फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। ४७।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं, और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे।
कर्मयोग का आधार-सूत्र: अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है।
लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलों को पीछे बांधते हैं। कृष्ण कह रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है--लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्य मनुष्य की नहीं है; करने की सामर्थ्य मनुष्य की है। क्यों? ऐसा क्यों है? क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है।
कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है।
इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है।
इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है।
स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है।
तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की अधिकतम संभावना है और लघुतम मिलने की संभावना है।
जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए--कि कोई कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता--इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती हैं।
और जब आप फलाकांक्षा करते हैं, तब आपको पता है, आप अश्रद्धा कर रहे हैं! शायद इसको कभी सोचा न हो कि फलाकांक्षा अश्रद्धा, गहरी से गहरी अनास्था, और गहरी से गहरी नास्तिकता है। जब आप कहते हैं, फल भी मिले, तो आप यह कह रहे हैं कि अकेले कर्म से निश्चय नहीं है फल का; मुझे फल की आकांक्षा भी करनी पड़ेगी। आप कहते हैं, दो और दो चार जोड़ता तो हूं, जुड़कर चार हों भी। इसका मतलब यह है कि दो और दो जुड़कर चार होते हैं, ऐसे नियम की कोई भी श्रद्धा नहीं है। हों भी, न भी हों!
जितना अश्रद्धालु चित्त है, उतना फलातुर होता है। जितना श्रद्धा से परिपूर्ण चित्त है, उतना फल को फेंक देता है--जाने समष्टि, जाने जगत, जाने विश्व की चेतना। मेरा काम पूरा हुआ, अब शेष काम उसका है।
फल की आकांक्षा वही छोड़ सकता है, जो इतना स्वयं पर, स्वयं के कर्म पर श्रद्धा से भरा है। और स्वभावतः जो इतनी श्रद्धा से भरा है, उसका कर्म पूर्ण हो जाता है, टोटल हो जाता है--टोटल एक्ट। और जब कर्म पूर्ण होता है, तो फल सुनिश्चित है। लेकिन जब चित्त बंटा होता है फल के लिए और कर्म के लिए, तब जिस मात्रा में फल की आकांक्षा ज्यादा है, कर्म का फल उतना ही अनिश्चित है।
कर्मयोगी के लिए कर्म ही अधिकार है। फल! फल परमात्मा का प्रसाद है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल