सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 11

 मांग और प्रार्थना


मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥49॥


संजय उवाच:


इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्ला स्वकं रूयं दर्शयामास भूय:।

आश्वासयामास व भीतमेनं भूत्वा पुन: सौम्यवगुर्महात्मा।। 50।।


अर्जुन उवाच:


दृष्ट्रवेदं मानुष रूपं तव सौम्य जनार्दन।

हदानीमस्थि संवृत: सचेता: प्रकृतिं गत:।। 51।।


इस प्रकार के मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढभाव भी न होवे और भयरहित प्रीतियुक्त मन वाला तू उस ही मेरे इस शंख चक्र गदा पद्य सहित चतुर्भुज रूप को फिर देख।

उसके उपरांत संजय बोला हे राजन— वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भूज रूप को दिखाया और फिर महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर उस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया। उसके उपरांत अर्जुन बोला हे जनार्दन आपके इस अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांतचित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं।


इस प्रकार के मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढ्भाव भी न होवे और भयरहित, प्रीतियुक्त मन वाला तू उस ही मेरे इस शंख, चक्र, गदा, पद्य सहित चतुर्भुज रूप को फिर देख।

कृष्‍ण ने कहा, मैं लौट आता हूं वापस साकार में, सगुण में, ताकि तुझे भय न होवे, तेरे मन को राहत मिले, सांत्वना मिले। इसलिए मैं अपने उसी रूप में वापस लौट आता हूं जिसकी तू मांग कर रहा है।

यहां एक बात समझ लेने जैसी जरूरी है कि विराट का और व्यक्ति का संबंध मां और बेटे का संबंध है। कहता हूं मां और बेटे का; बाप और बेटे का नहीं—सोचकर। पीछे आपसे बात करूंगा। विराट और व्यक्ति के बीच जो संबंध है वह मां और बेटे का संबंध है। क्योंकि हम विराट से उत्पन्न होते हैं। उसकी ही लहरें, उसकी ही तरंगें हम हैं। वही हममें खिला। वही हममें फूल—पत्ता बना। वही हमारा व्यक्तित्व है।

तो हमारे और विराट के बीच जो संबंध है, वह वही होगा जो एक मां और बेटे के बीच है। क्योंकि मां के गर्भ में बेटा बड़ा होता है उसके अंग की भांति, उसके शरीर की भांति। कुछ भेद नहीं होता। मां मरेगी, तो उसका बेटा मर जाएगा। और बेटा भीतर मर जाए, तो मां की मौत घट सकती है। दोनों एक हैं। एक से ही जुड़े हैं। बेटा अपनी सांस भी नहीं लेता, मां से ही जीता है। मां का ही प्राण उसका प्राण है। मां के साथ एक साथ एक है। जैसे लहर सागर के साथ एक है।

फिर यह बेटा पैदा होता है। तो जैसे मां का ही एक हिस्सा बाहर गया, जैसे मां का ही एक अंग अनंत की यात्रा पर निकला। यह कहीं भी रहे, कितना ही दूर रहे, मां से बहुत सूक्ष्म तंतुओं से जुड़ा रहता है।




अगर सच में ही मां और बेटे की घटना घटी हो..। सच में इसलिए कहता हूं कि सभी के भीतर नहीं भी घटती। कुछ माताएं केवल जननी होती हैं, माताएं नहीं। कोई बहुत भाव से जन्म नहीं देतीं। एक जबरदस्ती थी, एक बोझ था, एक काम था, निपटा दिया। इन माताओं का बस चलेगा, तो आज नहीं कल, जैसा आज वे बच्चे के पैदा होने के बाद नर्स को पालने के लिए रख लेती हैं, आज नहीं कल वे किसी नर्स को गर्भ के लिए भी रख लेंगी! और पश्चिम में उपाय हो गए हैं अब कि आपका बेटा किसी दूसरे के गर्भ में बड़ा हो सकता है। तो जो सुविधा—संपन्न हैं, वे अपने गर्भ में बड़ा नहीं करेंगी, वे किसी और के गर्भ में बड़ा कर लेंगी।

मां का मतलब तो यह है कि इस बेटे में मैं जन्मी, इस बेटे में मेरा जीवन आगे फैला। जैसे वृक्ष की एक शाखा दूर आकाश में निकल जाए, बस ठीक मेरी एक शाखा आगे गई।

जीवन इतना इकट्ठा मालूम पड़े जिस मां को भी, उसके और उसके बेटे के बीच हजारों मील के बीच भी संबंध होता है। इस पर बड़ा काम हुआ है। और अगर बेटा बीमार पड़ जाए, तो मां बेचैन हो जाती है। हजारों मील के फासले पर! अगर बेटा मर जाए, तो मां को तत्‍क्षण आघात पहुंचता है।

अभी रूस के कुछ वैज्ञानिक पशुओं के साथ प्रयोग कर रहे थे, तो बहुत चकित हुए। और पता चला कि पशुओं में मातृत्व शायद ज्यादा है मनुष्यों की बजाय! खरगोश पर वे प्रयोग कर रहे थे। तो खरगोश के बच्चों को रखा गया ऊपर और उनकी मां को वे ले गए नीचे समुद्र में एक पनडुब्बी में। और उन्होंने बच्चों को ऊपर सताना शुरू किया, जब मां पनडुब्बी में नीचे थी। जैसे ही उन्होंने बच्चों को सताना शुरू किया, मां वहां बेचैन हो गई। उन्होंने सब यंत्र लगा रखे थे, ताकि उसकी बेचैनी नापी जा सके कि वह कितनी परेशान है। और जब उन्होंने बच्चों को मार डाला, तो उसकी परेशानी का कोई अंत नहीं था, वह बेहोश हो गई परेशानी में।

यह प्रयोग कोई सौ बार किया। और हर बार अनुभव हुआ कि वह खरगोश और उसकी मां के बीच समय और स्थान का कोई फासला नहीं है। उनके भीतर कुछ अंतरंग वार्ता चल रही है। निरंतर कोई अंतरंग संबंध चल रहा है। कोई ध्वनि—तरंगें उन दोनों को जोड़े हुए हैं।

तो मां और बेटे के बीच जैसा संबंध है, उससे भी गहन— उदाहरण के लिए कह रहा हूं मां और बेटे का— अस्तित्व और आपके बीच संबंध है। आप अस्तित्व के ही हिस्से हैं। अस्तित्व ही आपमें फैल गया है और दूर तक। आप अस्तित्व हैं।

इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अस्तित्व आपको दुख नहीं देना चाहता। अस्तित्व आपको भयभीत भी नहीं करना चाहता। क्यों करना चाहेगा? मां बेटे को क्यों दुख देना चाहेगी? अस्तित्व आपको परेशान नहीं करना चाहता। और अगर आप परेशान हैं, तो वह आप अपने ही कारण होंगे। अगर भयभीत हैं, तो अपने ही कारण होंगे। अगर दुखी हैं, तो अपने ही कारण होंगे। अस्तित्व आपको दुखी नहीं करना चाहता।

जीवन तो आपको पूरे आनंद का मौका, सुविधा, अवसर, सामर्थ्य, सब देता है। आप ही कुछ गड़बड कर लेते हैं। आप ही बीच में खड़े हो जाते हैं और अस्तित्व और अपने बीच बाधा बन जाते हैं। यह जो कृष्‍ण का कहना है कि मैं वापस लौट आता हूं। यह इसका सूचक है कि अस्तित्व से आप जो भी गहन भाव से प्रार्थना करेंगे, अस्तित्व से जो भी गहन भाव से आप कहेंगे, प्रेमपूर्वक अस्तित्व से जो भी आप निवेदन करेंगे, अस्तित्व बहरा नहीं है, अस्तित्व हृदयहीन नहीं है।

यही विज्ञान और धर्म की समझ का भेद है। विज्ञान कहता है, अस्तित्व है हृदयहीन, हार्टलेस। कुछ भी करो, अस्तित्व तुम्हारी सुनने वाला नहीं है। कुछ भी करो, अस्तित्व के पास कान नहीं हैं कि तुम्हारी सुने। कुछ भी करो, अस्तित्व को पता भी नहीं चलेगा। यह विज्ञान की दृष्टि है। अस्तित्व है गहन उपेक्षा में। तुम क्या हो, हो या नहीं हो, कोई प्रयोजन नहीं है।

धर्म कहता है, यह असंभव है। अगर हम अस्तित्व के ही हिस्से हैं, तो यह असंभव है कि अस्तित्व हमारे प्रति इतना उपेक्षा से भरा हो। अस्तित्व हमारे प्रति किसी गहरे लगाव में न हो, यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि हम अस्तित्व से पैदा हुए हैं। अगर हम अस्तित्व से ही पैदा हुए हैं और उसी में लीन हो जाएंगे, तो हम उसी का खेल हैं। तो अस्तित्व प्रतिपल हमारे प्रति सजग है, और अस्तित्व हृदयपूर्ण है।

बच्चा देखता है कि मां नहीं है पास, तो जोर से चिल्लाने लगता है, रोने लगता है। इसलिए नहीं कि मां बहरी है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि बच्चा कमजोर है। उसकी आवाज का उसे खुद ही भरोसा नहीं है। इसलिए जोर से चिल्ला रहा है।

यह जो सूत्र है, कृष्ण कहते हैं, मैं वापस लौट आता हूं यह इस बात की खबर है कि अस्तित्व वैसा ही हो जाएगा, जैसी आपकी गहरी—गहरी मौन प्रार्थना होगी। जैसा गहरा भाव होगा, अस्तित्व वैसा ही राजी हो जाएगा।

इसके बड़े इंप्लीकेशंस हैं, इसकी बड़ी रहस्यपूर्ण उपपत्तिया हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप जो भी कर रहे हैं, वह भी! अस्तित्व ने रूप ले लिया है आपकी वासनाओं के कारण। आपने मांगी थी एक सुंदर स्त्री, वह आपको मिल गई। आपने मांगा था एक मकान, वह घटित हो गया। आपने चाहा था एक सुंदर शरीर, स्वस्थ शरीर, वह हो गया।

आप कहेंगे, नहीं होता। मांगी थी सुंदर स्त्री, मिल गई कुरूप। मांगा था सुंदर—स्वस्थ शरीर, मिल गई बीमारियों वाली देह।

लेकिन उसमें भी आप खयाल करें कि उसमें भी आपकी ही मांग रही होगी। आपको जो भी मिल गया है, उसमें कहीं न कहीं आपकी मांग रही होगी। आपकी मांगें बड़ी कंट्राडिक्टरी हैं, विरोधाभासी हैं। इसलिए अस्तित्व भी बड़ी दिक्कत में होता है। क्योंकि आप एक तरफ से जो मांगते हैं, दूसरी तरफ से खुद ही गलत कर लेते हैं।

 एक लड़की भगवान के पास आई और उसने कहा कि मुझे पति ऐसा चाहिए, शेर जैसा। सिंह हो। दबंग हो। लेकिन सदा मेरी माने! अब मुश्किल हो गई। अब इनको एक ऐसा पति मिलेगा जो देखने में शेर हो और भीतर से बिलकुल भेड़—बकरी हो। तब इसको तकलीफ होगी। इसकी मांगें विरोधी हैं। जो दबंग होगा, वह तुझसे क्यों दबेगा? वह सबसे पहले तुझी को दबाएगा। सबसे निकट तेरे को ही पाएगा। अब इस स्त्री की जो मांग है, विरोधाभासी है, कट्राडिक्टरी है। हालांकि उसे खयाल भी नहीं है।

पुरुष ऐसी स्त्री चाहता है, जो बहुत सुंदर हो। ऐसी स्त्री जरूर चाहता है, जो बहुत सुंदर हो, लेकिन साथ में वह ऐसी स्त्री भी चाहता है, जो बिलकुल पक्की पतिव्रता हो। साथ में वह यह भी चाहता है कि किसी आदमी की नजर मेरी स्त्री की तरफ बुरी न पड़े। अब वह सब उपद्रव की बातें चाह रहा है। बहुत सुंदर स्त्री होगी, दूसरों की नजर भी पड़ेगी। और ध्यान रहे, बहुत सुंदर स्त्री भी बहुत सुंदर पुरुष की तलाश कर रही है, आपकी तलाश नहीं कर रही है।, तो पतिव्रता होना जरा मुश्किल है।

हमारी वासनाएं हैं विरोधी। हम जो मांग करते हैं, वे एक—दूसरे को काट देती हैं। अस्तित्व हमारी सब मांगें पूरी कर देता है, यह जानकर आप हैरान होंगे। लेकिन आपको पता ही नहीं, आप क्या मांगते हैं। कल जो मांगा था, आज इनकार कर देते हैं। आज जो मांगते हैं, सांझ इनकार कर देते हैं। आपको पता ही नहीं कि आपने इतनी मांगें अस्तित्व के सामने रख दी हैं कि अगर वह सब पूरी करे, तो आप पागल होंगे ही, कोई और उपाय नहीं है। और उसने सब पूरी कर दी हैं।

जिन्होंने धर्म में गहन प्रवेश किया है, वे जानते हैं कि आदमी की जो भी मांगें हैं, वे सब पूरी हो जाती हैं। यही आदमी की मुसीबत है।

ये कृष्‍ण राजी हो गए, यह इस बात की खबर है कि अस्तित्व राजी है, जरा सोच—समझकर उससे कुछ मांगना। बेहतर हो मत मांगना; उसी पर छोड़ देना कि जो तेरी मर्जी। तब आपकी जिंदगी में कष्ट नहीं होगा, क्योंकि तब उसकी मर्जी में कोई विरोध नहीं है। समर्पण का यही अर्थ है कि तू जो ठीक समझे, वह करना।

हम में से जो बड़े से बड़े लोग हैं, वे भी इतनी हिम्मत नहीं कर पाते।

कृष्‍ण ने कहा कि मैं पूरा किए देता हूं। तू जैसा चाहता है, वैसा मैं वापस हुआ जाता हूं।

वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखाया। और फिर महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया।

फिर भगवान कृष्‍ण नहीं कहा संजय ने। क्योंकि जैसे ही वे सीमा में आ गए, वे जैसे ही रूप में बंध गए, जैसे ही उनकी चारों भुजाएं प्रकट हो गईं, और जैसे ही अर्जुन के मनोनुकूल वे खड़े हो गए, भगवान शब्द छोड़ दिया। तत्‍क्षण कहा, महात्मा कृष्‍ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया।

महात्मा और परमात्मा में इतना ही फर्क है। परमात्मा आपकी मर्जी के अनुकूल नहीं चल सकता। आपको उसकी मर्जी के अनुकूल चलना होगा। महात्मा आपके धीरज और सांत्वना के लिए बहुत बार आपकी मर्जी के अनुकूल भी चलता है। वह दया से भरा है।

ईश्वर तो भूकंप है। इसलिए जो मरने को तैयार हैं, वही उसमें प्रवेश कर पाते हैं। लेकिन अगर हमारी मांग सीमा की है, तो महात्मा प्रकट होते हैं। महात्मा ईश्वर का वह रूप है, जो हमारे अनुकूल है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। महात्मा परमात्मा का वह रूप है, जो हमारे अनुकूल है।

इसलिए कृष्‍ण को हमने पूर्ण अवतार कहा, क्योंकि बहुत जगह वह हमारे अनुकूल नहीं हैं। राम को हमने आंशिक अवतार कहा, क्योंकि वे बिलकुल हमारे अनुकूल हैं। राम में भूल—चूक खोजनी मुश्किल है। कृष्ण में भूल—चूक काफी हैं। भूल—चूक इसलिए नहीं कि उनमें भूल—चूक हैं। भूल—चूक इसलिए हैं कि हमारे साथ तालमेल नहीं खाता।

राम और सीता का संबंध समझ में आता है। कृष्‍ण और उनकी गोपियों का संबंध सज्जन से सज्जन आदमी को जरा चिंता में डाल देता है कि यह जरा ठीक नहीं है। जरा ऐसा लगता है कि यह बात न ही उठाओ। कृष्ण में कुछ है, जो हमें डराता भी है।

इसलिए हम उनको पूर्ण अवतार कहे हैं, क्योंकि हम उनसे पूरे राजी नहीं हो पाते। वे पूर्ण हैं। हम इतने अधूरे हैं कि हम उनके आधे हिस्से से ही राजी हो सकते हैं। राम को हमने अधूरा अवतार कहा है, क्योंकि हम उनसे पूरे राजी हो जाते हैं। हम पूरे राजी हो जाते हैं, वे हमारे इतने अनुकूल हैं कि पूरे नहीं हो सकते, बात जाहिर है। हमसे इतना उनका मेल है कि वे अधूरे ही होंगे। वे आंशिक अवतार होंगे।

इसलिए व्यास कहते हैं, महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया।

हे जनार्दन, आपके इस अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांत—चित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं।

अर्जुन ने कहा कि यह देखकर आपका सीमा में वापस लौट आना, मैं अपने स्वभाव को उपलब्ध हो गया हूं।

यह स्वभाव क्या है अर्जुन का?

मनुष्य का स्वभाव सशर्त है। वह कहता है, ऐसे होओ, ऐसे होओगे तो ही।

अर्जुन कह रहा है, अब मैं अपने स्वभाव में आ गया, तुम्हें वापस वही देखकर, जो तुम थे। अर्जुन अपने स्वभाव के बाहर चला गया था?

एक अर्थ में चला गया था। और एक अर्थ में अपने गहरे स्वभाव में चला गया था। इस अर्थ में बाहर चला गया था कि मनुष्य की बुद्धि के जो परे है, वह उसके दर्शन में आ गया और वह भयभीत हो गया। उसकी सारी की सारी मनुष्यता डांवाडोल हो गई। मनुष्य की पकड़ में न आ सके, ऐसा उसे दिख गया। और एक अर्थ में वह अपने गहरे स्वभाव में चला गया था। लेकिन वह स्वभाव कास्मिक है, वह स्वभाव जागतिक है; वह मनुष्य का नहीं है।

अर्जुन कह रहा है, मैं अपने स्वभाव में आ गया।

परमात्मा के साथ साधक और भक्त का यही फर्क है, यह खयाल आखिरी ले लें।

साधक कहता है, तुम जैसे हो, वैसा ही मैं तुम्हें देखने आऊंगा; अपने को बदलूंगा। यह संकल्प का रास्ता है। वह कहता है, मैं अपने को बदलूंगा। अगर तुम ऐसे हो, तो मैं अपने को बदलूंगा। अपनी नई आंख पैदा करूंगा। और तुम जैसे हो, वैसा ही तुम्हें देखूंगा।

कृष्णमूर्ति का सारा जोर यही है कि उस पर कोई धारणा लेकर मत जाना। अपनी सब धारणा छोड़ देना। सत्य जैसा है, उसे तुम वैसे ही देखने को राजी होना। उसके लिए खुद को जितना तपाना पड़े, गलाना पड़े, मिटाना पडे, खुद की मूर्च्छा जितनी तोड़नी पड़े, तोड़ना। लेकिन खुद को निखारना, उस पर कोई आग्रह मत करना कि तू ऐसा हो जा।

साधक संकल्प से अपने को बदलता है। और एक दिन, जिस दिन शून्य हो जाता है, शांत, शुद्ध, उस दिन सत्य को देख लेता है।

भक्त! भक्त कहता है कि मैं जैसा  हूं। मैं अपने को बदलने वाला नहीं, तुम्हीं मुझे बदलना। और जब तक मैं ऐसा हूं तब तक मेरी शर्त है कि तुम ऐसे प्रकट होना। भक्त यह कहता है कि मेरा आग्रह है कि जब तक मैं नहीं बदला हूं और मैं अपने को क्या बदल सकूंगा, तुम्हीं बदल सकोगे। और तुम भी मुझे तभी बदल सकोगे, जब मेरा तुमसे नाता, तालमेल बन जाए। अभी मैं जैसा हूं इससे ही संबंध बनाओ। तो तुम इस शक्ल में आ जाओ, इस रूप में खड़े हो जाओ। मैं तुम्हें कृष्ण की तरह, राम की तरह, क्राइस्ट की तरह चाहता हूं ताकि मेरा संबंध बन जाए। संबंध बन जाए, तो फिर तुम मुझे बदल लेना।

यह बड़ी मजेदार बात है। भक्त यह कह रहा है कि मैं अपने को क्या बदलूंगा? कैसे बदलूंगा? मुझे कुछ भी तो पता नहीं है। और मेरी सामर्थ्य, शक्ति कितनी है? कि कैसे अपने को शुद्ध करूंगा? मैं तो अशुद्ध, जैसा भी हूं, यह हूं। तुम ऐसे ही मुझे स्वीकार कर लो। लेकिन इस अशुद्ध आदमी की धारणा है। तो तुम इस शक्ल में आ जाओ, ताकि मेरा संबंध जुड़ जाए। एक दफा संबंध जुड़ जाए और मैं तुम्हारी नाव में सवार हो जाऊं, फिर तुम जहां मुझे ले जाओ, ले जाना। लेकिन अभी मेरी मर्जी की नाव बनकर आ जाओ।

दोनों ही तरह घटना घटती है। जो अपनी सब धारणाओं को गिरा देता है, उसके लिए कोई नाव की जरूरत नहीं रह जाती। उसे उस पार जाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, वह इसी पार मुक्त हो जाता है।

लेकिन दुरूह है मार्ग। एक—एक इंच अपने को बदलना है। जिसको बदलना है, उसके ही द्वारा बदलाहट लानी है, इसलिए बड़ा कठिन है। जैसे बीमार अपना ही इलाज कर रहा है।

डाक्टर भी बीमार हो जाए, तो दूसरे डाक्टर के पास जाता है, क्योंकि खुद का इलाज करने में घबड़ाहट लगती है। दूसरे के इलाज में तो एक दूरी होती है, तटस्थता होती है, निरीक्षण, डायग्नोसिस आसान होती है। खुद का ही इलाज करना हो, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है। कोई बड़े से बड़ा सर्जन भी खुद का आपरेशन न करेगा। हाथ कंप जाएंगे। खुद का तो दूर है, बड़ा सर्जन अपनी पत्नी का भी आपरेशन करने को राजी नहीं होता। अगर पत्नी से झगड़ा हो, तो बात दूसरी है। थोड़ा लगाव हो, तो राजी नहीं होगा। अगर मार ही डालना चाहता हो, तो बात अलग है। नहीं तो डरेगा, क्योंकि हाथ कंपने लगेगा। राग बीच में आ जाता है।

और अपने को ही बदलना है, तो अपने से तो बहुत राग है। इसलिए भक्त कहता है, यह अपने बस की बात नहीं कि हम अपने को बदल लें। हम तो जैसे हैं, वैसे हैं। हम अपने को छोड़ सकते हैं तेरे चरणों में, बुरे— भले, चोर—बेईमान, जैसे भी हैं, छोड़ सकते हैं। तू ही बदल लेना।

यह भी संभव होता है। और इन दो में साफ होना जरूरी है, नहीं तो आदमी दोनों में डोलता रहता है। दोनों के बीच कोई मार्ग नहीं है। या तो स्पष्ट समझ लेना कि मुझे खुद ही बदलना है, तब फिर किसी परमात्मा को, किसी गुरु को, किसी को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। फिर कितनी ही हो लंबी यात्रा और कितने ही अनंत युग लगें, लड़ते रहना। वह भी बुरा नहीं है। वह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है।

लेकिन अगर लगता हो कि यह हमसे न हो सकेगा, यह लड़ाई लंबी है, और हम चुक जाएंगे, टूट जाएंगे, तो फिर व्यर्थ लड़ना मत। फिर समर्पण कर देना। सीधा इसी क्षण छोड़ देना। यह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है। क्योंकि वही समर्पण भी कर पाता है, जो कम से कम इतना तो अपना मालिक है कि छोड़ सके। आप वही छोड़ सकते हैं, जिसके आप मालिक हैं।

ये दो हैं रास्ते, समझौता कोई भी नहीं है। इनमें से जो ठीक—ठीक चुन लेता है अपने अनुकूल रास्ता, वह पहुंच जाता है; व्यर्थ भटकाव से बच जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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