गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 46

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।। ६४।।


परंतु, स्वाधीन अंतःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित, अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसाद अर्थात अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।



ठीक इसके विपरीत--पतन की जो कहानी(   गीता दर्शन  अध्याय 2 भाग 45)थी, ठीक इसके विपरीत राग-द्वेष से मुक्त, कामना के पार, स्वयं में ठहरा, स्वायत्त, स्वयं को खो चुका; और स्वयं में ठहरा। अभी जो कहानी हमने समझी, अभी जो कथा हमने समझी, अभी जो यात्रा हमने देखी, वह स्वयं को खोने की। और स्वयं को कैसे खोता है सीढ़ी-सीढ़ी आदमी, वह हमने देखा। स्वयं से कैसे रिक्त और शून्य हो जाता है। स्वयं से कैसे बाहर, और बाहर, और दूर हो जाता है। कैसे स्वयं को खोकर पर में ही आयत्त हो जाता है, पर में ही ठहर जाता है।

जिसको मैंने कहा, आध्यात्मिक दिवालियापन, स्प्रिचुअल बैंक्रप्सी, उसका मतलब है, पर में आयत्त हुआ पुरुष। यह जो पूरी की पूरी यात्रा थी, पर में आयत्त होने से शुरू हुई थी। देखा था राह पर किसी स्त्री को, देखा था किसी भवन को, देखा था किसी पुरुष को, देखा था चमकता हुआ सोना, देखा था सूरज में झलकता हुआ हीरा--पर, दि अदर, कहीं पर में आकर्षित चित्त पर की खोज पर निकला था। चिंतन किया था, चाह की थी, बाधाएं पाई थीं, क्रोधित हुआ था, मोहग्रस्त बना था, स्मृति को खोया था, बुद्धि के नाश को उपलब्ध हुआ था। पर-आयत्त, दूसरे में--दि अदर ओरिएंटेड। मनोविज्ञान जो शब्द उपयोग करेगा, वह है, दि अदर ओरिएंटेड।

तो बड़ी मजे की बात है कि कृष्ण ने स्वायत्त, सेल्फ ओरिएंटेड शब्द का उपयोग किया है। पर-आयत्त, दूसरे की तरफ बहता हुआ पुरुष, दूसरे को केंद्र मानकर जीता हुआ पुरुष। इस पुरुष शब्द को थोड़ा समझें, तो इस पर-आयत्त और स्वायत्त होने को समझा जा सकता है।

शायद कभी खयाल न किया हो कि यह पुरुष शब्द क्या है! सांख्य का शब्द है पुरुष। गांव को हम कहते हैं पुर--नागपुर, कानपुर--गांव को हम कहते हैं पुर। सांख्य कहता है, पुर के भीतर जो छिपा है, वह पुरुष, पुर में रहने वाला। शरीर है पुर। कहेंगे, इतना छोटा-सा शरीर पुर! बहुत बड़ा है, छोटा नहीं है। बहुत बड़ा है। कानपुर की कितनी आबादी है?  लाखों में होगी। शरीर की कितनी आबादी है? सात करोड़। सात करोड़ जीवाणु रहते हैं शरीर में। छोटा पुर नहीं है, सात करोड़ जीवित सेल हैं शरीर में। अभी तक दुनिया में कोई पुर इतना बड़ा नहीं है। 

अभी मनुष्य के शरीर के बराबर पुर पृथ्वी पर बना नहीं है। सात करोड़! क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि छोटे-छोटे प्राणी रहते हैं। छोटा कौन है? बड़ा कौन है? सब रिलेटिव मामला है। आदमी कोई बहुत बड़ा प्राणी है? हाथी से पूछें, ऊंट से पूछें, तो बहुत छोटा प्राणी है। तो ये ऊंट या हाथी क्या कोई बहुत बड़े प्राणी हैं? पृथ्वी से पूछें, हिमालय से पूछें...।

सोचते होंगे शायद, हिमालय में कोई प्राण नहीं हैं। तो गलत सोचते हैं। हिमालय अभी भी बढ़ रहा है, अभी भी ग्रोथ है, अभी भी बड़ा हो रहा है। हिमालय अभी भी जवान है। सतपुड़ा और विंध्याचल बूढ़े हैं, अब बढ़ते नहीं हैं। अब सिर्फ थकते हैं और झुक रहे हैं। हिमालय अभी भी बढ़ रहा है। हिमालय की उम्र भी बहुत कम है, सबसे नया पहाड़ है। सब पुराने पहाड़ हैं। विंध्या सबसे ज्यादा पुराना पहाड़ है। सबसे पहले पृथ्वी पर विंध्या पैदा हुआ। बूढ़े से बूढ़ा पर्वत है। अब उसकी ग्रोथ बिलकुल रुक गई है। अब वह बढ़ता नहीं है। अब वह थक रहा है, टूट रहा है, झुक रहा है, कमर उसकी आड़ी हो गई है। हमारे पास कहानी है, उसकी कमर के आड़े होने की।

अगस्त्य की कथा है, कि मुनि गए हैं दक्षिण और कह गए हैं कि झुका रहना, जब तक मैं लौटूं न। फिर वे नहीं लौटे। कर्म आदमी के हाथ में है, फल आदमी के हाथ में नहीं है। लौटना मुनि का नहीं हो सका। फिर वह बेचारा झुका है। पर यह जियोलाजिकल फैक्ट भी है, यह पुराण कथा ही नहीं है। विंध्या झुक गया है और अब उसमें विकास नहीं है; बूढ़ा है। हिमालय बच्चा है।

हिमालय से पूछें, ऊंट, हाथी! वह कहेगा, बहुत छोटे प्राणी हैं। खुर्दबीन से देखूं तब दिखाई पड़ते हैं, नहीं तो नहीं दिखाई पड़ते। पृथ्वी से पूछें कि हिमालय की कुछ खबर है! वह कहेगी, ऐसे कई हिमालय पैदा हुए, आए और गए। सब मेरे बेटे हैं, मुझ में आते हैं, समा जाते हैं। धरित्री--वह मां है। लेकिन पृथ्वी कोई बहुत बड़ा प्राण रखती है! तो सूरज से पूछें। सूरज साठ लाख गुना बड़ा है पृथ्वी से। उसे दिखाई भी नहीं पड़ती होगी पृथ्वी। साठ लाख गुने बड़े को कैसे दिखाई पड़ेगी?

पर सूरज कोई बहुत बड़ा है? मत इस खयाल में पड़ना। बहुत मीडियाकर स्टार है, बहुत मध्यमवर्गीय है। उससे बहुत बड़े सूर्य हैं, उससे करोड़ और अरब गुने बड़े सूर्य हैं। ये जो रात को तारे दिखाई पड़ते हैं, ये सब सूर्य हैं। छोटे-छोटे दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि बहुत दूर हैं। ये छोटे होने की वजह से छोटे नहीं दिखाई पड़ते। ये बहुत दूर हैं, इसलिए छोटे दिखाई पड़ते हैं। बहुत बड़े-बड़े महासूर्य हैं, जिनसे पूछें कि हमारा भी एक सूर्य है! तो वे कहेंगे कि है, पर बहुत गरीब है, छोटा है। किसी गिनती में नहीं आता। कोई वी.आई.पी. नहीं है!

लेकिन वे महासूर्य, जो इस सूर्य से भी अरबों गुने बड़े हैं, वे भी क्या बहुत बड़े हैं? तो पूरे जगत से पूछें। तो अब तक वैज्ञानिक कहते हैं कि चार अरब सूर्यों का हमें पता चला है। मगर वह अंत नहीं है। उसके पार भी, उसके पार भी, बियांड एंड बियांड--कुछ अंत नहीं है। यहां कौन छोटा, कौन बड़ा! सब छोटा-बड़ा रिलेटिव है।




आपके शरीर में जो जीवाणु हैं, वे भी छोटे नहीं हैं, आप भी बड़े नहीं हैं। सात करोड़ की एक शरीर में बसी हुई बस्ती! और आप सोचते हों कि इन सात करोड़ जीवाणुओं को आपका कोई भी पता है, इनका आपको कोई भी पता है--तो नहीं है। आपको इनका पता नहीं है, इनको आपका पता नहीं है। उनको भी आपका पता नहीं है कि आप हैं। आप जब नहीं होंगे इस शरीर में, तब भी उनमें से बहुत-से जीवाणु जीए चले जाएंगे। मर जाने के बाद भी! आप मरते हैं, वे नहीं मरते। उनमें जो अमीबा हैं, बहुत छोटे हैं, वे तो मरते ही नहीं। उनकी लाखों साल की उम्र है। अगर उम्र के हिसाब से सोचें, तो आप छोटे हैं, वे बड़े हैं।

कब्रिस्तान में दबे हुए आदमी के भी नाखून और बाल बढ़ते रहते हैं। क्योंकि बाल और नाखून बनाने वाले जो जीवाणु हैं, वे आपके साथ नहीं मरते। वे अपना काम जारी रखते हैं। उनको पता ही नहीं पड़ता कि आप मर गए। वे नाखून और बाल को बढ़ाए चले जाते हैं। और जब आप मरते हैं, तो सात करोड़ कीटाणुओं की संख्या में कमी नहीं होती है और बढ़ती हो जाती है। आपके मरने से जगह खाली हो जाती है और हजारों कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं। जिसको आप सड़ना कहते हैं, डिटेरियोरेशन, वह आपके लिए होगा; नए कीटाणुओं के लिए तो जीवन है।

यह पुर, इसमें जो बीच में बसा है इस नगर के, वह पुरुष। यह पुरुष दो तरह से हो सकता है: पर-आयत्त हो सकता है, स्वायत्त हो सकता है। जब यह वासनाग्रस्त होता है, तो यह दूसरे को केंद्र बनाकर घूमने लगता है। सैटेलाइट हो जाता है।

जैसे चांद है। चांद सैटेलाइट है। वह जमीन को केंद्र बनाकर घूमता है। जमीन भी सैटेलाइट है, वह सूर्य को केंद्र बनाकर घूमती है। सूर्य भी सैटेलाइट है, वह किसी महासूर्य को केंद्र बनाकर घूमता है। सब अदर ओरिएंटेड हैं।

लेकिन उन्हें माफ किया जा सकता है, क्योंकि उनकी चेतना इतनी नहीं कि वे जान सकें कि क्या अदर और क्या सेल्फ; क्या स्वयं और क्या पर। आदमी को माफ नहीं किया जा सकता, वह जानता है। पति पत्नी का सैटेलाइट है, पत्नी के आस-पास घूम रहा है। कभी छोटा वर्तुल बनाता है, कभी बड़ा वर्तुल बनाता है, लेकिन पत्नी के आस-पास घूम रहा है। पत्नी पति की सैटेलाइट है। वह उसके आस-पास घूम रही है। कोई धन के आस-पास घूम रहा है, कोई काम के आस-पास घूम रहा है, कोई पद के आस-पास घूम रहा है--सैटेलाइट, पर-आयत्त। दूसरा केंद्र है, हम तो सिर्फ परिधि पर घूम रहे हैं--यही दिवालियापन है।

लेकिन हम अपने केंद्र स्वयं हैं, किसी के आस-पास नहीं घूम रहे हैं, तो आदमी स्वायत्त है। यही सम्राट होना है। यही स्प्रिचुअल रिचनेस है। जिसको जीसस ने किंगडम आफ गाड, परमात्मा का साम्राज्य कहा, उसको कृष्ण कह रहे हैं, स्वायत्त हुआ पुरुष परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि पर-आयत्त हुआ पुरुष परम दुख को उपलब्ध हो जाता है। दुख यानी पर-आयत्त होना, आनंद यानी स्वायत्त होना।

ये सब समाधिस्थ व्यक्ति की तरफ ही वे इशारे करते जा रहे हैं अर्जुन को। सब दिशाओं से, अनेक-अनेक जगहों से वे इशारे कर रहे हैं कि समाधिस्थ पुरुष यानी क्या। वह जो सवाल पूछ लिया था अर्जुन ने, हो सकता है, वह खुद भी भूल गया हो कि उसने क्या सवाल पूछा था। लेकिन कृष्ण उसके सवाल को समस्त दिशाओं से ले रहे हैं। कहीं से भी उसकी समझ में आ जाए।

तो वे यह कह रहे हैं कि जो स्वयं ही अपना केंद्र बन गया, जिसका अब कोई पर केंद्र नहीं है, ऐसा पुरुष परम ज्ञान को, परम शांति को, परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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