शनिवार, 14 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 6

पुरूषोत्‍तम की खोज


 द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्‍यते।। 16।।

उत्तम: पुरूषस्‍त्‍वन्य: परमात्मेत्युदाह्वत:।

यो लस्केत्रयमाविश्य बिभर्त्सव्यय ईश्वर:।। 17।।

यस्मात्‍क्षरमर्तोतोऽहमक्षरादीप चोत्तम:।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।। 18।।


हे अर्जुन, हम संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्‍मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है।

तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण—पोषण करता है, एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्‍मा, ऐसे कहा गया है।


क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर, अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं इसलिए लम्बे में और वेद में पुरूषोत्तम नाम मे प्रसिद्ध हूं।


हे अर्जुन, इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण—पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जड्वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।

यह सूत्र पुरुषोत्तम की व्याख्या है। पुरुषोत्तम शब्द हमें परिचित है। लेकिन कृष्ण का अर्थ खयाल में लेने जैसा है।

कृष्ण कह रहे हैं कि तीन स्थितियां हैं। एक विनाशशील जगत है। उस विनाशशील जगत के भीतर छिपा हुआ एक अविनाशी तत्व है। और इस अविनाशी और विनाशी दोनों के पार, दोनों को अतिक्रमण करने वाला एक तीसरा तत्व है।

इसे हम ऐसा कहें शरीर, संसार, आत्मा और परमात्मा। शरीर क्षर है, प्रतिपल विनष्ट हो रहा है, प्रतिपल बह रहा है, परिवर्तन है। शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा अविनाशी है। इन दोनों के पार क्या कहते हैं, मैं हूं; जो पुरुषोत्तम है। ये दो पुरुष, एक क्षर और एक अक्षर, और दोनों के पार मैं हूं।

जो लोग भी दार्शनिक चिंतन करते हैं, उनको सवाल उठता है कि दोनों से काम हो जाता है, तीसरे की क्या जरूरत है? जैनों की यही मान्यता है। वे कहते हैं, संसार है और आत्मा है। बात खतम हो गई। जीव है और अजीव है। क्षर है और अक्षर है। यह तीसरे की क्या जरूरत है! इन दो से काम हो जाता है। दोनों अनुभव के हिस्से हैं। इसलिए जैन विचार द्वैत पर पूरा हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। जैन विचार में इसलिए परमात्मा की कोई जगह नहीं है, क्योंकि तीसरे की कोई जगह नहीं है।

कृष्ण का यह जोर तीसरे के लिए क्यों है, यह समझना जरूरी है। क्योंकि अगर दो ही हैं, तो दोनों बराबर मूल्य के हो जाते हैं। दोनों का संतुलन हो जाता है। जैसे एक तराजू है, उस पर दो पलवे लगे हैं। और अगर एक तीसरा काटा नहीं, जो दोनों का अतिक्रमण करता हो, तो तराजू बिलकुल व्यर्थ हो जाता है।

एक कांटा चाहिए जो दोनों का अतिक्रमण करता है। और चूंकि दोनों के पार है, इसलिए हिसाब भी बता सकता है कि किस तरफ बोझ ज्यादा है और किस तरफ बोझ कम है। तौल संभव हो सकती है।

अगर पदार्थ है और आत्मा है, और इन दोनों के पार कुछ भी नहीं है, तब बडी अड़चन है। क्योंकि तब पदार्थ और आत्मा के बीच न तो कोई जोड्ने वाला है, न कोई तोड्ने वाला है। पदार्थ और आत्मा के बीच जो संघर्ष है, उससे पार जाने का भी उपाय नहीं है। इसलिए जैन चिंतन में एक पहेली सुलझती नहीं। जैन विचारकों से पूछा जाता रहा है कि आत्मा इस संसार में उलझी क्यों? तो उनकी बड़ी कठिनाई है। वे कैसे बताएं कि उलझी। अगर वे कहें कि पदार्थ ने खींच ली, तो पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। और अगर पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली है, तो तुम मुक्त कैसे होओगे?

अगर वे कहते हैं, आत्मा खुद ही खिंच आई अपनी मरजी से, तो सवाल यह उठता है कि कल हम मुक्त भी हो गए, फिर भी आत्मा खिंच आए, तो क्या करेंगे? क्योंकि कभी आत्मा अपने आप खिंच आई बिना किसी कारण के, तो मुक्ति फिर शाश्वत नहीं हो सकती। मोक्ष में भी पहुंचकर क्या भरोसा, दस—पाच दिन में ऊब जाएं और आत्मा फिर खिंच आए! इतनी मेहनत करें—तप, उपवास, तपश्चर्या, ध्यान, साधना—मोक्ष में जाकर पंद्रह दिन में ऊब जाएं, और आत्मा फिर पदार्थ में खिंच आए।

फिर पूछा जाता है, इन दोनों के बीच नियम क्या है? किस नियम से दोनों का मिलना और हटना चलता है?

तीसरे को चूंकि वे स्वीकार नहीं करते, इसलिए बड़ी अड़चन है। और ध्यान रहे, गणित या तर्क की कोई भी चीज उलझ जाएगी, अगर दो के बीच तीसरी न हो। इसलिए हिंदू ईसाई, मुसलमान, दो की जगह त्रैत में विश्वास करते हैं, ट्रिनिटी में, त्रिमूर्ति में।

जहां दो हैं वहा तीसरा भी मौजूद रहेगा। क्योंकि दो को जोड़ना हो, तो तीसरे की जरूरत है; दो को तोड़ना हो तो, तीसरे की जरूरत है। दो के पार जाना हो, तो तीसरे की जरूरत है। दो के बीच जो नियम है, जो शाश्वत व्यवस्था चल रही है, उसके लिए भी तीसरे की जरूरत है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। और गहरे अनुभव से भी यही सिद्ध होता है।

एक तो शरीर है, जो दिखाई पड़ता है हमें। एक हमारा मन है, हमारी तथाकथित चेतना है, जो हमने अभी तक नहीं देखी। लेकिन अगर हम थोड़ा भीतर पीछे हटें और शांत हों, तो हमें मन भी दिखाई पड़ने लगेगा। और जब मन भी दिखाई पड़ेगा, तब हम तीसरे हो जाएंगे। तब एक तो शरीर होगा पदार्थ से निर्मित, और एक मन होगा चेतन कणों से निर्मित, और एक हम होंगे। और यह हमारा होना सिर्फ साक्षी का भाव होगा, द्रष्टा का भाव होगा। हम सिर्फ देखने वाले होंगे। ये दोनों का खेल चल रहा होगा, हम सिर्फ देखने वाले होंगे।

यह जो तीसरा है, यह पुरुषोत्तम है। यह पुरुषोत्तम प्रत्येक में छिपा है। पर्त शरीर की ऊपर है, फिर पर्त मन की ऊपर है। इन दोनों परतों को हम तोड़ दें, तो यह पुरुषोत्तम हमें उपलब्ध हो सकता है। अब हम कृष्ण के सूत्र को खयाल में लें।

इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो कि तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण—पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।

ये तीन परतें दार्शनिक सिद्धात नहीं हैं। ये तीन परतें आपके भीतर अनुभव की परतें हैं। जैसे—जैसे आप भीतर जाएंगे, वैसे—वैसे पर्त उघड़नी शुरू हो जाएगी।

अधिक लोग पहली पर्त पर ही रुके हैं, जो अपने को मान लेते हैं कि मैं शरीर हूं। जिस व्यक्ति ने अपने को मान लिया कि मैं शरीर हूं, वह अपने भीतरी खजानों से अपने ही हाथ से वंचित रह जाता है। उसका तर्क ही गलत नहीं है, उसका पूरा जीवन ही अधूरा अधकचरा हो जाएगा। क्योंकि जो वह हो सकता था, जो उसके बिलकुल हाथ के भीतर था, वह उसने ही द्वार बंद कर दिए। जैसे अपने ही घर के बाहर आप बैठे हैं ताला लगाकर, और कहते हैं कि यही घर है। बाहर की जो छपरी है, उसको घर समझे हुए हैं। पोर्च में जी रहे हैं, उसको घर समझे हुए हैं।

नास्तिक की, शरीरवादी की भूल तार्किक नहीं है, जीवनगत है, एक्सिस्टेंशियल है। और एक दफा आप पक्का जड़ पकड़ लें कि यही मेरा घर है, तो खोज बंद हो जाती है। फिर आप डरते हैं, फिर आप आंख भी नहीं उठाते, फिर प्रयत्न भी नहीं करते।

आस्तिक के साथ संभावना खुलती है। क्योंकि आस्तिक कहता है, तुम जहां हो, उतना ही सब कुछ नहीं है और भीतर जाया जा सकता है। इसलिए नास्तिक बंद हो जाता है। आस्तिक सदा खुला है। और खुला होना शुभ है।

अगर आस्तिक गलत भी हो, तो भी खुला होना शुभ है, क्योंकि खोज हो सकती है। जो छिपा है, उसको हम प्रकट कर सकते हैं। नास्तिक अगर ठीक भी हो, तो भी गलत है, क्योंकि खोज ही बंद हो गई, आदमी जड़ हो गया। उसने मान लिया कि जो मैं हूं बस, यह बात समाप्त हो गई।

जैसे एक बीज समझ ले कि बस, बीज ही सब कुछ है, तो फिर अंकुरण होने का कोई कारण नहीं है। फिर अंकुरित हो, जमीन की पर्त को तोड़े, कष्ट उठाए, आकाश की तरफ उठे, सूरज की यात्रा करे—यह सब बंद हो गया। बीज ने मान लिया कि मैं बीज हूं। जो व्यक्ति मान ले कि मैं शरीर हूं उसने अपने ही हाथ से अपने पैर काट लिए। पोर्च भी हमारा है, लेकिन घर के और भी कक्ष हैं। और जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही सुख, उतनी ही शांति, उतने ही आनंद में प्रवेश होता है। क्योंकि उतने ही हम घर में प्रवेश होते हैं। उतने ही विश्राम में हम प्रवेश होते हैं।

कृष्ण कहते हैं, शरीर, वह क्षर; आत्मा, वह अविनाशी, शरीर के साथ जुड़ा हुआ; और इन दोनों के पार साक्षी— आत्मा है, दोनों से मुक्त।

आत्मा और साक्षी— आत्मा में इतना ही फर्क है। वे दो नहीं हैं। एक ही चेतना की दो अवस्थाएं हैं।

आत्मा का अर्थ है, शरीर से जुड़ी हुई। आत्मा का अर्थ है, जिसे खयाल है मैं का। आत्मा शब्द का भी अर्थ होता है, मैं, अस्मिता। जिस आत्मा को खयाल है शरीर से जुड़े होने का, उसको खयाल होता है मैं का।

शरीर से मैं भिन्न हूं, तो मैं भी खो जाता है। और मैं के खोते ही सिर्फ शुद्ध चैतन्य रह जाता है। वहा यह भी खयाल नहीं है कि मैं हूं। उस शुद्ध चैतन्य का नाम पुरुषोत्तम है।

ये आपके ही जीवन की तीन परतें हैं। और पहली पर्त से तीसरी पर्त तक यात्रा करनी ही सारी आध्यात्मिक खोज और साधना है। और तीसरी का लक्षण है कि वह दोनों के पार है। न तो वह देह है, न वह मन है। न वह पदार्थ है, न अपदार्थ है। वह दो से भिन्न, तीसरा है।



आप अपने भीतर कभी—कभी उसकी झलक पाते हैं। और चेष्टा करें, तो कभी—कभी उसकी झलक आयोजन से भी पा सकते हैं। भोजन कर रहे हैं, तब एक क्षण को देखने की कोशिश करें। भोजन शरीर में जा रहा है, भोजन क्षर है और क्षर में जा रहा है। लेकिन जो उसे शरीर में पहुंचा रहा है, वह आत्मा है। और आत्मा मौजूद न हो, तो शरीर भोजन न तो कर सकेगा, न पचा सकेगा। भूख शरीर में लगती है, लेकिन जिसको पता चलता है, वह आत्मा है। आत्मा न हो, तो शरीर को भूख लगेगी नहीं, पता भी नहीं चलेगी। भूख शरीर में पैदा होती है, लेकिन जिसको एहसास होता है, वह आत्मा है।

भूख, भूख की प्रतीति, ये दो हुए तल। क्या आप तीसरे को भी खोज सकते हैं, जो देख रहा है दोनों को कि शरीर में भूख लगी और आत्मा को भूख का पता चला और मैं दोनों को देख रहा हूं। इस तीसरे की थोड़ी— थोड़ी झलक पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए।

कोई भी अनुभव हो, उसमें तीनों मौजूद रहते हैं। इन तीन के बिना कोई भी अनुभव निर्मित नहीं होता। लेकिन तीसरा छिपा है पीछे। इसलिए अगर आप बहुत संवेदनशील न हों, तो आपको उसका पता नहीं चलेगा। वह गुप्ततम है।

वह जो पुरुषोत्तम है, वह गुप्ततम भी है। जितनी संवेदना आपकी बढ़ेगी, धीरे— धीरे उसकी प्रतीति होनी शुरू होगी।

कोई आदमी आपको गाली दे रहा है। तत्‍क्षण गाली देने वाला और आप गाली सुनने वाले, गाली और आप, दो हो गए। अगर थोड़ी संवेदना को जगाए, तो आपको वह भी भीतर दिखाई पड़ जाएगा जो दोनों को देख रहा है। गाली दी गई, तो गाली भौतिक है; कान पर चोट पड़ी, मस्तिष्क में शब्द घूमे, मस्तिष्क ने व्याख्या की; यह सब भौतिक है। मस्तिष्क ने कहा, यह गाली बुरी है।

व्याख्या की बात है। कभी—कभी गाली अच्छी भी लगती है, जब मित्र देता है। सच में मित्रता की कसौटी यह है कि गाली अच्छी लगे। अगर मित्र एक—दूसरे को गाली न दें, तो समझते हो कि कोई मित्रता में कमी है, मिठास नहीं है।

शत्रु भी गाली देते हैं, वही गाली; मित्र भी गाली देते हैं, वही गाली, शत्रु के मुंह से सुनकर बुरी लगती है, मित्र के मुंह से सुनकर भली लगती है, प्यारी लगती है। अच्छी गालियां भी हैं ही। व्याख्या पर निर्भर है।

शरीर पर चोट पड़ती है, कान पर झंकार जाती है, मस्तिष्क व्याख्या करता है। यह सब भौतिक घटना है। व्याख्या जो करता है, वह चेतना है। इसलिए वहीं गाली भली भी लग सकती है कभी, वही गाली बुरी भी लग सकती है कभी। वह जो व्याख्या करने वाली है, वह चेतना है।

क्या आपके पास कोई तीसरा तत्व भी है, जो दोनों को देख सके? इस घटना को भी देखे, इस बड़े यंत्र की प्रक्रिया को—गाली, कान में जाना, मस्तिष्क में चक्कर, शब्दों का व्याघात, ऊहापोह; फिर आत्मा का अर्थ निकालना। और क्या इनके पीछे दोनों को देख रहा हो कोई, ऐसी कभी आपको प्रतीति होती है? तो वही पुरुषोत्तम है। न प्रतीति होती हो, तो उसकी तलाश करनी चाहिए। और हर अनुभव में क्षणभर रुककर उसकी तरफ खयाल करना चाहिए।

लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि जब भी कोई अनुभव होता है, हम बाहर दौड़ पड़ते हैं। किसी ने गाली दी; व्याख्या की, हम बाहर गए। उस आदमी पर नजर पड़ जाती है, जिसने गाली दी। क्यों दी गाली? या उसको कैसे हम बदला चुकाएं? तो जब हमें भीतर जाना था और तीसरे को खोजना था, तब हम बाहर चले गए। वह क्षणभर का मौका था, खो गया। रोज ऐसे अवसर खो जाते हैं।

तो जब भी आपके भीतर कोई घटना घटे, बाहर न दौड़कर भीतर दौड़ने की फिक्र करें। तत्‍क्षण! ध्यान बाहर न जाए, भीतर चला जाए। और भीतर अगर ध्यान जाए, तो आप पाएंगे साक्षी को खड़ा हुआ। और अगर साक्षी आपके खयाल में आ जाए, तो पूरी स्थिति बदल जाएगी, पूरी स्थिति का अर्थ बदल जाएगा।

किसी ने गाली दी हो, आत्मा व्याख्या करती है कि बुरा है या भला है, कोई प्रतिक्रिया करती है। अगर उसी वक्त तीसरा भी दिखाई पड़ जाए, तो भी आत्मा फिर व्याख्या करेगी। अब यह तीसरे की व्याख्या करेगी जो भीतर छिपा है। और हो सकता है, आपको हंसी आ जाए। शायद आप खिलखिलाकर हंस पड़े।

वह जो बाहर गाली आई थी, वह भी मस्तिष्क में आई, उसकी व्याख्या आत्मा ने की। फिर आपने पीछे लौटकर देखा और साक्षी का अनुभव हुआ, यह भी अनुभव मस्तिष्क में आएगा और आत्मा इसकी भी व्याख्या करेगी।

अगर आपको साक्षी दिखाई पड़ जाए, तो आपकी मुस्कुराहट धीरे— धीरे सतत हो जाएगी। हर अनुभव में आप हंस सकेंगे। क्योंकि हर अनुभव लीला मालूम पड़ेगा। और हर अनुभव एक गहरी मजाक भी मालूम पड़ेगी कि यह क्या चल रहा है! क्या हो रहा है! और इतनी क्षुद्र बातों को मैं इतना मूल्य क्यों दे रहा हूं! मैंने सुना है कि एक स्त्री ने अपने घर के भीतर झांककर अपने पति को कहा कि बाहर एक आदमी पड़ा है। पागल मालूम होता है। सामने सड़क पर लेटा है। पति ने भीतर से ही पूछा, लेकिन उसे पागल कहने का क्या कारण है? पत्नी ने कहा, पागल कहने का कारण यह है कि एक केले के छिलके पर फिसलकर वह गिर पड़ा है। उठ नहीं रहा है, केले को पड़ा—पड़ा गाली दे रहा है।

कोई भी सामान्य आदमी होता, तो पहला काम वह यह करता है कि किसी ने देख तो नहीं लिया! कपड़े झाड़कर, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। केले को गाली भी देगा, तो भीतर और बाद में।

पत्नी ने कहा, आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है। लेटा है वहीं, जहां गिर गया है; और सामने केले का छिलका पड़ा है, उसको गाली दे रहा है!

पति ने कहा, एक बात तय है, पागल हो या न हो, सामान्य नहीं है। मैं आया। वह बाहर जाकर देख रहा है। वह आदमी गाली भी दे रहा है, मुस्कुरा भी रहा है। तो उसने आदमी को पूछा कि यह क्या कर रहे हो? उसने कहा, बाधा मत दो।

वह एक सूफी फकीर था। वह केले पर से गिर पड़ा है। एक घटना घटी, एक भौतिक घटना। उसके मस्तिष्क में खबर पहुंची, जो सामान्य आदमी के सभी के पहुंचेगी। और जो केले पर नाराजगी आएगी, वह भी आई। लेकिन वहां से भागा नहीं वह। क्योंकि वह चूक जाएगा क्षण। वह वहीं लेट गया। क्योंकि यह मौका खो देने जैसा नहीं है।

एक केले का छिलका क्या कर रहा है? भीतर क्या हो रहा है? तो मस्तिष्क जो भी करना चाहता है, वह गाली भी दे रहा है। लेकिन एक तीसरी घटना वहा घट रही है। वह इन दोनों को देख भी रहा है, अपनी इस पागलपन की अवस्था को, इस पड़े हुए छिलके को। इस पूरी घटना में वह पीछे है, और धीमे—धीमे मुस्कुरा भी रहा है। इसलिए अक्सर संत पागल भी मालूम पड़ सकते हैं। एक बात तो पक्की है कि वे सामान्य नहीं हैं। एबनार्मल तो हैं ही। असाधारण तो हैं ही। क्योंकि आप यह नहीं कर सकेंगे। मगर अगर कर सकें, तो जो हंसी आएगी भीतर से........।

आप कभी एक बात को सोचते हैं कि जब दूसरा आदमी कुछ करता है, उसमें आपको हंसी आती है। जैसे एक आदमी केले के छिलके से फिसला और गिर पड़ा। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसको देखकर हंसी न आ जाए। अगर दूसरे को देखकर आपको इतनी हंसी आती है, कभी आपने खुद फिसलकर गिरकर और फिर हंसकर देखा? तब आपको तीसरे तत्व का थोड़ा—सा अनुभव होगा। क्योंकि उस वक्त गिरने वाले आप होंगे, गिरने वाले की जो प्रतिक्रिया है, वह भी आप होंगे, और देखने वाले भी आप होंगे। दूसरे को गिरते देखकर आप हंसते हैं, क्योंकि स्थिति पूरी की पूरी मजाक जैसी मालूम पड़ती है। पर कभी आपने इस पर विचार किया है कि ऐसा होता क्यों है? आखिर केले में, उसके छिलके पर से गिर जाने में ऐसा क्या कारण है जिससे हंसी आती है? इसमें हंसने योग्य क्या है?

मनोवैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं। क्योंकि इसमें हंसी सभी को आती है, सारी दुनिया में आती है। इसका कारण क्या है? इसमें ऐसी कौन—सी बात है जिसको देखकर हंसी आती है?

मेरी जो दृष्टि है, मुझे जो कारण दिखाई पड़ता है, वह यह है कि आदमी के अहंकार को केले का छिलका भी गिरा देता है, उसे देखकर हंसी आती है।

वह आदमी अकड़कर चला जा रहा था, हैट—वैट लगाए था, टाई वगैरह सब। ऐसा बिलकुल शक्तिशाली आदमी, अचानक एक केले का छिलका उसको जमीन पर चारों खाने चित्त कर देता है। उसकी सब सामर्थ्य खो जाती है। अकड़ खो जाती है। क्षणभर में पाता है कि दीन है, सड़क पर पड़ा है। इस दीनता से एकदम हंसी आती है। आदमी की इस असहाय अवस्था पर। उसके अकड़पन की स्थिति और फिर एकदम जमीन पर पड़े होने में इतना अंतराल है, इतना फर्क है, कि यह आप पहचान ही नहीं सकते थे कि यह आदमी केले के छिलके से गिरने वाला है। गिरने वाला नहीं है। यह सम्राट हो सकता है।

इसलिए आप खयाल रखें, अगर एक भिखारी गिरेगा, कम हंसी आएगी। अगर एक सम्राट गिरेगा, ज्यादा हंसी आएगी। आप सोचें, एक भिखारी गिर पड़े, आप कहेंगे, ठीक है। एक छोटा बच्चा गिरेगा, तो शायद हंसी न भी आए। क्योंकि बच्चे को हम समझते हैं, बच्चा ही है, इसकी अकड़ ही क्या है अभी! लेकिन अगर एक सम्राट गिरेगा, तो आप बिलकुल पागल हो जाएंगे हंस—हंसकर।

जिस—जिस स्थिति में हंसी आती है आपको देखकर, कभी—कभी उस स्थिति में अपने को देखें। तब भी एक हंसी आएगी; और वह हंसी ध्यान बन जाएगी; और उस हंसी से आपको साक्षी की झलक मिलेगी।

कोई भी अनुभव हो, तीसरे को पकड़ने की कोशिश करें। पुरुषोत्तम की तलाश जारी रखें। और हर अनुभव में वह मौजूद है। इसलिए न मिले, तो समझना कि अपनी ही कोई भूल—चूक है। मिलना चाहिए ही। क्षुद्र अनुभव हो कि बड़ा अनुभव हो, कैसा भी अनुभव हो, पुरुषोत्तम भीतर खड़ा है।

जैसे ही किसी को भीतर के पुरुषोत्तम का स्वर सुनाई पड़ता है, फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। वह पा लेना सब पा लेना है। लेकिन उसकी तलाश करनी होगी। पास ही है बहुत, फिर भी खोदना पड़ेगा। और जितनी त्वरा से खोदेंगे, जितनी तीव्रता से, उतना ही निकट उसे पाएंगे। अगर तीव्रता परिपूर्ण हो, सौ प्रतिशत हो, तो बिना खोदे भी मिल सकता है।

धीरे— धीरे बेमन से खोदेगे, तो बहुत दूर है। ऐसे ही खोदेंगे कि चलो देख लें, शायद हो, कभी न मिलेगा। क्योंकि खोदने की भावना क्या है, इस पर सब निर्भर है। अगर कोई तीव्रता से, पूर्ण तीव्रता से चाहे, तो किसी भी क्षण उसके द्वार खुल जाते हैं।

और हमें अगर जन्मों—जन्मों से नहीं मिला पुरुषोत्तम, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह दूर है। उसका एक कारण है कि एक तो हमने खोजा ही नहीं। कभी खोजा भी, तो बेमन से खोजा। कभी गहरी प्यास से न पुकारा। कभी पुकारा भी, तो ऐसा कि लोगों को दिखाने के लिए पुकारा। प्रार्थना भी की, तो वह हार्दिक न थी; ऊपर—ऊपर थी, शब्दों की थी।

अगर इतना स्मरण रहे, तो उसे किसी भी क्षण पाया जा सकता है। हाथ बढ़ाने भर की बात है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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