सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 5

 अहंकार घाव है


   अथ चित्‍तं समाधातुं न शक्‍नोषि मयि स्‍थिरम्।

अभ्यातयोगेन नो मामिच्‍छाप्तुं धनंजय।। 9।।

अभ्यासेऽध्यसमर्थोऽसि मत्कर्मयरमो भव।

मदर्थमीय कमगॅण कुर्वीन्सघ्रईमवाप्स्यीस।। 10।।


और तू यदि मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो है अर्जुनु अभ्यासरूप— योग से मेरे को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।

और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मो को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।


और यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं हैतो हे अर्जुनअभ्यासरूप—योग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।
कृष्ण ने कहाऔर अगर तू पाए कि एकदम से भाव कैसे करूंऔर एकदम से मन को कैसे लगा दूं प्रभु मेंऔर एकदम से कैसे डूब जाऊंलीन हो जाऊंअगर तुझे ऐसा प्रश्न उठे कि कैसेतो फिर अभ्यासरूप—योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर। यह बात समझ लेने जैसी है।
दो तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैंजिनको यह कहते से ही कि डूब जाओडूब जाएंगे। वे नहीं पूछेंगेकैसे?
छोटे बच्चे हैं। उनसे कहो कि नाचो और नाच में डूब जाओ। तो वे यह नहीं पूछेंगेकैसेनाचने लगेंगे और डूब जाएंगे। और अगर कोई बच्चा पूछे कैसेतो समझना कि बुढा उसमें पैदा हो गयावह अब बच्चा है नहीं। कैसे का मतलब ही यह है कि पहले कोई तरकीब बताओतब हम डूबेंगे। डूब सीधा नहीं सकते। इसका मतलब यह हुआ कि डूबने और हमारे बीच में कोई बाधा हैजिसको तोड्ने के लिए तरकीब की जरूरत होगी।
बच्चा डूब जाएगानाचने लगेगा। बच्चा जानता ही है। खेल में डूब जाता है। बच्‍चे को खेल से निकालना पड़ता हैडुबाना नहीं पड़ता। बच्चा डूबा होता हैमां—बाप को खींच—खींचकर बाहर निकालना पड़ता हैकि निकल आओ। अब चलो। और वह है कि खिंचा जा रहा है। खेल में डूबा हुआ था। ये मां—बाप उसे कहा खाने कीपीने कीसोने कीव्यर्थ की बातें कर रहे हैं! वह लीन था। उस लीनता में वह अस्तित्व के साथ एक था। चाहे वह गुड्डी होचाहे वह कोई खिलौना होचाहे कोई खेल हो। वह जानता है। बच्चे कभी नहीं पूछते कि खेल में कैसे डूबेआपने किसी बच्चे को सुना है पूछते कि खेल में कैसे डूबेवह डूबना जानता है। वह पूछता नहीं।
जो लोग बच्चों की तरह ताजे होते हैं—थोड़े से लोगऔर उनकी संख्या रोज कम होती जाती है—वे लोग सीधे डूब सकते हैं।

आपसे लोग कहते हैंएकांत में बैठ जाओ। आप कहते हैंएकांत में तो और मुसीबत हो जाती है। इतना तो लोगों से बातचीत करते रहते हैंतो मन सुलझा रहता है। उलझा रहता हैइसलिए लगता हैसुलझा है! अकेले में तो हम ही रह जाते हैंऔर बड़ी तकलीफ होती है।

तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू डूब सकता हो मुझमेंतो डूब जा। फिर तो कोई बात करने की नहीं है। लेकिन अर्जुन सुसंस्कृत क्षत्रिय है। पढ़ा—लिखा है। उस समय का बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी है। तो कृष्ण को भी शक है कि वह डूब सकेगा कि नहीं। तो वे कहते हैंऔर अगर न डूब सकेतो फिर अभ्यासरूप—योग द्वारा मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर। फिर तुझे अभ्यास करना पड़ेगा।
भक्त बिना योग के पहुंच जाता है। जो भक्त नहीं हो सकताउसको योग से जाना पड़ता है। योग का मतलब हैटेक्नोलोजी। अगर सीधे नहीं डूब सकतेतो टेक्नीक का उपयोग करो। तो फिर एक बिंदु बनाओ। उस पर चित्त को एकाग्र करो। कि एक मंत्र लो। सब शब्दों को छोड़करओमओमएक ही मंत्र को दोहराओदोहराओ। सारा ध्यान उस पर एकाग्र करो।
अगर मंत्र से काम न चलता होतो शरीर को बिलकुल थिर करके आसन में रोक रखो। क्योंकि जब शरीर बिलकुल थिर हो जाता हैतो मन को थिर होने में सहायता पहुंचाता है। तो शरीर को बिलकुल पत्थर की तरहमूर्ति की तरह थिर कर लो। सिद्धासन हैपद्यासन हैउसमें बैठ जाओ।
अगर आंख खोलने से बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैंऔर आंख बंद करने से भीतर की चीजें दिखाई पड़ती हैंतो आधी आंख खोलो। तो नाक ही दिखाई पड़े बसइतना बाहर। और भीतर भी नहींबाहर भी नहीं। तो नाक पर ही अपने को थिर कर लो।
ये सब टेक्नीक हैं। ये उनके लिए हैंजो भक्त नहीं हो सकते। जो प्रेम नहीं कर सकतेउनके लिए हैं। योग उनके लिए हैजो प्रेम में असमर्थ हैं। जो प्रेम में समर्थ हैंउनके लिए योग की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन जो प्रेम में समर्थ नहीं हैंउनको पहले अपने को तैयार करना पड़े कि कैसे डूबे। तो नाक के बिंदु पर डूबोकि नाभि पर ध्यान को केंद्रित करोकि बंद कर लो अपनी आंखों को और भीतर एक प्रकाश का बिंदु कल्पित करोउस पर ध्यान को एकाग्र करो। वर्षों मेहनत करो। अभ्यासरूप—योग द्वारा!
और जब इन छोटे—छोटेछोटे—छोटे प्रयोगों से अभ्यास करते—करते वर्षों में तुम इस जगह आ जाओ कि अब तुम न पूछो कि कैसे। क्योंकि तुम्हें पता हो गया कि ऐसे डूबा जा सकता हैतब सीधे परमात्मा में डूब जाओ। तब अपने बिंदुऔर अपने मंत्रऔर अपने यंत्रसब छोड़ दोऔर सीधी छलांग लगा लो।
जो सीधा कूद सकेइससे बेहतर कुछ भी नहीं है। प्रेमी सीधा कूद सकता है। लेकिन अगर बुद्धि बहुत काम करती होतो फिर पूछेगीहाउकैसेतो फिर योग की परंपरा हैपतंजलि के सूत्र हैंफिर साधो। फिर उनको साध—साधकर पहले सीखो एकाग्रताफिर तन्मयता में उतरो।
अभ्यासरूप—योग के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ हो ।
यह भी हो सकता है कि तू कहे कि बड़ा कठिन है। कहां बैठें! और कितना ही बैठो सम्हालकरशरीर कांपता है। और मन को कितना ही रोकोमन रुकता नहीं। और ध्यान लगाओतो नींद आती हैतल्लीनता नहीं होती।
अगर तू इसमें भी समर्थ न होतो फिर एक काम कर। तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्तिमेरी सिद्धि को पा सकेगा।
अगर तुझे यह भी तकलीफ मालूम पड़ती होअगर भक्ति—योग तुझे कठिन मालूम पड़ेतो फिर ज्ञान—योग है। ज्ञान—योग का अर्थ हैयोग की साधनाअभ्यास। अगर तुझे वह भी कठिन मालूम पड़ता होतो फिर कर्म—योग है। तो फिर तू इतना ही कर कि सारे कर्मों को मुझमें समर्पित कर दे। और ऐसा मान ले कि तेरे भीतर मैं ही कर रहा हूं। और मैं ही तुझसे करवा रहा हूं। और तू ऐसे कर जैसे कि मेरा साधन हो गया हैएक उपकरण मात्र। न पाप तेरान पुण्य तेरा। न अच्छा तेरान बुरा तेरा। सब तू छोड़ दे और कर्म को मेरे प्रति समर्पित कर दे।
ये तीन हैं। श्रेष्ठतम तो प्रेम है। क्योंकि छलांग सीधी लग जाएगी। नंबर दो पर साधना है। क्योंकि प्रयास और अभ्यास से लग सकेगी। अगर वह भी न हो सकेतो नंबर तीन पर जीवन का कर्म है। फिर पूरे जीवन के कर्म को प्रभु—अर्पित मानकर चलता जा। इन तीन में से ही किसी को चुनाव करना पड़ता है। और ध्यान रहेजल्दी से तीसरा मत चुन लेना। पहले तो कोशिश करनाखयाल करना पहले कीप्रेम की। अगर बिलकुल ही असमर्थ अपने को पाएं कि नहींयह हो ही नहीं सकता.।
कुछ लोग प्रेम में बिलकुल असमर्थ हैं। असमर्थ हो गए हैं अपने ही अभ्यास से। जैसे कोई आदमी अगर धन को बहुत पकड़ता हो, पैसे को बहुत पकड़ता होतो प्रेम में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि विपरीत बातें हैं। अगर पैसे को जोर से पकड़ना हैतो आदमी को प्रेम से बचना पड़ता है। क्योंकि प्रेम में पैसे को खतरा है। प्रेमी पैसा इकट्ठा नहीं कर सकता। जिनसे प्रेम करेगावे ही उसका पैसा खराब करवा देंगे। प्रेम किया कि पैसा हाथ से गया।
तो जो पैसे को पकड़ता हैवह प्रेम से सावधान रहता है कि प्रेम की झंझट में नहीं पड़ना है। वह अपने बच्चों तक से भी जरा सम्हलकर बोलता है। क्योंकि बाप भी जानते हैंअगर जरा मुस्कुराओतो बच्चा खीसे में हाथ डालता है। मत मुस्कुराओअकड़े रहोघर में अकड़कर घुसो। बच्चा डरता है कि कोई गलती तो पता नहीं चल गई! गलती तो बच्चे कर ही रहे हैं। और बच्चे नहीं करेंगेतो कौन करेगा! तो समझता है कि कोई गड़बड़ हो गई हैजरा दूर ही रहो। लेकिन बाप अगर मुस्कुरा देतो बच्चा फौरन खीसे में हाथ डालता है।
तो बाप पत्नी से भी सम्हलकर बात करता है। क्योंकि जरा ही वह ढीला हुआ और उसकी जरा कमर झुकी कि पत्नी ने बताया कि उसने साड़ियां देखी हैं! फलां देखा हैं।
तो जिसको पैसे पर बहुत पकड़ हैवह प्रेम से तो बहुत डरा हुआ रहता है। और हम सबकी पैसे पर भारी पकड़ है। एक—एक पैसे पर पकड़ है। और बहाने हम कई तरह के निकालते हैं कि पैसे पर हमारी पकड़ क्यों है। लेकिन बहाने सिर्फ बहाने हैं। एक बात पक्की है कि पैसे की पकड़ होतो प्रेम जीवन में नहीं होता।
तो जितना ज्यादा पैसे की पकड़ वाला युग होगाउतना प्रेमशून्य होगा। और प्रेमपूर्ण युग होगातो बहुत आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हो सकता। पैसे पर पकड़ छूट जाएगी।
प्रेमी आदमी बहुत समृद्ध नहीं हो सकता। उपाय नहीं है। पैसा छोड़कर भाग जाएगा उसके हाथ से। किसी को भी दे देगा। कोई भी उससे निकाल लेगा।


तो हम अगर प्रेम में समर्थ हो सकेंतब तो श्रेष्ठतम। अगर न हो सकेंतो फिर अभ्यास की फिक्र करनी चाहिए। फिर योग—साधन हैं। अगर उनमें भी असफल हो जाएंतो ही तीसरे का प्रयोग करना चाहिएकि फिर हम कर्म को। क्योंकि वह मजबूरी है। जब कुछ भी न बनेतो आखिरी है।
जैसे पहले आप एलोपैथ डाक्टर के पास जाते हैं। अगर वह असफल हो जाएफिर होमियोपैथ के पास जाते हैं। वह भी असफल हो जाए तो फिर नेचरोपैथ के पास जाते हैं। वह नेचरोपैथी हैवह आखिरी है। जब कि ऐसा लगे कि अब कुछ होता ही नहीं हैकि ज्यादा से ज्यादा नेचरोपैथ मारेगा और क्या करेगातो ठीक है अब। सब हार गए तो अब कहीं भी जाया जा सकता है।
कर्म—योग आखिरी है। क्योंकि उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है उपाय। तो सीधा कर्म—योग से प्रयोग शुरू मत करनानहीं तो दिक्कत में पड़ जाएंगे। क्योंकि उससे नीचे गिरने की कोई जगह नहीं है।
पहले प्रेम से शुरू करना। अगर हो जाए अदभुत। न हो पाएतो अभी दो उपाय हैं। अभी दो इलाज बाकी हैं। फिर अभ्यास का प्रयोग करना। और जल्दी मत छोड़ देना। क्योंकि अभ्यास तो वर्षों लेता है। तो वर्षों मेहनत करना। अगर हो जाए तो बेहतर है। अगर न हो पाएतो फिर कर्म पर उतरना।
और ध्यान रहेजिसने प्रेम का प्रयोग किया और असफल हुआऔर जिसने योग का अभ्यास किया—अभ्यास कियामेहनत की—और असफल हुआवह कर्म—योग में जरूर सफल हो जाता है। लेकिन जिसने न प्रेम का प्रयोग कियान असफल हुआन जिसने योग साधान असफल हुआवह कर्म—योग में भी सफल नहीं हो पाता।
वे दो असफलताएं जरूरी हैं तीसरे की सफलता के लिए। क्योंकि फिर वह आखिरी कदम है और जीवन—मृत्यु का सवाल है। फिर आप पूरी ताकत लगा देते हैं। क्योंकि उसके बाद फिर कोई विकल्प नहीं है। इसलिए निकृष्ट से शुरू मत करना।
कई लोग अपने को धोखा देते रहते हैं। वे कहते हैंहम तो कर्म—योग में लगे हैं!  धंधा करते हैंनौकरी करते हैं। वे कहते हैंहम तो कर्म—योग में लगे हैं! जैसे कोई भी काम करना कर्म—योग है!
कोई भी काम करना कर्म—योग नहीं है। कर्म—योग का मतलब हैकाम आप नहीं कर रहेपरमात्मा कर रहा हैयह भाव। दुकान आप नहीं चला रहेपरमात्मा चला रहा है। और फिर जो भी सफलता—असफलता हो रही हैवह आपकी नहीं हो रही हैपरमात्मा की हो रही है। और जिस दिन आप दीवालिया हो जाएंतो कह देना कि परमात्मा दीवालिया हो गया। और जिस दिन धन बरस पड़ेतो कहना कि उसका ही श्रेय है। मैं नहीं हूं। अपने को हटा लेना और सारा कर्म उस पर छोड़ देना।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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