गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 42

 


 यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५७।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५८।।

और जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर है।
और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।


हर्ष में, विषाद में, अनुकूल में, प्रतिकूल में भेद नहीं। लेकिन यह अभेद कब फलित होगा? कृष्ण कहते हैं, जैसे कछुआ अपने अंगों को कभी भी भीतर सिकोड़ लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ना जानता है, ऐसा ही समाधिस्थ पुरुष विषयों से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ना जानता है।
थोड़ी नाजुक  बात है।
यहां इंद्रियों को सिकोड़ना...योग की दृष्टि में इंद्रियों के दो रूप हैं। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें बाहर से दिखाई पड़ता है, कहें इंद्रिय का शरीर। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन इंद्रिय का प्राण है, कहें इंद्रिय का प्राण या आत्मा इंद्रिय की।
एक मेरी आंख है। इंस्ट्रूमेंट है आंख का। इस आंख के संबंध में चिकित्सक आंख का सब कुछ बता सकता है। आंख को काट-पीट करके, सर्जरी करके, एक-एक रग-रेशे की खबर ले आ सकता है। लेकिन यह सिर्फ आंख शरीर है आंख का। वस्तुतः यह इंद्रिय नहीं है। सिर्फ इंद्रिय की बाह्य रूप-आकृति है। इंद्रिय तो और है। इस आंख के पीछे देखने की जो वासना है, देखने की जो आकांक्षा है, वह इंद्रिय है, वह प्राण है। उसका किसी चिकित्सक को आंख के काटने-पीटने से कुछ पता नहीं चल सकता।
प्रत्येक इंद्रिय का शरीर है और प्रत्येक इंद्रिय का प्राण है। आंख सिर्फ देखने का काम ही नहीं करती, देखने की आकांक्षा, देखने का रस भी उसके पीछे छिपा है। देखने की वासना भी उसके पीछे हिलोरें लेती है। वही वासना असली इंद्रिय है।
कृष्ण को समझने के लिए समस्त इंद्रियों के इन दो हिस्सों को समझ लेना जरूरी है। अन्यथा आदमी आंख फोड़ने लग जाए। इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब--आंख फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब--कान फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब--जीभ काट डालें? और आप सोचते हों कि नहीं, ऐसा तो कोई भी नहीं समझता, तो गलत सोचते हैं।
जमीन पर अधिक लोगों ने ऐसा ही सोचा है। ऐसा ही सोचा है। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने आंखें फोड़ी हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने कान फोड़े हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने पैर काट डाले हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने जननेंद्रियां काट डाली हैं। 
लेकिन क्या आंख के फूट जाने से देखने की वासना फूट जाती है? क्या जननेंद्रिय के कट जाने से काम की वासना कट जाती है? तब तो सभी बूढ़े कामवासना के बाहर हो जाएं!
नहीं, इंद्रिय कट जाने से सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम कट जाता है। और अभिव्यक्त होने की जो प्रबल वासना थी भीतर, वह और विक्षिप्त होकर दौड़ने लगती है। मार्ग न मिलने से वह और पागल हो जाती है, द्वार न मिलने से और विक्षिप्त हो जाती है। हां, दूसरों को पता चलना बंद हो जाता है। वह वासना प्रेत बन जाती है, उसके पास शरीर नहीं रह जाता।
कृष्ण जिस इंद्रिय को सिकोड़ने की बात कर रहे हैं, और कछुए से जो उदाहरण दे रहे हैं; कछुए के उदाहरण को बहुत मत खींच लेना। गीता पर टीका लिखने वालों ने बहुत खींचा है। आदमी कछुआ नहीं है। कोई उदाहरण पूरे नहीं होते। सब उदाहरण सिर्फ सूचक होते हैं ,एक इशारा, जिससे बात समझ में आ जाए, बस। जैसे कछुआ अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लेता है, ऐसा ही स्थितप्रज्ञ, वे जो भीतर की रस इंद्रियां हैं, उन्हें सिकोड़ लेता है। लेकिन रस इंद्रियों का जो बाह्य-शरीर है, उसे सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं है। उसे सिकोड़ने का मतलब तो सिर्फ मरना है। और उसे काटकर भीतर का रस नहीं कटता। हां, भीतर का रस कट जाए, तो वह इंद्रिय शुद्ध इंस्ट्रूमेंट रह जाती है--वासना का नहीं, सिर्फ व्यवहार का।
आंख तब देखती है बिना देखने की वासना के। तब जो आंख के सामने आ जाता है, वह देखा जाता है। लेकिन तब आंख कुछ आंख के सामने आ जाए, इसकी आकांक्षा से पीड़ित नहीं होती है। तब जो भोजन सामने आ जाता है, वह कर लिया जाता है। तब जीभ उस भोजन को करने में सहयोग देती है, लार छोड़ती है। लेकिन जो भोजन सामने नहीं है, जीभ फिर उसके लिए लार नहीं टपकाती है। फिर जो कान में पड़ जाता है, वह सुन लिया जाता है। लेकिन फिर कान तड़पते नहीं हैं किसी को सुनने के लिए। नहीं, तब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार के माध्यम रह जाती हैं।
ध्यान रहे,  जब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार का माध्यम होती हैं, तो बाहर के जगत से तथ्यों की सूचना भीतर देती हैं। और जब इंद्रियां वासना के माध्यम बनती हैं, तब वासनाओं को बाहर ले जाकर विषयों से जोड़ने के उपयोग में लाई जाती हैं।
ये दोनों अलग-अलग फंक्शन हैं, ये दोनों अलग-अलग काम हैं। यह तो आंख का काम है कि वह बताए कि सामने दरख्त है। यह आंख का काम है कि वह बताए कि सामने पत्थर है। यह आंख का काम है कि वह खबर दे कि सामने क्या है। लेकिन जब आंख वासना से भरती है, तो बहुत मजेदार है।
अब यहां अगर हम ठीक से समझें, तो आंख का जो व्यवहार है, जिसके लिए आंख है, वह नहीं हो रहा है। बल्कि आंख के पीछे जो वासना है, वह वासना आंख पर हावी है। आंख वासना से आब्सेस्ड है। वासनाग्रस्त आंख अंधी हो जाती है। वह वही देखती है, जो देखना चाहती है; वह नहीं देखती, जो है।
कृष्ण जब कहते हैं, कछुए की तरह इंद्रियों को सिकोड़ लेता है स्थितप्रज्ञ, तो मतलब यह नहीं है कि आंखें फोड़ लेता है, कि आंखें बंद कर लेता है। मतलब इतना ही है कि आंखों से सिर्फ आंखों का ही काम लेता है। सिर्फ देखता ही है आंखों से; वही देखता है, जो है। कानों से वही सुनता है, जो है। हाथों से वही छूता है, जो है। विषयों पर वासना को आरोपित नहीं करता। विषयों पर वासना के सपनों के भवन नहीं बनाता। विषयों को आपूरित नहीं कर देता।
इस भीतर की अंतर-इंद्रिय को सिकोड़ लेने की बात है-- अंतर-इंद्रिय को,  यह जो भीतर है हमारे।
इस फासले को ठीक से हमें समझ लेना चाहिए। जब हाथ से मैं जमीन छूता हूं, तब मेरा हाथ क्या वही काम करता है! जब हाथ से मैं पत्थर छूता हूं, तब भी वही करता है! जब हाथ से मैं किसी उसको छूता हूं जिसको मैं छूना चाहता हूं, तब हाथ वही काम करता है?
नहीं, हाथ के काम में फर्क पड़ गया है। जब मैं जमीन को छूता हूं, तो सिर्फ छूता हूं। कोई वासना नहीं है वह, सिर्फ स्पर्श है, एक भौतिक घटना है, एक मानसिक आरोपण नहीं। लेकिन जब मैं किसी को प्रेम करता हूं और उसके हाथ को छूता हूं, तब सिर्फ भौतिक घटना है?
नहीं, तब एक मानसिक घटना भी है। हाथ सिर्फ छू ही नहीं रहा है, हाथ कुछ और भी कर रहा है। हाथ कोई सपना भी देख रहा है। हाथ किसी ड्रीम में उतर रहा है। हाथ अपने स्पर्श करने के ही अकेले काम को नहीं कर रहा है, स्पर्श के आस-पास काव्य भी बुन रहा है, कविता भी गढ़ रहा है।
वह भीतरी, वह जो भीतरी हाथ है, जो यह कर रहा है, इस भीतरी हाथ के सिकोड़ लेने की बात कृष्ण कह रहे हैं--कि स्थितप्रज्ञ अंतर-इंद्रियों को ऐसे ही सिकोड़ लेता है, जैसे कछुआ बहिर-इंद्रियों को सिकोड़ लेता है।
लेकिन आदमी को बहिर-इंद्रियां सिकोड़नी नहीं हैं। बहिर-इंद्रियां परमात्मा की बड़ी से बड़ी देन हैं। उनके कारण ही जगत का विराट हम तक उतरता है, उनके द्वार से ही हम परिचित होते हैं प्रकाश से। उनके द्वार से ही आकाश से, उनके द्वार से ही फूलों से, उनके द्वार से ही मनुष्य के सौंदर्य से, उनके द्वार से ही जगत में जो भी है, उससे हम परिचित होते हैं।
इंद्रियां तो द्वार हैं। लेकिन इन द्वार से सिर्फ जो बाहर है, वह भीतर जाए, तब तक ये द्वार विक्षिप्त नहीं हैं। और जब भीतर का मन इन द्वार से बाहर जाकर हमले करने लगता है, और चीजों पर आरोपित होने लगता है, और आग्रह निर्मित करने लगता है, और कल्पनाएं सजाने लगता है, और सपने निर्माण करने लगता है, तब, तब हम एक जाल में खो जाते हैं, जो जाल बाहर की इंद्रियों का नहीं है, अंतर-इंद्रियों का है।
अंतर-इंद्रियों को सिकोड़ लेता है स्थितप्रज्ञ। कैसे सिकोड़ लेता होगा? क्योंकि बहिर-इंद्रियों को सिकोड़ना तो बहुत आसान समझ में आता है। यह हाथ फैला है, इसको सिकोड़ लिया। इसके लिए कोई स्थितप्रज्ञ होने की जरूरत नहीं है। कछुआ स्थितप्रज्ञ नहीं है, नहीं तो सभी आदमी कछुए हो जाएं और स्थितप्रज्ञ हो जाएं।
लेकिन बहुत लोगों ने कछुआ बनने की कोशिश की है। कई साधु, संन्यासी, साधक, त्यागी, योगी, कछुआ बनने की कोशिश में लगे रहे हैं कि कैसे इंद्रियों को सिकोड़ लें। कछुआ बनने से कोई हल नहीं है। कछुआ तो सिर्फ एक प्रतीक था, और अच्छा प्रतीक था। शायद कृष्ण जिस दुनिया में थे, इससे अच्छा प्रतीक और कोई मिल नहीं सकता था। आज भी नहीं है। आज भी हम खोजें कोई दूसरा विकल्प, तो बहुत मुश्किल है। कछुआ बिलकुल ठीक से बात कह जाता है--ऐसा कुछ, भीतर के जगत में। लेकिन वह भीतर के जगत में होगा कैसे?
बाहर की इंद्रियां सिकोड़ना बहुत आसान है। आंखें फोड़ लेना कितना आसान है, लेकिन देखने का रस छोड़ना कितना कठिन है! सच तो यह है कि आंखें फोड़ लो, तभी पहली दफा पता चलता है कि देखने का रस कितना है! रात आंख तो बंद हो जाती है, लेकिन सपने तो बंद नहीं होते। और दिनभर जो नहीं देखा, वह भी रात में दिखाई पड़ता है। आंख फोड़ लेंगे, तो क्या होगा? इतना ही होगा कि सपने चौबीस घंटे चलने लगेंगे। और क्या होगा?



अब कोई भी नहीं है, आप बिलकुल अकेले हैं अपने सपने में। न कोई विषय है, न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है, न कोई भोजन है--कुछ भी नहीं है। निपट अकेले हैं, सब इंद्रियां बंद हैं। फिर यह भीतर कौन गति कर रहा है? ये अंतर-इंद्रियां हैं, जो भीतर गति कर रही हैं। और इनकी भीतरी गति के कारण इनकी बहिर-इंद्रिय भी प्रभावित हो जाती है। काट डालें पूरे आदमी को, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पता नहीं चलेगा बस, सब भीतर-भीतर धुआं होकर घूमने लगेगा। अक्सर सज्जन आदमियों के भीतर सब धुआं हो जाता है, भीतर घूमने लगता है। बुरे आदमी जो बाहर कर लेते हैं, अच्छे आदमी भीतर करते रहते हैं। धर्म की दृष्टि से कोई भी फर्क नहीं है।
 भीतर की इंद्रियों को सिकोड़ना नहीं पड़ता, सिर्फ इसका पता चलना कि भीतर इंद्रिय है और गति कर रही है, इसका बोध ही उनका सिकुड़ना हो जाता है। जैसे ही पता चला कि यह भीतर काम की वासना उठी, कुछ करें मत, सिर्फ देखें। आंख बंद कर लें और देखें, यह भीतर काम की वासना उठी। यह काम की वासना चली जननेंद्रिय के केंद्रों की तरफ--सिर्फ देखें। दो सेकेंड से ज्यादा नहीं, और आप अचानक पाएंगे, सिकुड़ गई। यह क्रोध उठा, चला यह बाहर की इंद्रियों को पकड़ने। सिर्फ देखें; आंख बंद कर लें और देखें; और आप पाएंगे, वापस लौट गया। यह किसी को देखने की इच्छा जगी और आंख तड़पी। देखें, चली भीतर की इंद्रिय बाहर की इंद्रिय को पकड़ने। देखें--सिर्फ देखें--और आप पाएंगे कि वापस लौट गई।
भीतर की इंद्रियां इतनी संकोचशील हैं कि जरा-सी भी चेतना नहीं सह पातीं। उनके लिए अचेतना जरूरी माध्यम है--मूर्च्छा। इसलिए जो अपने भीतर की इंद्रियों के प्रति जागने लगता है, उसकी भीतर की इंद्रियां सिकुड़ने लगती हैं, अपने आप सिकुड़ने लगती हैं। बाहर की इंद्रियां बाहर पड़ी रह जाती हैं, भीतर की इंद्रियां सिकुड़कर अंदर चली जाती हैं। ऐसी स्थिति व्यक्ति की समाधिस्थ स्थिति बन जाती है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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