गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 33


 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। 34।।


इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा, उस ज्ञान को जान। वे मर्म को जानने वाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।



कीमती है यह सूत्र। कृष्ण कहते हैं, दंडवत कर प्रश्न पूछ, तो वे ज्ञानीजन जो जानते, उसे प्रकट कर देते हैं।

प्रश्न बहुत तरह से पूछे जा सकते हैं। इसलिए शर्त लगाते हैं, दंडवत कर। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज दंडवत कर प्रश्न पूछने वाला आदमी मुश्किल से कहीं मिलता है।

प्रश्न बहुत तरह से पूछे जाते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न सिर्फ कुतूहल, क्यूरिआसिटी होते हैं। बच्चे पूछें, माफ किए जा सकते हैं। बूढ़े पूछें, माफ नहीं किए जा सकते। कुतूहल!

बच्चा चल रहा है बाप के साथ, कुछ भी पूछता चलता है। कुछ भी पूछता चलता है, कि घोड़े के दो कान क्यों हैं? और बाप बुद्धिमान हुआ, तो कुछ भी जवाब देता चलता है। नासमझ हुआ तो डांटता है; बुद्धिमान हुआ तो कुछ भी जवाब देता चलता है।

कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी जवाब की फिक्र नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक कुतूहल आगे बढ़ गया होता है।



इसलिए कृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है।

दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो, इंक्वायरी हो; क्यूरिआसिटी न हो, जिज्ञासा हो। कुतूहल नहीं है; सच में ही जानना चाहता है एक आदमी। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, बाई दि वे! ऐसा नहीं, चलते थे रास्ते से, पूछ लिया, ऐसा नहीं। सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। लेकिन आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, लेकिन जिससे जानना चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन सकती है।

वह ऐसा ही है कि एक आदमी बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; लेकिन झुकना नहीं चाहता है कि झुके और पानी भर ले; तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं को ही नदी तक झुकना पड़ता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके।

ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुके!

झुकने में राज क्या है? झुकने का इतना आग्रह क्या है?

दंडवत करके प्रतीकात्मक है। दंडवत का मतलब यह नहीं है कि सच में ही कोई आदमी सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले द्वार में ही रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा होती है।

जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, अभी समय नहीं आया।

शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है, वैसा नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। 

शिष्य होने का मतलब है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र होने को राजी है। क्योंकि  विनम्रता में ही द्वार खुलता है। जब हम झुकते हैं, तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हुए आदमी के द्वार बंद होते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है!

दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन प्रश्न नहीं पूछता है?

जो आदमी दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह वह आदमी है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मुझे तो खुद ही पता है। ऐसे ही पूछे ले रहे हैं एक विटनेस के बतौर कि अगर इनको भी पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का।

 अज्ञान का बोध ज्ञान यज्ञ का पहला चरण है। उसको कृष्ण फिर दोहराते हैं। अब वे एक नए रूप से कहते हैं कि दंडवत करके जो पूछता, झुककर जो पूछता!


इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से।


 झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। इसे जरा कठिन लगेगा सोचना कि झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। झुका तो कमजोर भी सकते हैं, झुकना सिर्फ महाशक्तिशालियों का काम है। झुका लेना तो किसी को बड़ा आसान है; झुक जाना बड़ा कठिन है। और तब झुक जाना तो आसान है, जब कोई झुकाता हो। तब झुक जाना महान कार्य है, जब कोई झुकाता न हो।

कोई गुरु कहे, झुक! डंडे से झुका दे; चार आदमी लगाकर झुका दे; तो झुक जाएंगे। लेकिन तब झुकना बहुत आसान है। लेकिन गर्दन ही झुकाई जा सकेगी, और कुछ भी नहीं झुकेगा। लेकिन जब कोई कहता ही नहीं झुकने की कोई बात; कोई आतुर ही नहीं; तब झुकना, तब सहज, स्पांटेनियस--दंडवत का वही अर्थ है, अपनी ओर से सब छोड़कर पड़ जाना, सरेंडर्ड, समर्पित।

उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते हैं, म्यूटेशन से जाना चाहते हैं, और हो जाना चाहते हैं।

प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसे बच्चे पूछ लेते। प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसा वैज्ञानिक पूछता। प्रश्न ऐसा था, जैसा साधक पूछता है। ऐसा प्रश्न पूछा जाए, तो ही ज्ञान जिसके जीवन में घटित हुआ, उससे धारा बहनी शुरू होती है।

जब क्रोध में ऐसा घटित होता है, तो क्या इससे विपरीत घटित नहीं हो सकता कि किसी के चरणों में सिर रखने का क्षण आ जाए? जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर पैर रखना चाहता है, तो मौन से, प्रेम से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त, अगर दूसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो आश्चर्य क्या है?


फिर यह भी ध्यान रहे कि दंडवत इस मुल्क में एक बहुत साइंटिफिक प्रोसेस का हिस्सा थी, एक वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह विद्युत-ऊर्जा कोणों से, कोनिकल जगह से बहती है--अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से, हाथ की अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है, समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो जाती है। उसके पैरों पर अगर सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़ जाता है। उसके हाथों से भी यह होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ सिर पर रखकर आशीष देने का रिवाज था।

अगर किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी आपके सिर पर हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर इलेक्ट्रिक सर्किट बन जाते हैं और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे परिणाम हैं।

लेकिन जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ हो जाते हैं। जीवन के बहुत-से सत्य गलत लोगों के हाथ में पड़कर खतरनाक भी हो जाते हैं।

दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, उससे ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा कृष्ण कहते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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