शनिवार, 14 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 3

 आसुरी संपदा


दम्भो दयोंऽभिमानश्च क्रोध: पारूष्‍यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्म पार्थ संपदमासुशँम्।। 4।।

दैवी संयद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः संपदं दैवीमीभजातोऽसि पाण्डव।। 5।।

द्वौ भूतसगौं लस्कैऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।

दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे मृणु।। 6।।


और है पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्‍ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के  मानी गई है। इसलिए है अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

और हे अर्जुन, हम लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के बताए गए हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सून।


और हे पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

और हे अर्जुन, इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।

पाखंड, हिपोक्रेसी.......।

पाखंड का अर्थ है, जो आप नहीं हैं, वैसा स्वयं को दिखाना। जो आपका वास्तविक चेहरा नहीं है, उस चेहरे को प्रकट करना। हम सबके पास मुखौटे हैं। जरूरत पर हम उन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमें नए—नए चेहरों का उपयोग करना पड़ता है। जैसी जरूरत हो, वैसा हम चेहरा लगा लेते हैं। धीरे— धीरे यह भी हो सकता है कि इस पाखंड में चलते—चलते आपको भूल ही जाए कि आप कौन हैं।

यही हो गया है। अगर आप अपने से पूछें कि मैं कौन हूं तो कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि आपने इतने चेहरे प्रकट किए हैं, आपने इतने रूप धरे हैं, आपने इतनी भांति अपने को प्रचारित किया है, कि अब आप खुद भी दिग्भ्रम में पड़ गए हैं कि मैं हूं कौन! क्या है सच मेरा! मेरी कोई सचाई है, या बस मेरा सब धोखा ही धोखा है! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं।

कृष्ण ने दैवी संपदा में गिनाया, सत्य, प्रामाणिकता, आथेंटिसिटी, व्यक्ति जैसा है, बस वही उसका होने का ढंग है, चाहे कोई भी परिणाम हो। आसुरी संपदा में उसके अनेक चेहरे हैं।

हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद आपको अर्थ पकड़ में नहीं आया होगा। कि रावण दशानन है, उसके दस चेहरे हैं। राम का एक ही चेहरा है। राम आथेंटिक हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें आप पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा नहीं है। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके बहुत चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत। क्योंकि दस आखिरी संख्या है। दस से बडी फिर कोई संख्या नहीं है। फिर सब संख्याएं दस के ऊपर जोड़ हैं।

दस चेहरे का मतलब है, बस आखिरी। उसका असली चेहरा कौन है, यह पहचानना मुश्किल है। रावण असुर है। और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी बहुत चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरे को धोखा देते हैं, वह तो ठीक है, इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हमें खुद ही भूल जाता है कि हमारा स्वरूप क्या है।

पाखंड का अर्थ है, दूसरे को धोखा देना और अंततः उस धोखे से खुद को भी धोखे में डाल लेना।

झूठ का स्वभाव है, एक झूठ को बचाना हो, तो फिर हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। फिर इतनी अनंत श्रृंखला है झूठों की कि हमें याद भी नहीं रहता कि पहला झूठ क्या था, जो हमने बोला था।

झूठ का एक दूसरा स्वभाव है, अगर बार—बार उसे पुनरुक्त किया जाए, तो निरंतर पुनरुक्ति के कारण हम आटो—हिप्‍नोटाइज्‍ड हो जाते हैं, हम सम्मोहित हो जाते हैं। और हमें खुद ही लगने लगता है कि यह ठीक है। आप एक झूठ बार—बार दोहराते रहें, फिर आपको खुद ही शक होने लगेगा कि यह सच है या झूठ है! क्योंकि आपने इतनी बार दोहराया है कि उसकी छाप आपके ऊपर पड़ गई। आप भी अगर एक झूठ कई वर्ष तक बोलते रहें, तो आपको पीछे पक्का होना मुश्किल हो जाता है कि आप झूठ बोले थे कि यह सच है। झूठ का यह दूसरा स्वभाव है कि उसको आप पुनरुक्त करें, तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है। और हर झूठ को और झूठों की जरूरत है।

पाखंड का अर्थ है, आप कुछ हैं, कुछ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो आप हैं, वह आपकी सब कोशिश के भीतर से भी झांकता रहेगा। आप उसे बिलकुल छिपा भी नहीं सकते। उसे बिलकुल मिटाया नहीं जा सकता, वह आपके भीतर छिपा है। इसलिए भला आपको न दिखाई पड़े, दूसरों को दिखाई पड़ता है। अक्सर यह होता है कि आपके संबंध में दूसरे लोग जो कहते हैं, वह ज्यादा सही होता है, बजाय उसके, जो आप अपने संबंध में कहते हैं। नब्बे प्रतिशत मौका इस बात का है कि दूसरे जो आप में देख पाते हैं, वह आप नहीं देख पाते। क्योंकि आप अपने धोखे में इस भांति लीन हो गए हैं। लेकिन दूसरा आपको देखता है, तो आपकी जो झीनी पर्त है धोखे की, उसके पीछे से आपका असली हिस्सा भी दिखाई पड़ता है।

पाखंडी व्यक्ति की कई परतें हो जाएंगी। जितना पाखंडी होगा, उतनी परतें हो जाएंगी। और इन सारी परतों का कष्ट है। और हर पर्त को बचाने के लिए नई परतें खडी करनी पड़ेगी।

सत्य की एक सुविधा है, उसे याद रखने की जरूरत नहीं, उसको स्मरण रखने की जरूरत नहीं। झूठ को याद रखना पड़ता है। झूठ के लिए काफी कुशलता चाहिए। सत्य तो सीधा आदमी भी चला लेता है, क्योंकि याद रखने की कोई जरूरत नहीं। सत्य सत्य है। उससे दस साल बाद पूछेंगे, वह कह देगा। लेकिन झूठ आदमी को दस साल तक याद रखना पड़ेगा कि उसने एक झूठ बोला, फिर उसको सम्हालने के लिए कितने झूठ बोले।




तो झूठ के लिए बड़ी स्मृति चाहिए। इसलिए छोटी—मोटी बुद्धि के आदमी से झूठ नहीं चलता। झूठ चलाने के लिए काफी फैलाव चाहिए। इसलिए जितना आदमी शिक्षित हो, तार्किक हो, गणित का जानकार हो, उतना ज्यादा झूठ बोलने में कुशल हो सकता है।

दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती है, उतना झूठ बढ़ता है इसीलिए, क्योंकि लोगों की स्मृति की कुशलता बढ़ती है। वे याद रख सकते हैं, वे मैनिपुलेट कर सकते हैं, वे नए झूठ गढ़ सकते हैं।

यह जो हमारी चित्त की स्थिति है, इस स्थिति में अगर आप परमात्मा को खोजने निकले, तो खोज असंभव है। अगर परमात्मा भी आपको खोजने निकले, तो भी खोज असंभव है। क्योंकि आपको खोजेगा कहां? आप जहां—जहां दिखाई पड़ते हैं, वहां—वहां नहीं हैं। जहां आप हैं, उस जगह का आपको भी पता नहीं है। और किसी को आपने पता बताया नहीं।

पाखंड का जो सबसे बड़ा उपद्रव है, वह यह है कि आपकी पहचान खो जाती है, प्रत्यभिज्ञा मुश्किल हो जाती है। और आसुरी व्यक्ति का वह पहला लक्षण है।

घमंड और अभिमान......।

यह थोड़ा सोचकर मुश्किल होगी, क्योंकि हम तो घमंड और अभिमान का एक—सा ही उपयोग करते हैं। घमंड और अभिमान का एक ही अर्थ लिखा है शब्दकोशों में। पर कृष्ण उनका दो उपयोग करते हैं।

घमंड उस अभिमान का नाम है, जो वास्तविक नहीं है। और अभिमान उस घमंड का नाम है, जो वास्तविक है। लेकिन दोनों पाप हैं और दोनों आसुरी हैं। मतलब यह कि एक आदमी, जो सुंदर नहीं है और अपने को सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। सुंदर है नहीं, सुंदर समझता है, अकड़ा रहता है। यह घमंड है। दूसरा आदमी सुंदर है, सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। वह अभिमान है। पर दोनों ही आसुरी हैं।

पहला तो हमें समझ में आ जाता है, क्योंकि वह गलत है ही; लेकिन दूसरा हमें समझ में नहीं आता, वह सही होकर भी गलत है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप सुंदर हैं या नहीं! असली फर्क इससे पड़ता है कि आप अपने को सुंदर समझते हैं। जो आदमी बुद्धिमान है, वह अगर अकड़े कि मैं बुद्धिमान हूं तो उतना ही पाप हो रहा है, जितना बुद्ध अकड़े और सोचे कि मैं बुद्धिमान हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि असली बात अकड़ की है।

और एक और खतरा है कि वह जो गलत ढंग से, जो है नहीं बुद्धिमान, अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, वह तो शायद किसी दिन चेत भी जाए; लेकिन वह जो बुद्धिमान है और अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, उसका चेतना बहुत मुश्किल है। क्योंकि आप उसको गलत भी सिद्ध नहीं कर सकते। उसका खतरा भारी है। और खतरा तो यही है कि मैं अपने को कुछ समझूं और उसमें अकड़ जाऊं।

आसुरी वृत्ति का व्यक्ति सदा अपने को कुछ समझता है, समबडी। वह हो या न हो। रावण का घमंड घमंड नहीं है, अभिमान है। क्योंकि वह आदमी कीमती है, इसमें कोई शक नहीं है। उस जैसा पंडित खोजना मुश्किल है। उसकी अकड़ झूठ नहीं है। उसकी अकड़ में सचाई है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! अकड़ में सचाई है, तो अकड़ और मजबूत हो गई। और अकड़ के कारण ही आदमी परमात्मा से मिलने में असमर्थ हो जाता है।

रावण का संघर्ष हो गया राम से। ये तो प्रतीक हैं, क्योंकि अकड़ का संघर्ष हो ही जाएगा परमात्मा से। जहां भी अकड़ है, वहा आप राम से संघर्ष में पड़ जाएंगे।

जहां अकड़ गई, वहां आप तरल हो जाते हैं। फिर आपकी लहर पिघल जाती है, उस पिघलेपन में आपका सागर से मिलन हो जाता है।

तो यह आप मत सोचना कभी कि मेरी अकड़ सही है या गलत है। अकड़ गलत है। उस अकड़ के दो नाम हैं। अगर वह गलत हो तो घमंड, अगर सही हो तो अभिमान। पर कृष्ण कहते हैं, दोनों ही आसुरी संपदा के लक्षण हैं।

क्रोध और कठोर वाणी......।

संयुक्त हैं, क्योंकि कठोर वाणी क्रोध का ही रूप है। भीतर क्रोध हो, तो आपकी वाणी में एक कठोरता, एक सूखापन प्रवेश हो जाता है। भीतर प्रेम हो, तो आपकी वाणी में एक माधुर्य, एक मिठास फैल जाती है।

वाणी आपसे निकलती है और आपके भीतर की खबरें ले आती है। वाणी आपके भीतर से आती है, तो आपके भीतर की हवाएं और गंध वाणी के साथ बाहर आ जाती हैं।

कठोर वाणी का केवल इतना ही अर्थ है कि भीतर पथरीला हृदय है, भीतर आप कठोर हैं। मधुर वाणी का इतना ही अर्थ है कि जहां से हवाएं आ रही हैं, वहां शीतलता है, वहां माधुर्य है।

क्रोध लक्षण होगा आसुरी व्यक्ति का, वह हमेशा क्रुद्ध है, हर चीज पर क्रुद्ध है। नाराज होना उसका स्वभाव है। उठेगा, बैठेगा, तो वह क्रोध से उठ—बैठ रहा है। जहां भी देखेगा, वह क्रोध से देख रहा है। वह सिर्फ भूल की तलाश में है कि कहीं भूल मिल जाए, कोई बहाना मिल जाए, कोई खूंटी मिल जाए, तो अपने क्रोध को टांग दे। अगर उसे कोई बहाना न मिले, तो वह बहाना निर्मित कर लेगा। अगर उसे कोई भी क्रोध करने को न मिले, तो वह अपने पर भी क्रोध करेगा। लेकिन क्रोध करेगा और उसकी वाणी में उसके क्रोध की लपटें बहती रहेंगी। वह जो भी बोलेगा, वह तीर की तरह हो जाएगा, किसी को चुभेगा और चोट पहुंचाएगा।

क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

अज्ञान का अर्थ ठीक से समझ लेना। अज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि वह कम पढ़ा—लिखा होगा। वह खूब पढ़ा—लिखा हो सकता है। अज्ञान का यह मतलब नहीं है कि वह पंडित नहीं होगा। वह पंडित हो सकता है। रावण पंडित है, महापंडित है। जानकारी उसकी बहुत हो सकती है। लेकिन बस, वह जानकारी होगी, ज्ञान न होगा। ज्ञान का अर्थ है, जो स्वयं अनुभूत हुआ हो। जानकारी का अर्थ है, जो दूसरों ने अनुभव की हो और आपने केवल संगृहीत कर ली हो।

ज्ञान अगर उधार हो, तो पांडित्य बन जाता है। ज्ञान अगर अपना, निजी हो, तो प्रज्ञा बनती है।

अज्ञान का यहां अर्थ है कि वह चाहे जानता हो ज्यादा या न जानता हो, लेकिन स्वयं को नहीं जानेगा। सब जानता हो, सारे जगत के शास्त्रों का उसे पता हो, लेकिन स्वयं की उसे कोई पहचान न होगी, आत्म—ज्ञान न होगा।

और जो भी वह जानता है, वह सब उधार होगा। उसने कहीं से सीखा है, वह उसकी स्मृति में पड़ा है। लेकिन उसके माध्यम से उसका जीवन नहीं बदला है। वह उस ज्ञान में जला और निखरा नहीं है। उस ज्ञान ने उसको तोड़ा और नया नहीं किया। वह ज्ञान उसकी मृत्यु भी नहीं बना और उसका जन्म भी नहीं बना। वह ज्ञान धूल की तरह उस पर इकट्ठा हो गया है। उस ज्ञान की पर्त होगी उसके पास, लेकिन वह ज्ञान उसके हृदय तक नहीं पहुंचा है। वह ज्ञान को ढोएगा, लेकिन ज्ञान उसका पंख नहीं बनेगा कि उसको मुक्त कर दे। उसका ज्ञान वजन होगा, उसका ज्ञान निर्भार नहीं है।

अज्ञान का यहां अर्थ है, अपने को न जानना, अपने स्वभाव से अपरिचित होना।

उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए है और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है।

आसुरी संपदा बांधेगी, आपको बंद करेगी। जैसे कोई कारागृह में पड़ा हो। और यह कारागृह ऐसा नहीं कि किसी दूसरे ने आपके लिए निर्मित किया है। कारागृह ऐसा, जो आपने ही अपने लिए बनाया है।

दैवी संपदा मुक्त करेगी; दीवारें गिरेंगी, खुला आकाश प्रकट होगा। पंख आपके पास हैं, लेकिन पंखों पर अगर आपने बंधन बांध रखे हैं, तो उड़ना असंभव है। और अगर बहुत समय से आप उड़े नहीं हैं, तो आपको खयाल भी मिट जाएगा कि आपके पास पंख हैं।

चील बड़े ऊंचे वृक्षों पर अपने अंडे देती है। फिर अंडों से बच्चे आते हैं। वृक्ष बड़े ऊंचे होते हैं। बच्चे अपने नीड़ के किनारे पर बैठकर नीचे की तरफ देखते हैं, और डरते हैं, और कंपते हैं। पंख उनके पास हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि वे उड़ सकते हैं। और इतनी नीचाई है कि अगर गिरे, तो प्राणों का अंत हुआ। उनकी मां, उनके पिता को वे आकाश में उड़ते भी देखते हैं, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं आता कि हम उड़ सकते हैं।

तो चील को एक काम करना पड़ता है.। इन बच्चों को आकाश में उड़ाने के लिए कैसे राजी किया जाए! कितना ही समझाओ—बुझाओ, पकड़कर बाहर लाओ, वे भीतर घोंसले में जाते हैं। कितना ही उनके सामने उड़ो, उनको दिखाओ कि उडने का आनंद है, लेकिन उनका साहस नहीं पड़ता। वे ज्यादा से ज्यादा घोंसले के किनारे पर आ जाते हैं और पकड़कर बैठ जाते हैं।

तो आप जानकर हैरान होंगे कि चील को अपना घोंसला तोड़ना पड़ता है। एक—एक दाना जो उसने घोंसले में लगाया था, एक—एक कूड़ा—कर्कट जो बीन—बीनकर लाई थी, उसको एक—एक को गिराना पड़ता है। बच्चे सरकते जाते हैं भीतर, जैसे घोंसला टूटता है। फिर आखिरी टुकड़ा रह जाता है घोंसले का। चील उसको भी छीन लेती है। बच्चे एकदम से खुले आकाश में हो जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता, उनके पंख फैल जाते हैं और आकाश में वे चक्कर मारने लगते हैं। दिन, दो दिन में वे निष्णात हो जाते हैं। दिन, दो दिन में वे जान जाते हैं कि खुला आकाश हमारा है, पंख हमारे पास हैं।

हमारी हालत करीब—करीब ऐसी ही है। कोई चाहिए, जो आपके घोंसले को गिराए। कोई चाहिए, जो आपको धक्का दे दे। गुरु का वही अर्थ है।

कृष्ण वही कोशिश अर्जुन के लिए कर रहे हैं। सारी गीता अर्जुन का घर, घोंसला तोड्ने के लिए है। सारी गीता अर्जुन को स्मरण दिलाने के लिए है कि तेरे पास पंख हैं, तू उड़ सकता है। यह सारी कोशिश यह है कि किसी तरह अर्जुन को धक्का लग जाए और वह खुले आकाश में पंख फैला दे।

इन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

अर्जुन को भरोसा दिला रहे हैं कि तू घबडा मत, तू दुख मत कर, तू चिंता मत कर। तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है। बस, पंख खोलने की बात है, खुला आकाश तेरा है।

क्यों अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है?

अर्जुन की जिज्ञासा दैवी है। यह भाव भी अर्जुन के मन में आना कि क्यों मारूं लोगों को, क्यों हत्या करूं, क्यों इस बड़े हिंसा के उत्पात में उतरूं! यह खयाल मन में आना कि इससे राज्य मिलेगा, साम्राज्य मिलेगा, बडी पृथ्वी मेरी हो जाएगी, पर उसका सार क्या है! लोभ के प्रति यह विरक्ति, साम्राज्य के प्रति यह उपेक्षा, हिंसा और हत्या के प्रति मन में ग्लानि!

अर्जुन कहता है, मैं यह सब छोड्कर जंगल चला जाऊं, संन्यस्त हो जाऊं, वही बेहतर है। अर्जुन कहता है, ये सब मेरे अपने जन हैं इस तरफ, उस तरफ। इन सबको मारकर, मिटाकर अगर मैंने राज्य भी पा लिया, तो वह खुशी इतनी अकेले की होगी कि खुशी न रह जाएगी, क्योंकि खुशी तो बांटने के लिए होती है। जिनके लिए मैं राज्य पाने की कोशिश कर रहा हूं जो मुझे राज्य पाया हुआ देखकर आनंदित और प्रफुल्लित होंगे, उनकी लाशें पड़ी होंगी। तो जिस सुख को मैं बांट न पाऊंगा, जो सुख मेरे अपने जो प्रियजन हैं उनके साथ साझेदारी में नहीं भोगा जा सकेगा, उसके भोगने का अर्थ ही क्या है?

यह भाव दैवी है। लेकिन इन दैवी भावों के पीछे जो कारण वह दे रहा है, वे अज्ञान से भरे हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि पहली बार जब दैवी आकांक्षा जगती है, तो उसकी जड़ें तो हमारे अज्ञान में ही होती हैं। हम अज्ञानी हैं। इसलिए हममें अगर दैवी आका्ंक्षा भी जगती है, तो उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान का हाथ होता है। उस दैवी आका्ंक्षा में हमारे अज्ञान की छाया होती है।

लेकिन कृष्ण पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह भरोसे से भर जाए; वह अज्ञान को भी छोड़ दे। वह जिन कारणों को बता रहा है, उनको भी गिरा दे। क्योंकि वे कारण अगर सही हैं, तो अर्जुन कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरे प्रियजन हैं, इसलिए इनको मारने से मैं डरता हूं। यह आधी बात तो दैवी है और आधी अज्ञान और आसुरी से भरी है।

दैवी तो इतनी बात है कि हिंसा के प्रति उनके मन में उपेक्षा पैदा हुई है, हिंसा में रस नहीं रहा। लेकिन कारण है, क्योंकि ये मेरे हैं। अगर ये पराए होते, तो अर्जुन उनको, जैसे किसान खेत काट रहा हो, ऐसे काट देता। वह कोई नया नहीं था काटने में। जीवन में कई बार उसने हत्याएं की थीं और लोगों को काटा था। काटना उसे सहज काम था। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि आत्मा का क्या होगा, स्वर्ग, मोक्ष—कुछ सवाल न उठे थे। लेकिन वे अपने नहीं थे, ये सब अपने लोग हैं। उस तरफ गुरु खड़े हैं, भीष्म खड़े हैं, सब चचेरे भाई—बंधु हैं। ये मेरे हैं!

यह ममत्व अज्ञान है। न काटू? यह तो बड़ी दैवी भावना है। हिंसा न करूं, यह तो बड़ा शुभ भाव है। लेकिन मेरे हैं, इसलिए न करूं, यह अशुभ से जुड़ा हुआ भाव है। वह अशुभ मिट जाए, फिर भी अर्जुन दिव्यता की तरफ बढ़े, यह कृष्ण की पूरी चेष्टा है।

वह भाव मेरे का पाप है। तो कौन मेरा है, कौन मेरा नहीं है? या तो सब मेरे हैं, या कोई भी मेरा नहीं है! फिर अर्जुन कहता है, इनको मारूं, यह उचित नहीं है, यह बात तो दैवी है। लेकिन मैं इनको मार सकता हूं यह बात अज्ञान से भरी है। यह थोड़ा जटिल है।

मैं किसी को न मारूं, यह भाव तो अच्छा है, लेकिन मैं किसी को मार सकता हूं, आत्मा की हत्या हो सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है। मैं चाहूं तो भी मार नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा आपकी देह को नुकसान पहुंचा सकता हूं। और देह को क्या नुकसान पहुंचाया जा सकता है! देह तो मुरदा है। उसको मारने का कोई उपाय नहीं। वह तो मिट्टी है। उसको काटने से कुछ कटता नहीं। देह के भीतर जो छिपा है, उस चिन्मय को तो काटा नहीं जा सकता। वह तो कोई मिट्टी नहीं है। उस अमृत को तो मारने का कोई उपाय नहीं है।

अर्जुन कहता है कि हिंसा बुरी है। लेकिन क्या हिंसा हो सकती है? यह भाव अज्ञान से भरा है। हिंसा तो हो ही नहीं सकती, हिंसा का कोई उपाय नहीं है। हिंसा का भाव किया जा सकता है, हिंसा नहीं की जा सकती। हिंसा का भाव पापपूर्ण है। हिंसा की जा सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है।

अर्जुन में दिव्यता का जागरण हुआ है, लेकिन वह दिव्यता अभी आसुरी बिस्तर पर ही लेटी है। आंख खुली है, करवट बदली है, लेकिन बिस्तर अभी उसने छोडा नहीं है। वह बिस्तर भी छूट जाए, यह घोंसला भी हट जाए और अर्जुन खुले आकाश में मुक्‍त होकर उड़ सके.......।

हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। और हे अर्जुन इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।

दो स्वभाव, एक ही चेतना के। एक आदमी बंधन में पड़ा है, हाथ में जंजीरें हैं, पैर में बेड़ियां हैं। फिर हम इसके बंधन काट देते हैं; हाथ की बेड़ियां छूट जाती हैं, पैर की जंजीरें गिर जाती हैं, अब यह मुक्त खड़ा है। क्या यह आदमी दूसरा है या वही? क्षणभर पहले बेडिया थीं, जंजीरें थीं; अब जंजीरें नहीं, बेड़ियां नहीं। क्षणभर पहले एक कदम भी उठाना इसे संभव न था। अब यह हजार कदम उठाने के लिए मुक्त है। क्या यह आदमी वही है या दूसरा है?

एक अर्थ में यह आदमी वही है, कुछ भी बदला नहीं। क्योंकि बेडियां इस आदमी का स्वभाव न थीं, इसके ऊपर से पड़ी थीं। हाथ से बेड़ियां हट जाने से इसका हाथ तो नहीं बदला। इसकी पैर से जंजीरें टूट जाने से इसका व्यक्तित्व नहीं बदला। यह आदमी तो वही है।

एक अर्थ में आदमी वही है, दूसरे अर्थ में आदमी वही नहीं है। क्योंकि जंजीरों के गिर जाने से अब यह मुक्त है। यह चल सकता है, यह दौड़ सकता है, यह अपनी मरजी का मालिक है। अब इसकी दिशा कोई तय न करेगा। अब इसे कोई रोकने वाला नहीं है। अब एक स्वतंत्रता का जन्म हुआ है।

ये दोनों स्थितियां एक ही आदमी की हैं। ठीक वैसे ही स्वभाव की दो स्थितियां हैं। आसुरी, कृष्ण उसे कह रहे हैं, जो बांधती है; दैवी उसे कह रहे हैं, जो मुक्त करती है। ये दोनों ही एक ही चेतना की अवस्थाएं हैं। और हम पर निर्भर है कि हम किस अवस्था में रहेंगे।

यह बात सदा ही समझने में कठिन रही है कि हम अपने ही हाथ से बंधन में पड़े हैं। यह कठिन इसलिए रही है कि हम में से कोई भी चाहता नहीं कि बंधन में रहे। हम सब स्वतंत्र होना चाहते हैं। तो यह बात समझना मन को मुश्किल जाती है कि हमने बंधन अपने निर्मित खुद ही किए हैं। लेकिन थोड़ा समझना जरूरी है।

हम चाहते तो स्वतंत्र होना हैं, लेकिन हमने कभी गहराई से खोजा नहीं कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है। एक तरफ हम चाहते हैं, स्वतंत्र हों; और एक तरफ भीतर से हम चाहते हैं कि परतंत्र बनें। क्योंकि परतंत्रता के कुछ सुख हैं; उन सुखों को हम छोड़ नहीं पाते हैं। परतंत्रता की कोई सुरक्षा है।

कारागृह में जितना आदमी सुरक्षित है, कहीं भी सुरक्षित नहीं है। बाहर दंगा भी हो रहा है, बलवा भी हो रहा है, हिंदू—मुसलमान लड़ रहे हैं, गोली चल रही है, पुलिस है, सरकार है—सब उपद्रव बाहर चल रहा है। कारागृह में कोई उपद्रव नहीं है। वहां जो आदमी हथकड़ी में बैठा है, वहा न कोई दुर्घटना होती है, न मोटर एक्सिडेंट होता है, न हवाई जहाज गिरता है, न ट्रेन उलटती है, कुछ नहीं होता। वहां वह बिलकुल सुरक्षित है। कारागृह की एक सुरक्षा है, जो बाहर संभव नहीं है।

सुरक्षा हम सब चाहते हैं। सुरक्षा के कारण हम कारागृह बनाते हैं। स्वतंत्रता का खतरा है, क्योंकि खुला जगत जोखम से भरा है। स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन खतरा उठाने की हमारी हिम्मत नहीं है।

एक बहुत बड़े पश्चिम के विचारक इरिक फोम ने एक किताब लिखी है, फिअर आफ फ्रीडम। बड़ी कीमती किताब है।

एक भय है स्वतंत्रता का। हम सबके भीतर है; हम सब डरते हैं। हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन हम डरते हैं, हम कंपते हैं। हम भी अपने घोंसले को वैसे ही पकड़ते हैं, जैसे चील का बच्चा पकड़ता है। उसको लगता है कि मर जाएंगे, इतना लंबा खड्ड है, इतना बड़ा आकाश, हम इतने छोटे हैं; अपने पर भरोसा नहीं आता।

इसलिए हम सब तरह की परतंत्रताएं खोजते हैं। परिवार की, देश की, जाति की, समाज की परतंत्रताएं खोजते हैं। हम किसी पर निर्भर होना चाहते हैं। कोई हमें सहारा दे दे। हम किसी के कंधे पर हाथ रख लें। कोई हमारे कंधे पर हाथ रख दे। हो सकता है, हम दोनों ही कमजोर हों और एक—दूसरे का सहारा खोज रहे हों। लेकिन दोनों को भरोसा आ जाता है कि कोई साथ है; हम अकेले नहीं हैं।

स्वतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोते हैं, परतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोजते हैं।

कुछ सुरक्षा है उसमें। भय वहा कम है, सहारा वहा ज्यादा है, खतरा वहां कम है, जोखम वहां बिलकुल नहीं है। एक बंधा हुआ जीवन है। एक परिधि है, उस परिधि के भीतर प्रकाश है, परिधि के बाहर अंधकार है। उस अंधकार में जाने में भय लगता है। फिर अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा। स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने ही पैरों पर खड़ा होना। और स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने निर्णय खुद ही लेना।

दुनिया में जो इतने उपद्रव चलते हैं, उन उपद्रवों के पीछे भी कारण यही है कि बहुत—से लोग गुलामी खोजते हैं। सौ में निन्यानबे लोग ऐसे होते हैं कि बिना नेता के नहीं रह सकते। कोई नेता चाहिए। इस मुल्क में, सारी जमीन पर सब जगह नेता की बड़ी जरूरत है! नेता की जरूरत क्या है?

नेता की जरूरत यह है कि कुछ लोग खुद अपने पैरों से नहीं चल सकते। कोई आगे चल रहा हो, तो फिर उन्हें फिक्र नहीं है। फिर वह कहीं गड्डे में ले जाए, और हमेशा नेता गड्डों में ले जाते रहे हैं। लेकिन पीछे चलने वाले को यह भरोसा रहता है कि आगे चलने वाला जानता है। वह जहां भी जा रहा है, ठीक है। और कम से कम इतना तो पक्का है कि जिम्मेवारी हमारी नहीं है। हम सिर्फ पीछे चल रहे हैं।

दुनिया में लोगों की कमजोरी है कि उनको नेता चाहिए। फिर नेता कहां ले जाता है, इसका भी कोई सवाल नहीं है। नेता को भी कुछ पता नहीं कि वह कहा जा रहा है। अंधे अंधों का नेतृत्व करते रहते हैं। बस, नेता और अनुयायी में इतना ही फर्क है कि अनुयायी को कोई चाहिए जो उसके आगे चले, और नेता को कोई चाहिए जो उसके पीछे चले।

नेता भी निर्भर है पीछे चलने वाले पर। अगर पीछे कोई न चले, तो नेता को लगता है कि भटक गया। जब तक लोग पीछे चलते रहते हैं, उसे लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर मैं ठीक न होता, तो इतने लोग पीछे कैसे होते? जैसे ही पीछे से लोग हटते हैं, नेता का विश्वास चला जाता है। जैसे ही अनुयायी हट जाते हैं, नेता की आत्म— आस्था खो जाती है। उसे लगता है, बस, कहीं भूल हो रही है। अन्यथा लोग मेरे पीछे चलते। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान नेता हैं, उनकी तरकीब अलग है।

सभी नेताओं की कुशलता यही है। वे हमेशा देखते रहते हैं, अनुयायी कहा को जा रहा है, अनुयायी कहां जाना चाहता है, इसके पहले नेता मुड़ जाता है। तो ही नेता अनुयायी को बचा सकता है, नहीं तो अनुयायी भटक जाएगा, अलग हो जाएगा।

सब नेता अपने अनुयायियों के अनुयायी होते हैं, एक विसियस सर्किल है। तो नेता तापमान देखता रहता है कि अनुयायी क्या चाहते हैं। अनुयायी समाजवाद चाहते हैं, तो समाजवाद। अनुयायी चाहते हैं गरीबी मिटे, तो गरीबी मिटे। अनुयायी जो चाहते हैं, वह कहता है। और अनुयायी सुनते हैं अपनी ही आवाज को उसके मुंह से, सोचते हैं कि ठीक है। अनुयायी पीछे चलते हैं।

कुछ लोग हैं, जब तक उनके आगे कोई न चले, तब तक वे चल नहीं सकते। कुछ लोग हैं, जब तक कोई उनके पीछे न चले, तब तक वे नहीं चल सकते। दोनों निर्भर हैं।

स्वतंत्र व्यक्ति वह है, जो न आगे देखता है और न पीछे देखता है, जो अपने पैर से चलता है। पर बड़ी कठिन है बात, क्योंकि तब किसी दूसरे पर भरोसा नहीं खोजा जा सकता, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी नहीं डाली जा सकती। सब जिम्मेवारी अपनी है।

इतना जिसका साहस हो, वही केवल स्वतंत्र हो पाता है। न नेता स्वतंत्र होते हैं, न अनुयायी स्वतंत्र होते हैं। स्वतंत्रता इस जगत में सबसे बड़ा जोखम है।

कृष्ण कहते हैं, जो आसुरी संपदा है वह बंधन के लिए और जो दैवी संपदा है वह मुक्ति के लिए मानी गई है। और हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 2

 दैवीय लक्षण


अहिंसा सत्‍यमक्रोधस्‍त्‍याग: शान्‍तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्‍वलोलुप्‍त्‍वं मार्दवं ह्ररिचापलम्।। 2।।

तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति संपदं दैवीमीभिजातस्य भारत।। 3।।


दैवी संपदायुक्‍त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्‍यता के अभिमान का अभाव— ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं।


दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव—यें सब तो, हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

एक—एक लक्षण को समझें।

अहिंसा.....।

अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग। हम सबको दूसरे को दुख पहुंचाने में रस आता है। दूसरे को दुखी देखकर हममें सुख का जन्म होता है। यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम कहेंगे, नहीं, ऐसा नहीं। दूसरे में दुख देखकर हममें सहानुभूति जन्मती है। लेकिन अगर आप अपनी सहानुभूति को भी थोड़ा—सा खोजेंगे, तो पाएंगे, उसमें रस है।

किसी के मकान में आग लग गई है, तब आप अपना स्वाध्याय करना। जब आप जाकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं कि बहुत बुरा हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए तब अपना आप निरीक्षण करना कि भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि अपना मकान नहीं जला, दूसरे का जला! भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि हम सहानुभूति बताने की स्थिति में हैं और तुम सहानुभूति लेने की स्थिति में हो! कि अच्छा मौका मिला कि आज हमारा हाथ ऊपर है!

और वह आदमी अगर आपकी सहानुभूति न ले, तो आपको पता चल जाएगा। वह कह दे, कुछ हर्जा नहीं, बड़ा ही अच्छा हुआ कि मकान जल गया, सर्दी के दिन थे, और ताप मिल रहा है; बड़ा आनंद आ रहा है। तो आप दुखी घर लौटेंगे, क्योंकि उस आदमी ने आपको मौका नहीं दिया ऊपर चढ़ने का। एक मुफ्त अवसर मिला था, जहां आप दान कर लेते बिना कुछ दिए; जहां बिना कुछ बांटे आप सहानुभूति का सुख ले लेते, वह मौका उस आदमी ने नहीं दिया। आप उस आदमी के दुश्मन होकर घर लौटेंगे।

ध्यान रहे, अगर आप किसी को सहानुभूति दें और वह आपकी सहानुभूति न ले, तो आप सदा के लिए उसके दुश्मन हो जाएंगे, आप उसको कभी माफ न कर सकेंगे।

इसको पहचानना हो, तो दूसरे छोर से पहचानना आसान है। सभी को लगता है कि नहीं, यह बात ठीक नहीं। दूसरे के दुख में हमें दुख होता है। इसे छोड्कर दूसरे छोर से पहचानें, दूसरे के सुख में क्या आपको सुख होता है?

अगर दूसरे के सुख में सुख होता हो, तो ही दूसरे के दुख में दुख हो सकता है। और अगर दूसरे के सुख में पीड़ा होती है, तो गणित साफ है कि दूसरे के दुख में आपको सुख होगा, पीड़ा नहीं हो सकती। अगर दूसरे का सुख देखकर आप जलते हैं, तो दूसरे का दुख देखकर आप प्रफुल्लित होते होंगे। चाहे आपको भी पता न चलता हो, चाहे आप अपने को भी धोखा दे लेते हों, लेकिन भीतर आपको मजा आता होगा।

अखबार सुबह से उठाकर आप देखते हैं। अगर कोई उपद्रव न छपा हो, कहीं कोई हत्या न हुई हो, गोली न चली हो, तो आप थोड़ी देर में उसको ऐसा उदास पटक देते हैं। कहते हैं, कुछ भी नहीं है, कोई खबर ही नहीं! आप किस चीज की तलाश में हैं? आप कहीं दुख खोज रहे हैं, तो आपको लगता है, यह समाचार है, कुछ खबर है। जब भी आप दुखी आदमी को देखते हैं, तो तुलनात्मक रूप से आप अनुभव करते हैं कि आप सुखी हैं। और न केवल साधारणजन, बल्कि नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अगर तुम्हारा एक पैर टूट गया है, तो दुखी मत होओ। देखो, ऐसे लोग भी हैं, जिनके दो पैर टूटे हुए हैं। उनको देखो! तो निश्चित ही अगर आपका एक पैर टूट गया है, तो दो पैर टूटे आदमी को देखकर आपके जीवन में अकड़ आ जाएगी। आपको लगेगा कि कुछ हर्जा नहीं, ऐसा कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ गया है; दुनिया में और भी बुरी हालतें हैं।





नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अपने से पीछे देखो; अपने से ज्यादा दुखी को देखो, तो तुम हमेशा सुखी अनुभव करोगे। अपने से सुखी को देखोगे, तो हमेशा दुखी अनुभव करोगे।

पर यह बात ही बुरी है। इसका मतलब हुआ कि दूसरे को दुखी देखकर आपको कुछ सुख मिल रहा है। यह कोई बड़ी नैतिक शिक्षा न हुई। और यह कोई भला संदेश न हुआ।

कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदायुक्त व्यक्ति का लक्षण होगा अहिंसा। अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख न पहुंचाने की वृत्ति। और यह तभी हो सकता है, जब दूसरे के दुख में हमें सुख न हो। और यह तभी होगा, जब दूसरे के सुख में हमें सुख की थोड़ी—सी भाव—दशा बनने लगे।

तो अहिंसा कहां से शुरू करिएगा? पानी छानकर पीजिएगा, तो अहिंसा शुरू होगी? मांसाहार छोड़ने से अहिंसा शुरू होगी? ये सब गौण बातें हैं। छोड़ दें तो अच्छा है, लेकिन उतने से अहिंसा शुरू नहीं होती।

अहिंसा शुरू होती है, जब कोई सुखी हो, तो वहां सुख अनुभव करें। दूसरे के सुख को अपना उत्सव बनाएं। और जब कोई दुखी होता हो, तो दुख अनुभव करें, और दूसरे के दुख में समानुभूति में उतरें। दूसरे की जगह अपने को रखें, चाहे सुख हो, चाहे दुख।

दूसरे की जगह स्वयं को रखने की कला अहिंसा है। कोई सुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके सुख को अनुभव करें, और प्रफुल्लित हो जाएं। कोई दुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके दुख में लीन हो जाएं, जैसे वह दुख आप पर ही टूटा हो। तब आप पाएंगे कि जीवन में अहिंसा आनी शुरू हुई।

पानी छानकर पीना और मांसाहार छूट जाना बड़ी सरल बातें हैं, जो इस भाव—दशा के बाद अपने आप घट जाएंगी। लेकिन कोई कितना ही पानी छानकर पीए सात बार छानकर पीए तो भी अहिंसा नहीं होने वाली। मांसाहार बिलकुल न करे, तो भी अहिंसा होने वाली नहीं। ये सिर्फ आदतें हो जाती हैं। आदतों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बोधपूर्वक अहिंसा के सार— तत्व को पकडने की बात है।

मैं रोज देखता हूं तो बड़ा जीवन विरोधों से भरा हुआ मालूम पड़ता है।

एक क्वेकर साधु पुरुष था। क्वेकर ईसाइयों का एक संप्रदाय है, जो अहिंसा में पक्का भरोसा करता है। जैनों जैसा संप्रदाय है ईसाइयों का। किसी को मारना नहीं। तो क्वेकर अपने हाथ में बंदूक या अस्त्र—शस्त्र भी नहीं रखते, अपने घर में भी नहीं रखते। लेकिन यह क्वेकर्स की मान्यता है कि जब किसी को मरना है, किसी की घड़ी आ गई, तो परमात्मा उसे खुद उठा लेगा, किसी को उसे मारने की जरूरत नहीं है। अगर अपनी घड़ी मरने की आ गई, तो परमात्मा हमें उठा लेगा। तो अस्त्र—शस्त्र का क्या प्रयोजन है!

लेकिन यह साधु पुरुष जब भी चर्च जाता—चर्च दूर था इसके गांव से—तो वह एक पिस्तौल लेकर जाता। और वह जाहिर अहिंसक था। तो मित्रों ने पूछा कि तुम भाग्य को मानते हो, अहिंसा को मानते हो, तुम किसी को मारना भी नहीं चाहते, तुम यह भी जानते हो कि जब तक परमात्मा की मरजी न हो, तब तक तुम्हें कोई मार नहीं सकता, तो तुम पिस्तौल लेकर किसलिए जा रहे हो?

उस क्वेकर ने क्या कहा! उसने कहा कि मैं अपने बचाव के लिए पिस्तौल लेकर नहीं जा रहा हूं। लेकिन इस पिस्तौल से अगर परमात्मा को किसी को मारना हो, तो यह मौजूद रहनी चाहिए। अगर मेरा उपयोग करना हो परमात्मा को।

इस क्वेकर के घर में एक रात एक चोर घुस गया, तो उसने अपनी पिस्तौल उठा ली। चोर एक कोने में दबा हुआ खड़ा है। उस कोने की तरफ धीमा—सा प्रकाश है; रात का नीला प्रकाश थोड़ा—सा, पांच कैंडल का बल्‍ब है। वह कोने में छिपा खड़ा है। इसने कोने की तरफ पिस्तौल की और कहा कि मित्र, तुम्हें मैं नहीं मार रहा हूं; लेकिन जहां मैं गोली चला रहा हूं, तुम वहीं खड़े हो!

लेकिन यह हमें हंसी योग्य बात लगती है, लेकिन सारी दुनिया के अहिंसक इसी तरह के तर्क। क्योंकि हिंसा तो बदलती नहीं, ऊपर से आचरण थोप लिया जाता है!

क्वेकर पक्के अहिंसक हैं। दूध भी नहीं पीते। कहते हैं, दूध खून है, आधा खून है, इसलिए पाप है। दूध से बनी कोई चीज नहीं लेते। क्योंकि वह एनिमल फुड है।

ये जो सोचने के ढंग हैं, इनमें से तरकीबें निकल आती हैं। अंडा खाते हैं, क्वेकर अंडा खाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अंडा, जब तक बच्चा उसके बाहर नहीं आ गया, तब तक उसमें कोई जीवन नहीं है। अंडे को खाने में कोई पाप नहीं है। दूध पीने में पाप है, क्योंकि वह खून है।

और जीवन की सारी व्यवस्था हम इस ढंग की कर ले सकते हैं कि ऊपर से लगे कि सब अहिंसा है और भीतर सारी हिंसा जारी रहे। जैनों ने अहिंसा का बड़ा प्रयोग किया, लेकिन उनकी सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में जुट गई। तो उन्होंने खेती—बाड़ी छोड़ दी, क्योंकि उसमें हिंसा है। पौधा काटेंगे, तो हिंसा होगी; इसलिए जैनों ने खेती—बाड़ी छोड़ दी। क्षत्रिय होने का उपाय न रहा उनका, क्योंकि वहा युद्ध में हिंसा होगी।

तो उनके व्यक्तित्व की सारी हिंसा, जो युद्ध में निकल सकती थी, खेती—बाडी में निकल सकती थी।

आप जानकर हैरान होंगे कि किसान, माली भले लोग होते हैं, क्योंकि उनकी हिंसा निकल जाती है। एक किसान दिनभर काट रहा है जंगल में, लकड़ी काट रहा है, पौधे उखाड रहा है, तो उसकी जितनी क्रोध की वृत्ति है, वह सब इस उखाड़ने, तोड्ने में, मिटाने में निकल जाती है। वह भला आदमी होता है। किसान सरल आदमी होता है।

क्षत्रिय भी सरल आदमी होता है, क्योंकि युद्ध के मैदान पर लड़ लेता है। कुछ भी बचता नहीं, सब निकल जाता है। इसलिए क्षत्रिय भोले होते हैं। क्षत्रिय को आप जितनी आसानी से धोखा दे सकते हैं, दुकानदार को नहीं दे सकते, बनिया को नहीं दे सकते। होना चाहिए था उलटा, क्योंकि वह हिंसक है, दुष्ट है, उसको धोखा देना मुश्किल होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उसको धोखा देना बिलकुल आसान है।

तो जैनों की सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में लगी; सब उपाय बंद हो गए। और धन सबसे सुविधापूर्ण साधन है दूसरे को दुख देने का। इससे ज्यादा आसान कोई तरकीब नहीं है। किसी की छाती में छुरा मारो, वह भी उपद्रव है, क्योंकि उसमें खुद को भी छुरा भोंका जाए, इसका डर सदा है। लेकिन धन चूस लो, दूसरा वैसे ही मर जाता है बिना छुरा मारे। और दूसरे को इससे ज्यादा दुखी करने की कोई सुविधापूर्ण व्यवस्था नहीं है कि तुम धन इकट्ठा कर लो। तुम धन इकट्ठा करते जाओ, दूसरा निर्धन होता जाए। वह मरता जाता है अपने आप। वह उसे इकट्ठा जहर देने की जरूरत नहीं है। एक—एक बूंद उसमें जहर उतरता जाता है। चारों तरफ सब सूख जाता है। सारा जीवन तुम शोषित कर लेते हो।

तो जैन बड़ी अहिंसा साधा। लेकिन वह अहिंसा चूंकि ऊपर—ऊपर थी, नैतिक थी; वह अहिंसा मौलिक आधार से नहीं जन्मी। वह महावीर की अहिंसा नहीं थी। इस जैन की, पीछे चलने वाले की अपने मन की, गणित की, अपनी बुद्धि की खोज थी। तो जटिल हो गया। और शोषण के रूप में अहिंसा दब गई और हिंसा व्यापक हो गई।

अहिंसा लक्षण है इस अर्थ में कि आप अपने मन से दूसरे को दुख देने का भाव विसर्जित कर दें। शुरू करना होगा दूसरे के सुख में सुख लेना। क्योंकि सुख लेना आसान है, दुख लेना कठिन है।

अपना ही दुख झेलना मुश्किल होता है, दूसरे का दुख झेलना तो और मुश्किल हो जाएगा। आप अपने ही दुख से काफी परेशान हैं, अगर हर एक का दुख लेने लगें और हर एक का दुख झेलने लगें; हर घर में आदमी मरेगा, अगर आप हर घर में बैठकर रोने लगे, जैसे आपका कोई मर गया हो—यह कठिन होगा। इससे शुरुआत नहीं हो सकती।

इसलिए शुरुआत का सूत्र है, दूसरे के सुख से शुरू करें। जब दूसरे के जीवन में फूल खिले, तो आपके जीवन में नाच आए। यह आसान होगा। हालांकि बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि अभी हमें सुख देखकर तो बड़ी पीड़ा होती है; दुरूहतम मालूम होगा। लेकिन साधना दुरूह है। वह ऊंचे पहाड़ चढ़ने जैसा प्रयोग है। और यह ऊंचे से ऊंचा पहाड़ है, दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना। तो आपका जीवन एक तरफ उत्सव से भर जाएगा।

और तब दूसरा प्रयोग है, दूसरे के दुख में दुख अनुभव करना, तब आपके जीवन में अंधकार भी भर जाएगा, प्रकाश और अंधकार दोनों। लेकिन चूंकि दूसरे के दुख में आप दुखी हो रहे हैं और दूसरे के सुख में आप सुखी हो रहे हैं, आपका साक्षी— भाव दोनों में निर्मित हो सकेगा। आप दोनों अनुभव में डूबकर भी बाहर रह सकेंगे।

जब आपका खुद का दुख आता है, तो आप एकदम भीतर हो जाते हैं, आप उस दुख में लीन हो जाते हैं। जब आप दूसरे के दुख में डूबेंगे, तो आप कितने ही लीन हो जाएं, आपका आंतरिक आत्यंतिक हिस्सा बाहर खड़ा देखता रहेगा। जब आप पर सुख आता है, तो आप उसमें उत्तेजित हो जाते हैं। दूसरे के सुख में आप कितने ही डूबे, उत्तेजित न हो पाएंगे। वह एक धीमा, सौम्य उत्सव होगा, और आपके भीतर का साक्षी जगा रहेगा।

और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे के सुख—दुख में साक्षी हो गया, वह धीरे— धीरे अपने सुख—दुख में भी साक्षी हो सकेगा। क्योंकि थोडे ही समय में उसे पता चलेगा, सुख—दुख न तो मेरे हैं, न दूसरे के हैं। सुख—दुख घटनाएं हैं, जिनका मेरे और तेरे से कुछ लेना—देना नहीं है। सुख—दुख बाहर परिधि पर घटते हुए धूप—छाया के खेल हैं, जो मेरे आंतरिक केंद्र को छूते भी नहीं, जिनसे मैं अस्पर्शित रह जाता हूं।

सत्य......।

सत्य से इतना ही अर्थ नहीं है कि सच बोलना। सत्य से अर्थ है, प्रामाणिक होना, आथेंटिक होना। सत्य से अर्थ है, जैसे आप भीतर हैं, वैसे ही बाहर होना। लेकिन लोग सत्य का यह अर्थ नहीं लेते। लोग सत्य का अर्थ लेते हैं, सच बोलना। वह सिर्फ गौण हिस्सा है।

और सच बोलना.....हमारा मन जैसा चालाक है, उसमें हम सच बोलने का भी दुरुपयोग कर लेते हैं। हम तब सच बोलते हैं, जब सच से दूसरे को चोट पहुंचती हो। और अगर दूसरे को चोट पहुंचाने का मौका हो, तो हम कहते हैं, हम झूठ कैसे बोल सकते हैं! सच बोलना ही पड़ेगा। खुद पर चोट पहुंचती हो, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं।

 जब खुद पर चोट पड़ती हो, तो हम झूठ को सच बना लेते हैं। जब दूसरे पर चोट पड़ती हो, तो हम सच का भी झूठ की तरह उपयोग करते हैं, हिंसक उपयोग करते हैं। कुछ लोग सच बोलने में बडा रस लेते हैं, क्योंकि सच से काफी चोट पहुंचाई जा सकती है। तब मजे की बात यह है कि झूठ बोलकर भी हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं और सच बोलकर भी नुकसान पहुंचाते हैं। हमारा लक्ष्य सदा एक है; हिंसा हमारा लक्ष्य है।

इसलिए सत्य का अर्थ केवल सच बोलना नहीं है। सत्य का अर्थ है, प्रामाणिक होना। सत्य का अर्थ है कि जैसा मैं भीतर हूं? वैसा ही बाहर होना, परिस्थिति की बिना फिक्र किए कि क्या होगा परिणाम। इसे थोड़ा समझ लें।

जो व्यक्ति परिणाम की चिंता करता है, वह सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि कई बार अच्छे परिणाम झूठ से आ सकते हैं। कम से कम जहां तक हमें दिखाई पड़ता है, वहां तक आ सकते हैं।

 एक आदमी को फांसी लग रही है, आप झूठ बोल दें, बच सकता है वह आदमी। झूठ बोलने से, आपके देखने में तो जहां तक मनुष्य की बुद्धि जाती है, यह परिणाम हो रहा है कि एक आदमी का जीवन बच रहा है। अगर परिणाम की आप चिंता करेंगे, तो सौ में निन्यानबे मौकों पर लगेगा कि झूठ से अच्छे परिणाम आ सकते हैं, सत्य से बुरे परिणाम आ सकते हैं।

सत्य का अर्थ है कि परिणाम की चिंता ही मत करना। जैसा हो, उसे बेशर्त, बिना आगे—पीछे देखे, वैसा ही रख देना। भविष्य को सोचना ही मत, फल को सोचना ही मत।

कृष्ण का बहुत जोर है इस बात पर कि जो फल को सोचेगा, वह भटक जाएगा। जैसा हो, वैसा उसे प्रकट कर देना, अपने को बाहर— भीतर एक—सा कर देना, अपने को उघाड़ देना, सत्य है। और वह दैवी संपदा का अनिवार्य हिस्सा है।

अक्रोध.......।

साधारणत: आप सोचते हैं कि कभी—कभी आप क्रोध करते हैं। यह बात झूठ है, यह बात बिलकुल ही झूठ है। आप चौबीस घंटे क्रोध में रहते हैं। कभी—कभी क्रोध उबलता है और कभी—कभी कुनकुना रहता है, बस। कुनकुने की वजह से पता नहीं चलता। क्योंकि उसकी आपको आदत है। उतने में तो आप जी ही रहे हैं सदा से।

आप अपने को पहचानें, निरीक्षण करें, तो आपको समझ में आएगा कि चौबीस घंटे आप में हल्का—सा क्रोध बना रहता है। कभी इस चीज के प्रति, कभी उस चीज के प्रति। कभी कोई भी कारण न हो, तो अकारण। अगर आपको चौबीस घंटे कमरे में बंद कर दिया जाए, जहां कोई कारण न दे आपको क्रोधित होने का, तो भी आप क्रोधित होंगे। तो आप इस पर ही क्रोधित होने लगेंगे कि कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई भी नहीं है! कि मैं यहां बैठा क्या कर रहा हूं! कि मुझे यहां क्यों बिठाया गया है! अकेले में क्यों छोड़ा गया है!

क्रोध आपकी दशा है। हम सब सोचते हैं कि क्रोध घटना है। इसलिए हम सोचते हैं, क्रोध कभी—कभी आता है, यह कोई ऐसी बात नहीं है कि सदा है। लेकिन क्रोध सदा है। कभी—कभी कोई चिनगारी डाल देता है, तो आपकी बारूद भभक उठती है। लेकिन बारूद सदा है। बारूद न हो, तो चिनगारी डालने से भी भभकेगी नहीं।

अक्रोध का अर्थ है, चौबीस घंटे एक शांत स्थिति। यह तभी हो सकता है, जब आप दूसरे को दोष देना बंद कर दें।

क्रोध का तर्क क्या है? क्रोध का तर्क एक ही है कि दूसरा भूल—चूक कर रहा है, दूसरा गलत कर रहा है। दूसरा ऐसा कर रहा है, जैसा उसको नहीं करना चाहिए। इससे आप भभकते हैं।

अक्रोध की भाव—दशा तब निर्मित होगी, जब आप समझेंगे कि दूसरा जो कर रहा है, वह वही कर सकता है। दूसरा उसको इससे अन्यथा करने का उपाय नहीं है। अगर एक आदमी आपको गाली दे रहा है, तो आप सोचते हैं, इसे गाली नहीं देनी चाहिए। यह आदमी गलती कर रहा है, बुरा कर रहा है। इसलिए क्रोध भभकता है।

अगर आप इस आदमी का पूरा अनंत जीवन जानते हों अतीत का, तो आप कहेंगे, यह गाली इसमें ऐसे ही लग रही है, जैसे किसी पौधे में फूल लगते हैं। वे बीज में ही छिपे थे। बढ़ते—बढ़ते—बढ़ते वृक्ष बड़ा होता है, फिर फूल आते हैं। वे फूल कड़वे होते हैं, कि सुगंधित होते हैं, कि सुंदर होते हैं, कि कुरूप होते हैं, यह बीज में ही छिपे थे।

ये गालियां इस आदमी में लग रही हैं, इसका मुझसे कुछ लेना—देना नहीं है। यह इस आदमी का स्वभाव है, यह इस आदमी के जीवन का ढंग है, यह इसकी उपलब्धि है कि गालियां बक रहा है। मैं सिर्फ बहाना हूं। अगर मैं यहां न होता, तो कोई दूसरा इसकी गाली खाता, वह भी नहीं होता, तो कोई तीसरा गाली खाता; कोई भी नहीं होता, तो यह शून्य में गाली देता, लेकिन गाली देता। यह गाली इसके कर्मों की अभिव्यक्ति है।

अक्रोध तब पैदा होगा, जब आप समझेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति में चल रहा है। आपसे कुछ लेना—देना नहीं है। आपसे रास्ते पर मिलना हो जाता है, इससे आप अकारण परेशान न हों।

कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है। तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुस—फुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है। सब अपने—अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो।

जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता, तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध।

अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक—एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं।

जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता। क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है, वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है।

और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं वह क्यों छिपायेगा कुछ! किससे छिपाना है? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या छिपाना है! किसी से कुछ लेना—देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा।

ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग—अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये अलग—अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण! अपने बस के बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं।

त्याग.......।

एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी—कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा, जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में कुछ संगीत बजने लगता है।

जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े से विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे— धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है।

त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख। और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है। छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख। और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है।

लेकिन हमें एक ही अनुभव है, इकट्ठा करने का। जैसा मैं देखता हूं। देखता हूं, जैसे—जैसे लोगों का धन बढ़ता है, वे दुखी होते जाते हैं। तब वे सोचते हैं कि शायद धन में दुख है। और तब शास्त्रों में उनको सहारा भी मिल जाता है कि धन से कोई सुख नहीं मिलता।

मेरी धारणा बिलकुल भिन्न है। धन से सुख मिल सकता है, अगर धन त्यागने की क्षमता हो। धन से दुख मिलता है, अगर पकड़े बैठे रहो। धन से कोई दुख नहीं पाता, कंजूसी से लोग दुख पाते हैं। धन क्यों दुख देगा? लेकिन धन छोड़ नहीं पाते।

और मजबूरी यह है कि जितना ज्यादा हो, उतना ही छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जिसके पास एक पैसा है, वह एक पैसा दान दे सकता है; लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपया हो, वह एक करोड़ दान नहीं दे सकता। हालांकि दोनों के दान बराबर हैं। क्योंकि एक पैसा उसकी कुल संपदा है। औसत बराबर है। एक करोड़ दूसरे की कुल संपदा है। लेकिन जिसके पास एक पैसा है, वह पूरा दान दे सकता है; जिसके पास एक करोड़ रुपया है, वह पूरा दान नहीं दे सकता।

जितना ज्यादा धन हो, उतनी ही पकड़ने की वृत्ति बढ़ती है। जितना हम पकड़ लेते हैं, उतना ही और पकड़ना चाहते हैं। फिर दुखी होते हैं। 

इस फर्क को आप ठीक से समझ लेना। धन से कोई दुखी नहीं होता। और थोड़ी अकल हो, तो धन से आदमी सुखी हो सकता है। और बेअकल आदमी हो, तो निर्धन होकर भी दुखी होता है, धनी होकर भी दुखी होता है।

निर्धन का दुख समझ में आता है। मगर मजे की बात यह है कि निर्धन का भी दुख निर्धनता का दुख नहीं है। उसका भी दुख यही है कि पकड़ने को कुछ भी नहीं है। हाथ खाली है। धनी का दुख यह है कि हाथ भर गए हैं, छोड़ने की हिम्मत नहीं है।

जो भी छोड़ने की कला सीख लेता है—त्याग उस कला का नाम है—जीवन के आनंद के द्वार उसके लिए निरंतर खुलते जाते हैं। जितना ज्यादा छोड़ सकता है, उतना ही ज्यादा हलका होता जाता है। जितना छोड़ सकता है, उतनी ही आत्मा विकसित होती है। क्योंकि जितना हम पकड़ते हैं, उतने पदार्थ हम पर इकट्ठे होते जाते हैं, उसमें हम दब जाते हैं। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे ढेर लग जाता है वस्तुओं का; हमारा कुछ पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं!

त्याग दैवी संपदा का हिस्सा है।

शांति और किसी की भी निंदादि न करना.....।

शांत होना हम भी चाहते हैं। लेकिन हम तभी शांत होना चाहते हैं, जब हम अशांत होते हैं।

जब आप पूरी तरह अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब आप अशांत नहीं हैं, तब शांत होना बहुत आसान है। और जब आप अशांत नहीं हैं, तब अगर आप शांत होना सीख लें, तो अशांत होने की कोई जरूरत ही न होगी। घर में कुआ हो, तो शायद आग लगेगी ही नहीं। लग भी जाए, तो बुझाई जा सकती है। तो आप जब अशांत हो जाएं, तब शांति की तलाश मत करें। यह तलाश ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जब बुखार आ जाए, तब आप चिकित्सक की खोज पर चले जाते हैं। अब तो चिकित्साशास्त्री भी कहते हैं कि यह ढंग गलत है, आदमी जब बीमार हो जाए, तब उसका इलाज करना, बड़ी देर कर दी।

कुछ लोग बीमारी से मरते हैं, ज्यादा लोग डाक्टरी से मरते हैं। किसी तरह बीमारी से बच गए, तो फिर डाक्टर से बचना बहुत मुश्किल है। औषधियां! फिर जहर को काटना हो, तो और जहर डालना पड़ता है। सारी औषधियां जहर हैं। फिर दो जहरों की लड़ाई आपके भीतर होती है, और आप केवल कुरुक्षेत्र हो जाते हैं। आप कुछ नहीं रह जाते फिर, दो जहर लड़ते हैं। फिर आपकी जो मट्टी पलीद उन दो जहरों के लड़ने में होती है, आप स्वस्थ भी हो जाएंगे, तो भी कभी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे। बीमारी भी चली जाएगी, तो आपको मुर्दा छोड़ जाएगी। आप मरे हुए जीएंगे।

जब आप अशांत हो जाते हैं, तब शांत होना कठिन है। लेकिन इतनी देर रुकने की जरूरत क्या है? शांति तो साधी जा सकती है। शांति को तो जीवन का उठते—बैठते, रोजमर्रा का भोजन बनाया जा सकता है।

इसको ध्यान रखें कि आपको शांत रहना है। घर लौटे हैं, तो दरवाजे पर दो क्षण रुक जाएं, क्योंकि पत्नी कुछ कहेगी। वह दिनभर से अशांत है, वह अशांति आप पर फेंकेगी। दो क्षण रुक जाएं, तैयार हो जाएं। तैयारी का मतलब यह कि मैं शांत रहूंगा, चाहे पत्नी कुछ भी कहे, मैं इसको नाटक से ज्यादा नहीं समझूंगा। दया करूंगा, क्योंकि बेचारी परेशान है।

जीवन में चारों तरफ विक्षिप्त लोग हैं, दुखी लोग हैं। वे अपने दुख और विक्षिप्तता को फेंक रहे हैं। फेंकने के सिवाय उनके पास जीने का कोई ढंग नहीं है, उपाय नहीं है। फेंकते हैं, तो थोड़ा जी लेते हैं। यह उनकी कैथार्सिस है। अगर आप उसके शिकार हो जाते हैं, अगर आप उससे उद्विग्न होते हैं, अशांत होते हैं, तो फिर आपके जीवन में शांति का स्वर कभी भी नहीं बज पाएगा।

क्योंकि चारों तरफ अशांत लोग हैं, तो आपको शांति साधनी होगी, और आपको सजग रहना होगा। चारों तरफ बीमार लोग हैं, आपको अपने चारों तरफ एक कवच निर्मित करना होगा, एक मिस्थू एक वातावरण आपके चारों तरफ, कि चाहे कोई कुछ भी फेंके, आप अपनी शांति में घिर रहेंगे। थोड़े से होश की जरूरत है। यह हो जाता है।

इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें। जब पत्नी नाराज हो रही हो, तब आप खड़े होकर देखें कि आप नाटक देख रहे हैं। इससे वह और भी नाराज होगी, यह भी ध्यान रखना। मगर तब आप और प्रसन्न होकर उसको देखना।

अगर दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति क्रोधित हो रहा हो और दूसरा नाटक की तरह देखता रहे, तो यह नाटक ज्यादा देर चल नहीं सकता। यह बढ़ेगा, उबलेगा, लेकिन फूट जाएगा, बिखर जाएगा, क्योंकि इसे बढ़ाने के लिए दोनों तरफ से सहारा चाहिए। समझदार पति—पत्नी निर्णय कर लेते हैं कि जब एक उपद्रव करेगा, तो दूसरा शांत रहेगा।

चारों तरफ विक्षिप्तता है सभी संबंधों में। और अगर आप अपने को सम्हालकर नहीं चल रहे हैं, तो इतनी विक्षिप्त दुनिया में आप शांत नहीं रह सकते। और दूसरे को जिम्मेवार मत समझें। दूसरा जिम्मेवार है नहीं; वह अपने से परेशान है। कोई आपको परेशान करना नहीं चाह रहा है; वह अपने से परेशान है। परेशानी कोई कहा फेंके! जो निकट हैं, उन्हीं पर फेंकी जाती है।

तो जो व्यक्ति बिना अशांत हुए, सारी उपद्रवों की स्थिति में एक सूत्र ध्यान रखता है कि मुझे शांत रहना है चाहे कुछ भी हो, वह थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो जाता है।

किसी की भी निंदादि न करना...।

बड़ा रस आता है किसी की निंदा करने में, क्योंकि किसी की निंदा परोक्ष में अपनी प्रशंसा है। जब भी आप कहते हैं, फला आदमी बुरा है, तो आप भीतर से यह कह रहे हैं कि मैं अच्छा हूं। जब आप सिद्ध कर देते हैं कि फलां आदमी चोर है, आपने सिद्ध कर लिया कि मैं अचोर हूं।

और अक्सर चोर दूसरों को चोर सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं, क्योंकि यही उपाय है उनके पास। अगर यहां कोई किसी की जेब काट ले, तो जेबकतरे को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए कि बहुत बुरा हुआ; चोरी नहीं होनी चाहिए; पकड़ो, किसने चोरी की! यह सबसे अच्छा उपाय है। उसको तो आप भूल ही जाएंगे कि यह आदमी चोरी कर सकता है।

जितने बुरे लोग हैं, वे दूसरे की निंदा में संलग्न हैं। वे इतना शोरगुल मचा रहे हैं दूसरे की बुराई का कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये बुरे हो सकते हैं। इसलिए साधु भी जब दूसरे की निंदा कर रहा हो, तब समझना कि साधुता खोटी है।

निंदा का एक ही प्रयोजन है, वह अपनी बुराई को छिपाना है। दूसरे की बुराई को हम जितना बड़ा करके बताते हैं, उतनी अपनी बुराई छोटी मालूम पड़ती है। अगर आपको पता चल जाए कि सब बेईमान हैं, तो आपको लगता है, फिर अपनी बेईमानी भी स्वीकार योग्य है। इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं, हम कुछ ज्यादा बुरे नहीं हैं, दूसरों से हम बेहतर हैं।

दूसरे की निंदा का इसीलिए इतना रस है। जहां भी चार आदमी मिलते हैं, बस, चर्चा का एक ही आधार है। उन चार में से भी एक चला जाएगा, तो वे तीन, जो चला गया उसकी निंदा शुरू कर देंगे। और वे तीन फिर भी नहीं सोचते कि हममें से कोई गया यहां से, कि बाकी दो हटते ही से यही काम करने वाले हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके मित्र जो आपके संबंध में पीठ पीछे कहते हैं, उस सबका आपको पता चल जाए, तो दुनिया में एक भी मित्र खोजना मुश्किल है। आपके मित्र आपकी पीठ पीछे जो कहते हैं, अगर आपके सामने कह दें, आपको पता चल जाए, तो दुनिया में मित्रता असंभव है!

लेकिन पता तो चल ही जाता है। और मित्रता सच में ही असंभव हो गई है। मित्र होना मुश्किल है। जो आदमी भी निंदा में रस लेता है, उसका इस जगत में कोई भी मित्र नहीं हो सकता। जो दूसरे को ओछा करने में, नीचा करने में, बुरा करने में शक्ति लगाता है, वह भला अपने मन में सोच रहा हो कि अपने को अच्छा सिद्ध कर रहा है, वह इस कोशिश में ही बुरा होता जा रहा है।

भले आदमी का लक्षण दूसरे में भलाई को खोजना है। और हम जितनी भलाई दूसरे में खोज लेते हैं, उतना ही हमारे भले होने के आधार निर्मित होते हैं।

सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।

जो भी शास्त्र में कहा गया है, जो भी समाज की प्रचलित व्यवस्था है, उस व्यवस्था में जहां तक दखल न बने। जब तक कि आत्मा का ही कोई सवाल न हो, जब तक आपके आत्मिक जीवन पर ही कोई आघात न पड़ता हो, तब तक समाज और शास्त्र की जो व्यवस्था है, उसको खेल का नियम मानकर चलना उचित है।

खेल के नियम का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे रास्ते पर बाएं चलो, कोई दाएं चलने में पाप नहीं है। क्योंकि कुछ मुल्कों में लोग दाएं चलते हैं, तो वहा बाएं चलना कठिन है। तो बाएं चलो या दाएं चलो, यह कोई मूल्य की बात नहीं है। लेकिन एक नियम, खेल का नियम है। बाएं चलने में सुविधा है, आपको भी, दूसरों को भी। अगर सभी लोग अपना नियम बना लें, तो रास्ते पर चलना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि कोई नियम शाश्वत नहीं, सब सापेक्ष हैं, सबकी उपयोगिता है।

इस बड़े जगत में, जहां बहुत लोग हैं, मैं अकेला नहीं हूं किसी व्यवस्था को चुपचाप मानकर चलना उचित है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह व्यवस्था कोई शाश्वत सत्य है, इसका केवल इतना अर्थ है कि हमने एक खेल का नियम तय किया है, उस नियम को हम पालन करके चलेंगे।

और ध्यान रहे, खेल नियम पर निर्भर होता है, नियम हटा कि खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग नियम है, खेल खराब हो गया।

यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है, कोई छोटा है, कोई बड़ा है; कोई पूज्य है, कोई शिष्य है, कोई गुरु है—वे सारे खेल हैं। उस खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को उलझन में डालता है।

कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं है। आप अगर बाएं को छोड्कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी क्रांति नहीं हो जाएगी, सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे।

आसुरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड्ने में रस आता है, उच्छृंखल होने में रस आता है, विद्रोह में रस आता है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार सिद्ध होता है। उसे आशा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा।

दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, हां भर देगा। खेल के नियम हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा।

और ध्यान रहे, जो छोटी—छोटी बातों में न कहता है, उसके पास न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो छोटी—छोटी बातों में हां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता।

इसलिए जिसको वस्तुत: क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड्ने में नहीं लगना चाहिए, जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो।

तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव—यें सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार—शून्यता। मैं पूज्य हूं  दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा और रक्षित होगा। मैं दूसरे को दूूं? यह कठिन है। गुरु होना एकदम आसान है, शिष्य होना बहुत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण।

इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए!

अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निरहंकार भाव की है। जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, लेकिन आपकी वह आका्ंक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, आपका समभाव होगा।

मैं मिटुं ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं मैं रहूं मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 1

दैवी संपदा का अर्जन


श्रीभगवानवाच:

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।

दानं दमश्च यज्ञश्‍च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।। 1।।


उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरूषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं :

अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धी, ज्ञान— योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तय एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।



मनुष्य एक दुविधा है, एक द्वैत। मनुष्य के पास इकहरा व्यक्तित्व नहीं है, जो भी है, बंटा हुआ और द्वंद्व में है। जैसे प्रकाश और अंधेरा साथ—साथ मनुष्य में जुड़े हों। पशु और परमात्मा मनुष्य में साथ—साथ मौजूद हैं। मनुष्य जैसे एक सीढ़ी है, एक छोर नरक में और दूसरा छोर स्वर्ग में है; और यात्रा दोनों ओर हो सकती है। और प्रत्येक के हाथ में है कि यात्रा कहां होगी, कैसे होगी, क्या अंतिम परिणाम होगा।


यात्रा के रुख को किसी भी क्षण बदला भी जा सकता है, क्योंकि सिर्फ रुख बदलने की बात है, दिशा बदलने की बात है। नरक जाने में जो शक्ति लगती है, वही शक्ति स्वर्ग जाने के लिए कारण बन जाती है। बुरे होने में जितना श्रम उठाना पड़ता है, उतने ही श्रम से भलाई भी फलित हो जाती है। शैतान होना जितना आसान या कठिन, उतना ही संत होना भी आसान या कठिन है।


और एक बात ठीक से समझ लें, एक ही ऊर्जा दोनों दिशाओं में यात्रा करती है। ऐसा मत सोचें कि बुरा आदमी तपश्चर्या नहीं करता। बुरे आदमी की भी तपश्चर्या है, उसकी भी बड़ी साधना है; उसे भी बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। शायद भले आदमी की साधना से उसकी साधना ज्यादा दुस्तर है, क्योंकि मार्ग में दोनों को कष्ट मिलते हैं। भले आदमी को अंत में आनंद भी मिलता है, जो बुरे आदमी को अंत में नहीं मिलता। मार्ग दोनों बराबर चलते हैं; भला कहीं पहुंचता है, बुरा कहीं पहुंच भी नहीं पाता।


एक अर्थ में बुरे आदमी की साधना और भी कठिन है। जितनी बड़ी बुराई हो, उतना ही ज्यादा दुख है।

ऊर्जा एक, यात्रा की लंबाई एक, समय और जीवन का व्यय एक जैसा; फिर अंतर क्या है? अंतर केवल दिशा का है। इस जगह तक आने के लिए भी आप उसी रास्ते को चुनकर आए हैं, लौटते समय भी उसी रास्ते से लौटेंगे। उतना ही फासला होगा, सिर्फ आपकी दिशा बदली होगी। यहां आते समय मुंह मेरी तरफ था, जाते समय पीठ मेरी तरफ होगी। बस, इतना ही फर्क होगा। यात्रा वही की वही है।


जिसे हम शुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ मुंह करके चलने वाली यात्रा है। जिसे हम अशुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ पीठ करके चलने वाली यात्रा है। वे ही पैर चलते हैं, वे ही प्राण चलते हैं; जरा भी यात्रा में भेद नहीं है।


और यात्रा के ये जो दो पथ हैं, ये अगर आपके बाहर होते, तो बहुत आसानी हो जाती। ये दोनों पथ आपके भीतर हैं। चलने वाले भी आप हैं, जिस रास्ते से चलेंगे, वह भी आप हैं, और जिस मंजिल पर पहुंचेंगे, वह भी आप हैं।


आपके भीतर मूर्ति को बनाने वाला, मूर्ति बनने वाला पत्थर, मूर्ति को निखारने वाली छेनी, सभी कुछ आप हैं। इसलिए दायित्व भी बहुत गहन है। और दोष किसी और को दिया नहीं जा सकता। जो भी फल होगा, सिवाय आपके अकेले के कोई और उसके लिए जिम्मेवार नहीं है।


इसके पहले कि हम कृष्ण के सूत्र में प्रवेश करें, दो—तीन बातें खयाल में ले लें।


पहली बात, जिन नरकों की चर्चा है शास्त्रों में, जिन स्वर्गों का उल्लेख है, वे दो भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। नरक भी प्रतीक है, स्वर्ग भी प्रतीक है।


शास्त्रों में भगवान और शैतान की जो चर्चा है, वे केवल आपके ही दो छोर हैं। न तो शैतान कहीं खोजने से मिलेगा और न भगवान कहीं खोजने से मिलेगा। भगवान आपसे अलग होता, तो खोजने से मिल सकता था। शैतान भी अलग होता, तो खोजने से मिल जाता। वे दोनों ही आपकी संभावनाएं हैं। चाहें तो शैतान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है; और चाहें तो भगवान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है। और जिस दिन आप शैतान हो जाएंगे, तो कोई शैतान आपको नहीं मिलेगा, आप ही अपने को मिलेंगे।


जिस दिन आप भगवान हो जाएंगे, तो भी कोई साक्षात्कार नहीं समग्रता से ही डूबना जरूरी है। जब तक कोई ऐसा न घुल जाए कि गए होंगे।


शैतान और भगवान आपकी संभावनाएं हैं। और जो बुरे से बुरा आदमी है, उसके भीतर परमात्मा की संभावना उतनी ही सतेज है, जितनी भले से भले आदमी के भीतर शैतान होने की संभावना है। परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है। विपरीत भी सही है, परम असाधु के लिए क्षणभर में क्रांति घटित हो सकती है। क्योंकि दोनों बातें दूर नहीं हैं, हमारे भीतर मौजूद हैं।


जैसे हमारे दो हाथ हैं और जैसे हमारी दो आंखें हैं, ऐसे ही हमारे दो यात्रा—पथ हैं। और उन दोनों के बीच हम हैं, हमारा फैलाव है। दूसरी बात, शास्त्र को समझते समय ध्यान रखना जरूरी है कि शास्त्र कोई विज्ञान नहीं है, शास्त्र तो काव्य है। वहां गणित नहीं है, वहा प्रतीक हैं, उपमाएं हैं। और अगर आप गणित की तरह शास्त्र को पकड़ लेंगे, तो आति होगी, भटकेंगे। काव्य की तरह समझने की कोशिश करें।


इसलिए इस ग्रंथ को श्रीमद्भगवद्गीता कहा है। यह एक गीत है भगवान का, यह एक काव्य है। टीकाकारों ने उसे विज्ञान समझकर टीकाएं की हैं।


कविता और विज्ञान में कुछ बुनियादी फर्क है। विज्ञान में तथ्यों की चर्चा होती है, शब्द बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते; शब्द के पीछे तथ्य महत्वपूर्ण होता है। काव्य में तथ्यों की चर्चा नहीं होती; काव्य में अनुभूतियों की चर्चा होती है। अनुभूतियां हाथ में पकड़ी नहीं जा सकतीं, तराजू पर तौली नहीं जा सकतीं, कसौटी पर कसी नहीं जा सकतीं।


विज्ञान के तथ्य तो प्रयोगशाला में पकड़े जा सकते हैं। कोई कहे, आग जलाती है, तो हाथ डालकर देखा जा सकता है। लेकिन प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है; क्या करें? इस तथ्य को कैसे पकड़े? प्रार्थना को हाथ में पकड़ने का उपाय नहीं, जांचने का उपाय नहीं, कोई कसौटी नहीं।


लेकिन प्रार्थना है। प्रार्थना काव्य का सत्य है, अनुभूति का सत्य है। अनुभूति के सत्य के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।


एक, जब तक आपको अनुभव न हो, तब तक बात हवा में रहेगी; तब तक कोई लाख सिर पटके और समझाए, आपकी समझ में आएगी नहीं। स्वाद मिले, तो ही कुछ बने; और स्वाद अकेली बुद्धि की बात नहीं है। स्वाद के लिए तो हृदय से, वरन अपनी प्रार्थना न हो जाएं, तब तक प्रार्थना समझ में न आएगी।


प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है कि आपने कर लिया और मुक्त हुए। प्रार्थना तो एक जीवन की शैली है। एक बार जो प्रार्थना में गया, वह गया; फिर लौटने का कोई मार्ग नहीं है। और गहरे तो जाना हो सकता है, लौटने की कोई सुविधा नहीं है।


और जिस दिन प्रार्थना पूरी होगी, जिस दिन भक्ति परिपूर्ण होगी, उस दिन आप भक्त नहीं होंगे, आप भक्ति होंगे। उस दिन आप प्रार्थी नहीं होंगे, आप प्रार्थना ही होंगे। उस दिन आप ध्यानी नहीं होंगे, आप ध्यान हो गए होंगे। उस दिन आपको योगी कहने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि योग कोई किया नहीं है, आप योग हो गए होंगे। योग एक अनुभव है। और अनुभव ऐसा, जहां अनुभोक्ता खो जाता है और एक हो जाता है।


गीता काव्य है। इसलिए एक—एक शब्द को, जैसे काव्य को हम समझते हैं वैसे समझना होगा। कठोरता से नहीं, काट—पीट से नहीं, बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से। एक दुश्मन की तरह नहीं, एक प्रेमी की तरह। तो ही रहस्य खुलेगा और तो ही आप उस रहस्य के साथ आत्मसात हो पाएंगे।


जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों के पीछे बड़े लंबे अनुभव का रहस्य है। प्रतीक को आप याद कर ले सकते हैं, गीता कंठस्थ हो सकती है। पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए। जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता न रह जाएं, गीता कृष्ण का वचन न रहे, बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं और जो बोला जा रहा है, वह मेरी अंतर—अनुभूति की ध्वनि है; वह मैं ही हूं वह मेरा ही फैलाव है। तब तक गीता पराई रहेगी, तब तक दूरी रहेगी, द्वैत बना रहेगा। और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते हैं, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। अब इस सूत्र को समझने की कोशिश करें।


उसके उपरात श्रीकृष्ण फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं।

दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं : अभय, अंतःकरण की अच्छे प्रकार से शुद्धि, ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यश, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।


कृष्ण दो संपदाओं की बात करते हैं, दो तरह के धन मनुष्य के पास हैं। धन का, संपदा का अर्थ होता है, शक्ति। धन का अर्थ होता है, जिसे हम उपयोग में ला सकें, जिससे हम कुछ खरीद सकें, जिससे हम कुछ पा सकें। धन का अर्थ है, विनिमय. का माध्यम, मीडियम आफ एक्सचेंज।


आपके खीसे में एक नोट पडा है। नोट एक प्रतीक है। नोट को न तो आप खा सकते हैं, न पी सकते हैं। लेकिन नोट से विनिमय हो सकता है। नोट से खाने की चीज खरीदी जा सकती है, पीने की चीज खरीदी जा सकती है। नोट भोजन बन सकता है, नोट जहर बन सकता है। नोट से कुछ खरीदा जा सकता है। नोट एक शक्ति है विनिमय की।


कृष्ण कहते हैं, मनुष्य के पास दो तरह की संपदाएं हैं, विनिमय के दो माध्यम हैं। एक से आदमी खरीद सकता है और शैतान हो सकता है। और एक से आदमी खरीद सकता है और परमात्मा हो सकता है।

और जब तक उन दोनों संपदाओं को हम ठीक से न समझ लें, तब तक बड़ी आति रहेगी। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है, जिस संपदा से केवल शैतान खरीदा जा सकता है, उससे हम परमात्मा को खरीदने निकल पड़ते हैं। तब हम धोखा खाएंगे। तब जो भी हम खरीदकर लाएंगे, वह शैतान ही होगा।


जैसे, जिस धन से हम संसार में सब कुछ खरीदते—बेचते हैं, उसी धन से हम धर्म को भी खरीदने चल पड़ते हैं। तो कोई सोचता है, एक बड़ा मंदिर बनाए, धर्मशाला बनाए, दान कर दे, तो धर्म उपलब्ध हो जाएगा।


लेकिन संसार जिससे खरीदा जाता है, उससे अध्यात्म के खरीदने का कोई उपाय नहीं। उनके मार्ग ही अलग हैं, बाजार अलग हैं। जो धन संसार में चलता है, वह धन अध्यात्म में नहीं चलता; उस जगत से उसका कोई संबंध नहीं है।


कृष्ण कहते हैं, दो संपदाएं हैं। एक को वे कहते हैं, आसुरी संपदा; और एक को वे कहते हैं, दैवी संपदा। दैवी संपदा से अर्थ है, जिससे दिव्यता खरीदी जा सके।


तो ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि मैं जिस संपदा का उपयोग कर रहा हूं , उससे दिव्यता खरीदी भी जा सकती है? नहीं तो मैं श्रम भी करूंगा, भटकूंगा भी, समय भी व्यय होगा और कहीं पहुंचूंगा भी नहीं।

इन दोनों का विभाजन बहुत जरूरी है। बहुत बार आप आसुरी संपदा से दिव्यता को खरीदने निकलते हैं। और न केवल आपको भ्रांति हो सकती है, आपको देखने वालों तक को भ्रांति हो सकती है।


इधर मेरा अनुभव है कि अगर कोई क्रोधी व्यक्ति है, तो उसके क्रोध का उपयोग बडी शीघ्रता से साधना में किया जा सकता है। क्रोधी व्यक्ति जल्दी से साधक हो जाता है। क्योंकि क्रोध का लक्षण है, नष्ट करना, तोडना, कब्जा करना, मालकियत जमाना। क्रोध दूसरे पर निकलता है, अपने पर भी निकल सकता है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप दूसरे का सिर तोड़ सकते हैं, अपना सिर भी दीवार में मार सकते हैं। क्रोधी व्यक्ति खुद को सताने में लग जाता है। उसे वह साधना समझता है।


तो कांटो पर सोए हुए लोग हैं, धूप में खड़े हुए लोग हैं; उपवास करके भूख से मरते हुए लोग हैं। और आपको भी लगेगा कि बड़ी तपश्चर्या हो रही है। तपश्चर्या निश्चित हो रही है, लेकिन जानना जरूरी है कि तपश्चर्या के पीछे संपदा कौन—सी है? नहीं तो हम जानते हैं दुर्वासा और उस तरह के ऋषियों को। उनकी तपश्चर्या बड़ी थी, फिर भी तपश्चर्या की मौलिक संपदा आसुरी रही होगी। तप के पीछे जो अग्नि है, वह आसुरी रही होगी। इसलिए तप अभिशाप बन गया, तप हिंसा बन गया।


अक्सर दिखाई पड़ेगा तपस्वी की आंखों में एक तरह का अहंकार। तपस्वी में एक तरह की अकड़, न झुकने का भाव, स्वयं को कुछ समझने की वृत्ति। तप तो विनम्र करेगा, तप तो मिटा देगा, तप तो सारी अकड़ को जला देगा। लेकिन दिखाई पड़ता है कि तपस्वी की अकड़ बढ़ती है, तो निश्चित ही संपदा आसुरी उपयोग की जा रही है।


एक आदमी धन इकट्ठा करता है, तो पागल की तरह इकट्ठा करता है, जैसे जीवन बस धन इकट्ठा करने को है। फिर यह भी हो सकता है कि धन के इस लोभी को किसी दिन त्याग का खयाल आ जाए। त्याग के खयाल का एक ही अर्थ होगा कि इसको त्याग का लोभ पकड़ जाए। यह कहीं शास्त्र में पढ़ ले, किसी गुरु से सुन ले कि जब तक धन न छोड़ेगा तब तक स्वर्ग न मिलेगा। तो यह सौदा कर सकता है, यह धन छोड़ सकता है। लेकिन छोड़ेगा लोभ के कारण ही।

तो यह सारे धन को लात मारकर सडक पर नग्न भिखारी की तरह खडा हो जाए, लेकिन अगर धन इसने लोभ के लिए छोड़ा है, स्वर्ग पाने को छोड़ा है, तो जिस संपदा का यह उपयोग कर रहा है, वह आसुरी है। आसुरी संपदा से स्वर्ग का कोई संबंध नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि आपकी अच्छी से अच्छी चर्या के पीछे भी आसुरी संपदा हो सकती है, तो सब विकृत हो जाएगा। तो आप महल तो बनाएंगे, लेकिन रेत पर उसकी नींव होगी। और वह महल गिरेगा और आपको भी गिराएगा और डुबाएगा।

मेरा निरंतर अनुभव है कि गलत तरह का आदमी बड़ी शीघ्रता से अच्छे काम करने में लग सकता है। जो पागलपन गलत के करने में था, वही अच्छे में लग सकता है। लेकिन उसकी मौलिक संपदा नहीं बदलती। उसका क्रोध, उसका लोभ, उसका मान नहीं बदलता, नया नियोजन हो जाता है। मौलिक स्वर पुराना ही रहता है।


इसलिए इसके पहले कि साधक यात्रा पर निकले, उसे ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। स्पष्ट विभाजन भीतर साफ हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। क्योंकि गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। अकेली आपकी मरजी काफी नहीं है, आकांक्षा काफी नहीं है, प्रार्थना काफी नहीं है, ठीक साधन ही ठीक साध्य तक पहुंचाएगा। और ठीक साधन का अर्थ है, दैवी संपदा का उपयोग।


दोनों संपदाएं प्रत्येक के पास हैं। उन्हें कमाना नहीं पड़ता, उन्हें हम लेकर ही पैदा होते हैं। जन्म के साथ ही हम दोनों संपदाएं लेकर पैदा होते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति बराबर लेकर पैदा होता है। उस अर्थ में बिलकुल साम्यवाद है, उस अर्थ में जरा भी भेद नहीं है। गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, बुद्धिमान या मूढ़, बराबर लेकर पैदा होते हैं। प्रकृति सबको समान देती है। और अगर इस जगत में इतने भेद दिखाई पड़ते हैं, तो हम उनका कैसा उपयोग करते हैं, इस पर निर्भर करते हैं।


अगर इस जगत में साधु दिखाई पड़ता है और दुष्ट दिखाई पड़ता है, तो प्रकृति किसी को साधु नहीं बनाती और दुष्ट नहीं बनाती। परमात्मा बिलकुल कोरा चेक ही आपको देता है, उस पर कुछ आंकड़े लिखे नहीं होते। लिखना हम करते हैं; और जो हम लिखते हैं, वह हम बन जाते हैं।


ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति बराबर संपदा लेकर पैदा होता है और दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं। बच्चे के भोलेपन का राज यही है कि वह दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। बराबर होने के कारण न तो वह साधु होता है, न असाधु होता है। दोनों संतुलित होती हैं। इसलिए बच्चा भोला होता है।


बच्चे के भोलेपन में और साधु के भोलेपन में बड़ा फर्क है। बच्चे का भोलापन अज्ञान से भरा हुआ है, साधु का भोलापन ज्ञान से भरा हुआ है। साधु का भोलापन दैवी संपदा का पूरा उपयोग है। बच्चे का भोलापन अनुपयोग है, अभी उसने कुछ उपयोग किया नहीं, अभी स्लेट खाली है। पर दोनों अक्षर लिखे जा सकते हैं, दोनों की क्षमता लेकर वह पैदा हुआ है।


इसलिए परम साधु की आंखें बच्चों जैसी हो जाती हैं। एक पुनर्जन्म हो जाता है। फिर से सब सरल हो जाता है। लेकिन यह सरलता बड़ी गहरी है, बच्चे की सरलता बड़ी उथली है।


बच्चे की सरलता दो विपरीत शक्तियों का संतुलन है, दोनों बराबर मात्रा में हैं और अभी यात्रा नहीं हुई है। जल्दी ही यात्रा शुरू होगी, और बच्चा एक तरफ झुकना शुरू हो जाएगा। जैसे—जैसे झुकेगा, वैसे—वैसे जटिलता बढ़ेगी। जैसे—जैसे झुकेगा, वैसे—वैसे भीतर कलह स्वभावत: टूटेगा, निर्मित होगा, दो हिस्से होने शुरू हो जाएंगे। और जो भी फिर बच्चा करेगा, दो आवाजें होंगी। चोरी करेगा, तो दो आवाजें होंगी; किसी को दान देगा, तो दो आवाजें होंगी। दोनों संपदाएं पुकारेंगी।


हर क्षण, जब भी आप कुछ निर्णय लेते हैं, दोनों शक्तियां आवाज देती हैं, कि मेरी तरफ। चोरी करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, बुरा है; मत करो। और प्रार्थना करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो! इतनी देर में कुछ कमा लेते! अच्छा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। बुरा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। भीतर दो आवाजें हैं।


बच्चे की दोनों आवाजें अभी शांत हैं। अभी बच्चे ने चुनाव नहीं किया है। इसलिए बच्चा निर्दोष है। लेकिन यह निर्दोषता टिकेगी नहीं; टूटेगी ही। क्योंकि आज नहीं कल ये आवाजें उठेंगी। आज नहीं कल बच्चा संसार में जाएगा, विकल्प खड़े होंगे, चुनाव करना पड़ेगा। इसलिए बच्चा तो विकृत होगा।


साधु या परम साधु का अर्थ यह है कि वह सारी विकृतियों को पार करके संतुलन को उपलब्ध हुआ है। यह संतुलन किसी अज्ञान के कारण नहीं है; यह संतुलन परिपूर्ण जानकारी और परिपूर्ण होश में साधा गया है।


बच्चा भोला है, बिना अपने कारण। यह भोलापन कोई उपलब्धि नहीं है। इसलिए सभी बच्चे भोले हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि सभी बच्चे प्यारे लगते हैं; कुरूप बच्चा वस्तुत: होता ही नहीं। जो भी बच्चा है, प्यारा लगता है।


लेकिन सारे प्यारे बच्चे फिर कहां खो जाते हैं! मुश्किल से कोई सुंदर आदमी बाद में बचता है। सभी बच्चे सुंदर पैदा होते हैं; बच्चों को देखकर सभी को सौंदर्य का भाव होता है। लेकिन फिर यही सारे बच्चे बड़े होते हैं, फिर बड़ी कुरूपता प्रकट होती है। शायद ही कभी कोई बच पाता है, जो बाद में भी सुंदर होता है। कहा खो जाती हैं सारी बातें?


बच्चे का सौंदर्य भी उसी संतुलन के कारण था। जैसे ही चुनाव हुआ, सौंदर्य खोना शुरू हो जाता है।

फिर परम संत को एक सौंदर्य उपलब्ध होता है, जिसके खोने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि वह उपलब्धि है, वह स्वयं पाई गई बात है। वह प्रकृति का दान नहीं, अपनी अर्जित क्षमता है। और जो आपने कमाया है, वही केवल आपका है; जो आपको मिला है, वह आपका नहीं है।


ये दोनों संपदाएं बराबर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर हैं।

उसके उपरांत कृष्ण बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं।

लक्षण इसीलिए ताकि आप पहचान सकें, ताकि अर्जुन पहचान सके। और यह पहचान अत्यंत बुनियादी है।


दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण : अभय, फियरलेसनेस। अभय शब्द सुनते ही हमें जो खयाल उठता है, वह उठता है निर्भयता का। लेकिन अभय निर्भयता नहीं है, क्योंकि निर्भय तो आसुरी संपदा वाले लोग भी होते हैं; अक्सर ज्यादा निर्भय होते हैं। अपराधी हैं, निर्भय हैं, नहीं तो अपराध करना मुश्किल था। और एक दफा जेल से लौटते हैं, तो भी भयभीत नहीं होते; दुबारा और तैयारी करके अपराध में उतरते हैं।


मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कारागृह से तो किसी अपराधी को कभी ठीक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उसकी निर्भयता और बढ़ती है। उसने यह भी देख लिया, वह इससे भी गुजर गया; यह तकलीफ भी बहुत ज्यादा नहीं है। यह भी सही जा सकती है। इसलिए जो आदमी एक बार कारागृह जाता है, वह फिर बार—बार जाता है। दुनिया में जितने कारागृह बढ़ते हैं, उतने अपराधी बढ़ते चले जाते हैं। जितनी ज्यादा हम सजा देते हैं, उतना अपराधी निर्भय होता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।


बहुत—से लोग इसीलिए अपराधी नहीं हैं, क्योंकि उनमें निर्भयता की कमी है; और कोई कारण नहीं है। अपराध तो वे भी करना चाहते हैं; भयभीत हैं। चोरी आप भी करना चाहते हैं, लेकिन भय पकड़ता है। चोरी के लोभ से ज्यादा चोरी का जो परिणाम हो सकता है—कारागृह हो सकता है, बदनामी होगी, प्रतिष्ठा खो जाएगी, पकड़े जाएंगे—वह भय ज्यादा मजबूत है। लोभ से भय बड़ा है; वही आप पर अंकुश है। हत्या आप भी करना चाहते हैं, कई बार मन में सोचते हैं, सपने देखते हैं; कई बार तो हत्या मन में कर ही देते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जीवन में दो—चार बार मन में किसी की हत्या न कर दी हो।


मनसविद कहते हैं कि हर आदमी अपने लंबे जीवन में, अगर वह सौ साल जीए तो कम से कम दस बार खुद की आत्महत्या करने का विचार करता है, औसत। करते नहीं हैं आप, उसका कारण यह नहीं है कि आप करना नहीं चाहते हैं। उसका कारण सिर्फ इतना है कि उतना निर्भय भाव नहीं जुटा पाते हैं। भय पकड़े रहता है।


करना आप भी वही चाहते हैं, जो अपराधी करता है, लेकिन फर्क शायद निर्भयता का है।


कृष्ण अभय को दैवी संपदा का पहला लक्षण गिनाते हैं। और सिर्फ कृष्ण नहीं, महावीर भी अभय को बुनियादी आधार बनाते हैं; बुद्ध भी। महावीर ने कहा है कि अहिंसक तो कोई हो ही नहीं सकता, जब तक अभय न हो, क्योंकि भय से हिंसा पैदा होती है। लेकिन ध्यान रहे, हिंसक निर्भय हो सकता है, होता है। आखिर युद्ध के मैदान में जाता हुआ सिपाही निर्भय तो होता ही है, लेकिन हिंसक होता है। और महावीर कहते हैं, अभय का अंतिम परिणाम अहिंसा है। तो हमें निर्भयता और अभय में थोड़ा फर्क समझ लेना चाहिए।


निर्भय का अर्थ है, जिसके भीतर भय तो है, लेकिन उस भय से जो भयभीत नहीं होता और टिका रहता है। कायर वह है, उसके भीतर भी भय है, लेकिन वह भय से प्रभावित होकर भाग खड़ा होता है। कायर में और बहादुर में फर्क भय का नहीं है, भय दोनों में है। बहादुर भय के बावजूद भी खड़ा रहता है। कायर भय के पकड़ते ही भाग खड़ा होता है। भय दोनों के भीतर है, लेकिन कायर भय को स्वीकार कर लेता है और जिसको हम बहादुर कहते हैं, वह अस्वीकार करता है। लेकिन भय भीतर मौजूद है।


निर्भयता का अर्थ है, भय तो भीतर है, लेकिन हम उसे स्वीकार नहीं करते, हम उसके विपरीत खड़े हैं। अभय का अर्थ है, जिसके भीतर भय नहीं। इसलिए अभय को उपलब्ध व्यक्ति न तो कायर होता है और न बहादुर होता है, वह दोनों नहीं हो सकता। दोनों के लिए भय का होना एकदम जरूरी है। भय हो, तो आप कायर हो सकते हैं या बहादुर हो सकते हैं। भय न हो, तो आप अभय को उपलब्ध होते हैं।

अभय को कृष्ण कहते हैं पहला लक्षण दैवी संपदा का। क्यों? अगर अभय दैवी संपदा का पहला लक्षण है, तो भय आसुरी संपदा का पहला लक्षण हो गया।

भय किस बात का है? और जब आप निर्भयता भी दिखाते हैं, तो किस बात की दिखाते हैं? थोड़ा—सा ही सोचेंगे तो पता चल जाएगा कि मृत्यु का भय है। बहाना कोई भी हो, ऊपर से कुछ भी हो, लेकिन भीतर मृत्यु का भय है। मैं मिट न जाऊं, मैं समाप्त न हो जाऊं। दूसरी चीजों में भी, जिनमें मृत्यु प्रत्यक्ष नहीं है, वहा भी गहरे में मृत्यु ही होती है।


आपका धन कोई छीन ले, तो भय पकड़ता है। मकान जल जाए, तो भय पकड़ता है। पद छिन जाए, तो भय पकड़ता है। लेकिन वह भय भी मृत्यु के कारण है; क्योंकि पद के कारण जीवित होने में सुविधा थी; पद सहारा था। धन पास में था, तो सुरक्षा थी। धन पास में नहीं, तो असुरक्षा हो गई। मकान था, तो साया था; मकान जल गया, तो खुले आकाश के नीचे खडे हो गए।


जिन—जिन चीजों के छिनने से भय होता है, उन—उन चीजों के छिनने से मौत करीब मालूम पड़ती है। और जिन—जिन चीजों को हम पकड़ रखना चाहते हैं, वे वे ही चीजें हैं, जिनके कारण मौत और हमारे बीच में परदा हो जाता है। धन का ढेर लगा हो, तो हमारी आंखों में धन दिखाई पड़ता है, मौत उस पार छूट जाती है।


प्रतिष्ठा हो, पद हो, तो शक्ति होती है पास में, हम लड़ सकते हैं। बीमारी आए, मौत आए, तो कुछ उपाय किया जा सकता है। पास कुछ भी न ले, तो कोई उपाय नहीं है, हम असुरक्षित मौत के हाथ में पड़ जाते हैं।


भय तो मृत्यु का है, सभी भय मृत्यु से उदभूत होता है। इसलिए उसको हम बहादुर कहते हैं, जो मौत के सामने भी अकड़कर खड़ा रहता है। कोई बंदूक लेकर आपकी छाती पर खड़ा हो, भाग खड़े हुए, तो लोग कायर कहते हैं; पीठ दिखा दी!


पश्चिम में युवकों का आंदोलन है, हिप्पी। हिप्पी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। हिप्पी शब्द का वही मतलब होता है, जो रणछोड़दास का होता है, जिसने हिप दिखा दिया, जिसने पीठ दिखा दी, जो भाग खड़ा हुआ। जो युवक हिप्पी कहे जा रहे हैं पश्चिम में, लेकिन उनका फलसफा है, उनका एक दर्शन है। वे कहते हैं, लड़ना फिजूल है। और लड़ना किसलिए? और लड़ने से मिलता क्या है? इसलिए पीठ दिखाई है जान—बूझकर।


ये जो बहादुर और कायर हैं, इन दोनों की समस्या एक है। कायर पीठ दिखाकर भाग जाता है। बहादुर पीठ नहीं दिखाता, खड़ा रहता है, चाहे मिट जाए। लेकिन दोनों के भीतर भय है।


अभय उस व्यक्ति को हम कहेंगे, जिसके भीतर भय नहीं है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब मृत्यु के संबंध में हमारी समस्या हल हो गई हो। जब हमें किसी भांति यह प्रतीति हो गई हो कि मृत्यु है ही नहीं; जब हमने किसी अनुभव से यह रस पहचान लिया हो कि भीतर अमृत छिपा है, कि मैं मरणधर्मा नहीं हूं।

आत्मभाव जगा हो, तो अभय पैदा होगा। इसलिए अभय आत्मा का नाम है। जिसने आत्मा को जरा—सा भी पहचाना, उसके जीवन में अभय हो जाएगा।

इसे कृष्ण पहला आधार बना देते हैं। क्यों? सत्य की यात्रा पर, ब्रह्म की यात्रा पर, दिव्यता के आरोहण में अभय पहला आधार क्यों?


अभय की संभावना बनती है, अमृत की थोड़ी—सी प्रतीति हो तो। और अमृत की प्रतीति हो, तो आदमी छलांग ले सकता है ब्रह्म में; नहीं तो छलांग नहीं ले सकता। अगर भीतर डर समाया हो कि मैं मिट तो न जाऊंगा, तो ब्रह्म तो मृत्यु से भी ज्यादा भयानक है। क्योंकि मृत्यु में तो शायद शरीर ही मिटता होगा, आत्मा बच जाती होगी। ब्रह्म में आत्मा भी नहीं बचेगी। महामृत्यु है। उस विराट में तो मैं ऐसे खो जाऊंगा, जैसे बूंद सागर में खो जाती है, कोई नाम—रूप नहीं बचेगा।


तो जिसको हम मृत्यु कहते हैं, यह तो अधूरी मृत्यु है। आत्मा बच जाएगी, नए शरीर ग्रहण करेगी, नई यात्राओं पर निकलेगी। लेकिन जो व्यक्ति ब्रह्म—ज्ञान को उपलब्ध हुआ, फिर उसकी कोई यात्रा नहीं है, फिर वह महाशून्य में खो गया। इसलिए हम कहते हैं, परम ज्ञानी वापस नहीं आता।



कृष्ण अभय को पहला आधार बनाते हैं दैवी संपदा का। क्योंकि दिव्यता में जिसे भी प्रवेश करना हो, उसे अपने को पूरी तरह मिटाने का साहस चाहिए। कौन अपने को पूरा मिटा सकता है? वही जिसको पूरा भरोसा है कि मिटने का कोई उपाय नहीं। यह बात विपरीत मालूम पड़ेगी, विरोधाभासी लगेगी।

वही व्यक्ति अपने को मिटा सकता है, जिसे भरोसा है कि मिटने का कोई उपाय नहीं है; वह सहजता से छलांग ले सकता है। वह अग्नि में उतर सकता है, क्योंकि वह जानता है कि अग्नि जलाएगी नहीं। वह शस्त्रों से छिद सकता है, क्योंकि वह जानता है कि शस्त्र छेदेंगे नहीं। इस आस्था पर ही अभय विकसित होगा।


अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धि।


अंतःकरण के साथ बड़ी भ्रांतियां जुड़ी हैं। समाज ने अंतःकरण का बड़ा उपयोग किया है। समाज की पूरी धारणा ही अंतःकरण के शोषण पर निर्भर है। समाज सिखा देता है बचपन से ही हर बच्चे को, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। और इस बात को इतने जोर से स्थापित करता है, हृदय में इस बात को इतनी बार पुनरुक्त किया जाता है कि कंडीशनिंग, संस्कारबद्ध धारणा बैठ जाती है। फिर जब भी आप उसके विपरीत जाने लगते हैं, कि समाज का सिखाया हुआ अंतःकरण फौरन विरोध खड़ा करता है। 


इसलिए हर समाज के पास अलग—अलग तरह के अंतःकरण हैं। अगर आप एक शाकाहारी घर में पैदा हुए हैं, तो उस घर ने आपको शाकाहारी का अंतःकरण दिया। अगर मांस आपके सामने आ जाए, तो आप सिर्फ ग्लानि से भरेंगे। आपकी जीभ से पानी और रस नहीं बहेगा, सिर्फ ग्लानि; वमन हो सकता है, उल्टी आ सकती है।


यही मांस किसी दूसरे के सामने, जो मांसाहारी घर में पैदा हुआ है, बड़े स्वाद को जगा सकता है। इसी मांस को देखकर उसकी सोई हुई भूख जग सकती है; भूख न भी हो, तो भी भूख लग सकती है। एक दूसरे शाकाहारी घर में पैदा व्यक्ति को इसी मांस को देखकर बड़ी जुगुप्सा, बड़ी घृणा पैदा होती है।


निश्चित ही, यह अंतःकरण असली अंतःकरण नहीं है। यह अंतःकरण सिखाया हुआ, शिक्षित अंतःकरण है। यह समाज ने उपयोग किया हुआ है। गलत और सही का सवाल नहीं है। समाज को एक बात समझ में आ गई है कि अगर व्यक्तियों को नियंत्रण में रखना हो, व्यवस्था में रखना हो, तो इसके पहले कि उनका वास्तविक अंतःकरण बोलना शुरू हो, हमें जो—जो धारणाएं डालनी हों, उनमें डाल देनी चाहिए।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक आपका आधा मस्तिष्क निर्मित हो जाता है। आधा, पचास प्रतिशत, सात वर्ष में! फिर पूरी जिंदगी में शेष पचास प्रतिशत निर्मित होता है। और यह जो पचास प्रतिशत सात वर्ष में निर्मित होता है, यह आधार है। इसके विपरीत जाना कठिन है। फिर पूरी जिंदगी इसके अनुकूल ही ले जाना आसान है। और अगर इसके विपरीत आप ले गए, तो बड़ी दुविधा और बड़ी कलह में जिंदगी बीतेगी।


इसलिए सभी तथाकथित धार्मिक संप्रदाय बच्चों का शीघ्रता से शोषण करने को उत्सुक होते हैं। जो धर्म भी अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा नहीं देता, फिर बाद में आशा नहीं रख सकता। सात वर्ष के पहले ही धारणाएं प्रविष्ट हो जानी चाहिए। धारणाएं मजबूत भीतर बैठ जाएं, तो वास्तविक अंतःकरण की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ती; समाज के द्वारा दिया गया अंतःकरण ही बीच में बोलता रहता है।


कृष्ण जब कहते हैं, अंतःकरण की अच्छे प्रकार से शुद्धि, तो वे यही कह रहे हैं कि समाज ने जो धारणाएं दी हैं, उनसे जब तक छुटकारा न हो अंतःकरण का, तब तक वास्तविक आपकी आत्मा बोल न पाएगी। हिंदू बोल सकता है भीतर से, मुसलमान बोलेगा, जैन बोलेगा, ईसाई बोलेगा, आस्तिक—नास्तिक बोलेगा। लेकिन आप जो लेकर पैदा हुए हैं, वह जो दैवी स्वर आपके भीतर है, वह छिपा रहेगा। उसके प्रकट होने के लिए अंतःकरण की सारी परतें अलग हो जानी चाहिए।


क्यों कृष्ण अर्जुन से ऐसा कह रहे हैं? क्योंकि अर्जुन जो ज्ञान की बातें कर रहा है, वे उसके अंतःकरण से नहीं आ रही हैं; वे सामाजिक धारणाएं हैं। वह कह रहा है, ये मेरे गुरु हैं, तो जिस गुरु के मैंने चरण छुए, उसकी मैं हत्या कैसे करूं! कि ये मेरे सगे भाई हैं, कि मेरे बंधु—बांधव हैं, ये मेरे मित्र, प्रियजन हैं। ये जो उस तरफ खड़े हैं युद्ध में, इसमें अनेक मेरे संबंधियों के संबंधी या संबंधी हैं। भीष्म पितामह उस तरफ हैं, वे मेरे आदर योग्य हैं। इन सबके साथ मैं कैसे युद्ध करूं? ये मेरे अपने हैं, ये सगे—संबंधी हैं।


कौन आपका अपना है?


जीसस एक भीड़ में खड़े थे। और उन्होंने एक बड़ा कठोर वचन उपयोग किया है, जिसकी निरंतर आलोचना की गई है। क्योंकि जीसस जैसे व्यक्ति से ऐसे शब्द की आशा नहीं थी। किसी ने भीड में आवाज दी कि जीसस, तुम्हारी मां मरियम तुमसे मिलने बाहर आई है। तो जीसस ने कहा, मेरी न कोई मां है, न मेरा कोई पिता है।


कठोर वचन है। और जीसस जैसे अत्यंत करुणावान, महा करुणावान व्यक्ति से ऐसी बात की आशा नहीं है। निश्चित ही, उनका प्रयोजन कुछ भिन्न है।

जीसस यह कह रहे हैं कि कौन मां है! कौन पिता है! जहां तक शुद्ध अंतःकरण का सवाल है, न कोई पिता है, न कोई माता है। न कोई भाई है, न कोई बंधु है। जहां तक समाज के द्वारा दिए गए अंतःकरण का संबंध है, मां है, पिता है, भाई—बंधु हैं। ये सब सिखावन हैं, से सब संस्कार हैं।


अर्जुन कह रहा है, यह बुरा है। और कृष्ण यह कह रहे हैं कि यह तेरे अंतःकरण की आवाज नहीं; तुझे जो—जो बुरा बताया गया है, उसे—उसे तू बुरा कह रहा है। यह तेरी अपनी प्रतीति नहीं है, तेरी अंतःप्रज्ञा नहीं है, तेरा बोध नहीं है। यह तू नहीं कह रहा है, तेरे भीतर से समाज की धारणाएं बोल रही हैं।


और जब तक समाज की धारणाओं को हम हटा न सकें, तब तक शुद्ध अंतःकरण का कोई पता नहीं चलता। शुद्ध अंतःकरण का मतलब यह नहीं है कि भले आदमी का अंतःकरण। क्योंकि जिसको हम भला आदमी कहते हैं, वह तो समाज की ही मान्यताओं को मानकर चलने वाला आदमी है; उसको हम भला कहते हैं। बुरा हम उसको कहते हैं, जो समाज की मान्यताएं नहीं मानता।


मगर यह धारणा रोज बदल जाती है। क्योंकि जीसस जिस जमाने में पैदा हुए, लोगों ने उन्हें बुरा कहा, क्योंकि जिस यहूदी समाज में वे पैदा हुए, उसकी मान्यताएं उन्होंने नहीं मानी। तो जीसस को लोगों ने आवारा, उपद्रवी, अपराधी समझा, इसलिए यहूदियों ने जीसस को सूली लगाई। सूली लगाते वक्त उन्होंने खयाल रखा कि जीसस को अपराधियों के साथ सूली लगाई जाए। तो दोनों तरफ दो चोरों को सूली पर लटकाया, बीच में जीसस को, ताकि समाज समझ ले कि एक अपराधी की तरह हम जीसस को सजा दे रहे हैं। इस आदमी ने समाज की धारणाओं का विरोध किया, यह बुरा आदमी है।


लेकिन फिर जीसस के मानने वाले लोगों का समाज धीरे— धीरे निर्मित हुआ और जीसस उनके लिए सबसे अच्छे आदमी हो गए। तो जीसस से कोई अच्छा आदमी हुआ ही नहीं ईसाइयों के लिए। बड़ी कठिनाई है। यहूदियों के लिए यह आदमी बुरा है, सूली लगाने योग्य है। ईसाइयों के लिए यह आदमी भला है, परमात्मा का इकलौता बेटा है, पूजने योग्य है। यही एकमात्र सहारा है मुक्ति का। यही मार्ग है, द्वार है; इसके बिना कोई द्वार नहीं है।


इतनी भिन्न धारणा!


अंतःकरण का सवाल नहीं है। यहूदी के पास एक सामाजिक धारणा है, उससे तौलता है। ईसाई के पास दूसरी सामाजिक धारणा है, उससे तौलता है।

इस मुल्क में ऐसा निरंतर हुआ है, हर मुल्क में होगा, हर मुल्क में होता रहा है। जो आज हमें बुरा दिखाई पड़ता है, कल भला हो सकता है। समाज की धारणा बदल जाए, तो मापदंड बदल जाता है। जो आज हमें अच्छा लगता है, वह कल बुरा हो सकता है। धारणा बदल जाए, तराजू बदल जाता है, तौलने के उपाय बदल जाते हैं।


अंतःकरण की शुद्धि से अर्थ अच्छे आदमी का अंतःकरण नहीं है। अंतःकरण की शुद्धि का अर्थ है, शुद्ध अंतःकरण। शुद्ध अंतःकरण का अर्थ अच्छा नहीं है। शुद्ध अंतःकरण का अर्थ है, जिसमें कुछ और मिलाया हुआ नहीं है।


और ध्यान रहे, दो शुद्ध चीजें भी मिल जाएं, तो अशुद्धि पैदा होती है। शुद्ध पानी और शुद्ध दूध को मिला दें, तो दोहरी शुद्धि पैदा नहीं होती। पानी भी अशुद्ध हो जाता है, दूध भी अशुद्ध हो जाता है। अशुद्ध का मतलब है, कुछ अन्य मिला दिया गया, कुछ विजातीय मिला दिया गया। शुद्ध का अर्थ है, कुछ भी मिलाया नहीं, खालिस, जैसा था वैसा।

जैसा अंतःकरण हम लेकर पैदा हुए हैं, जो किसी ने हमें दिया नहीं, समाज ने जिसे निर्मित नहीं किया, जो हमारी भीतरी संपदा है, उस शुद्ध अंतःकरण को, कृष्ण कहते हैं, अगर हम निखार लें, समाज की धारणाओं के रूखे—सूखे पत्ते अलग कर दें, भीतर छिपी पानी की धार नजर में आ जाए, तो दैवी संपदा का दूसरा लक्षण है। फिर उसके ही सहारे, उस अंतःकरण के सहारे दिव्यता तक पहुंचा जा सकता है।


जिसको आप अभी अच्छा और बुरा कहते हैं, वह सिर्फ सामाजिक मान्यता है। किसी दूसरे समाज में मान्यताएं बदल जाती हैं, तो दूसरी मान्यताएं हो जाती हैं। जमीन पर कोई हजारों तरह के समाज हैं। ऐसी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में अच्छी न मानी जाती हो, और ऐसी भी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में बुरी न मानी जाती हो। सब तरह की बातें अच्छी मानी जाती हैं, सब तरह की बातें बुरी मानी जाती हैं।


ऐसे समाज हैं, जहां सगी बहन से विवाह करना अच्छा माना जाता है। जहां पिता मर जाए, तो ऐसे समाज हैं, जहां बड़े बेटे को मां से विवाह करना अच्छा माना जाता है। ऐसे समाज हैं, जहां पिता बुढ़ा हो जाए, वृद्ध हो जाए, तो जीवित पिता को अग्निसंस्कार दे देना बड़े बेटे का कर्तव्य माना जाता है। और इन सबकी अपनी धारणाएं हैं, और अपनी धारणाओं के तर्क हैं। और अगर उनके तर्क को सहानुभूति से समझें, तो उनकी बात भी सही मालूम पड़ सकती है। जिन समाजों में भाई और बहन का विवाह प्रचलित है, अफ्रीका के कुछ कबीले, उनका कहना यह है कि भाई और बहन ही पति और पत्नी बन सकते हैं। क्योंकि उनमें इतना सामीप्य है, इतनी निकटता है, उन दोनों के पास एक—सा स्वभाव है। किसी भी दूसरी स्त्री से विवाह करना, दो विपरीत संस्कारों में पले, दो विपरीत परिवारों में पले व्यक्तियों को कठिनाई होगी,. अड़चन होगी, उपद्रव होगा। और भाई और बहन के बीच एक स्वाभाविक नैसर्गिक प्रेम है, इसी प्रेम को रूपांतरित किया जाए।


उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। जिन मुल्कों में विरोध है, उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। क्योंकि वे कहते हैं, अगर भाई और बहन में विवाह हो, तो फिर भाई और बहन के बीच प्रारंभ से ही कामुक संबंधों को रोकने का कोई उपाय नहीं। तो परिवार प्राथमिक रूप से ही कामुक संबंधों में उलझ जाएगा। कामुक संबंध अगर बचपन से इस भांति खुले छोड़ दिए जाएं, तो जीवन प्राथमिक आधार से विलास की ओर बढेगा और प्रेम की एक पवित्र धारणा विकसित न हो पाएगी। और प्रेम का एक पवित्र रूप भी है, जहां यौन का कोई संबंध नहीं है। अगर भाई—बहन में वह विकसित न हुआ, तो फिर कहां विकसित होगा? उस पवित्र प्रेम की लकीर फिर सदा के लिए खो जाएगी। उनकी बात में भी बल है।

कह मैं यह रहा हूं कि जिस समाज ने भी जो धारणा मानी है, उसके कारण हैं, उसके ऐतिहासिक विकास में आधार है; कुछ वजह से मानी है। उस धारणा को ही मानकर जो चलता है, वह अच्छा आदमी तो हो सकता है, बुरा आदमी हो सकता है। लेकिन जिसको शुद्ध अंतःकरण का आदमी कहें, वह उन धारणाओं को मानकर कोई नहीं हो सकता।


इसका यह अर्थ नहीं कि शुद्ध अंतःकरण का आदमी सारी धारणाओं को तोड़ दे, समाज का दुश्मन हो जाए। यह अर्थ नहीं कि समाज की बगावत करे, उच्छृंखल हो जाए। शुद्ध अंतःकरण का आदमी अपने भीतर अंतःकरण को धारणाओं से मुक्त करने में लग। और उस बिंदु पर अपने अंतःकरण को ले आएगा, जहां समाज की कोई छाप नहीं है, जहां उसका अंतःकरण दर्पण की भांति शुद्ध है, जैसा वह जन्म के साथ लेकर पैदा हुआ था, जब समाज ने कुछ भी लिखा नहीं था, खाली, शून्य।


उस अंतःकरण के माध्यम से ही दैवी संपदा को खोजा जा सकता है, दिव्यता को खोजा जा सकता है। क्योंकि उस अंतःकरण में जो स्वर उठते हैं, वे दिव्यता के स्वर हैं। जिस अंतःकरण को हम अंतःकरण मानते हैं, उसमें जो स्वर उठते हैं, वे समाज के स्वर हैं। 

ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति


ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति! एक तो हमारा जीवन है, जिसे हम मूर्च्छा में दृढ़ स्थिति कह सकते हैं। जो भी हम करते हैं, सोए हुए करते हैं। हमें कुछ पक्का पता नहीं, हम क्यों कर रहे हैं; क्यों हमने क्रोध किया, क्यों हमने प्रेम किया, क्यों हमने जीवन ऐसा बिताया, जैसा हमने बिताया, कुछ साफ नहीं है।

एक अंधेरे में शराब पीए हुए जैसे कोई आदमी चलता हो, और कहीं भी पहुंच जाए; न रास्ते का कुछ पता है, न दिशा का कोई पता है; यह भी हो सकता है कि गोल घेरे में चक्कर ही लगाता रहे और सोचे कि बड़ी यात्रा हो रही है। ऐसी हमारी दशा है। मूर्च्छा में हमारी दृढ़ स्थिति है।


ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति का अर्थ है, जागरूकता में दृढ़ स्थिति, अवेयरनेस में, होश में। उठुं बैठूं? चलूं जो भी व्यवहार हो, आचरण हो, जो भी परिणमन हो, वह मेरे पूरे होश में हो। मेरे ज्ञान का दीया जलता रहे। क्यों कर रहा हूं? इसकी मुझे पूरी प्रतीति हो। बिना गहरे प्रत्यक्ष होश के कुछ भी मुझसे न निकले।


जिसको कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, महावीर ने जिसको सम्यक ज्ञान कहा है, बुद्ध ने जिसको सम्यक स्मृति कहा है, कबीर, नानक, दादू जिसको सुरति—योग कहते हैं, ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति का वही अर्थ है। मूर्च्छित न हो व्यवहार; अचेतन शक्तियां मुझसे कुछ न करवा लें; मेरा कृत्य चेतन हो, कांशस हो।

किसी आदमी ने आपको धक्का दिया। इधर धक्का नहीं दिया कि उधर से क्रोध की लपट भभक उठती है। यह क्रोध का भभकना वैसे ही है, जैसे किसी ने बटन दबाई और बिजली जली। बटन दबाने के बाद बिजली का बल्‍ब सोचता नहीं कि जलूं या न जलूं। यह भी नहीं सोचता कि इस आदमी ने जलाया, तो मैं कोई परवश तो नहीं हूं; चाहूं तो जलूं? चाहूं तो न जलूं! न, कोई उपाय नहीं है। यंत्रवत, यंत्र ही है। तो बिजली का बल्‍ब जल जाता है।


जब कोई आपको धक्का देता है, तो क्रोध भी आप में अगर ऐसा ही पैदा होता हो, जैसे बटन दबाने से बल्‍ब जलता है, तो आप भी यंत्रवत हो गए। तो जिस आदमी ने आपको धक्का दिया, उसने आपको परिचालित कर लिया, वह आपका मालिक हो गया, स्वामित्व उसके हाथ में चला गया, उसने आप में क्रोध पैदा करवा लिया।


और शायद आप कई दफा कसमें खा चुके हैं कि अब क्रोध न करूंगा, कई दफा निर्णय लिया है कि क्रोध दुख देता है! शास्त्र के शब्द स्मरण हैं कि क्रोध अग्नि है, जहर है। वह सब है। लेकिन किसी ने धक्का दिया, तो वह सब एकदम हट जाता है। भीतर से क्रोध उठ आता है। 


बुद्ध को कोई धक्का दे, तो क्रोध ऐसे ही नहीं उठता, क्रोध उठता ही नहीं। बुद्ध धक्के को देखते हैं कि धक्का दिया गया, और अपने भीतर देखते हैं कि धक्के से क्या हो रहा है, और निर्णय करते हैं कि मुझे क्या करना है। आपका धक्का निर्णायक नहीं है। आपके धक्के के बाद भी बुद्ध ही निर्णायक हैं, वे निर्णय करते हैं कि मुझे क्या करना है।


आप जब क्रोध करते हैं, तो निर्णय आपका नहीं है। दूसरा आपसे निर्णय करवा लेता है। एक खुशामदी आ जाता है और आपकी प्रशंसा करता है और आपसे काम करवा लेता है। आप भी जानते हैं कि यह खुशामदी है और आप भी जानते हैं कि किसी की

स्तुति में पड़ना ठीक नहीं। लेकिन बस, कोई स्तुति करता है, तो फिर स्मरण नहीं रहता; फिर भीतर कुछ बल्‍ब जल जाते हैं। फिर भीतर कुछ काम शुरू हो जाता है, जो दूसरे ने चालित किया।


जो व्यक्ति अपने निर्णय से प्रतिपल नहीं जी रहा है, जिससे दूसरे लोग निर्णय करवा रहे हैं, जिसे दूसरे लोग धक्के दे रहे हैं, मैनिपुलेट कर रहे हैं, जो दूसरों से परिचालित है, ऐसा व्यक्ति मूर्च्छा में दृढ़ ठहरा हुआ है।


होश में ठहरे हुए व्यक्ति का लक्षण है कि वह स्वयं चल रहा है, स्वयं उठ रहा है; और जो भी कर रहा है, वह उसका अपना निर्णय है, वह उसने सचेतन रूप से लिया है! कोई अचेतन शक्तियों ने उससे निर्णय नहीं करवाया है।


चौबीस घंटे आपके भीतर बड़ा हिस्सा अचेतन है, जिसको फ्रायड ने बड़ी कोशिश की विश्लेषण करने की। फ्रायड के हिसाब से, जैसे हम बरफ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो नौ हिस्सा पानी में डूब जाता है और एक हिस्सा ऊपर होता है, ऐसा आपका एक हिस्सा केवल होशपूर्ण है, नौ हिस्से नीचे डूबे हुए हैं पानी में और उनका आपको कुछ भी पता नहीं है। और वे नौ हिस्से आपसे चौबीस घंटे काम करवा रहे हैं। वे काम आपको करने ही पड़ते हैं। और आप निर्णय भी ले लें कि नहीं करूंगा, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि निर्णय एक हिस्सा लेता है, उससे नौ गुनी ताकत के मन के विचार भीतर दबे पड़े हैं, वे उसकी सुनते भी नहीं।


आप तय कर लेते हैं, सुनते हैं ब्रह्मचर्य पर एक व्याख्यान पढ़ते हैं कोई किताब, जंचती है बात बुद्धि को, वह जो एक हिस्सा पानी के ऊपर तैर रहा है, आप तय कर लेते हैं। लेकिन वे नौ हिस्से, जो पानी के नीचे दबे हैं, उनको आपकी किताब का कोई पता नहीं, ब्रह्मचर्य का कोई पता नहीं; उन्होंने कोई यह बात सुनी नहीं कभी, वे अपनी धारणा से चल रहे हैं। वे मिले हैं नौ हिस्से आपको जन्मों—जन्मों की लंबी यात्रा में। अनंत संस्कारों, पशुओं, पौधों, वृक्षों से गुजरकर उनको आपने इकट्ठा किया है। वे अब भी वही हैं। उनको कुछ पता भी नहीं है। वे अपने ही ढंग से चलते हैं; उनकी ताकत नौ गुनी ज्यादा है।

जब भी कामना मन को पकड़ेगी, तो वह जो एक हिस्सा है, नपुंसक सिद्ध होगा। वे जो नौ गुने ताकतवर हैं, वे शक्तिशाली सिद्ध होंगे और वे आपको मजबूर कर लेंगे। और उनकी मजबूरी इतनी शक्तिशाली है कि वे आपके इस एक हिस्से को भी तर्क देंगे और यह एक हिस्सा भी रेशनलाइज करेगा। यह भी कहेगा कि छोड़ो, यह सब ब्रह्मचर्य वगैरह में कुछ सार नहीं है। और यह भी कहेगा कि ब्रह्मचर्य साधना है, तो जल्दी क्या है, अभी जिंदगी बहुत पड़ी है!


हजार तर्क! वे नौ हिस्से धक्के देकर एक हिस्से को राजी करवा लेंगे। जब वे नौ हिस्से अपना काम पूरा करवा लेंगे, तब फिर एक हिस्सा बातें सोचने लगेगा भली— भली। फिर ब्रह्मचर्य वापस लौटेगा। लेकिन यह हमेशा कमजोर सिद्ध होगा नौ के मुकाबले। यह अड़चन है प्रत्येक मनुष्य की। जो भी मनुष्य थोड़ा जीवन को बदलने की कोशिश में लगा है, उसकी यह कठिनाई है कि वह तय करता है, लेकिन पूरा नहीं हो पाता।


कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदा तभी सक्रिय होगी, जब कोई व्यक्ति ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थित हो।

होश इतना सधा हुआ हो...। जितना ज्यादा होश सधता है, उतना ही पानी के ऊपर बर्फ आना शुरू हो जाता है। जितना ज्यादा आप होश का प्रयोग करते हैं, उतना ज्यादा आपका अचेतन कम होने लगता है, चेतन बढ़ने लगता है। और एक ऐसी स्थिति भी है टोटल अवेयरनेस की, परिपूर्ण प्रज्ञा की, जब आपका पूरा का पूरा मन प्रकाशित होता है, होश से भरा होता है।


उस स्थिति में जो भी निर्णय लिए जाते हैं, उनका कोई विरोध नहीं है। उस स्थिति में जो भी आप तय करते हैं, वह होगा ही, क्योंकि उससे विपरीत आपके भीतर कोई स्वर नहीं है। उस स्थिति में जो भी जीवन है, वह। कोई पश्चात्ताप नहीं है। उस जीवन में सभी कुछ आनंद है और सभी कुछ अद्वैत है।


सारी साधना प्रक्रियाएं ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति के ही उपाय हैं। सारे ध्यान, सारी प्रार्थनाएं, सारी विधियां, कैसे आप ज्यादा से ज्यादा होश में जीने लगें, मूर्च्छा टूटे, अमूर्च्छा बढ़े।


और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।


दान, देने का भाव, बहुत आधारभूत है। आसुरी संपदा है लेने का भाव, छीनने का भाव। जो दूसरे के पास है, वह मेरा कैसे हो जाए। सारा सब मेरा कैसे हो जाए पजेशन, सारी दुनिया का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। और दैवी संपदा देने की भावना है। जो भी मेरे पास है, वह बंट जाए। जो भी मैं हूं उसे मैं साझेदारी कर लूं। जो मेरे पास है, वह दूसरा भी उसमें रस ले पाए वह दूसरे का भी हो सके।


कृष्ण यह नहीं कहते, क्या दान—कि धन का दान, कि संपत्ति का दान, कि भूमि का दान—यह सवाल नहीं है। सिर्फ दान! भाव!


तो महावीर अपने ज्ञान को बाट रहे हैं, कि बुद्ध अपनी करुणा को बांट रहे हैं, कि जीसस अपनी सेवा को। यह सवाल नहीं है कि क्या! बहुत गहरे में जो भी मैं हूं वह मेरा न रहे, वह सबका हो जाए। जो भी मैं हूं मैं बिखर जाऊं और सबमें चला जाऊं, मेरा अपना कुछ बचे न। इसके स्वाभाविक बड़े गहरे परिणाम होंगे। जितना ही मैं छीनने का सोचता हूं उतना ही मेरा अहंकार बढ़ता है। इसलिए जितनी मेरे पास संपदा होगी, जितनी मेरे पास सुविधा—साधन होंगे, उतना अहंकार होगा। जितना ही मैं बटता हूं उतना ही मैं पिघलता हूं। जितनी ही मैं साझेदारी करता हूं जितना ही मेरा अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व में लीन होता है, उतना ही मेरा अहंकार शून्य होगा।


दैवी संपदा के पास अस्मिता नहीं बचेगी, और आसुरी संपदा के पास सिर्फ अस्मिता ही बचेगी। अहंकार शैतान की आखिरी उपलब्धि है। निरअहंकारिता परमात्म— भाव है।




तो दान का अर्थ है, देना, और देने की वृत्ति को विकसित करना; और उस घड़ी की प्रतीक्षा करना, जब मेरे पास कुछ भी न होगा देने को। इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके पास कुछ भी न होगा। सब कुछ होगा; जितना आप देंगे, उतना बढ़ेगा। जितना आप बाटेंगे, उतना ज्यादा होगा। जितना आप अपने को शून्य करेंगे, उलीचेंगे, उतना ही पाएंगे कि साम्राज्य बड़ा होता जाता है। देने का अर्थ यह नहीं है कि आपके पास कुछ बचेगा नहीं, लेकिन देने का भाव कि कुछ भी न बचे।


दान, प्रेम का सार है। छीनना, घृणा का आधार है। तो अगर प्रेम में भी आप दूसरे से कुछ लेना चाहते हैं, तो वह प्रेम नहीं है। वहा सिर्फ प्रेम के नाम पर शोषण है। जहां मांग है, वहा प्रेम की कोई संभावना नहीं है। प्रेम निपट दान है, बेशर्त। वह कुछ पाने की आकांक्षा से नहीं है, देना ही आनंद है। और जिसने लिया, उसके प्रति अनुग्रह है।


दान तथा इंद्रियों का दमन।


दान और इंद्रियों के दमन को कृष्ण ने एक साथ कहा। यह भी थोड़ा विचारणीय है। क्योंकि जितना ही आप देंगे, उतनी ही इंद्रियां अपने आप विसर्जित हो जाती हैं। जितना ही आप लेंगे, इकट्ठा करेंगे, उतनी ही इंद्रियां मजबूत होती चली जाती हैं। इंद्रियां छीनना चाहती हैं; और जो देने को राजी है, उसकी इंद्रियां धीरे—धीरे शून्य हो जाती हैं। इंद्रियों का दमन इंद्रियों से लड़कर नहीं उपलब्ध होता है। इंद्रियों का दमन स्वयं की निजता को पूरी तरह बाट देने से उपलब्ध होता है। जो अपने भीतर अपने लिए बचाता नहीं, उसकी इंद्रियां अपने आप शांत हो जाती हैं।

यह जो इंद्रियों की शांति है, जो दान से या प्रेम से फलित होती है, इस शांति में और इंद्रियों को दबा लेने में बड़ा फर्क है, बुनियादी विरोध है। कोई व्यक्ति अगर इंद्रियों को जोर से दबा ले, तो भीतर अशांति पैदा होगी, शाति पैदा नहीं होगी।


आप किसी भी इंद्रिय को दबाकर देखें। और आप पाएंगे कि उस दबाने से और अशांति पैदा होती है, क्योंकि इंद्रिय निकलना चाहती है, बाहर आना चाहती है, भोग में जाना चाहती है। इंद्रिय आपको कहीं ले जाना चाहती है।


जो दबाएगा, वह तो और अशांत हो जाएगा। लेकिन अगर कोई अपने को बांटने को राजी है, तो उसकी इंद्रियां अपने आप शांत होती चली जाएंगी।


इस फर्क को आप ऐसा समझें। आप उपवास करें एक दिन। तो क्या करेंगे? उपवास करेंगे, तो दबाएंगे भूख को। भूख रोज लगी है, आज भी लगेगी; उसे दबाएंगे। दबाएंगे तो भूख और फैलेगी रोएं—रोएं में भीतर। और चौबीस घंटे सिर्फ भोजन का स्मरण आपका स्मरण होगा।


लेकिन घर में एक मेहमान आया है। और घर में इतना ही भोजन है कि या तो आप कर लें या मेहमान को करा दें। और आप प्रसन्न हैं कि मेहमान घर में आया, और आप आनंदित हैं। तो आपने मेहमान को भोजन कराया। यह उपवास बड़े और ढंग का होगा। इस उपवास में एक खुशी होगी, एक प्रफुल्लता होगी। भूख अब भी लगी है, लेकिन आपने भूख को दबाया नहीं, आपने भोजन को बांटा, आपने दान किया।

इसलिए मां, अगर बेटा भूखा हो, तो उसे खिला देगी, खुद भूखी सो जाएगी। इस उपवास का मजा और है। इस उपवास में जो आनंद है, वह किसी साधारण साधु के, संन्यासी के उपवास में नहीं हो सकता। क्योंकि वह केवल भूख को दबा रहा है। इसने भूख को दबाया नहीं है, भोजन को बांटा है। यहां बुनियादी फर्क है। यहां किसी और की भूख को पूरा किया है। और उसकी भूख को पूरा किया है, जिसके प्रति प्रेम है।


दान, अगर जीवन के सब पहलुओं में समा जाए, तो सभी इंद्रियां अपने आप शांत हो जाती हैं। और दान से ही दमन आए, तो दमन में एक उत्सव है। बिना दान के दमन आए—लोभ से भी दमन आता है—तब एक तरह की विकृति और कुरूपता है।


यह फर्क बारीक है, नाजुक है। और इसको आप प्रयोग करेंगे, तो ही खयाल में आ सकता है। अपने को वंचित करना किसी को देने के लिए, तब उस वंचित करने में एक सुख है। और सिर्फ अपने को वंचित करना बिना किसी को देने के खयाल से, उसमें कोई रस नहीं है, कोई सुख नहीं है। उसमें पीड़ा होगी।

तो आप भूखे रह सकते हैं, और जो पैसा बचे, वह बैंक में जमा कर सकते हैं। उस भूख में सिर्फ भूख ही होगी।


भूखे रहना प्राथमिक न हो, किसी का पेट भरना प्राथमिक हो। और अगर उसके पीछे भूखे रहना पड़े, तो भूखे रहने की स्वीकृति हो।


दान से सारी इंद्रियां रूपांतरित हो सकती हैं। आप नग्न खड़े हो जाएं सड़क पर, यह एक बात है। यह नग्नता अधूरी है, और इस नग्नता में अहंकार है। लेकिन कोई नग्न खड़ा हो और अपने वस्त्र उसको ओढ़ा दें, उस नग्नता का रस और है। उस नग्नता में न अहंकार है, न तप का कोई भाव है। उस नग्नता की पवित्रता और पूर्णता और है। उसका गुणधर्म और है।

लेकिन अक्सर यह हुआ कि जो भी धर्म दान के माध्यम से जीवन को रूपांतरित करने को पैदा हुए, दान तो भूल गया, वह जो दान का आधा हिस्सा था, वह भीतर रह गया। उस आधे हिस्से का कोई अर्थ नहीं है।


आप खूब उपवास कर सकते हैं, लेकिन आपका उपवास किसी के पेट भरने का हिस्सा होना चाहिए। आप बिलकुल दरिद्र हो सकते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है। आपकी दरिद्रता किसी को समृद्ध करने का हिस्सा होना चाहिए, तब बात पूरी होती है। और तब जीवन में इंद्रियों का उत्पात जिस भांति शांत होता है, उस भांति कोई भी दमन करके कभी उन्हें शांत नहीं कर पाया।


यज्ञ, स्वाध्याय, तप, शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।


यज्ञ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का नाम है। उसके बाह्य रूप से तो हम परिचित हैं। लेकिन बाह्य रूप तो सिर्फ प्रतीक है। बाहर के प्रतीक से कुछ भीतर की बात कहने की कोशिश की गई है। यज्ञ एक तकनीक है, एक विधि है, कि भीतर कैसे अग्नि प्रज्वलित हो, और उस अग्नि में मैं कैसे भस्मीभूत हो जाऊं।


सारा जीवन अग्नि का खेल है। आप भी अग्नि के एक रूप हैं। भोजन पच रहा है, खून बन रहा है, खून दौड़ रहा है, हृदय गति करता है, श्वास चलती है, सब अग्नि का खेल है। शरीर से अग्नि खो जाए, सब खो जाता है। आप ठंडे हुए, कि मौत आ गई। मौत सदा ठंडी है। जीवन सदा गर्म है। जीवन एक उष्णता है। हिंदुओं ने इस उष्णता के बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। उन गहरे प्रयोगों का नाम यज्ञ है।


यह जो जीवन की उष्णता है, जिससे साधारण काम चल रहा है, भोजन पच रहा है। आप सोच भी नहीं सकते, वैज्ञानिक भी अभी तक राज को पूरा खोल नहीं पाए। इस छोटे—से शरीर में बड़ा विराट कार्य चल रहा है। भोजन आप करते हैं, पचता है, खून बनता है, मांस—मज्जा बनती है।


वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक आदमी के शरीर के भीतर जितना काम होता है—एक रोटी को हम डालते हैं, खून और मांस—मज्जा बन जाती है। अभी तक रोटी को मशीन में डालकर खून, मांस—मज्जा बनाने की कोई हम व्यवस्था नहीं खोज पाए हैं। वैज्ञानिक सोचते हैं कि कभी यह संभव होगा—पक्का नहीं कहा जा सकता कब, लेकिन कभी संभव होगा—तो एक आदमी का शरीर जितना काम करता है, इतना काम करने के लिए कम से कम चार वर्ग मील की यांत्रिक व्यवस्था करनी पड़ेगी। इतनी बड़ी फैक्टरी चार वर्ग मील के क्षेत्र पर फैले, तब हम आदमी के शरीर के भीतर जो काम चल रहा है पूरा, इतना काम उसमें कर पाएंगे। बड़ा अदभुत काम चल रहा है, और बड़े चुपचाप चल रहा है।


लेकिन सबके भीतर—जैसा हिंदुओं की धारणा, योग की धारणा है—सबके भीतर एक अग्नि प्रज्वलित है, अग्नि सारा काम कर रही है। प्रदीप्त अग्नि है भीतर। श्वास हम लेते हैं, वह भी अग्नि ही है। दीया जलता है, वह भी अग्नि ही है। वैज्ञानिक उसको आक्सीडाइजेशन कहते हैं।


एक दीया जल रहा हो, और जोर से हवा का झोंका आए, आप डर जाएंगे कि कहीं बुझ न जाए; बर्तन से ढंक दें, कांच के बर्तन से ढंक दें। थोड़ी देर, क्षणभर तो जलता रहेगा, फिर बुझ जाएगा। तूफान शायद न बुझा पाता, लेकिन ढंके हुए बर्तन में बुझ जाएगा, क्योंकि प्रतिपल जलने के लिए आक्सीजन चाहिए। वह जितनी आक्सीजन भीतर है, उतनी देर जल जाएगा, फिर बुझ जाएगा।


चौबीस घंटे हम श्वास ले रहे हैं, उससे आक्सीजन भीतर जा रही है, वह अग्नि है, सूक्ष्म अग्नि है। श्वास बंद हुई कि आदमी मरा। श्वास ठीक से न ली, तो जीवन क्षीण हो जाता है।


तो योग की प्रक्रियाओं के द्वारा भीतर की इस अग्नि को धूं— धूं करके प्रज्वलित करने की प्रक्रियाएं हैं। उनका नाम यज्ञ है। और जब यह धूं— धूं करके भीतर की अग्नि पूरी जलती है, तो इससे सिर्फ भोजन ही नहीं पचता, शरीर ही नहीं चलता, जीवन के साधारण दैनंदिन कार्य ही नहीं होते, धू— धू जब अग्नि जलती है, तो उसमें हमारा अहंकार जल जाता है। और उस अग्नि से गुजरकर ही हमें पहली दफा पूरी दिव्यता का अनुभव होता है। और अहंकार के जलते ही कचरा जल जाता है, स्वर्ण निखरकर बाहर आता है। 


स्वाध्याय का अर्थ है, अपना सदा अध्ययन करते रहना। स्वाध्याय का अर्थ गीता पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। वेद पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का निरंतर अध्ययन, स्वयं को निरंतर देखते रहना। एक—एक छोटी—छोटी गतिविधि को पहचानते रहना, परखते रहना, विश्लेषण करते रहना। क्या मैं कर रहा हूं , क्यों कर रहा हूं क्या छिपे कारण है—उन सबकी पूरी जांच—परख करते रहना। स्वयं को एक अध्ययन की जीवंत प्रक्रिया बना लेना। स्वप्न भी भीतर पैदा हो, तो उसका भी अध्ययन करना कि वह क्यों घटा!


कोई स्वप्न ऐसे ही नहीं घटता। आप रात स्वप्न देखते हैं, किसी की हत्या कर देते हैं। ऐसे ही हत्या नहीं होती। स्वप्न में भी ऐसे ही नहीं होती। कहीं कुछ छिपा राज है, कुछ होना चाहता है, स्वप्न में उसको अभिव्यक्ति मिली है। स्वप्न से लेकर कृत्यों तक सभी कुछ अध्ययन करते रहना। स्वयं को एक शास्त्र बना लेना और उससे सीखना कि क्या हो रहा है। लिए गए परिणाम और नतीजों पर आगे उपयोग करने का नाम तप है।


स्वाध्याय तथा तप.......।


जो स्वयं के अध्ययन से निष्कर्ष हों, उन निष्कर्षों के अनुसार चलने का नाम तप है। तप का मतलब इतना नहीं है कि अपने को अकारण सताना, परेशान करना, कि अपने को दुख देना। तप का अर्थ है, जो मेरे अध्ययन से नतीजे निकले हैं, उन नतीजों के अनुसार जीवन को चलाना।


कठिन होगा, और दुख झेलना पड़ेगा, संकल्प का उपयोग करना पड़ेगा। क्योंकि पुरानी आदतें हैं, वे सुगम हैं। चाहे उनसे दुख मिलता हो अंत में, लेकिन वे सुगम हैं। उन्हें बदलना दुर्गम होगा, दुख उठाना पड़ेगा। लेकिन एक बार वे बदल जाएं, तो आनंद की मंजिल उनसे उपलब्ध होती है। सम्यकरूप से स्वयं के निरीक्षण से जो नतीजे हाथ आए हों, उन नतीजों को लिखकर रख देना नहीं, वरन उनके अनुसार जीवन को चलाना तपश्चर्या है।


और शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।


और जीवन के सब पहलुओं पर जटिलता की बजाय सरलता को जगह देना। जो भी जटिल हो, उससे बचने की कोशिश करना। जो भी सरल हो, उसको स्थापित करना।


आमतौर से हम उलटा करते हैं। जो भी जटिल हो, वह हमें आकर्षित करता है। अगर एक पहेली सामने रखी हो, जो बहुत उलझन वाली हो, तो हम पच्चीस काम छोड्कर उसको हल करने में लग जाते हैं। जटिल हमें आकर्षित करता है। जटिल क्यों आकर्षित करता है?

एवरेस्ट है वहा, तो आदमी का मन चढ़ने का होता है। एडमंड हिलेरी से किसी ने पूछा कि तुम एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए इतने पागलपन से क्यों भरे रहे? तो उसने कहा, चूंकि एवरेस्ट है, इसलिए चढ़ना ही पड़ेगा; चुनौती है।


तो जितनी जटिल हो चीज.......। अब चांद पर जाने की कोई जरूरत नहीं है, पर जाना पड़ेगा। मंगल पर भी जाने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन जाना पड़ेगा, क्योंकि मंगल है और हमारा मन बेचैन है। 


हालाकि आप चांद पैर पहुंच जाएं कि मंगल पर, आप ही रहेंगे! जो उपद्रव आप यहां कर रहे हैं, वहा करेंगे! मंगल आप में कोई फर्क ला नहीं सकता। और यहां दुखी हैं, तो वहा दुखी होंगे! पहुंचकर कुछ भी होगा नहीं।


लेकिन जटिल आकर्षित करता है, क्योंकि जटिल में चुनौती है। चुनौती से अहंकार भरता है। तो जितना कठिन काम हो, उतना करने जैसा लगता है। जितना सरल काम हो, उतना करने जैसा नहीं लगता, क्योंकि सरलता से कोई अहंकार को भरती नहीं मिलती। कृष्ण कहते हैं, शरीर, इंद्रियों और अंतःकरण की सभी आयामों में सरलता।


जो सरल हो, उसको चुनें। और धीरे— धीरे आप पाएंगे, आपका अहंकार जाने लगा। जो कठिन है, उसको चुनें। और आप पाएंगे, आपका अहंकार बढ़ने लगा।


आदमी खुद भी अपने लिए कठिनाइयां पैदा करता है। क्योंकि कठिनाइयां पैदा करके जब उनको वह पार कर लेता है, तो वह दुनिया को कह सकता है, देखो, इतनी कठिनाइयों को मैंने पार किया! सरलता को आप किसको बताने जाइएगा कि पार किया! उसमें पार करने जैसा कुछ था ही नहीं।

अगर आप जीवन में सरलता को नियम बना लें और जब भी कोई विकल्प सामने हो, तो सरल को चुनें.......। बहुत कठिन है यह, सरल को चुनना, क्योंकि अहंकार को इसमें कोई रस नहीं आता।

सिर के बल खड़े हो जाएं रास्ते पर, पचास लोग भीड़ लगाकर खड़े हो जाते हैं। आप दोनों पैर के बल खड़े हों, फिर कोई भीड़ लगाकर खड़ा नहीं होता। सिर के बल खड़े होते से ही भीड़ लग जाती है, क्योंकि आप कुछ कर रहे हैं, जो कठिन है। हालांकि सिर के बल खड़े होने से कुछ मिलता नहीं, लेकिन भीड़ इकट्ठी होती है। और भीड़ इकट्ठी हो, तो हमें रस आता है।



कृष्ण कहते हैं, दिव्यता की तरफ जिसे जाना है, उसे सरलता का चुनाव जीवन के सब पहलुओं पर.......।

जब भी चुनाव हो, तो सरल का, सरलतम का। और आप धीरे— धीरे पाएंगे, अहंकार बचा ही नहीं जिसको मिटाना है। और अहंकार खो जाए, तो आसुरी संपदा की जड़ कट गई। निरअहंकारिता आ जाए, तो दैवी संपदा का द्वार खुल गया।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...