मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 12 भाग 9

 भक्‍ति और स्‍त्रैण गुण


वो न ह्रष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।

शुभाशुभयीरत्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:।। 17।।

सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानायमानयो:।

शीतोष्णसुखदुःखेषु सम: संगविवर्जित:।। 18।।


और जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है।

और जो पुरूष शत्रु—मित्र में और मान—अपमान में सम तथा सर्दी—गर्मी और सुख—दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है, वह मेरे को प्रिय है।


और जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच—चिंता करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। और जो पुरुष शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है तथा सर्दी—गर्मी और सुख—दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है, वह मुझको प्रिय है।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच करता है, न कामना करता है; जो शुभ—अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है।

क्या है इसका अर्थ? आप सोचकर थोड़े हैरान होंगे कि जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है। क्या प्रसन्न होना भी बाधा है? क्या हर्षित होना भी बाधा है? कृष्ण के वचन से लगता है। थोड़ा इसके मनोविज्ञान में प्रवेश करना पड़े।

आप हंसते क्यों हैं? कभी आपने सोचा? क्या आप इसलिए हंसते हैं कि आप प्रसन्न हैं? या आप इसलिए हंसते हैं कि आप दुखी हैं?

उलटा लगेगा, लेकिन आप हंसते इसलिए हैं, क्योंकि आप दुखी हैं। दुख के कारण आप हंसते हैं। हंसना आपका दुख भुलाने का उपाय है। हंसना एंटीडोट है, उससे दुख विस्मृत होता है। आप दूसरे पहलू पर घूम जाते हैं। आपके भीतर बड़ा तनाव है। हंस लेते हैं, वह तनाव बिखर जाता है और निकल जाता है।

इसलिए आप यह मत समझना कि बहुत हंसने वाले लोग, बहुत प्रसन्न लोग हैं। संभावना उलटी है। संभावना यह है कि वे भीतर बहुत दुखी हैं।

दुखी लोग अक्सर हंसते रहते हैं। कुछ भी मजाक खोज लेंगे, कुछ बात खोज लेंगे और हंस लेंगे। हंसने से थोड़ा हलकापन आ जाता है। लेकिन अगर कोई आदमी भीतर से बिलकुल दुखी न रहा हो, तो फिर हर्षित होने की यह व्यवस्था तो टूट जाएगी। जब भीतर से दुख ही चला गया हो, तो यह जो हंसी थी, यह जो हर्षित होना था, यह तो समाप्त हो जाएगा, यह तो नहीं बचेगा।

इसका यह मतलब नहीं है कि वह अप्रसन्न रहेगा। पर उसकी प्रसन्नता का गुण और होगा। उसकी प्रसन्नता किसी दुख का विरोध न होगी। उसकी प्रसन्नता किसी दुख में आधारित न होगी। उसकी प्रसन्नता सहज होगी, अकारण होगी।

आपकी प्रसन्नता सकारण होती है। भीतर तो दुख रहता है, फिर कोई कारण उपस्थित हो जाता है, तो आप थोड़ा हंस लेते हैं। लेकिन उसकी प्रसन्नता अकारण होगी। वह हंसेगा नहीं। अगर इसे हम ऐसा कहें कि वह हंसता हुआ ही रहेगा, तो शायद बात समझ में आ जाए। वह हंसेगा नहीं, वह हंसता हुआ ही रहेगा। उसे पता ही नहीं चलेगा कि वह कब हर्षित हो रहा है। क्योंकि वह कभी दुखी नहीं होता। इसलिए भेद उसे पता भी नहीं रहेगा।

कृष्ण का चेहरा ऐसा नहीं लगता कि वे उदास हों। उनकी बांसुरी बजती ही रहती है। लेकिन हमारे जैसा हर्ष नहीं है। हमारा हर्ष रुग्ण है। हम हंसते भी हैं, तो वह रोग से भरा हुआ है, पैथालाजिकल है। उसके भीतर दुख छिपा हुआ है, हिंसा छिपी हुई है, तनाव छिपे हुए हैं। वे उसमें प्रकट होते हैं।

कृष्‍ण का हंसना — सहज आनंद का भाव है। उसे हम ऐसा समझें कि सुबह जब सूरज नहीं निकला होता है, रात चली गई होती है और सूरज अभी नहीं निकला होता है, तो जो प्रकाश होता है। आलोक, सुबह के भोर का आलोक। ठंडा, कोई तेजी नहीं है। अंधेरे के विपरीत भी नहीं है, अभी प्रकाश भी नहीं है। अभी बीच में संध्या में है। कृष्ण जैसे लोग, बुद्ध जैसे लोगों की प्रसन्नता आलोक जैसी है। दुख नहीं है; सुख नहीं है, दोनों, के बीच में संध्या है।

तो कृष्ण कहते हैं, जो न कभी हर्षित होता है.......।

कभी! कभी तो वही हर्षित होगा, जो बीच—बीच में दुखी हो, नहीं तो कभी का कोई मतलब नहीं है।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है..।

क्योंकि सब दुखों का कारण द्वेष है। और जो द्वेष करता है, वह दुखी होगा।

आपको पता है, आपके दुख का कारण आपके दुख कम और दूसरों के सुख ज्यादा हैं! आपका मकान हो सकता है काफी हो आपके लिए, लेकिन पड़ोस में एक बड़ा मकान बन गया, अब दुख शुरू हो गया।

आपके अधिक दुख आपके दुख नहीं हैं, आपके अधिक दुख दूसरों के सुख हैं। और इससे उलटी बात भी आप समझ लेना। आपके अधिक सुख भी आपके सुख नहीं हैं, दूसरे लोगों के दुख हैं। जब आप किसी का मकान छोटा कर लेते हैं, तब सुखी होते हैं। आपको अपने मकान से सुख नहीं मिलता। और जब कोई आपका मकान छोटा कर देता है, तो दुखी होते हैं। आपको अपने मकान से न दुख मिलता है, न सुख। दूसरों के मकान! द्वेष, ईर्ष्या......।

कृष्ण कहते हैं, न जो द्वेष करता है, न हर्षित होता है, न चिंता करता है..।

चिंता क्या है? क्या है चिंता हमारे भीतर? जो हो चुका है, उसको जुगाली करते रहते हैं। आदमी की खोपड़ी को खोलें, तो वह जुगाली कर रहा है। सालों पुरानी बातें जुगाली कर रहा है, कि कभी ऐसा हुआ, कभी वैसा हुआ।





जो अब नहीं है, उसको आप क्यों ढो रहे हैं? या भविष्य की फिक्र कर रहा है, जो अभी है नहीं। या तो अतीत की फिक्र कर रहा है, जो जा चुका। या भविष्य की फिक्र कर रहा है, जो अभी आया नहीं। और जो अभी, यहीं है, वर्तमान, उसे खो रहा है इस चिंता में। और परमात्मा अभी है, यहां। और आप या तो अतीत में हैं या भविष्य में। यह चिंता प्राण ले लेती है। यही चुका देती है।

तो कृष्ण कहते हैं, जो चिंता नहीं करता...। चिंता का मतलब यह कि जो शांत है; यहीं है, न अतीत में उलझा है, न भविष्य में। वर्तमान के क्षण में जो है, निश्चित, चिंतनशून्य, विचारमुक्त।

वर्तमान में कोई विचार नहीं है। सब विचार अतीत के हैं या भविष्य के हैं। और भविष्य कुछ भी नहीं है, अतीत का ही प्रक्षेपण है। और हम इसी में डूबे हुए हैं। या तो आप पीछे की तरफ चले गए हैं या आगे की तरफ। यहां! यहां आप बिलकुल नहीं हैं। और यहीं है परमात्मा, इसलिए आपका मिलन नहीं हो पाता।

कृष्ण कहते हैं, न जो चिंता करता है, न कामना करता है, और शुभ—अशुभ कर्मों के फल का त्यागी है। और जिसने सब शुभ—अशुभ कर्म परमात्मा पर छोड़ दिए कि तू करवाता है। वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है।

जो पुरुष शत्रु और मित्र में, मान—अपमान में सम है, सर्दी—गर्मी में, सुख—दुख में सम है, आसक्ति से रहित है, वह पुरुष मुझे प्रिय है। जो सम है, जो डोलता नहीं है एक से दूसरे पर। हम निरंतर डोलते हैं। जिसको आप प्रेम करते हैं, उसी को घृणा भी करते हैं। सुबह प्रेम करते हैं, सांझ घृणा करते हैं। जिसको आप सुंदर मानते हैं, उसी को कुरूप भी मानते हैं। सांझ सुंदर मानते हैं, सुबह कुरूप मान लेते हैं। जो अच्छा लगता है, वही आपको बुरा भी लगता है। और चौबीस घंटे आप इसी में डोलते रहते हैं द्वंद्व में, घड़ी के पेंडुलम की तरह, बाएं से दाएं दाएं से बाएं। यह जो डोलता हुआ मन है, विषम, यह मन उपलब्ध नहीं हो पाता अस्तित्व की गहराई को।

कृष्ण कहते हैं, जो सम है। सुख आ जाए तो भी विचलित नहीं होता। दुख आ जाए तो भी विचलित नहीं होता।

आदमी, सुख हो या दुख, जब भी कुछ तीव्र होता है, तो विचलित हो जाता है। सम का अर्थ है, जो विचलित नहीं होता। जो भी आता है, उसे ले लेता है, कि ठीक है, आया, चला जाएगा। सुबह आई, सांझ आई, अंधेरा आया, प्रकाश आया, सुख—दुख आया, मित्र—शत्रु—ले लेता है चुपचाप और अलिप्त दूर खड़ा देखता रहता है।

ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे प्रिय है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल



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