेहूं बोते हैं। गेहूं भीतर होता है, भूसा बाहर होता है। लेकिन जो बाहर से देखता है, उसे भूसा पहले दिखाई पड़ता है। भूसे को खोले, तब गेहूं मिलता है। प्रकृति में गेहूं पहले आता है, भूसा पीछे आता है। दृष्टि में भूसा पहले आता है, गेहूं पीछे आता है।

दुख तो बीज है। उसके चारों तरफ सुख का भूसा छाया रहता है। देखने वाले को सुख पहले दिखाई पड़ता है, और जब सुख को छीलता है, तब दुख हाथ लगता है। लेकिन बोने वाले को दुख ही बोना पड़ता है। और अगर आपने सीधा सुख बोने की कोशिश की, तो कुछ हाथ नहीं लगने वाला है। कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है।

पदार्थ में जो आदमी जितना ज्यादा सीधा रस लेगा, उतना ही कम रस उपलब्ध कर पाएगा। अगर पदार्थ में कोई सीधा रस न ले, सिर्फ पदार्थ का उपयोग करे--उपयोग सीधी बात है--तो बड़े हैरानी की बात है कि पदार्थ का उपयोग करने वाला पदार्थ से बहुत रस ले पाता है। और पदार्थ में रस लेने वाला उपयोग तो कर ही नहीं पाता, बहुत तरह के दुखों में पड़ जाता है।

लेकिन हम पदार्थ का उपयोग नहीं करते हैं, हम पदार्थ में रस लेने की कोशिश करते हैं। इसका फर्क समझें। थोड़ा बारीक है, इसलिए एकदम से शायद खयाल में न आए।

जो आदमी भोजन में रस लेने की कोशिश करेगा, उसे भोजन से नुकसान पहुंचेगा, रस नहीं मिलने वाला है। इसलिए अक्सर ज्यादा भोजन से लोग पीड़ित और परेशान हैं। चिकित्सक कहते हैं, कम भोजन से बहुत कम लोग मरते हैं, ज्यादा भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं। कम भोजन से बहुत कम लोग बीमार पड़ते हैं, ज्यादा भोजन से ज्यादा लोग बीमार पड़ते हैं।

खयाल है कि भोजन ज्यादा कर लेंगे, तो सुख मिलेगा। जब थोड़े भोजन से थोड़ा मिलता है, ज्यादा भोजन से ज्यादा मिल जाएगा, तो भोजन करते चले जाओ। सुख तो नहीं मिलता, सिर्फ दुख हाथ लगता है।

भोजन से सिर्फ उसे ही सुख मिलता है, जो भोजन में रस लेने नहीं जाता, सिर्फ भोजन का उपयोग करता है; भोजन करता है। और जो ठीक से भोजन करता है, रस की फिक्र छोड़कर, वह भोजन से बहुत रस उपलब्ध करता है। क्योंकि वह चबाकर खाएगा। स्वाद से खाने वाला कभी चबाकर खाने वाला नहीं होगा। स्वाद से खाने वाला गटकेगा, क्योंकि इतनी फुर्सत कहां! जितना ज्यादा गटक जाए। पेट का उपयोग स्वाद वाला ऐसे करता है, जैसे कोई तिजोरी में रुपए डाल रहा हो।

लेकिन जो भोजन का उपयोग करता है, वह गटकता नहीं; वह चबाता है। और जो चबाता है, उसको रस मिल जाता है। मैं आपसे कह रहा हूं, बाइ-प्रोडक्ट है। और जो रस पाना चाहता है, गटक जाता है, उसे रस तो नहीं मिलता, सिर्फ बीमारी हाथ लगती है।

जीवन में जो भी रसपूर्ण है, वह उपयोग से मिलता है--सम्यक उपयोग। सम्यक उपयोग तब संभव हो पाता है, जब पदार्थ से हमारी आत्मा का कोई आसक्ति, कोई राग, कोई लगाव न हो। हम सिर्फ उपयोग कर रहे हों।

आसक्ति बहुत और बात है। आसक्ति का मतलब है, हम सीधा रस लेने की कोशिश कर रहे हैं। आसक्ति का अर्थ है कि हम सोचते हैं कि जितना ज्यादा पदार्थ हमारे पास होगा, हम उतने सुखी हो जाएंगे। ऐसा होता नहीं। अक्सर इतना ही होता है कि जितनी ज्यादा वस्तुएं होती हैं, उतने हम चिंतित हो जाते हैं। और हर वस्तु की रक्षा के लिए और वस्तुएं चाहिए, और वस्तुओं की रक्षा के लिए और वस्तुएं चाहिए। और अंत में हम पाते हैं कि आदमी खो गया और वस्तुओं का ढेर रह गया।

आदमी खो ही जाता है। वस्तुएं धीरे-धीरे इतने जोर से चारों तरफ इकट्ठी हो जाती हैं कि उनके बीच में हम कहां समाप्त हो गए, हमें पता भी नहीं चलता। वस्तुओं में जिसने भी सीधा रस लेने की कोशिश की, वह वस्तुओं से दब जाएगा और स्वयं को खो देगा। और जिस व्यक्ति ने स्वयं को बचाने की कोशिश की और वस्तुओं से अपने को पार रखा; जाना सदा कि वस्तुओं का उपयोग है; वस्तुएं साधन हैं, साध्य नहीं; मीन्स हैं, एंड नहीं; उनका उपयोग कर लेना है; जरूरत है उनकी, लेकिन जीवन का परम सौभाग्य उनसे फलित नहीं होता है।


अगर आपकी सब जरूरतें भी पूरी कर दी जाएं, तो भी आपको जिंदगी न मिलेगी। तो भी जीवन का फूल नहीं खिलेगा। तो भी जीवन की सुगंध नहीं प्रकट होगी। तो भी जीवन की वीणा नहीं बजेगी। सब मिल जाए, तो भी अचानक पाया जाता है कि कुछ शेष रह गया।

वह शेष वही रह गया, जो हमारे भीतर था और जिसे हम वस्तुओं से पार करके कभी न देख पाए, और कभी न जान पाए। वही शेष रह गया। वही खाली जगह रह जाएगी।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है, जिनके पास सब होता है, वे बड़ी एंप्टीनेस, बड़ा खालीपन अनुभव करते हैं। सब रिक्त हो जाता है भीतर। ऐसा लगता है कि सब तो है, लेकिन अब! जब तक सब नहीं होता, तब तक एक भरोसा भी रहता है कि एक कार और पोर्च में खड़ी हो जाएगी, तो शायद सब कुछ मिल जाएगा। फिर कारों की कतार पोर्च में लग जाती है और कुछ भी नहीं मिलता है। और आदमी को भीतर अचानक पता चलता है कि मेरा सारा श्रम, सारी दौड़-धूप व्यर्थ गई। कारें तो खड़ी हो गईं, पर मैं कहां हूं? मुझे तो कुछ मिला नहीं। इसलिए जिसको ठीक वस्तुएं उपलब्ध हो जाती हैं, उसे ही पहली दफे पता चलता है कि आत्मा खो गई है।

कृष्ण कह रहे हैं, पाप से रहित पुरुष!

पापरहित का अर्थ है, वस्तुओं की तरफ लगा हुआ रस जिसके मन में नहीं है। वस्तुओं का रस ही सभी तरह के पाप करवा देता है फिर। फिर वस्तुओं की दौड़ में कौन से पाप करने, कौन से नहीं करने, इसका विचार करना मुश्किल हो जाता है। वस्तुएं सब पाप करवा लेती हैं। आखिर बड़े सम्राट अगर इतनी हत्याएं कर जाते हैं--नादिर या सिकंदर या हिटलर या स्टैलिन--अगर बड़े राजनीतिज्ञ सब तरह के पाप कर जाते हैं, तो किसलिए? खयाल है कि सत्ता हाथ में होगी, तो वस्तुओं की मालकियत हाथ में होगी। खयाल है कि धन हाथ में होगा, तो सारी वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं।

लेकिन सारी वस्तुएं खरीद ली जाएं और मुझे यह पता न चले कि मैं वस्तुओं से अलग भी कुछ हूं, तो मेरे जीवन में पाप घिर जाएगा, अंधकार भी घिर जाएगा, पदार्थ भी भारी पत्थर की तरह मेरी छाती पर पड़ जाएंगे, लेकिन मैं खो जाऊंगा।

हमारी सारी सफलता सिवाय हमारी कब्र के और कुछ नहीं बनती। और हमारे सारे प्रयत्न हमें सिवाय मरघट के और कहीं नहीं ले जाते। और जिंदगी का पूरा अवसर, जिन चीजों को जोड़ने में, इकट्ठा करने में हम गंवाते हैं, कृष्ण जैसे लोग कहते हैं कि उस अवसर में हम परमात्मा को भी पा सकते थे, जिसे पाकर परम आनंद भी मिलता है और मृत्यु के अतीत भी आदमी हो जाता है; मरता भी नहीं।

लेकिन पाप से भरा चित्त यह न कर पाएगा। पाप से भरा चित्त, अर्थात पदार्थ की ओर दौड़ता हुआ चित्त। हम सबका दौड़ रहा है पदार्थ की ओर। इधर पदार्थ दिखा नहीं कि चित्त दौड़ा नहीं! रास्ते पर देखते हैं एक सुंदर व्यक्ति को गुजरते हुए, चित्त दौड़ गया। देखा एक मकान खूबसूरत, चित्त दौड़ गया। एक चमकती हुई कार गुजरी, चित्त दौड़ गया।

इस चित्त को समझना पड़ेगा, अन्यथा पाप में ही जीवन बीत जाता है। यह दौड़ ही रहा है पूरे वक्त, यह तलाश ही कर रहा है। और अगर सड़क से कोई कार न गुजरे, और सड़क से कोई स्त्री न निकले, और कोई सुंदर भवन न दिखाई पड़े, कोई सुंदर पुरुष न दिखाई पड़े, कुछ भी न दिखाई पड़े, तो हम आंख बंद करके दिवास्वप्न देखने लगते हैं। उसमें कारें गुजरने लगती हैं; स्त्री-पुरुष गुजरने लगते हैं; धन, शान-शौकत गुजरने लगती है। सब भीतर चलाने लगते हैं। लेकिन चित्त पदार्थ की तरफ ही दौड़ता रहता है। जागते हैं तो, सोते हैं तो, सपना देखते हैं तो--चित्त पदार्थ की तरफ ही दौड़ता रहता है।

यह पदार्थ की तरफ दौड़ता हुआ चित्त परमात्मा की तरफ नहीं दौड़ पाएगा। इन दो में से एक ही चुनना पड़ता है। वह गली बहुत संकरी है, उसमें दो नहीं समाते।

और उसकी दिशा बड़ी विपरीत है। वह डायमेंशन अलग है। वह डायमेंशन बिलकुल भिन्न है, वह आयाम भिन्न है। अगर पदार्थ की तरफ चित्त दौड़ता है, तो उसकी तरफ कभी नहीं दौड़ पाएगा। क्योंकि पदार्थ साकार है, और वह निराकार है। क्योंकि पदार्थ जड़ है, और वह चेतन है। क्योंकि पदार्थ बाहर है, और वह भीतर है। क्योंकि पदार्थ नीचे है, और वह ऊपर है। क्योंकि पदार्थ मृत्यु में ले जाता, और वह अमृत में। वह बिलकुल उलटा है, बिलकुल विपरीत। तो पदार्थ की तरफ दौड़ता हुआ चित्त वहां न जा सकेगा।


उस आदमी ने कहा कि जरा चलकर भी मुझे बताओ कि कितनी चाल से चलते हो। क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करती है, मीलों पर नहीं। आठ मील, तेज चलने वाले के लिए चार मील हो जाएंगे; धीरे चलने वाले के लिए सोलह मील हो जाएंगे। और एक कदम चलकर बैठ गए, तो आठ मील अनंत हो जाएंगे। इसलिए जरा चलकर बताओ! चाल क्या है? क्योंकि सब रिलेटिव है। दिल्ली की दूरी या सभी दूरियां रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। कितना चलते हो?

उस आदमी ने कहा कि माफ करना। यह भी मेरे खयाल में नहीं था। तुम ठीक ही पूछते हो।

परमात्मा भी, जिस दिशा में हम जाते हैं, पदार्थ की दिशा में, वहां हमें कभी नहीं मिलेगा। दिल्ली तो शायद मिल जाए, दिल्ली के उलटे चलकर भी, क्योंकि जमीन का घेरा बहुत बड़ा नहीं है। लेकिन पदार्थ का घेरा अनंत है। अगर हम पदार्थ की तरफ खोजते हुए चलते हैं, तो हम अनंत तक भटक जाएं, तो भी परमात्मा तक नहीं लौटेंगे।

तो एक तो पदार्थ का घेरा अनंत है, जमीन का घेरा तो बहुत छोटा है। यह जमीन तो बहुत मीडियाकर प्लेनेट है; बहुत ही गरीब, छोटा-मोटा, क्षुद्र। इसकी कोई गिनती नहीं है। यह हमारा सूरज इस पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन हमारा सूरज भी बहुत मीडियाकर है। वह भी बहुत मध्यमवर्गीय प्राणी है, मिडिल क्लास! उससे हजार-हजार, दस-दस हजार गुने बड़े सूर्य हैं, महासूर्य हैं। इस पृथ्वी की तो कोई गिनती नहीं है। यह तो बड़ी छोटी जगह है। वह तो हम बहुत छोटे हैं, इसलिए पृथ्वी बड़ी मालूम पड़ती है। इसकी स्थिति बहुत बड़ी नहीं है। चले जाएं, तो पहुंच ही जाएंगे दिल्ली। लेकिन पदार्थ तो अनंत है। उसके फैलाव का तो कोई अंत नहीं। वह तो हम कितना ही चलते जाएंगे, वह आगे-आगे-आगे मौजूद रहेगा।

तो एक फर्क तो यह करना चाहता हूं कि पदार्थ अनंत है, इसलिए उस दिशा से कभी परमात्मा तक नहीं आ पाएंगे, लौटना ही पड़ेगा।

जैनों के पास एक बहुत अच्छा शब्द है, वह है, प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण का अर्थ है, रिटघनग बैक, वापस लौटना। आक्रमण का अर्थ है, जाना, हमला करना; और प्रतिक्रमण का अर्थ है, वापस लौटना। हम सब आक्रामक हैं पदार्थ की तरफ, वही पाप है। प्रतिक्रमण पुण्य है। वापस लौट आएं।

तो एक तो यह आपसे कहना चाहता हूं कि पदार्थ अनंत है, इसलिए कितना ही आक्रमण करो, कभी भी पा न सकोगे प्रभु को। और जब तक प्रभु न मिल जाए, तब तक शांति नहीं, संतोष नहीं, चैन नहीं। और दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि उस बूढ़े ने कहा कि पीछे लौटो, दिल्ली आठ मील दूर है। मैं आपसे कहना चाहता हूं, पीछे लौटो, परमात्मा आठ इंच भी दूर नहीं है। आठ मील बहुत ज्यादा है। असल में पीछे लौटो, तो आप ही परमात्मा हो। अगर ठीक से कहें, तो ऐसा कहना पड़ेगा। जरा-सा भी फासला नहीं है।

मोहम्मद ने कहा है--कोई पूछता है मोहम्मद से कि प्रभु कितने दूर है--तो वे कहते हैं कि यह जो गले की धड़कती हुई नस है, इससे भी ज्यादा निकट। इसे काट दो, तो आदमी मर जाता है। यह जीवन के बहुत किनारे है। मोहम्मद कहते हैं, यह जो गले की धड़कती नस है, इससे भी निकट, इससे भी पास, जीवन से भी पास।

लौटने भर की देरी है। लौटकर चलना भी नहीं पड़ता, क्योंकि चलने लायक फासला भी नहीं है। सिर्फ लौटना, जस्ट रिटघनग इज़ इनफ। पर अबाउट टर्न, पूरा का पूरा लौटना पड़े, एकदम पूरा। मुख जहां है, उससे उलटा कर लेना पड़े।

पदार्थ की तरफ जो उन्मुखता है, वह पाप है। और पदार्थ की तरफ पीठ कर लेना पुण्य है। इसलिए दान पुण्य बन गया, और कोई कारण न था। क्योंकि जिसने धन दिया, उसने प्रतिक्रमण शुरू किया। जिसने धन लिया, उसने आक्रमण किया। इसलिए त्याग पुण्य बन गया, क्योंकि त्याग का अर्थ है, पदार्थ की तरफ पीठ कर ली।


पदार्थ की तरफ से मुंह मोड़ना पड़े। जरूरी नहीं कि बुद्ध की तरह छोड़कर जंगल जाएं। बुद्ध जैसा छोड़ने को भी तो नहीं है हमारे पास। बुद्ध जैसा हो, तो छोड़ने का मजा भी है थोड़ा। कुछ भी तो नहीं है, पदार्थ भी नहीं है। परमात्मा नहीं है, वह तो ठीक है। पदार्थ भी क्या है! कुछ भी नहीं है।


पाप है, आक्रमण पदार्थ पर; पुण्य है, प्रतिक्रमण पदार्थ से। और समझ के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। क्योंकि नासमझी के अतिरिक्त पदार्थ से कोई जोड़ नहीं है हमारा। नासमझी ही हमारा जोड़ है। नासमझ हैं, इसीलिए जुड़े हैं। सोचते हैं, संपत्ति है, इसलिए पकड़े हैं। जान लेंगे कि संपत्ति नहीं है, हाथ खुल जाएंगे, पकड़ छूट जाएगी।

ध्यान रहे, पकड़ छूट जाने का अर्थ भाग जाना नहीं है, एस्केप नहीं है; क्लिंगिंग छूट जाना है, पकड़ छूट जाना है। ठीक है, वस्तुएं हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है। बराबर किया जाना चाहिए। वह परमात्मा की अनुकंपा है कि इतनी वस्तुएं हैं और उनका उपयोग किया जाए। जीवन के लिए उनकी जरूरत है। लेकिन प्रभु को पाने के लिए उन पर जो हमारी पकड़ है...।


कृष्ण कहते हैं, पाप से जो मुक्त हो, वह प्रभु की तरफ गति कर पाता है, प्रभु की तरफ उन्मुख हो जाता है। पदार्थ से मुक्त हो मन, तो प्रभु की तरफ तत्काल लीन हो जाता है।

जीवन में थोड़ा तलाश करें। पदार्थ को दिए गए मूल्य हमारे मूल्य हैं। थोड़ा खोज करें। पदार्थ की पकड़ हमारा दुख, हमारी चिंता, हमारा संताप, हमारी एंग्विश है। थोड़ा खोज करें। पदार्थ को पकड़-पकड़कर हम पागल हो गए हैं। इसको थोड़ा समझें। और आपके मन की पकड़ ढीली हो जाएगी। 

उसी क्षण प्रतिक्रमण हो जाता है। इधर छूटा पदार्थ से हाथ, उधर प्रभु में प्रवेश हुआ। यह युगपत, साइमलटेनियस, एक साथ घट जाते हैं। प्रभु को खोजने जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ पदार्थ से छूटने की जरूरत है। यहां जला दीया, वहां अंधेरा गया। ऐसे ही यहां जला प्रतिक्रमण, यात्रा लौटी पीछे की तरफ, वहां प्रभु से मिलन हुआ।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सतत आत्मा को परमात्मा में लगाए रखता है।

जिसका पदार्थ से संबंध छूट जाता है, उसका सतत संबंध परमात्मा से बन जाता है। बिना संबंध के तो हम रह नहीं सकते। अगर ठीक से समझें, तो वी एक्झिस्ट इन रिलेशनशिप्स, हम संबंधों में ही जीते हैं। अभी पदार्थों के संबंध में जीते हैं, जब पदार्थ का संबंध छूट जाता है, तो नए संबंधों का जगत शुरू होता है; हम प्रभु के संबंध में जीने लगते हैं। और आत्मा निरंतर प्रभु में लगी रहती है। क्योंकि फिर तो इतना आनंद है उस तरफ कि एक क्षण को भी भूलना मुश्किल है प्रभु को। फिर कुछ भी काम करते रहें--फिर दुकान चलाते रहें, दफ्तर में काम करते रहें, मिट्टी खोदते रहें, पहाड़ तोड़ते रहें--जो भी करना हो, करते रहें।


प्रभु का स्मरण, आत्मा का उसमें सतत लगा रहना, तभी संभव है, जब चित्त पाप से मुक्त हो जाए। चित्त पाप से मुक्त हो जाए, पार हो जाए, अतीत हो जाए, उठ जाए ऊपर, पदार्थ की दौड़ छूट जाए, तो फिर लगा ही रहता है। यह ऐसा लग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। सब करते हुए भी लगा रहता है।

और जिस दिन सब करता हुआ लगा रहे, उसी दिन योग पूर्ण हुआ। अगर कोई कहे कि मैं काम करता हूं, तो मुझे प्रभु की स्मृति भूल जाती है, तो उसका प्रभु बड़ा बचकाना है, बड़ा छोटा है। काम से हार जाता है! क्षुद्र-सा काम और प्रभु की स्मृति को तोड़ दे, तो अभी प्रभु की स्मृति नहीं है, कोई नकली स्मृति होगी। ऐसा जबर्दस्ती थोप-थापकर बैठ गए होंगे अपने को कि प्रभु का स्मरण कर रहे हैं। लेकिन होगा नहीं। हो नहीं सकता। अगर प्रभु की स्मृति आ गई है, पदार्थ से मन छूट गया है और प्रभु की याद आ गई है, तो अब कुछ भी करिए और कहीं भी चले जाइए, और जागिए कि सोइए, स्मृति जारी रहेगी।


कठिन नहीं है यह। क्योंकि शरीर भी तो विद्युत की तरंगों का जाल है; ध्वनि भी तो विद्युत की तरंग है। दोनों में कोई भेद तो नहीं है। और अगर भीतर बहुत गहरी अनुगूंज हो, तो कोई कारण नहीं है कि शरीर के तंतु क्यों न ध्वनित होने लगें! कोई कारण तो नहीं।

जो संगीत की गहरी पकड़ जानते हैं, उन्हें पता होगा कि अगर एक सूने कमरे में बंद द्वार करके, खाली कमरे में एक वीणा बजाई जाए और दूसरी वीणा को दूसरे कोने में खाली टिका दिया जाए, तो थोड़ी देर में उसके तार रिजोनेंस करने लगते हैं। एक वीणा बजे, दूसरी वीणा जो खाली रखी है, कोई बजाता नहीं, उसके तार भी कंपकर जवाब देने लगते हैं। रिजोनेंस पैदा हो जाता है। ध्वनियां टकराती हैं उस वीणा से, उसके तार भी कंपित होकर उत्तर देने लगते हैं।

पूरा शरीर है तो विद्युत की तरंग। ध्वनि भी विद्युत का एक रूप है। कोई आश्चर्य तो नहीं है कि भीतर ध्वनि बहुत गहरे, हृदय की अंतर-गुहा तक गूंजने लगे, तो शरीर रिजोनेंस करने लगे, रोआं-रोआं शरीर का कंपने लगे।

ऐसे भी, अगर मैं बहुत प्रेम से भरा हुआ हाथ आपके हाथ पर रखूं, तो मेरे हाथ की तरंगों में भेद होगा। और मैं क्रोध से भरकर और घृणा से भरकर यही हाथ आपके हाथ पर रखूं, तो मेरी हाथ की तरंगों में भेद होगा। मेरे हृदय के भाव मेरे हाथ की तरंगें बनते तो हैं। इसलिए प्रेम से छुआ गया हाथ कुछ और ही स्पर्श लाता है। घृणा से छुआ गया हाथ कोई और ही स्पर्श लाता है। अभिशाप से भरे हाथ में जहर आ जाता है। वरदान से भरे हाथ में अमृत बरस जाता है।

तो भाव दौड़ते तो हैं शरीर के कोने-कोने तक। कोई कारण नहीं है कि प्रभु का स्मरण इतने गहरे में उतर जाए कि शरीर के कोने-कोने तक उसकी ध्वनि पैदा हो जाए। लेकिन जीवन के बहुत-से रहस्य अज्ञात हैं; उनके नियम अज्ञात हैं। इसलिए वे हमें रहस्यपूर्ण मालूम होते हैं, क्योंकि उनका विज्ञान हमें ज्ञात नहीं है।

सतत स्मरण आत्मा को परमात्मा का बना रहता है--एक बार पदार्थ से चित्त हट जाए, पाप से चित्त हट जाए।

कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है।

कृष्ण हर सूत्र के बाद यही कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है, ऐसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है, ऐसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है। यह परम आनंद क्या है? कुछ हमारी समझ में आता नहीं है सीधा। आनंद हमने जाना ही नहीं। परम आनंद क्या है? कोरा शब्द। कान पर गूंजता है, खो जाता है।

हमने सुख जाना है थोड़ा-सा। थोड़ा-सा! जब प्रतीक्षा करते हैं तब, अपेक्षा करते हैं तब, इंतजार करते हैं तब। और हमने दुख जाना है बहुत--जब मिलता है तब, जब पा लेते हैं तब, जब पहुंच जाते हैं तब। जब प्रतीक्षा का होता है अंत और उपलब्धि आती है हाथ में, तो दुख। रास्ते पर जानी हैं सुख की कल्पनाएं, सुख के सपने; और मंजिल पर पहुंचकर झेली है पीड़ा दुख की। ये हम जानते हैं, सुख और दुख हम जानते हैं। परम आनंद क्या है?

तो आमतौर से हम समझ लेते हैं, सुख का ही कोई बहुत बड़ा रूप होगा। नहीं, इस भ्रांति में न पड़ जाना आप। ऐसा मत सोचना कि महा सुख होगा। शब्दकोश में यही लिखा हैं। शब्दकोशों में यही लिखा है, आनंद--महा सुख, महान सुख, अनंत सुख। हमारे पास सुख के अलावा तौलने का कोई उपाय नहीं है।

 एक चम्मच से भी हिंद महासागर तौला जा सके, लेकिन सुख से आनंद नहीं तौला जा सकता।  लेकिन सुख की चम्मच से हम आनंद को जरा भी नहीं तौल पाएंगे; वह असंभव है। क्यों? कारण है उसका। चम्मच में सागर बंध जाए, तो क्वांटिटी का भर फर्क रहता है, क्वालिटी का फर्क नहीं रहता। एक चम्मच में आपने सागर भर लिया, और नीचे हिंद महासागर है, और चम्मच में थोड़ा-सा सागर आ गया। दोनों में क्वांटिटी का फर्क है, परिमाण का; गुण का कोई भेद नहीं है, क्वालिटी का कोई भेद नहीं है। चम्मच का सागर चखो कि नीचे का महासागर चखो; एक-सा स्वाद है, एक-सा पानी है। चम्मच के कणों का विश्लेषण करो, सागर के कणों का विश्लेषण करो, एक-सा हाइड्रोजन, आक्सीजन है। चम्मच सागर के बाबत पूरी खबर दे देगी। चम्मच सागर का मिनिएचर रूप है।

लेकिन सुख और आनंद में गुणात्मक, क्वालिटेटिव अंतर है, क्वांटिटी का नहीं। इसलिए कोई कल्पना सुख से नहीं बनेगी। पर जब भी हम सुनते हैं, अर्जुन, इससे परम आनंद उपलब्ध होगा, तो हमारे मन में होता है, जरूर बड़ा सुख मिलेगा। बिलकुल भूल जाना, सुख की बात ही भूल जाना। सुख से आनंद का कोई भी संबंध नहीं है।

तो फिर हम तो दो ही चीजें जानते हैं, सुख और दुख; तीसरी कोई चीज जानते नहीं। तो या तो सुख से संबंध होगा, अगर सुख से नहीं है, तो फिर क्यों हमें उलझाते हैं! क्योंकि फिर दुख ही बच रहता है। उसके अलावा तीसरी चीज हमें कुछ पता नहीं है।

दुख से भी आनंद का कोई संबंध नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो जहां दुख और सुख दोनों शेष नहीं रह जाते, वहां आनंद फलित होता है। लेकिन वह अपरिचित है, वह अननोन है।

इसलिए आप अगर सुख की खोज में हों, तो कृष्ण की बातों में मत पड़ना। अगर सुख की खोज में हों, तो भूलकर कृष्ण की बात मानना ही मत। गीता बंद कर देना, सुख को खोज लेना। कृष्ण सुख तक जाने का कोई रास्ता नहीं बता सकते। कृष्ण जो रास्ता बता रहे हैं, वह सुख के पार जाने का है। लेकिन जो सुख के पार जाएगा, वही दुख के पार जाएगा। सुख आनंद नहीं होगा। सुख भी पदार्थ से जुड़ाव है, दुख भी पदार्थ से जुड़ाव है। सुख भी पाप है, दुख भी पाप है। दोनों ही पदार्थ से जुड़े हैं।

आपने कोई ऐसा सुख जाना है, जो पदार्थ से न जुड़ा हो? आपने कोई ऐसा दुख जाना है, जो पदार्थ से न जुड़ा हो? अगर जाना हो, तो वह आनंद है। लेकिन हम तो जो भी जाने हैं, वह पदार्थ से जुड़ा है। दुख जाना है तो; धन खो गया, दुख आ गया। सुख जाना है तो; धन मिल गया, सुख आ गया। दुख जाना है तो; प्रियजन बिछुड़ गया, तो दुख आ गया। सुख जाना है तो; प्रियजन मिल गया, तो सुख आ गया। लेकिन सब पदार्थ से है।



हम बेईमान पदार्थवादी हैं। हम कहते हैं, आनंद! हम आनंद के लिए ही जीते हैं। और जीवनभर सुख और दुख की ही चेष्टा करते हैं।

और ध्यान रहे, बेईमान पदार्थवादी से ईमानदार पदार्थवादी बेहतर है, कम से कम ईमानदार है। और ध्यान रहे, ईमानदार पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक हो सकता है। बेईमान पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि बेईमान है! दोहरी बीमारियां जुड़ी हैं। पदार्थ तो बीमारी है ही, बेईमानी और भारी बीमारी है।

हमारे मुल्क में एक बड़ी भ्रांति छा गई है कि हम सब आध्यात्मिक हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य घटित नहीं हो सकता। यह ऐसा ही है कि किसी अस्पताल के सब मरीजों को खयाल आ जाए कि हम परम स्वस्थ हैं; हम गामा हैं! वह अस्पताल गया! मरीज मरेंगे। क्योंकि डाक्टर की अब सुन नहीं सकते वे। डाक्टर अगर कहेगा, इलाज; वे कहेंगे, बाहर हो जाओ। तुम्हारा दिमाग खराब है! हम परम स्वस्थ हैं! इलाज करना है, पश्चिम चले जाओ। उधर लोग बीमार हैं। इस अस्पताल में सब स्वस्थ हैं। यहां तो कोई बीमार कभी पड़ता ही नहीं।

बीमार को भ्रांति पैदा हो जाए कि मैं स्वस्थ हूं, तो उसका इलाज भी नहीं हो सकता। बीमार को तो ठीक से जानना चाहिए कि मैं बीमार हूं। बीमारी की पीड़ा जितनी साफ हो, उतना इलाज हो सकता है।

इस मुल्क के अध्यात्मवाद का जो खयाल हमारे दिमाग में बैठ गया भारी होकर, उसके कारण हैं। इस मुल्क में ऐसे लोग पैदा हुए, जो आध्यात्मिक थे। लेकिन यह मुल्क आध्यात्मिक नहीं हो जाता इसलिए कि इस मुल्क में लोग पैदा हुए जो आध्यात्मिक थे। 

बुद्ध पैदा हो जाएं, कृष्ण पैदा हो जाएं, इससे हम अध्यात्मवादी नहीं हो जाते। बल्कि इससे हमारे ऊपर एक और बड़ा दायित्व, एक और बड़ी रिस्पांसिबिलिटी गिर जाती है कि जिन्होंने बुद्ध पैदा किया, उनका भौतिकवाद होना अत्यंत दुखद और पीड़ादायी हो जाता है। इससे हम आध्यात्मिक नहीं हो जाते, बल्कि इससे हमारा भौतिकवाद और भी पीड़ादायी हो जाना चाहिए। कि जिन्होंने बुद्ध, और महावीर, और कृष्ण, और ऋषभ पैदा किए, उनकी हालत! उनकी हालत दो-दो कौड़ी को पकड़ने की हो, उनकी हालत चौबीस घंटे पदार्थ के चिंतन की हो!

हां, इसको अगर अध्यात्मवाद हम समझते हों कि रोज उठकर हम सुबह गीता पढ़ लेते हैं। कितनी बार पढ़िएगा? और जब पहली बार आपकी बुद्धि में नहीं आई, तो आप समझते हैं, दूसरी बार आपकी बुद्धि थोड़ी ज्यादा हो जाएगी? डिटेरियोरेट हो रही है बुद्धि रोज। कल जितनी थी, कल और कम हो जाने वाली है। दूसरी बार और कम समझ में आएगी। और तीसरी बार समझने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तोते की तरह दोहराए चले जाएंगे। फिर जिंदगीभर आदमी गीता पढ़ता रहता है और सोचता है। कुछ नहीं समझता; शब्द दोहराता है।

आध्यात्मिक होना हो, तो जीवंत प्रयोग की जरूरत है। कृष्ण प्रयोग की ही बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, पदार्थ से हटाओ।

सोचेंगे, कभी न हटा पाएंगे। हटाना शुरू करें। अभी थोड़ी ही देर में पदार्थ पकड़ेगा, तब पदार्थ से दूर रहकर--अभी प्यास लगेगी और पानी पीएंगे, तब थोड़ा प्यास से दूर खड़े होकर प्यास को भी देखना, पानी को भी देखना। पानी प्यास को बुझा रहा है, यह भी देखना। और आप देखने वाले रहना। आप न प्यासे बनना और न पानी बनना। जब प्यास मिट जाए, तब भी आप जानने वाले रहना कि अब प्यास मिट गई। आप प्यास मत बन जाना, अन्यथा पानी पर पागलपन शुरू हो जाएगा। आप जरा दूर खड़े होकर देखते रहना।

यह दूर खड़े होने की कला, यह प्रतिपल दूर खड़े होने की कला, ठीक वस्तुओं के बीच में अनासक्त होने की कला ही किसी क्षण उस विस्फोट में ले आती है जीवन को, जहां हम परमात्मा से एक हो जाते हैं।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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