गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 10

  परमात्मा के स्वर—


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। 11।।


हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।


यह वचन बहुत अदभुत है।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं। भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए--खाली, अकेली।

कमरे में गूंजने लगे आवाजें एक बजती हुई वीणा की, तो कुशल संगीतज्ञ उस शांत पड़ी हुई वीणा के तारों को भी झंकृत कर देता है; रिजोनेंस पैदा हो जाता है। वह जो खाली पड़ी वीणा है, जिसे कोई भी नहीं छू रहा है, वह भी उस गूंजते संगीत से गुंजायमान हो जाती है। वह भी गूंजने लगती है; उससे भी संगीत का स्फुरण होने लगता है।


परमात्मा भी रिजोनेंस है; प्रतिध्वनि देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी प्रतिध्वनि परमात्मा भी हमें देता है। हमारे चारों ओर वही मौजूद है। हमारे भीतर जो फलित होता है, तत्काल उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है; वह दर्पण की भांति हमें लौटा देता है, हमारे प्रतिबिंबों को।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजता है, उसी भांति मैं भी उसे भजता हूं। जो जिस भांति मेरे दर्पण के समक्ष आ जाता है, वैसी ही तस्वीर उस तक लौट जाती है।

परमात्मा कोई मृत वस्तु नहीं है, जीवंत सत्य है। परमात्मा कोई बहरा अस्तित्व नहीं है, परमात्मा हृदयपूर्ण है। परमात्मा भी प्राणों के स्पंदन से भरा हुआ अस्तित्व है। और जब हमारे प्राणों में कोई प्रार्थना उठती है और हम परमात्मा की तरफ बहने शुरू होते हैं, तो आप मत सोचना कि यात्रा एक तरफ से होती है। यात्रा दोहरी है। जब आप एक कदम उठाते हैं परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी आपकी तरफ कदम उठाता है।

यह हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता। यह साधारणतः हमारे खयाल में नहीं आता। यह खयाल में हमारे इसीलिए नहीं आता कि हम जीवन की क्षुद्रता में इस भांति उलझे हुए हैं कि उसकी गहरी प्रतिध्वनियों को पकड़ने की क्षमता खो देते हैं। हम इतने शोरगुल में डूबे हुए हैं कि वह जो धीमी-धीमी आवाजें अस्तित्व हमारे पास पहुंचाता है, वे हमें सुनाई नहीं पड़तीं। बहुत स्टिल स्माल वाइस, बड़ी छोटी आवाज है। बड़ी बारीक, महीन आवाज में ध्वनियां हम तक लौटती हैं, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़तीं। हम इतने उलझे होते हैं।

कभी खयाल किया हो; आप अपने कमरे में बैठे हैं, खयाल करें, तो पता चलता है कि बाहर वृक्ष पर चिड़िया आवाज कर रही है। खयाल न करें, तो वह आवाज करती रहती है, आपको कभी पता नहीं चलता। रात के सन्नाटे से गुजर रहे हैं, अपने विचारों में खोए हुए हैं। पता नहीं चलता है कि बाहर झींगुर की आवाज है। होश में आ जाएं, चौंककर जरा रुक जाएं; सुनें, तो पता चलता है कि विराट सन्नाटा आवाज कर रहा है।

ठीक ऐसे ही परमात्मा प्रतिपल हमें प्रतिध्वनित करता है, लेकिन झींगुर की आवाज से भी सूक्ष्म है आवाज। सन्नाटे की आवाज से भी बारीक है। पक्षियों की चहचहाहट से भी नाजुक है। बहुत चुप होकर, मौन होकर जो उसे पकड़ेगा, वही पकड़ पाता है।

गहरे मौन में, कृष्ण जो कहते हैं, उसका निश्चित ही पता चलता है। यहां उठती है एक ध्वनि, चारों ओर से उसकी प्रतिध्वनि लौट आती है और उसकी हमारे ऊपर वर्षा हो जाती है।


कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में...।

जिस रूप में भी हम अपने अस्तित्व के चारों ओर अपने प्राणों से प्रतिध्वनियां करते हैं, वे ही हम पर अनंतगुना होकर वापस लौट आती हैं। परमात्मा प्रतिपल हमें वही दे देता है, जो हम उसे चढ़ाते हैं। हमारे चढ़ाए हुए फूल हमें वापस मिल जाते हैं। हमारे फेंके गए पत्थर भी हमें वापस मिल जाते हैं। हमने गालियां फेंकीं, तो वे ही हम पर लौट आती हैं। और हमने भजन की ध्वनियां फेंकीं, तो वे ही हम पर बरस जाती हैं।

अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि आपने अपने चारों तरफ दुख के स्वर भेजे हैं, वे आप पर लौट आए हैं। अगर जीवन में घृणा मिलती हो, तो जानना कि आपने घृणा के स्वर फेंके थे, वे आप पर वापस लौट आए। अगर जीवन में प्रेम न मिलता हो, तो जानना कि आपने कभी प्रेम की आवाज ही नहीं दी कि आप पर प्रेम वापस लौट सके।

इस जीवन के महा नियमों में से एक है, हम जो देते हैं, वह हम पर वापस लौट आता है।

कृष्ण वही कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है...।

जिस रूप में, इस शब्द को ठीक से स्मरण रख लेना। जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं भी उसे उसी रूप में भजता हूं। मैं उसे वही लौटा देता हूं।


जिंदगी भी उसी सिक्के में हमें लौटा देती है। हमें तब तो पता नहीं चलता, जब हम जिंदगी को देते हैं अपने सिक्के। हमें पता तभी चलता है, जब सिक्के लौटते हैं। हम जब बीज बोते हैं, तब तो पता नहीं चलता; जब फल आते हैं, तब पता चलता है। और अगर फल विषाक्त आते हैं, जहरीले, तो हम रोते हैं और कोसते हैं। हमें पता नहीं कि यह फल हमारे बीजों का ही परिणाम है।

ध्यान रहे, जो भी हम पर लौटता है, वह हमारा दिया हुआ ही लौटता है। हां, लौटने में वक्त लग जाता है। प्रतिध्वनि होने में समय गिर जाता है। उतने समय के फासले से पहचान मुश्किल हो जाती है।

इस जगत में किसी भी व्यक्ति के साथ कभी अन्याय नहीं होता। अन्याय नहीं होता, उसी का यह सूत्र है।

कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं उसी रूप में उसे भजता हूं।

अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को पदार्थ माना, तो उसे यह जगत पदार्थ मालूम होने लगेगा। क्योंकि परमात्मा उसी रूप में लौटा देगा। अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को परमात्मा माना, तो यह जगत परमात्मा हो जाएगा। क्योंकि यह अस्तित्व उसी रूप में लौटा देगा, जो हमने दिया था।

हमारा हृदय ही अंततः हम सारे जगत में पढ़ लेते हैं। और हमारे हृदय में छिपे हुए स्वर ही अंततः हमें सारे जगत में सुनाई पड़ने लगते हैं। चांदत्तारे उसी को लौटाते हैं, जो हमारे हृदय के किसी कोने में पैदा हुआ था। लेकिन अपने हृदय में जो नहीं पहचानता, लौटते वक्त बहुत चकित होता है, बहुत हैरान होता है कि यह कहां से आ गया? इतनी घृणा मुझे कहां से आई? इतने लोगों ने मुझे घृणा क्यों की? लौटे, खोजे, और वह पाएगा कि घृणा ही उसने भेजी थी। वही वापस लौट आई है।

इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें। जिस रूप में भजता है, इसका एक अर्थ मैंने कहा। इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें।

अगर कोई न भजता हो, किसी भी रूप में न भजता हो परमात्मा को, तो परमात्मा क्या लौटा देता है? अगर कोई भजता ही नहीं परमात्मा को, तो परमात्मा भी न भजने को ही लौटाता है। अगर कोई व्यक्ति जीवन से किसी भी तरह के संवाद नहीं करता, तो जीवन भी उसके प्रति मौन हो जाता है; जड़ पत्थर की तरह हो जाता है। सब तरफ पथरीला हो जाता है। जिंदगी में जिंदगी आती है हमारे जिंदा होने से। इसलिए जिंदा आदमी के पास पत्थर भी जिंदा होता है और मरे हुए, मुर्दा तरह के आदमी के पास, जिंदा आदमी भी मुर्दा हो जाता है।



जिस रूप में हम अस्तित्व के साथ व्यवहार करते हैं, वही व्यवहार हम तक लौट आता है। परमात्मा भी प्रतिपल रिस्पांडिंग है, प्रतिसंवादित होता है। बारीक है उसकी वीणा और स्वर हैं महीन; लेकिन प्रतिपल, जरा-सा हमारा कंपन उसे भी कंपा जाता है। जिस भांति हम कंपते हैं, उसी भांति वह कंपता है। अंततः जो हम हैं, वही हमारी जिंदगी में हमें उपलब्ध होता है।

इसलिए अगर एक आदमी कहता हो कि मुझे कहीं ईश्वर नहीं मिला...मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि ईश्वर? आप ईश्वर की बात करते हैं। ईश्वर कहां है?

मैं उनकी आंखों में देखता हूं, तो मुझे पता लगता है, उनकी आंखें पथरीली हैं। उन्हें ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। उसका कारण यह नहीं है कि ईश्वर नहीं है। उसका कारण यह है कि उनके पास पत्थर की आंखें हैं। पत्थर की आंखों में ईश्वर दिखाई पड़ना मुश्किल है। उनकी आंखों में देखने की क्षमता ही नहीं मालूम पड़ती; उनकी आंखों में कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

हां, उनकी आंखों में कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं; वे उन्हें मिल जाती हैं। धन दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। यश दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। जो दिखाई पड़ता है, वह मिल जाता है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह कैसे मिलेगा? हम जितना परमात्मा को उघाड़ना चाहें, उतना उघाड़ सकते हैं। लेकिन परमात्मा को उघाड़ने के पहले, उतना ही हमें स्वयं भी उघड़ना पड़ेगा।

प्रार्थना, कृष्ण कहते हैं, भजन, भजना यह अपनी तरफ से परमात्मा के लिए पुकार भेजना है। और जब भी कोई हृदयपूर्वक प्रार्थना से भर जाता है, तो आमतौर से हमें पता नहीं है कि प्रार्थना का असली क्षण वह नहीं है जब आप प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का असली क्षण तब शुरू होता है, जब आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती है और आप प्रतीक्षा करते हैं।

प्रार्थना के दो हिस्से हैं, ध्यान रखें। एक ही हिस्सा प्रचलित है। दूसरे का हमें पता ही नहीं रहा है। और दूसरे का जिसे पता नहीं है, उसे प्रार्थना का ही पता नहीं है।

आपने प्रार्थना की, वह तो एकतरफा बात हुई। प्रार्थना के बाद अब मंदिर से भाग मत जाएं। अब प्रार्थना के बाद मस्जिद को छोड़ मत दें। अब प्रार्थना के बाद गिरजे से निकल मत जाएं, एकदम दुकान की तरफ। अगर पांच क्षण प्रार्थना की है, तो दस क्षण रुककर प्रतीक्षा भी करें। उस प्रार्थना को लौटने दें। वह प्रार्थना आप तक लौटेगी। और अगर नहीं लौटती है, तो समझना कि आपको प्रार्थना करने का ही कुछ पता नहीं। आपने प्रार्थना की ही नहीं है।

लेकिन आदमी प्रार्थना किया, और भागा! वह प्रतीक्षा तो करता ही नहीं कि परमात्मा को पुकारा था, तो उसे पुकार का जवाब भी तो दे देने दो। जवाब निरंतर उपलब्ध होते हैं। कभी भी कोई प्रश्न खाली नहीं गया। और कभी कोई पुकार खाली नहीं गई। लेकिन की गई हो तब। अगर सिर्फ शब्द दोहराए गए हों, अगर सिर्फ कंठस्थ शब्दों को दोहराकर कोई क्रिया पूरी की गई हो और आदमी वापस लौट गया हो, तो फिर नहीं, फिर नहीं हो सकता।

नाचो प्रभु के सामने और छोड़ दो फिर नाच को उसकी तरफ, फिर लौटेगा। जो नाचकर प्रभु के पास गया है, नाचता हुआ प्रभु उसके पास भी आता है। जिसने गीत गाकर निवेदन किया है, उसने और महागीत में गाकर उत्तर भी दिया है। उसका ही आश्वासन कृष्ण के द्वारा अर्जुन को इस सूत्र में दिया गया है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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