गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 37

  मोह-मुक्ति, आत्मत्तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता


यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।

और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।

 मोहरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के आस-पास कौन-सा अंधकार है?
एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता है। धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर धर्म किस अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है?
एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता, वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को कृष्ण कह रहे हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो शब्दों को थोड़ा गहरे में समझना उपयोगी है।
अंधकार का लक्षण क्या है? अंधकार का लक्षण है कि दिखाई नहीं पड़ता जहां, जहां देखना खो जाता है, जहां देखना संभव नहीं हो पाता, जहां आंखों पर परदा पड़ जाता है--एक। दूसरा, जहां दिखाई न पड़ने से कोई मार्ग नहीं मालूम पड़ता, कहां जाएं! क्या करें! तीसरा, जहां दिखाई न पड़ने से प्रतिपल किसी भी चीज से टकरा जाने की संभावना हो जाती है। अंधकार हमारी दृष्टि का खो जाना है।
मोह में भी ऐसा ही घटित होता है। इसलिए मोह को अंधकार कहने की सार्थकता है। मोह में जो हम करते हैं, मोह में जो हम होते हैं, मोह में जैसे हम चलते हैं, मोह में जो भी हमसे निकलता है, वह ठीक ऐसा ही है, जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। नहीं कुछ पता होता, क्या कर रहे हैं! नहीं कुछ पता होता, क्या हो रहा है! नहीं कुछ पता होता, कौन-सा रास्ता है! कौन-सा मार्ग है! आंखें नहीं होती हैं। मोह अंधा है। और मोह का अंधापन आध्यात्मिक अंधापन है।
 कृष्ण कहते हैं, इस मोह की कालिमा से जो मुक्त हो जाता है, वैसा व्यक्ति वैराग्य को उपलब्ध होता है। लेकिन कृष्ण जिसे वैराग्य कहते हैं, हम आमतौर से उसे वैराग्य नहीं कहते हैं। इसलिए इस बात को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
हम तो वैराग्य जिसे कहते हैं, वह राग की विपरीतता को कहते हैं। विपरीत राग को कहते हैं वैराग्य, हम जिसे वैराग्य कहते हैं। मकान मेरा है, ऐसा जानना राग है--हमारी बुद्धि में। मकान मेरा नहीं है, ऐसा जानना वैराग्य है--हमारी बुद्धि में। लेकिन मेरा है या मेरा नहीं है, ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। कृष्ण इसे वैराग्य नहीं कहते। यह विपरीत राग है। यह राग से मुक्ति नहीं है। नहीं, मेरा नहीं है।
वैराग्य का अर्थ, जहां न राग रह गया, न विराग रह गया। न जहां किसी चीज का आकर्षण है, न विकर्षण है। जहां न किसी चीज के प्रति खिंचाव है, न विपरीत भागना है। न जहां किसी चीज का बुलावा है, न विरोध है। जहां व्यक्ति थिर हुआ, सम हुआ; जहां पक्ष और विपक्ष एक से हो गए, वहां वैराग्य फलित होता है।

वैराग्य का अर्थ राग की विपरीतता मत समझ लेना। वैराग्य का अर्थ है, द्वंद्व के पार, राग और विराग के पार जो हो गया, जिसे न अब कोई चीज आकर्षित करती है, न विकर्षित करती है। क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। वह सिर के बल खड़ा हो गया आकर्षण है। और मोह की अंध-निशा टूटे तो। शर्त साफ है। वैराग्य को कौन उपलब्ध होता है? मोह की अंध-निशा टूटे तो, मोह की कालिमा बिखरे तो।
लेकिन हम क्या करते हैं? हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ अमोह को साधने लगते हैं। हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ, विरोध में अमोह को साधने लगते हैं। हम कहते हैं, घर में मोह है, तो घर छोड़ दो, जंगल चले जाएं। लेकिन जिस आदमी में मोह था, आदमी में था कि घर में था?
अगर घर में मोह था, तो आदमी चला जाए तो मोह के बाहर हो जाएगा। अगर घर मोह था। लेकिन घर को कोई भी मोह नहीं है आपसे, मोह आपको है घर से। और आप भाग रहे हैं और घर वहीं का वहीं है। आप जहां भी जाएंगे, मोह वहीं पहुंच जाएगा। वह आपके साथ चलेगा, वह आपकी छाया है। फिर आश्रम से मोह हो जाएगा--मेरा आश्रम। क्या फर्क पड़ता है? मेरा घर, मेरा आश्रम--क्या फर्क पड़ता है? मेरा बेटा, मेरा शिष्य--क्या फर्क पड़ता है? मोह नया इंतजाम कर लेगा, मोह नई गृहस्थी बसा लेगा।
यह बड़ी मजेदार बात है कि गृह का अर्थ घर से नहीं है। गृह का अर्थ उस मोह से है, जो घर को बसा लेता है। होम से मतलब नहीं है गृह का; उससे मतलब है, जो घर को बनाता है। वह कहीं भी घर को बना लेगा। वह झाड़ के नीचे बैठेंगे, तो मेरा हो जाएगा। महल होगा, तो मेरा होगा। लंगोटी होगी, तो मेरी हो जाएगी। और मेरे को कोई दिक्कत नहीं आती कि बड़ा मकान हो कि छोटा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे का आयतन कितना है, इससे मेरे के होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा, आयतन पर निर्भर नहीं है।
धर्म का क्वांटिटी से, परिमाण से कोई संबंध नहीं। धर्म का क्वालिटी से संबंध है, गुण से संबंध है। धर्म कहेगा, दो पैसे की चोरी या दो लाख की चोरी, बराबर चोरी है। इसमें कोई फर्क नहीं। गणित में होगा फर्क, धर्म में कोई भी फर्क नहीं है। धर्म के लिए चोरी हो गई। आदमी चोर है।
सच तो यह है कि धर्म को और थोड़ा गहरे में उतरें, तो अगर दो लाख और दो पैसे की चोरी में कोई फर्क नहीं है, तो दो लाख की चोरी और चोरी करने के विचार में भी कोई फर्क हो सकता है? धर्म के लिए कोई फर्क नहीं है। चोरी की या चोरी करने का विचार किया, कोई अंतर नहीं है, बात घटित हो गई। हम जो करते हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। जो हम करने की सोचते हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है।
 आदमी अपने कर्मों से ही नहीं बंधता--सिर्फ कर्मों से नहीं बंधता--बल्कि जो उसने करना चाहा और नहीं किया, उससे भी बंध जाता है।
हम सिर्फ चोरी से ही नहीं बंधते--की गई चोरी से--नहीं की गई चोरी से, सोची गई चोरी से भी उतने ही बंध जाते हैं। की गई चोरी से दूसरे को भी पता चलता है, न की गई चोरी से जगत को पता नहीं चलता, लेकिन परमात्मा को पूरा पता चलता है। क्योंकि परमात्मा से हमारे संबंध भाव के हैं, कृत्य के नहीं। करने के नहीं हैं हमारे संबंध परमात्मा से, करने के संबंध जगत से हैं, समाज से हैं, बाहर से हैं। होने के संबंध हैं हमारे परमात्मा से--बीइंग के, डूइंग के नहीं।


और होने में क्या फर्क पड़ता है? मैंने चोरी की कल्पना की या मैंने चोरी की, इससे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता, चोर मैं हो गया। परमात्मा की तरफ तो चोरी की खबर पहुंच गई कि यह आदमी चोर है। हां, जगत तक खबर नहीं पहुंची। जगत तक खबर पहुंचने में देर लगेगी। जगत तक खबर पहुंचने में चोरी का विचार ही नहीं, चोरी को हाथ का भी सहयोग लेना होगा। जगत तक पहुंचने में भाव ही नहीं, पौदगलिक कृत्य, मैटीरियल एक्ट भी करना होगा। इससे चोरी बढ़ती नहीं, सिर्फ चोरी प्रकट होती है; अनमैनिफेस्ट चोरी मैनिफेस्ट होती है; अव्यक्त चोरी व्यक्त होती है। बस और कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अव्यक्त चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी व्यक्त चोरी है, जहां तक धर्म का संबंध है।
हिंदू के भी देवता हैं, मुसलमान के भी। हिंदुओं में भी हिंदुओं के हजार देवता हैं। एक देवता भी तेलियों और ब्राह्मणों का होकर, अलग हो जाता है। भगवान मेरे को छोड़ने से मिलता है। और हम इतने कुशल हैं कि भगवान को भी मेरे की सीमाओं में बांधकर खड़ा कर देते हैं। मंदिर जलता है, तो किसी मुसलमान को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। मस्जिद जलती है, तो किसी हिंदू को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। और हर हालत में भगवान ही जलता है। लेकिन मेरे की वजह से दिखाई नहीं पड़ता। मेरा अंधा कर जाता है। वह मेरा अंधकार है।
किसी भी तरह के मेरे का भाव मोह की निशा है। इसके प्रति जागना है, भागना नहीं है। भागे कि मैं की विपरीतता शुरू हुई, कि फिर मैं कहीं और निर्माण होगा। फिर वह वहां जाकर अपने को निर्मित कर लेगा।
मैं जो है, बड़ी क्रिएटिव फोर्स है; मैं जो है, बड़ी सृजनात्मक शक्ति है। वास्तविक नहीं, स्वप्न का सृजन करती है, ड्रीम क्रिएटिंग। स्वप्न का निर्माण करती है, लेकिन करती है। बहुत हिप्नोटिक है। जहां भी खड़ी हो जाती है, वहां एक संसार बन जाता है।
सच तो यह है कि मेरे के कारण ही संसार है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन संसार कहीं भी नहीं है। मेरे के कारण ही गृह है, गृहस्थी है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन कहीं कोई गृह नहीं है, कहीं कोई गृहस्थी नहीं है। संन्यासी वह नहीं है, जो घर छोड़कर भाग गया; संन्यासी वह है, जिसके भीतर घर को बनाने वाला बिखर गया। जिसके भीतर से वह निर्माण करने वाली मोह की जो तंद्रा थी, वह खो गई है।
इसे कृष्ण कहते हैं, इस मोह की निशा को जो छोड़ देता है और जिसकी बुद्धि वैराग्य को उपलब्ध हो जाती है, उसके जीवन में, उसके जीवन में फलित होता है--कहें उसे मोक्ष, कहें उसे ज्ञान, कहें उसे आनंद, कहें उसे परमात्मा, कहें उसे ब्रह्म, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सिर्फ नामों के भेद हैं।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 
हरिओम सिगंल

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