गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 11

  अंतर्यात्रा का विज्ञान 


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। 11।।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपविश्यासने युग्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12।।


शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर

तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।


अंतर-गुहा में प्रवेश के लिए, वह जो हृदय का अंतर- आकाश है, उसमें प्रवेश के लिए कृष्ण ने कुछ विधियों का संकेत अर्जुन को किया है।

योग की समस्त विधियां बाहर से प्रारंभ होती हैं और भीतर समाप्त होती हैं। यही स्वाभाविक भी है। क्योंकि मनुष्य जहां है, वहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा। मनुष्य की जो स्थिति है, वही पहला कदम बनेगी। और मनुष्य बाहर है। इसलिए योग की कोई भी शुरुआत स्वभावतः बाहर से होगी। हम जहां हैं, वहीं से यात्रा पर निकल सकते हैं। जहां हम नहीं हैं, वहां से यात्रा शुरू नहीं की जा सकती है।

इस संबंध में दोत्तीन अनिवार्य बातें समझ लेनी चाहिए, फिर कृष्ण की विधि पर हम विचार करें।

बहुत बार ऐसा हुआ है। जो जानते हैं, उनका मन होता है आपसे कहें, वहीं से शुरू करो, जहां वे हैं। उनकी बात इंच-इंच सही होती है, फिर भी बेकार हो जाती है।

मैं जहां हूं, अगर मैं किसी दूसरे को कहूं कि वहां से शुरू करो, तो भला बात कितनी ही सही हो, वह दूसरे के लिए व्यर्थ हो जाएगी। उचित और सार्थक तो यही होगा कि दूसरा जहां है, वहां से मैं कहूं कि यहां से शुरू करो।

बहुत बार जानने वाले लोगों ने भी अपनी स्थिति से वक्तव्य दे दिए हैं, जो कि किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और उन वक्तव्यों से बहुत बार हानि भी हो जाती है। क्योंकि वहां से आप कभी शुरू ही नहीं कर सकते हैं। सुनेंगे, समझेंगे, सारी बात खयाल में आ जाएगी और फिर भी पाएंगे कि अपनी जगह ही खड़े हैं; इंचभर हट नहीं पाते हैं। क्योंकि जहां आप खड़े हैं, वहां से वह बात शुरू नहीं हो रही है। वह बात वहां से शुरू हो रही है, जहां करने वाला खड़ा है। और यात्रा तो वहां से शुरू होगी, जहां आप खड़े हैं।

मैं अगर मंदिर के भीतर खड़ा हूं, तो मैं आपसे कह सकता हूं कि मंदिर के भीतर आ जाओ। और सीढ़ियों की चर्चा छोड़ सकता हूं। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, वहां सीढ़ियों का कोई भी प्रयोजन नहीं है। द्वार-दरवाजों की बात न करूं, हो सकता है। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, अब वहां कोई द्वार-दरवाजा नहीं है। लेकिन आपको द्वार-दरवाजा भी चाहिए होगा, सीढ़ियां भी चाहिए होंगी, तभी मंदिर के भीतर प्रवेश हो सकता है।

जो आत्यंतिक वक्तव्य हैं, अंतिम वक्तव्य हैं, वे सही होते हुए भी उपयोगी नहीं होते हैं।

कृष्ण ऐसी बात कह रहे हैं, जो कि पूरी सही नहीं है, लेकिन फिर भी उपयोगी है। और बहुत बार कृष्ण जैसे शिक्षकों को ऐसी बातें कहनी पड़ी हैं, जो कि उन्होंने मजबूरी में कही होंगी--आपको देखकर, आपकी कमजोरी को देखकर। वे वक्तव्य आप पर निर्भर हैं, आपकी कमजोरी और सीमाओं पर निर्भर हैं।

अब जैसे कृष्ण कह रहे हैं आसन की बात कि आसन न बहुत ऊंचा हो, न बहुत नीचा हो।

जो भीतर पहुंच गया, वहां ऊपर-नीचा आसन, न-आसन, कुछ भी शेष नहीं रह जाते। वैसा भीतर पहुंचा हुआ आदमी कह सकता है, जैसा कबीर ने बहुत जगह कहा है कि क्या होगा आसन लगाने से? सब व्यर्थ है! कबीर गलत नहीं कहते। कबीर एकदम ठीक ही कहते हैं। लेकिन कबीर जो कहते हैं उसमें और आप में इतना बड़ा अंतराल, इतना बड़ा गैप है कि वह कभी पूरा नहीं होगा।


 जब कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मृगचर्म पर बैठकर, न अति ऊंचा हो आसन, न अति नीचा हो, सम हो, ऐसे आसन में बैठकर, चित्त को एकाग्र करे, इंद्रियों के व्यापार को समेट ले, इंद्रियों का मलिक हो जाए--तो ही योग में प्रवेश होता है।

गहरे अर्थों में क्या फर्क पड़ता है? आत्मा का कोई आसन होता है? गङ्ढे में बैठ गए, तो आत्मा न मिलेगी? ऊंची जमीन पर बैठ गए, तो आत्मा न मिलेगी? अगर ऐसी छोटी शर्तों से आत्मा का मिलना बंधा हो, तो बड़ा सस्ता खेल हो गया!

नहीं; आत्मा तो मिल जाएगी कहीं से भी। फिर भी, जहां हम खड़े हैं, वहां इतनी ही छोटी चीजों से फर्क पड़ेगा, क्योंकि हम इतने ही छोटे हैं। जहां हम खड़े हैं, इतनी क्षुद्र बातों से भी भेद पड़ेगा।

कभी ध्यान करने बैठे हों, तो खयाल में आएगा। अगर जरा तिरछी जमीन है, तो पता चलेगा कि उस जमीन ने ही सारा वक्त ले लिया। अगर पैर में एक जरा-सा कंकड़ गड़ रहा है, तो पता चलेगा कि परमात्मा पर ध्यान नहीं जा सका, कंकड़ पर ही ध्यान रह गया! एक जरा-सी चींटी काट रही है, तो पता चलेगा कि चींटी परमात्मा से ज्यादा बड़ी है! परमात्मा की तरफ इतनी चेष्टा करके ध्यान नहीं जाता और चींटी की तरफ रोकते हैं, तो भी ध्यान जाता है!

जहां हम खड़े हैं अति सीमाओं में घिरे, अति क्षुद्रताओं में घिरे; जहां हमारे ध्यान ने सिवाय क्षुद्र विषयों के और कुछ भी नहीं जाना है, वहां फर्क पड़ेगा। वहां इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसे आसन में बैठे। इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसी भूमि चुनी। इस बात से फर्क पड़ेगा कि किस चीज पर बैठे। क्यों फर्क पड़ जाएंगे? हमारे कारण से फर्क पड़ेगा। हमें इतनी छोटी चीजें परिवर्तित करती हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है!

तो कृष्ण का यह वक्तव्य ऐसा लगेगा कि बड़ा साधारण है, लेकिन साधारण नहीं है। अगर समतुल आसन हो और आपके शरीर के दोनों हिस्से बिलकुल समान स्थिति में भूमि पर हों, कोई हिस्सा नीचा-ऊपर न हो, आपके शरीर को झुकना न पड़े, तो उसके बहुत वैज्ञानिक कारण हैं।

जमीन चौबीस घंटे प्रतिपल अपने ग्रेविटेशन से हमारे शरीर को प्रभावित करती है। उसका गुरुत्वाकर्षण पूरे समय काम कर रहा है। जब आप बिलकुल समतुल होते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम होता है, मिनिमम होता है। जब आप जरा भी तिरछे होते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का और आपके शरीर का संबंध बढ़ जाता है। अगर मैं बिलकुल सीधे आसन में बैठा हुआ हूं, तो गुरुत्वाकर्षण बिलकुल सीधी रेखा में, सिर्फ रीढ़ को ही प्रभावित करता है। अगर मैं जरा झुक गया, तो जितना मैं झुक गया, पृथ्वी उतने ही हिस्से में कोण बनाकर गुरुत्वाकर्षण से शरीर को प्रभावित करने लगती है।

इसीलिए तिरछे खड़े होकर आप जल्दी थक जाएंगे, सीधे बैठकर आप कम थकेंगे। तिरछे बैठकर आप जल्दी थक जाएंगे। जमीन आपको ज्यादा खींचेगी। इसलिए लेटकर आप विश्राम पा जाते हैं, क्योंकि लेटकर आप जरा भी तिरछे नहीं होते, पूरी जमीन का गुरुत्वाकर्षण आपके शरीर पर समान होता है।

समान गुरुत्वाकर्षण आधार है कृष्ण के इस वक्तव्य का। जरूरी नहीं है कि कृष्ण को गुरुत्वाकर्षण का कोई पता हो; आवश्यक भी नहीं है। कोई न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण को पैदा नहीं किया है। न्यूटन नहीं था, तो भी गुरुत्वाकर्षण था। शब्द नहीं था हमारे पास कि क्या है। लेकिन इतना पता था कि जमीन खींचती है, और शरीर को चौबीस घंटे प्रतिपल खींचती है।

शरीर को हम ऐसी स्थिति में रख सकते हैं कि जमीन का अधिकतम आकर्षण शरीर पर हो। और जहां शरीर पर अधिकतम आकर्षण होगा, वहां शरीर जल्दी थकेगा, बेचैन होगा, परेशान होगा और चित्त को थिर करने में आपके लिए कठिनाई होगी--कृष्ण के लिए नहीं।

शरीर ऐसी स्थिति में हो सकता है, जहां गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम है, मिनिमम है। जिसको हम सिद्धासन कहते हैं, सुखासन कहते हैं, पद्मासन कहते हैं, वे न्यूनतम गुरुत्वाकर्षण के आसन हैं। और आज तो वैज्ञानिक भी स्वीकार करता है कि अगर सिद्धासन में आदमी बहुत दिन तक, बहुत समय तक रह सके, तो उसकी उम्र बढ़ जाएगी। बढ़ जाएगी सिर्फ इसलिए कि उसके शरीर और जमीन के आकर्षण के बीच जो संघर्ष है, वह कम से कम होगा और शरीर कम से कम जरा-जीर्ण होगा।

अगर कृष्ण कहते हैं कि ऐसी भूमि चुनना ध्यान के लिए, जो नीची-ऊंची न हो; बहुत ऊंची भी न हो, बहुत नीची भी न हो। उसके भी कारण हैं। एक आदमी गङ्ढे में भी बैठ सकता है। एक आदमी एक मचान बांधकर भी बैठ सकता है। खतरे क्या हैं? अगर आप गङ्ढे में बैठ जाते हैं, जमीन के नीचे बैठ जाते हैं, तो एक दूसरे नियम पर ध्यान दे देना जरूरी है।

मैं यहां बोल रहा हूं, इस माइक को थोड़ा मैं नीचे कर लूं, अपने हाथ के तल पर ले आऊं, तो मेरी आवाज इस माइक के ऊपर से निकल जाएगी। मेरी ध्वनि तरंगें इसके ऊपर से निकल जाएंगी। यह आवाज मेरी ठीक से नहीं पकड़ पाएगा। इसे मैं बहुत ऊंचा कर दूं, तो भी मेरी ध्वनि तरंगें नीचे से निकल जाएंगी। यह माइक उन्हें पकड़ नहीं पाएगा। यह माइक मेरी ध्वनि तरंगों को तभी ठीक से पकड़ेगा, जब यह ठीक समानांतर, वाणी की तरंगों के समानांतर होगा। मेरे होंठों के जितने समानांतर होगा, उतनी ही सुविधा होगी इसे मेरी ध्वनि पकड़ लेने के लिए।

पूरी पृथ्वी पूरे समय अनंत तरह की तरंगों से प्रवाहित है। अनंत तरंगें चारों ओर फैल रही हैं। इन तरंगों में कई वजन की तरंगें, कई भार की तरंगें हैं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जितने बुरे विचारों की तरंगें हैं, वे उतनी ही भारी हैं, उतनी ही हैवी हैं। जितने शुभ विचारों की तरंगें हैं, उतनी हलकी हैं, निर्भार हैं।

अगर आप एक गङ्ढे में बैठकर ध्यान करते हैं, कुएं में बैठकर ध्यान करते हैं, तो आपके संपर्क में इस पृथ्वी पर उठने वाली जितनी निम्नतम तरंगें हैं, उनसे ही आपका संपर्क हो पाएगा। वे तो कुएं में उतर जाएंगी, श्रेष्ठ तरंगें कुएं के ऊपर से ही प्रवाहित होती रहेंगी।

इसलिए पहाड़ों पर लोगों ने यात्रा की। पहाड़ों पर यात्रा का कारण था। कारण थी ऊंचाई, और ऊंचाई से तरंगों का भेद।

तरंगों की अपनी पूरी स्थितियां हैं। हर तल पर विभिन्न प्रकार की तरंगें यात्रा कर रही हैं। और एक तरह की तरंग एक सतह पर यात्रा करती है। तो गङ्ढे के लिए इनकार किया है।

लेकिन आप पूछेंगे कि फिर बहुत ऊंची जगह के लिए क्यों इनकार किया है? क्योंकि ऊंचे जितने हम होंगे, उतनी श्रेष्ठतर तरंगें मिल जाएंगी!

तो वह भी आप ध्यान रख लें। ऊंचे पर श्रेष्ठतर तरंगें मिलेंगी, लेकिन अगर आपकी पात्रता न हो, तो श्रेष्ठतर तरंगें भी सिर्फ आपके भीतर उत्पात पैदा करेंगी। आपकी पात्रता के साथ ही श्रेष्ठतर तरंगों को झेलने की क्षमता पैदा होती है।

आप कितना झेल सकते हैं? हम जहां जीते हैं, वही तल अभी हमारे झेलने का तल है। जहां बैठकर आप दुकान करते हैं, भोजन करते हैं, बात करते हैं, जीते हैं जहां, प्रेम करते हैं, झगड़ते हैं जहां, वही आपके जीवन का तल है। उस तल से ही शुरू करना उचित है; न बहुत नीचे, न बहुत ऊपर।

जहां आप हैं, वहीं आपकी टयूनिंग है। अभी आप वहीं से शुरू करें। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े वैसे-वैसे ऊपर की यात्रा हो सकती है। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े, तो आप गङ्ढे में बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं। क्षमता बढ़े, तो ऊपर जा सकते हैं, पर्वत शिखरों की यात्रा कर सकते हैं।

पुराने तीर्थ इस हिसाब से बनाए गए थे कि जो श्रेष्ठतम तीर्थ हो, वह सबसे ऊपर हो। और धीरे-धीरे साधक यात्रा करे; धीरे-धीरे यात्रा करे। वह आखिरी यात्रा कैलाश पर हो उसकी पूरी। वहां जाकर वह समाधि में लीन हो। वहां शुद्धतम तरंगें उसे उपलब्ध होंगी। लेकिन उसकी क्षमता भी निरंतर ऊंची उठती जानी चाहिए, ताकि उतनी शुद्ध तरंगों को वह झेलने में समर्थ हो सके। अन्यथा शुद्धतम को झेलना भी उत्पात का कारण हो सकता है। जितनी आपकी पात्रता नहीं है, उससे ज्यादा आपके ऊपर गिर पड़े, तो वह आपको हानि ही पहुंचाता है, लाभ नहीं।

सूफी फकीरों में गङ्ढे में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, कुएं में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, नीचे जमीन में उतरकर ध्यान करने की प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया के लिए तभी आज्ञा दी जाती है, जब कोई श्रेष्ठतम पर्वत शिखर पर ध्यान करने में समर्थ हो जाता है--तब। यह क्यों? यह तब आज्ञा दी जाती है, जब वह व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है कि उसके आस-पास सब तरह की गलत तरंगें मौजूद रहें, लेकिन वह अप्रभावित रह सके, तब उसे गङ्ढे में बैठकर साधना करने की आज्ञा दी जाती है।

कृष्ण ने अर्जुन को देखकर कहा है कि तू ऐसा आसन चुन, जो बहुत नीचा न हो, ऊंचा न हो, तिरछा-आड़ा न हो। वहां तू सरलता से शांत होने में सुगमता पाएगा।

मृगचर्म की बात कही है। उसके भी कारण हैं। और कारण ऐसे हैं, जो आज ज्यादा स्पष्ट हो सके हैं। इतने स्पष्ट कृष्ण के समय में भी नहीं थे। प्रतीति थी, प्रतीति थी कि कुछ फर्क पड़ता है। लेकिन किस कारण से पड़ता है, उसकी वैज्ञानिक स्थिति का कोई स्पष्ट बोध नहीं था।

संन्यासी इस देश में हजारों, लाखों वर्षों से कहना चाहिए, लकड़ी की खड़ाऊं का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। मृगचर्म का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। सिंहचर्म का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। लकड़ी के तख्त पर बैठकर ध्यान करता रहा है, अकारण नहीं। कुछ प्रतीतियां खयाल में आनी शुरू हो गई थीं कि भेद पड़ता है।

जो चीजें भी विद्युत के लिए नान-कंडक्टिव हैं, वे सभी ध्यान में सहयोगी होती हैं। लेकिन अब इसके वैज्ञानिक कारण स्पष्ट हो सके हैं। आज विज्ञान कहता है कि जिन चीजों से भी विद्युत प्रवाहित होती है, उन पर बैठकर ध्यान करना खतरे से खाली नहीं है। क्यों? क्योंकि जब आप गहरे ध्यान में लीन होते हैं, तो आपका शरीर एक बहुत अनूठे रूप से एक बहुत नए तरह की अंतर्विद्युत पैदा करता है, एक इनर इलेक्ट्रिसिटी पैदा करता है। जब आप पूरे ध्यान में होते हैं, तो आपके शरीर की बाडी इलेक्ट्रिसिटी सक्रिय होती है।

और सबके शरीर में विद्युत का बड़ा आगार है। हम सबके शरीर में विद्युत का बड़ा आगार है। उसी विद्युत से हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। यह जो श्वास आप ले रहे हैं, वह सिर्फ आपके शरीर की विद्युत को आक्सीजन पहुंचाकर जीवित रखती है, और कुछ नहीं करती। वह आक्सीडाइजेशन करती है। आपको प्रतिपल आपके शरीर की विद्युत को चलाए रखने के लिए आक्सीजन की जरूरत है, इसलिए श्वास के बिना आप जी नहीं सकते। और शरीर विद्युत का, कहना चाहिए, एक जेनेरेटर है। वहां पूरे समय विद्युत पैदा हो रही है। इस विद्युत को ध्यान के समय में कंजरवेशन मिलता है, संरक्षण मिलता है।

साधारणतः आप विद्युत को फेंक रहे हैं। मैंने इतना हाथ हिलाया, तो भी मैंने विद्युत की एक मात्रा हाथ से बाहर फेंक दी। मैं एक शब्द बोला, तो उस शब्द को गति देने के लिए मेरे शरीर की विद्युत की एक मात्रा विनष्ट हुई। रास्ते पर आप चले, उठे, हिले, आपने कुछ भी किया कि शरीर की विद्युत की एक मात्रा उपयोग में आई।

लेकिन ध्यान में तो सब हिलन-डुलन बंद हो जाएगा। वाणी शांत होगी, विचार शून्य होंगे, शरीर निष्कंप होगा, चित्त मौन होगा, इंद्रियां शिथिल होकर निष्क्रिय हो जाएंगी। तो वह जो चौबीस घंटे विद्युत बाहर फिंकती है, वह सब कंजर्व होगी, वह सब भीतर इकट्ठी होगी।

अगर आप ऐसी जगह बैठे हैं, जहां से विद्युत आपके शरीर के बाहर जा सके, तो आपको ठीक वैसा ही शॉक अनुभव होगा, जैसा बिजली के तार को छूकर अनुभव होता है। और जो लोग ध्यान में थोड़े गहरे गए हैं, उनमें से अनेकों का यह अनुभव है। मेरे पास सैकड़ों लोग हैं, जिनका यह अनुभव है कि अगर वे गलत जगह बैठकर ध्यान किए हैं, तो उनको शॉक लगा है, उनको धक्का लगा है।

जब आप बिजली का तार छूते हैं, अगर लकड़ी की खड़ाऊं पहनकर छू लें, तो शॉक नहीं लगेगा। क्यों? शॉक बिजली की वजह से नहीं लगता, बिजली के तार को छूने से नहीं लगता शॉक। शॉक लगता है, बिजली के तार से आपके भीतर बिजली आ जाती है और झटके के साथ जमीन उसको खींच लेती है। वह जो जमीन खींचती है झटके के साथ, उसकी वजह से शॉक लगता है। अगर आप खड़ाऊं पहने खड़े हैं, तो शॉक नहीं लगेगा। बिजली का तार आपने छू लिया है। वह नहीं लगेगा इसलिए कि जमीन उसे झटके से खींच नहीं सकी और लकड़ी की खड़ाऊं ने बिजली को वापस वर्तुल बनाकर लौटा दिया।

शॉक लगता है वर्तुल के टूटने से, सर्किट टूटने से शॉक लगता है। अगर बिजली एक वर्तुल बना ले, तो आपको कभी धक्का नहीं लगता। और वर्तुल बनाने का एक ही उपाय है कि आप नान-कंडक्टर पर बैठे हों।

मृगचर्म नान-कंडक्टर है, सिंहचर्म नान-कंडक्टर है। बिजली उसके पार नहीं जा सकती, वह बिजली को वापस लौटाता है। लकड़ी नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है। खड़ाऊं नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है।

तो जो ध्यान कर रहा है, उसके लिए खड़ाऊं उपयोगी है। जो ध्यान कर रहा है, उसे लकड़ी के तख्त पर बैठना उपयोगी है। जो ध्यान कर रहा है, उसे मृगचर्म का उपयोग सहयोगी है।


एक घड़ी ऐसी आ जाती है, जहां बिलकुल बेकार है। लेकिन वह घड़ी अभी आ नहीं गई है। वह घड़ी आ जाए, तब तक उपयोगी है। एक घड़ी ऐसी आ जाती है कि शरीर की विद्युत का अंतर-वर्तुल निर्मित हो जाता है। और जो लोग भी परम शांति को उपलब्ध होते हैं, उनके हृदय में अंतर-वर्तुल निर्मित हो जाता है। विद्युत अंतर-वर्तुल बना लेती है। फिर वे जमीन पर बैठ जाएं, तो उन्हें कोई शॉक नहीं लगने वाला है।

लेकिन वह घटना अभी आपको नहीं घट गई है। आपके भीतर कोई अंतर-वर्तुल नहीं है, कोई इनर सर्किट नहीं है। आपको तो अभी बाह्य-वर्तुल पर निर्भर रहना पड़ेगा। वह मजबूरी है; उससे बचने का उपाय नहीं है; उससे पार होने का उपाय है। जो बचने की कोशिश करेगा, कि इसे बाई-पास कर जाएं, वह दिक्कत में पड़ेगा। उसके पार हो जाना ही उचित है। क्योंकि पार होकर ही पात्रता निर्मित होती है।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसी आसनी पर बैठे, ऐसा आसन लगाए, ऐसी जमीन पर हो, ऊंचा न हो, नीचा न हो और तब, तब इंद्रियों को सिकोड़ ले।

और इंद्रियों को सिकोड़ना ऐसी स्थिति में आसान होता है। बाह्य विघ्न और बाधाओं को निषेध करने की व्यवस्था कर लेने पर इंद्रियों को सिकोड़ लेना आसान होता है।

कभी आपने खयाल न किया होगा, योग ने ऐसे आसन खोजे हैं, जो आपकी इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में अदभुत रूप से सहयोगी हो सकते हैं। इस तरह की मुद्राएं खोजी हैं, जो आपकी इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में सहयोगी हो सकती हैं। बैठने के ऐसे ढंग खोजे हैं, जो आपके शरीर के विशेष केंद्रों पर दबाव डालते हैं और उस दबाव का परिणाम आपकी विशेष इंद्रियों को शिथिल कर जाना होता है।

इस मुल्क ने जो योगासन खोजे, विशेष पद्धतियां बैठने की खोजीं...। अगर आपने बुद्ध या महावीर की मूर्ति देखी है, करीब-करीब सभी ने देखी होगी, गौर से नहीं देखी होगी। उन्होंने भी गौर से नहीं देखी, जो रोज महावीर को नमस्कार करने मंदिर में जाते हैं! लेकिन असली राज उस मूर्ति की व्यवस्था में छिपा हुआ है।

अगर महावीर की मूर्ति को गौर से देखेंगे, तो आपको क्या दिखाई पड़ेगा कि महावीर का पूरा शरीर एक विद्युत सर्किट है। दोनों पैर जुड़े हुए हैं। दोनों पैरों की गद्दियां घुटनों के पास जुड़ी हुई हैं।

विद्युत के रिलीज के जो बिंदु हैं, वह हमेशा नुकीली चीजों से विद्युत बाहर गिरती है। गोल चीजों से कभी विद्युत बाहर नहीं गिरती, सिर्फ नुकीली चीजों से विद्युत बाहर यात्रा करती है। जितनी नुकीली चीज हो, उतनी ज्यादा विद्युत बाहर यात्रा करती है।

जननेंद्रिय से सर्वाधिक विद्युत बाहर जाती है। और इसीलिए संभोग के बाद आप इतने थके हुए और इतने बेचैन और उद्विग्न हो गए होते हैं। क्योंकि आपका शरीर बहुत-सी विद्युत खो दिया होता है। संभोग के बाद आपका ब्लड-प्रेशर बहुत ज्यादा बढ़ गया होता है। हृदय की धड़कन बढ़ गई होती है। आपकी नाड़ी की गति बढ़ गई होती है। और पीछे निपट थकान हाथ लगती है। उसका कारण? उसका कारण सिर्फ वीर्य का स्खलन नहीं है। वीर्य के स्खलन के साथ-साथ जननेंद्रिय बहुत बड़ी मात्रा में विद्युत को शरीर के बाहर फेंक रही है। उस विद्युत के भी पाकेट्स हैं।

इसलिए सिद्धासन या पद्मासन में जो बैठने का ढंग है, एड़ियां उन बिंदुओं को दबा देती हैं, जहां से जननेंद्रिय तक विद्युत पहुंचती है। और उसका पहुंचना बंद हो जाता है। दोनों पैर शरीर के साथ जुड़ जाते हैं और दोनों पैर से जो विद्युत निकलती है, वह शरीर वापस एब्जार्ब कर लेता है, फिर पुनः अपने भीतर ले लेता है। दोनों हाथ जुड़े होते हैं, इसलिए दोनों हाथों की विद्युत बाहर नहीं फिंकती, एक हाथ से दूसरे हाथ में यात्रा कर जाती है। पूरा शरीर एक सर्किट में है।

महावीर की या बुद्ध की मूर्ति आप देखेंगे, तो खयाल में आएगा कि पूरा शरीर एक विद्युत चक्र में है। इस बने हुए विद्युत वर्तुल के भीतर इंद्रियों को सिकोड़ लेना अत्यंत आसान है। अत्यंत आसान है, बहुत सरल है।

यह विद्युत का जो वर्तुल निर्मित हो जाता है, यह आपके और आपकी इंद्रियों के बीच एक प्रोटेक्शन, एक दीवाल बन जाता है। आप अलग कट जाते हैं, इंद्रियां अलग पड़ी रह जाती हैं।

ध्यान रहे, विद्युत का स्रोत आपके भीतर है। इंद्रियां केवल विद्युत का उपयोग करती हैं। और अगर बीच में वर्तुल बन जाए--जो कि बिलकुल एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, एक साइंटिफिक प्रोसेस है--बीच में वर्तुल बन जाए, तो इंद्रियां बाहर रह जाती हैं, आप भीतर रह जाते हैं। और आपके और इंद्रियों के बीच में विद्युत की एक दीवाल खड़ी हो जाती है, जिसको पार नहीं किया जा सकता। इस क्षण में अंतर-आकाश में यात्रा आसान हो जाती है। अति आसान हो जाती है।

 कई बार ऐसा होता है कि अतीत जन्मों में कोई साधक यात्रा कर चुका होता है, परिपक्व हो गई होती है यात्रा। जैसे निन्यानबे डिग्री पर पानी खौल रहा हो गर्म। अभी भाप नहीं बना है, एक डिग्री की कमी रह गई है। पिछले जन्म से वह निन्यानबे डिग्री की हालत लेकर आया है। और इस जन्म में कुछ छोटी-सी घटना हो जाए कि एक डिग्री गर्मी पूरी हो जाए कि वह भाप बनना शुरू हो जाए। और आप उससे कहें कि मैं कैसे गर्म होऊं? तो वह कहे, कुछ खास करने की जरूरत नहीं है। जरा आकर धूप में, खुले आकाश में खड़े हो जाओ; भाप बन जाओगे। और आप जमे हुए बरफ के पत्थर हैं। आप खड़े हो जाना धूप में, कुछ न होगा। बरफ तो कुछ सिकुड़ा हुआ था, एक जगह में सीमित था; और पानी बनकर और फैल जाएंगे; ज्यादा जमीन घेर लेंगे; और मुसीबत खड़ी हो जाएगी।

आपके लिए तो भयंकर आग की भट्ठियां चाहिए। एटामिक भट्ठियां! तब, तब शायद आप भाप बन पाएं उतनी ही तीव्रता से।

इसलिए कई बार पिछले जन्म से आया हुआ साधक, अगर बहुत यात्रा पूरी कर चुका है; इंच, आधा इंच बाकी रह गया है; जरा-सा झटका, जरा-सी बात, कोई भी जरा-सी बात, जो हमें लगेगा कि कैसे इससे हो सकता है...!


कृष्ण जो कह रहे हैं, वह अर्जुन के लिए कह रहे हैं। अर्जुन जहां खड़ा है वहां से--वहां से यात्रा शुरू करनी है।

आसन उपयोगी होगा। स्थान, समय उपयोगी होगा। दोपहर में बैठकर ध्यान करें, बहुत कठिनाई हो जाएगी। कोई कारण नहीं है। क्योंकि दोपहर कोई ध्यान का दुश्मन नहीं है। लेकिन बहुत कठिनाई हो जाएगी।

सूर्य जब पूरा उत्तप्त है और सिर के ऊपर आ जाता है, तब सिर को शांत करना बहुत कठिन है। सूर्य जब जाग रहा है सुबह, बालक है अभी। अभी गर्मी भी नहीं है उसमें। और जब उसकी किरणें आप पर सीधी नहीं पड़तीं, आड़ी पड़ती हैं; आपके शरीर के आर-पार जाती हैं, सिर से नीचे की तरफ नहीं आतीं।

ठीक दोपहर में जब सूर्य सिर के ऊपर है, तब सूर्य की सारी किरणें आपके शीर्ष से, जिसे सहस्रार कहते हैं योगी, उससे प्रवेश करती हैं और आपके सेक्स सेंटर तक चोट पहुंचाती हैं। उस वक्त पूरी धारा आपके सिर से यौन केंद्र तक बह रही है।

और ध्यान की यात्रा उलटी है। ध्यान की यात्रा यौन केंद्र से सहस्रार की तरफ है। और सूर्य की किरणें दोपहर के क्षण में सहस्रार से यौन केंद्र की तरफ आ रही हैं। नदी जैसे उलटी जा रही हो और आप उलटे तैर रहे हों, ऐसी तकलीफ होगी। ऐसी तकलीफ होगी!

सुबह यह तकलीफ नहीं होगी। सूर्य की किरणें आर-पार जा रही हैं आपके। आपको सूर्य की किरणों से नहीं लड़ना पड़ेगा। संध्या भी यह तकलीफ नहीं होगी। फिर किरणें आर-पार जा रही हैं। इसलिए प्रार्थना का नाम ही धीरे-धीरे संध्या हो गया। संध्या का मतलब ही इतना है, वह क्षण, जब सूर्य की किरणें आर-पार जा रही हैं। चाहे सुबह हो, चाहे सांझ हो, बीच का गैप--जब सूरज आपके ऊपर से सीधा प्रभाव नहीं डालता।

लेकिन रात के बारह बजे, आधी रात फायदा हो सकता है। उसका उपयोग योगियों ने किया है, अर्धरात्रि का। क्योंकि तब सूरज आपके ठीक नीचे पहुंच गया। और सूरज की किरणें आपके यौन केंद्र से सहस्रार की तरफ जाने लगी हैं। दिखाई नहीं पड़ रही हैं, पर अंतरिक्ष में उनकी यात्रा जारी है। उस वक्त नदी सीधी बह रही है। आप उसमें बह जाएं, तो सरलता से तैर जाएंगे। तैरने की भी शायद जरूरत न पड़े; बह जाएं, जस्ट फ्लोट, और आप ऊपर की तरफ निकल जाएंगे।

लेकिन दोपहर के क्षण में जब सूरज आपके ऊपर से नीचे की तरफ यात्रा कर रहा है, तब आप फ्लोट न कर सकेंगे, बह न सकेंगे। तैरना भी मुश्किल पड़ेगा; क्योंकि सूर्य की किरणें आपके जीवन का आधार हैं! सूर्य जीवन है, उससे लड़ना बहुत मुश्किल मामला है।

इसलिए सूर्य पर त्राटक शुरू हुआ। वह अभ्यास है सूर्य से लड़ने का। वह आपके खयाल में नहीं होगा। त्राटक करने वाले के खयाल में भी नहीं होता; क्योंकि किताब में कहीं कोई पढ़ लेता है और करना शुरू कर देता है।

सूर्य की किरणों पर जो त्राटक है, घंटों लंबा अभ्यास है खुली आंखों से, वह इस बात की चेष्टा है कि हम सूर्य की किरणों के विपरीत लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं! अगर किसी ने त्राटक का गहन अभ्यास किया है, तो वह ठीक दोपहर बारह बजे भी ध्यान में ऊपर यात्रा कर सकता है; क्योंकि उसने सूर्य की किरणों के साथ सीधा संघर्ष करके तैरने की व्यवस्था कर ली है। अन्यथा नहीं।

तो अगर पूछें कि किस समय ध्यान करें? तो जो परम ज्ञानी है, वह कहेगा, समय का कोई सवाल नहीं है। ध्यान तो टाइमलेसनेस है। आप समय के बाहर चले जाएंगे। समय का कोई सवाल ही नहीं है। सुबह हो, कि दोपहर हो, कि सांझ हो।

वह ठीक कह रहा है। ध्यान की जो परम स्थिति है, वह समय के बाहर है, कालातीत है। लेकिन ध्यान का प्रारंभ समय के भीतर है, इन दि टाइम। ध्यान का अंत समय के बाहर है। ध्यान का प्रारंभ समय के भीतर है। और जो समय की व्यवस्था को ठीक से न समझे, वह ध्यान में व्यर्थ की तकलीफें पाएगा, व्यर्थ के कष्ट पाएगा। अकारण मुसीबतें खड़ी कर लेगा; व्यर्थ ही अपने हारने का इंतजाम करेगा। जीतने की सुविधाएं जो मिल सकती थीं, वह खो देगा।

करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि नदी में नाव चलाते हैं पाल बांधकर। जब हवाओं का रुख एक तरफ होता है, तो यात्रा करते हैं। पाल को खुला छोड़ देते हैं, फिर मांझी को, नाविक को पतवार नहीं चलानी पड़ती। हवाएं पाल में भर जाती हैं और नाव यात्रा करने लगती है।

ध्यान की नाव के भी क्षण हैं, स्थितियां हैं। जब हवाएं अनुकूल होती हैं--और ध्यान की हवाएं सूर्य की किरणें हैं--जब हवाएं अनुकूल होती हैं, जब ग्रेविटेशन अनुकूल होता है, जब तरंगें अनुकूल होती हैं, जब चारों तरफ ठीक अनुकूल स्थिति होती है, तब पाल खुला छोड़ दें; बहुत कम श्रम में यात्रा हो जाएगी।

और जब सब चीजें प्रतिकूल होती हैं, तो फिर बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तब भी जरूरी नहीं है कि दूसरा किनारा मिल जाए। हवाएं बहुत तेज हैं, नदी की धार बहुत प्रगाढ़ है। आप बहुत कमजोर हैं। बहुत संभावना तो यही है कि थककर अपने किनारे पर वापस लग जाएं। हाथ जोड़ लें कि यह अपने से न हो सकेगा।

यही होता है। ध्यान में जो लोग भी लगते हैं, ठीक व्यवस्था न जानने से, राइट टयूनिंग न जानने से व्यर्थ परेशान होते हैं और परेशान होकर फिर यह सोच लेते हैं कि शायद अपने भाग्य में नहीं है, अपनी नियति में नहीं है, अपने कर्म ठीक नहीं हैं, अपनी पात्रता नहीं है। ऐसा अपने को समझाकर, वह जो दुनिया है व्यर्थ की, उसमें फिर वापस लौटकर लग जाते हैं, अपने किनारे पर लग जाते हैं।

ऐसा न हो, इसलिए कृष्ण अर्जुन को ठीक प्राथमिक बातें कह रहे हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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