और यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन, अभ्यासरूप—योग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।
कृष्ण ने कहा, और अगर तू पाए कि एकदम से भाव कैसे करूं, और एकदम से मन को कैसे लगा दूं प्रभु में, और एकदम से कैसे डूब जाऊं, लीन हो जाऊं; अगर तुझे ऐसा प्रश्न उठे कि कैसे, तो फिर अभ्यासरूप—योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर। यह बात समझ लेने जैसी है।
दो तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैं, जिनको यह कहते से ही कि डूब जाओ, डूब जाएंगे। वे नहीं पूछेंगे, कैसे?
छोटे बच्चे हैं। उनसे कहो कि नाचो और नाच में डूब जाओ। तो वे यह नहीं पूछेंगे, कैसे? नाचने लगेंगे और डूब जाएंगे। और अगर कोई बच्चा पूछे कैसे, तो समझना कि बुढा उसमें पैदा हो गया, वह अब बच्चा है नहीं। कैसे का मतलब ही यह है कि पहले कोई तरकीब बताओ, तब हम डूबेंगे। डूब सीधा नहीं सकते। इसका मतलब यह हुआ कि डूबने और हमारे बीच में कोई बाधा है, जिसको तोड्ने के लिए तरकीब की जरूरत होगी।
बच्चा डूब जाएगा; नाचने लगेगा। बच्चा जानता ही है। खेल में डूब जाता है। बच्चे को खेल से निकालना पड़ता है, डुबाना नहीं पड़ता। बच्चा डूबा होता है; मां—बाप को खींच—खींचकर बाहर निकालना पड़ता है, कि निकल आओ। अब चलो। और वह है कि खिंचा जा रहा है। खेल में डूबा हुआ था। ये मां—बाप उसे कहा खाने की, पीने की, सोने की, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं! वह लीन था। उस लीनता में वह अस्तित्व के साथ एक था। चाहे वह गुड्डी हो, चाहे वह कोई खिलौना हो, चाहे कोई खेल हो। वह जानता है। बच्चे कभी नहीं पूछते कि खेल में कैसे डूबे? आपने किसी बच्चे को सुना है पूछते कि खेल में कैसे डूबे? वह डूबना जानता है। वह पूछता नहीं।
जो लोग बच्चों की तरह ताजे होते हैं—थोड़े से लोग, और उनकी संख्या रोज कम होती जाती है—वे लोग सीधे डूब सकते हैं।
आपसे लोग कहते हैं, एकांत में बैठ जाओ। आप कहते हैं, एकांत में तो और मुसीबत हो जाती है। इतना तो लोगों से बातचीत करते रहते हैं, तो मन सुलझा रहता है। उलझा रहता है, इसलिए लगता है, सुलझा है! अकेले में तो हम ही रह जाते हैं, और बड़ी तकलीफ होती है।
तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू डूब सकता हो मुझमें, तो डूब जा। फिर तो कोई बात करने की नहीं है। लेकिन अर्जुन सुसंस्कृत क्षत्रिय है। पढ़ा—लिखा है। उस समय का बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी है। तो कृष्ण को भी शक है कि वह डूब सकेगा कि नहीं। तो वे कहते हैं, और अगर न डूब सके, तो फिर अभ्यासरूप—योग द्वारा मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर। फिर तुझे अभ्यास करना पड़ेगा।
भक्त बिना योग के पहुंच जाता है। जो भक्त नहीं हो सकता, उसको योग से जाना पड़ता है। योग का मतलब है, टेक्नोलोजी। अगर सीधे नहीं डूब सकते, तो टेक्नीक का उपयोग करो। तो फिर एक बिंदु बनाओ। उस पर चित्त को एकाग्र करो। कि एक मंत्र लो। सब शब्दों को छोड़कर, ओम, ओम, एक ही मंत्र को दोहराओ, दोहराओ। सारा ध्यान उस पर एकाग्र करो।
अगर मंत्र से काम न चलता हो, तो शरीर को बिलकुल थिर करके आसन में रोक रखो। क्योंकि जब शरीर बिलकुल थिर हो जाता है, तो मन को थिर होने में सहायता पहुंचाता है। तो शरीर को बिलकुल पत्थर की तरह, मूर्ति की तरह थिर कर लो। सिद्धासन है, पद्यासन है, उसमें बैठ जाओ।
अगर आंख खोलने से बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, और आंख बंद करने से भीतर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, तो आधी आंख खोलो। तो नाक ही दिखाई पड़े बस, इतना बाहर। और भीतर भी नहीं, बाहर भी नहीं। तो नाक पर ही अपने को थिर कर लो।
ये सब टेक्नीक हैं। ये उनके लिए हैं, जो भक्त नहीं हो सकते। जो प्रेम नहीं कर सकते, उनके लिए हैं। योग उनके लिए है, जो प्रेम में असमर्थ हैं। जो प्रेम में समर्थ हैं, उनके लिए योग की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन जो प्रेम में समर्थ नहीं हैं, उनको पहले अपने को तैयार करना पड़े कि कैसे डूबे। तो नाक के बिंदु पर डूबो; कि नाभि पर ध्यान को केंद्रित करो; कि बंद कर लो अपनी आंखों को और भीतर एक प्रकाश का बिंदु कल्पित करो, उस पर ध्यान को एकाग्र करो। वर्षों मेहनत करो। अभ्यासरूप—योग द्वारा!
और जब इन छोटे—छोटे, छोटे—छोटे प्रयोगों से अभ्यास करते—करते वर्षों में तुम इस जगह आ जाओ कि अब तुम न पूछो कि कैसे। क्योंकि तुम्हें पता हो गया कि ऐसे डूबा जा सकता है; तब सीधे परमात्मा में डूब जाओ। तब अपने बिंदु, और अपने मंत्र, और अपने यंत्र, सब छोड़ दो, और सीधी छलांग लगा लो।
जो सीधा कूद सके, इससे बेहतर कुछ भी नहीं है। प्रेमी सीधा कूद सकता है। लेकिन अगर बुद्धि बहुत काम करती हो, तो फिर पूछेगी, हाउ? कैसे? तो फिर योग की परंपरा है, पतंजलि के सूत्र हैं, फिर साधो। फिर उनको साध—साधकर पहले सीखो एकाग्रता, फिर तन्मयता में उतरो।
अभ्यासरूप—योग के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ हो ।
यह भी हो सकता है कि तू कहे कि बड़ा कठिन है। कहां बैठें! और कितना ही बैठो सम्हालकर, शरीर कांपता है। और मन को कितना ही रोको, मन रुकता नहीं। और ध्यान लगाओ, तो नींद आती है, तल्लीनता नहीं होती।
अगर तू इसमें भी समर्थ न हो, तो फिर एक काम कर। तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति, मेरी सिद्धि को पा सकेगा।
अगर तुझे यह भी तकलीफ मालूम पड़ती हो, अगर भक्ति—योग तुझे कठिन मालूम पड़े, तो फिर ज्ञान—योग है। ज्ञान—योग का अर्थ है, योग की साधना, अभ्यास। अगर तुझे वह भी कठिन मालूम पड़ता हो, तो फिर कर्म—योग है। तो फिर तू इतना ही कर कि सारे कर्मों को मुझमें समर्पित कर दे। और ऐसा मान ले कि तेरे भीतर मैं ही कर रहा हूं। और मैं ही तुझसे करवा रहा हूं। और तू ऐसे कर जैसे कि मेरा साधन हो गया है, एक उपकरण मात्र। न पाप तेरा, न पुण्य तेरा। न अच्छा तेरा, न बुरा तेरा। सब तू छोड़ दे और कर्म को मेरे प्रति समर्पित कर दे।
ये तीन हैं। श्रेष्ठतम तो प्रेम है। क्योंकि छलांग सीधी लग जाएगी। नंबर दो पर साधना है। क्योंकि प्रयास और अभ्यास से लग सकेगी। अगर वह भी न हो सके, तो नंबर तीन पर जीवन का कर्म है। फिर पूरे जीवन के कर्म को प्रभु—अर्पित मानकर चलता जा। इन तीन में से ही किसी को चुनाव करना पड़ता है। और ध्यान रहे, जल्दी से तीसरा मत चुन लेना। पहले तो कोशिश करना, खयाल करना पहले की, प्रेम की। अगर बिलकुल ही असमर्थ अपने को पाएं कि नहीं, यह हो ही नहीं सकता.।
कुछ लोग प्रेम में बिलकुल असमर्थ हैं। असमर्थ हो गए हैं अपने ही अभ्यास से। जैसे कोई आदमी अगर धन को बहुत पकड़ता हो, पैसे को बहुत पकड़ता हो, तो प्रेम में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि विपरीत बातें हैं। अगर पैसे को जोर से पकड़ना है, तो आदमी को प्रेम से बचना पड़ता है। क्योंकि प्रेम में पैसे को खतरा है। प्रेमी पैसा इकट्ठा नहीं कर सकता। जिनसे प्रेम करेगा, वे ही उसका पैसा खराब करवा देंगे। प्रेम किया कि पैसा हाथ से गया।
तो जो पैसे को पकड़ता है, वह प्रेम से सावधान रहता है कि प्रेम की झंझट में नहीं पड़ना है। वह अपने बच्चों तक से भी जरा सम्हलकर बोलता है। क्योंकि बाप भी जानते हैं, अगर जरा मुस्कुराओ, तो बच्चा खीसे में हाथ डालता है। मत मुस्कुराओ, अकड़े रहो, घर में अकड़कर घुसो। बच्चा डरता है कि कोई गलती तो पता नहीं चल गई! गलती तो बच्चे कर ही रहे हैं। और बच्चे नहीं करेंगे, तो कौन करेगा! तो समझता है कि कोई गड़बड़ हो गई है; जरा दूर ही रहो। लेकिन बाप अगर मुस्कुरा दे, तो बच्चा फौरन खीसे में हाथ डालता है।
तो बाप पत्नी से भी सम्हलकर बात करता है। क्योंकि जरा ही वह ढीला हुआ और उसकी जरा कमर झुकी कि पत्नी ने बताया कि उसने साड़ियां देखी हैं! फलां देखा हैं।
तो जिसको पैसे पर बहुत पकड़ है, वह प्रेम से तो बहुत डरा हुआ रहता है। और हम सबकी पैसे पर भारी पकड़ है। एक—एक पैसे पर पकड़ है। और बहाने हम कई तरह के निकालते हैं कि पैसे पर हमारी पकड़ क्यों है। लेकिन बहाने सिर्फ बहाने हैं। एक बात पक्की है कि पैसे की पकड़ हो, तो प्रेम जीवन में नहीं होता।
तो जितना ज्यादा पैसे की पकड़ वाला युग होगा, उतना प्रेमशून्य होगा। और प्रेमपूर्ण युग होगा, तो बहुत आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हो सकता। पैसे पर पकड़ छूट जाएगी।
प्रेमी आदमी बहुत समृद्ध नहीं हो सकता। उपाय नहीं है। पैसा छोड़कर भाग जाएगा उसके हाथ से। किसी को भी दे देगा। कोई भी उससे निकाल लेगा।
तो हम अगर प्रेम में समर्थ हो सकें, तब तो श्रेष्ठतम। अगर न हो सकें, तो फिर अभ्यास की फिक्र करनी चाहिए। फिर योग—साधन हैं। अगर उनमें भी असफल हो जाएं, तो ही तीसरे का प्रयोग करना चाहिए, कि फिर हम कर्म को। क्योंकि वह मजबूरी है। जब कुछ भी न बने, तो आखिरी है।
जैसे पहले आप एलोपैथ डाक्टर के पास जाते हैं। अगर वह असफल हो जाए, फिर होमियोपैथ के पास जाते हैं। वह भी असफल हो जाए तो फिर नेचरोपैथ के पास जाते हैं। वह नेचरोपैथी है, वह आखिरी है। जब कि ऐसा लगे कि अब कुछ होता ही नहीं है; कि ज्यादा से ज्यादा नेचरोपैथ मारेगा और क्या करेगा, तो ठीक है अब। सब हार गए तो अब कहीं भी जाया जा सकता है।
कर्म—योग आखिरी है। क्योंकि उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है उपाय। तो सीधा कर्म—योग से प्रयोग शुरू मत करना, नहीं तो दिक्कत में पड़ जाएंगे। क्योंकि उससे नीचे गिरने की कोई जगह नहीं है।
पहले प्रेम से शुरू करना। अगर हो जाए अदभुत। न हो पाए, तो अभी दो उपाय हैं। अभी दो इलाज बाकी हैं। फिर अभ्यास का प्रयोग करना। और जल्दी मत छोड़ देना। क्योंकि अभ्यास तो वर्षों लेता है। तो वर्षों मेहनत करना। अगर हो जाए तो बेहतर है। अगर न हो पाए, तो फिर कर्म पर उतरना।
और ध्यान रहे, जिसने प्रेम का प्रयोग किया और असफल हुआ, और जिसने योग का अभ्यास किया—अभ्यास किया, मेहनत की—और असफल हुआ, वह कर्म—योग में जरूर सफल हो जाता है। लेकिन जिसने न प्रेम का प्रयोग किया, न असफल हुआ; न जिसने योग साधा, न असफल हुआ; वह कर्म—योग में भी सफल नहीं हो पाता।
वे दो असफलताएं जरूरी हैं तीसरे की सफलता के लिए। क्योंकि फिर वह आखिरी कदम है और जीवन—मृत्यु का सवाल है। फिर आप पूरी ताकत लगा देते हैं। क्योंकि उसके बाद फिर कोई विकल्प नहीं है। इसलिए निकृष्ट से शुरू मत करना।
कई लोग अपने को धोखा देते रहते हैं। वे कहते हैं, हम तो कर्म—योग में लगे हैं! धंधा करते हैं, नौकरी करते हैं। वे कहते हैं, हम तो कर्म—योग में लगे हैं! जैसे कोई भी काम करना कर्म—योग है!
कोई भी काम करना कर्म—योग नहीं है। कर्म—योग का मतलब है, काम आप नहीं कर रहे, परमात्मा कर रहा है, यह भाव। दुकान आप नहीं चला रहे, परमात्मा चला रहा है। और फिर जो भी सफलता—असफलता हो रही है, वह आपकी नहीं हो रही है, परमात्मा की हो रही है। और जिस दिन आप दीवालिया हो जाएं, तो कह देना कि परमात्मा दीवालिया हो गया। और जिस दिन धन बरस पड़े, तो कहना कि उसका ही श्रेय है। मैं नहीं हूं। अपने को हटा लेना और सारा कर्म उस पर छोड़ देना।
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